पुस्तक का विवरण (Description of Book of राजयोग PDF | Rajyoga PDF Download) :-
नाम 📖 | राजयोग PDF | Rajyoga PDF Download |
लेखक 🖊️ | स्वामी विवेकानंद / Swami Vivekanand |
आकार | 6 MB |
कुल पृष्ठ | 132 |
भाषा | Hindi |
श्रेणी | दार्शनिक, व्यक्तित्व विकास /Personality Developement |
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पुस्तक का कुछ अंश
भूमिका
ऐतिहासिक जगत् के प्रारंभ से लेकर वर्तमान काल तक मानव-समाज में अनेक अलौकिक घटनाओं के वर्णन देखने को मिलते हैं। आज भी, जो समाज आधुनिक विज्ञान के भरपूर आलोक में रह रहे हैं, उनमें भी ऐसी घटनाओं की गवाही देनेवाले लोगों की कमी नहीं है। पर हाँ, ऐसे प्रमाणों में अधिकांश विश्वास योग्य नहीं; क्योंकि जिन व्यक्तियों से ऐसे प्रमाण मिलते हैं, उनमें से बहुतेरे अज्ञ हैं, अंधविश्वासी हैं अथवा धूर्त हैं। बहुधा यह भी देखा जाता है कि लोग जिन घटनाओं को अलौकिक कहते हैं, वे वास्तव में नकल हैं। पर प्रश्न उठता है, किसकी नकल? यथार्थ अनुसंधान किए बिना कोई बात बिलकुल उड़ा देना सत्यप्रिय वैज्ञानिक-मन का परिचय नहीं देता। जो वैज्ञानिक सूक्ष्मदर्शी नहीं, वे मनोराज्य की नाना प्रकार की अलौकिक घटनाओं की व्याख्या करने में असमर्थ हो, उन सबका अस्तित्व ही उड़ा देने का प्रयत्न करते हैं। अतएव वे तो उन व्यक्तियों से अधिक दोषी हैं, जो सोचते हैं कि बादलों के ऊपर अवस्थित कोई पुरुषविशेष या बहुत से पुरुषगण उनकी प्रार्थनाओं को सुनते हैं और उनके उत्तर देते हैं—अथवा उन लोगों से, जिनका विश्वास है कि ये पुरुष उनकी प्रार्थनाओं के कारण संसार का नियम ही बदल देंगे। क्योंकि इन बाद के व्यक्तियों के संबंध में यह दुहाई दी जा सकती है कि वे अज्ञानी हैं, अथवा कम-से-कम यह कि उनकी शिक्षा-प्रणाली दूषित रही है, जिसने उन्हें ऐसे अप्राकृतिक पुरुषों का सहारा लेने की सीख दी और जो निर्भरता अब उनके अवनत स्वभाव का एक अंग ही बन गई है। पर पूर्वोक्त शिक्षित व्यक्तियों के लिए तो ऐसी किसी दुहाई की गुंजाइश नहीं।
हजारों वर्षों से लोगों ने ऐसी अलौकिक घटनाओं का पर्यवेक्षण किया है, उनके संबंध में विशेष रूप से चिंतन किया है और फिर उनमें से कुछ साधारण तत्त्व निकाले हैं; यहाँ तक कि मनुष्य की धर्मप्रवृत्ति की आधारभूमि पर भी विशेष रूप से, अत्यंत सूक्ष्मता के साथ विचार किया है। इन समस्त चिंतन और विचारों का फल यह राजयोग-विद्या है। यह राजयोग आजकल के अधिकांश वैज्ञानिकों की अक्षम्य धारा का अवलंबन नहीं करता—वह उनकी भाँति उन घटनाओं के अस्तित्व को एकदम उड़ा नहीं देता, जिनकी व्याख्या दुरूह हो; प्रत्युत वह तो धीर भाव से, पर स्पष्ट शब्दों में, अंधविश्वास से भरे व्यक्ति को बता देता है कि यद्यपि अलौकिक घटनाएँ, प्रार्थनाओं की पूर्ति और विश्वास की शक्ति, ये सब सत्य हैं, तथापि इनका स्पष्टीकरण ऐसी अंधविश्वासपूर्ण व्याख्या द्वारा नहीं हो सकता कि ये सब व्यापार बादलों के ऊपर अवस्थित किसी व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों द्व्रारा संपन्न होते हैं। वह घोषणा करता है कि प्रत्येक मनुष्य सारी मानवजाति के पीछे वर्तमान ज्ञान और शक्ति के अनंत सागर की एक क्षुद्र प्रणाली मात्र है। वह शिक्षा देता है कि जिस प्रकार वासनाएँ और अभाव मानव के अंतर में हैं, उसी प्रकार उसके भीतर ही मन के अभावों के मोचन की शक्ति भी है; जहाँ कहीं और जब कभी किसी वासना, अभाव या प्रार्थना की पूर्ति होती है, तो समझना होगा कि वह इस अनंत भंडार से ही पूर्ण होती है, किसी अप्राकृतिक पुरुष से नहीं। अप्राकृतिक पुरुषों की भावना मानव में कार्य की शक्ति को भले ही कुछ परिणाम में उद्दीप्त कर देती हो, पर उससे आध्यात्मिक अवनति भी आती है। उससे स्वाधीनता चली जाती है, भय और अंधविश्वास हृदय पर अधिकार जमा लेते हैं तथा ‘मनुष्य स्वभाव से ही दुर्बल प्रकृति है’ ऐसा भयंकर विश्वास हममें घर कर लेता है। योगी कहते हैं कि अप्राकृतिक नाम की कोई चीज नहीं है, पर हाँ, प्रकृति में दो प्रकार की अभिव्यक्तियाँ हैं—एक है स्थूल और दूसरी सूक्ष्म। सूक्ष्म कारण है और स्थूल कार्य है। स्थूल सहज ही इंद्रियों द्वारा उपलब्ध किया जा सकता है, पर सूक्ष्म नहीं। राजयोग के अभ्यास से सूक्ष्मतर अनुभूति अर्जित होती रहती है।[adinserter block="1"]
भारतवर्ष में जितने वेदमतानुयायी दर्शनशास्त्र हैं, उन सबका एक ही लक्ष्य है, और वह है—पूर्णता प्राप्त करके आत्मा को मुक्त कर लेना। इसका उपाय है योग। ‘योग’ शब्द बहुभावव्यापी है। सांख्य और वेदांत उभय मत किसी-न-किसी प्रकार से योग का समर्थन करते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक का विषय है—‘राजयोग’। पातंजलसूत्र राजयोग का शास्त्र है और राजयोग पर सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रंथ है। अन्यान्य दार्शनिकों का किसी-किसी दार्शनिक विषय में पतंजलि से मतभेद होने पर भी वे सभी, निश्चित रूप से, उनकी साधना-प्रणाली का अनुमोदन करते हैं। लेखक ने न्यूयॉर्क में कुछ छात्रों को इस योग की शिक्षा देने के लिए जो व्याख्यान दिए थे, वे ही इस पुस्तक के प्रथम अंश में निबद्ध हैं। और इसके दूसरे अंश में पतंजलि के सूत्र, उन सूत्रों के अर्थ और उन पर संक्षिप्त टीका भी सन्निविष्ट कर दी गई है। जहाँ तक संभव हो सका, पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग न करने और वार्त्तालाप को सहज और सरल भाषा में लिखने का यत्न किया गया है। इसके प्रथमांश में साधनार्थियों के लिए कुछ सरल और विशेष उपदेश दिए गए हैं, ‘पर उन सभी को यहाँ विशेष रूप से सावधान कर दिया जाता है कि योग के कुछ साधारण अंगों को छोड़कर, निरापद योगशिक्षा के लिए गुरु का सदा सान्निध्य रहना आवश्यक है।’ वार्त्तालाप के रूप में प्रदत्त ये सब उपदेश यदि लोगों के हृदय में इस विषय पर और भी अधिक जानने की पिपासा जगा दे, तो फिर गुरु का अभाव न रहेगा।
पातंजल दर्शन सांख्य मत पर स्थापित है। इन दोनों मतों में अंतर बहुत ही थोड़ा है। इनके दो प्रधान भेद ये हैं—पहला तो पतंजलि आदिगुरु के रूप में एक सगुण ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, जब कि सांख्य का ईश्वर लगभग पूर्णता प्राप्त एक व्यक्ति मात्र है, जो कुछ समय तक एक सृष्टिकल्प का शासन करता है। और दूसरा, योगीगण आत्मा या पुरुष के समान मन को भी सर्वव्यापी मानते हैं, पर साख्यमत वाले नहीं।
—स्वामी विवेकानंद
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प्रथम अध्याय
अवतरणिका
