पूर्व पीठिका (राम-रावण कथा खण्ड-1) | Poorv Pithika Hindi PDF Download : Free Books By Sulabh Agnihotri

पुस्तक का विवरण (Description of Book of पूर्व पीठिका (राम-रावण कथा खण्ड-एक) pdf | Poorv Pithika (Ram-Ravan Katha Book 1) PDF Download) :-

नाम 📖पूर्व पीठिका (राम-रावण कथा खण्ड-एक) pdf | Poorv Pithika (Ram-Ravan Katha Book 1) PDF Download
लेखक 🖊️   सुलभ अग्निहोत्री / Sulabh Agnihotri  
आकार 2.8 MB
कुल पृष्ठ386
भाषाHindi
श्रेणी, ,
Download Link 📥Working
रामकथा भारत की जनता की रगों में खून की तरह दौड़ती है। परन्तु इस राम-रावण कथा में रावण विलेन नहीं है। यह दो संस्कृतियों का टकराव है। राम-रावण कथा के इस प्रथम खंड को एक प्रकार से परिचय खंड भी कहा जा सकता है। रामायण के पात्रों का परिचय इस खंड में आप पायेंगे। यह परिचय उससे कहीं अधिक है जितने से प्राय: हम लोग परिचित हैं। जैसे रावण के वंश को सुमाली से आरंभ किया गया है। किंतु साथ ही सरसरी जानकारी ‘रक्ष-संस्कृति' के प्रणेताओं - हेति-प्रहेति से आरंभ की है। इसी प्रकार दशरथ के तीनों विवाहों और उनकी उप-पत्नियों को भी रेखांकित करने का प्रयास किया है। बालि सुग्रीव का जन्म, गौतम-अहल्या द्वारा उनका पालन-पोषण और अंत में वानरराज ऋक्षराज के दत्तक पुत्र बनने के घटनाक्रम को और इसी प्रकार केसरी-अंजना के विवाह और फिर हनुमान जन्म की कथा को भी तर्कसम्मत रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसी प्रकार रावण-वेदवती के प्रणय और उससे सीता के जन्म को भी रेखांकित किया है। सीता के जन्म के साथ ही यह परिचय-खंड विराम प्राप्त करता है। पूरे कथानक में मुख्यत: समानान्तर तीन कथाएँ चल रही हैं। पहली सुमाली और फिर रावण की कथा है। दूसरी देवों की रावण से निपटने के लिए किए जा रहे प्रयासों की कथा है और तीसरी दशरथ की कथा है। इन्ही में गुंथी हुई दो उपकथाएँ और चलती हैं। पहली उपकथा गौतम-अहल्या, आरुणि - इंद्र - सूर्य - बालि - सुग्रीव, केसरी - अंजना - हनुमान के अंतर्सम्बन्धों की कथा है और दूसरी उस काल के आम आदमी को दर्शाने के लिए गढ़ी गयी पूरी तरह से काल्पनिक मंगला की कथा है।

[adinserter block="1"]

पुस्तक का कुछ अंश

भूमिका

रामकथा भारत की जनता की रगों में खून की तरह दौड़ती है। भारत में ही नहीं, श्रीलंका, इंडोनेशिया, कंपूचिया, थाईलैंड, लाओस, बर्मा, मलेशिया, फिलीपींस, नेपाल, तिब्बत, चीन, मंगोलिया, जापान, तुर्की आदि देशों में भी रामकथा किसी न किसी रूप में प्रचलित है या प्रचलित रही है। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम राष्ट्र में भी नागरिक पूरे सम्मान से रामकथा आज तक सहेजे हैं और उसको पढ़ते हैं।               