अध्याय 1
जाली से आती धूप से उसके पैरों के नीचे बिछे कालीन पर आकृतियाँ बन रही थीं । खिड़की की चैखट पर चिड़ियाँ चहक रही थीं और हवा में खिले हुए कमल पुष्पों की सुगंध व्याप्त थी । महोदयपुर का राजा, गाधि अपनी पत्नी के शयनकक्ष के बाहर मंडरा रहा था ।
वह ज्यों ही खिड़की के पास आकर रुका, उत्तर से आ रही हवा के झोंके ने उसके उन्नत भाल पर बिखरी घुंघराली लट उड़ा दी । गाधि का कोणीय, आकर्षक चेहरा दिखने लगा । उसकी भूरी आँखें, मुड़ी हुई नाक तथा जबड़ा मजबूत एवं दृढ़ था । उसके बाएँ गाल पर घाव का चिह्न, कान तक खिंचा हुआ था । यह निशान पश्चिम में बर्बर सेना के साथ मुठभेड़ में हुई उसकी जीत का प्रतीक था ।
वह सोचने लगा कि इतनी राजसी उपलब्धियों के बावजूद, उसके परिवार के लोगों का व्यक्तिगत जीवन उतना विशिष्ट क्यों नहीं था । उत्तराधिकारी के संदर्भ में उसके पूर्वज अधिक भाग्यशाली नहीं थे । घृताची नामक अप्सरा ने गाधि के पिता राजकुमार कुशनाभ से प्रेम किया था । राजा एवं रानी ने हालाँकि उस युगल को आशीष भी दे दिया, किंतु जैसा कि प्राय: देखा गया है, नियति की अपनी अलग योजनाएँ होती हैं ।
मनुष्य और अप्सरा के संयोग से पुत्री का ही जन्म संभव था क्योंकि अप्सराएँ केवल अप्सराओं को जन्म दे सकती थीं । ऐसी पुत्र्यिाँ अपनी माता के आशीर्वाद से स्वयं भी सुंदर थीं, और इसी कारण उनमें अहंकार भी था ।
वायुदेव ने जब उन कन्याओं से विवाह करने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने मना कर दिया क्योंकि उनके विचार से वे वायुदेव से बेहतर वर पाने के योग्य थीं । वायुदेव को क्रोध आ गया तो उन्होंने कन्याओं को सबक़ सिखाने के लिए उन्हें शाप दे दिया कि वे अपना रूप व सौंदर्य खोकर कुबड़ी हो जाएँगी । राजपरिवार में मातम छा गया और तभी से उस राजधानी का नाम कान्यकुब्ज, यानी कुबड़ी कन्याओं का शहर पड़ गया । कुशनाभ बहुत दुखी हुआ किंतु उसने दैवी सहायता लेने का निश्चय किया । उसने अपने राजपुरोहित से परामर्श किया और पुत्र्कामेष्टि यज्ञ करने के लिए उन्हें तैयार कर लिया ताकि उसे राज्य का उत्तराधिकारी प्राप्त हो जाए ।
उसी यज्ञ के फलस्वरूप, गाधि का जन्म हुआ - एक अत्यंत चंचल बालक जिसे इंद्र ने स्वयं आशीर्वाद दिया था ।
और अब, जब गाधि की पत्नी स्वयं गर्भवती थी, वह केवल स्वस्थ संतान चाहता था- चाहे पुत्र हो या पुत्री । उसे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी । शीघ्र ही, राजमहल में नवजात शिशु का क्रंदन सुनाई दिया जिससे महल के उत्सुकता-भरे वातावरण में तत्काल प्रसन्नता छा गई ।
शयनकक्ष के महीन नक्काशी वाले सागौन के द्वार खुले और भीतर से दो दासियाँ दौड़ती हुई बाहर आईं । उन्होंने गाधि को शुभ समाचार सुनाया । उसकी रानी ने एक अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालिका को जन्म दिया था जो उसके उद्यान में खिले चमेली की फूल के भाँति गोरी थी ।
गाधि अत्यंत भावुक हो उठा और उसने दासियों को अपनी प्रिय मुद्रिकाएँ उपहार में दे दीं । नियति के हाथों बहुत पहले, हुए कुठाराघात के चलते उसके दत्तक माता-पिता को इस बात की चिंता होती थी कि क्या कभी उसकी अपनी कोई संतान होगी । उनके लिए इससे अधिक प्रसन्नता भरा समाचार कुछ नहीं होगा कि गाधि की पत्नी और उसकी नवजात संतान दोनों स्वस्थ थे और उसके दत्तक पितरों का वंश चलता रहेगा ।
रानी के कक्ष में प्रवेश करते हुए उसने दासियों को वह शुभ समाचार अपने माता-पिता एवं राजपरिवार के अन्य सदस्यों को देने का आदेश दिया । वह ज्यों ही अपनी पत्नी की शैय्या के निकट पहुँचा, राजपरिवार को एकांत के क्षण देने के लिए सभी दासियाँ पीछे हट गईं ।
गाधि ने अपनी पत्नी को गले लगाया और अपनी पुत्री को पहली बार देखा ।
वह बच्ची अपनी माता के पास, नर्म मलमल में लिपटी लेटी हुई थी । उसके गुलाबी गालों पर अश्रुधारा के निशान थे उसका दंतहीन मुख, शिकायती मुद्रा में आकाश को देख रहा था ।
गाधि ने सावधानी से बालिका को उठाया और उसकी गहरी-भूरी आँखों में देखा तो उसकी अपनी आँखों से प्रसन्नता के आँसू झरने लगे । उसने मन में एक संकल्प किया । वह अपनी संतान को, कन्या होने के बावजूद अपने उत्तराधिकारी की तरह तैयार करेगा ।
उसने अपने परिवार को मिले शाप को तोड़ने तथा अपने भाग्य को बदलने का निश्चय कर लिया था ।
अध्याय 2
‘सत्यवती!’
