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होश में आओ
२०११ की एक रात, मध्य भारतमें स्थित एक घर
जब जावेद ने बेडरूम में जाने के लिए दरवाज़ा खोला, तो गुलाबों की महक ने उसका स्वागत किया। वह पहले से इसके लिए तैयार था। तैयार न भी होता, तो भी उसकी दूर की बहनों की बेहिसाब हँसी-ठिठोली ने उसके मन में यह बात बिठा दी होती कि आज की रात उसी की होने वाली है। उनकी बेशर्म हँसी-ठट्टे की आवाज़ें घर के कोने-कोने में इस कदर गूँज रही थी कि हजार कोस दूर का फासला तय कर आए मेहमान भी शर्म से लाल हुए बिना नहीं रह पा रहे थे। जावेद की शादी के बहाने, वे भी अपने हम उम्रों के बीच बैठे अपनी शादी की पहली रात के बारे में बातें करते हुए खुद को रोक नहीं पा रहे थे। वे ऐसी अश्लील बातें कर रहे थे कि किसी के भी पेट में गुदगुदी होने से न रूकती।
जब घर के माहौल में ही प्यार की खुशबू बिखरी हुई हो, तब भला वह दुल्हन इससे कैसे अछूता रहती रह सकती थी, जो अपने झिलमिलाते लिबास को थोड़ा सिमटाये व थोड़ा फैलाएँ अपने मियाँ ‘जावेद’ के इंतज़ार में बेचैनी में बैठी थी। मियाँ जावेद की नवेली दुल्हन ‘मिस्बा’ को भी उसकी ननंदों ने बख्शा नहीं था। जावेद के पहले, सभी उसी के साथ हँसी-ठिठोली करते हुए उसे बहुत सी हिदायतें दे रही थी। हालाँकि, वे हिदायतें उसकी सहेलियों और भाभी जान ने पहले ही दे दी थी।
सुहागरात के लिए हर नयी दुल्हन और हर नया दूल्हा हजारों ख्वाहिशें और कल्पना करता हैं। और उस इंतजार की तो पूछो मत, वह इंतजार जिसका एक-एक पल घण्टों जितना लम्बा लगता है। फिर चाहे इंतज़ार फूलों की सजे सेज पर दुल्हन कर रही हो, या बाहर दोस्तों व बहनों से घिरा दूल्हा। वह इंतजार ऐसा लगता है, जैसे कभी ख़त्म ही न होगा। लेकिन क्षण-क्षण बढ़ते समय के साथ उसे तब ख़त्म होना ही पड़ता है, जब दूल्हा कमरें में घुसते ही दरवाजे की चटखनी बंद कर देता है।[adinserter block="1"]
अपनी बैसाखी का सहारा लेते व कुछ लंगड़ाते हुए जावेद कमरें में आ चुका था। हालाँकि, दरवाज़े में दाख़िल होने से पहले तक वह इसी कशमकश में उलझा हुआ था, कि बैसाखी को कमरे के बाहर ही रख दें और पैरों को थोड़ी तकलीफ देते हुए शान से अन्दर जाएँ या कोई और उपाय करें। लेकिन बार-बार अपने दाहिने पैर से उसका ध्यान हटता ही नहीं था। वह पैर जो पोलियो से ग्रसित न होकर किसी और कारण से बेहद सी दुबला-पतला और बेजान सा था, बिलकुल, बिना फलों वाले किसी पेड़ की पतली सूखी डाल की तरह, जो किसी भी क्षण हवा के झोंके से टूट जाए। उसका पैर बस लटका हुआ था। उस पैर के कारण ही जावेद मियाँ को बैसाखी का सहारा लेने को मजबूर होना पड़ा था। साथ ही उस छोटे पैर को जिसे देखने पर किसी को भी हैरत होती, दुनिया की नज़रों से बचाने के लिए नकली पैर से ढापना पड़ा था। इस तरह हम कह सकते है कि उसका दाहिना पैर नकली था। जिसे उसने कई फीतों या कहें -बेल्टों से जांघ पर बाँधा हुआ था।
उसने बैसाखी बाहर रख देने का ख़याल छोड़ दिया और अपनी दुल्हन के पास वैसे ही जाने का मन बनाया, जैसा वो वास्तव में था। उसने सोचा कि बाद में और भी रातें आएगी जब उसे चटखनी बंद कर सेज तक जाना होगा। इसलिए तब वह शर्मिंदा नहीं होना चाहता था।
उसने दरवाज़े की चटखनी बंद की। घुमकर देखा तो बेगम ‘मिस्बा’ गुलाबी लिबास में सिमटी और थोड़ी घबराई सी बैठी थी। फूलों की झालर के नीचे सेज पर, या कहे जावेद के बिस्तर पर, जिस पर वह अब तक अकेला सोता आया था। मिस्बा को उकडू बैठे और इंतज़ार में पलकें बिछाएं देख एक पल को जावेद के होठों पर मुस्कान तैर गई।
“कभी सोचा नहीं था, यह दिन इतनी जल्दी आ जाएगा। लेकिन क्या...?” वह सोचने लगा।
अपने पैर की अपंगता के कारण शादी उसके लिए कोरी कल्पना ही थी। लेकिन आज वो हकीकत बनकर उसके सामने थी। वह आगे बढ़ता इससे पहले उसका ध्यान पंखे की खड़खड़ाहट पर गया। उसने ऊपर देखा। फिर अपनी बैसाखी दीवार के सहारे लगा दी और दाहिने पैर को थोड़ी तकलीफ देता हुआ सेज तक पहुँच गया। लाल गुलाबों की झालर थोड़ी सी हटाकर वह अभी बैठा ही था, कि मिस्बा ने सकुचाते हुए खुद को थोड़ा और सिमटा लिया। जैसे उसे सिखाई गई हिदायतें अचानक से याद आ गई थी।
“डरो नहीं!अब से यह तुम्हारा ही कमरा है। और मैं तुम्हारी मर्जी के बगैर कुछ नहीं करूँगा।” जावेद गर्मी महसूस करते हुए अपनी शेरवानी के बटन खोलने लगा। उसे तंग शेरवानी जगह-जगह से चुभ रही थी। शायद उसका कपड़ा अच्छा नहीं था।
“तुम्हें गर्मी तो नहीं लग रही? मेरे कमरे में का कूलर मेहमानों के कमरे में लगा है।” उसने मिस्बा से बात करने की शुरुआत करते हुए पूछा।
“नहीं, हमें गर्मी नहीं लग रही।” थोड़ी घबराई-सी, लेकिन उम्मदों से भरी एक मीठी आवाज़ जावेद के कानों में घुल गई।जावेद के होठों पर फिर मुस्कान तैर गई।
“तुम्हारी आवाज़ बहुत मखमली है।” उसने मिस्बा से कहा।
“शुक्रिया!” मिस्बा पलकें उठाकर मुस्कुरा दी।[adinserter block="1"]
“जानती हो, जब तुम्हें देखने आया था, तब केवल तुम्हारी आवाज़ सुनकर ‘हाँ’ कह दी थी।” जावेद शेरवानी के तीन बटन खोल चुका था।
“अच्छा!” मिस्बा गर्दन उठाकर जावेद को ठीक से देखना चाह रही थी, लेकिन उठा न सकी। वह शर्मा रही थी।
“मैं बहुत घबराया हुआ था। सोचा नहीं था, कि कोई मुझे अपना जीवन साथी बनाने के लिए हाँ कह देगा।” जावेद ने एक पल रुकते हुए पूछा, “तुमने मेरे लिए हाँ क्यों कहा था?”