हमारा समस्त ज्ञान स्वानुभूति पर आधारित है, जिसे हम आनुमानिक ज्ञान कहते हैं, और जिसमें हम सामान्य से सामान्यतर या सामान्य से विशेष तक पहुँचते हैं, उसकी बुनियाद स्वानुभूति है। जिनको निश्चित विज्ञाने कहते हैं, उनकी सत्यता सहज ही लोगों की समझ में आ जाती है, क्योंकि वे प्रत्येक व्यक्ति से कहते हैं—‘‘तुम स्वयं यह देख लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं, और तब उस पर विश्वास करो।’’ वैज्ञानिक तुमको किसी भी विषय पर विश्वास कर बैठने को न कहेंगे। उन्होंने स्वयं कुछ विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव किया है और उन पर विचार करके कुछ सिद्धांतों पर पहुँचे हैं। जब वे अपने उन सिद्धांतों पर हमसे विश्वास करने के लिए कहते हैं, तब जनसाधारण की अनुभूति पर उनके सत्यासत्य के निर्णय का भार छोड़ देते हैं। प्रत्येक निश्चित विज्ञान की एक सामान्य आधारभूमि है और उससे जो सिद्धांत उपलब्ध होते हैं, इच्छा करने पर कोई भी उनका सत्यासत्य तत्काल समझ ले सकता है। अब प्रश्न यह है, धर्म की ऐसी सामान्य आधारभूमि कोई है भी या नहीं? हमें इसका उत्तर देने के लिए ‘हाँ’ और ‘नहीं’, दोनों कहने होंगे।
संसार में धर्म के संबंध में सर्वत्र सामान्यतः ऐसी शिक्षा मिलती है कि धर्म केवल श्रद्धा और विश्वास पर स्थापित है, और अधिकांश स्थलों में तो वह भिन्न-भिन्न मतों की समष्टि मात्र है। यही कारण है कि धर्मों के बीच केवल लड़ाई-झगड़ा दिखाई देता है। ये मत फिर विश्वास पर स्थापित हैं। कोई-कोई कहते हैं कि बादलों के ऊपर एक महान् पुरुष है, वही सारे संसार का शासन करता है; और वक्ता महोदय केवल अपनी बात के बल पर ही मुझसे इसमें विश्वास करने को कहते हैं। मेरे भी ऐसे अनेक भाव हो सकते हैं, जिन पर विश्वास करने के लिए मैं दूसरों से कहता हूँ और यदि वे कोई युक्ति चाहें, इस विश्वास का कारण पूछें, तो मैं उन्हें युक्ति-तर्क देने में असमर्थ हो जाता हूँ। इसीलिए आजकल धर्म और दर्शन-शास्त्रों की इतनी निंदा सुनने में आती है। प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का मानो यही मनोभाव है—‘अहो, ये धर्म कुछ मतों के गट्ठे भर हैं! उनके सत्यासत्य-विचार का कोई एक मापदंड नहीं; जिसके जी में जो आया, बस, वही बक गया!’ किंतु ये लोग चाहे जो सोचें, वास्तव में धर्मविश्वास की एक सार्वभौमिक भित्ति है—वही विभिन्न देशों के विभिन्न संप्रदायों के भिन्न-भिन्न मतवादों और सब प्रकार कई विभिन्न धारणाओं को नियमित करती है। उन सबके मूल में जाने पर हम देखते हैं कि वे सभी सार्वजनिक अनुभूति पर प्रतिष्ठित हैं।
पहली बात तो यह कि यदि तुम पृथ्वी के भिन्न-भिन्न धर्मों का जरा विश्लेषण करो, तो तुमको ज्ञात हो जाएगा कि वे दो श्रेणियों में विभक्त हैं। कुछ की शास्त्रभित्ति है, और कुछ की शास्त्रभित्ति नहीं। जो शास्त्रभित्ति पर स्थापित हैं, वे सुदृढ़ हैं, उन धर्मों के माननेवालों की संख्या भी अधिक है। जिनकी शास्त्रभित्ति नहीं है, वे धर्म प्रायः लुप्त हो गए हैं। कुछ नए उठे अवश्य हैं, पर उनके अनुयायी बहुत थोड़े हैं। फिर भी उक्त सभी संप्रदायों में यह मतैक्य दीख पड़ता है कि उनकी शिक्षा विशिष्ट व्यक्तियों के प्रत्यक्ष अनुभव मात्र हैं। ईसाई तुमसे अपने धर्म पर, ईसा पर, ईसा के अवतारत्व पर, ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व पर और उस आत्मा की भविष्य उन्नति की संभवनीयता पर विश्वास करने को कहता है। यदि मैं उससे इस विश्वास का कारण पूछूँ तो वह कहता है, ‘‘यह मेरा विश्वास है।’’ किंतु यदि तुम ईसाई धर्म के मूल में जाओ, तो देखोगे कि वह भी प्रत्यक्ष अनुभूति पर स्थापित है। ईसा ने कहा है, ‘‘मैंने ईश्वर के दर्शन किए हैं।’’ उनके शिष्यों ने भी कहा है, ‘‘हमने ईश्वर का अनुभव किया है।’’ आदि-आदि।[adinserter block="1"]
बौद्ध धर्म के संबंध में भी ऐसा ही है। बुद्धदेव की प्रत्यक्ष अनुभूति पर यह धर्म स्थापित है। उन्होंने कुछ सत्यों का अनुभव किया था। उन्होंने उन सब को देखा था, वे उन सत्यों के संस्पर्श में आए थे, और उन्हीं का उन्होंने संसार में प्रचार किया। हिंदुओं के संबंध में भी ठीक यही बात है; उनके शास्त्रों में ‘ऋषि’ नाम से संबोधित किए जानेवाले ग्रंथकर्ता कह गए हैं, ‘‘हमने कुछ सत्यों के अनुभव किए हैं।’’ और उन्हीं का वे संसार में प्रचार कर गए हैं। अतः यह स्पष्ट है कि संसार के समस्त धर्म उस प्रत्यक्ष अनुभव पर स्थापित हैं, जो ज्ञान की सार्वभौमिक और सुदृढ़ भित्ति है। सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था। उन सभी ने आत्मदर्शन किया था; अपने अनंत स्वरूप का ज्ञान सभी को हुआ था, सब ने अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गए। भेद इतना ही है कि इनमें से अधिकांश धर्मों में, विशेषतः आजकल, एक अद्भुत दावा हमारे सामने उपस्थित होता है, और वह यह कि ‘इस समय ये अनुभूतियाँ असंभव हैं। जो धर्म के प्रथम संस्थापक थे, बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ, ऐसे केवल थोड़े व्यक्तियों के लिए ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव संभव हुआ था। अब ऐसे अनुभव के लिए कोई रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्म पर विश्वास भर कर लेना होगा।’
इस बात को मैं पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ। यदि संसार में किसी प्रकार के विज्ञान के किसी विषय की किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की है, तो इससे इस सार्वभौमिक सिद्धांत पर पहुँचा जा सकता है कि पहले भी कोटि-कोटि बार उसकी उपलब्धि की संभावना थी और भविष्य में भी अनंत काल तक उसकी उपलब्धि की संभावना बनी रहेगी। एकरूपता ही प्रकृति का एक बड़ा नियम है। एक बार जो घटित हुआ है, वह पुनः घटित हो सकता है। इसीलिए योगविद्या के आचार्यगण कहते हैं कि धर्म पूर्वकालीन अनुभवों पर केवल स्थापित ही नहीं, वरन् इन अनुभवों से स्वयं संपन्न हुए बिना कोई भी धार्मिक नहीं हो सकता। जिस विद्या के द्वारा ये अनुभव प्राप्त होते हैं, उसका नाम है योग। धर्म के सत्यों का जब तक कोई अनुभव नहीं कर लेता, तब तक धर्म की बात करना ही वृथा है। भगवान् के नाम पर इतनी लड़ाई, विरोध और झगड़ा क्यों? भगवान् के नाम पर जितना खून बहा है, उतना और किसी कारण से नहीं। ऐसा क्यों? इसीलिए कि कोई भी व्यक्ति मूल तक नहीं पहुँच पाया। सब लोग पूर्वजों के कुछ आचारों का अनुमोदन करके ही संतुष्ट थे। वे चाहते थे कि दूसरे भी वैसा ही करें। जिन्हें आत्मा की अनुभूति या ईश्वर-साक्षात्कार न हुआ हो, उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि आत्मा या ईश्वर है? यदि ईश्वर हो, तो उसका साक्षात्कार करना होगा; यदि आत्मा नामक कोई चीज हो, तो उसकी उपलब्धि करनी होगी। अन्यथा विश्वास न करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है।[adinserter block="1"]