गाधि ने रानी महल में प्रवेश करते हुए पुकारा ।
महल की सैकड़ों दासियों में से किसी ने भी राजकुमारी को बुलवा दिया होता किंतु गाधि ने उन्हें मना कर दिया । राजभवन में शिष्टाचार पर अत्यंत ज़ोर देने वाला गाधि अपने निवास पर सामान्य घरेलू जीवन का पक्षधर था और अपनी पत्नी तथा पुत्री के साथ समय बिताना पसंद करता था ।
वह कभी-कभी महसूस करता था कि उसने सत्यवती को पर्याप्त समय नहीं दिया क्योंकि उसकी पुत्री का राजमहल में प्रसन्नतापूर्वक आगमन अभी कल ही की बात प्रतीत होती थी ।
सत्यवती के जन्म के बाद राज्य में जिस तरह का उत्सव आयोजित हुआ, वैसा महोदयपुर में पहले कभी नहीं देखा गया था । राजपरिवार को इस बात की तसल्ली थी कि बालिका में किसी प्रकार का आनुवांशिक दोष नहीं था और इसलिए महोत्सव में भाग लेने के लिए पड़ोसी राजाओं को भी आमंत्र्ति किया गया था ।
कुलगुरु धनु ने बच्ची का नाम सत्यवती रखा, यानी जो सत्य को आत्मसात कर ले । सत्यवती जैसे-जैसे बड़ी हुई, गाधि ने बिलकुल पुरुष उत्तराधिकारी की भाँति उसकी शिक्षा एवं सैन्य प्रशिक्षण का प्रबंध किया । कुछ समय से गाधि को ऐसा महसूस हो रहा था कि सत्यवती के राज्याभिषेक का समय दूर नहीं है और उससे पहले, वह उसके साथ भी अधिक से अधिक समय व्यतीत करना चाहता था ।
वह ज्यों ही मुड़ा उसने सत्यवती को मनोहर ढंग से अपनी ओर आते देखा । गाधि को अपनी पुत्री के चेहरे पर अपनी पत्नी के सौंदर्य की झलक दिखाई देती थी । घनी बरौनियाँ उसकी गहरी भूरे रंग की हिरणी-सी आँखों को और प्रभावशाली बनाती थीं तथा उसकी कांस्य त्वचा एवं गाल की उच्च हड्डियाँ उसके सौंदर्य को और बढ़ा रही थीं । उसके गठे हुए तन पर पन्ने-सा हरे रंग का अंगवस्त्र कुछ इस प्रकार लिपटा हुआ था जिससे उसे सैन्य अभ्यास में सुविधा हो । सत्यवती का वस्त्र पहनने का ढंग महल की अन्य राजकुमारियों से बिलकुल अलग था और उसका हाथ कमर में बँधे छुरे के मूठ पर टिका था ।
रानी रत्ना उसके साथ थी । उसकी राजसी सज-धज देखकर इंद्र के दरबार की अप्सराओं को भी ईर्ष्या हो सकती थी और वह सत्यवती का ही ज्येष्ठ रूप प्रतीत हो रही थी । राजा गाधि अपने जीवन में उपस्थित इन दो स्त्र्यिों से बहुत प्रेम करता था और वह इस बात के लिए ईश्वर का आभारी था कि वे दोनों भी गाधि से उतनी ही निष्ठा से प्रेम करती थीं ।
सत्यवती दौड़ती हुई गाधि की बाँहों में समा गई और राजा को इतनी आज्ञाकारी एवं प्यारी संतान पर गर्व था । गाधि ने प्रहरियों और दासियों को एकांत का संकेत किया और वे तीनों सुगंधित कुमुदिनी तथा श्वेत हंसों से भरे एक छोटे सरोवर की ओर चलने लगे ।
प्रत्येक दिन संध्या के समय, उनका छोटा-सा परिवार सरोवर के निकट समय बिताता था तथा वे लोग सत्यवती की शिक्षा में सुधार से संबंधित, रोचक विषयों पर बात करते थे । दोपहर के समय, सत्यवती अपने पितामह से उनके गौरवशाली चंद्रवंशी पूर्वजों की कथाएँ सुनती और संध्या में, वह अपने पिता से उन कथाओं के उन अंशों के विषय में पूछती थी जो कथा सुनाते समय छूट जाते थे ।
