अध्याय-1
जन्म, पालन-पोषण और शुरुआती माहौल
मेरे पिता जानकीनाथ बोस पिछली शताब्दी के आठवें दशक में उड़ीसा आकर बस गए और कटक में उन्होंने वकालत शुरू कर दी थी। मेरा जन्म 23 जनवरी, 1897 को यहीं शनिवार के दिन हुआ था। मेरे पिता के वंशज महीनगर के बोस थे और मेरी माता प्रभावती हथखोला के दत्त परिवार से थीं। मैं अपने माता-पिता की नौ संतानों में से छठी संतान था।
आजकल की तेज संचार व्यवस्था के अनुसार कलकत्ता से पूर्वी समुद्र-तट से कटक तक की ट्रेन की यात्रा में पूरी एक रात लग जाती थी तथा इस यात्रा में न तो रोमांच और न ही किसी तरह का आनंद ही था। किंतु आज से साठ साल पहले स्थितियाँ ऐसी नहीं थीं। लोग बैलगाड़ियों से यात्रा करते थे और रास्ते में चोर-लुटेरों से सामना भी होता था या फिर समुद्र के रास्ते आनेवाली तेज हवाओं और लहरों का भी भय बना रहता था। चूँकि आदमी पर भरोसा करने के बजाय ईश्वर पर भरोसा करना अधिक सुरक्षित था, इसलिए ज्यादातर यात्राएँ नाव के द्वारा ही की जाती थीं। समुद्र में चलनेवाले जहाज चंदनबाली तक यात्रियों को ढोते थे और वहाँ से स्टीमर के द्वारा नदियों और नहरों से होते हुए कटक तक पहुँचा जाता था। इस समुद्री यात्रा में होनेवाली असुविधा और परेशानी के बारे में मैं अपनी माँ से बचपन से ही सुनता आ रहा था तथा मुझे इस तरह के अनुभव प्राप्त करने की कोई इच्छा न थी। जिन दिनों दूरियाँ बहुत अधिक थीं और यात्राएँ सुरक्षित नहीं थीं, तब मेरे पिता ने अपना गाँव या घर छोड़कर काम की तलाश में दूर जाने का साहस किया था। यहाँ तक कि सामान्य जीवन में भी भाग्य हमेशा बहादुरों का साथ देता है और जिस समय मैं पैदा हुआ था, उस समय तक मेरे पिता इस नई जगह अपने कानूनी पेशे में काफी ऊँचा मुकाम हासिल कर चुके थे।
हालाँकि कटक बीस हजार की आबादी वाला छोटा शहर होने के बावजूद अपना एक विशेष महत्त्व रखता था। कलिंग के हिंदू राजाओं के समय से चली आ रही विरासत इसके महत्त्व की प्रमुख वजह रही है। वैसे यह उड़ीसा की अघोषित राजधानी भी रहा है, जो कि अपने प्रमुख तीर्थ पुरी और भव्य स्मृति-चिह्नों, जैसे कोणार्क, भुवनेश्वर और उदयगिरि के महत्त्व से जाना जाता है। कटक केवल उड़ीसा में ब्रिटिश प्रशासन का मुख्यालय ही नहीं था, बल्कि यहाँ प्रांत के बहुत से शासन प्रमुख भी रह चुके हैं। इसके साथ ही विकसित होते बच्चों के लिए कटक का वातावरण भी बहुत स्वास्थ्यप्रद था, क्योंकि यहाँ ग्रामीण और शहरी दोनों ही जीवन का मिश्रण था।
हमारा परिवार बहुत धनी तो नहीं था, पर इसे संपन्न मध्यवर्ग का दर्जा अवश्य ही प्राप्त था। वास्तव में मुझे गरीबी या अभावों का कोई निजी अनुभव नहीं था और स्वार्थ, लोभ या इसी तरह की अनचाही चीजों के पनपने का कोई अवसर भी नहीं मिला, जो कि अकसर किसी के शुरुआती जीवन में परिस्थितियों के कारण जन्म लेती हैं। वैसे हमारे घर में ऐसी विलासिता के साधन भी नहीं थे, जिनमें आमतौर पर बहुत से प्रतिभाशाली युवा नष्ट हो जाते हैं या फिर उनमें दंभ या घमंड की भावना पैदा हो जाती है। भौतिक साधनों के मामले में मेरे माता-पिता बहुत रुचि नहीं रखते थे और मैं यह कह सकता हूँ कि वे सही थे तथा सादगी के दृष्टिकोण से उनके पालन-पोषण का प्रभाव हम बच्चों पर भी पड़ा।
शुरुआती स्मृतियों के अनुसार मैं हमेशा स्वयं को पूरी तरह से महत्त्वहीन ही समझता था तथा मेरे माता-पिता को यह अजीब सा लगता था। मेरे पिता सामान्यतया एक गंभीरता का आवरण ओढ़े रहते थे और इसी वजह से उनके बच्चे उनसे दूरी बनाए रहते थे। वैसे अपने पेशेवर कामों और सामाजिक कर्तव्यों के कारण उन्हें परिवार के लिए समय ही नहीं मिलता था और जो समय वे परिवार के लिए निकालते थे, वह भी उनके कई बेटे-बेटियों में बँट जाता था। किंतु यह भी सच है कि छोटे बच्चे को थोड़ा अधिक प्यार मिलता है, पर बड़ा परिवार होने पर उनके हिस्से का यह अतिरिक्त प्यार भी छिन जाता था। घर के वयस्कों में जरूर यह भावना रहती थी कि बाबा किसे अधिक स्नेह करते हैं, पर उनका निष्पक्ष व्यवहार यह स्पष्ट नहीं होने देता था। वैसे उनके मन की भावना चाहे जो भी हो। जहाँ तक मेरी माँ का सवाल है, वे बहुत ही स्नेही थीं और उनकी भावना को समझना असंभव नहीं था तथा उनके अधिकतर बच्चे उन्हें चकित भी कर देते थे। इसमें संदेह नहीं है कि वे हमारे परिवार की एक महत्त्वपूर्ण सदस्य थीं और जब पारिवारिक मसला आता तो अंतिम शब्द सामान्यतया उन्हीं के होते थे। वे दृढ़ इच्छाशक्ति वाली महिला थीं और जब इसे वास्तविकता के बोध के साथ समझा जाता है, तब व्यक्ति इसे समझ सकता है कि घरेलू मामलों में वे किस प्रकार अपना प्रभुत्व रखती थीं। अपने बचपन के दिनों में अपने माता-पिता के प्रति पूर्ण आदर का भाव रखने के बावजूद मैं उनसे और अधिक स्नेह पाने के लिए लालायित रहता था तथा स्वयं को उन बच्चों के प्रति ईर्ष्या भाव रखने से रोक पाने में असहाय पाता था, जो अपने माता-पिता के साथ अधिक मित्रवत् संबंध रखते थे। संभवतः मेरी यह इच्छा मेरी संवेदनशील और भावनात्मक प्रकृति की वजह से रही हो।
अपने माता-पिता को इस अति विस्मयकारी स्थिति में पाना ही मेरा एकमात्र संकट नहीं था, बल्कि अपने कई बड़े भाइयों और बहनों की मौजूदगी भी मुझे अति महत्त्वहीन स्थिति में ढकेलती थी। वैसे शायद यह सबकुछ मेरे भले के लिए ही था। मैंने अपने जीवन की शुरुआत आत्मसंशय की स्थिति में ही की थी, मुझे लगता था कि मुझे अपने से पहले वाले उन लोगों के स्तर को हासिल करने के लिए जीना चाहिए, जो कि उसे पहले से ही प्राप्त कर चुके थे। वैसे अच्छा या बुरा जो भी हो, पर मैं अति आत्मविश्वास या किसी तरह की सुनिश्चितता की भावना से मुक्त था। मैं बहुत प्रतिभाशाली तो नहीं था, पर मैं कठिन परिश्रम से भागता भी नहीं था। मेरे मन के किसी कोने में यह विश्वास था कि औसत मानवीय श्रम और नेक व्यवहार ही सफलता का मार्ग है।
यदि देखा जाए तो एक बड़े परिवार का सदस्य होने में कई तरह से बड़ी परेशानियाँ होती हैं, जैसे एक व्यक्ति पर पूरा ध्यान नहीं दिया जा सकता है, जो कि अकसर बचपन के दिनों में जरूरी होता है। अकसर व्यक्ति भीड़ में गुम हो जाता है और इसका परिणाम उसके व्यक्तित्व के विकास पर पड़ता है। दूसरी तरफ व्यक्ति में सामाजिक मेल-मिलाप की भावना बढ़ती है और वह आत्मकेंद्रित हो जाने पर काबू पाता है। अपने बचपन से ही मैं केवल अपने बहुत से भाई-बहनों के बीच ही नहीं रहा, बल्कि अपने चाचाओं और चचेरे भाइयों के साथ भी रहता था। ‘परिवार’ शब्द वाकई एक बृहत् रूप में अर्थ रखता था। सबसे महत्त्वपूर्ण तो यह भी था कि हमारे घर के दरवाजे दूर-दराज के रिश्तेदारों और गाँव के लोगों के लिए भी खुले रहते थे तथा भारतीय परंपरा के अनुसार प्राप्त सम्मान के मुताबिक जो भी आगंतुक कटक शहर में आता था, वह बिना परिचय के ही हमारे यहाँ पहुँचा दिया जाता था। चूँकि उन दिनों होटल का बहुत प्रचलन नहीं था और बेहतर होटलों का अभाव होने के कारण समाज को ही इस सामाजिक आवश्यकता को पूरा करना पड़ता था।