“पता नहीं।” मिस्बा अपनी मधुर और मीठी आवाज़ में बोली।
“पता नहीं!” जावेद सोचने लगा। फिर एक क्षण रुककर उसने कहा, “समझा! मतलब मैं तुम्हें पसंद नहीं था।”
“नहीं ऐसा नहीं है, हमें आप पसंद थे! अब भी हैं...” मिस्बा ने झट से बोलते हुए खुद को संयत किया।
उसकी आवाज़ में हड़बड़ाहट जावेद को अच्छी लगी। वह मुस्कुरा दिया।“मतलब तुम जानती थी, कि मैं एक पैर से विकलांग हूँ।” उसने फिर से पूछा। वह अपने मन की सभी शंकाएँ निकाल देना चाहता था।
“नहीं। हमें पहले से नहीं मालूम था।” मिस्बा ने बताया।
“तुम्हें बाद में बताया गया होगा. हैं न?” जावेद के हाथ फिर रुक गए। उसे पंखें की खड़-खड़ आवाज़ कानों में चुभती-सी मालूम हो रही थी।
“हमें फोटो दिखाया गया था।”
“कौन-सा वाला फोटो?” जावेद ने याद करते हुए पूछा।
“जिसमें आप पूल खेल रहे हैं। उसे देखकर ही हमने हाँ कहा था। तब आप एक ही बार में पसंद आ गए थे। लेकिन...।” मिस्बा कहते हुए रुक गई।
“लेकिन क्या?” पूछते हुए जावेद फोटो के बारे में सोचने लगा। फिर मुस्कुराते हुए उसने कहा, “समझा। शायद तब तक तुम्हें अम्मी-अब्बा ने बताया नहीं होगा।”
“हाँ!”[adinserter block="1"]
“मेरे उस फोटो में पूल की टेबल पर कुछ गेंदे और मेरा शॉर्ट लगाना ही नज़र आ रहा है। अम्मी ने वही फोटो भेजा जिसके लिए मैंने मना किया था। वैसे मैंने सोचा था कि मेरा फोटो दिखाने से पहले तुम्हें मेरे अपंग होने की बात बताई जाएगी।”
“अल्लाह, हमें माफ करें। हमें यह बात कहनी नहीं चाहिए, लेकिन आपके एक पैर से विकलांग होने की बात हमें सबसे आख़िरी में बताई गई थी।”
“अच्छा!” जावेद को आश्चर्य हुआ।
“जी! हमें सबसे पहले आप की खूबियों के बारें में बताया गया था।”
“जैसे?” जावेद ने मुस्कुराते हुए पूछा, जबकि वह जानता था कि मिस्बा से क्या कहा गया होगा।
“जैसे आप किसी कंपनी में बड़े पद पर इंजीनियरहैं। अच्छा कमाते हैं। बहुत पढ़े-लिखे हैं, इतना कि हम तो उसका आधा भी नहीं पढ़े हैं। आपने शतरंज और कैरम जैसे खेलों में गोल्ड मेडल पाए हैं और नेशनल तक खेले हैं।” अब मिस्बा की झिझक दूर हो चुकी थी। उसने नज़रें उठाकर जावेद को देखा।
जावेद शेरवानी के सारे बटन खोल चुका था और पंखे को देख रहा था। पंखा बहुत कम हवा फेंक रहा था। मिस्बा भी पंखे को घूरने लगी।
“और?” जावेद ने मिस्बा के चुप होने पर पूछा। अब दोनों की नज़रें मिली।
“और क्या?” मिस्बा जावेद को देखती रह गई। उसने आगे कहा, “इतनी खूबियाँ सुनकर हमने आपका फोटो देखा। आप हमें हैंडसम लगे। हमें तुरंत हाँ कहने का मन हुआ लेकिन...” मिस्बा फिर रुक गई और उसने नज़रें झुका ली।
“लेकिन क्या?” जावेद ने हैरत से पूछा।
“लेकिन हम हाँ कहते, इससे पहले ही अम्मी-अब्बू हमारे दिल की बात जान गए, उन्होंने हमें आपके अब्बू के बारे में बताया। वे नहीं है, है न?”
“वो है भी और नहीं भी! वे घर छोड़कर चले गए थे।” जावेद मायूस होता हुआ बोला।
“क्यों?” मिस्बा को आश्चर्य हुआ।
“लम्बी कहानी है। तुम बाताओं, मेरे अब्बू के बारे में बताने के बाद तुम्हें क्या बताया गया?”