आज, वह अपने एक अत्यंत चर्चित पूर्वज जह्नु के विषय में जानना चाहती थी, जिन्होंने मानव जाति के कल्याण हेतु सर्वमेध यज्ञ आयोजित किया था । देवी गंगा ने जह्नु को अपने पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा की थी किंतु उस तपस्वी राजा ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था । पितामह कुशनाभ ने यह कथा यहीं समाप्त कर दी किंतु सत्यवती को पता था कि कहानी इसके आगे भी थी ।
उसने अपने पिता को आगे का वृतांत सुनाने का आग्रह किया । राजा गाधि ने कुछ क्षण सोचा कि वह कथा अपनी युवा एवं संवेदनशील पुत्री को किस प्रकार सुनाई जाए और फिर उसने बोलना आरंभ किया, ‘ठीक है, तो जह्नु ने गंगा का प्रस्ताव इसलिए अस्वीकार कर दिया क्योंकि वह संन्यासी हो चुके थे किंतु गंगा उपद्रवी थी और अपने ही मार्ग पर आगे बढ़ना उसके स्वभाव में था । उसने सोचा कि जब उसका शक्तिशाली जल विशालकाय चट्टानों को चूर करके बजरी बना सकता था तो एक साधारण मनुष्य की क्या बात थी!
‘जिस समय वह महान यज्ञ चल रहा था, गंगा ने अपना सामान्य मार्ग बदलकर यज्ञशाला की ओर बहना आरंभ कर दिया क्योंकि वह उस स्थान को जल-प्लावित करके यज्ञ को भंग कर देना चाहती थी ।’
सत्यवती को आश्चर्य हुआ । उसने हमेशा गंगा नदी को माता के रूप में देखा था जो संसार के लोगों को उनके पापों से मुक्त करती थी, किंतु युवावस्था में देवी गंगा का थोड़ा उपद्रवी होना स्वाभाविक हो सकता था ।
इस बीच गाधि उत्साहपूर्वक आगे कहने लगा, ‘जह्नु ने जब देखा कि यज्ञशाला को जान-बूझकर आप्लावित किया गया था तो उन्हें क्रोध आ गया । गंगा के अतिक्रमण से कुपित होकर, जह्नु ने अपनी तपश्चर्या की शक्ति से नदी को पी लिया ।’
रत्ना और सत्यवती दोनों चैंक गर्इं । एक मनुष्य आध्यात्मिक शक्ति से पूरी नदी पी गया ? इसकी कौन कल्पना कर सकता है!
गाधि उनके भाव देखकर धीरे-से हँसा । ‘प्रिय, इस कथा को शब्दश: मत समझो । मुझे विश्वास है कि ऋषि जह्नु ने गंगा को सबक़ सिखाने के लिए, अपनी सिद्धियों के बल से उसे भ्रमित करके अपनी बात मनवा ली होगी । आख़िरकार शारीरिक क्षमता की सीमा होती है, किंतु मस्तिष्क की शक्तियाँ तो अनंत हैं ।’
सत्यवती ने धीमे-से हामी भरी । हाँ, यह बात ज्यादा सच्ची लगती है किंतु ऋषियों का कोई भरोसा भी नहीं! उनका अपने भौतिक वातावरण पर इतना नियंत्र्ण था कि वे ऐसे कार्य सरलता से कर लेते थे जो सामान्य मनुष्य के लिए असंभव थे ।
‘गंगा नदी ने जब दया की विनती की तो जह्नु ने उसे इस शर्त पर छोड़ दिया कि वह फिर कभी किसी पर अपनी इच्छा आरोपित नहीं करेगी । जह्नु ने उसे यह भी कहा कि उसके भाग्य में एक महान राजा की पत्नी बनना लिखा है और यह भी आशीर्वाद दिया कि वह एक ऐसे पुत्र को जन्म देगी जो आर्यावर्त को सदा के लिए परिवर्तित कर देगा । वह भविष्यवाणी अभी सच नहीं हुई है और संभव है कि हम लोग अपने इस जन्म में उसके साक्षी बन सकें,’ गाधि ने कहा ।