हमारे परिवार का यह विस्तृत रूप सिर्फ हमारे परिवार की ही वजह से नहीं था, बल्कि इसमें नौकरों के साथ बहुत से आश्रित लोग तथा पशुओं की भी दुनिया शामिल थी, जैसे गाएँ, घोड़े, बकरियाँ, भेड़ें, हिरन, मोर, चिड़िया और नेवले आदि। नौकरों ने भी हमारे परिवार में एक आंतरिक स्थिति बना रखी थी और इनमें से बहुत से तो मेरे जन्म से पहले के भी थे, जैसे कि एक पुरानी दाई। इनमें से कुछ सेवानिवृत्त हो चुके थे और पेंशन का आनंद ले रहे थे, चूँकि अभी व्यावसायिकता ने मानवीय संबंधों को विकृत नहीं किया था, इसलिए नौकरों के साथ हमारी हार्दिकता बनी हुई थी। अपने जीवन के इस शुरुआती अनुभव ने नौकरों के प्रति एक वर्ग के रूप में मेरा एक खास तरह का दृष्टिकोण विकसित कर दिया था।
हालाँकि मेरे पारिवारिक वातावरण ने मेरी सोच को बढ़ा दिया था, अन्यथा मेरे शरमीले व्यवहार से छुटकारा पाना आसान न था, जो कि मुझे बाद के सालों तक परेशान करता रहा। वैसे मैं हमेशा से अंतर्मुखी ही था।
अध्याय-2
पारिवारिक इतिहास
हमारे परिवार की पिछली सत्ताईस पीढ़ियों की जानकारी तलाशी जा सकती है। बोस लोग जाति के दृष्टिकोण से कायस्थों में आते हैं। बोसकुल के शुरुआती संस्थापक दशरथ बोस थे तथा इनके दो पुत्र कृष्ण और परम थे। परम पूर्वी बंगाल चले गए और वहीं के निवासी हो गए तथा कृष्ण पश्चिमी बंगाल में बस गए। दशरथ के परपौत्रों में एक नाम मुक्ति बोस का था, जो कि महीनगर में बसे। महीनगर 14 मील दूर कलकत्ता के दक्षिण का एक गाँव है, जहाँ के परिवार महीनगर के बोस कहे जाते हैं। दशरथ के बाद की ग्यारहवीं पीढ़ी के व्यक्ति महीपति थे, जिनकी असाधारण योग्यता और बुद्धिमानी मशहूर थी। महीपति की योग्यता के कारण बंगाल के नवाब ने उन्हें वित्त और युद्ध विभाग का मंत्री बनाया था। इनकी सेवाओं से इस मुसलमान नवाब ने उन्हें ‘सुबुधि खान’ की उपाधि दी थी। उन दिनों के रिवाज के अनुसार महीपति को उपहारस्वरूप एक जागीर और सुबुधिपुर गाँव प्रदान किया गया था, जो कि महीनगर से दूर नहीं था। महीपति के दस पुत्रों में से चौथी संतान ईशान बोस थे, जिन्होंने अपनी योग्यता के बल पर शाही दरबार में अपने पिता का स्थान प्राप्त किया था। ईशान बोस के भी तीन पुत्र हुए, जिन्हें भी नवाब की तरफ से उपाधि मिली थी। ईशान बोस के दूसरे पुत्र गोपीनाथ बोस की असाधारण योग्यता के कारण उन्हें नवाब हुसैन शाह (1493-1519) ने अपना वित्त मंत्री और नौसेना का प्रमुख बनाया। इन्हें भी अपनी विशेषताओं के कारण ‘पुरंदर खान’ की उपाधि और जागीर प्रदान की गई, जो कि उनके गाँव महीनगर से बहुत दूर नहीं थी। पुरंदरपुर में ‘खान पोखर’ नामक एक तालाब है, जिसके एक मील लंबे अवशेष आज भी मौजूद हैं और इसे पुरंदर खान ने ही खुदवाया था। महीनगर के पास ही मलान्या गाँव में एक पुरंदर बाग भी है।
उन दिनों हुगली नदी महीनगर से होकर ही गुजरती थी और यह भी कहा जाता है कि पुरंदर नाव से ही बंगाल की राजधारी गौड़ तक की यात्रा करते थे। उन्होंने ही बाहरी आक्रमणों से राज्य की सुरक्षा के लिए एक शक्तिशाली नौसेना का गठन किया था और वे ही इसके प्रमुख भी थे।
पुरंदर की पहचान एक समाज-सुधारक के रूप में भी थी। उनके समय से पहले बल्लाई परंपरा के अनुसार कायस्थों की दो शाखाएँ थीं—कुलीन जिसमें बोस, घोष और मित्रा आते हैं तथा मौलिक, जिसमें दत्त, डे और राय आदि हैं। पुराने नियमों के अनुसार उनमें आपस में विवाह-संबंध नहीं होते थे। इस मामले में पुरंदर ने एक नई परंपरा की शुरुआत की थी, जिसमें कुलीन की वरिष्ठ संतान को ही कुलीन में विवाह की अनिवार्यता थी, जबकि अन्य सभी मौलिकों में विवाह कर सकते थे। इनके द्वारा जारी यह परंपरा अभी तक चल रही है, जिसकी वजह से कायस्थों की अति पैदावार से बचाव भी हुआ है।
पुरंदर एक विद्वान् व्यक्ति थे। इनका नाम वैष्णव भक्ति संगीत की पदावली के रचयिता के रूप में भी लिया जाता है।
उपरोक्त विषय का प्रमाण बहुत सी बँगला कविताओं में भी मिलता है, जैसे कविराम की ‘रायमंगल’ तथा तकरीबन 200 वर्ष पूर्व हुगली, जिसे बँगला में गंगा भी कहते हैं, महीनगर और इसके आसपास से होकर ही बहती थी। यहाँ तक कि आज भी गंगा के मार्ग में आनेवाले सभी तालाब भी सम्मानपूर्वक गंगा ही पुकारे जाते हैं, उदाहरणस्वरूप बोस की गंगा से आशय था बोस का तालाब। हुगली के मार्ग में परिवर्तन के कारण ही इन गाँवों में संपदा और स्वास्थ्य का संकट आया था। इस क्षेत्र में जल-निकासी की आई समस्या ने भयानक महामारी को जन्म दिया, जिसकी वजह से यहाँ से भारी संख्या में लोगों का पलायन हुआ। बोस परिवार यानी ‘पुरंदरखान’ के वंशजों में से एक तो पास ही के गाँव कोडालिया जाकर बस गए।
कुछ समय तक शांत रहने के बाद इस क्षेत्र के पास-पड़ोस के गाँव जैसे— कोडालिया, चिंग्रीपोटा, हरिनवी, मलांचा में फिर से हलचल शुरू हुई थी। उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशक में इस क्षेत्र में जो सांस्कृतिक उथल-पुथल शुरू हुई, वह शताब्दी के अंत तक जारी रही और देहात का यह इलाका फिर से मलेरिया जैसी महामारी की चपेट में आ गया था। आज कोई भी इन वीरान गाँवों से गुजरते हुए उन विशालकाय भवनों के खँडहरों को देख सकता है और उसे समय की इस क्षेत्र की समृद्धि का अंदाज भी लगा सकता है। तकरीबन एक शताब्दी पहले पैदा हुए इस क्षेत्र के विद्वानों में अधिकतर लोगों का संबंध भारत के प्राचीन ग्रंथों से तो था, परंतु वे किसी भी स्थिति में दकियानूसी नहीं थे। इनमें कुछ विद्वान् ब्रह्म समाज की विचारधारावाले शिक्षक थे, जो कि सामाजिक दृष्टिकोण से क्रांतिकारी परिवर्तन के जनक थे, जबकि अन्य बँगला भाषा में प्रकाशित धर्मनिरपेक्ष पत्रिकाओं के संपादक थे, जिन्होंने एक नवीन बँगला साहित्य की रचना की, जिसका प्रभाव तत्कालीन समाज पर भी पड़ा।
पंडित आनंद चंद्र वेदांत वागीश ‘तत्त्वबोधिनी’ पत्रिका के संपादक थे। उन दिनों यह एक प्रभावशाली पत्रिका थी तथा पंडितजी ब्रह्म समाज के शिक्षक भी थे। पंडित द्वारिकानाथ विद्याभूषण ‘सोमप्रकाश’ नामक साप्ताहिक पत्रिका के संपादक थे तथा यह पत्रिका संभवतः बँगला भाषा में प्रकाशित होनेवाली पहली पत्रिका थी। इनके भतीजों में से एक पंडित शिवनाथ शास्त्री थे, जो कि ब्रह्म समाज के अद्भुत व्यक्तित्वों में से एक थे। भारत चंद्र शिरोमणि हिंदू नियमावली, जिसे ‘दया भाग’ भी कहते थे, इसके महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक थे। कला के क्षेत्र में काली कुमार चक्रवर्ती का नाम प्रमुख चित्रकारों में आता है तथा अघोर चक्रवर्ती एवं काली प्रसन्ना बोस प्रमुख संगीतज्ञ थे। सदी के अंतिम कुछ दशकों में इस क्षेत्र ने राष्ट्रवादी आंदोलन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रमुख कांग्रेसी हरिकुमार चक्रवर्ती और सत्कार बनर्जी, जिनकी मृत्यु सन् 1936 के देवली नजरबंदी के दौरान हुई थी, वे भी इसी क्षेत्र के थे तथा कामरेड एम.एन. राय जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति का भी जन्म यहीं हुआ था।