इसके साथ ही यह भी सही है कि इन विभिन्न रामकथाओं के कथानकों में पर्याप्त भिन्नता है। कहीं सीता रावण की पुत्री हैं तो कहीं दशरथ की पुत्री भी हैं। कहीं अंत में सीता का भूमि प्रवेश है तो कहीं राम के पास वापसी भी है। बौद्ध जातकों में भी रामकथा प्राप्त है। इनमें बुद्ध बताते हैं कि वही पूर्व जन्म में श्रीराम के रूप में अवतरित हुए थे। बौद्ध मत से प्रभावित कई रामकथाओं में हिंसा से बचने का प्रयास किया गया है। इनमें राम रावण का वध न कर मात्र दंड देकर छोड़ देते हैं। इसी प्रकार जैन-मत से प्रभावित रामकथाएँ भी उपलब्ध हैं। इन रामकथाओं में अनेक कथाएँ ऐसी भी हैं जो तुलसी की रामकथा पढ़ते-सुनते बड़े हुये हम लोगों के लिये नितांत अग्राह्य हैं। इन कथाओं के अनेक प्रसंग हममें से बहुत से आस्थावान लोगों को उत्तेजित भी कर सकते हैं।
विश्व में कुल कितनी रामकथाएँ प्रचलित हैं इसकी गणना संभव नहीं है। विश्व में क्या भारत में ही कुल कितनी रामकथाएँ लिखी गयी हैं इसकी ही गणना संभव नहीं है। प्रामाणिक रूप से बस इतना ही कहा जा सकता है कि इन समस्त रामकथाओं में सर्वप्रथम महर्षि वाल्मीकि प्रणीत ‘रामायण' ही है। बाद की समस्त कथाओं में, भले ही रचनाकारों ने उनमें अपनी कल्पना की उड़ान से अनेक परिवर्तन कर दिये हों, मूल तत्व वाल्मीकि रामायण से ही लिये गये हैं। स्वतंत्र रामकथाओं के अतिरिक्त हमारे पौराणिक ग्रंथों में भी स्थान-स्थान पर रामकथाएँ बिखरी हुयी हैं। वाल्मीकि के बाद की रामकथाओं में संभवत: सर्वाधिक प्राचीन और प्रसिद्ध भी, महर्षि कंबन की तमिल रामकथा है। रामकथा में परिष्कार का प्रयास भी यहीं से आरंभ हो गया। कंबन ने अपनी कथा में कई परिवर्तन किये किन्तु मेरी समझ में उनमें सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन रावण के चरित्र में है। कंबन का रावण अत्यंत उदात्त चरित्र है। उसकी प्रजा उससे प्यार करती है। कंबन से तुलसी तक आते-आते रावण विद्वान तो रह गया किन्तु उसके व्यक्तित्व के उदात्त गुणों का ह्रास होता चला गया। तुलसी के राम वाल्मीकि के राम की तरह मानव नहीं रहे, वे विराट् ब्रह्म का अवतार हो गये। वे मात्र कथा के नायक नहीं तुलसी के आराध्य भी हैं। स्वाभाविक है कि आराध्य के चरित्र का चित्रण भक्त भक्तिभाव से ही करेगा। ऐसे में नायक के चरित्र को उठाने के लिये खलनायक के चरित्र को गिराना अपरिहार्य हो जाता है। वही हुआ भी। तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में स्थापित हुए। इस्लाम के वर्चस्व से आक्रांत हिन्दुत्व ने तुलसी के राम में अपना उद्धारक खोजने का प्रयास किया और मर्यादा पुरुषोत्तम राम भारत के जन-जन के आराध्य बन गये। ... और तब से आज तक रावण प्रतिवर्ष, हर गाँव-गली में तिरस्कारपूर्ण दहन का दंश झेल रहा है।[adinserter block="1"]