ठंडी श्वास ली और कहा, ‘भविष्य में जो चाहे हो, किंतु हमें अभी वर्तमान की कथा को पूरा करना चाहिए । चूँकि जह्नु ने गंगा को एक प्रकार से नया जीवन प्रदान किया था, तो उसका नाम जाह्नवी पड़ गया । उसके बाद वह महान यज्ञ पूर्ण हुआ और जह्नु अपने राज्य लौट आए । उनकी प्रजा ने उनसे राज्य के उत्तराधिकारी की माँग की और अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्य पूर्ण करने को कहा । तब जह्नु ने एक अन्य नदी देवी कावेरी से विवाह कर लिया ।’
तब रानी ने कहा, ‘कुछ लोग कहते हैं कि गंगा ने ही कावेरी का रूप धारण कर लिया था क्योंकि वो अपना दर्प तोड़ने वाले उस ऋषि से अत्यंत प्रभावित थी । सत्य कुछ भी हो, कावेरी को आज भी दक्षिणी गंगा कहा जाता है तथा उस नदी के तट पर रहने वाले मेरी प्रजा में गंगा एवं जह्नु की कथा बहुत प्रचलित है ।’
गाधि ने उस बात को काल्पनिक बताकर उसकी उपेक्षा कर दी किंतु सत्यवती गंभीर विचारों में डूब गई ।
किसी स्त्री का संकल्प इतिहास को बदलने में कितना सामर्थ्यवान हो सकता है! यदि गंगा ने यज्ञशाला को आप्लावित न किया होता तो जह्नु उसे वह वचन नहीं देते जो अभी भविष्य के गर्त में था । कौन जानता है, भविष्य में क्या होगा ? सहसा उसके रोंगटे खड़े हो गए ।
‘पिताजी,’ उसने उत्सुकता से कहा, ‘पितामह ने मुझे अपने पूर्वजों एवं महान राजाओं इक्ष्वाकु, नाभाग, जह्नु और पुरुरवा की कथाएँ सुनाई हैं । प्रत्येक राजा की कथा हमें जीवन में कुछ विलक्षण करने के लिए प्रेरित करती है । मेरा प्रशिक्षण अच्छा चल रहा है और मैं अपने धार्मिक ग्रंथों का, चाहे वे कितने भी नीरस हों, बड़ी मेहनत से अध्ययन कर रही हूँ । परंतु वह समय कब आएगा जब मैं इन सबका वास्तविक जीवन में उपयोग कर सकूँगी ?’
उसकी इस अधीर अभिव्यक्ति को सुनकर गाधि और रत्ना मुस्कराने लगे । राजा ने कहा, ‘मेरी बच्ची, मैं जानता हूँ कि तुम हर तरह से राज्य संभालने के योग्य हो गई हो, किंतु तुम्हें अभी प्रतीक्षा करनी होगी!’
उसने सत्यवती के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और कहा, ‘अधिकतर पिता अपनी पुत्र्यिों के लिए केवल उपयुक्त वर की खोज करते रहते हैं किंतु मैंने और तुम्हारी माता ने इस बात की कभी चिंता नहीं की । हमने केवल यही चाहा है कि हम तुम्हें इस तरह तैयार कर सकें कि तुम जब भी उचित समझो, अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम रहो ।’
सत्यवती ने गाधि के चेहरे को ध्यान से देखा और पिता के मन के विचारों को पढ़ने का प्रयास करने लगी । गाधि ने कहा, ‘सच कहूँ तो मैं इस विषय में कुछ समय से विचार कर रहा हूँ और केवल कुलगुरु के काशी से लौटने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ताकि उनसे परामर्श करके इस अनुष्ठान को पूर्ण करने का शुभ मुहूर्त निकाला जा सके ।’
सत्यवती की बड़ी भूरी आँखें ख़ुशी से चमक उठीं किंतु उसने संभलकर कहा, ‘पिताजी, मैं यह सोचकर शर्मिंदा होती हूँ कि आप मेरी क्षमता को अधिक आँकते हैं । आपके शब्दों से मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला है और मैं आपको वचन देती हूँ कि आपकी और माता की सब अपेक्षाएँ पूरा करूँगी!’
