पुस्तक का विवरण (Description of Book of संपूर्ण चाणक्य नीति / Sampurna Chanakya Niti PDF Download) :-
नाम 📖 | संपूर्ण चाणक्य नीति / Sampurna Chanakya Niti PDF Download |
लेखक 🖊️ | चाणक्य / Chanakya |
आकार | 4.4 MB |
कुल पृष्ठ | 379 |
भाषा | Hindi |
श्रेणी | ऐतिहासिक, जीवनी, व्यक्तित्व विकास /Personality Developement |
Download Link 📥 | Working |
चाणक्य-भारतीय इतिहास के एक युग पुरुष! असम्भव को सम्भव कर दिखाने वाले ऐसे शस्त्राविहीन योद्धा जिन्होंने अपनी नीतियों के बल पर ही भारत के इतिहास को एक सुनहरा मोड़ दिया। समाज, राजनीति, धर्म और कर्म का खुला विवेचन किया है चाणक्य ने इन नीतियों में। ये नीतियां जीवन की अँधेरी राहों में सूर्य किरणों-सा मार्गदर्शन करती हैं। जीवन की अति गूढ़तम गुत्थियों को सुलझाने वाली सुस्पष्ट नीतियों की अभूतपूर्व प्रस्तुति।
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पुस्तक का कुछ अंश
प्रस्तावना
“क्या कर रहे हो?”
“कुश तो पवित्र हैं, इन पर क्रोध करना अच्छा नहीं।”
“जो कष्ट पहुंचाए, उसे जीने का हक नहीं। उसे नष्ट करना ही पुण्य है।”*
“लेकिन कुश तो नष्ट नहीं होते, अवसर पाकर फिर फैल जाते हैं।”
“नहीं! मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। इसकी दोबारा होने की सभी संभावनाओं को जलाकर राख कर दूंगा। शत्रु को निर्मूल करने पर विश्वास करता हूं मैं।”
बालक के पैरों में कुश नामक घास चुभी थी। अतः उसने कुश को ही निर्मूल कर दिया। खोद-खोदकर उसकी जड़ों में मठा डालकर बची-खुची छोटी-छोटी जड़ों को भी जला दिया था उसने।
योग्य आचार्य ने बालक में छिपी संभावनाओं को पहचान लिया था। ऐसा आत्मविश्वास और प्रबल इच्छाशक्ति ही व्यक्तित्व को ऊंचाइयों पर पहुंचाती है। ऐसे में यदि जनसंवेदना का पुट मिल जाए, तो व्यक्ति इतिहास पुरुष ही बनता है और ऐसा ही हुआ भी। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारत के इतिहास को जिस बालक ने एक स्वर्णिम मोड़ दिया, वही बालक बड़ा होकर चाणक्य बना। उसका असली नाम था—विष्णुगुप्त। उसकी कूटनीतिक विलक्षणता की वजह से लोग उसे कौटिल्य भी कहते थे।
यह घटना तब की है, जब विश्व के मानचित्र पर कुछ देशों का कहीं कोई अता-पता नहीं था, लेकिन भारत की सभ्यता और संस्कृति अपने पूर्ण यौवन पर थी। धर्म, दर्शन और अध्यात्म की ही नहीं, राजनीति तथा अर्थशास्त्र जैसे विषयों की शिक्षा लेने के लिए भी विदेशों से विद्यार्थी भारत भूमि पर आया करते थे। यहां तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय थे। आचार्य चाणक्य तक्षशिला में राजनीति तथा अर्थशास्त्र के आचार्य थे।
भारत की सीमाएं उस समय अफगानिस्तान से लेकर बर्मा (म्यांमार) तक तथा कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैली हुई थीं। उस समय भारत सोने की चिड़िया था। विदेशी आक्रांताओं को भारत की समृद्धि खटक रही थी लेकिन उनमें हिम्मत नहीं थी कि वे हिंदुस्तान के रणबाकुंरों का सामना कर सकें। अंततः उन्होंने दान और भेद की नीति का सहारा लेकर मगध के शासक धर्मनंद की कमियों को पहचान लिया और उसे अपने पाश में भी कस लिया था। वर्तमान के पटना तथा तत्कालीन पाटलिपुत्र के आसपास फैला पूर्व-उत्तर की सीमाओं को छूता हुआ एक विशाल और शक्तिशाली वैभव संपन्न राज्य था—मगध।[adinserter block="1"]
मगध के सिंहासन पर आसीन धर्मनंद सुरा-सुंदरी में इतना डूब चुका था कि उसे राजकार्यों को देखने की फुरसत ही नहीं थी। वह अपनी मौजमस्ती के लिए प्रजा पर अत्याचार करता। जो भी आवाज उठाता, उसे कुचल दिया जाता। चणक को भी जनहित के लिए उठाई गई आवाज की सजा मिली थी। उस महान आचार्य को मौत के घाट उतार दिया गया था।
एक-एक करके हुई हृदय विदारक घटनाएं चणक पुत्र चाणक्य के हृदय में फांस की तरह धंसी हुई थीं। एक दिन जब राजसभा में समूचे आर्यावर्त की स्थिति का विवेचन करते हुए चाणक्य ने मगधराज धर्मनंद को उनका कर्तव्य याद दिलाया तो वह झुंझला उठा। उसने चाणक्य को दरबार से धक्के मारकर निकाल फेंकने का आदेश दिया। सैनिकों के चाणक्य को धक्के मारकर दरबार से निकालने की कोशिश के बीच चाणक्य की शिखा खुल गई। यह चाणक्य का ही नहीं, देश की उस आवाज का भी अपमान था, जो अपने राजा के सामने अंधकार में विलीन होते अपने भविष्य को बचाने की गुहार कर रही थी। उसी समय चाणक्य ने प्रतिज्ञा कर ली—‘अब यह शिखा तभी बंधेगी, जब नंदवंश का समूल नाश हो जाएगा।’