रामकथा से इतर रावणकथा लिखने का प्रथम प्रयास संभवत: आचार्य चतुरसेन द्वारा प्रसिद्ध कृति ‘वयं रक्षाम:' के माध्यम से हुआ। वयं रक्षाम: महत्वपूर्ण इसीलिये है कि समूचे इतिहास में पहली बार समस्त घटनाक्रम को रावण के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया गया। तुलसी ने जहाँ जनमानस तक पहुँचने के लिये भक्ति को आधार बनाया वहीं आचार्य चतुरसेन ने ज्ञान और विद्वता को। कालांतर में सामी जी ने अपनी पुस्तक ‘लंकेश्वर' के साथ यही प्रयास किया।               इस क्रम में आनंद नीलकंठन ने सराहनीय प्रयास किया। उनकी ‘असुर-पराजितों की गाथा' अपने आप में तथ्यपूर्ण और तर्कपूर्ण ढंग से रावण के चरित्र का प्रतिपादन करती है। इन तीन के अतिरिक्त रावण के दृष्टिकोण से लिखित अन्य कोई रामकथा कम से कम मेरे संज्ञान में नहीं आयी।
आधुनिक युग में रामकथा के क्षेत्र में सबसे सफल और सबसे मान्य कार्य नरेन्द्र कोहली का रहा है। उनकी नौ खंडों में आई रामकथा खूब पढ़ी और सराही गयी। उन्होंने पूरे कथानक को एक भिन्न दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया। नरेन्द्र कोहली के राम, वाल्मीकि के राम के समान ही, ब्रह्म नहीं महामानव हैं।
अमीश त्रिवेदी, आनंद नीलकंठन और बैंकर ने रामकथा में भी अपने हाथ आजमाये। आनंद नीलकंठन का जिक्र पहले ही कर चुका हूँ। अमीश त्रिवेदी और बैंकर हाइटेक लेखक हैं। ये विषयों में बहुत गहरे तो नहीं उतरे किन्तु इनकी सोच हाइटेक के साथ-साथ परंपरागत आध्यात्मिक पूर्वाग्रहों से भी मुक्त है।
मेरे इस कथानक का आधार निश्चित ही वाल्मीकि रामायण है। सबसे प्राचीन होने के नाते उसे ही सर्वाधिक प्रामाणिक माना भी जाना चाहिये। दूसरे वाल्मीकि के राम महामानव तो हैं किन्तु स्वयं ब्रह्म नहीं हैं। वाल्मीकि रामायण को आधार रूप में ग्रहण करने में बस एक ही समस्या का सामना करना पड़ा और वह थी - सम्पूर्ण कथानक में से प्रक्षिप्त अंशों को छानने की। फिर भी पूर्व कथाओं को आकार देने के लिये बहुत हद तक मैं इन्हीं प्रक्षिप्त खंडों पर आश्रित रहा हूँ। कारण स्पष्ट है - मूल कथा में तो वे कथाएँ हैं ही नहीं।
हाँ! इस कथानक के लेखन में मुझे सर्वाधिक जिस प्रश्न ने परेशान किया, वह था कि इसकी भाषा क्या रखी जाय? संस्कृतनिष्ठ या आम बोलचाल की। अंत में मुझे यही उचित लगा कि कथा में आये विद्वत-वर्ग की भाषा तो उनकी गरिमा के अनुरूप ही होनी चाहिये। उनके संवादों में देशज और विदेशी शब्दों से यथासम्भव परहेज रखने का प्रयास किया है। फिर भी यह प्रयास रहा है कि भाषा सामान्य पाठक के लिये दुरूह न हो जाए। शेष कथा की भाषा को सहज रखने का ही प्रयास किया है।             
- सुलभ अग्निहोत्री
मो. - 9839610807
[adinserter block="1"]

कथासार

मेरी इस राम-रावण कथा में रावण विलेन नहीं है। यह दो संस्कृतियों का टकराव है। सारी योजना के सूत्रधार, इन्द्र के हितचिंतक नारद हैं और उनके सहयोगी देवगण व ऋषि समुदाय। योजना की जानकारी दशरथ की तीनों रानियों और मंथरा को भी है।