उसने झुककर अपने माता-पिता के चरण स्पर्श किए तो रानी रत्ना की आँखों में प्रसन्नता के आँसू छलक आए और उसने सत्यवती को गले से लगा लिया ।
‘पुत्री, तुम कितनी जल्दी बड़ी हो गई हो!’ रानी ने कहा, ‘मुझे तुम पर गर्व है कि तुमने बहादुर, ताक़ तवर और आत्म-निर्भर बनने के लिए भरपूर प्रयास किए हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि तुम जीवन में अनेक सफलताएँ प्राप्त करोगी । अन्य राजकुमारियों ने जहाँ अपना सारा समय देश के राजकुमारों के साथ प्रेम-प्रणय में नष्ट कर दिया, तुमने एकाग्रचित्त होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त किया है । मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि तुम्हारे भीतर यह गुण मेरे परिवार से आया है!’ रानी ने तिरछी नज़रों से राजा को देखा और अपनी बात समाप्त कर दी ।
गाधि मुस्कराया और बोला, ‘मैं इस संदर्भ में अपनी रानी से सहमत हूँ । वह समय दूर नहीं, जब राज्य की बागडोर तुम्हारे पास होगी और मैं तुम्हारे निकट बैठकर तुम्हें विवेकपूर्ण निर्णय लेते तथा युद्ध लड़ते देखा करूँगा । हम मिलकर अपने राज्य के गौरव को बढ़ाएँगे और समस्त नाभिवर्ष में अपने नागरिकों को सबसे समृद्ध बना देंगे ।’
सूर्यास्त होने को था जब वे तीनों अपने मन में अपार संतोष लेकर महल की ओर लौट चले ।
यह किसी परिवार, विशेषकर राजपरिवार, के सदस्यों के लिए असाधारण बात थी कि उनकी अभिलाषाएँ परस्पर गुँथी हुई थीं । वे अत्यंत भाग्यशाली होंगे यदि उनकी सामूहिक महत्त्वाकांक्षाएँ सफल हो पाएँगी ।
अध्याय 3
कान्यकुब्ज का राजदरबार लगा हुआ था ।
विशाल हरे रंग के स्तंभों के सहारे खड़ी गोलाकार सभा, एक बड़ी वृत्त के आकार में फैली हुई थी और वह देखने में निजी सभा से अधिक, रंगशाला जैसी लगती थी । वहाँ सभी को प्रवेश की अनुमति थी क्योंकि राजा को अपने नागरिकों पर भरोसा था तथा अपनी ही प्रजा से सुरक्षा का विचार किसी के मन में कभी नहीं उठा ।
सभा की छत ऊँची एवं गुंबज के आकार की थी, जो वहाँ उपस्थित लोगों की वातावरण से रक्षा करती थी । उस पर गहरा नीला रंग चढ़ा था और उसे वर्धित व क्षय होते चंद्रमा का अनंत अनुक्रम दर्शाती क्रमिक अवस्थाओं से सजाया गया था ।
गाधि चंद्रवंशी था, इसलिए राज भवनों में चंद्रमा का रेखांकन प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता था । सभा का निर्माण वास्तुकला के अनुसार किया गया था; दक्षिण-पश्चिमी दिशा में एक ऊँचा स्थान बना था जिस पर सिंहासन रखा था - काले गोमेद से तराशा गया घुटनों के बल बैठा विशाल हाथी, जिसकी सूँड़ ऊपर उठी हुई देवताओं का अभिनंदन करती थी । उसकी पीठ पर श्वेत संगमरमर का विशाल हौदा रखा था जिस पर नीले पन्ने जड़े थे । इस विशिष्ट सिंहासन पर, चाँदी का ऊँचा मुकुट धारण कर तथा मोर-से नीले राजसी वस्त्र पहनकर गाधि विराजमान था । वह बड़े जोश से दरबार में आया था, किंतु अभी वह अप्रसन्न था ।
उसने कुलगुरु से परामर्श करके अपनी पुत्री को सत्ता सौंपने का मन बना लिया था किंतु उस चर्चा ने उसकी अभिलाषा पर अंकुश लगा दिया था । कुलगुरु ने गाधि को सत्यवती के राज्याभिषेक की घोषणा के लिए कुछ समय प्रतीक्षा करने को कहा किंतु उन्होंने ऐसा करने का कारण नहीं बताया ।
इसके बाद, गाधि की अप्रसन्नता और बढ़ गई जब उसे एक व्यक्ति को, जिसने अपने मित्र की जीवन भर की बचत-राशि को लूट लिया था, कठोर दंड देना पड़ा । दरबारी गण, गाधि की प्रशंसा कर रहे थे कि चंद्रवंशी राज्य में किसी भी प्रकार का अपराध अक्षम्य था, परंतु गाधि स्वयं परेशान था ।