“आपके पैर के बारे में...” मिस्बा सोचने लगी कि जावेद को अपने सही मनोभाव बताए या नहीं।
पर जावेद ने उसे ज्यादा सोचने नहीं दिया और खुद ही बोल पड़ा, “सच जानकर तुम्हारी सारी खुशी का काफूर हो गई होगी।” जावेद ने शरवानी उतारकर एक ओर रख दी। उसने गर्दन घुमा कर मिस्बा की ओर देखा। मिस्बा उससे नज़रें मिलाने की कोशिश कर रही थी।उसकी आँखों में जावेद के लिए नरमी, प्यार और अपनेपन के भाव आ रहे थे।
“आपको कईयों ने इनकार किया है, है न?” मिस्बा ने पूछा।[adinserter block="1"]
“हाँ। लेकिन मैं हमेशा से उसके लिए तैयार रहता था।” जावेद ने लम्बी नि:श्वास छोड़ते हुए कहा, “अच्छा यह बताओ,जब तुम्हें पता चल गया कि मेरा एक पैर आधा ही है, तब तुम कैसे मान गई?” अब जावेद अपने दाहिने नकली पैर के बेल्ट खोलने लगा था।
“पता नहीं।” मिस्बा, जावेद का पैर देखने के लिए थोड़ी झुकी।
“पता नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है?” जावेद अपना नकली पैर हटाते हुए रुक गया।
“शायद हमारे दिल से आवाज़ आई, कि हमें आपके लिए हाँ कह देना चाहिए।” मिस्बा अपनी सिमटी झिझक को दूर करने की कोशिश करते हुए जावेद के करीब सरक गई। फिर बिस्तर से उतरकर अपने हाथों से जावेद के नकली पैर की बेल्ट खोलने लगी।
“मैं खुद कर लूँगा।” जावेद उसे मना करते हुए बोला। लेकिन मिस्बा जावेद का अपंग पैर देखना चाहती थी, ताकि उस नेक दिल और कई खूबियों वाले इंसान के और करीब आ सके जिसे दुनिया द्वारा अब तक नकारा जा रहा था। फिर वह जावेद को अपना मान चुकी थी।
जावेद का दिल उसके प्यार को महसूस कर आभार से भर गया। वह मिस्बा को प्रेमपूर्ण होकर देखने लगा। खूब सजी-धजी दुल्हन उसके नकली पैर के पेचीदे फीतों से दो-दो हाथ कर रही थी। जावेद उसे चाहकर भी नहीं रोक पाया। उसे मिस्बा का मासूम चेहरा और उसके चेहरे पर आई शिकन भा गई। वह एकटक उसे देख अल्लाह का शुक्रिया करने लगा।
जब नकली पैर के सारे बेल्ट खुल गए तब मिस्बा उसे जांघ से अलग करने हो हुई। उसी पल जावेद ने हाथ बढाकर मिस्बा को रोक लिया। यह कहते हुए, कि-
“मेरे ख्याल से तुम्हें इसे नहीं देखना चाहिए!”
इस पर मिस्बा ने उसकी आँखों में झाँका। उसने जावेद को यकीन दिला दिया कि वह उसके पैर को देखने के लिए तैयार थी। जिसके बारें में उसकी अपनी कल्पनाएँ और ख्याल थे, जो उन बातों से उपजे थे, जिन्हें उसकी अम्मी और कुछ सम्बन्धियों ने उसके दिमाग में बैठाने की कोशिश की थी।
“पैर है तो सही, लेकिन कुछ अजीब-सा है!” मिस्बा को लोगों की बातें याद करने लगी, “नहीं-नहीं, पैर है ही नहीं। वो नकली पैर इस्तेमाल करता है।
“पर तब भी चल नहीं पाता। उसे एक बैसाखी लगती है।”
ऐसी और भी बातें थी।
मिस्बा ने उस नकली पैर को जावेद से अलग किया, वो पैर जिसके बगैर जावेद अपने वजूद की कल्पना भी नहीं कर सकता था और जिसे वह कई बार रातों को पहने हुए ही सो जाता था; वह नकली पैर जिसे वो अपने शरीर का अंग ही मानता था, पहली बार किसी और के द्वारा उतारा जा रहा था। उसे उतारते ही मिस्बा चौंककर पीछे हट गई।
“या अल्लाह!” उसके मुँह से निकल पड़ा।
जावेद की मोटी व मजबूत जांघ के नीचे एक छोटा और पतला-सा, अर्ध विकसित पैर लटक रहा था।बिना फूल और फलों वाली सूखी पेड़ की डाल की तरह। मिस्बा आँखें फाड़े उसको घूरती रही । उसके चेहरे के भावों को देख जावेद का दिल छोटा हुआ जा रहा था। कुछ पल बीतने के बाद, मिस्बा ने सामान्य होते हुए पंखे की खड़-खड़ आवाज़ के बीच पूछा,
“क्या आपको पोलियो था?”
जावेद इस सवाल को बचपन से सुनता आया था। उसने मिस्बा को भी वही जवाब दिया जो वह अब तक देता आया था।
“यह पोलिया की वजह से नहीं है।”
“फिर?” अब मिस्बा हैरत से जावेद को देखते हुए उठी। उसने नकली पैर को पलंग के नीचे सरका दिया और फिर जावेद के पास बैठ गई थी।
“यह एक लाइलाज जेनेटिक डिसऑर्डर है, मिस्बा। ऐसी बीमारी जिसने हमारे खानदान को पीढ़ियों से अपने मुँह में दबाए रखा हैं। जो न तो ख़त्म होती है और न ही इसका इलाज होता है। मुझे डर है कि यह हमारे बच्चों को भी होगा।” जावेद अपने पैर को घूरने लगा। फिर उसने पायजामा नीचे कर लिया। उसे पल उसे अपने कहे पर सोच हुआ।
“तौबा-तौबा! अल्लाह के लिए ऐसी बात न करें जावेद!” मिस्बा घबरा गई।
“माफ़ी चाहता हूँ! पर यह बीमारी पीढ़ियों से है!” जावेद ने बताया।[adinserter block="1"]
“पीढ़ियों से... मतलब?” मिस्बा की हैरानी बढ़ गई। जेनेटिक बीमारी उसकी समझ में नहीं आई।
“यह डिसऑर्डर मेरे अब्बा जान को भी था और न केवल उन्हें बल्कि मेरे दादा, मेरे परदादा और शायद उनके परदादा को भी था।”
“क्या सभी के पैर आपके पैर जैसे थे?” मिस्बा बेहद घबरा गई थी। उसे यकीन करना मुश्किल हो रहा था।
“पता नहीं! बचपन में अम्मी ने बताया था कि मेरे दादा के दोनों पैर नहीं थे। तब वो दिल्ली वाले पुश्तैनी घर में दुल्हन बनकर आई थी।”
“अच्छा!”