कथानक का आरंभ चपला नाम की एक किशोरी के रावण के मातामह (नाना) सुमाली से टकराव से होता है। यही चपला भविष्य की मंथरा है। सुमाली वस्तुत: विष्णु द्वारा जान बचा कर भाग रहा है। बीच में वह चपला के उद्यान में अपने बचे-खुचे लोगों के साथ शरण ले लेता है।
पूरे कथानक में मुख्यत: समानान्तर तीन कथाएँ चल रही हैं। पहली सुमाली और फिर रावण की कथा है। दूसरी देवों की रावण से निपटने के लिए किए जा रहे प्रयासों की कथा है और तीसरी दशरथ की कथा है। इन्ही में गुंथी हुई दो कथाएँ और चलती हैं। पहली कथा गौतम-अहल्या, आरुणि-इन्द्र-सूर्य-बालि-सुग्रीव, केसरी-अंजना-हनुमान के अंतर्सम्बन्धों की कथा है और दूसरी उस काल के आम आदमी को दर्शाने के लिए गढ़ी गयी पूरी तरह से काल्पनिक मंगला की कथा है।
सुमाली की कथा में क्रमश: विष्णु द्वारा पराजित सुमाली का पलायन, अज्ञातवास, अपनी पुत्री कैकसी को विश्रवा से विवाह के लिए पे्ररित करना, रावणादि का जन्म, उनकी तपस्या और रावण द्वारा वरदान प्राप्त करना, विश्रवा के परामर्श के अनुसार कुबेर द्वारा रावण के लिए लंका छोड़कर अलकापुरी बसाना, सुमाली द्वारा कूटनीति से रावण और कुबेर के मध्य युद्ध की स्थिति उत्पन्न करना, रावण द्वारा अलका पर विजय प्राप्त करना और पुष्पक छीन लेना, कैलाश पर शिव से भेंट, शिव द्वारा रावण का मानमर्दन और रावण द्वारा उनकी शरण ग्रहण करना, वापसी में रावण द्वारा स्वयं जंगल में रुककर सुमाली आदि को लंका वापस भेज देना और एक वर्ष बाद वापस आने को कहना, वेदवती से रावण की भेंट, दोनों में प्रणय, सीता का जन्म, वेदवती द्वारा अग्निप्रवेश, और सीता जनक को मिल जाने की कथा है। इसी में बीच में रावणादि के विवाह, मेघनाद का जन्म और चन्द्रनखा-विद्युज्जिव्ह का प्रसंग भी शामिल है।[adinserter block="1"]
दूसरी कथा रावणादि द्वारा ब्रह्मा का आशीष प्राप्त कर लेने से चिंताग्रस्त देवों की कथा है। एक बार सुमाली के हाथों स्वर्ग गँवा चुके इन्द्र समझते हैं कि इस सब के पीछे सुमाली की कूटनीति काम कर रही है और ब्रह्मा की छत्रछाया में रावण फिर कभी भी उनसे स्वर्ग छीन सकता है। नारद; जिस प्रकार सुमाली ने दीर्घकालीन योजना पर काम कर पुन: वैभव प्राप्त किया उसी प्रकार इन्द्र को भी रावण को परास्त करने के लिए दीर्घकालीन योजना पर काम करने को कहते हैं। वे बताते हैं कि निकट भविष्य में दशरथ के पुत्ररूप में राम का जन्म होगा जो रक्षों का समूल नाश करेगा। किन्तु राम इस कार्य में सक्षम हो सकें इसके लिए पूरी तैयारी देवों को करके देनी होगी। इसी सलाह के अनुरूप देवों द्वारा अगस्त्य के नेतृत्व में दक्षिणांचल में वनवासियों के लिए गुरुकुलों की स्थापना कर उन्हें तैयार करना आरंभ कर दिया जाता है। दूसरी ओर नारद समझते हैं कि राम रावण को परास्त कर सकें इसके लिए उनका वनगमन आवश्यक होगा। भीरु दशरथ राम को किसी भी हालत में एकाकी रावण से युद्ध के लिए जाने नहीं देंगे। इसके लिए वे कैकेयी को विश्वास में लेकर भूमिका बनाने लगते हैं।
