विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha Hindi PDF Download Free

विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha PDF Download Free in this Post from Google Drive Link and Telegram Link , शंकर / Sankar all Hindi PDF Books Download Free, विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha PDF in Hindi, विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha Summary, विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha book Review

पुस्तक का विवरण (Description of Book विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha PDF Download) :-

नाम : विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha Book PDF Download
लेखक :
आकार : 2.8 MB
कुल पृष्ठ : 258
श्रेणी : आत्मकथा / Autobiographyजीवनी / Biography
भाषा : हिंदी | Hindi
Download Link Working

[adinserter block=”1″]
स्वामी विवेकानंद नवजागरण के पुरोधा थे। उनका चमत्कृत कर देनेवाला व्यक्‍तित्व, उनकी वाक‍्‍शैली और उनके ज्ञान ने भारतीय अध्यात्म एवं मानव-दर्शन को नए आयाम दिए। मोक्ष की आकांक्षा से गृह-त्याग करनेवाले विवेकानंद ने व्यक्‍तिगत इच्छाओं को तिलांजलि देकर दीन-दुःखी और दरिद्र-नारायण की सेवा का व्रत ले लिया। उन्होंने पाखंड और आडंबरों का खंडन कर धर्म की सर्वमान्य व्याख्या प्रस्तुत की। इतना ही नहीं, दीन-हीन और गुलाम भारत को विश्‍वगुरु के सिंहासन पर विराजमान किया। ऐसे प्रखर तेजस्वी, आध्यात्मिक शिखर पुरुष की जीवन-गाथा उनकी अपनी जुबानी प्रस्तुत की है प्रसिद्ध बँगला लेखक श्री शंकर ने। अद‍्भुत प्रवाह और संयोजन के कारण यह आत्मकथा पठनीय तो है ही, प्रेरक और अनुकरणीय भी है।

[adinserter block=”1″]

Swami Vivekananda was the father of Renaissance. His charismatic personality, his oratory and his knowledge gave new dimensions to Indian spirituality and human philosophy. Vivekananda, who renounced his home with the aspiration of salvation, renounced his personal desires and took a vow to serve the poor and the poor-Narayan. Refuting hypocrisy and hypocrisy, he presented a universal explanation of religion. Not only this, he made the poor and slave India sit on the throne of Vishwaguru. The life-story of such a bright, spiritual peak man has been presented in his own words by the famous Bengali writer Shri Shankar. Due to the amazing flow and combination, this autobiography is not only readable, it is also inspiring and exemplary.

विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha PDF Download Free in this Post from Telegram Link and Google Drive Link , शंकर / Sankar all Hindi PDF Books Download Free, विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha PDF in Hindi, विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha Summary, विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha book Review

[adinserter block=”1″]

पुस्तक का कुछ अंश (विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha PDF Download)

अनुक्रम

  1. प्राक्कथन
  2. मेरा बचपन
  3. श्रीरामकृष्ण से परिचय
  4. श्रीरामकृष्ण ही मेरे प्रभु
  5. आदि मठ बरानगर और मेरा परिव्राजक जीवन
  6. पारिवारिक मामले की विडंबना
  7. कुछ चिट्ठियाँ, कुछ बातचीत
  8. परिव्राजक का भारत-दर्शन
  9. विदेश यात्रा की तैयारी
  10. दैव आह्वान और विश्व धर्म सभा
  11. अमेरिका की राह में
  12. अब अमेरिका की ओर
  13. शिकागो, 2 अक्तूबर, 1893
  14. धर्म महासभा में
  15. घटनाओं की घनघटा
  16. संग्राम संवाद
  17. भारत वापसी
  18. इस देश में मैं क्या करना चाहता हूँ
  19. पश्चिम में दूसरी बार
  20. फ्रांस
  21. मैं विश्वास करता हूँ
  22. विदा वेला की वाणी
  23. सखा के प्रति
  24. परिशिष्ट
  25. मंतव्यावली
  26. तथ्य सूत्र

[adinserter block=”1″]