“अब्बा भी पैरों से लाचार थे। मेरे पैदा होने के कुछ समय बाद घर छोड़कर चले गए थे। मुझे देख उन्हें तरस आता था। वे बर्दाश्त नहीं कर सके। वे चाहते भी नहीं थे कि अम्मी औलाद के लिए ज़िद करें। शायद इसी वजह से दोनों में अनबन हुई होगी।”
“शायद?” मिस्बा ने अंदाज़ा लगाते हुए पूछा।
“मैंने अम्मी से कभी पूछा नहीं। पर उनके हाव-भाव से समझ गया था।”
“हम कई बच्चों की अम्मी बनना चाहती है!” मिस्बा के मन वे हिदायतें चक्कर लगा रही थी जिन्हें याद करते हुए उसका सब्र कम हो रहा था। वो सोच रही थी कि कब जावेद उसे अपनी ओर खींचकर उसके होंठों पर अपने होंठ रखेगा। भले ही उसका पैर कमजोर था, लेकिन तब भी वह बड़ा ही आकर्षक नौजवान था।
जावेद के दादा और अब्बा की बातें सुनते हुए मिस्बा उसके पास बैठ गई और धीरे-धीरे सरकते हुए उसने कब जावेद के कंधों पर सिर रख दिया, उसे होश ही न रहा। उसे जावेद एक सुलझा हुए इंसान लगा। जावेद को भी मिस्बा एक समझदार लड़की लगी। कुछ ही देर में दोनों के बीच की दूरियाँ बिलकुल कम हो गई। इतनी कि अपनी झिझक को दूर करते हुए दोनों ने होंठों को सटा लिया।
कुछ देर बाद, जावेद ने कमरे की बत्तियाँ बुझा दी। कमरे में अँधेरा होते ही जावेद को दरवाज़े के बाहर से उसकी दूर की बहनों के हँसने की आवाज़ें आई।उसने मुस्कुराते हुए मिस्बा से कहा, “पता नहीं, इन्हें आज क्या हो गया है!” फिर उसने मिस्बा को अपने आगोश में ले लिया।[adinserter block="1"]
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जब उसकी आँख खुली तो उसने देखा उसका दोस्त ‘इरफ़ान’ उसके गालों पर जोर से थपकियाँ देकर उसे उठाने की कोशिश करता हुआ, जोर-जोर से चिल्ला रहा था,“होश में आओ! होश में आओ, जावेद मियाँ!”
“क्या हुआ?” जावेद ने आँखें खोलते हुए पूछा। वह किसी पार्क में जमीन पर पड़ा हुए था। उसके दाहिने कंधे में जोर का दर्द उठ रहा था। कंधे से खून की धारा निकलकर उसकी उजली कमीज़ को भीगा रहा था। इरफ़ान और एक अन्य व्यक्ति उसे उठा रहे थे।
“हम तुम्हें अस्पताल ले जा रहे हैं।” इरफ़ान घबराते हुए उसे बताया और तीन की गिनती के साथ ही उसने जावेद को अपने कंधे पर उठा लिया। दूसरा व्यक्ति जिसने सफ़ेद टोपी पहनन रखी थी, जावेद की बैसाखी को थामकर उससे इरफ़ान के लिए रास्ता बना रहा था ।
जावेद ने बेहोशी की हालत में देखा पार्क में बहुत से लोगों की भीड़ थी।
“मुझे क्या हुआ है, इरफ़ान?” जावेद ने कराहते हुए पूछा।
“अरे! मियाँ गोली लगी है, तुमको।” इरफ़ान तेज़ साँसें लेते हुए बोला। जावेद का शरीर भारी था।
“नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधी को गोली मार दी है। एक गोली तुम्हें भी लगी। तुम होश मत खो देना। अगर निपट गए तो भाभीजान को क्या मुँह दिखाऊँगा। साला ये समय यात्रा भारी पड़ने वाली है।” बड़बड़ाते हुए इरफ़ान ने अंतिम वाक्य कहा।
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-भविष्य में जाने के लिए प्रकाश की गति से यात्रा करनी होगी।
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पर्ची नष्ट कर देना
31 जनवरी 1948, दिल्ली का एक अस्पताल।
बड़े से हॉल में दर्जनों बिस्तर लगे हुए थे। जिनमें से ज्यादातर पर मरीज लेटे थे।मरीजों की तिमारदारी के लिए वहाँ दो डॉक्टर, कुछ नर्सें, वार्डबाय और तीन सफाई कर्मचारी थे, लेकिन सभी बड़े बेमन से काम कर रहे थे। उनके चेहरों पर मायूसी और मातम के भाव थे। यह भाव होते भी क्यों नहीं?