अब पुनः अपनी कहानी पर आता हूँ, यानी कोडलिया आनेवाले बोस यहाँ पिछली दस पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं तथा इनकी वंशावली भी उपलब्ध है। मेरे पिता ‘पुरंदर खान’ की दसवीं पीढ़ी थे तथा दशरथ बोस से छब्बीस पीढ़ी बाद आते हैं। मेरे दादाजी हरनाथ बोस के चार बेटे थे, जदुनाथ, केदारनाथ, देवेंद्र नाथ और मेरे पिता जानकी नाथ। हालाँकि हिंदू परंपरा के अनुसार हमारा परिवार शाक्त था, पर हरनाथ धार्मिक और वैष्णव भक्त थे। वैष्णव धर्म को माननेवाले ज्यादातर लोग अहिंसक होते हैं तथा मेरे दादाजी हरनाथ ने दुर्गापूजा पर बकरे की बलि प्रथा को रोक दिया था, जबकि दुर्गापूजा बंगाल के हिंदुओं का एक प्रमुख त्योहार है। वे इसे प्रत्येक वर्ष बहुत ही भव्य समारोह के साथ मनाते हैं। वैसे इस नए रिवाज को लोगों ने आजतक सम्मान से जारी रखा, पर उसी गाँव में रहनेवाले अन्य बोस परिवार आज भी वार्षिक पूजा पर बकरे की बलि चढ़ाते हैं।
हरनाथ बोस के चारों बेटे अपने-अपने पेशे की वजह से अलग-अलग स्थानों में बस गए। इनमें से सबसे बड़े बेटे जदुनाथ ने इंपीरियल सेक्रेट्रिएट में काम किया और काफी समय शिमला में बिताया था। दूसरे बेटे केदारनाथ कलकत्ते में रहने लगे तथा तीसरे बेटे देवेंद्र नाथ ने सरकार के शिक्षा विभाग में काम किया और प्रिंसिपल के पद तक पहुँचे तथा इस सिलसिले में वे कई जगह घूमते रहने के बाद आखिर में कलकत्ते में ही बस गए।
मेरे पिता का जन्म 28 मई,1860 को तथा माताजी सन् 18691 में पैदा हुई थीं। पिताजी ने अल्बर्ट स्कूल, कलकत्ता से मैट्रिकुलेशन, जो कि उन दिनों इन्ट्रेंस कहा जाता था, पास करने के बाद सेंट जेवियर कॉलेज और जनरल एसेंबली एजुकेशन (जिसे अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज कहते हैं) में भी अध्ययन किया। इसके बाद वे राबेन शा कॉलेज, कटक आ गए और यहीं से स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद कलकत्ता वापस लौटकर कानून की पढ़ाई पूरी की। इन्हीं दिनों उनका संपर्क ब्रह्म समाज की मशहूर हस्तियों ब्रह्मानंद केशव चंद्र सेन और इनके भाई कृष्ण बिहारी सेन तथा सिटी कॉलेज के प्रिंसिपल उमेश चंद्र दत्त से हुआ। मेरे पिता ने कुछ समय तक अल्बर्ट कॉलेज में लैक्चरर के पद पर भी काम किया, जहाँ के रेक्टर कृष्ण बिहारी सेन थे। सन् 1885 में वे कटक आ गए और यहीं वकालत शुरू कर दी। सन् 1905 में उनका चयन सरकारी वकील के पद पर हो गया। सन् 1912 में वे बंगाल विधान परिषद् के सदस्य बने और उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि भी प्राप्त हुई। सन् 1917 में जिलाधिकारी से किसी मतभेद के कारण उन्होने सरकारी वकील के पद से त्यागपत्र दे दिया और तेरह साल के बाद, यानी सन् 1930 में सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ अपनी रायबहादुर की उपाधि भी लौटा दी।
निगम और जिला परिषद् के महत्त्वपूर्ण पदों पर होने के बावजूद वे सामाजिक संस्थाओं और शिक्षा के क्षेत्र, जैसे विक्टोरिया स्कूल और कटक यूनियन क्लब में सक्रिय रूप से भाग लेते थे। इस क्षेत्र में वे बहुत दान भी देते थे तथा गरीब विद्यार्थी उसने सहायता प्राप्त करने अकसर उनके पास आते थे। वैसे उनके दान का एक बड़ा हिस्सा उड़ीसा जाता था, क्योंकि वे अपने पैतृक गाँव को कभी नहीं भूले, जहाँ उन्होंने अपने माता और पिता के नाम पर धर्मार्थ चिकित्सालय और पुस्तकालय की स्थापना की थी। वे प्रत्येक साल होनेवाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बैठकों में भी जाते थे, पर उन्होंने कभी भी सक्रिय राजनीति में भाग नहीं लिया। हालाँकि वे स्वदेशी के पूर्ण समर्थक थे। सन् 1921 के असहयोग आंदोलन में वे कांग्रेस के खादी और राष्ट्रीय शिक्षा के कार्यक्रम में बहुत सक्रिय थे। धर्म के प्रति भी उनमें बहुत अनुराग था तथा उनके प्रथम गुरु शाक्त तथा दूसरे वैष्णव थे। वर्षों तक वे स्थानीय थियोसाफिकल शाखा भवन के अध्यक्ष भी थे तथा गरीबों के प्रति इनके मन में बहुत ही उदारता का भाव था। यहाँ तक कि अपनी मृत्यु के पूर्व ही इन्होंने अपने पुराने नौकरों और अन्य आश्रितों की व्यवस्था कर दी थी।
जैसा कि प्रथम अध्याय में व्यक्त किया जा चुका है कि मेरी माता उत्तरी कलकत्ता के हठखोला के दत्त परिवार से थीं। ब्रिटिश शासन के शुरुआती दिनों में कलकत्ता के दत्त लोग समृद्धि और योग्यता के मामले में विशेष स्थान रखते थे तथा राजनीतिक दृष्टि से भी इनकी अच्छी पकड़ थी। इसीलिए नव अभिजात वर्ग में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका भी थी। मेरी माता के दादाजी काशीनाथ दत्त अपने परिवार से थोड़ी दूर उत्तरी कलकत्ता के छोटे से शहर वारानगर में बस गए और यहीं उन्होंने एक भव्य भवन का निर्माण भी कराया। वे एक बहु पठित व्यक्ति होने के साथ-साथ विद्यार्थियों के भी प्रिय थे। उन्होंने कलकत्ता में व्यापार करनेवाली ब्रिटिश फर्म मेसर्स जारडिन, सिकनेर ऐंड कंपनी के उच्च प्रशासकीय पद पर काम किया था। मेरी माता के पिता गंगानारायन दत्त और दादा की अपने दामाद के चयन की वजह से एक बुद्धिमान व्यक्ति की छवि भी थी। इस प्रकार उनका संबंध अपने समय के कलकत्ता के अभिजात वर्ग के साथ जुड़ गया था। काशीनाथ दत्त के एक दामाद सर रोमेश चंद्र मित्रा भी थे, जो कि कलकत्ता हाईकोर्ट के प्रथम मुख्य न्यायाधीश थे और दूसरे दामाद राय बहादुर हरि वल्लभ बोस मेरे पिता के कटक आने से पहले ही यहाँ आकर वकालत करने लगे तथा इनकी पूरे उड़ीसा में एक वकील के रूप में प्रसिद्धि थी।
मेरे नाना गंगा नारायण दत्त के बारे में ऐसा भी कहा गया है कि मेरे पिता से मेरी माता के विवाह के लिए राजी होने से पहले उन्होंने मेरे पिता की बौद्धिक क्षमता का
इम्तिहान भी लिया था। मेरी माँ उनकी सबसे बड़ी बेटी थीं और उनकी छोटी बहनों की शदियाँ क्रमशः स्वर्गीय वरदाचंद मित्रा, आई.सी.एस., जिला एवं सत्र न्यायाधीश, श्री उपेंद्र नाथ बोस (वाराणसी), स्वर्गीय चंद्र नाथ घोष अधीनस्थ न्यायाधीश, स्वर्गीय जे.एन. बोस, स्वर्गीय राय बहादुर चुन्नी लाल बोस, कलकत्ता से हुई थीं।
वैसे मेरे पिता के परिवार में बड़ा परिवार अपवादस्वरूप ही था और करीब-करीब यही स्थिति मेरे ननिहाल में भी थी। वहाँ भी मेरे नाना के आठ बेटे तथा छह बेटियाँ थीं। इनके बच्चों के भी बड़े परिवार थे। मेरे माता-पिता के भी आठ बेटे और छह बेटियाँ थीं, जिनमें से सात बेटे और दो बेटियाँ अभी भी जीवित हैं। मेरे भाइयों और बहनों में से सभी तो नहीं, पर कुछ के आठ या नौ बच्चे हैं। किंतु इनमें से बहनों या भाइयों को बहुजनक होने की सुनिश्चितता तय नहीं होती है, पर अकसर देखा गया है कि किसी-किसी परिवार में यह किसी एक लिंग पर अधिक निर्भर होता है। शायद सुजनन विज्ञानी ही इसका बेहतर जवाब दे सकते हैं।
