पुस्तक का विवरण (Description of Book) :-
नाम / Name | विक्रमोर्वशी / Vikramovarshi |
लेखक / Author | |
आकार / Size | 4.4 MB |
कुल पृष्ठ / Pages | 147 |
Last Updated | March 26, 2022 |
भाषा / Language | Hindi |
श्रेणी / Category | उपन्यास / Upnyas-Novel, धार्मिक, हिन्दू धर्म |
कविकुल गुरू कालिदास ने जहाँ संस्कृत साहित्य में उच्चकोटि के महाकाव्यों और खंडकाव्यों की रचना की, वहीं उत्कृष्ट नाटकों का भी सृजन किया । विक्रमोर्वशी तथा मालविकाग्निमित्र उनके लोकप्रिय नाटक हैं । दोनों ही नाटकों में नायक का नायिका से अकस्मात मिलन, संयोग, वियोग और अंत में पुनर्मिलन होता है । यह कालिदास की ही विशेषता है कि नायक नायिका के सुख-दुख में जड़-प्रकृति भी मुखरित हो उठती है ।
पुस्तक का कुछ अंश
महाकवि कालिदास को सर्वसम्मति से भारत का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। उन्होंने अपने महाकाव्यों, नाटकों तथा मेघदूत और ऋतुसंहार जैसे काव्यों में जो अनुपम सौंदर्य भर दिया है, उसकी तुलना संस्कृत साहित्य में अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। इसीलिए उन्हें 'कवि-कुलगुरु' भी कहा जाता है। यो संस्कृत में माघ, भारवि और श्री दर्प बड़े कवि हुए हैं, जिनकी रचनाएँ 'शिशुपालवध', 'किरातार्जुनीय' तथा 'नैषधीयचरितम् बृहन्त्रयी अर्थात् तीन बड़े महाकाव्यों में मिली जाती हैं और कालिदास के 'रघुवंश', 'कुमारसम्भव' और 'मेघदूत' को केवल लघुत्रयी कहलाने का गौरव प्राप्त है। फिर भी भावों की गहराई, कल्पना की उड़ान तथा प्रसादगुणयुक्त मंजी हुई भाषा के कारण लघुत्रयी पाठक को जैसा रस-विभोर कर देती है, वैसा बृहत्त्रयी की रचनाएँ नहीं कर पाती। विभिन्न प्रकार के काव्य-चमत्कारों के प्रदर्शन में भले ही उन कवियों ने भारी प्रयास किया है, किन्तु जहाँ तक विशुद्ध काव्य-रस का सम्बन्ध है, उनमें से कोई भी कालिदास के निकट तक नहीं पहुँचता। “एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित्। शृंगारे ललितोद्गारे कालिदासत्रयी किमु| " ( राजशेखर ) ।
किन्तु संस्कृत भाषा के इस सर्वश्रेष्ठ कवि के सम्बन्ध में हमारी जानकारी केवल इतनी ही हैं कि वे कुछ संस्कृत काव्यों और नाटकों के प्रणेता थे। उनकी लिखी हुई अड़तीस रचनाएँ कहीं जाती हैं, जो निम्नलिखित हैं- 1. अभिज्ञान शाकुन्तल 2. विक्रमोर्वशीय 3. मालविकाग्निमित्र 4. रघुवंश 5. कुमारसम्भव 6. मेघदूत 7. कुन्तेश्वरदौत्य 8. ऋतुसंहार 9 अम्बास्तव 10. कल्याणस्तव 11. कालीस्तोत्र 12. काव्यनाटकालंकारा: 13. गंगाष्टक 14. घटकर्पर 15. चंडिकादंडकस्तोत्र 16. चर्चास्तव 17. ज्योतिर्विदाभरण 18. दुर्घटकाव्य 19. नतोदय 20. नवरत्नमाला 21. पुष्पवाणविलास 22. मकरन्दस्तव 23. मंगलाष्टक 24. महापराषट्क 25. राजकोष 26. राक्षसकाव्य 27 तक्ष्मीस्तव 28 लघुस्तव 29. विहिनोदकाव्य 30. वृन्दावनकाव्य 31. वैद्यमनोरमा 32. शुद्धचन्द्रिका 33. शृंगारतितक 34. शृंगाररसाष्टक 35. शृंगारसारकाव्य 36. श्यामलादंडक 37. ऋतुबोध 38. सेतुबन्धा किन्तु इनमें से पहली छठ और 'ऋतुसंहार' ही सामान्यतया प्रामाणिक रूप से उनकी लिखी मानी जाती है। कुछ लोग 'ऋतुसंहार' को भी कालिदास रचित नहीं मानते। ऐसा भी प्रतीत होता है कि कालिदास नाम से बाद में एक या दो और कवियों ने भी अपनी रचनाएँ लिखीं। इसीलिए राजशेखर ने अपने श्लोक में, जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है, तीन कालिदासों का जिक्र किया है। सम्भव है कि असली कालिदास के अतिरिक्त दूसरे कालिदास नामधारी कवियों ने ये शेष रचनाएँ लिखी हों, जिनको आलोचक मूल कालिदास के नाम के साथ जोड़ना पसन्द नहीं करते। 