आख़िर देश के बापू ‘मोहन दास करम चाँद गांधी’ उर्फ़ ‘महात्मा गाँधी’ नहीं रहे थे।
वह दिन ही कुछ ऐसा था। नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी। जिससे पूरा देश सकते में आ गया था। विभाजन से पूर्व और उसके बाद हिन्दू-मुस्लिम दंगों को रोकने व देश में अमन, चैन, एकता, भाईचारा तथा शान्ति कायम करने लिए बापू जी जान से जुटे थे। हालांकि कुछ संगठन और लाखों हिन्दू-मुस्लिम नहीं चाहते थे कि वो बूढ़ा फिर कोई और बवाल करें। फ़रवरी के प्रथम सप्ताह में महात्मा गांधी पाकिस्तान की यात्रा पर जाने की योजना बना रहे थे। वो भी पैदल। ठीक दांडी यात्रा की तरह। लेकिन नियति ने कुछ और ही तय कर रखा था।
दो सिविल इंजीनियर दोस्त ‘जावेद और इरफ़ान’ किसी को ढूँढ रहे थे और समय यात्रा करते हुए २०११ से १९४८ में आ पहुँचे थे। वे अस्पताल में थे जहाँ भर्ती मरीजों के साथ, नर्सों, डॉक्टरों, वार्डबॉय आदि की आँखों में बार-बार आँसू आ रहे थे। सभी महात्मा गाँधी के जाने से दुःख का अनुभव कर रहे थे।[adinserter block="1"]
सभी की जुबान पर एक ही बात थी, ‘उसने बापू को क्यों मारा? उसे बापू की हत्या नहीं करना चाहिए थी।’
कुछ मरीज़ बार-बार डॉक्टर या नर्स से कह रहे थे, ‘भगवान! मेरे शरीर में थोड़ी ताकत भर दे तो मैं बापू के अंतिम दर्शन करने जाऊँ।’ फिर कुछ ऐसे भी थे, जो पूछ रहे थे, ‘क्या मुझे छुट्टी मिल सकती है? मैं बापू को कंधा देना चाहता हूँ!’ एक-दो विरोध के स्वर भी वहाँ गूँज रहे थे, ‘देश के विभाजन का फल मिला है गाँधी को! अच्छा हुआ मर गया।’
हॉल से लगे एक निजी वार्ड में इरफ़ान लकड़ी के स्टूल पर बैठा बाहर मरीजों और डॉक्टरों की बातें सुन रहा था। जावेद उसके सामने बिस्तर पर लेटा था। उसके सिरहाने दायीं ओर छोटी-सी टेबल पर सेब, पानी का लोटा व दवा की दो-तीन पुड़िया रखी थी। डॉक्टर ने उसके कंधे से गोली निकाल दी थी और दो दिन अस्पताल में ही आराम करने को कहा था। साथ ही ये भी बताया था कि पार्क में हुई घटना की पूछताछ करने कोई अधिकारी आएगा।
“लगता है, बाहर कल के बारे में बातें हो रही है?” जावेद ने अपने कंधे पर बंधी पट्टी को देखते हुए इरफ़ान से पूछा। उसकी नज़र अपनी बैसाखी पर भी गई जो उसके सामने एक कोने में दीवार से तिरछी लगी हुई थी।
“हाँ, शहर भर में महात्मा गांधी के बारे में बातें हो रही है।” इरफ़ान से दरवाज़े की आड़ में से बाहर देखते हुए कहा। दरवाज़ा हल्का-सा खुला हुआ था।
“अच्छा! क्या तुमने उन्हें देखा था?” अब जावेद इरफ़ान से कुछ ज़रूरी बात करना चाहता था। वह तकिए का सहारा लेकर बैठने की कोशिश करने लगा।
“तुम लेटे रहो जावेद मियाँ! डॉक्टर तुम्हें आराम करने को बोल गया है।” इरफ़ान स्टूल से उठते हुए जावेद को सहारा देने के लिए पास गया।
“नहीं, मैं बैठना चाहता हूँ।” जावेद नहीं माना और पीठ तकिए से लगाकर बैठने लगा। इस दौरान वह एक बार कंधे के दर्द से कराहा।
“तुम मानते नहीं हो यार! लाओ, अपना हाथ दो!” इरफ़ान ने जावेद को सहारा देकर बिठाया। फिर इरफ़ान वापस स्टूल पर बैठता कि जावेद ने अपना सवाल दोहराया।
“क्या तुमने उन्हें देखा था?”[adinserter block="1"]
“हाँ, इन्हीं आँखों से देखा था। साक्षात मेरे सामने थे।” इरफ़ान अपने एक हाथ को आँख से छूआते हुए स्टूल पर बैठ गया और कहने लगा, “शायद तुमने भी उन्हें देखा था। क्या तुम्हें याद नहीं?”
“हलकी-सी झलक देखी थी। महात्मा गाँधी आभा और मनु के...” जावेद आगे कहता इससे पहले ही इरफ़ान से उसे टोकते हुए कहा,
“महात्मा गाँधी मत बोलो मियाँ! हम 1948 में है। यहाँ सभी महात्मा गाँधी को बापू कहते हैं। मत भूलो वे हमारे राष्ट्रपिता है। 21वीं सदी की बातें यहाँ करने से बवाल हो जाएगा। पहले ही हिन्दू-मुस्लिमों के दंगे शाँत नहीं हुए है। कभी भी कुछ भी घट सकता है। नई मुसीबत हमारे लिए ठीक नहीं होगी।”
“मैं याद रखूँगा!” जावेद ने सहमती में सिर हिलाया। फिर अपनी बात जारी रखते हुए बोला, “तो बापू आभा और मनु के कंधों का सहारा लेकर शाम की प्रार्थना के लिए जा रहे थे। मैं बिड़ला पार्क के दरवाजे पर बाहर खड़ा ये दृश्य देख रहा था। तुम मेरे दादा को ढूँढने पार्क के अन्दर गए थे। तभी तुमने मुझे अन्दर आने इशारा किया था।”
‘हाँ, क्योंकि मैंने तुम्हारे दादा को वहाँ देख लिया था, इसलिए तुम्हें इशारा किया था।”
“मैं अन्दर आता कि तभी बन्दूक चलने की आवाज़ आई। मैं कुछ समझता कि दो बार और आवाज़ हुई।”
“उस वक़्त नाथूराम बापू पर गोलियाँ दाग रहा था। मैंने उसे देखा था।वह पार्क के रास्ते में बापू का इंतज़ार कर रहा था। उसके पीछे दो और लोग थे। वे मुझे बड़ी अजीब नज़रों से देख रहे थे। मुझे उन पर शक हुआ था। लेकिन हम वहाँ तुम्हारे अब्बा के अब्बा को तलाशने गए थे। मैंने उन संदिग्ध लोगों पर ध्यान नहीं दिया। जब बापू वहाँ से गुजरे तो गोडसे उनके नजदीक आते हुए बोला, “नमस्ते बापू!”