चाणक्य ने अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए चंद्रगुप्त को चुना। चंद्रगुप्त में छिपी संभावनाओं को चाणक्य ने एक-एक करके तराशा। सोचे हुए कार्य को मूर्त्त रूप देना चाणक्य के लिए आसान नहीं था। मकदूनियां के छोटे से प्रदेश से ‘सिकंदर’ नामक आंधी की गर्द भारत की सीमाओं पर छाने लगी थी। कंधार के राजकुमार आम्भी ने सिकंदर से गुप्त संधि कर ली थी। पर्वतेश्वर (पोरस) ने सिकंदर की सेनाओं का डटकर सामना किया, लेकिन सिकंदर की रणनीति ने पांसा पलट दिया। सिकंदर की ओर से हुई बाणवर्षा से घबराई पोरस की जुझारू गजसेना ने अपनी ही सेना को रौंदना शुरू कर दिया। पोरस की हार हुई और उसे बंदी बना लिया गया। बाद में सिकंदर ने पोरस को उसकी वीरता से प्रसन्न होकर छोड़ भी दिया।[adinserter block="1"]
इस पराजय के बाद आचार्य चाणक्य की देखरेख में चंद्रगुप्त अपनी सेना को संगठित करने, उसे तैयार करने और युद्ध की रणनीति बनाने में पूरी तरह से लग गया। भारी-भरकम शस्त्रों, शिरस्त्राणों और कवचों आदि की जगह हल्के, परंतु मजबूत हथियारों ने ली। शारीरिक शक्ति के साथ ही बुद्धि-चातुर्य का भी प्रयोग किया गया। चाणक्य की कूटनीति ने इस स्थिति में अमोघ ब्रह्मास्त्र का काम किया। कौटिल्य ने साम, दान, दंड एवं भेद—चारों नीतियों का प्रयोग किया और अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। नंदवंश का नाश हुआ। चंद्रगुप्त ने मगध की बागडोर संभाली। सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी हेलन का चंद्रगुप्त के साथ विवाह हुआ। धर्मनंद का प्रधान अमात्य ‘राक्षस’ चंद्रगुप्त का महाअमात्य बना। एक बार फिर से भारत बिखरते-बिखरते बच गया। सिकंदर नाम की आंधी शांत होकर वापस अपने देश चली गई। भारत की गरिमा विश्व के सामने फिर से निखरकर सामने आई।
और चाणक्य? उसने निर्जन एकांत में राजनीति के पूर्व ग्रंथों का अवगाहन कर उसमें अपने व्यक्तिगत अनुभवों का पुट दिया और अर्थशास्त्र पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा। ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ नामक यह ग्रंथ राजा, राजकर्मियों तथा प्रजा के संबंधों और राज्य-व्यवस्था के संदर्भ में अनुकरणीय व्यवस्था देता है।
कुछ विद्वानों ने चाणक्य की तुलना मैकियाविली से की है लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू इस बात से सहमत नहीं थे। उनकी दृष्टि में चाणक्य की महानता के मैकियाविली सामने काफी अदने हैं। चाणक्य एक महान अर्थशास्त्री, राजनीति के वेत्ता तथा कूटनीतिज्ञ होते हुए भी महात्मा थे। वे सभी प्रकार की भौतिक उपाधियों से परे थे। इसी कारण ‘कामन्दकीय नीतिसार’ में विष्णुगुप्त के लिए ये पंक्तियां लिखी गईं—
नीतिशास्त्रामृतं धीमानर्थशास्त्र महोदधेः
समुद्दध्रे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे।।
‘जिसने अर्थशास्त्र रूपी महासमुद्र से नीतिशास्त्र रूपी अमृत का दोहन किया, उस महा बुद्धिमान आचार्य विष्णुगुप्त को मेरा नमन है।’[adinserter block="1"]
जनकल्याण के लिए जो भी जहां से मिला, उसे चाणक्य ने लिया और उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की। वे अपने ग्रंथ का शुभारंभ करते हुए शुक्राचार्य और बृहस्पति दोनों को नमन करते हैं। दोनों गुरु हैं। दोनों की अपनी-अपनी विशिष्ट धाराएं हैं। अपने प्रतिज्ञा वाक्य में वे कहते हैं—
पृथिव्या लाभे पालने च यावन्तार्थ शास्त्राणि पूर्वाचार्यैः प्रस्थापितानि संहृत्यैकमिदमर्थशास्त्रं कृतम्।
पृथ्वी की प्राप्ति और उसकी रक्षा के लिए पुरातन आचार्यों ने जिन अर्थशास्त्र-विषयक ग्रंथों का निर्माण किया, उन सभी का सार-संकलन कर इस अर्थशास्त्र की रचना की गई है।
‘चाणक्य नीति’ में नीतिसार का निचोड़ है। इसका संकेत आचार्य ने प्रारंभिक श्लोकों में ही कर दिया है।
ऐसा नहीं है कि चाणक्य नीति पर इससे पहले काम न हुआ हो। इसके अनेक अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। यह पुस्तक उनसे अलग इस मायने में है कि इसमें मूल श्लोक के अर्थ को समझाते हुए उसमें छिपे रहस्यों की ओर भी संकेत करने का प्रयास किया गया है। ऐसा करने के पीछे उद्देश्य है कि पाठक उन निर्दिष्ट सूत्रों को पकड़कर कथ्य की गुत्थियां अपने ढंग से खोलें। इसमें इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि भाषा-शैली ऐसी हो, ताकि साधारण व्यक्ति भी इस ग्रंथ का लाभ उठा सकें। पुस्तक के अंत में दी गई फलश्रुति संकेत करती है कि विवेकवान् इस ग्रंथ को अवश्य पढ़े, यथा—
अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः।
धर्मोपदेशविख्यातं कार्याकार्यं शुभाशुभम्।।
इस शास्त्र को विधिपूर्वक* अध्ययन करने के बाद व्यक्ति भलीभांति जान लेता है कि शास्त्रों में किसे करने योग्य कहा जाता है और किसका निषेध है, क्या शुभ है और क्या अशुभ?