उसने अपनी प्रजा को क्या नहीं दिया था जो वे इस तरह के अपराध करते थे ? महोदयपुर शायद, समस्त नाभिवर्ष अथवा, कम से कम देश के ऊपरी भाग आर्यावर्त के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक था ।
कान्यकुब्ज संपन्न था और वहाँ के नागरिक सुखी थे । पूरे नगर में मंदिर, भवन, सामुदायिक केंद्र, सार्वजनिक स्नानघर, भंडारगृह, रंगशालाएँ तथा सुगंधित उद्यान मौजूद थे । गाधि ने राज्य के सब भागों में चैड़े मार्ग और कुंज बनवाए, कुएँ खुदवाए और राजमार्गों के दोनों तरफ़ वृक्ष लगवाए थे । कर की दरें उचित थीं तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आय का दस प्रतिशत हिस्सा राजकोष में जमा करवाना पड़ता था । माँ गंगा की कृपा से धरती उर्वर थी तथा एक दशक से वर्षा के संदर्भ में भी इंद्र भगवान की विशेष अनुकंपा थी ।
राज्य के चारों कोनों में गुरुकुल थे और सब जातियों के बच्चे अपने-अपने चतुर्थांश में पड़ने वाले गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करते थे । चूँकि गाधि की माँ अप्सरा थी, वह कला के विकास हेतु छात्रवृत्तियों को भी प्रोत्साहन देता था । संगीतकार, नर्तक, शिल्पकार, लेखक और अन्य कलाकारों को अपने स्वप्न पूरे करने के लिए वित्तीय सहायता और प्रशिक्षण दिया जाता था ताकि लोग अपने कार्य से केवल धनार्जन न करें, अपितु उसमें आनंद ले सकें ।
उसे आश्चर्य हो रहा था कि राज्य में इतनी सकारात्मक ऊर्जा के बावजूद अपराध क्यों हो रहा था । कोई सभ्यता तभी उन्नति कर सकती है जब उसके लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज के विषय में सोचें । शायद मनुष्य के लिए अपने असभ्य एवं बर्बर मूल तक लौटना मुश्किल नहीं था । जिसके निर्माण में कई दशक लग गए, उसे एक दिन में ध्वस्त कर देना, बहुत सरल था ।
तभी एक घोषणा ने उसका ध्यान भंग कर दिया । प्रभावशाली व्यक्तित्व और अनिश्चित आयु वाले एक ऋषि राजसभा में प्रवेश कर रहे थे ।
ऋषियों का आर्यावर्त में बहुत सम्मान किया जाता था तथा उस ऋषि के महल में प्रवेश करते ही, अनुचरों ने उनके आगमन का समाचार गाधि तक पहुँचा दिया था । जब तक ऋषि सभा के भीतर आते, गाधि पहले ही द्वार पर उनके स्वागत के लिए हाथ जोड़कर खड़ा था ।
ऋषि ऋचीक, प्रसिद्ध च्यवन ऋषि के पुत्र थे, जिन्होंने चिरकाल तक युवा रहने की औषधि - च्यवनप्राश तैयार की थी । कहा जाता था कि पुत्र भी अपने पिता की भाँति प्रतिभावान था और भविष्य में निस्संदेह महान कार्य करेगा ।
गाधि ने ऋषि को उच्चाधिकारियों के लिए आरक्षित आसन पर बैठाया, उनके चरण धोए और उनके लिए जल-पान का प्रबंध करवाया । ऋषि के भली-भाँति सत्कार के बाद उसने उनके आगमन का उद्देश्य पूछा ।
ऋचीक इतने सत्कार से प्रसन्न महसूस कर रहे थे । उन्होंने कहा, ‘राजन, मैं आपके स्वागत-सत्कार से अत्यंत संतुष्ट हूँ हालाँकि, हमारी इससे पहले कभी भेंट नहीं हुई । मैंने आपके और आपके गौरवशाली पूर्वजों के विषय में जितनी अच्छी बातें सुनी थीं, वे सब सत्य हैं । मैं आपको एवं आपके परिवार को सदैव सुखी रहने का आशीर्वाद देता हूँ ।’
गाधि बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सिर झुकाकर कहा, ‘प्रभु, ऋषि-मुनियों की रक्षा एवं सेवा करना राजा का कर्तव्य होता है अन्यथा उसके राज्य का भौतिक और आध्यात्मिक विकास कैसे होगा ? आपके जैसे तपस्वियों के आशीर्वाद से मेरा राज्य संपन्न और खु़शहाल है । मैं आपकी निष्ठा में कमी कैसे आने दे सकता हूँ ?’