एक ओर, आजकल के विद्वान् कहलानेवाले मनुष्यों के मन का भाव यह है कि धर्म, दर्शन और एक परम पुरुष का अनुसंधान यह सब निष्फल है; और दूसरी ओर, जो अर्धशिक्षित हैं, उनका मनोभाव ऐसा जान पड़ता है कि धर्म, दर्शन आदि की वास्तव में कोई बुनियाद नहीं; उनकी इतनी ही उपयोगिता है कि वे संसार के मंगलसाधन की बलशाली प्रेरक शक्तियाँ हैं। यदि लोगों का ईश्वर की सत्ता में विश्वास रहेगा, तो वे सत् और नीतिपरायण बनेंगे और इसीलिए अच्छे नागरिक होंगे। जिनके ऐसे मनोभाव हैं, इसके लिए उनको दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे धर्म के संबंध में जो शिक्षा पाते हैं, वह केवल सारशून्य, अर्थहीन अनंत शब्दसमष्टि पर विश्वास मात्र है। उन लोगों से शब्दों पर विश्वास करके रहने के लिए कहा जाता है; क्या ऐसा कोई कभी कर सकता है? यदि मनुष्य द्वारा यह संभव होता, तो मानवप्रकृति पर मेरी तिल मात्र श्रद्धा न रहती। मनुष्य चाहता है सत्य। वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है, सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, हृदय के अंतरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है, वेद कहते हैं, ‘‘तभी उसके सारे संदेह दूर होते हैं, सारा तमोजाल छिन्न-भिन्न हो जाता है और सारी वक्रता सीधी हो जाती है।’’ ‘हे अमृत के पुत्रो, हे दिव्यधाम निवासियो, सुनो—मैंने अज्ञानांधकार से आलोक में जाने का रास्ता पा लिया है। जो समस्त तम के पार है, उसको जानने पर ही वहाँ जाया जा सकता है, मुक्ति का और कोई दूसरा उपाय नहीं।’
राजयोग-विद्या इस सत्य को प्राप्त करने के लिए, मानव के समक्ष यथार्थ, व्यावहारिक और साधनोपयोगी वैज्ञानिक प्रणाली रखने का प्रस्ताव करती है। पहले तो प्रत्येक विद्या के अनुसंधान और साधन की प्रणाली पृथक्-पृथक् है। यदि तुम खगोलशास्त्री होने की इच्छा करो और बैठे-बैठे केवल ‘खगोलशास्त्र खगोलशास्त्र’ कहकर चिल्लाते रहो, तो तुम कभी खगोलशास्त्र के अधिकारी न हो सकोगे। रसायनशास्त्र के संबंध में भी ऐसा ही है; उसमें भी एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा; प्रयोगशाला में जाकर विभिन्न द्रव्यादि लेने होंगे, उनको एकत्र करना होगा, उन्हें उचित अनुपात में मिलाना होगा, फिर उनको लेकर उनकी परीक्षा करनी होगी, तब कहीं तुम रसायनविज्ञ हो सकोगे। यदि तुम खगोलशास्त्रज्ञ होना चाहते हो, तो तुम्हें वेधशाला में जाकर दूरबीन की सहायता से तारों और ग्रहों का पर्यवेक्षण करके उनके विषय में आलोचना करनी होगी, तभी तुम खगोलशास्त्रज्ञ हो सकोगे।[adinserter block="1"]
प्रत्येक विद्या की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। मैं तुम्हें सैकड़ों उपदेश दे सकता हूँ। परंतु तुम यदि साधना न करो, तो तुम कभी धार्मिक न हो सकोगे। सभी युगों में, सभी देशों में, निष्काम, शुद्ध स्वभाव साधु-महापुरुष इसी सत्य का प्रचार कर गए हैं। संसार का हित छोड़कर अन्य कोई कामना उनमें नहीं थी। उन सभी लोगों ने कहा है कि इंद्रियाँ हमें जहाँ तक सत्य का अनुभव करा सकती हैं, हमने उससे उच्चतर सत्य प्राप्त कर लिया है, और वे उसकी परीक्षा के लिए तुम्हें बुलाते हैं। वे कहते हैं, ‘‘तुम एक निर्दिष्ट साधन-प्रणाली लेकर सरल भाव से साधना करते रहो, और यदि यह उच्चतर सत्य प्राप्त न हो, तो फिर भले ही कह सकते हो कि इस उच्चतर सत्य के संबंध की बातें केवल कपोलकल्पित हैं। पर हाँ, इससे पहले इन उक्तियों की सत्यता को बिलकुल अस्वीकृत कर देना किसी तरह युक्तिपूर्ण नहीं है।’’ अतएव निर्दिष्ट साधन-प्रणाली लेकर श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिए आवश्यक है, और तब प्रकाश अवश्य आएगा।
कोई ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम साधारणीकरण की सहायता लेते हैं और साधारणीकरण घटनाओं के पर्यवेक्षण पर आधारित है। हम पहले घटनावली का पर्यवेक्षण करते हैं, फिर उनका साधारणीकरण करते हैं और फिर उनसे अपने सिद्धांत या मतामत निकालते हैं। हम जब तक यह प्रत्यक्ष नहीं कर लेते कि हमारे मन के भीतर क्या हो रहा है और क्या नहीं, तब तक हम अपने मन के संबंध में, मनुष्य की आभ्यंतरिक प्रकृति के संबंध में, मनुष्य के विचार के संबंध में कुछ भी नहीं जान सकते। बाह्य जगत् के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना अपेक्षाकृत सहज है, क्योंकि उसके लिए हजारों यंत्र निर्मित हो चुके हैं, पर अंतर्जगत् के व्यापार को समझने में मदद करनेवाला कोई भी यंत्र नहीं। किंतु फिर भी हम यह निश्चयपूर्वक जानते हैं कि किसी विषय का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए पर्यवेक्षण आवश्यक है। उचित विश्लेषण के बिना विज्ञान निरर्थक और निष्फल होकर केवल भित्तिहीन अनुमान में परिणत हो जाता है। इसी कारण, उन थोड़े से मनस्तत्त्वान्वेषियों को छोड़कर, जिन्होंने पर्यवेक्षण करने के उपाय जान लिये हैं, शेष सब लोग चिरकाल से परस्पर केवल विवाद ही करते आ रहे हैं।[adinserter block="1"]
राजयोग-विद्या पहले मनुष्य को उसकी अपनी आभ्यंतरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का इस प्रकार उपाय दिखा देती है। मन ही उस पर्यवेक्षण का यंत्र है। मनोयोग की शक्ति का सही-सही नियमन कर जब उसे अंतर्जगत् की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है और तब उसके प्रकाश से हम यह सही-सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है। मन की शक्तियाँ इधर-उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान हैं। जब उन्हें केंद्रीभूत किया जाता है, तब वे सबकुछ आलोकित कर देती हैं। यही ज्ञान का हमारा एकमात्र उपाय है। बाह्य जगत् में हो अथवा अंतर्जगत् में, लोग इसी को काम में ला रहे हैं। पर वैज्ञानिक जिस सूक्ष्म पर्यवेक्षण-शक्ति का प्रयोग बहिर्जगत् में करता है, मनस्तत्त्वान्वेषी उसी का मन पर करते हैं। इसके लिए काफी अभ्यास आवश्यक है। बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सीखा है, अंतर्जगत् में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पाई। इसी कारण हममें से अधिकांश आभ्यंतरिक क्रिया-विधि की निरीक्षण-शक्ति खो बैठे हैं। मन को अंतर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केंद्रीभूत कर, उस मन के ही ऊपर उनका प्रयोग करना, ताकि वह अपना स्वभाव समझ सके, अपने आपको विश्लेषण करके देख सके—एक अत्यंत कठिन कार्य है। पर इस विषय में वैज्ञानिक प्रथा के अनुसार अग्रसर होने के लिए यही एकमात्र उपाय है।
इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है? पहले तो ज्ञान स्वयं ज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार है। दूसरे, इसकी उपयोगिता भी है। यह हमारे समस्त दुःखों का हरण करेगा। जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते-करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है, तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर मृत्युभय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएँ फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानंद की प्राप्ति हो जाती है।
इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता। रसायनविज्ञ अपनी प्रयोगशाला में जाकर अपने मन की समस्त शक्तियों को केंद्रीभूत करके जिन वस्तुओं का विश्लेषण करता है, उन पर प्रयोग करता है; और इस प्रकार वह उनके रहस्य जान लेता है। खगोलशास्त्रज्ञ अपने मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके दूरबीन के भीतर से आकाश में प्रक्षिप्त करता है, और बस, त्योंही सूर्य, चंद्र और तारे अपने-अपने रहस्य उसके निकट खोल देते हैं। मैं जिस विषय पर बातचीत कर रहा हूँ, उस विषय में मैं जितना मनोनिवेश कर सकूँगा, उतना ही उस विषय का गूढ़ तत्त्व तुम लोगों के निकट प्रकट कर सकूँगा। तुम लोग मेरी बात सुन रहे हो। तुम लोग जितना इस विषय में मनोनिवेश करोगे, मेरी बात को उतना ही स्पष्ट रूप से धारण कर सकोगे।[adinserter block="1"]