यहां पाठकों को एक बात विशेष रूप से समझ लेनी चाहिए कि इस ग्रंथ में कुछ ऐसी मान्यताओं का भी जिक्र किया गया है, जो बदलते परिवेश के साथ या तो बदल रही हैं या फिर उन्होंने अपना अस्तित्व खो दिया है। ग्रंथ की प्रामाणिकता को बनाए रखने के लिए उसके मूलरूप में किसी भी तरह की छेड़खानी करना नैतिक दृष्टि से ठीक नहीं है। मूल को यथारूप देने का अर्थ यह कतई नहीं है कि लेखक या प्रकाशक इन विचारों या मान्यताओं से सहमति रखते हैं। इसलिए पाठकों को सही संदर्भों में ही इस ग्रंथ के कथ्य को समझने की कोशिश करनी चाहिए।
* कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिंसनम्। तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत्।।
जो जैसा करे, उससे वैसा ही बरतें। कृतज्ञ के प्रति कृतज्ञता भरा, हिंसक से हिंसा युक्त और दुष्टता का व्यवहार करने पर किसी प्रकार का पाप (पातक) नहीं होता।
* सिकंदर द्वारा पोरस को मुक्त करना उन राजाओं के गाल पर करारा तमाचा था, जिन्होंने पर्वतेश्वर का साथ नहीं दिया था।
* नीतिशास्त्र में कही गई बातों की व्याख्या एकांगी नहीं होनी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि व्याख्याता को लोक और शास्त्र दोनों का ज्ञान हो। ‘लोक’ में तत्कालीन समाज का स्वरूप आता है, जबकि शास्त्र का अर्थ है—प्रयुक्त शब्दार्थ अर्थात् प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली का अर्थ स्पष्ट होना।
।। अथ प्रथमोऽध्यायः।।
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पहला अध्याय
किसी कष्ट अथवा आपत्तिकाल से बचाव के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए। धन खर्च करके भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, परन्तु स्त्रियों और धन से भी आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं की रक्षा करे।
प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम्।
नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीतिसमुच्चयम्।।
मैं तीनों लोकों—पृथ्वी, अन्तरिक्ष और पाताल के स्वामी सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक परमेश्वर विष्णु को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूं। प्रभु को प्रणाम करने के बाद मैं अनेक शास्त्रों से एकत्रित किए गए राजनीति से संबंधित ज्ञान का वर्णन करूंगा। ।।1।।
प्राचीनकाल से हमारी यह परम्परा रही है कि ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए ग्रंथकार अपने आराध्य का स्मरण अवश्य करता है। इसे ‘मंगलाचरण’ कहा जाता है। आचार्य चाणक्य ने भी सर्वशक्तिमान प्रभु विष्णु को नमन करके इस ग्रंथ की रचना की है।
विदित हो कि श्रीविष्णु पालनकर्ता हैं और ‘नीति’ का प्रयोजन भी व्यक्ति और समाज की व्यवस्था देना है। चाणक्य ने अपने इस ग्रन्थ को राजनीति से सम्बंधित ज्ञान का उत्तम संग्रह बताया है। इसी संग्रह को बाद में विद्वानों और जन-सामान्य ने ‘चाणक्य नीति’ का नाम दिया।
अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः।
धर्मोपदेशविख्यातं कार्याकार्यं शुभाशुभम्।।[adinserter block="1"]
‘सत्तमः’ अर्थात श्रेष्ठ पुरुष, इस शास्त्र का विधिपूर्वक अध्ययन करके यह बात भली प्रकार जान जाएंगे कि वेद आदि धर्मशास्त्रों में कौन से कार्य करने योग्य बताए गए हैं और कौन से कार्य ऐसे हैं जिन्हें नहीं करना चाहिए। क्या पुण्य है और क्या पाप है तथा धर्म और अधर्म क्या है, इसकी जानकारी भी इस ग्रंथ से हो जाएगी। ।।2।।
मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि कुछ भी करने से पूर्व उसे इस बात का ज्ञान हो कि वह कार्य करने योग्य है या नहीं, उसका परिणाम क्या होगा? पुण्य कार्य और पाप कर्म क्या हैं? श्रेष्ठ मनुष्य ही वेद आदि धर्मशास्त्रों को पढ़कर भले-बुरे का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
यहां यह बात जान लेना भी आवश्यक है कि धर्म और अधर्म क्या है? इसके निर्णय में, प्रथम दृष्टि में धर्म की व्याख्या के अनुसार—किसी के प्राण लेना अपराध है और अधर्म भी, परन्तु लोकाचार और नीतिशास्त्र के अनुसार विशेष परिस्थितियों में ऐसा किया जाना धर्म के विरुद्ध नहीं माना जाता, पापी का वध और अपराधी को दण्ड देना इसी श्रेणी में आते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा दी, उसे इसी विशेष संदर्भ में धर्म कहा जाता है।
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।
येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते।।