'अभिज्ञान शाकुन्तल', 'विक्रमोर्वशीय' और 'मालविकाग्निमित्र' नाटक तथा 'रघुवंश',
'कुमारसम्भव' और 'मेघदूत' काव्य कालिदास के यश को अमर रखने के लिए पर्याप्त है। संस्कृत में ऐसे कवि कम हैं जिनकी इतनी प्रौढ़ रचनाओं की संख्या एक से अधिक हो। भवभूति के लिखे तीन नाटक तो प्राप्त होते हैं, किन्तु उसने महाकाव्य लिखने का प्रयत्न नहीं किया। इतने बड़े साहित्य का सृजन करने वाले इस कवि शिरोमणि ने अपने सम्बन्ध में कहीं भी
कुछ भी नहीं यह कवि की अत्यधिक विनम्रता का ही सूचक माना जा सकता है। अन्य कई संस्कृत कवियों ने अपनी रचनाओं में अपने नाम के साथ-साथ अपने माता-पिता के नाम तथा जन्मस्थान का उल्लेख किया है; परन्तु कालिदास ने केवल अपने नाटकों के प्रारम्भ में तो यह बतला दिया है कि ये नाटक कालिदास रचित हैं, अन्यथा और कहीं उन्होंने अपना संकेत तक नहीं दिया। रघुवंश के प्रारम्भ में उन्होंने यह अवश्य लिखा है कि "में रघुओं के वंश का बखान करूँगा।" परन्तु यह 'मैं' कौन है, इसका उल्लेख घुवंश के श्लोकों में नहीं है। वहाँ भी जहाँ कालिदास ने उत्तमपुरुष, एक वचन में अपना उल्लेख करते हुए यह लिखा है कि "मैं शुओं के वंश का बखान करूँगा", वहाँ अतिशय विजय से काम लिया है। न केवल उन्होंने अपने आपको 'तनुवान्विभव' कहा है, अपितु यह भी कहा है कि "मेरी स्थिति उस बौने के समान है, जो ऊंचाई पर लटके फल को लेने के लिए हाथ बढ़ा रहा हो" और यह कि "मेरा प्रयत्न छोटी-सी नाव से सागर को पार करने के यत्न जैसा है; और अन्त में दूसरे प्राचीन कवियों का आभार स्वीकार करते हुए कहा है कि “जैसे वज्र से मणि में छेद कर देने के बाद उसमें सुई से भी थामा पिरोया जा सकता है, उसी प्रकार प्राचीन कवियों द्वारा स्यु के वंश का वर्णन किए जा चुकने के बाद में भी सरलता से उसका वर्णन कर सकूँगा।"
कालिदास की यह विनयशीलता उनके लिए शोभा की वस्तु है और सम्भवत: इसी के वशीभूत होकर वे अपने सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिख गए। और आज उनकी रचनाओं का रसास्वादन करने वाले रसिकों को जब यह जिज्ञासा होती है कि कालिदास कौन थे और कहाँ के रहनेवाले थे, तो इसका उन्हें कुछ भी सुनिश्चित उत्तर प्राप्त नहीं हो पाता। अधिक-से-अधिक कालिदास के सम्बन्ध में जो जानकारी प्राप्त की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए केवल इतना जान लेने से कि कालिदास पहली शताब्दी ईस्वी पूर्व से लेकर ईसा के बाद चौथी शताब्दी तक की अवधि में हुए थे, और या तो वे उज्जैन के रहनेवाले थे या कश्मीर के या हिमालय के किसी पार्वत्य प्रदेश के, पाठक के मन को कुछ भी संतोष नहीं हो पाता। इस प्रकार के निष्कर्ष निकालने के लिए विद्वानों ने जो प्रमाण उपस्थित किए हैं, वे बहुत जगह विश्वासोत्पादक नहीं हैं और कई