मन की शक्तियों को एकाग्र करने के सिवा अन्य किस तरह संसार में ये समस्त ज्ञान उपलब्ध हुए हैं? प्रकृति के द्वार को कैसे खटखटाना चाहिए, उस पर कैसे आघात देना चाहिए, केवल यह ज्ञात हो गया, तो बस प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है। उस आघात की शक्ति और तीव्रता एकाग्रता से ही आती है। मानव-मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं। वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केंद्रित होती है, यही रहस्य है।
मन को बाहरी विषय पर स्थिर करना अपेक्षाकृत सहज है। मन स्वभावतः बहिर्मुखी है। किंतु धर्म, मनोविज्ञान अथवा दर्शन के विषय में ऐसा नहीं है। यहाँ तो ज्ञाता और ज्ञेय (विषयी और विषय) एक हैं। यहाँ प्रमेय (विषय) एक अंदर की वस्तु है—मन ही यहाँ प्रमेय है। मनस्तत्त्व का अन्वेषण करना ही यहाँ प्रयोजन है, और मन ही ‘मनस्तत्त्व के अन्वेषण’ का कर्ता है। हमें मालूम है कि मन की एक ऐसी शक्ति है, जिससे वह अपने अंदर जो कुछ हो रहा है, उसे देख सकता है, इसको ‘अंतपर्यवेक्षण-शक्ति’ कह सकते हैं। मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ, फिर साथ ही मैं मानो एक और व्यक्ति होकर बाहर खड़ा हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ, वह जान-सुन रहा हूँ। तुम एक ही समय काम और चिंतन दोनों कर रहे हो, परंतु तुम्हारे मन का एक और अंश मानो बाहर खड़े होकर तुम जो कुछ चिंतन कर रहे हो, उसे देख रहा है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उनका प्रयोग करना होगा। जैसे सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अंधकारमय स्थान भी अपने गुप्त तथ्य खोल देते हैं, उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अंतरतम रहस्य प्रकाशित कर देगा। तब हम विश्वास की सच्ची बुनियाद पर पहुँचेंगे। तभी हमको सही-सही धर्म-प्राप्ति होगी। तभी आत्मा है या नहीं, जीवन केवल इस सामान्य जीवित काल तक ही सीमित है अथवा अनंतकाल व्यापी है और संसार में कोई ईश्वर है या नहीं, यह सब हम स्वयं देख सकेंगे। सबकुछ हमारे ज्ञानचक्षुओं के सामने उद्भासित हो उठेगा। राजयोग हमें यही शिक्षा देना चाहता है। इसमें जितने उपदेश हैं, उन सबका उद्देश्य प्रथमतः मन की एकाग्रता का साधन है; इसके बाद है—उसके गंभीरतम प्रदेश में कितने प्रकार के भिन्न-भिन्न कार्य हो रहे हैं, उनका ज्ञान प्राप्त करना; और तत्पश्चात् उनसे साधारण सत्यों को निकालकर उनसे अपने एक सिद्धांत पर उपनीत होना। इसीलिए राजयोग की शिक्षा किसी धर्मविशेष पर आधारित नहीं है। तुम्हारा धर्म चाहे जो हो, तुम चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, यहूदी या बौद्ध या ईसाई, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, तुम मनुष्य हो, बस यही पर्याप्त है।[adinserter block="1"]
प्रत्येक मनुष्य में धर्मतत्त्व का अनुसंधान करने की शक्ति है, उसे उसका अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति का किसी भी विषय से क्यों न हो, कारण पूछने का अधिकार है, और उसमें ऐसी शक्ति भी है कि वह अपने भीतर से ही उन प्रश्नों के उत्तर पा सके। पर हाँ, उसे इसके लिए कुछ कष्ट उठाना पड़ेगा। अब तक हमने देखा, इस राजयोग की साधना में किसी प्रकार के विश्वास की आवश्यकता नहीं। जब तक कोई बात स्वयं प्रत्यक्ष न कर सको, तब तक उस पर विश्वास न करो—राजयोग यही शिक्षा देता है। सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिए अन्य किसी सहायता की आवश्यकता नहीं। क्या तुम कहना चाहते हो कि जाग्रत् अवस्था की सत्यता के प्रमाण के लिए स्वप्न अथवा कल्पना की सहायता की जरूरत है? नहीं, कभी नहीं। इस राजयोग की साधना में दीर्घ काल और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है। इस अभ्यास का कुछ अंश शरीरसंयम-विषयक है, परंतु इसका अधिकांश मनःसंयमात्मक है। हम क्रमशः समझेंगे, मन और शरीर में किस प्रकार का संबंध है। यदि हम विश्वास करें कि मन शरीर की केवल एक सूक्ष्म अवस्था विशेष है और मन शरीर पर कार्य करता है, तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शरीर भी मन पर कार्य करता है। शरीर के अस्वस्थ होने पर मन भी अस्वस्थ हो जाता है, शरीर स्वस्थ रहने पर मन भी स्वस्थ और तेजस्वी रहता है। जब किसी व्यक्ति को क्रोध आता है, तब उसका मन अस्थिर हो जाता है। मन की अस्थिरता के कारण शरीर भी पूरी तरह अस्थिर हो जाता है। अधिकांश लोगों का मन शरीर के संपूर्ण अधीन रहता है। असल में उनके मन की शक्ति बहुत थोड़े परिमाण में विकसित हुई रहती है। अधिकांश मनुष्य पशु से बहुत थोड़े ही उन्नत हैं, क्योंकि अधिकांश स्थलों में तो उनकी संयम की शक्ति पशु-पक्षियों से कोई विशेष अधिक नहीं। हममें मन के निग्रह की शक्ति बहुत थोड़ी है। मन पर यह अधिकार पाने के लिए, शरीर और मन पर आधिपत्य लाने के लिए कुछ बहिरंग साधनाओं की, दैहिक साधनाओं की आवश्यकता है। शरीर जब पूरी तरह अधिकार में आ जाएगा, तब मन को हिलाने-डुलाने का समय आएगा। इस तरह मन जब बहुत कुछ वश में आ जाएगा, तब हम इच्छानुसार उससे काम ले सकेंगे, उसकी वृत्तियों को एकमुखी होने के लिए मजबूर कर सकेंगे।
राजयोगी के मतानुसार यह संपूर्ण बहिर्जगत् अंतर्जगत् या सूक्ष्म जगत् का स्कूल विकास मात्र है। सभी स्थलों में सूक्ष्म को कारण और स्थूल को कार्य समझना होगा। इस नियम से बहिर्जगत् कार्य है और अंतर्जगत् कारण।
इसी हिसाब से स्थूल जगत् की परिदृश्यमान शक्तियाँ आभ्यंतरिक सूक्ष्मतर शक्तियों का स्थूल भाग मात्र हैं। जिन्होंने इन आभ्यंतरिक शक्तियों का आविष्कार करके उन्हें इच्छानुसार चलाना सीख लिया है, वे संपूर्ण प्रकृति को वश में कर सकते हैं। संपूर्ण जगत् को वशीभूत करना और सारी प्रकृति पर अधिकार हासिल करना, इस बृहत् कार्य को ही योगी अपना कर्तव्य समझते हैं। वे एक ऐसी अवस्था में जाना चाहते हैं, जहाँ हम जिन्हें ‘प्रकृति के नियम’ कहते हैं, वे उन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते, जिस अवस्था में वे उन सब को पार कर जाते हैं। तब वे आभ्यंतरिक और बाह्य समस्त प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेते हैं। मनुष्यजाति की उन्नति और सभ्यता इस प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति पर ही निर्भर है।
इस प्रकृति को वशीभूत करने के लिए भिन्न-भिन्न जातियाँ भिन्न-भिन्न प्रणालियों का सहारा लेती हैं।[adinserter block="1"]