ऋचीक ने हामी भरी और मुस्कराते हुए कहा, ‘आपकी इसी उदारता के विषय में सुनकर मैं आज यहाँ आया हूँ । मैं राजन से एक भेंट की अपेक्षा करता हूँ, क्योंकि वह वस्तु, कोई साधारण व्यक्ति मुझे नहीं दे सकता ।’
गाधि को बहुत आश्चर्य हुआ । ‘प्रभु, ऐसी कौन सी मूल्यवान वस्तु है जिसे कोई भी व्यक्ति आपके जैसे ऋषि को देने से मना कर सकता है ? यदि आप चाहें तो मैं आपको अपना समस्त राज्य दे सकता हूँ ।’
ऋषि ने सिर हिलाया । ‘नहीं राजन, मेरी आपके राज्य को आपके कुशल नेतृत्व से वंचित करने की कोई इच्छा नहीं है । आपने अपने पूर्वजों के सत्कार्यों को आगे बढ़ाया है और आपकी प्रजा इससे अधिक प्रसन्न पहले कभी नहीं थी ।’
‘मैं जो चाहता हूँ, उसके लिए व्यक्तिगत त्याग की आवश्यकता है और यदि मेरे पिता ने मुझे यह कार्य करने को नहीं कहा होता तो मैं वह क़दापि नहीं माँगता ।’
गाधि के मन में पहली बार संदेह उत्पन्न होने लगा । ऋचीक ने गाधि की सिकुड़ी भँवें देखीं तो उन्होंने सौम्य स्वर में कहा, ‘राजन, मैं आपको असहज नहीं करना चाहता किंतु मेरी प्रार्थना आने वाले समय में आपके और आपके परिवार के लिए हितकारी सिद्ध होगी । नियति ने मुझे आदेश दिया है कि मैं यहाँ आकर आपके समक्ष वह प्रस्ताव रखूँ जो आपके कुल का भविष्य सदा के लिए परिवर्तित कर देगा ।’
गाधि ने सावधानीपूर्वक कहा, ‘मेरे पिता ने मुझे सिखाया है कि विधि के विधान का विरोध नहीं करना चाहिए । हे ज्ञानी मुनि, आप जो भी माँगेंगे, मैं आपको सहर्ष प्रदान करूँगा, चाहे इसके लिए मुझे कोई भी व्यक्तिगत क़ीमत चुकानी पड़े ।’
ऋषि ने गाधि की बात का समर्थन किया और कहा, ‘सुनो राजन! मैं महर्षि च्यवन का पुत्र और ब्रह्मा के पुत्र भृगु का पौत्र ऋचीक, विवाह हेतु आपकी कन्या सत्यवती का हाथ माँगता हूँ ।’
यह सुनकर पूरी राजसभा में मौन छा गया क्योंकि यह बात किसी से छिपी नहीं थी कि आने वाले कुछ दिनों में राजकुमारी सत्यवती का राज्याभिषेक होने वाला था
गाधि को बहुत आश्चर्य हुआ और उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे । ऋषि ऋचीक ने जहाँ एक तरफ़ अत्यंत विनम्रता के साथ गाधि की पुत्री का हाथ माँगा था, वहीं उन्होंने संसार के रचयिता से अपना संबंध व्यक्त करके अपनी श्रेष्ठता का भी परिचय दे दिया था । यदि गाधि उनके प्रस्ताव को अस्वीकार करता तो वे उसे तत्काल भस्म कर सकते थे अथवा उससे भी बुरा होता, यदि वे सत्यवती को उसी तरह का शाप दे देते जैसा वायु ने गाधि की बड़ी बहनों को दिया था!
गाधि को परिस्थितियों में अचानक हुए परिवर्तन पर विश्वास नहीं हो रहा था । वह, कुछ क्षण पूर्व, राजपद त्याग कर अपनी पुत्री को राज्य का कार्यभार सौंपने का स्वप्न ले रहा था और अब उसके ही नहीं बल्कि, उसके पूरे परिवार के स्वप्न, ध्वस्त होने जा रहे थे । वह अपनी युवा और सुंदर कन्या का किसी ऋषि के साथ विवाह करके उसे वन में कैसे भेज सकता था ?