अध्याय-3
मेरे समय से पहले
अठारहवीं शताब्दी के आखिर में भारतीय समाज की राजनीतिक शक्ति का अंग्रेजों के हाथों में जाने के बारे में विचार करना एक अति गंभीर विषय है। फिर भी आज के भारत में हो रहे परिवर्तन के उचित दृष्टिकोण की समझ रखना बहुत जरूरी है। चूँकि बंगाल ही वह पहला प्रांत था, जो कि अंग्रेजों के शासन में आया था और इसमें होनेवाले परिवर्तन अन्य जगहों से पहले ही यहाँ नजर आए थे। स्थानीय सरकारें बलपूर्वक हटा दी गई थीं और सामंतवादी अभिजात वर्ग का स्वाभाविक रूप से महत्त्व समाप्त हो गया था तथा इसके स्थान पर दूसरे समूह ने कब्जा कर लिया था। अंग्रेज यहाँ इस देश में व्यापार करने आए थे और बाद में शासन पर काबिज हो गए। किंतु उन मुट्ठी भर लोगों के लिए यहाँ व्यापार और प्रशासन यहाँ के कुछ वर्गों की सहायता के बिना सँभालना संभव नहीं था। इसलिए जो लोग इन नई राजनीतिक व्यवस्था में अपनी काबिलीयत और प्रयास से आए, वे इस नए युग में अभिजात वर्ग के महत्त्वपूर्ण वर्ग बन गए।
ऐसा भी विचार किया गया है कि अंग्रेजों के शासन में एक लंबे समय तक मुसलमानों की महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं थी और उपरोक्त विचार के समर्थन में बहुत से तर्क भी दिए गए हैं। उदाहरण के लिए, बंगाल में अंग्रेजों के शासन के दौरान जिन मुसलमानों को उनके शासन से बेदखल किया गया, परिणामतः मुसलमान समुदाय ने एक लंबे समय तक उनके प्रति विद्वेष की भावना रखी और नए शासकों, उनकी संस्कृति और उनके प्रशासन के प्रति असहयोग का रवैया अपनाया। दूसरी तरफ यह भी कहा गया कि भारत में अंगेजों के शासन से पहले ही मुगल अभिजात वर्ग का काफी हद तक पतन हो चुका था और इसलाम ने आधुनिक सभ्यता और विज्ञान को अपनाने में पहल नहीं की थी। परिणामतः यह स्वाभाविक ही था कि अंग्रेजों के शासनकाल में मुसलमानों को इस गंभीर समस्या का समाधान करना पड़ा। मैं यह सोचने पर विवश हूँ कि संपूर्ण भारत के परिप्रेक्ष्य में अपनी संख्या की तुलना में मुसलमानों ने देश के जनजीवन के क्षेत्र में अपनी कम भूमिका निभाई थी, चाहे वह अंग्रेजों का शासन हो या उससे पहले का शासन। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के अंतर की बात हम जो आजकल सुनते हैं, वह केवल वैसी ही बनावटी रचना है, जैसे आयरलैंड में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट का विवाद तथा इसमें हमारे आज के शासकों का भी हाथ है। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में राजनीतिक व्यवस्था की विवेचना करते समय मुगल शासन के प्रस्तुत तथ्य के लिए इतिहास मुझे सही ठहराएगा। चाहे हम दिल्ली के मुगल बादशाहों की बात करें या फिर बंगाल के मुगल नवाबों की, चाहे शासन हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर किया, इनके शासन के प्रमुख पदों पर हिंदू थे। भारत में मुगल शासन का विस्तार हिंदू सेनापतियों की सहायता से हुआ था। सन् 1757 में अंग्रेजों की सेना से प्लासी के युद्ध में लड़नेवाली नवाब सिराजुद्दौला की सेना का सेनापति हिंदू था और सन् 1857 के सैनिक संग्राम, जिसमें हिंदू और मुसलमान साथ मिलकर मुगल बादशाह बहादुर शाह के नेतृत्व में लड़े थे।
वजह चाहे जो भी हो, पर यह भी एक वास्तविकता है कि अंग्रेजों की विजय के बाद बहुत से महत्त्वपूर्ण व्यक्ति जो उभरकर सामने आए, उनमें से अधिकतर हिंदू ही थे। इनमें से एक अतिमहत्त्वपूर्ण व्यक्ति राजा राममोहन राय (1772-1833) थे, जिन्होंने सन् 1882 में ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की थी। उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में भारत में एक नई जागृति आई। यह जागृति सांस्कृतिक और धार्मिक थी तथा ब्रह्म समाज इसमें अग्रणी था। यह एक तरह से पुनर्जागरण और सुधारवाद का मिश्रण था। इसका एक पहलू राष्ट्रवादी और परंपरावादी था, जिसका संबंध भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक सुधार से था। इसका दूसरा पहलू विश्वरूपी और विभिन्न दर्शनग्राही था, जो कि अन्य संस्कृतियों और धार्मिकताओं को अपने में समा लेने की इच्छा रखता था। राम मोहन राय इस नव जागृति और भारतीय इतिहास के इस नवयुग के अग्रदूत थे। इनकी बौद्धिकता का प्रभाव बाद में ‘महर्षि’ देवेंद्रनाथ टैगोर (सन् 1818-1905), जो कि कवि रवींद्रनाथ टैगोर कि पिता थे और ब्रह्मानंद केशव चंद्र सेन (1838-1884) पर भी पड़ा तथा ब्रह्म समाज का विस्तार दिनोदिन बढ़ता रहा।
इसमें संदेह नहीं है कि एक समय ब्रह्म समाज देश की सभी प्रगतिशील गतिविधियों के केंद्र में था। शुरुआत से ही ब्रह्म समाज पश्चिमी विज्ञान और विचारों से प्रभावित था और जब नई स्थापित अंग्रेज सरकार यहाँ की शिक्षा नीति को लेकर असमंजस में थी कि यहाँ स्वदेशी सांस्कृतिक शिक्षा को ही रखा जाए या फिर पश्चिमी संस्कृति को प्रोत्साहित किया जाए, तब राजा राममोहन राय ने स्पष्ट रूप से पश्चिमी संस्कृति की वकालत की थी। उनके विचारों ने थामस बेविंगटन मैकाले को भी प्रभावित किया और आखिरकार यही सरकार की शिक्षा नीति भी बनी। अपने दार्शनिक दृष्टिकोण से राम मोहन राय ने अन्य किसी देशवासी से काफी पहले ही महसूस कर लिया था कि भारत को अपने पैरों पर खड़े होकर आगे बढ़ना है तो उसे पश्चिमी विज्ञान और विचारों को अपने में समाहित करना ही होगा।
हालाँकि सांस्कृतिक जागृति ब्रह्मसमाज तक ही सीमित नहीं थी। यहाँ तक कि जो लोग ब्रह्मसमाज को बहुत अप्रामाणिक, क्रांतिकारी या मूर्तिभंजक मानते थे, वे भी भारत की स्थानीय संस्कृति के पुनर्जीवन के इच्छुक थे, जबकि ब्रह्मसमाजी और समाज के अन्य प्रगतिशील लोगों ने पश्चिमी संस्कृति की बेहतर चीजों को अपनाते हुए उन्हें चुनौती दी तथा अति रूढ़िवादी वर्गों ने पश्चिमी संस्कृति की सभी खोजों के बारे में भी हिंदू
ऋषियों की जानकारी का हवाला देते हुए इन्हें न्यायोचित सिद्ध करने का प्रयास किया। इस प्रकार रूढ़िवादी वर्गों में भी उनकी आत्मसंतुष्टि के माध्यम से पश्चिम के प्रभाव ने असर डाला तथा इनमें भी अति बौद्धिक सक्रियता बढ़ी और शशधर तारकचूड़ामणि जैसे व्यक्तियों का उदय हुआ, परंतु इनकी अधिकतर ऊर्जा ईसाई मिशनरियों के तरफ से हो रहे हिंदू धर्म पर भयावह आक्रमण का सामना करने में ही खर्च होती रही। किंतु ब्रह्मसमाजियों और रूढ़िवादी पंडितों के बीच एक आम सहमति का भी स्थान था। हालाँकि उनके बीच किसी तरह के प्रेम का अभाव नहीं था। पुराने और नए, रूढ़िवादी एवं सुधारवादी, ब्रह्मसमाजी और पंडितों के बीच हुए बौद्धिक द्वंद्व ने एक नए तरह के आदर्शवादी पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर को जन्म दिया। इस प्रकार के नव भारतीयों ने विकास और पश्चिमी एवं पूर्वी संस्कृति के योग को स्वीकार करने के साथ ही हिंदू समाज से दूर होने को अस्वीकार किया तथा पश्चिम के अनुसरण में बहुत दूर तक बढ़ने से भी रोका, जिसकी तरफ शुरुआत में ब्रह्मसमाज का रुझान था। ईश्वरचंद्र विद्यासागर का पालन-पोषण एक परंपरावादी पंडित के रूप में हुआ था तथा वे आधुनिक बँगला गद्य के पिता भी कहे जाते हैं। वे एक महान् समाजसुधारक होने के साथ-साथ मानव-प्रेमी भी थे। उन्होंने अंतिम समय तक साधारण और परंपरावादी पंडित के तपस्वी जीवन को जिया था। उन्होंने साहसपूर्वक हिंदू विधवाओं के पुनर्विवाह की वकालत की और रूढ़िवादियों के आक्रोश का भी सामना किया, परंतु उनके तर्क भारतीय प्राचीन ग्रंथों में प्रस्तुत उपरोक्त परंपरा पर आधारित थे। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने जिस तरह के दृष्टिकोण की तरफदारी की थी, उसी तरह का दर्शन रामकृष्ण परमहंस (1834-1886) और उनके योग्य शिष्य स्वामी विवेकानंद (1863-1902) ने भी दिया। स्वामी विवेकानंद की मृत्यु सन् 1902 में हुई और धार्मिक दार्शनिक आंदोलन अरविंद घोष तक जारी रहा। अरविंद घोष राजनीति से दूर नहीं थे, बल्कि वे इसमें गहराई तक उतरे और सन् 1908 तक वे अग्रणी राजनीतिक नेताओं में से एक थे। उनमें राजनीति के साथ-साथ धार्मिकता भी थी। सन् 1909 में अरविंद पूरी तरह से राजनीति से अलग होकर धार्मिकता की तरफ मुड़ गए, परंतु आध्यात्मिकता और राजनीति लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (1856-1920) और महात्मा गांधी (1869) में भी जारी रही।
उपर्युक्त विवेचना से इस पुस्तक की विषयवस्तु और उस सामाजिक वातावरण का भी अंदाज लगता है, जब मेरे पिता अल्बर्ट स्कूल कलकत्ता में पढ़ रहे थे। इन दिनों समाज एक नए तरह के अभिजात वर्ग के प्रभाव में था, जो कि अंग्रेजों के शासन के समानांतर चल रहा था, जिसे बोलचाल की भाषा में हम ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद’ भी कहते हैं। इस अभिजात वर्ग में तीन तरह के वर्ग या पेशे के लोग थे, जैसे—जमींदार, वकील या नौकरशाह, व्यापारी एवं राजकुमार आदि। इन सभी के जनक अंग्रेज ही थे, जो कि उनके प्रशासन और शोषण के लिए आवश्यक भी थे।
अंग्रेजों के शासनकाल के ये जमींदार सामंतवादी युग के स्वतंत्र शासकों की तरह नहीं थे, बल्कि वे सिर्फ अंग्रेजों के लिए उस जमीन का कर (लगान) एकत्र करते थे, जो कि उन्हें सन् 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों के प्रति वफादारी के लिए दी गई थी और इससे ब्रिटिश शासन के तार जुड़े थे।
हालाँकि इस नव अभिजात वर्ग का समकालीन समाज पर प्रभाव था। महाराज जतींद्र मोहन टैगोर और राजा विनय कृष्ण देव बहादुर जैसे लोगों का सम्मान सरकार के द्वारा समाज के नेताओं के रूप में होता था, पर वे बौद्धिक या नैतिक रूप से बहुत प्रभावित न कर सके। मेरे पिता की युवावस्था में वे केशव चंद्र सेन और काफी हद तक ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे व्यक्तियों से प्रभावित थे। जब कभी ये कहीं जाते तो लोगों की भीड़ इनके पीछे होती थी। वे वाकई इस समय के महान् लोग थे। इनके ओजस्वी भाषणों ने समाज में नैतिकता की लहर पैदा की, जिसका असर आनेवाली पीढ़ी पर भी पड़ा। दूसरे अन्य विद्यार्थियों की ही तरह मेरे पिता भी इनके चामत्कारिक प्रभाव में आए और ऐसा भी समय आया, जब वे केवल ब्रह्मसमाजी होने के बारे में सोचते थे। वैसे केशवचंद्र सेन का निर्विवाद रूप से मेरे पिता के जीवन और चरित्र पर बहुत प्रभाव पड़ा। वर्षों बाद दूर कटक में इन महान् व्यक्तित्व का चित्र मेरे पिता के घर की दीवार पर अभी तक मौजूद है और स्थानीय ब्रह्मसमाज के साथ उनके सौहार्दपूर्ण संबंध हमेशा बने रहे।
हालाँकि मेरे पिता के जीवन के शुरुआती काल में लोगों पर उदार नैतिक जागृति का बहुत असर रहा, पर मुझे लगता है कि राजनीतिक दृष्टि से देश निष्क्रिय था। यह स्पष्ट है कि उनके नायक केशवचंद्र और ईश्वरचंद्र जैसे लोग नैतिक रूप से बहुत ऊँचे थे, पर वे सरकार या अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नहीं थे। इन लोगों ने खुलेआम कहा था कि वे अंग्रेजों के आगमन को दैवीय कृपा का सा सम्मान देते हैं और बाद में भी अंग्रेजों से असहयोग के रूप में भी संबंध समाप्त नहीं किया था। हालाँकि उनके चरित्र के मूल में स्वतंत्रता और आत्मसम्मान ही था। मेरे पिता के नैतिक मानदंड बहुत ही ऊँचे थे और इसका प्रभाव परिवार पर भी था, पर वे सरकार के खिलाफ नहीं थे। इसी वजह से उन्होंने लोक अभियोजक या सरकारी उपाधि जैसे पद स्वीकार किए थे। मेरे पिता के बड़े भाई प्रिंसिपल देवेंद्र नाथ बोस का भी यही दर्जा था। वे एक महान् चरित्र होने के साथ-साथ विद्यार्थियों में भी बहुत आदर और सम्मान का भाव रखते थे तथा बौद्धिक और नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ होने के बावजूद उन्होंने शिक्षा विभाग में सरकारी नौकरी की थी। इसी प्रकार मेरे पिता के समय से पहले ‘वंदे मातरम्’ गीत के रचयिता बंकिम चंद्र चटर्जी (1838-1894) भी सरकारी नौकरी में थे तथा डी.एल. राय भी सरकारी मजिस्ट्रेट के पद पर थे और इनके भी राष्ट्रीय गीतों ने लोगों को प्रेरणा प्रदान की थी। ये सभी कार्य कुछ दशक पहले ही हुए थे, क्योंकि यह समय परिवर्तन का था और शायद राजनीतिक अपरिपक्वता का भी। सन् 1905 में जब बंगाल का बँटवारा हुआ, तब वहाँ राजनीतिक चेतना जागी और इसने सरकार और लोगों के बीच एक आवश्यक संघर्ष की प्रेरणा पैदा की। आजकल लोग सरकार के कार्यों से अधिक नाराज हैं और सरकारें भी लोगों के बोलने तथा लिखने के प्रति अधिक सशंकित हैं। पुरानी व्यवस्था बदल चुकी है और इसके स्थान पर नई आ चुकी है। आज राजनीति से नैतिकता को अलग करना संभव नहीं है, यानी नैतिकता के आदेश को मानना और राजनीतिक समस्या में न पड़ना। व्यक्ति को अपने संक्षिप्त जीवनकाल में ही अपनी प्रजाति के अनुभव से गुजरना ही पड़ता है और मुझे भी स्पष्ट रूप से याद है कि जब मैंने सोचा कि राजनीति में नैतिक विकास संभव है, तब मैं भी इस स्थिति से गुजरा, जिसे हम अराजनैतिक नैतिकता कहते हैं। किंतु अब मुझे विश्वास है कि जीवन की अपने आप में एक पूर्णता है और जब हम किसी एक विचार को स्वीकार कर लेते हैं, तब हमें इसके प्रति पूर्ण समर्पण करना होगा और इसे अपने पूरे जीवन को परिवर्तित करने की अनुमति देनी होगी।
जनवरी 1902 को जब मेरा पाँचवाँ जन्मदिन आनेवाला था, तब मुझे बताया गया कि मैं स्कूल जानेवाला हूँ। मुझे यह तो नहीं पता कि दूसरे बच्चे इस तरह की परिस्थितियों में कैसा महसूस करते होंगे, पर मैं बहुत खुश था। अपने बड़े भाई-बहनों को तैयार होकर रोजाना स्कूल जाते देखना और घर पर तुम्हें सिर्फ इसलिए छोड़ दिया जाना कि अभी तुम बड़े नहीं हुए हो, जबकि तुम अब छोटे भी नहीं हो, यह एक पीड़ादायी अनुभव होता है। कम-से-कम मैंने ऐसा ही सोचा था, इसलिए स्कूल जाने की बात पर मैं बहुत ही खुश था।