मेरा बचपन

संन्यासी का जन्म बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के लिए होता है। दूसरों के लिए प्राण देने, जीवों के गगनभेदी क्रंदन का निवारण करने, विधवाओं के आँसू पोंछने, पुत्र-वियोग-विधुरा के प्राणों को शांति प्रदान करने, अज्ञ अधम लोगों को जीवन-संग्राम के उपयोगी बनाने, शास्त्रोपदेश-विस्तार के द्वारा सभी लोगों के ऐहिक-पारमार्थिक मंगल करने और ज्ञानालोक द्वारा सबमें प्रस्तुत ब्रह्म-सिंह को जाग्रत करने के लिए ही संन्यासियों का जन्म हुआ है।
‘आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च’ हमारा जन्म हुआ है।’
मेरे जन्म के लिए मेरे पिता-माता ने साल-दर-साल कितनी पूजा-अर्चना और उपवास किया था।
मैं जानता हूँ, मेरे जन्म से पहले मेरी माँ व्रत-उपवास किया करती थीं, प्रार्थना किया करती थीं—और भी हजारों ऐसे कार्य किया करती थीं, जो मैं पाँच मिनट भी नहीं कर सकता। दो वर्षों तक उन्होंने यही सब किया। मुझमें जितनी भी धार्मिक संस्कृति मौजूद है, उसके लिए मैं अपनी माँ का कृतज्ञ हूँ। आज मैं जो बना हूँ, उसके लिए मेरी माँ ही सचेतन भाव से मुझे इस धरती पर लाई हैं। मुझमें जितना भी आवेश मौजूद है, वह मेरी माँ का ही दान है और यह सारा कुछ सचेतन भाव से है, इसमें बूँदभर भी अचेतन भाव नहीं है।
मेरी माँ ने मुझे जो प्यार-ममता दी है, उसी के बल पर ही मेरे वर्तमान के ‘मैं’ की सृष्टि हुई है। उनका यह कर्ज मैं किसी दिन भी चुका नहीं पाऊँगा।

[adinserter block=”1″]

जाने कितनी ही बार मैंने देखा है कि मेरे माँ सुबह का आहार दोपहर दो बजे ग्रहण करती हैं। हम सब सुबह दस बजे खाते थे और वे दोपहर दो बजे। इस बीच उन्हें हजारों काम करने पड़ते थे। यथा, कोई आकर दरवाजा खटखटाता—अतिथि! उधर मेरी माँ के आहार के अलावा रसोई में और कोई आहार नहीं होता था। वे स्वेच्छा से अपना आहार अतिथि को दे देती थीं। बाद में अपने लिए कुछ जुटा लेने की कोशिश करती थीं। ऐसा था उनका दैनिक जीवन और यह उन्हें पसंद भी था। इसी वजह से हम सब माताओं की देवी-रूप में पूजा करते हैं।
मुझे भी एक ऐसी ही घटना याद है। जब मैं दो वर्ष का था, अपने सईस के साथ कौपीनधारी वैरागी बनाकर खेला करता था। अगर कोई साधु भीख माँगता हुआ आ जाता था तो घरवाले ऊपरवाले कमरे में ले जाकर मुझे बंद कर देते थे और बाहर से दरवाजे की कुंडी लगा देते थे। वे लोग इस डर से मुझे कमरे में बंद कर देते थे कि कहीं मैं उसे बहुत कुछ न दे डालूँ।
मैं भी मन-प्राण से महसूस करता था कि मैं भी इसी तरह साधु था। किसी अपराधवश भगवान् शिव के सामीप्य से विताडि़त कर दिया गया। वैसे मेरे घरवालों ने भी मेरी इस धारणा को और पुख्ता कर दिया था। जब कभी मैं कोई शरारत करता, वे लोग कह उठते थे—‘हाय, हाय! इतना जप-तप करने के बाद अंत में शिवजी ने कोई पुण्यात्मा भेजने के बजाय हमारे पास इस भूत को भेज दिया।’ या जब मैं बहुत ज्यादा हुड़दंग मचाता था, वे लोग ‘शिव! शिव’ का जाप करते हुए मेरे सिर पर बालटी भर पानी उडे़ल देते थे। मैं तत्काल शांत हो जाता था। कभी इसकी अन्यथा नहीं होती थी। आज भी जब मेरे मन में कोई शरारत जागती है, यह बात मुझे याद आ जाती है और मैं उसी पल शांत हो जाता हूँ। मैं मन-ही-मन बुदबुदा उठता हूँ—‘ना, ना! अब और॒नहीं।’
बचपन में जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तब एक सहपाठी के साथ जाने किस मिठाई को लेकर छीना-झपटी हो गई। उसके बदन में मुझसे ज्यादा ताकत थी, इसलिए उसने वह मिठाई मेरे हाथों से छीन ली। उस वक्त मेरे जो मनोभाव थे, वह मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। मुझे लगा कि उस जैसा दुष्ट लड़का दुनिया में अब तक कोई पैदा ही नहीं हुआ। जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, मुझमें बहुत ज्यादा ताकत भर जाएगी, तब मैं उसको सबक सिखाऊँगा, उसे हरा दूँगा। मैंने सोचा कि वह इतना दुष्ट है कि उसके लिए कोई भी सजा काफी नहीं होगी। उसे तो फाँसी दे देनी चाहिए। उसके तो टुकडे़-टुकड़े कर देना चाहिए। यथासमय हम दोनों ही बड़े हुए, और हम दोनों में अब काफी घनिष्ठ दोस्ती है। इस तरह यह समग्र विश्व शिशुतुल्य इनसानों से भरा पड़ा है—खाना और उपयोगी खाना ही उन लोगों के लिए सर्वस्व है। इससे जरा भी इधर-उधर हुआ नहीं कि सर्वनाश! उन जैसे लोग सिर्फ अच्छी मिठाइयों के सपने देखते हैं और भविष्य के बारे में उन लोगों की यही धारणा है कि हमेशा, हर कहीं प्रचुर मिठाइयाँ मौजूद रहेंगी।[adinserter block=”1″]