इस पर आभा उसे दूर करते हुए बोली, “कृपया दूर हट जाओ! बापू को प्रार्थना के लिए देर हो रही है।”
आभा ने गोडसे को दूर रखने के लिए हाथ बढ़ाया था, कि गोडसे ने उसे धक्का देते हुए बापू पर गोली चला दी। एक के बाद एक, तीन गोली। फिर वहाँ भगदड़ मच गई। बापू के हत्यारे को तुरंत पकड़ लिया गया। भगदड़ में तुम्हारे दादा कहाँ चले गये पता ही नहीं चला।”
“वे पार्क में ही थे। अपने अपंग पैरों के साथ। हाथ से चलने वाली लकड़ी की गाड़ी पर बैठे हुए।” जावेद कहने लगा, “मैं गोलियों की आवाज़ सुनकर पार्क के अंदर आ रहा था। जब गेट पर पहुँचा था तो देखा एक व्यक्ति भागता हुआ सामने से आ रहा था। वो मुझ से टकरा गया। उसी समय मुझे कंधे पर गोली लगी थी और मैं किसी चीज से टकरा कर नीचे गिर पड़ा था। उसी वक़्त मैंने देखा था कि गोली मेरे दादा ने चलायीं थी। उनके एक हाथ में पिस्टल थी और दूसरे हाथ से वे अपनी गाड़ी धकेलते हुए बाहर निकल रहे थे। शायद वे उस आदमी का पीछा कर रहे थे जिससे मैं टकराया था। मैं उठता, लेकिन फिर मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया।आँखें खुलने पर मैंने तुम्हें देखा। पर इस बीच मुझे ऐसा लगा, जैसे मैं मिस्बा के साथ था। शादी की सुहागरात वाला दिन किसी सपने की तरह मेरे दिमाग में चल रहा था।”
“ये सब उस पत्रकार सहस्त्रबाहु और तुम्हारे समय यात्रा वाले विचार पर हामी भरने के साइड इफ़ेक्ट है। मुझे भी बड़े भयानक सपने आ रहे है। रात को देखा हम किसी शमशान में खड़े थे। दर्जनों चिताएँ सामने जल रही थी। कहीं दूर से विधवाओं के चीत्कार की आवाज़ें आ रही थी।” इरफ़ान अपना अनुभव बताने लगा, “जाने क्या-क्या देखना होगा अब।” उसने झल्लाते हुए कहा।
“गुस्सा मत हो यार। इसी बहाने पता तो चला की सहस्त्रबाहु और डॉ॰ रामावल्ली झूठ नहीं बोल रहे थे।” जावेद ने ये कहा ही था कि बाहर किसी के आने की आहट हुई।
दोनों सचेत हो गए। इरफ़ान उससे अपने मन की बात कहते-कहते रूक गया। कुछ ही क्षणों में वार्ड में गाँधी टोपी लगाए एक व्यक्ति का आना हुआ। यह व्यक्ति वहीं था जिसने इरफ़ान की मदद कर जावेद को अस्पताल पहुँचाया था। उसने सफेद कुर्ता पजामा पहन रखा था। वह एक दुबला-पतला व्यक्ति था।अपनी टोपी से वह महात्मा गाँधी का अनुयायी लग रहा था। जब वह वार्ड में दाखिल हुआ तो उसके पीछे एक और व्यक्ति दृष्टिगोचर हुआ। उसने लॉन्ग कोट और पेंट हुआ था तथा सिर पर अंग्रेजी हैट लगाई हुई थी। जावेद ने उसे गौर से देखा।
“नमस्कार! अब कैसी तबीयत है जनाब की?” गाँधीवादी व्यक्ति ने हाथ जोड़ते हुए इरफ़ान से पूछा और फिर जावेद को देखने लगा।
“नमस्कार श्रीमानजी!” इरफ़ान ने स्टूल से खड़े होकर व्यक्ति का अभिवादन किया, “अच्छा हुआ आप आ गए। मैं आप ही के बारे में सोच रहा था। कल आप जल्दी चले गए, मैं आपको शुक्रिया तक न कह पाया।”
“शुक्रिया की ज़रूरत नही है। वैसे भी यह समय शुक्रिया कहने का नहीं है, मित्र। देश गहरे सदमे में है। बापू की हत्या हो जाएगी यह किसी ने सोचा नहीं था।” गाँधीवादी उदास होते हुए बोला।
“हाँ, यह तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं हुआ। गोडसे को बापू को नहीं मारना चाहिए था।” इरफ़ान अफसोस जाहिर करते हुए कहने लगा।
“आप गोडसे को जानते है?” गाँधीवादी संदेह की दृष्टि से अपने साथी की ओर देखने लगा। वह भी इरफ़ान की बात से चौकन्ना हो गया और दोनों समय यात्रियों के चेहरे के भाव पढ़ने लगा।[adinserter block="1"]
“निजी तौर पर नहीं। लेकिन हाँ, कुछ लोगों को वहाँ कहते सुना। शायद वे नाथूराम को पहचानते थे।” अब इरफ़ान समझने की कोशिश करने लगा कि आख़िर दूसरा शख्स वहाँ क्यों आया था और जावेद उसे इतनी गौर से क्यों देख रहा था।इरफ़ान ने बात जारी रखते हुए पूछा, “क्या उसे फाँसी दी जाएगी?”