जगह तो उपहासास्पद भी बन गए हैं। फिर भी उन विद्वानों का श्रम व्यर्थ गया नहीं समझा जा सकता, जिन्होंने इस प्रकार के प्रयत्न द्वारा कालिदास के स्थान और काल का निर्धारण करने का प्रयास किया है। अन्धेरे में टटोलने वाले और गलत दिशा में बढ़ने वाले लोग भी एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य को पूर्ण करने में सहायक होते हैं, क्योंकि वे चरम अज्ञान और निष्क्रियता की दशा से आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं।
कालिदास का काल
कालिदास का काल निर्णय करने में सबसे बड़ा आधार विक्रमादित्य का है। न केवल जनश्रुति यह चली आ रही हैं कि कालिदास उज्जयिनी के महाराज विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में से एक थे, अपितु 'अभिज्ञान शाकुन्तल' के प्रारम्भ में सूत्रधार भी आकर यह घोषणा करता है कि 'आज रस और भावों के विशेषज्ञ महाराज विक्रमादित्य की सभा में बड़े-बड़े विद्वान एकत्रित हुए हैं। इस सभा में आज हम लोग कालिदास रचित नवीन नाटक 'अभिज्ञान शाकुन्तल' का अभिनय प्रस्तुत करेंगे।' इससे इस विषय में सन्देह नहीं रहता कि 'अभिज्ञान शाकुन्तल' की रचना महाराज विक्रमादित्य की सभा में अभिनय करने के लिए हुई थी। कालिदास के नाटक 'विक्रमोर्वशीय' में 'विक्रम' नामक प्रयोग भी इसी बात को सूचित करता है कि विक्रमादित्य के साथ कालिदास का घनिष्ठ सम्बन्ध था और 'विक्रम' शब्द का प्रयोग करने में उन्हें विशेष आनन्द आता था। इस आनन्द का मूल सम्भवतः यह रहा हो कि जब वे नाटक राजसभाओं में प्रस्तुत किए जाते थे, तो ‘विक्रम' शब्द आते ही रंगशाला तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठती होगी।
विक्रमादित्य का स्थान और काल
किन्तु केवल इतना निश्चय हो जाने से कि कालिदास विक्रमादित्य के समकालीन थे और उनकी राजसभा के कवि थे, समस्या पूरी तरह हल नहीं होती, क्योंकि स्वयं इस विक्रमादित्य के सम्बन्ध में कुछ समय पहले तक विद्वानों में बड़ा मतभेद था। जैसी कि पश्चिमी विद्वानों की प्रवृति रही है, विक्रमादित्य के सम्बन्ध में भी पहली बात तो यह कही गई कि विक्रमादित्य नाम का कोई राजा हुआ ही नहीं, दूसरी बात यह कही गई कि विक्रमादित्य एक नहीं, कई हुए; तीसरी बात यह कही गई कि विक्रमादित्य किसी व्यक्ति का नाम नहीं था, अपितु एक उपाधि थी, जिसे कई राजाओं ने धारण किया। इस प्रकार इन इतिहासकारों ने विक्रमादित्य के काल और स्थान को अन्धकार में से खोजकर बाहर लाने के बजाए उसे और भी धुंध में छिपा देने का यत्न किया।
विक्रमादित्य के सम्बन्ध में हमारी प्राचीन परम्परा से चली आ रही स्थापना यह है कि विक्रमादित्य एक प्रजावत्सल राजा थे। उनकी राजधानी शिप्रा नदी के तीर पर उज्जयिनी में थी। उन्होंने एक महान युद्ध में विदेशी शक आक्रान्ताओं को परास्त किया और उस विजय के उपलक्ष्य में एक संवत् का प्रारम्भ किया, जो आज भी सारे देश में विक्रम संवत् नाम से प्रचलित हैं। विक्रम संवत् के प्रचलित होते हुए यह कह देना कि विक्रमादित्य नाम का कोई राजा हुआ ही नहीं, ठीक ऐसा ही है जैसे ईस्वी सन् के विद्यमान रहते यह कह दिया जाए कि कोई ईसा हुआ ही नहीं।
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