अब मैं मानवमात्र के कल्याण की कामना से राजनीति के उस ज्ञान का वर्णन करूंगा जिसे जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। ।।3।।
चाणक्य कहते हैं कि इस ग्रंथ को पढ़कर कोई भी व्यक्ति दुनियादारी और राजनीति की बारीकियां समझकर सर्वज्ञ हो जाएगा। यहां ‘सर्वज्ञ’ से चाणक्य का अभिप्राय ऐसी बुद्धि प्राप्त करना है जिससे व्यक्ति में समय के अनुरूप प्रत्येक परिस्थिति में कोई भी निर्णय होने की क्षमता आ आए। जानकार होने पर भी यदि समय पर निर्णय नहीं लिया, तो जानना-समझना सब व्यर्थ है। अपने हितों की रक्षा भी तो तभी सम्भव है।
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति।।[adinserter block="1"]
मूर्ख शिष्य को उपदेश देने, दुष्ट-व्यभिचारिणी स्त्री का पालन-पोषण करने, धन के नष्ट होने तथा दुखी व्यक्ति के साथ व्यवहार रखने से बुद्धिमान व्यक्ति को भी कष्ट उठाना पड़ता है। ।।4।।
चाणक्य कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति को ज्ञान देने से कोई लाभ नहीं होता, अपितु सज्जन और बुद्धिमान लोग उससे हानि ही उठाते हैं। उदाहरण के लिए बया और बन्दर की कहानी पाठकों को याद होगी। मूर्ख बंदर को घर बनाने की सलाह देकर बया को अपने घोंसले से ही हाथ धोना पड़ा था। इसी प्रकार दुष्ट और कुलटा स्त्री का पालन-पोषण करने से सज्जन और बुद्धिमान व्यक्तियों को दुख ही प्राप्त होता है।
दुखी व्यक्तियों से व्यवहार रखने से चाणक्य का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति अनेक रोगों से पीड़ित हैं और जिनका धन नष्ट हो चुका है, ऐसे व्यक्तियों से किसी प्रकार का संबंध रखना बुद्धिमान मनुष्य के लिए हानिकारक हो सकता है। अनेक रोगों का तात्पर्य संक्रामक रोग से है। बहुत से लोग संक्रामक रोगों से ग्रस्त होते हैं, उनकी संगति से स्वयं रोगी होने का अंदेशा रहता है। जिन लोगों का धन नष्ट हो चुका हो अर्थात जो दिवालिया हो गए हैं, उन पर एकाएक विश्वास करना कठिन होता है। दुखी का अर्थ विषादग्रस्त व्यक्ति से भी है। ऐसे लोगों का दुख से उबरना बहुत कठिन हो जाता है और प्रायः असफलता ही हाथ लगती है। जो वास्तव में दुखी है और उससे उबरना चाहता है, उसका सहयोग करना चाहिए। क्योंकि दुखी से तो स्वार्थी ही बचता है।
दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः।।
दुष्ट स्वभाव वाली, कठोर वचन बोलने वाली, दुराचारिणी स्त्री और धूर्त, दुष्ट स्वभाव वाला मित्र, सामने बोलने वाला मुंहफट नौकर और ऐसे घर में निवास जहां सांप के होने की संभावना हो, ये सब बातें मृत्यु के समान हैं। ।।5।।[adinserter block="1"]
जिस घर में दुष्ट स्त्रियां होती हैं, वहां गृहस्वामी की स्थिति किसी मृतक के समान ही होती है, क्योंकि उसका कोई वश नहीं चलता और भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए वह मृत्यु की ओर सरकता रहता है। इसी प्रकार दुष्ट स्वभाव वाला मित्र भी विश्वास के योग्य नहीं होता, न जाने कब धोखा दे दे। जो नौकर अथवा आपके अधीन काम करने वाला कर्मचारी उलटकर आपके सामने जवाब देता है, वह कभी भी आपको असहनीय हानि पहुंचा सकता है, ऐसे सेवक के साथ रहना अविश्वास के घूंट पीने के समान है। इसी प्रकार जहां सांपों का वास हो, वहां रहना भी खतरनाक है। न जाने कब सर्पदंश का शिकार होना पड़ जाए।
आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद्धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि।।
किसी कष्ट अथवा आपत्तिकाल से बचाव के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए और धन खर्च करके भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, परन्तु स्त्रियों और धन से भी अधिक आवश्यक यह है कि व्यक्ति अपनी रक्षा करे। ।।6।।
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह आपत्ति अथवा बुरे दिनों के लिए थोड़ा-थोड़ा धन बचाकर उसकी रक्षा करे अर्थात धन का संग्रह करे। समय पड़ने पर संचित धन से भी अधिक अपनी पत्नी की रक्षा करना आवश्यक है क्योंकि पत्नी जीवनसंगिनी है। बहुत से ऐसे अवसर होते हैं, जहां धन काम नहीं आता, वहां जीवनसाथी काम आता है। इसी संदर्भ में वृद्धावस्था में पत्नी की अहम् भूमिका होती है। चाणक्य का विचार यह भी है कि धन और स्त्री से भी अधिक व्यक्ति को अपनी रक्षा करनी चाहिए अर्थात व्यक्ति का महत्व इन दोनों से अधिक है। यदि व्यक्ति का अपना ही नाश हो गया तो धन और स्त्री का प्रयोजन ही क्या रह जाएगा, इसलिए व्यक्ति के लिए धन-संग्रह और स्त्री रक्षा की अपेक्षा समय आने पर अपनी रक्षा करना अधिक महत्वपूर्ण है।