रायपुर जाते हुए जंगल के बीच से गुजरते हुए मैंने देखा था और महसूस भी किया था। एक बेहद खास घटना मेरी यादों के चित्रपट पर हमेशा अंकित हो गई। उस दिन हमें पैदल चलते-चलते विंध्य पर्वत के नीचे से गुजरना पड़ा था। रास्ते के दोनों तरफ के पर्वत-शृंग आसमान छूते हुए खड़े थे! तरह-तरह के सैकड़ों पेड़, लताएँ, फल-फूलों के समारोह-से झुके-झुके पर्वत-पृष्ठ की शोभा बढ़ा रहे थे, अपने मधुर कलरव से दिशा-दिशाओं को गुँजाते हुए सैकड़ों रंग-बिरंगे पंछी कुंज-कुंज में फुदक-फुदककर आ-जा रहे थे या आहार खोजते हुए कभी-कभी धरती पर अवतरण कर रहे थे। वह समस्त दृश्य देखते-देखते मन-ही-मन मैं अपूर्व शांति महसूस कर रहा था। धीर-मंथर चाल में चलती हुई बैलगाडि़याँ धीरे-धीरे एक ऐसी जगह उपस्थित हुईं, जहाँ दो पर्वत-शृंग मानो प्रेम में आकृष्ट होकर शीर्ण वनपथ को बंद किए दे रहे थे। उस मिलन-बिंदु को विशेष भाव से निरखते हुए मैंने देखा, एक तरफ के पर्वत-गात पर बिलकुल तलहटी तक एक विशाल दरार मौजूद हैं और उस दरार में मधुमक्खियों के युग-युगांतरों के परिश्रम के निदर्शन स्वरूप एक प्रकांड आकार का छत्ता झूल रहा था। मैं परम विस्मय-विमुग्ध होकर मधुमक्खियों के साम्राज्य के आदि-अंत के बारे में सोचते-सोचते त्रिलोक नियंता ईश्वर की अनंत शक्ति की उपलब्धि में मेरा मन कुछ इस तरह से डूब गया कि कुछेक पलों के लिए बाहरी संज्ञा मानो लुप्त हो गई। कितनी देर तक मैं उन्हीं खयालों में डूबा बैलगाड़ी में पड़ा रहा, मुझे याद नहीं। जब चेतना लौटी तो मैंने देखा कि वह जगह पार करके मैं काफी दूर आ गया हूँ। चूँकि बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए इस बारे में कोई जान नहीं पाया।
वैसे इस जगत् में यथेष्ट दुःख भी विद्यमान है, हम इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते। अस्तु, हम सब जितना भी काम करते हैं, उसमें दूसरों की सहायता करना ही सबसे भला काम है। अंत में हम यही देखेंगे कि दूसरों की सहायता करने का अर्थ है अपना ही उपकार करना। बचपन में मेरे पास कुछ सफेद चूहे थे। वे सब एक छोटी सी पेटिका में जमा थे। उस पेटिका में छोटे-छोटे पहिए लगे हुए थे। वे चूहे जैसे ही पहिए के ऊपर से पार करने की कोशिश करते थे, वे पहिए घूमने लगते थे, बस, चूहे आगे नहीं बढ़ पाते थे। यह जगत् और उसकी सहायता करना भी बिलकुल ऐसा ही है। इससे उपकार यह होता है कि हमें कुछ नैतिक शिक्षा मिल जाती है।
जब मेरे शिक्षक घर आते थे तो मैं अपनी अंग्रेजी, बँगला की पाठ्य-पुस्तकें उनके सामने लाकर रख देता था। किस किताब से, कहाँ-से-कहाँ तक रट्टा लगाना होगा, यह उन्हें दिखा देता था। उसके बाद अपने खयालों में डूबा लेटा रहता था या बैठा रहता था। मास्टर साहब मानो खुद ही पाठ्याभ्यास कर रहे हों, इसी मुद्रा में वे उन किताबों के उन पृष्ठों के शब्दों की बनावट, उच्चारण और अर्थ वगैरह की दो-तीन बार आवृत्ति करते और चले जाते। बस, इतने से ही मुझे वे सब विषय याद हो जाते थे।[adinserter block=”1″]