आखिरकार वह महत्त्वपूर्ण दिन आ ही गया। अब मैं उन सम्मानित बड़े लोगों में शामिल हो गया था, जो कि सिवाय छुट्टी के दिन के घर पर नहीं ठहरते थे। हमें सुबह दस बजे स्कूल पहुँचना था, क्योंकि हमारी कक्षाएँ ठीक दस बजे शुरू हो जाती थीं। मेरी ही उम्र के मेरे दो चाचाओं का भी दाखिला मेरे ही स्कूल में हुआ था। अब हम जैसे ही तैयार होकर उस गाड़ी की तरफ भागे, जो हमें स्कूल तक पहुँचाने के लिए खड़ी थी कि तभी दुर्भाग्यवश मेरा पाँव फिसला और मैं गिर पड़ा। मेरे सिर पर चोट लगी और
पट्टियाँ बाँधकर मुझे बिस्तर पर आराम करने के लिए कहा गया। स्कूल की तरफ जाती हुई गाड़ी के पहियों की आवाज मुझसे दूर होती जा रही थी। भाग्यशाली स्कूल जा चुके थे और मैं अँधेरे में लेटा अपने चेहरे को देख रहा था। मेरी आशाएँ धूमिल हो चुकी थीं। तकरीबन चौबीस घंटे बाद मुझे शांति महसूस हुई।
हमारा स्कूल मिशनरी स्कूल था, जिसमें मुख्यतः अंग्रेजों और अंग्रेज भारतीयों के बच्चे ही पढ़ते थे तथा इसमें भारतीयों के लिए सीमित जगहें ही थीं, यानी तकरीबन पंद्रह प्रतिशत। हमारे सभी भाई-बहन इसी स्कूल में पढ़े थे और मैंने भी यहीं पढ़ाई की थी। मैं नहीं जानता कि मेरे माता-पिता ने इसी स्कूल का चयन क्यों किया था? पर मुझे लगता है कि इसकी वजह अंग्रेजी भाषा में किसी अन्य जगह से शीघ्र निपुणता प्राप्त करना था और उन दिनों अंग्रेजी भाषा का ज्ञान बहुत मायने रखता था। मुझे आज भी याद है कि जब मैं स्कूल गया था, तब मुझे सिर्फ अंग्रेजी की वर्णमाला ही आती थी, पता नहीं मैंने अंग्रेजी का एक शब्द बोले बिना ही कैसे वह सब किया होगा। मैं अंग्रेजी बोलने के अपने पहले प्रयास को आज भी नहीं भूला हूँ। हमें स्लेट और पेंसिलें दी गई थीं और लिखने से पहले उन्हें नुकीला बनाने के लिए कहा गया था। मैंने उन्हें अपने चाचाओं से बेहतर बनाया और अपने शिक्षक की तरफ पेंसिल दिखाते हुए पूछा, मोटा या और महीन! मैंने सोचा कि मैंने अंग्रेजी में ही बोला था।
हमारे शिक्षक अंग्रेज भारतीय ही थे और इनमें ज्यादातर महिलाएँ ही थीं तथा हेडमास्टर और हेडमिस्ट्रेस श्रीमान और श्रीमती यंग थे, जो कि इंग्लैंड से ही आए थे। अपने अधिकतर शिक्षकों से हमारा लगाव नहीं था। मि. यंग से हम डरते थे, पर उनका सम्मान भी करते थे, क्योंकि छड़ी के मामले में वे काफी उदार थे। मिस काडोगन को हम बर्दाश्त करते थे औरा मिस एस. से हम चिढ़ते थे तथा उनके अनुपस्थित रहने पर हम खुश हो जाते। मिसेज यंग को तो हम पसंद करते थे, पर अपनी पहली टीचर मिस सारा लॉरेंस को तो हम प्यार करते थे। बच्चों की मनःस्थिति को दयालुतापूर्वक समझने की वजह से हम उनकी तरफ खिंचे चले जाते थे, पर मुझे लगता है कि जब मैं अंग्रेजी में स्वयं को व्यक्त कर पाने में अक्षम था, तब क्या मैं उनसे आसानी से बात कर पाता था!
वैसे हमारे स्कूल में शिक्षकों और विद्यार्थियों की अधिकतर संख्या अंग्रेज भारतीयों की ही थी और जहाँ तक भारतीय स्थितियाँ अनुमति प्रदान करतीं, वे अंग्रेजी मानकों के अनुसार ही चलते थे। वहाँ हमने ऐसी बहुत सी चीजें सीखीं, जो कि हमें भारतीय स्कूलों में सीखने को नहीं मिलतीं। वहाँ भारतीय स्कूलों की तरह पढ़ाई पर अस्वाभाविक जोर नहीं दिया जाता था। वहाँ अध्ययन के अतिरिक्त हमें व्यवहार, स्वच्छता एवं समयबद्धता सिखाई जाती थी, जिनका भारतीय स्कूलों में अभाव था। पढ़ाई के मामले में टीचर अपने विद्यार्थियों पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देते थे तथा रोजाना का काम व्यवस्थित और नियमित रूप से होता था, परिणामतः इम्तिहान के समय किसी तरह की तैयारी की जरूरत नहीं पड़ती थी, साथ ही अंग्रेजी स्कूलों के शिक्षा का स्तर भी भारतीय स्कूलों से बेहतर था। इतना सबकुछ होने पर भी मैं भारतीय बच्चों को ऐसे स्कूलों में भेजने के पक्ष में नहीं हूँ। हालाँकि इनमें शिक्षा बहुत ही व्यवस्थित ढंग से दी जाती थी, पर यह भारतीय विद्यार्थियों की अनुकूलता के बहुत अनुरूप नहीं थी। यहाँ बाइबिल की शिक्षा पर बहुत बल दिया जाता था और इसने शिक्षा का माध्यम बहुत ही अवैज्ञानिक तथा नीरस बना दिया था। हमें अपना बाइबिल का पाठ याद करना पड़ता था, चाहे हम इसे समझें या न समझें, जैसे कि हम पादरी हों और हमें उन पवित्र ग्रंथों को याद रखना हो। हालाँकि हमने सात सालों तक रात-दिन बाइबिल पढ़ी, और वर्षों बाद जब मैं कॉलेज गया, तब मुझे पहली बार इसे पढ़ना अच्छा भी लगा।
इसमें संदेह नहीं है कि इनकी पाठ्यचर्या इस तरह से बनी थी कि जहाँ तक हो सके, अंग्रेजी हमारी मानसिकता में समा जाए। हमने ग्रेट ब्रिटेन के इतिहास और भूगोल के बारे तो खूब पढ़ा, पर भारत के बारे में इतना कम जाना कि जब हमारा भारतीय नामों से सामना हुआ, तब हमें लगा कि हम विदेशी हैं। हमने लैटिन के शब्दरूप तो सीखने शुरू कर दिए, पर जब तक हमने पी.ई. स्कूल नहीं छोड़ दिया, हमें संस्कृत के शब्द रूपों के बारे में पता ही नहीं था। इसी तरह संगीत में भी हमारे कानों को ‘सा रे गा मा’ के बजाय ‘ड् रे मी फा’ की आदत पड़ गई थी। पाठकों को वे ही अंग्रेजी की कहानियाँ और लघु कथाएँ पढ़ने को मिलती थीं, जिनका संबंध योरप से था, जबकि इन कहानियों में एक भी शब्द भारतीय मूल का नहीं होता था। वैसे यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनमें कोई भी भारतीय भाषा नहीं सिखाई जाती थी और इसीलिए जबतक हम भारतीय स्कूल नहीं गए, हमने अपनी मातृभाषा को नकार दिया था।
वैसे यह कथन सही नहीं होगा कि हम स्कूल में खुश नहीं थे, जबकि शुरुआत के कुछ सालों तक तो हमें पता ही नहीं चला कि हमें दी जानेवाली शिक्षा भारतीय स्थितियों के अनुकूल नहीं थी। हमने जल्दी ही जान लिया कि चाहे जो भी हो, हमें अन्य विद्यार्थियों की तरह ही स्कूली व्यवस्था के अनुकूल व्यवहार करना है। इस स्कूल की भी अपने अच्छे व्यवहार वाले विद्यार्थियों की तरह ही स्कूली व्यवस्था के अनुकूल व्यवहार करना है। इस स्कूल की भी अपने अच्छे व्यवहार वाले विद्यार्थियों की वजह से एक गरिमा थी और हमने भी इसी के अनुरूप व्यवहार करने का प्रयास किया था। मेरे विचार से हमारे माता-पिता हमारी प्रगति से पूर्ण संतुष्ट थे। स्कूल में भी हमारी स्थिति अच्छी थी, क्योंकि हमारे परिवार के सदस्य चाहे जिस भी कक्षा में हों, वे उच्च स्थान पर ही थे।
खेलकूद के मामले में वैसे तो काफी ध्यान दिया जाता है, पर इस तरह के अंग्रेजी स्कूलों में इनसे बहुत उम्मीद नहीं की जाती है। शायद इसका कारण हमारे हेडमास्टर की स्वयं ही खेलकूद में रुचि का न होना ही था। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था और उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रभाव चारों तरफ स्कूल में नजर भी आता था। वे कठोर अनुशासन प्रेमी और अच्छे व्यवहार के हिमायती भी थे। हमारी वार्षिक प्रगति रिपोर्ट में सिर्फ विभिन्न विषयों के नंबर ही नहीं बताए जाते थे, बल्कि इसमें 1. व्यवहार, 2. आचरण, 3. स्वच्छता, 4. समय की पाबंदी के बारे में भी लिखा होता था। अब इसमें आश्चर्य नहीं है कि इस स्कूल से निकलनेवाले लड़के और लड़कियाँ भले व्यवहार करनेवाले होते थे। किसी तरह के दुर्व्यवहार या अनुशासनहीनता पर लड़कों की छड़ी से पिटाई होती थी, पर इसके लिए सिर्फ दो शिक्षक, हेडमास्टर और उनकी पत्नी ही अधिकृत थीं।