देखने में आया है और उपनिषद् के ऋषि भी कहते हैं कि कोई किसी से प्रेम नहीं करता, सब स्वयं से ही प्रेम करते हैं—आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।
आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतां कुत आपदः।
कदाचिच्चलिता लक्ष्मीः सञ्चितोऽपि विनश्यति।।
आपत्तिकाल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन सज्जन पुरुषों के पास विपत्ति का क्या काम। और फिर लक्ष्मी तो चंचला है, वह संचित करने पर भी नष्ट हो जाती है। ।।7।।
चाणक्य का कहना है, मनुष्य को चाहिए कि वह आपत्तिकाल के लिए धन का संग्रह करे। लेकिन धनी व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि उनके लिए आपत्तियों का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि वे अपने धन से सभी आपत्तियों से बच सकते हैं, परन्तु वे यह नहीं जानते कि लक्ष्मी भी चंचल है। किसी भी समय वह मनुष्य को छोड़कर जा सकती है, ऐसी स्थिति में यह इकट्ठा किया हुआ धन भी किसी समय नष्ट हो सकता है।
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
न च विद्याऽऽगमः कश्चित् तं देशं परिवर्जयेत्।।[adinserter block="1"]
जिस देश में आदर-सम्मान नहीं और न ही आजीविका का कोई साधन है, जहां कोई बन्धु-बांधव, रिश्तेदार भी नहीं तथा किसी प्रकार की विद्या और गुणों की प्राप्ति की संभावना भी नहीं, ऐसे देश को छोड़ ही देना चाहिए। ऐसे स्थान पर रहना उचित नहीं। ।।8।।
किसी अन्य देश अथवा किसी अन्य स्थान पर जाने का एक प्रयोजन यह होता है कि वहां जाकर कोई नयी बात, नयी विद्या, रोजगार और नया गुण सीख सकेंगे, परन्तु जहां इनमें से किसी भी बात की संभावना न हो, ऐसे देश या स्थान को तुरन्त छोड़ देना चाहिए।
श्रोत्रियो धनिकः राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत्।।
जहां श्रोत्रिय अर्थात वेद को जानने वाला ब्राह्मण, धनिक, राजा, नदी और वैद्य ये पांच चीजें न हों, उस स्थान पर मनुष्य को एक दिन भी नहीं रहना चाहिए। ।।9।।
धनवान लोगों से व्यापार की वृद्धि होती है। वेद को जानने वाले ब्राह्मण धर्म की रक्षा करते हैं। राजा न्याय और शासन-व्यवस्था को स्थिर रखता है। जल तथा सिंचाई के लिए नदी आवश्यक है जबकि रोगों से छुटकारा पाने के लिए वैद्य की आवश्यकता होती है। चाणक्य कहते हैं कि जहां पर ये पांचों चीजें न हों, उस स्थान को त्याग देना ही श्रेयस्कर है।
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात् तत्र संस्थितिम्।।
जहां लोकयात्रा अर्थात जीवन को चलाने के लिए आजीविका का कोई साधन न हो, व्यापार आदि विकसित न हो, किसी प्रकार के दंड के मिलने का भय न हो, लोकलाज न हो, व्यक्तियों में शिष्टता, उदारता न हो अर्थात उनमें दान देने की प्रवृत्ति न हो, जहां ये पांच चीजें विद्यमान न हों, वहां व्यक्ति को निवास नहीं करना चाहिए। ।।10।।
जानीयात् प्रेषणे भृत्यान् बान्धवान् व्यसनाऽऽगमे।
मित्रं चापत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये।।
काम लेने पर नौकर-चाकरों की, दुख आने पर बन्धु-बान्धवों की, कष्ट आने पर मित्र की तथा धन नाश होने पर अपनी पत्नी की वास्तविकता का ज्ञान होता है। ।।11।।
चाणक्य कहते हैं कि जब सेवक (नौकर) को किसी कार्य पर नियुक्त किया जाएगा तभी पता चलेगा कि वह कितना योग्य है। इसी प्रकार जब व्यक्ति किसी मुसीबत में फंस जाता है तो उस समय भाई-बन्धु और रिश्तेदारों की परीक्षा होती है। मित्र की पहचान भी विपत्ति के समय ही होती है। इसी प्रकार धनहीन होने पर पत्नी की वास्तविकता का पता चलता है कि उसका प्रेम धन के कारण था या वास्तविक।
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रु-संकटे।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः।।[adinserter block="1"]
किसी रोग से पीड़ित होने पर, दुख आने पर, अकाल पड़ने पर, शत्रु की ओर से संकट आने पर, राज सभा में, श्मशान अथवा किसी की मृत्यु के समय जो व्यक्ति साथ नहीं छोड़ता, वास्तव में वही सच्चा बन्धु माना जाता है। ।।12।।
व्यक्ति के रोग शय्या पर पड़े होने अथवा दुखी होने, अकाल पड़ने और शत्रु द्वारा किसी भी प्रकार का संकट पैदा होने, किसी मुकदमे आदि में फंस जाने और मरने पर जो व्यक्ति श्मशान घाट तक साथ देता है, वही सच्चा बन्धु (अपना) होता है अर्थात ये अवसर ऐसे होते हैं जब सहायकों की आवश्यकता होती है। प्रायः यह देखा जाता है कि जो किसी की सहायता करता है, उसको ही सहायता मिलती है। जो समय पर किसी के काम नहीं आता, उसका साथ कौन देगा?