तीसरी कथा उद्धत युवा दशरथ के राजा बनने, श्रवण कुमार वाली दुर्घटना, क्रमश: दशरथ का कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा से विवाह, तीन सौ से ऊपर उप-पत्नियाँ बनाना, राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का जन्म, और उनके बचपन की कथा है। इसी कथा में गुंथी हुई महाराज अश्वपति द्वारा अविवेकी पत्नी का त्याग, और बालिका कैकेयी को मंथरा (पूर्व में चपला) के संरक्षकत्व में सौंपना, कैकेयी के बचपन के प्रसंग भी शामिल हैं। तीनों रानियों के आपसी संबंध और उनके दशरथ से संबंधों को भी उभारने का प्रयास किया गया है।
वाल्मीकि रामायण में दशरथ के मंत्री के रूप में जाबालि का चित्रण किया गया है जो बहुत कुछ चार्वाक दर्शन से प्रभावित है। वाल्मीकि रामायण में दशरथ के मंत्रियों में वही एक कुछ स्थानों पर मुखर होकर सामने आता है। मैंने महामात्य के रूप में उसे रूपायित कर उसके चरित्र को विस्तार दिया है। जाबालि के साथ शंबूक की कथा भी जुड़ती है और जाबालि उसे शिष्य रूप में ग्रहण करते हैं।
कथानक के प्रथम खण्ड का समापन सीता के जन्म से होता है। सुमाली रावण को समझा बुझा कर सीता को ले जाकर उस भूखंड में सुरक्षित आरोपित करता कि वह तुरंत जनक को प्राप्त हो जाए जहाँ कुछ ही देर में जनक पत्नी सहित हल चलाने वाले होते हैं। हाँ, सीता रावण और वेदवती की पुत्री हैं। वाल्मीकि रामायण में सीता रावण द्वारा बलत्कृत वेदवती का अगला जन्म हैं।
घटनाओं के लिए मैंने आधार रूप में वाल्मीकि रामायण को ही लिया है। इसलिए कई स्थानों पर हमारी मान्यताओं को बात खटक भी सकती है। जैसे दशरथ का चरित्र। वाल्मीकि रामायण के अनुसार दशरथ की ३५० उप पत्नियाँ हैं। जब विश्वामित्र यज्ञ रक्षा हेतु राम को दशरथ से माँगते हैं तो दशरथ स्पष्ट रूप रावण से भयभीत दिखाई पड़ते हैं। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि वे स्वयं समस्त सेना के साथ जाकर भी खर और दूषण में से किसी एक से युद्ध कर सकते हैं, रावण से युद्ध की तो बात ही नहीं उत्पन्न होती। वाल्मीकीय रामायण में एक राम को छोड़ कर प्राय: सभी पात्र, यहाँ तक कि सीता भी कहीं न कहीं दशरथ के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हैं।        
      इसी प्रकार वाल्मीकीय रामायण के अनुसार इन्द्र-अहल्या प्रकरण में अहल्या ने इन्द्र को पहचानते हुए स्वेच्छा से उससे रमण किया था। पूरे कथानक में मेरा प्रयास सभी पात्रों के साथ न्याय करने का है। नायक के चरित्र को उठाने के लिए खलनायक का चरित्र हनन मुझे श्लाघ्य नहीं रहा।