मि. यंग में बहुत सी स्वभावगत विशेषताएँ थीं और इस पर उनके प्रति हमारे बीच बहुत से मजाक भी होते थे। उनके एक बड़े भाई भी थे, जिनकी दाढ़ी थी और उन्हें बच्चों से बहुत प्यार था तथा बच्चे भी उनके साथ खेलते थे। अपने हेडमास्टर की अपने बड़े भाई से अलग पहचान के लिए हमने उनका नामकरण ‘यंग यंग’ किया था, जो कि आगे चल कर ‘ओल्ड यंग’ हो गया था। मि. यंग ठंड के मामले में बहुत ही संवेदनशील थे, यहाँ तक कि गरम दिनों में भी वे अपनी खिड़कियाँ बंद रखते थे, ताकि कहीं से हवा अंदर प्रवेश न कर जाए। वे बार-बार हमें भी ठंड से बचने की चेतावनी देते रहते थे, क्योंकि इससे बाद में हैजा होने का भय भी बना रहता था। यदि कभी उन्हें इसकी संभावना भी होती, तब वे कुनैन की दवा की खुराक ले लेते थे, जिसके सेवन के बाद उन्हें तकरीबन सुनाई देना बंद हो जाता था। भारत में करीब बीस साल तक रहने के बावजूद उन्होंने एक भी स्थानीय शब्द का इस्तेमाल नहीं किया और कहीं आस-पास घूमने भी नहीं गए। यदि उनका काम करनेवाला उनकी मेज पर किसी चीज को रखना भूल जाता, तब वे घंटी बजाकर उससे उस चीज की माँग करते, पर स्थानीय भाषा में डाँटने में वे असमर्थ थे। वे सिर्फ उसे घूरते और बुदबुदाते हुए अंग्रेजी में कहते कि ‘इस काम को पहले ही किया जाना था।’ यदि कोई संदेशवाहक उनके लिए पत्र लेकर आता और वे उसे थोड़ी देर इंतजार करने के लिए कहना चाहते, तब वे भागकर अपनी पत्नी के पास जाते और उससे इसके लिए उचित शब्द पूछकर आते तथा इसे तब तक दुहराते रहते, जब तक कि वह चला नहीं जाता।
इतना सबकुछ होने पर भी हमारे हेडमास्टर की अपनी एक गरिमा थी और वे सभी उनका सम्मान करते थे। हालाँकि इसमें थोड़ा भय का भी अंश रहता था। हमारी हेडमिस्ट्रेस एक ममतामयी माँ की छवि वाली महिला थीं और उन्हें सभी पसंद करते थे, साथ ही मैं यह भी कहना चाहूँगा कि उनके द्वारा हमारे किसी भी सामाजिक या धार्मिक विचारों को प्रभावित करने का प्रयास नहीं किया गया था। कुछ सालों तक सबकुछ ऐसा ही चलता रहा और हम अपने वातावरण के साथ तालमेल बनाए हुए थे, पर धीरे-धीरे इसमें एक संघर्ष नजर आने लगा था। हमें अपने वातावरण से भिन्नता महसूस कराई जाने लगी थी, जो कि शायद बड़ी सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल की प्रतिध्वनि थी। वैसे इसका उत्तर मैं अभी नहीं दूँगा, क्योंकि यह एक आडंबर था।
यह अंतर कुछ हद तक तो अपरिहार्य था, पर जो अपरिहार्य नहीं था, वह तो वह द्वंद्व था, जो कि इससे ही उपजा था। हम दो भिन्न जगत् में थे, जैसे-जैसे हमारी चेतना विकसित हुई, हमें महसूस होने लगा कि इन दोनों जगत् का आपस में कोई मेल नहीं है। एक तरफ तो हमारे परिवार और समाज का प्रभाव था, जो कि भारत था और दूसरी तरफ दूसरी दुनिया, दूसरा वातावरण था, जहाँ हमने अपने ज्यादातर काम के दिन गुजारे थे, जो कि इंग्लैंड तो नहीं था, पर इसके काफी करीब था। हमें बताया गया था, चूँकि हम भारतीय हैं, इसलिए हम छात्रवृत्ति के इम्तिहान में नहीं बैठ सकते थे। यह बिल्कुल प्राइमरी या मिडिल स्कूल की परीक्षाओं की तरह ही होते थे, जब इनमें हममें से बहुत से छात्र प्रथम भी आते थे। स्वैच्छिक सैन्य सेवाओं में केवल अंग्रेज भारतीय लड़के ही जा सकते थे और उन्हीं के कंधों पर राइफल होती थी। हमें इसकी अनुमति नहीं थी। इस तरह की छोटी-छोटी घटनाओं ने हमारी आँखें खोल दी थीं कि हम भारतीयों के साथ अलग तरह का बर्ताव होता था, जबकि हमारा संबंध एक ही संस्थान से होता था। कभी-कभी भारतीय लड़कों और अंग्रेज भारतीयों के बीच झगड़े भी होते थे और जिसका अंत मुक्केबाजी की बल परीक्षा में ही होता था, जिसमें नस्लीय दृष्टिकोण से सहानुभूतियाँ भी प्राप्त होती थीं। इस मामले में एक बहुत बड़े भारतीय अधिकारी का बेटा जो कि वहाँ का विद्यार्थी भी था और वही भारतीय एवं अंगेज छात्रों के बीच मुक्केबाजी की प्रतियोगिता का आयोजन करता था और जो इसमें अच्छा खेलते थे, वे अलग-अलग रहते थे। मुझे अभी भी याद है कि हम भारतीय लड़के अकसर ही बातें करते थे कि वे बाइबिल से ऊब चुके हैं और दुनिया की कोई भी ताकत हमारे धर्म को नहीं बदल सकती। इन्हीं दिनों कलकत्ता विश्वविद्यालय से एक नया नियम जारी हुआ, जिसके अनुसार मैट्रिकुलेशन, इंटरमीडिएट और स्नातक इम्तिहान के लिए बँगला भाषा एक विषय के रूप में आवश्यक कर दी गई थी तथा इसके साथ ही मैट्रिकुलेशन की विषयवस्तु में भी परिवर्तन किए गए थे। हमें शीघ्र ही महसूस हुआ कि पी.ई. स्कूल का पाठ्यक्रम हमारे अनुकूल नहीं था और ज्यादातर विद्यार्थी तो नहीं, पर हमने बँगला और संस्कृत भाषा के अध्ययन के साथ मैट्रिक के इम्तिहान की तैयारी शुरू कर दी थी। इस मामले में मेरे बड़े भाइयों का भी कम प्रभाव नहीं पड़ा था, जो कि पहले ही हमारे स्कूल से जा चुके थे और मैट्रिकुलेशन, इंटरमीडिएट तथा स्नातक की तैयारी कर रहे थे। वे अकसर घर पर अपनी नई दुनिया के बारे में बातें किया करते थे।
उपर्युक्त कथन से यह अर्थ निकालना उचित नहीं होगा कि अपने स्कूल में कुछ वर्ष बिताने के बाद मैं वहाँ विद्रोही हो गया था। मैं वहाँ सन् 1902 से 1908 तक रहा और अपने वातावरण के उद्देश्य तथा आशय से संतुष्ट था। यहाँ तक कि वहाँ की बेचैन कर देनेवाली चीजें भी मेरे जीवन के प्रवाह को प्रभावित न कर सकीं। केवल आखिर में मुझे थोड़ी अप्रसन्नता थी और वह भी वहाँ के वातावरण से अनुकूलता न बना पाने के कारण। आगे मैं किसी भारतीय स्कूल में पढ़ना चाहता था, ताकि मैं वहाँ सहजता महसूस कर सकूँ और सबसे आश्चर्यजनक तो यह था कि जब जनवरी 1909 में मैंने अपने स्कूल को विदा करते हुए अपने साथियों और शिक्षकों को अलविदा कहा, तब मेरे मन में किसी तरह का पछतावा या दुःख नहीं था। उस समय मेरे लिए यह समझना मुश्किल था कि मेरे साथ क्या हुआ था। समय के बीतने और वयस्क मस्तिष्क की सहायता से मैं यह महसूस कर सकता हूँ कि इसमें कुछ ऐसे कारक थे, जो कि अपना काम कर रहे थे।
जहाँ तक पढ़ाई का सवाल है, यह समय संतोषजनक था, क्योंकि मैं सामान्यतया उच्च स्थिति में ही था। किंतु खेलों में मैं बहुत अच्छा नहीं था और बॉक्सिंग प्रतियोगिता में मैंने भाग नहीं लिया। भारतीय स्कूलों में पढ़ाई पर अधिक जोर होता था, पर यहाँ यह उतना महत्त्व नहीं रखती थी। इसलिए मेरे अपने बारे में थोड़ी प्रतिकूल धारणा भी पनप गई थी। अपने बारे में महत्त्वहीनता की भावना, जिसके बारे में मैं पहले ही बता चुका हूँ, भी मुझे परेशान करती रही। यहाँ सबसे निचले दर्जे में होने के कारण शायद मुझमें दूसरों को देखने या स्वयं को नीचा देखने की आदत पड़ चुकी थी।