जैसे एक ही समाज के भीतर कुछ व्यक्ति बाह्य प्रकृति को और कुछ अंत-प्रकृति को वशीभूत करने की चेष्टा करते हैं, वैसे ही विश्व भिन्न जातियों में कोई-कोई जातियाँ बाह्य प्रकृति को, तो कोई-कोई अंतःप्रकृति को वशीभूत करने का प्रयत्न करती हैं। किसी के मत से अंतःप्रकृति को वशीभूत करने पर सबकुछ वशीभूत हो जाता है; फिर दूसरों के मत से, बाह्य प्रकृति को वशीभूत करने पर सबकुछ वश में आ जाता है। इन दो सिद्धांतों के चरम भावों को देखने पर यह प्रतीत होता है कि दोनों ही सिद्धांत सही हैं; क्योंकि यथार्थतः प्रकृति में बाह्य और आभ्यंतर जैसा कोई भेद नहीं। यह केवल एक काल्पनिक विभाग है। ऐसे विभाग का कोई अस्तित्व ही नहीं, और यह कभी था भी नहीं। बहिर्वादी और अंतर्वादी जब अपने-अपने ज्ञान की चरम सीमा प्राप्त कर लेंगे, तब दोनों अवश्य एक ही स्थान पर पहुँच जाएँगे। जैसे भौतिक विज्ञानी जब अपने ज्ञान को चरम सीमा पर ले जाएँगे, तो अंत में उन्हें दार्शनिक होना होगा, उसी प्रकार दार्शनिक भी देखेंगे कि वे मन और भूत के नाम से जो दो भेद कर रहे थे, वे वास्तव में कल्पना मात्र हैं; वह एक दिन बिलकुल विलीन हो जाएगी।
जिससे यह बहु उत्पन्न हुआ है, जो एक पदार्थ बहु रूपों में प्रकाशित हुआ है, उसका निर्णय करना ही समस्त विज्ञान का मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य है। राजयोगी कहते हैं, हम पहले अंतर्जगत् का ज्ञान प्राप्त करेंगे, फिर उसी के द्वारा बाह्य और आंतर उभय प्रकृति को वशीभूत कर लेंगे। प्राचीन काल से ही लोग इसके लिए प्रयत्नशील रहे हैं। भारतवर्ष में इसकी विशेष चेष्टा होती रही है, परंतु दूसरी जातियों ने भी इस ओर कुछ प्रयत्न किए हैं। पाश्चात्य देशों में लोग इसको रहस्य या गुप्त विद्या सोचते थे; जो लोग इसका अभ्यास करने जाते थे, उन पर अघोरी, जादूगर, ऐंद्रजालिक आदि अपवाद लगाकर उन्हें जला दिया अथवा मार डाला जाता था। भारतवर्ष में अनेक कारणों से यह विद्या ऐसे व्यक्तियों के हाथ पड़ी, जिन्होंने इसका 10 प्रतिशत अंश नष्ट कर डाला और शेष को गुप्त रीति से रखने की चेष्टा की। आजकल पश्चिमी देशों में, भारतवर्ष के गुरुओं की अपेक्षा निकृष्टतर अनेक गुरु-नामधारी व्यक्ति दिखाई पड़ते हैं। भारतवर्ष के गुरु फिर भी कुछ जानते थे, पर ये आधुनिक व्याख्याकार तो कुछ भी नहीं जानते।
इन सारी योग-प्रणालियों में जो कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है, सब छोड़ देना पड़ेगा। जिससे बल मिलता है, उसी का अनुसरण करना चाहिए। अन्यान्य विषयों में जैसा है, धर्म में भी ठीक वैसा ही है—जो तुमको दुर्बल बनाता है, वह समूल त्याज्य है। रहस्य महामानव-मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है। इसके कारण ही आज योगशास्त्र नष्ट सा हो गया है। किंतु वास्तव में यह एक महाविज्ञान है। चार हजार वर्ष से भी पहले यह आविष्कृत हुआ था। तब से भारतवर्ष में यह प्रणालीबद्ध होकर वर्णित और प्रचारित होता रहा है। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि व्याख्याकार जितना आधुनिक है, उसका भ्रम भी उतना ही अधिक है; और लेखक जितना प्राचीन है, उसने उतनी ही अधिक युक्तियुक्त बात कही है। आधुनिक लेखकों में ऐसे अनेक हैं, जो नाना प्रकार की रहस्यात्मक और अद्भुत-अद्भुत बातें कहा करते हैं। इस प्रकार, जिनके हाथ यह शास्त्र पड़ा, उन्होंने समस्त शक्तियाँ अपने अधिकार में रखने की इच्छा से इसको महागोपनीय बना डाला और युक्तिरूप प्रभाकर का पूर्ण आलोक इस पर नहीं पड़ने दिया।[adinserter block="1"]
मैं पहले ही कह देना चाहता हूँ कि मैं जो कुछ प्रचार कर रहा हूँ, उसमें गुह्य नाम की कोई चीज नहीं है। मैं जो कुछ थोड़ा सा जानता हूँ, वही तुमसे कहूँगा। जहाँ तक यह युक्ति से समझाया जा सकता है, वहाँ तक समझाने की कोशिश करूँगा। परंतु मैं जो नहीं समझ सकता, उसके बारे में कह दूँगा, ‘शास्त्र का यह कथन है।’ अंधविश्वास करना ठीक नहीं। अपनी विचारशक्ति और युक्ति काम में लानी होगी। यह प्रत्यक्ष करके देखना होगा कि शास्त्र में जो कुछ लिखा है, वह सत्य है या नहीं। भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो, ठीक उसी ढंग से यह धर्मविज्ञान भी सीखना होगा। इसमें गुप्त रखने की कोई बात नहीं, किसी विपत्ति की भी आशंका नहीं। इसमें जहाँ तक सत्य है, उसका सबके समक्ष राजपथ पर प्रकट रूप से प्रचार करना आवश्यक है। यह सब किसी प्रकार छिपा रखने की चेष्टा करने से अनेक प्रकार की महान् विपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं।
कुछ और अधिक कहने के पहले मैं सांख्य दर्शन के संबंध में कुछ कहूँगा। इस सांख्य दर्शन पर पूरा राजयोग आधारित है। सांख्य दर्शन के मत से किसी विषय के ज्ञान की प्रणाली इस प्रकार है—प्रथमतः विषय के साथ चक्षु आदि बाह्य करणों का संयोग होता है। ये चक्षु आदि बाहरी कारण फिर उसे मस्तिष्क स्थित अपने-अपने केंद्र अर्थात् इंद्रियों के पास भेजते हैं; इंद्रियाँ मन के निकट, और मन उसे निश्चयात्मिका बुद्धि के निकट ले जाता है, तब पुरुष या आत्मा उसका ग्रहण करता है। फिर जिस सोपानक्रम में से होता हुआ वह विषय अंदर आया था, उसी में से होते हुए लौट जाने की पुरुष मानो उसे आज्ञा देता है। इस प्रकार विषय गृहीत होता है। पुरुष को छोड़कर शेष सब जड़ हैं। पर आँख आदि बाहरी करणों की अपेक्षा मन सूक्ष्मतर भूत से निर्मित है। मन जिस उपादान से निर्मित है, उसी से तन्मात्रा नामक सूक्ष्म भूतों की उत्पत्ति होती है। उनके स्थूल हो जाने पर परिदृश्यमान भूतों की उत्पत्ति होती है। यही सांख्य का मनोविज्ञान है। अतएव बुद्धि और परिदृश्यमान स्थूल भूत में अंतर केवल स्थूलता के तारतम्य में है। एकमात्र पुरुष या आत्मा ही चेतन है। मन तो मानो आत्मा के हाथों एक यंत्र है। उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को ग्रहण करती है। मन सतत परिवर्तनशील है, इधर-से-उधर दौड़ता रहता है, कभी सभी इंद्रियों से लगा रहता है, तो कभी एक से, और कभी किसी भी इंद्रिय से संलग्न नहीं रहता।[adinserter block="1"]
मान लो, मैं मन लगाकर एक घड़ी की टिकटिक सुन रहा हूँ। ऐसी दशा में आँखें खुली रहने पर भी मैं कुछ देख न पाऊँगा। इससे स्पष्ट समझ में आ जाता है कि मन जब श्रवणेंद्रिय से लगा था, तो दर्शनेंद्रिय से उसका संयोग न था। पर पूर्णता प्राप्त मन सभी इंद्रियों से एक साथ लगाया जा सकता है। उसकी अंतर्दृष्टि की शक्ति है, जिसके बल से मनुष्य अपने अंतर के सबसे गहरे प्रदेश तक में नजर डाल सकता है। इस अंतर्दृष्टि का विकास साधना ही योगी का उद्देश्य है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके भीतर की ओर मोड़कर वे जानना चाहते हैं कि भीतर क्या हो रहा है। इसमें केवल विश्वास की कोई बात नहीं; यह तो दार्शनिकों के मनस्तत्त्व-विश्लेषण का फल मात्र है। आधुनिक शरीर-विज्ञानविज्ञ का कथन है कि आँखें यथार्थतः दर्शनेंद्रिय नहीं हैं; वह इंद्रिय तो मस्तिष्क के अंतर्गत स्नायुकेंद्र में अवस्थित है और समस्त इंद्रियों के संबंध में ठीक ऐसा ही समझना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि मस्तिष्क जिस पदार्थ से निर्मित है, ये केंद्र भी ठीक उसी पदार्थ से बने हैं। सांख्य भी ऐसा ही कहता है। अंतर यह है कि सांख्य का सिद्धांत मनस्तत्त्व पर आधारित है और वैज्ञानिकों का भौतिकता पर। फिर भी दोनों एक ही बात हैं। हमारे शोध के क्षेत्र इन दोनों के परे हैं।