“शायद हाँ, लेकिन पहले अदालत में मुकदमा चलेगा। अच्छा! इनसे मिलो।” गाँधीवादी ने अपने साथ आए व्यक्ति का परिचय करवाते हुए कहा, “ये है राकेश सिंह। सरकारी मुलाजिम है। आप दोनों से कुछ सवाल-जवाब करेंगे, कल जो कुछ भी घटा उस बारे में।”
“लेकिन हमसे सवाल-जवाब क्यों? हमने तो कुछ किया ही नहीं।” इरफ़ान घबराते हुए जावेद को देखने लगा।
“डरे नहीं!” गाँधीवादी दोनों दोस्तों को आश्वस्त करते हुए बोला, “बिड़ला पार्क में जो भी व्यक्ति था, उससे पूछताछ की जा रही है। इन्होनें मुझसे पूछताछ की। मैंने आपका जिक्र किया तो इन्होंने आपसे मिलने की मंशा जाहिर की। फिर तुम्हारे साथी को गोली लगी है। राकेश सिंह का मिलना ज़रूरी था। अभी इन्हें जाँच-पड़ताल की जिम्मेदारी सौपी गई है। शायद बापू की हत्या के कारणों की पड़ताल आगे भी ये ही करें।”
“ठीक है, पूछिए क्या सवाल पूछना चाहते है?” इरफ़ान ने जावेद को देखते हुए कहा।
“एक मिनट! सिंह साब क्या मुझे जाने की अनुमति है? मेरे लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे है।” गांधीवादी ने राकेश सिंह से जाने की इजाजत माँगी।
“जी ज़रुर!” राकेश सिंह दरवाजें से एक ओर हट गया। उसने गाँधीवादी को बाहर जाने का रास्ता दिया।
गाँधीवादी जावेद को जल्दी ठीक होने और डॉक्टर द्वारा अच्छे से इलाज करने की बात कहते हुए हाथ जोड़कर चला गया। जाते हुए उसने गौर से राकेश सिंह को देखा। जावेद शक की निगाहों से दोनों को देख रहा था।
“क्या मैं शुरू करूँ?” राकेश सिंह ने कोट की जेब से नोटबुक और पेन्सिल निकालते हुए पूछा।
“आप बैठ जाइए!” इरफ़ान ने उसे स्टूल पर बैठने का आग्रह किया। जिसे राकेश सिंह ने नम्रता से अस्वीकार कर दिया।
“आप दोनों के नाम क्या है?” उसनेअपनी पेन्सिल नोटबुक पर लगा दी।
“मेरा नाम इरफ़ान खान है और ये मेरा बचपन का दोस्त और यार है। नाम है जावेद उमर शेख!” इरफ़ान ने कहा।
“दिल्ली में कहाँ रहते हैं?” सरकारी मुलाजिम ने अपना अगला सवाल पूछा।
“हम दिल्ली से नहीं है। हम भोपाल से आए है।”
“ये तो मध्यप्रदेश में है।” राकेश सिंह ने बिना सोचे कहा।
“जी!” इरफ़ान ने हामी भरी।
“दिल्ली में क्या कर रहे थे?”
इस प्रश्न पर इरफ़ान ने जावेद की ओर देखा। जावेद ने प्रश्न का उत्तर दिया।
“हम मेरे दादा को ढूँढनें आए थे। वे किसी बात पर नाराज होकर घर से चले गए थे।”
“आपके दादा का नाम क्या है?” राकेश सिंह ने जावेद की ओर देखते हुए पूछा।
“अब्दुल रहमान रजा शेख।”
“वो क्या करते हैं?” राकेश सिंह एक-एक बात नोटबुक में लिखने लगा।
“बुनकर हैं।”
“किसी से कोई दुश्मनी है आपकी?”
“नहीं!”
“जिसने आप पर गोली चलाई उसे जानते थे?”
“नहीं!” जावेद ने दृढ़ता से कहा।
“उसे कहीं देखा था पहले?”
“नहीं!”
“पार्क में जो हुआ उसके अलावा कुछ और अजीब देखा था?” राकेश सिंह के प्रश्न रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
“जनाब! अजीब तो वहाँ एक ही बात हुई थी, और वो थी बापू की हत्या।” इरफ़ान ने बीच में पड़ते हुए कहा।
“इसके अलावा कुछ और देखा था?” राकेश सिंह संदेह से दोनों को देखने लगा।
“और से क्या मतलब है, आपका?” इरफ़ान ने पूछा।
“मतलब गोडसे के अलावा कोई संदिग्ध व्यक्ति नज़र आया था?”
“ठीक से कह नहीं सकते!” इस प्रश्न का उत्तर जावेद ने दिया।[adinserter block="1"]
“अदालत में बयान देना पड़े तो आ सकोगे?”
“हम बहुत दूर से आए है, श्रीमान जी। फिर हमें किसी को ढूँढना है। मेरे ख्याल से ये थोड़ा मुश्किल होगा।” इरफ़ान ने सोचते हुए जावेद को देखा।
“ठीक है! बिना सूचना दिए अस्पताल से जाओगे नहीं। लेकिन अदालत में बुलाय जाने पर आना होगा।” फिर राकेश सिंह ने नोटबुक और पेन्सिल इरफ़ान की ओर बढ़ाते हुए कहा, “इस पर अपना पता लिख दीजिए और दिल्ली में कहाँ रुके हैं, वहाँ का पता भी लिख दीजिए।”
इरफ़ान ने पेन और नोटबुक लेकर पता लिख दिया।
“ठीक है, मैं चलता हूँ। आवश्यकता हुई तो फिर आऊँगा।” राकेश सिंह ने नोटबुक और पेन ले लिया। उसने पता देखा और नोटबुक कोट की जेब में रख ली। फिर वह अपनी हैट ऊँची करते हुए वार्ड से बाहर चला गया।
उसके बाहर जाते ही जावेद ने इरफ़ान से कहा, “इस आदमी की शक्ल को देख ऐसा लगता है जैसे कल यही मुझसे टकराया था।”
“क्या कह रहे हो जावेद मियाँ!” इरफ़ान आश्चर्य करते हुए दरवाजे से बाहर देखने लगा। उसे राकेश सिंह, गाँधीवादी के साथ बात करता नज़र आया।
“ये तो बाहर ही खड़ा है!” इरफ़ान बड़बड़ाया।
“कौन?” जावेद ने पूछा।
“वही जिसने हमारी मदद की थी।”
“वो गांधीवादी!” जावेद ने पूछा।
“हाँ वहीं।” इरफ़ान उन्हें देख रहा था कि तभी हॉल में गोलियाँ चलने की आवाज़ें हुई। गाँधीवादी और राकेश सिंह इरफ़ान के देखते ही देखते फर्श पर चित हो गए। मरीजों, नर्सों और डॉक्टरों में हडकंप मज गया। चीखने और चिल्लाने की आवाजों से अस्पताल गूँज उठा। इरफ़ान ने घबराकर दरवाज़ा लगा लिया।
“बाहर कैसी आवाजें आ रही है इरफ़ान? वहाँ क्या हो रहा है?” जावेद ने घबरा कर इरफ़ान से पूछा।
“तुम्हारे दादा ने दोनों को गोली मार दी है और वो यहीं आ रहे है।” इरफ़ान बुरी तरह घबरा गया।
“क्या?” जावेद चौंकते हुए बिस्तर से उठ बैठा। वह अपने कंधे का दर्द भूल गया। इससे पहले इरफ़ान दरवाजें की दूसरी कुण्डी लगाकर सुरक्षित होता कि एक कागज़ का टुकड़ा दरवाज़े के नीचे से भीतर आ गया। फिर गोली चलने की दो आवाज़ें और हुई और सब शाँत हो गया। इरफ़ान ने धीरे से दरवाज़ा खोलकर बाहर देखा। डॉक्टर और नर्स दो लाशों पर झुके हुए थे। कुछ मरीज़ उन्हें घेरकर खड़े थे।[adinserter block="1"]
जावेद ने कागज़ उठाकर पढ़ा।
तुम दोनों की जान को खतरा है। जितनी जल्दी हो सके यहाँ से निकल जाओ और मुझे हुमायूं के मकबरे पर मिलना। और हाँ, पर्ची पढ़कर नष्ट कर देना।
“क्या लिखा है?” इरफ़ान हैरानी से जावेद को देख रहा था। जावेद के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रही थी। उसने पर्ची इरफ़ान के हाथ में थमा दी और जल्दी से अपनी कमीज पहनने लगा।
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-समय एक छलावा है, लेकिन समय यात्रा संभव है।
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(3)
कौन हो तुम?