इन सभी चीजों पर ध्यान देने के बाद अब मैं किसी भी भारतीय लड़के या लड़की को इस तरह के स्कूलों में नहीं भेजने की सलाह देना चाहूँगा, क्योंकि यदि बच्चा संवेदनशील स्वभाव का होगा, तब वह इस वातावरण की प्रतिकूलता अनुभव करेगा और नाखुश भी रहेगा। तकरीबन यही बात मैं भारतीय बच्चों को इंग्लैंड के पब्लिक स्कूलों में भेजने के बारे में कहना चाहूँगा, जो कि यहाँ भारत के कुछ खास अभिजात वर्गों में भी चल रहे हैं। ठीक यही बात मैं कुछ भारतीयों के बारे में कहते हुए उनका कड़ा विरोध करता हूँ, जो कि उन्हीं अंग्रेजी स्कूलों की तर्ज पर अंग्रेज शिक्षकों के माध्यम से यहाँ भी वैसे ही स्कूल चला रहे हैं। वैसे यह भी संभव है कि कुछ बहिर्मुखी लड़कों का इस तरह की प्रतिकूलता से परेशानी न होती हो और वे ऐसे वातावरण में खुश भी रहते हों। किंतु अंतर्मुखी बच्चे इसकी तकलीफ सहने के लिए बाध्य होंगे और परिणामतः उनमें विद्वेष की भावना उत्पन्न होने लगेगी। वैसे इस मनोवैज्ञानिक तथ्य में अलग हटकर भी जो शिक्षा प्रणाली भारतीय स्थितियों, भारतीय आवश्यकताओं, भारतीय इतिहास और भारतीय समाज की अनदेखी करती हो, उसका किसी तार्किक सहयोग का दावा उचित नहीं है। पूरब और पश्चिम के सांस्कृतिक पुनर्मेल के लिए उचित मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण भारतीय युवा बालकों पर ‘अंग्रेजी शिक्षा’ को थोपना नहीं हो सकता है, बल्कि जब वे बड़े हो जाएँ, तब पश्चिम को उनके व्यक्तिगत संपर्क में लाना उचित होगा, ताकि वे स्वयं ही तय कर सकें कि पश्चिम और पूरब में अच्छा या बुरा क्या है।
आपके बारे में दूसरे जो कुछ भी सोचते हैं, इसका आपके अपने बारे में सोच पर कितना प्रभाव हो सकता है, वैसे यह बहुत ही विचित्र है। जनवरी 1909 में जब मैंने रावेनशा कॉलेजिएट स्कूल, कटक में दाखिला लिया था, तब अचानक मुझे स्वयं में एक परिवर्तन का एहसास हुआ। योरोपीय और अंग्रेज भारतीय छात्रों के बीच मेरी वंश-परंपरा कोई मायने नहीं रखती थी, पर अपने लोगों के बीच यह अलग थी। वैसे अंग्रेजी भाषा के मामले में मेरा स्तर सामान्य से बेहतर था और इसका मेरे सहपाठियों की आँखों में असर भी दिखता था। यहाँ तक कि शिक्षक भी मुझ पर ध्यान देते थे, क्योंकि उन्हें मेरे प्रथम आने की उम्मीद थी। वैसे भारतीय स्कूलों में खेलों का कोई विशेष महत्त्व नहीं था। अपनी कक्षा के प्रथम तिमाही इम्तिहान में मैंने उनकी आशाओं के अनुरूप ही परिणाम दिए थे। इस नए वातावरण ने मुझे अपने बारे में बेहतर सोचने पर विवश भी किया कि मेरा भी महत्त्व है और मैं भी कुछ हूँ। मेरा यह घमंड नहीं बल्कि आत्मविश्वास था, जिसका मैं एक लंबे समय से अभाव महसूस कर रहा था, जबकि जीवन में प्रत्येक सफलता के लिए इसकी आवश्यकता होती है।
इस समय मैं अबोध बालक नहीं था, बल्कि मेरा दाखिला चौथे दर्जे में हुआ था। चौथे दर्जे के विद्यार्थी बड़ी कक्षा के विद्यार्थी माने जाते थे, उनमें स्वयं को महत्त्वपूर्ण समझने की भावना भी रहती थी और यही भावना मुझमें भी थी। किंतु सारे लाभ होने के बावजूद मैं एक मामले में बहुत ही कमजोर था और वह थी मेरी मातृभाषा बँगला। इस स्कूल में दाखिले से पहले मैंने बँगला भाषा बिल्कुल ही नहीं पढ़ी थी, जबकि मेरे साथ के अन्य बच्चे इसमें पहले ही एक बेहतर दर्जा हासिल कर चुके थे। मुझे याद है कि पहले ही दिन मुझे गाय या घोड़े पर निबंध लिखने के लिए कहा गया था और मेरा लेखन मेरे सहपाठियों के लिए एक हँसी का मसाला था, क्योंकि व्याकरण की दृष्टि से मुझे कुछ भी नहीं आता था और जब मेरे शिक्षक ने इसे कक्षा में पढ़कर सुनाया, तब सारी कक्षा इसे सुनकर हँस रही थी। अपनी पढ़ाई की कमी को लेकर मैंने अपने जीवन में ऐसा अनुभव कभी नहीं किया था, जबकि हाल ही में आत्मानुभूति की भावना मुझे अति संवेदनशील बना चुकी थी। कुछ हफ्तों और महीनों तक तो बंगला भाषा मेरे लिए मुसीबत बन चुकी थी, पर अपनी इस अपमानजनक स्थिति पर मैंने काबू पा लिया और धीमे-धीमे बेहतर स्थिति की तरफ बढ़ता हुआ अपने वार्षिक इम्तिहान में इस विषय में सबसे अच्छे नंबर पाने में सफल भी रहा।
अब मुझे यहाँ का वातावरण भी अच्छा लगने लगा और मैं वैसे भी बदलाव चाहता था। दूसरे स्कूल में मैंने सात साल बिताए थे, पर मेरा वहाँ कोई भी मित्र नहीं था। यहाँ मुझे महसूस हो रहा था कि अपने कुछ सहपाठियों के साथ मेरी गहरी मित्रता होगी। मेरे मित्रों की भी रुचि मेरी ही तरह खेलों में नहीं थी, पर मुझे ड्रिल की कक्षाएँ अच्छी लगती थीं। मेरे अपने निरुत्साह के अलावा खेलों में मेरा उत्साह न होने की एक और बाधा थी।
लड़कों के लिए स्कूल से घर लौटकर हलका नाश्ता करना और खेलने के लिए जाना एक रिवाज हुआ करता था, पर मेरे माता-पिता को यह पसंद नहीं था, या तो उन्हें लगता था कि खेलकूद हमारी पढ़ाई कि लिए नुकसानदेह होगा या फिर खेल का मैदान हमारे मानसिक स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं था। संभवतः बाद वाली विचारधारा ही उनके लिए अधिक महत्त्वपूर्ण थी। बहरहाल हमारे घरेलू हालात ऐसी ही थे और हमें जब खेलने जाने का मन होता, तब हमें इसे गोपनीय तरीके से ही करना पड़ता था। मेरे कुछ भाई और चाचा अकसर ऐसा करते और जब वे पकड़े जाते, तब उन्हें इसके लिए डाँट भी सुननी पड़ती थी। अपने माता-पिता की आदत को समझते हुए उन्हें तब चकमा देना आसान होता, जब वे कहीं बाहर या टहलने जाते थे। यदि मेरा मन दूसरे के साथ खेलने को करता, तब मैं भी उन्हीं में शामिल हो सकता था, पर मैंने ऐसा किया नहीं। वैसे मैं एक अच्छे स्वभाव वाला लड़का था और संस्कृत के नैतिक श्लोकों को याद करने में लगा रहता था। ये श्लोक उच्च मानवीय सद्गुणों के बारे में बताते थे, जैसे पिता की आज्ञा माननी चाहिए और जब पिता संतुष्ट होते हैं, तब सभी देवता संतुष्ट होते हैं और माता का स्तर पिता से भी ऊपर होता है आदि-आदि। मैंने शायद यही सोचा था कि मैं अपने पिता को नाराज नहीं करूँगा। इसलिए मैं उन लोगों के साथ बागवानी करता था, जो खेलने बाहर नहीं जाते थे। हमारे घर में एक बड़ा किचन गार्डेन और फूलोंवाला बागीचा था, जिसमें माली की सहायता से हम पौधों को पानी देते और उनकी देखभाल भी करते थे। बागवानी मुझे पसंद भी थी। इसने मुझे प्रकृति की सुंदरता देखनेवाली आँखें प्रदान कीं तथा इसका विवरण मैंने आगे भी दिया है। बागवानी के अतिरिक्त हम व्यायाम भी करते थे तथा इसके बहुत से उपकरण हमारे घर पर भी थे।
अपने बीते दिनों की तरफ देखने पर मुझे लगता है कि मुझे खेलों को नकारना नहीं चाहिए था। शायद इसलिए मुझमें पूर्वपरिपक्वता और अंतर्मुखी व्यक्तित्व विकसित हो गया था। बहुत जल्दी परिपक्व होना अच्छी बात नहीं है, चाहे वह पेड़ हो या मानव, दोनों को ही लंबे समय में इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। प्रकृति के क्रमिक विकास को कोई भी चीज पराजित नहीं कर सकती है, चाहे वह कितनी भी विलक्षण क्यों न हो और अकसर ऐसी चीजें अपनी शुरुआती देन को पूरा करने में असफल होती हैं।