योगी प्रयत्न करते हैं कि वे अपने को ऐसा सूक्ष्म अनुभूति-संपन्न कर लें, जिससे वे विभिन्न मानसिक अवस्थाओं को प्रत्यक्ष कर सकें। समस्त मानसिक प्रक्रियाओं को पृथक्-पृथक् रूप से मानस-प्रत्यक्ष करना आवश्यक है। इंद्रियगोलकों पर विषयों का आघात होते ही उससे उत्पन्न हुई संवेदनाएँ उस उस करण की सहायता से किस तरह स्नायु में से होती हुई जाती हैं, मन किस प्रकार उनको ग्रहण करता है, किस प्रकार फिर वे निश्चयात्मिका बुद्धि के पास जाती हैं, तत्पश्चात् किस प्रकार वह पुरुष के पास उन्हें पहुँचाता है—इन समस्त व्यापारों को पृथक्-पृथक् रूप में देखना होगा। प्रत्येक विषय की शिक्षा की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। कोई भी विज्ञान क्यों न सीखो, पहले अपने आपको उसके लिए तैयार करना होगा, फिर एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा, इसके अतिरिक्त उस विज्ञान के सिद्धांतों को समझने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। राजयोग के संबंध में भी ठीक ऐसा ही है।
भोजन के संबंध में कुछ नियम आवश्यक हैं। जिससे मन खूब पवित्र रहे, ऐसा भोजन करना चाहिए। तुम यदि किसी अजायबघर में जाओ, तो भोजन के साथ जीव का क्या संबंध है, यह भलीभाँति समझ में आ जाएगा। हाथी बड़ा भारी प्राणी है, परंतु उसकी प्रकृति बड़ी शांत है। और यदि तुम सिंह या बाघ के पिंजड़े की ओर जाओ, तो देखोगे, वे बड़े चंचल हैं। इससे समझ में आ जाता है कि आहार का तारतम्य कितना भयानक परिवर्तन कर देता है। हमारे शरीर के अंदर जितनी शक्तियाँ कार्यशील हैं, वे आहार से पैदा हुई हैं। और यह हम प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते हैं। यदि तुम उपवास करना आरंभ कर दो, तो तुम्हारा शरीर दुर्बल हो जाएगा, दैहिक शक्तियों का ह्वास हो जाएगा और कुछ दिनों बाद मानसिक शक्तियाँ भी क्षीण होने लगेंगी। पहले स्मृतिशक्ति जाती रहेगी, फिर ऐसा एक समय आएगा, जब सोचने के लिए भी सामर्थ्य न रह जाएगा—किसी विषय पर गंभीर रूप से विचार करना तो दूर की बात रही। इसीलिए साधना की पहली अवस्था में, भोजन के संबंध में विशेष ध्यान रखना होगा; फिर बाद में साधना में विशेष प्रगति हो जाने पर उतना सावधान न रहने से भी चलेगा। जब तक पौधा छोटा रहता है, तब तक उसे घेरकर रखते हैं, नहीं तो जानवर उसे चर जाएँ। उसके बड़ा वृक्ष हो जाने पर घेरा निकाल दिया जाता है। तब वह सारे आघात झेलने के लिए पर्याप्त समर्थ है।
योगी को अधिक विलास और कठोरता, दोनों ही त्याग देने चाहिए। उनके लिए उपवास करना या देह को किसी प्रकार कष्ट देना उचित नहीं। ‘गीता’ कहती है, ‘‘जो अपने को अनर्थक क्लेश देते हैं, वे कभी योगी नहीं हो सकते।’’ अति भोजनकारी, उपवासशील, अधिक जागरणशील, अधिक निद्राल, अत्यंत कर्मी अथवा बिलकुल आलसी—इनमें से कोई भी योगी नहीं हो सकता।
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द्वितीय अध्याय
साधना के प्राथमिक सोपान
राजयोग आठ अंगों में विभक्त है। पहला है ‘यम’—अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। दूसरा है ‘नियम’—अर्थात् शौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय (अध्यात्म-शास्त्रपाठ) और ईश्वरप्रणिधान अर्थात् ईश्वर को आत्मसमर्पण। तीसरा है ‘आसन’—अर्थात् बैठने की प्रणाली। चौथा है ‘प्राणायाम’—अर्थात् प्राण का संयम। पाँचवाँ है ‘प्रत्याहार’—अर्थात् मन की विषयाभिमुखी गति को फेरकर उसे अंतर्मुखी करना। छठा है ‘धारणा’—अर्थात् किसी स्थल पर मन का धारण। सातवाँ है ‘ध्यान’ और आठवाँ है ‘समाधि’—अर्थात् अतिचेतन अवस्था। हम देख रहे हैं, यम और नियम चरित्र निर्माण के साधन हैं। इनको नींव बनाए बिना किसी तरह की योगसाधना सिद्ध न होगी। यम और नियम में दृढ़प्रतिष्ठ हो जाने पर योगी अपनी साधना का फल अनुभव करना आरंभ कर देते हैं। इनके न रहने पर साधना का कोई फल न होगा। योगी को चाहिए कि वे तन-मन-वचन से किसी के विरुद्ध हिंसाचरण न करें। दया मनुष्यजाति में ही आबद्ध न रहे, वरन् उसके परे भी वह जाए और सारे संसार का आलिंगन कर ले।
यम और नियम के बाद आसन आता है। जब तक बहुत उच्च अवस्था की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक रोज नियमानुसार कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। अतएव जिससें दीर्घ काल तक एक ढंग से बैठा जा सके, ऐसे एक आसन का अभ्यास आवश्यक है। जिनको जिस आसन से सुभीता मालूम होती हो, उनको उसी आसन पर बैठना चाहिए। एक व्यक्ति के लिए एक प्रकार से बैठकर सोचना सहज हो सकता है, परंतु दूसरे के लिए संभव है कि वह बहुत कठिन जान पड़े। हम बाद में देखेंगे कि योगसाधना के समय शरीर के भीतर नाना प्रकार के कार्य होते रहते हैं। स्नायविक शक्तिप्रवाह की गति को फेरकर उसे नए रास्ते से दौड़ाना होगा; तब शरीर में नए प्रकार के स्पंदन या क्रिया शुरू होगी; सारा शरीर मानो नए रूप से गठित हो जाएगा। इस क्रिया का अधिकांश मेरुदंड के भीतर होगा। इसलिए आसन के संबंध में इतना समझ लेना होगा कि मेरुदंड को सहज स्थिति में रखना आवश्यक है, ठीक सीधा बैठना होगा—वक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहें, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े। यह तुम सहज ही समझ सकोगे कि वक्ष यदि नीचे की ओर झुका रहे, तो किसी प्रकार का उच्च चिंतन करना संभव नहीं।[adinserter block="1"]
राजयोग का यह भाग हठयोग से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। हठयोग केवल स्थूल देह को लेकर व्यस्त रहता है। इसका उद्देश्य केवल स्थूल देह को सबल बनाना है। हठयोग के संबंध में यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि उसकी क्रियाएँ बहुत कठिन हैं। एक दिन में उसकी शिक्षा भी संभव नहीं। फिर उससे कोई आध्यात्मिक उन्नति भी नहीं होती। डेलसर्ट और अन्य आचार्यों के ग्रंथों में इन क्रियाओं के अनेक अंश देखने को मिलते हैं। उन लोगों ने भी शरीर को भिन्न-भिन्न स्थितियों में रखने की व्यवस्था की है। हठयोग की तरह उनका भी उद्देश्य दैहिक उन्नति है, आध्यात्मिक नहीं। शरीर की ऐसी कोई पेशी नहीं, जिसे हठयोगी अपने वश में न ला सके। हृदययंत्र उसकी इच्छा के अनुसार बंद किया या चलाया जा सकता है। शरीर के सारे अंश वह अपनी इच्छानुसार चला सकता है।