इस प्रथम खंड को एक प्रकार से परिचय खंड भी कहा जा सकता है। रामायण के पात्रों का परिचय इस खंड में आप पायेंगे। यह परिचय उससे कहीं अधिक है जितने से प्राय: हम लोग परिचित हैं। जैसे मैंने रावण के वंश को सुमाली से आरंभ किया है। किन्तु साथ ही सरसरी जानकारी ‘रक्ष-संस्कृति' के प्रणेताओं - हेति-प्रहेति से आरंभ की है। इसी प्रकार दशरथ के तीनों विवाहों और उनकी उप-पत्नियों को भी रेखांकित करने का प्रयास किया है। बालि सुग्रीव का जन्म, गौतम-अहल्या द्वारा उनका पालन-पोषण और अंत में वानरराज ऋक्षराज के दत्तक पुत्र बनने के घटनाक्रम को और इसी प्रकार केसरी-अंजना के विवाह और फिर हनुमान जन्म की कथा को भी तर्कसम्मत रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसी प्रकार रावण-वेदवती के प्रणय और उससे सीता के जन्म को भी रेखांकित किया है। सीता के जन्म के साथ ही यह परिचय-खंड विराम प्राप्त करता है।
- सुलभ अग्निहोत्री
[adinserter block="1"]

अनुक्रम

1.चपला
2. रक्ष-संस्कृति
3. दशरथ
4. अश्वपति
5. आखेट
6. कौशल्या से विवाह
7. सुमाली की दूरदृष्टि
8. कुम्भकर्ण का अभ्यास
9. आरुणि
10. कौशल्या का प्रस्ताव
11. गौतम-अहल्या
12. कैकेयी
13. केसरी
14. उप-पत्नियों के आवास में
15. गौतम का प्रस्ताव
16. देवेन्द्र का आग्रह
17. ब्रह्मा का आगमन
18. युद्ध और वर
19. ब्रह्मा का वरदान
20.कैकेयी का प्रभुत्व
21. लंका प्रस्थान की भूमिका
22. जाबालि का न्याय
23. देव
24. महर्षि अगस्त्य
25. देवराज इन्द्र-नारद संवाद
26. ताड़का की दुर्दशा
27. सुमाली द्वारा रावण का अभिषेक
28. सुमित्रा से विवाह
29. कुबेर के प्रासाद में
30. इन्द्र अहल्या के पास
31. रावण लंकेश्वर
32. गौतम का श्राप
33. रावण-मंदोदरी
34. पुत्रहीन दशरथ
35. लंका की व्यवस्था
36. केसरी पुत्र वज्रांग
37. मंथरा-कैकेयी की चिंता
38. इन्द्र अगस्त्य के आश्रम में
39. सुमाली की तैयारी - 1
40. नारद-दशरथ संवाद
41. बालि-सुग्रीव-बजरंग
42. मंथरा की उत्सुकता
43. सुमाली की तैयारी - 2
44. अंग देश के लिए प्रस्थान
45. मंगला
46. रामजन्म
47. मंगला के भाई का ब्याह
48. सुमाली की कूटनीति
49. सुमित्रा की सीख
50. मेघनाद का जन्म
51. पवन-पुत्र
52. कुबेर का दूत
53.मंगला का वेद से आग्रह
54.कुमारों का बचपन
55. वेद की गुरुदेव से वार्ता
56. कुबेर विजय
57. जाबालि-वशिष्ठ तर्क
58. शिव से भेंट
59. मंगला की चिंता
60.वेदवती से भेंट
61.नारद की प्रतीक्षा
62.सुमाली का ताड़का से सम्पर्क
63.रावण की आसक्ति
64. शम्बूक
65. वेदवती से प्रणय
66. मंगला का पलायन
67. चन्द्रनखा-विद्युज्जिव्ह
68. शम्बूक जाबालि का शिष्य
69. रावण-सुमाली-वेदवती
70. हनुमान
71. सीता का त्याग
[adinserter block="1"]
  1. चपला

‘‘ऐ! कौन हो तुम लोग? क्योंकर प्रविष्ट हुये यहाँ? अविलम्ब बाहर निकलो हमारी आम्रवाटिका से।’’               यह एक पन्द्रह वर्ष की किशोरी थी जो अपनी कमर पर दोनों हाथ रखे क्रोध से चिल्ला रही थी।