इस संकट से निकलने का मार्ग खोजते हुए, गाधि को एक युक्ति सूझी ।
उसने ज़ोर से कहा, ‘ऋषिवर, मैं सहर्ष आपके प्रस्ताव को मान लेता, किंतु आपकी प्रार्थना ने मुझे विकट दुविधा में डाल दिया है ।’
उसने आगे कुछ कहने से पहले गहरी श्वास ली क्योंकि वह जो कुछ कहने जा रहा था, वह उसके स्वभाव के विरुद्ध था ।
‘चंद्रवंशियों की एक प्राचीन परंपरा रही है कि केवल वही व्यक्ति इस राजपरिवार की ज्येष्ठ कन्या से विवाह कर सकता है, जो चंद्रमा के समान ऐसे एक सहस्र अश्व प्रदान करे जिनका एक कान काले रंग का हो । मैं आपके जैसे ऋषि से इस बात की अपेक्षा नहीं कर सकता और न ही मैं आपको विवाह के लिए मना कर सकता हूँ । इसलिए मेरा मन दुविधा में है ।’
ऋचीक सोच में डूब गए किंतु उन्होंने सहज ढंग से उत्तर दिया, ‘राजन, जिस समय अश्विनी कुमारों ने मेरे पिता को चिर यौवन प्रदान किया था, तब मेरे पिता ने इंद्र की इच्छा की विरुद्ध अश्विनी कुमारों को सोमपान करवाने के लिए एक यज्ञ आयोजित किया था । मैं जानता हूँ कि भौतिक जगत की यही रीत हैय यदि कोई कुछ प्राप्त करना चाहता है तो उसे उस वस्तु की क़ीमत देनी होती है । मेरा विश्वास कीजिए, मैं आपको और अधिक कष्ट दिए बिना इस शर्त को पूरा करने का तरीक़ा खोज लूँगा ।’
ऐसा कहकर, ऋचीक अपने आसन से उठे और राजा एवं कुलगुरु के समक्ष देखते हुए राजसभा से बाहर चले गए ।
गाधि दोबारा चढ़कर सिंहासन तक नहीं गयाय वह अपना सिर पकड़कर सिंहासन की सीढ़ी पर ही बैठ गया ।
कुलगुरु धनु उसके निकट आए और उसके कंधे थपथपाकर बोले, ‘राजन, मैं जानता हूँ कि आप जिस परिस्थिति में फँसे हैं, वह सरल नहीं है किंतु यह राजा का कर्तव्य है कि वह अपने परिवार से अधिक अपनी प्रजा की चिंता करे । यदि अब आपने ऋचीक को क्रोध दिलाया तो आप और आपका परिवार ही नहीं, अपितु पूरे राज्य को ऋषि के कोप का सामना करना पड़ सकता है ।’
गाधि ने आज्ञापालन में सिर झुकाया । ‘मैं स्थिति की गंभीरता को समझता हूँ गुरुदेव इसलिए मैंने ऋषि को सीधे मना नहीं किया । परंतु मैं अपनी एकमात्र पुत्री का विवाह ऐसे व्यक्ति से किस प्रकार कर दूँ, जो बंजारे की भाँति वन में रहता है! सत्यवती के जन्म से ही उसे इस राज्य का उत्तराधिकारी बनने के लिए तैयार किया गया है और अब यह तपस्वी उसे अपने साथ ले जाकर असुविधा और कष्ट भरा जीवन देना चाहता है!
‘मेरे मस्तिष्क में जो भी हल आया, जो कि एक असंभव शर्त है, मैंने वही प्रस्तुत कर दिया । मुझे आशा है कि इससे मैं अपनी पुत्री और अपनी प्रजा दोनों का भविष्य सुरक्षित कर सकूँगा । अपने प्रियजनों के प्रति प्रेम शायद व्यक्ति के हाथों अपराध करवाने के लिए पर्याप्त कारण होता है, चाहे वह किसी को कितना भी तुच्छ क्यों न लगे । मैंने झूठ का सहारा लिया अपराध किया और हो सकता है कि मुझे फिर भी कुछ प्राप्त न हो!’ गाधि ने खेदपूर्वक कहा ।
आचार्य धनु ने राजा को कंधे से पकड़कर ऊपर उठाया । ‘उठो राजन, और अपने सामने आई चुनौती को स्वीकार करो । निराश मत होओ । यद्यपि हम मनुष्यों का अपने भाग्य पर कोई नियंत्रण नहीं है, तथापि देवता दयालु होते हैं; निश्चय ही, उनके पास सत्यवती और तुम्हारे राज्य के हित में कोई योजना है ।’
गाधि ने आचार्य की ओर देखा । किसी गूढ़ कारण से उनके चेहरे पर मुस्कान थी ।
‘राजन, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आज राजसभा में जो घटना हुई है, वह आपके राज्य की नियति को हमेशा के लिए बदल देगी । ऋषि ऋचीक को उनके पिता ने यहाँ भेजा था और मैं आपको यह सुझाव देता हूँ कि आप भी आगे कुछ करने से पूर्व अपने पिता से परामर्श कीजिए,’ आचार्य ने रहस्यमय ढंग से बात समाप्त करते हुए कहा ।
अध्याय 4
सत्यवती, जब अपने सुबह के सैन्य अभ्यास से बाहर आई तो उसने राजसभा में हुई घटना का समाचार सुना ।
कड़े परिश्रम के कारण उसके गाल लाल हो चुके थे लेकिन उसने जो सुना, उससे उसके चेहरे का रंग ही उड़ गया । सत्यवती जानती थी कि वह ऋषि चाहे कितने भी पूज्य थे, किंतु उनकी माँग से उसी की भाँति, उसके पिता को भी गहरा आघात पहुँचा होगा ।
वह तत्काल दौड़ती हुई अपने पितामह के कक्ष में गई जहाँ उसके पिता को पहले जाते हुए देखा गया था । वह मस्तिष्क में परेशानी लिए, प्रहरियों को एक तरफ़ धकेलती हुई अपने दादा-दादी के विशाल खुले कक्ष में पहुँची जिससे वहाँ उपस्थित तीनों वृद्धजन चैंक गए ।