मनुष्य किस प्रकार दीर्घजीवी हो, यही हठयोग का एकमात्र उद्देश्य है। शरीर किस प्रकार पूर्ण स्वस्थ रहे, यही हठयोगियों का एकमात्र लक्ष्य है। हठयोगियों का यह दृढ़ संकल्प है कि हम अस्वस्थ न हों। और इस दृढ़ संकल्प के बल से वे कभी अस्वस्थ होते भी नहीं। वे दीर्घजीवी हो सकते हैं, सौ वर्ष तक जीवित रहना तो उनके लिए मामूली सी बात है। उनकी डेढ़ सौ वर्ष की आयु हो जाने पर भी, देखोगे, वे पूर्ण युवा और सतेज हैं, उनका एक केश भी सफेद नहीं हुआ, किंतु इसका फल बस यहीं तक है। वटवृक्ष भी कभी-कभी पाँच हजार वर्ष जीवित रहता है, किंतु वह वटवृक्ष का वटवृक्ष ही बना रहता है। फिर वे लोग भी यदि उसी तरह दीर्घजीवी हुए, तो उससे क्या? वे बस एक बड़े स्वस्थकाय जीव भर रहते हैं। हठयोगियों के दो-एक साधारण उपदेश बड़े उपकारी हैं। सिर की पीड़ा होने पर शय्या-त्याग करते ही नाक से शीतल जल पियो, इससे सारा दिन मस्तिष्क ठीक और शांत रहेगा और कभी सर्दी न होगी। नाक से पानी पीना कोई कठिन काम नहीं, बड़ा सरल है। नाक को पानी के भीतर डुबोकर गले में पानी खींचते रहो। पानी अपने आप ही धीरे-धीरे भीतर जाने लगेगा।
आसन सिद्ध होने पर किसी-किसी संप्रदाय के मतानुसार नाड़ीशुद्धि करनी पड़ती है। बहुत से लोग यह सोचकर कि यह राजयोग के अंतर्गत नहीं है, इसकी आवश्यकता स्वीकार नहीं करते। परंतु जब शंकराचार्य जैसे भाष्यकार ने इसका विधान किया है, तब मेरे लिए भी इसका उल्लेख करना उचित जान पड़ता है। मैं श्वेताश्वतर उपनिषद् पर उनके भाष्य से इस संबंध में उनका मत उद्धृत करूँगा—‘‘प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है, वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय का उल्लेख है। पहले नाड़ीशुद्धि करनी पड़ती है, तभी प्राणायाम करने की शक्ति आती है। अँगूठे से दाहिना नथुना दबाकर बाएँ नथुने से यथाशक्ति वायु अंदर खींचो, फिर बीच में तनिक देर भी विश्राम किए बिना बायाँ नथुना बंद करके दाहिने नथुने से वायु निकालो। फिर दाहिने नथुने से वायु ग्रहण करके बाएँ से निकालो। दिन भर से चार बार अर्थात् उषा, मध्याह्न, सायाह्न और निशीथ, इन चार समय पूर्वोक्त क्रिया का तीन बार या पाँच बार अभ्यास करने पर, एक पक्ष या महीने भर में नाड़ीशुद्धि हो जाती है। उसके बाद प्राणायाम पर अधिकार होगा।’’[adinserter block="1"]
सदा अभ्यास आवश्यक है। तुम रोज देर तक बैठे हुए मेरी बात सुन सकते हो, परंतु अभ्यास किए बिना तुम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। सबकुछ साधना पर निर्भर है। प्रत्यक्ष अनुभूति बिना ये तत्त्व कुछ भी समझ में नहीं आते। स्वयं अनुभव करना होगा, केवल व्याख्या और मत सुनने से कुछ न होगा। फिर साधना में बहुत से विघ्न भी हैं। पहला तो व्याधिग्रस्त देह है। शरीर स्वस्थ न रहे, तो साधना में बाधा पड़ती है। अतः शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है। किस प्रकार का खान-पान करना होगा, किस प्रकार जीवनयापन करना होगा, इन सब बातों की ओर हमें विशेष ध्यान देना होगा। मन से सोचना होगा कि शरीर सबल हो, जैसा कि यहाँ के ‘क्रिश्चियन साइंस’ मतावलंबी करते हैं। बस शरीर के लिए फिर और कुछ करने की जरूरत नहीं। यह हम कभी न भूलें कि स्वास्थ्य उद्देश्य के साधन का एक उपाय मात्र है। यदि स्वास्थ्य ही उद्देश्य होता, तो हम तो पशुतुल्य हो गए होते। पशु प्रायः अस्वस्थ नहीं होते।
दूसरा विघ्न है ‘संदेह’। हम जो कुछ नहीं देख पाते, उसके संबंध में संदिग्ध हो जाते हैं। मनुष्य कितनी भी चेष्टा क्यों न करे, वह केवल बात के भरोसे नहीं रह सकता। यही कारण है कि योगशास्त्रोक्त सत्यता के संबंध में संदेह उपस्थित हो जाता है। यह संदेह बहुत अच्छे आदमियों में भी देखने को मिलता है। परंतु साधना का श्रीगणेश कर देने पर बहुत थोड़े दिनों में ही कुछ-कुछ अलौकिक व्यापार देखने को मिलेंगे, और तब साधना के लिए तुम्हारा उत्साह बढ़ जाएगा। योगशास्त्र के एक भाष्यकार ने कहा भी है, ‘‘योगशास्त्र की सत्यता के संबंध में यदि एक बिलकुल सामान्य प्रमाण भी मिल जाए, तो उतने से ही संपूर्ण योगशास्त्र पर विश्वास हो जाएगा।’’ उदाहरणस्वरूप तुम देखोगे कि कुछ महीनों की साधना के बाद तुम दूसरों का मनोभाव समझ पा रहे हो; वे तुम्हारे पास चित्र के रूप में आएँगे; यदि बहुत दूर पर कोई शब्द या बातचीत हो रही हो, तो मन एकाग्र करके सुनने की चेष्टा करने से ही तुम उसे सुन लोगे। पहले-पहल अवश्य ये व्यापार बहुत थोड़ा-थोड़ा करके दिखेंगे। परंतु उसी से तुम्हारा विश्वास, बल और आशा बढ़ती रहेगी।
मान लो, नासिका के अग्रभाग में तुम चित्त का संयम करने लगे, तब तो थोड़े ही दिनों में तुम्हें दिव्य सुगंध मिलने लगेगी; इसी से तुम समझ जाओगे कि हमारा मन कभी-कभी वस्तु प्रत्यक्ष संस्पर्श में न आकर भी उसका अनुभव कर लेता है। पर यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि इन सिद्धियों का और कोई स्वतंत्र मूल्य नहीं; वे हमारे प्रकृत उद्देश्य के साधन में कुछ सहायता मात्र करती हैं। हमें याद रखना होगा कि इन सब साधनों का एकमात्र लक्ष्य, एकमात्र उद्देश्य ‘आत्मा की मुक्ति’ है। प्रकृति को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लेना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। इसके सिवा और कुछ भी हमारा प्रकृत लक्ष्य नहीं हो सकता। हम अवश्य ही प्रकृति के स्वामी होंगे, प्रकृति के गुलाम नहीं। शरीर या मन कुछ भी हमारे स्वामी कभी नहीं हो सकते। हम यह कभी न भूलें कि ‘शरीर हमारा है—हम शरीर के नहीं’।[adinserter block="1"]
एक देव और एक असुर किसी महापुरुष के पास आत्मजिज्ञासु होकर गए। उन्होंने उन महापुरुष के पास एक अरसे तक रहकर शिक्षा प्राप्त की। कुछ दिन बाद उन महापुरुष ने उनसे कहा, ‘‘तुम लोग जिसको खोज रहे हो, वह तो तुम्हीं हो।’’ उन लोगों ने सोचा, ‘तो देह ही आत्मा है।’ फिर उन लोगों ने यह सोचकर कि जो कुछ मिलना था, मिल गया, संतुष्ट चित्त से अपनी-अपनी जगह को प्रस्थान किया। उन लोगों ने जाकर अपने-अपने आत्मीय जनों से कहा, ‘‘जो कुछ सीखना था, सब सीख आए। अब आओ, भोजन, पान और आनंद में दिन बिताएँ, हमीं वह आत्मा हैं, इसके सिवा और कोई वस्तु नहीं।’’ उस असुर का स्वभाव अज्ञान से ढका हुआ था, इसलिए इस विषय में उसने आगे अधिक अन्वेषण नहीं किया। अपने को ईश्वर समझकर वह पूर्ण रूप से संतुष्ट हो गया; उसने ‘आत्मा’ शब्द से देह समझा। परंतु देवता का स्वभाव अपेक्षाकृत पवित्र था। वे भी पहले इस भ्रम में पड़े थे कि ‘मैं’ का अर्थ यह शरीर ही है; यह देह ही ब्रह्म है, इसलिए इसे स्वस्थ और सबल रखना, सुंदर वस्त्रादि पहनाना और सब प्रकार के दैहिक सुखों का भोग करना ही कर्तव्य है। परंतु कुछ दिन बाद उन्हें यह बोध होने लगा कि गुरु के उपदेश का अर्थ यह नहीं हो सकता कि देह ही आत्मा है; वरन् देह से भी श्रेष्ठ कुछ अवश्य है। तब उन्होंने गुरु के निकट आकर पूछा, ‘‘गुरुजी, आपके वाक्य का क्या यह तात्पर्य है कि देह ही आत्मा है? परंतु यह कैसे हो सकता है? सभी शरीर तो नष्ट होते हैं, आत्मा का तो नाश नहीं होता।’’ आचार्य ने कहा, ‘‘तुम स्वयं इसका निर्णय करो, तुम वही हो—तत्त्वमसि।’’