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिसेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि।।
जो मनुष्य निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के पीछे भागता है, उसका कार्य या पदार्थ नष्ट हो जाता है। ।।13।।
चाणक्य कहते हैं कि लोभ से ग्रस्त होकर व्यक्ति को हाथ-पांव नहीं मारने चाहिए बल्कि जो भी उपलब्ध हो गया है, उसी में सन्तोष करना चाहिए। जो व्यक्ति आधी छोड़कर पूरी के पीछे भागते हैं, उनके हाथ से आधी भी निकल जाती है।
वरयेत् कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम्।
रूपवतीं न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले।।
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुई कुरूप अर्थात् सौन्दर्यहीन कन्या से भी विवाह कर ले, परन्तु नीच कुल में उत्पन्न हुई सुन्दर कन्या से विवाह न करे। वैसे विवाह अपने समान कुल में ही करना चाहिए। ।।14।।
आचार्य चाणक्य ने यह बहुत सुन्दर बात कही है। शादी-विवाह के लिए सुन्दर कन्या देखी जाती है। सुन्दरता के कारण लोग न कन्या के गुणों को देखते हैं, न उसके कुल को। ऐसी कन्या से विवाह करना सदा ही दुखदायी होता है, क्योंकि नीच कुल की कन्या के संस्कार भी नीच ही होंगे। उसके सोचने, बातचीत करने या उठने-बैठने का स्तर भी निम्न होगा, जबकि उच्च और श्रेष्ठ कुल की कन्या का आचरण अपने कुल के अनुसार होगा, भले ही वह कन्या कुरूप व सौन्दर्यहीन हो। वह जो भी कार्य करेगी, उससे अपने कुल का मान ही बढ़ेगा और नीच कुल की कन्या तो अपने व्यवहार से परिवार की प्रतिष्ठा ही बिगाड़ेगी। वैसे भी विवाह सदा अपने समान कुल में ही करना उचित होता है, अपने से नीच कुल में नहीं। यहां ‘कुल’ से तात्पर्य धन-संपदा से नहीं, परिवार के चरित्र से है।
नखीनां च नदीनां च शृंगीणां शस्त्रपाणिनाम्।
विश्वासो नैव कर्तव्यो स्त्रीषु राजकुलेषु च।।[adinserter block="1"]
‘नखीनाम्’ अर्थात बड़े-बड़े नाखूनों वाले शेर और चीते आदि प्राणियों, विशाल नदियों, ‘शृंगीणाम्’ अर्थात बड़े-बड़े सींग वाले सांड़ आदि पशुओं, शस्त्र धारण करने वालों, स्त्रियों तथा राजा से संबंधित कुल वाले व्यक्तियों का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। ।।15।।
बड़े-बड़े नाखूनों वाले हिंसक प्राणी से बचकर रहना चाहिए, न जाने वे कब आपके ऊपर हमला कर दें। जिन नदियों के पुश्ते अथवा तट पक्के नहीं, उन पर इसलिए विश्वास नहीं किया जा सकता कि न जाने उनका वेग कब प्रचण्ड रूप धारण कर ले और कब उनकी दिशा बदल जाए, न जाने वे और किधर को बहना प्रारंभ कर दें। इसलिए प्रायः नदियों के किनारे रहने वाले लोग सदैव उजड़ते रहते हैं।
बड़े-बड़े सींग वाले सांड़ आदि पशुओं का भी भरोसा नहीं है, कौन जाने उनका मिजाज कब बिगड़ जाए। जिसके पास तलवार आदि कोई हथियार है, उसका भी भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि वह छोटी-सी बात पर क्रोध में आकर कभी भी आक्रामक हो सकता है। चंचल स्वभाव वाली स्त्रियों पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। वह अपनी चतुरता से कभी भी आपके लिए प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा कर सकती हैं। इस तरह के कई उदाहरण प्राचीन ग्रंथों में मिल जाएंगे। राजा से संबंधित राजसेवकों और राजकुल के व्यक्तियों पर भी विश्वास करना उचित नहीं। वे कभी भी राजा के कान भरकर अहित करवा सकते हैं। इसी के साथ वे राज नियमों के प्रति समर्पित और निष्ठावान् होते हैं। राजहित उनके लिए प्रमुख होता है—संबंध नहीं।
विषादप्यमृतं ग्राह्यममेधयादपि काञ्चनम्।
नीचादप्युत्तमा विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि।।
विष में भी यदि अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। अपवित्र और अशुद्ध वस्तुओं में भी यदि सोना अथवा मूल्यवान वस्तु पड़ी हो तो वह भी उठा लेने के योग्य होती है। यदि नीच मनुष्य के पास कोई अच्छी विद्या, कला अथवा गुण है तो उसे सीखने में कोई हानि नहीं। इसी प्रकार दुष्ट कुल में उत्पन्न अच्छे गुणों से युक्त स्त्री रूपी रत्न को ग्रहण कर लेना चाहिए। ।।16।।
इस श्लोक में आचार्य गुण ग्रहण करने की बात कर रहे हैं। यदि किसी नीच व्यक्ति के पास कोई उत्तम गुण अथवा विद्या है तो वह विद्या उससे सीख लेनी चाहिए अर्थात व्यक्ति को सदैव इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि जहां से उसे किसी अच्छी वस्तु की प्राप्ति हो, अच्छे गुणों और कला को सीखने का अवसर प्राप्त हो तो उसे हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।
विष में अमृत और गंदगी में सोने से तात्पर्य नीच के पास गुण से है।
स्त्रीणां द्विगुण आहारो बुद्धिस्तासां चतुर्गुणा।