प्राइमरी स्कूल में थोड़ी-बहुत गणित, कुछ संस्कृत-व्याकरण, थोड़ी सी भाषा और हिसाब की शिक्षा दी जाती थी।
बचपन में एक बूढे़ सज्जन ने हमें नीति के बारे में एक छोटी सी किताब बिलकुल रटा डाली थी। उस किताब का एक श्लोक मुझे अभी भी याद है—‘गाँव के लिए परिवार, स्वदेश के लिए गाँव, मानवता के लिए स्वदेश और जगत् के लिए सर्वस्व त्याग कर देना चाहिए।’ उस किताब में ऐसे ढेरों श्लोक थे। हम सब वे सभी श्लोक रट लेते थे और शिक्षक उनकी व्याख्या कर देते थे। बाद में छात्र भी उनकी व्याख्या करते थे।
जो कविता स्कूल में हमें शुरू-शुरू में सिखाई गई, वह थी—‘जो मनुष्य सकल नारियों में अपनी माँ को देखता है, सकल मनुष्यों की विषय-संपत्ति को धूल के ढेर समान देखता है, जो समग्र प्राणियों में अपनी आत्मा को देख पाता है, वही प्रकृत ज्ञानी होता है।’
कलकत्ता में स्कूल में पढ़ाई के समय से मेरी प्रकृति धर्म-प्रवण थी। लेकिन सभी चीजों की तत्काल जाँच-परख कर लेना मेरा स्वभाव था, सिर्फ बातचीत से मुझे तृप्ति नहीं होती थी।
सोने के लिए आँखें मूँदते वक्त मुझे अपनी भौंहों के बीच एक अपूर्व ज्योतिर्बिंदु दिखाई देती थी और अपने मन में तरह-तरह के परिवर्तन भी महसूस करता था। देखने में सुविधा के लिए, इसलिए लोग जिस मुद्रा में जमीन पर मत्था टेककर प्रणाम करते हैं, मैं उसी तरह शयन करता था। वह अपूर्व बिंदु तरह-तरह के रंग बदलते हुए और दीर्घतर आकार में बढ़ते-बढ़ते धीरे-धीरे बिंब के आकार में परिणत हो जाती और अंत में एक विस्फोट होता था तथा आपादमस्तक शुभ-तरल ज्योति मुझे आवृत कर लेती थी। ऐसा होते ही मेरी चेतना लुप्त हो जाती थी और मैं निद्राभिभूत हो जाता था।
यह धारणा मेरे मन में घर कर गई थी कि सभी लोग इसी तरह सोते हैं। दीर्घ समय तक मुझे यही गलतफहमी थी। बड़े होने के बाद, जब मैंने ध्यान-अभ्यास शुरू किया, तब आँखें मूँदते ही सबसे पहले वही ज्योतिर्बिंदु मेरे सामने उभर आती और मैं उसी बिंदु पर अपना चित्त एकाग्र करता था। महर्षि देवेंद्रनाथ की सलाह पर जब मैंने चंद हमउम्र साथियों के साथ नित्य ध्यान-अभ्यास शुरू किया, तब ध्यान में किसे, किस प्रकार का दर्शन और उपलब्धि होती है, इस बारे में हम आपस में बातचीत भी करते थे। उन दिनों उनकी बातें सुनकर मैं समझ गया कि उस प्रकार का ज्योति-दर्शन उनमें से किसी को नहीं हुआ और उनमें से कोई भी औंधे मुँह नहीं सोता था।[adinserter block=”1″]