31 जनवरी 1948 की शाम। हुमायूँ का मकबरा, दिल्ली।
दिन ढलने लगा था। राज घाट पर लाखों लोग, या यूँ कहूँ सारा देश महात्मा गाँधी को अंतिम विदाई दे रहा था, जावेद और इरफ़ान, एक शख्स के आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। वह शख्स जावेद के दादा अब्दुल रहमान रजा शेख थे। रजा,जावेद के परदादा का नाम था।
उस समय वहाँ उन दोनों के अलावा एक परिंदा भी नहीं था। जावेद और इरफ़ान के चेहरे पर बेचैनी बढ़ती जा रही थी।
“तुम्हारे दद्दा आएगे कि भी नहीं?” इरफ़ान अपनी घबराहट को दूर करने के लिए मकबरे को घूरते हुए टहल रहा था।
“आएगे इरफ़ान!” जावेद वहीं बैठा कुछ सोच रहा था।
“बड़े खतरनाक इंसान मालूम होते है। लगता है, वे जानते थे कि हम उन्हें ढूँढ रहे है।” इरफ़ान मकबरे की वास्तुकला को परखने लगा।
“हम दो बार उनके बारे में पूछताछ कर चुके थे।” जावेद सड़क की ओर देखने लगा।
“हमनें अस्पताल से भागकर ठीक नहीं किया। अब सिपाही हमारे पीछे होंगे।”
“हाँ, और इसलिए हमें जल्द से जल्द इस समय से निकलना होगा। अच्छा इरफ़ान! एक बात बताओ, क्या हम महात्मा गाँधी की हत्या रोक सकते थे?” जावेद बिड़ला पार्क में हुई घटना के बारे में सोच रहा था।
“तुम्हें बापू की पड़ी है। सोचो, अगर जो गोली तुम्हारे कंधे के बजाय दिल या माथे पर लगी होती तो क्या होता? तुम्हारे दद्दा ने तुम्हें मार दिया होता।”
“वो गोली मुझ पर नहीं, उस शख्स पर चला रहे थे, राकेश सिंह पर। शायद वो जासूस था। अम्मी बताती थी कि मेरे अब्बा कहते थे कि उनके अब्बा जासूस थे।”
“क्या तुम जानते हो इस मकबरे में किन-किन महान लोगों की कब्र है?” इरफ़ान मकबरे की वास्तुकला में खो गया था। उसे जावेद के अब्बा के अब्बा की कम ही पड़ी थी।
“शायद हुमायूँ की?” जावेद बेपरवाह होकर बोला।
“न केवल हुमायूँ की, बल्कि उसकी बेगम हमीदा बानो, शाहजहाँ के बड़े बेटे दारा शिकोह और कई मुग़ल सम्राटों की कब्र भी यहाँ है।” इरफ़ान गर्व करते हुए बताने लगा।
“मेरा इतिहास का ज्ञान कच्चा है, तुम जानते हो।”
“हाँ, मैं जानता हूँ!” अब इरफ़ान आस-पास देखने लगा। अब्दुल रहमान अभी तक नहीं आया था, “क्या हमें सतर्क रहना चाहिए? अगर उन्होंने हमें भी गोली मार दी तो?” इरफ़ान ने पूछा।
“अगर उन्हें हमें मारना होता तो अस्पताल में ही मार देते।” जावेद अपने नकली पैर को ठीक करने लगा, “क्या ये नकली पैर यहीं छोड़ दूँ?” जावेद ने पूछा।
“क्यों?” इरफ़ान जावेद को देखने लगा।
“हमें समय में और पीछे जाना पड़ा तो? मैंने घड़ी में पाँच साल पहले का समय सेट किया है।” जावेद ने जेब से एक कलाई घड़ी निकालकर पहन ली। वह घड़ी आम घड़ियों-सी दिखती थी, लेकिन फिर भी कुछ मायनों में वो अलग थी। उसका डायल अपेक्षाकृत बड़ा था। उसमें कई बटन थे, कुछ उसके बेल्ट पर और घंटे, मिनट व सेकेंड को बताने वाली सुईयों की जगह घड़ी की ऊर्जा, गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र और विद्धुत चुम्बकीय क्षेत्र बताने वाले तीन पटल (स्क्रीन) थे।
“मेरे खयाल से तुम्हें इसे ऐसे ही रहने देना चाहिए। तुम्हारे पायजामे के नीचे ये नकली पैर दिखता नहीं है। फिर भी अगर तुम चाहते हो तो बैसाखी के बजाए एक मजबूत लकड़ी काम में लेना ठीक होगा। लकड़ी भूतकाल के किसी भी व्यक्ति के लिए अचम्भे का कारण नहीं बनेगी।” इरफ़ान इधर-उधर की कब्रें देखने लगा।
“सही कह रहे हो।” जावेद ने सहमती दी।
“वैसे, ये तो पक्का हो गया है कि तुम्हारे दद्दा विकलांग थे। हम चाहे तो उनसे मिले बगैर भी अतीत में जा सकते है।” इरफ़ान ने सुझाव दिया।
“फिर हमें मेरे परदादा ‘रजा शेख’ का असली पता नहीं मिलेगा इरफ़ान।”
“क्यों?” इरफ़ान ने पूछा।