साहसं षड्गुणं चैव कामोऽष्टगुण उच्यते।।[adinserter block="1"]
पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का आहार अर्थात भोजन दोगुना होता है, बुद्धि चौगुनी, साहस छः गुना और कामवासना आठ गुना होती है। ।।17।।
आचार्य ने इस श्लोक द्वारा स्त्री की कई विशेषताओं को उजागर किया है। स्त्री के ये ऐसे पक्ष हैं, जिन पर सामान्य रूप से लोगों की दृष्टि नहीं जाती।
भोजन की आवश्यकता स्त्री को पुरुष की अपेक्षा इसलिए ज्यादा है, क्योंकि उसे पुरुष की तुलना में शारीरिक कार्य ज्यादा करना पड़ता है। यदि इसे प्राचीन संदर्भ में भी देखा जाए, तो उस समय स्त्रियों को घर में कई ऐसे छोटे-मोटे काम करने होते थे, जिनमें ऊर्जा का व्यय होता था। आज के परिवेश में भी स्थिति लगभग वही है। शारीरिक बनावट, उसमें होने वाले परिवर्तन और प्रजनन आदि ऐसे कार्य हैं, जिसमें क्षय हुई ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए स्त्री को अतिरिक्त पौष्टिकता की आवश्यकता होती है। इस सत्य की जानकारी न होने के कारण, बल्कि व्यवहार में इसके विपरीत आचरण होने के कारण, बालिकाओं और स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा कुपोषण का शिकार होना पड़ता है।
बुद्धि का विकास समस्याओं को सुलझाने से होता है। इस दृष्टि से भी स्त्रियों को परिवार के सदस्यों और उसके अलावा भी कई लोगों से व्यवहार करना पड़ता है। इससे उनकी बुद्धि अधिक पैनी होती है, छोटी-छोटी बातों को समझने की दृष्टि का विकास होता तथा विविधता का विकास होता है। आज के संदर्भ में इस क्षमता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
भावना प्रधान होने के कारण स्त्री में साहस की उच्च मात्रा का होना स्वाभाविक है। पशु-पक्षियों की मादाओं में भी देखा गया है कि अपनी संतान की रक्षा के लिए वे अपने से कई गुना बलशाली के सामने लड़-मरने के लिए डट जाती हैं।
काम का आठ गुना होना, पढ़ने-सुनने में अटपटा लगता है लेकिन यह संकेत करता है कि हमने काम के रूप-स्वरूप को सही प्रकार से नहीं समझा है। काम पाप नहीं है। सामाजिक कानून के विरुद्ध भी नहीं है। इसका होना अनैतिक या चरित्रहीन होने की पुष्टि भी नहीं करता है। श्रीकृष्ण ने स्वयं को ‘धर्मानुकूल काम’ कहा है। काम पितृऋण से मुक्त होने का सहज मार्ग है। संतान उत्पन्न करके ही कोई इस ऋण से मुक्त हो सकता है।
स्त्री की कामेच्छा पुरुष से भिन्न होती है। वहां शरीर नहीं भावदशा महत्वपूर्ण है। स्त्री में होने वाले परिवर्तन भी इस मांग को समक्ष लाते हैं—स्वाभाविक रूप में। लेकिन स्त्री उसका परिष्कार कर देती है जैसे पृथ्वी मैले को खाद बनाकर जीवन देती है। इसे पूरी तरह से समझने के लिए आवश्यक है कामशास्त्र का अध्ययन किया जाए।
कुल मिलाकर इस श्लोक द्वारा चाणक्य ने स्त्री के स्वभाव का विश्लेषण किया है।[adinserter block="1"]
यह भारतीय परंपरा रही है कि किसी भी शुभ कार्य को प्रारंभ करने से पहले देवी-देवताओं अथवा प्रभु का स्मरण किया जाए ताकि वह कार्य बिना किसी व्यवधान के सरलतापूर्वक सम्पन्न हो।
‘चाणक्य नीति’ का प्रमुख उद्देश्य यह जानना है कि कौन-सा काम उचित है और कौन-सा अनुचित। आचार्य चाणक्य ने प्राचीन भारतीय नीतिशास्त्र में बताए गए नियमों के अनुसार ही इसे लिखा है। यह पूर्व अनुभवों का सार है। उनका कहना है कि लोग इसे पढ़कर अपने कर्तव्यों और अकर्तव्यों का भली प्रकार ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। सम-सामयिक राजनीति के ज्ञान में मनुष्य अपनी बुद्धि का पुट देकर समय के अनुसार अच्छाई और बुराई में भेद कर सकता है।
सबसे पहले आचार्य चाणक्य ने संग के महत्व पर प्रकाश डालते हुए यह बताया है कि दुष्ट लोगों के संसर्ग से बुद्धिमान मनुष्य को दुख उठाना पड़ता है। चाणक्य ने मनुष्य के जीवन में धन के महत्व को बताया है। उनका कहना है कि व्यक्ति को संकट के समय के लिए धन का संचय करना चाहिए। उस धन से अपने बाल-बच्चों तथा स्त्रियों की रक्षा भी करनी चाहिए। इसके साथ उनका यह भी कहना है कि व्यक्ति को अपनी रक्षा सर्वोपरि करनी चाहिए। जिन लोगों के पास धन है, वे किसी भी आपत्ति का सामना धन के द्वारा कर सकते हैं, परन्तु उन्हें यह बात भी भली प्रकार समझ लेनी चाहिए कि लक्ष्मी चंचल है। वह तभी तक टिक कर रहती है, जब तक उसका सदुपयोग किया जाता है। दुरुपयोग आरंभ करते ही लक्ष्मी चलती बनती है।
चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति को उसी स्थान पर रहना चाहिए जहां उसका सम्मान हो, जहां पर उसके भाई-बन्धु हों, आजीविका के साधन हों। इसी संबंध में वह आगे कहते हैं कि जहां धनवान, वेद-शास्त्रों को जानने वाले विद्वान ब्राह्मण, राजा अथवा शासन-व्यवस्था, नदी और वैद्य आदि न हों, वहां भी नहीं रहना चाहिए। नौकरों की कार्यकुशलता का पता तभी चलता है, जब उन्हें कोई कार्य करने के लिए दिया जाता है। अपने सम्बंधियों और मित्रों की परीक्षा उस समय होती है, जब स्वयं पर कोई आपत्ति आती है। गृहस्थ का सबसे बड़ा सहारा उसकी स्त्री होती है, परन्तु स्त्री की वास्तविकता भी उसी समय समझ में आती है, जब व्यक्ति पूरी तरह धनहीन हो जाता है।[adinserter block="1"]
मनुष्य को चाहिए कि वह अधिक लालच में न पड़े। उसे वही कार्य करना चाहिए जिसके संबंध में उसे पूरा ज्ञान हो। जिस कार्य के संबंध में उसे ज्ञान न हो, उसे करने से हानि हो सकती है। जिस कार्य का अनुभव न हो, उससे संबंधित निर्णय लेना कठिन होता है। निर्णय यदि ले लिया जाए, तो संशय की स्थिति मन को डगमगाती रहती है। ऐसा निर्णय कभी भी सही नहीं होता—‘संशयात्मा विनश्यति।’ मन यदि संशय में हो तो वह रास्ते से भटकाता ही नहीं, गहरे और अंधेरे गड्ढे में फेंकता है।
यदि आप ऐसे व्यवसायियों का जीवन देखें, जिन्होंने अपने क्षेत्र में ऊंचाइयों को छूआ है, तो आप पाएंगे कि उन्होंने अपने काम को समझने के लिए किसी दूसरे अनुभवी व्यक्ति के नीचे काम किया है। किताबी और व्यावहारिक जानकारी में जमीन-आसमान का अंतर होता है।
विवाह के संदर्भ में, चाणक्य ने कुल के भेदभाव की बात नहीं मानी है। उनका कहना है कि नीच कुल में उत्पन्न कन्या भी यदि अच्छे गुणों से युक्त है तो उससे विवाह करने में कोई हानि नहीं। जिन पर विश्वास नहीं करना चाहिए उनके बारे में आचार्य का कथन है कि सिंह और बाघ आदि तेज पंजों वाले जानवरों से दूर रहना चाहिए, ऐसी नदियों के आसपास भी नहीं रहना चाहिए, जिनके किनारे कच्चे हों और जो बरसात आदि के दिनों में लम्बे-चौड़े मैदान में फैल जाती हों। इसी प्रकार लंबे सीगों वाले सांड़ आदि पशुओं से अपना बचाव रखना चाहिए। जिसके पास कोई हथियार है, उसका भी कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।
।। अथ द्वितीयोऽध्यायः।।
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दूसरा अध्याय
‘मनसा चिन्तितं कार्यं’ अर्थात मन से सोचे हुए कार्य को वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए, परंतु मननपूर्वक भली प्रकार सोचते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिए और स्वयं चुप रहते हुए उस सोची हुई बात को कार्यरूप में बदलना चाहिए।
अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलुब्धता।
अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः।।
झूठ बोलना, बिना सोचे-समझे किसी कार्य को प्रारम्भ कर देना, दुस्साहस करना, छलकपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्र रहना और निर्दयता
स्त्रियों में प्रायः ये दोष पाए जाते हैं—वे सामान्य बात पर भी झूठ बोल सकती हैं, अपनी शक्ति का विचार न करके अधिक साहस दिखाती हैं, छल-कपट पूर्ण कार्य करती हैं, मूर्खता, अधिक लोभ, अपवित्रता तथा निर्दयी होना, ये ऐसी बातें हैं जो प्रायः स्त्रियों के स्वभाव में होती हैं। ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं अर्थात अधिकांश स्त्रियों में ये होते हैं। अब तो स्त्रियां शिक्षित होती जा रही हैं। समय बदल रहा है। लेकिन आज भी अधिकांश अशिक्षित स्त्रियां इन दोषों से युक्त हो सकती हैं। इन दोषों को स्त्री की समाज में स्थिति और उसके परिणामस्वरूप बने उनके मनोविज्ञान के संदर्भ में देखना चाहिए।[adinserter block="1"]
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वरांगना।
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम्।।
भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का प्राप्त होना, उन्हें खाकर पचाने की शक्ति होना, सुन्दर स्त्री का मिलना, उसके उपभोग के लिए कामशक्ति होना, धन के साथ-साथ दान देने की इच्छा होना—ये बातें मनुष्य को किसी महान तप के कारण प्राप्त होती हैं। ।।2।।
भोजन में अच्छी वस्तुओं की कामना सभी करते हैं, परन्तु उनका प्राप्त होना और उन्हें पचाने की शक्ति होना भी आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसकी पत्नी सुन्दर हो, परन्तु उसके उपभोग के लिए व्यक्ति में कामशक्ति भी होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसके पास धन हो, परन्तु धन प्राप्ति के बाद कितने ऐसे लोग हैं, जो उसका सदुपयोग कर पाते हैं। धन का सदुपयोग दान में ही है। अच्छी जीवन संगिनी, शारीरिक शक्ति, पौरुष एवं निरोगता, धन तथा वक्त— जरूरत पर किसी के काम आने की प्रवृत्ति आदि पूर्वजन्मों में किन्ही शुभ कर्मों द्वारा ही प्राप्त होते हैं। ‘तपसः फलम्’ का अर्थ है कठोर श्रम और आत्मसंयम।
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