बचपन में मैं अतिशय हुड़दंगी और खुराफाती था, वरना साथ में कानी कौड़ी लिए बिना मैं समूची दुनिया की यूँ सैर कर पाता?
जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तभी एक रात कमरे का दरवाजा बंद करके ध्यान करते-करते एकदम से तल्लीन हो गया। कितनी देर तक मैं उस तरह बेसुध ध्यान में लीन रहा, बता नहीं सकता। ध्यान शेष हुआ, फिर भी उसी मुद्रा में बैठा रहा। ऐसे में कमरे की दक्षिणी दीवार भेदकर एक ज्योतिर्मय मूर्ति प्रकट हुई और मेरे सामने आ खड़ी हुई। उनके चेहरे पर अद्भुत कांति झलक रही थी, फिर भी मानो कोई भाव न हो। महाशांत संन्यासी मूर्ति—मुंडित मस्तक, हाथ में दंड और कमंडलु! कुछ देर वे मेरी तरफ एकटक देखते रहे। उस समय उनके चेहरे पर ऐसा भाव था, मानो वे मुझसे कुछ कहना चाहते हों। मैं भी अवाक् दृष्टि से उनको निहारता रहा। अगले ही पल मन मानो किसी खौफ से भर उठा। मैंने जल्दी से दरवाजा खोला और कमरे से बाहर निकल आया। बाद में खेद हुआ कि मूर्खों की तरह डरकर मैं भाग क्यों खड़ा हुआ। वे शायद मुझसे कुछ कहते। लेकिन उस रात के बाद उस मूर्ति के कभी दर्शन नहीं हुए। कई बार मेरे मन ने कहा कि अगर दुबारा उस मूर्ति के दर्शन हुए तो मैं डरूँगा नहीं, उनसे बात करूँगा। लेकिन, फिर कभी वह मूर्ति नजर नहीं आई। मैंने बहुत सोचा, मगर कोई कूल-किनारा नहीं मिला। अब मुझे लगता है कि उस रात मैंने भगवान् बुद्ध के दर्शन किए थे।

विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha PDF Download Free in this Post from Telegram Link and Google Drive Link , An Autobiography of Vivekananda pdf Download, विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha PDF in Hindi, विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha Book Summary, विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha book Review, The Life of Swami Vivekananda PDF Free in Hindi

[adinserter block=”1″]

हमने विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha PDF Book Free में डाउनलोड करने के लिए Google Drive की link नीचे दिया है , जहाँ से आप आसानी से PDF अपने मोबाइल और कंप्यूटर में Save कर सकते है। इस क़िताब का साइज 2.8 MB है और कुल पेजों की संख्या 258 है। इस PDF की भाषा हिंदी है। इस पुस्तक के लेखक शंकर / Sankar हैं। यह बिलकुल मुफ्त है और आपको इसे डाउनलोड करने के लिए कोई भी चार्ज नहीं देना होगा। यह किताब PDF में अच्छी quality में है जिससे आपको पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। आशा करते है कि आपको हमारी यह कोशिश पसंद आएगी और आप अपने परिवार और दोस्तों के साथ विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha की PDF को जरूर शेयर करेंगे।

Q. विवेकानंद की आत्मकथा | Vivekanand Ki Aatmakatha किताब के लेखक कौन है?
 

Answer.
[adinserter block=”1″]

Download
[adinserter block=”1″]

Read Online
[adinserter block=”1″]

 


आप इस किताब को 5 Stars में कितने Star देंगे? कृपया नीचे Rating देकर अपनी पसंद/नापसंदगी ज़ाहिर करें। साथ ही कमेंट करके जरूर बताएँ कि आपको यह किताब कैसी लगी?

Other Books of Author:

Leave a Comment