तब शिष्य ने सोचा, शरीर में क्रियाशील जो प्राण हैं, शायद उनको लक्ष्य कर गुरु ने पूर्वोक्त उपदेश दिया था। वे वापस चले गए। परंतु फिर शीघ्र ही देखा कि भोजन करने पर प्राण तेजस्वी रहते हैं और न करने पर मुरझाने लगते हैं। तब वे पुनः गुरु के पास आए और कहा, ‘‘गुरुजी, आपने क्या प्राणों को आत्मा कहा है?’’ गुरु ने कहा, ‘‘स्वयं तुम इसका निर्णय करो, तुम वही हो।’’ उस अध्यवसायशील शिष्य ने गुरु के यहाँ से लौटकर सोचा, ‘‘तो शायद मन ही आत्मा होगा।’’ परंतु वे शीघ्र ही समझ गए कि मनोवृत्तियाँ बहुत तरह की हैं; मन में कभी सद्वृत्ति, तो कभी असद्वृत्ति उठती है; अतः मन इतना परिवर्तनशील है कि वह कभी आत्मा नहीं हो सकता। तब फिर से गुरु के पास आकर उन्होंने कहा, ‘‘मन आत्मा है, ऐसा तो मुझे नहीं जान पड़ता। आपने क्यों ऐसा ही उपदेश दिया है?’’ गुरु ने कहा, ‘‘नहीं, तुम्हीं वह हो, तुम स्वयं इसका निर्णय करो।’’ वे देवपुंगव फिर लौट गए; तब उनको यह ज्ञान हुआ, ‘‘मैं समस्त मनोवृत्तियों के परे एकमेवाद्वितीय आत्मा हूँ। मेरा जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, मुझे तलवार नहीं काट सकती, आग नहीं जला सकती, हवा नहीं सुखा सकती, जल नहीं गला सकता, मैं अनादि हूँ, जन्मरहित, अचल, अस्पर्श, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान पुरुष हूँ। आत्मा शरीर या मन नहीं, वह तो इन सब के परे है।’’ इस प्रकार वे देवता ज्ञानप्रसूत आनंद से तृप्त हो गए। पर उस असुर बेचारे को सत्यलाभ न हुआ, क्योंकि देह में उसकी अत्यंत आसक्ति थी।[adinserter block="1"]
इस जगत् में ऐसी असुर-प्रकृति के अनेक लोग हैं; फिर भी देवता-प्रकृतिवाले बिलकुल ही न हों, ऐसा नहीं। यदि कोई कहे, ‘‘आओ, तुम लोगों को मैं एक ऐसी विद्या सिखाऊँगा, जिससे तुम्हारा इंद्रियसुख अनंत गुना बढ़ जाएगा’’ तो अगणित लोग उसके पास दौड़ पड़ेंगे। परंतु यदि कोई कहे, ‘‘आओ, मैं तुम लोगों को तुम्हारे जीवन का चरम लक्ष्य परमात्मा का विषय सिखाऊँगा’’ तो शायद उनकी बात की कोई परवाह भी न करेगा। ऊँचे तत्त्व की धारणा करने की शक्ति बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है; सत्य को प्राप्त करने के लिए अध्यवसायशील लोगों की संख्या तो और भी बिरली है। पर संसार में ऐसे महापुरुष भी हैं, जिनकी यह निश्चित धारणा है कि शरीर चाहे हजार वर्ष रहे या लाख वर्ष, अंत में परिणाम एक ही होगा। जिन शक्तियों के बल से देह कायम है, उनके चले जाने पर देह न रहेगी। कोई भी व्यक्ति पल भर के लिए भी शरीर का परिवर्तन रोकने में समर्थ नहीं हो सकता। आखिर शरीर है क्या? वह कुछ सतत परिवर्तनशील परमाणुओं की समष्टि मात्र है। नदी के दृष्टांत से यह तत्त्व सहज बोधगम्य हो सकता है। तुम अपने सामने नदी में जलराशि देख रहे हो, वह देखो, पल भर में वह चली गई और उसकी जगह एक नई जलराशि आ गई। जो जलराशि आई, वह संपूर्ण नई है, परंतु देखने में पहली ही जलराशि की तरह है। शरीर भी ठीक इसी तरह सतत परिवर्तनशील है। उसके इस प्रकार परिवर्तनशील होने पर भी उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी। यही हमारे पास सर्वोत्तम साधन है।
सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से—यहाँ तक कि देवादि से भी—श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं। देवताओं को भी ज्ञानलाभ के लिए मनुष्यदेह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञानलाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं। यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार ईश्वर ने देवदूत और अन्य समस्त सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने देवदूतों से मनुष्य को प्रणाम और अभिनंदन कर आने के लिए कहा। इबलीस को छोड़कर बाकी सब ने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान् सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सब जन्मों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। पशु आदि हीन योनियाँ जड़ या मंदबुद्धि की हैं, ये प्रधानतः तम से निर्मित हुई हैं। पशु किसी ऊँचे तत्त्व की धारणा नहीं कर सकते। देवदूत या देवता भी मनुष्य-जन्म लिये बिना मुक्तिलाभ नहीं कर सकते। इसी तरह मनुष्य समाज में भी अत्यधिक धन अथवा अत्यधिक दरिद्रता आत्मा के उच्चतर विकास के लिए महान् बाधक है। संसार में जितने महात्मा पैदा हुए हैं, सभी मध्यम वर्ग के लोगों से हुए थे। मध्यम वर्गवालों में सब शक्तियाँ समान रूप से समायोजित और संतुलित रहती हैं।[adinserter block="1"]
अब हम अपने विषय पर आएँ। हमें अब प्राणायाम—श्वास-प्रश्वास के नियमन के संबंध में विवेचना करनी चाहिए। चित्तवृत्तियों के निरोध से प्राणायाम का क्या संबंध है? श्वास-प्रश्वास मानो देहयंत्र का गतिनियामक प्रचक्र (fly-wheel) है। एक बृहत् इंजन पर निगाह डालने पर पता चलेगा कि पहले प्रचक्र घूम रहा है और उस चक्र की गति क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर यंत्रों में संचारित होती है। इस प्रकार उस इंजन के अत्यंत सूक्ष्मतम यंत्र तक गतिशील हो जाते हैं। श्वास-प्रश्वास ठीक वैसा ही एक गतिनियामक प्रचक्र है। वही इस शरीर के सब अंगों में, जहाँ जिस प्रकार की शक्ति की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति कर रहा है और उस प्रेरक-शक्ति को नियमित भी कर रहा है। एक राजा के एक मंत्री था। किसी कारण से राजा उस पर नाराज हो गया। राजा ने उसे एक बड़ी ऊँची मीनार की चोटी में कैद करके रखने की आज्ञा दी। राजा की आज्ञा का पालन किया गया। मंत्री भी वहाँ कैद होकर मौत की राह देखने लगा। मंत्री के एक पतिव्रता पत्नी थी। रात को उस मीनार के नीचे आ उसने चोटी पर कैद हुए पति को पुकारकर पूछा, ‘‘मैं किस प्रकार तुम्हारी रक्षा करूँ?’’ मंत्री ने कहा, ‘‘अगली रात को एक लंबा मोटा रस्सा, एक मजबूत डोरी, एक बंडल सूत, रेशम का पतला सूत, एक भृंग और थोड़ा सा शहद लेती आना।’’ उसकी सहधर्मिणी पति की यह बात सुनकर बहुत आश्चर्यचकित हुई। जो हो, वह पति की आज्ञानुसार दूसरे दिन सब वस्तुएँ ले गई। मंत्री ने उससे कहा, ‘‘रेशम का सूत मजबूती से भृंग के पैर में बाँध दो, उसकी मूँछों में एक बूँद शहद लगा दो और उसका सिर ऊपर की ओर करके उसे मीनार की दीवार पर छोड़ दो।’’ पतिव्रता ने सब आज्ञाओं का पालन किया। तब उस कीड़े ने अपना लंबा रास्ता पार करना शुरू किया। सामने शहद की महक पाकर उसके लोभ से वह धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा, और अंत में मीनार की चोटी पर जा पहुँचा, मंत्री ने झट उसे पकड़ लिया और उसके साथ रेशम के सूत को भी। इसके बाद अपनी पत्नी से कहा, ‘‘बंडल में जो सूत है, उसे रेशम के सूत के छोर से बाँध दो।’’ इस तरह वह भी उसके हाथ में आ गया। इसी उपाय से उसने डोरा और मोटा रस्सा भी पकड़ लिया। अब कोई कठिन काम न रह गया। रस्सा ऊपर बाँधकर वह नीचे उतरा और भाग खड़ा हुआ। हमारी इस देह में श्वास-प्रश्वास की गति मानो रेशमी सूत है। इसके धारण या संयम कर सकने पर पहले स्नायविक शक्तिप्रवाह-रूप (nerve currents) सूत का बंडल, फिर मनोवृत्ति-रूप डोरी और अंत में प्राणरूप रस्से को पकड़ सकते हैं। प्राणों को जीत लेने पर मुक्ति प्राप्त होती है।
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