क्रोधित होना स्वाभाविक भी था। अनुमानत: सौ-डेढ़ सौ घुड़सवारों के दल ने उसके आम के बाग में डेरा डाल दिया था। स्थान-स्थान पर घोड़े चर रहे थे। कुछ ही बँधे हुए थे, शेष निद्र्वन्द्व खुले घूम रहे थे। सभी के आगे आम की पत्तियों के ढेर लगे थे। अनेक डालियाँ टूटी पड़ी थीं। अनेक लोग वृक्षों पर चढ़े हुये आम तोड़-तोड़ कर नीचे गिरा रहे थे, नीचे खड़ी भीड़ उन आमों को लपक कर ढेर बना रही थी। दूर एक ओर कुछ अधेड़ बैठे आम चूस रहे थे। एक ओर बने बड़े से तालाब में तीस-चालीस लोग स्नान कर रहे थे या जलक्रीड़ा कर रहे थे। उस किशोरी की आवाज पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। सब यथावत अपने काम में लगे रहे। अधेड़ों और तालाब में घुसे लोगों तक तो उसकी आवाज पहुँची भी नहीं होगी।
‘‘सुनाई नहीं दे रहा तुम लोगों को, कुछ कह रही हूँ मैं? दस्यु कहीं के! तनिक सा वाटिका को जनशून्य देखा कि अतिक्रमण कर प्रविष्ट हो गये, सत्यानाश करने।’’
इस बार उसकी आवाज और तेज थी। आस-पास के कुछ लोगों ने उसकी ओर देखा किन्तु कोई ध्यान नहीं दिया। उसका क्रोध इस अवहेलना पूर्ण व्यवहार से और बढ़ गया। वह आगे बढ़ी और सबसे निकट के झुण्ड में खड़े एक युवा से आम छीनने का प्रयास करते हुये फिर चिल्लाई -
‘‘ईश्वर ने गजकर्ण बनाया है, फिर भी सुनाई नहीं दे रहा। बधिर हो क्या?’’
उस लड़के के कान हाथी जैसे कदापि नहीं थे। उसने अपना आम वाला हाथ ऊँचा कर लिया और दूसरे हाथ से लड़की को हल्के से परे धकेल दिया। इससे लड़की और आवेश में आ गई उसने भी पलट कर पूरी शक्ति से युवक को धक्का दिया। युवक थोड़ा सा लड़खड़ाया फिर उसने दुबारा धक्का देने को उद्यत लड़की का हाथ पकड़ लिया। अब वह बोला -
‘‘सभ्यता से परिचय नहीं हुआ अभी तक क्या? एक धर दिया तो बत्तीसी बाहर आ जायेगी।’’
‘‘सभ्यता सिखा रहे हो मुझे?’’ उसकी पकड़ से छूटने के लिये दूसरे हाथ से उसकी कलाई को नोचने का प्रयास करती हुयी लड़की बोली- ‘‘सभ्यता से तुम्हारा स्वयं का योजनों (एक योजन बराबर लगभग ग्यारह किमी.) तक कोई संबंध रहा है कभी?’’
‘‘क्या हो रहा है उधर उन्मत्त?’’ दूर बैठे अधेड़ों को इधर की हलचल का शायद कुछ आभास हो गया था। उनमें से एक ने आवाज लगाई।[adinserter block="1"]
‘‘बाबा! यह कोई बालिका अकारण उत्तेजित हो रही है।’’ उस लड़के ने उत्तर दिया।
‘‘धैर्य रखो, मैं आता हूँ।’’ कहता हुआ वह उठा और इधर की ओर बढ़ चला। दो अधेड़ और भी उसके साथ हो लिये।
‘‘क्या बात है? छोड़ो उसे उन्मत्त!’’ अधेड़ ने निकट आते हुये कहा।
‘‘बाबा यह अकारण धक्के दे रही है, नोच रही है, काट रही है।’’ अपनी कलाई अधेड़ के सामने करते हुये उसने कहा।
‘‘क्या बात है बेटी, क्या हम लोग सौहार्दपूर्वक वार्ता नहीं कर सकते?’’ अधेड़ लड़की से सम्बोधित हुआ।
‘‘सभ्य व्यक्तियों के साथ ही सौहार्द से वार्ता संभव होती है। दस्युओं के साथ तो दस्युओं जैसा ही व्यवहार होना चाहिये।’’
‘‘छोड़ो, इस पर विवाद नहीं करता मैं, अपनी समस्या बताओ तुम।’’
‘‘आप सभी अविलम्ब मेरी वाटिका से बाहर निकल जाइये।’’
‘‘वह हम नहीं कर सकते पुत्री। हमारी विवशता है।’’
‘‘कैसी विवशता है। हृष्ट-पुष्ट तो हैं सब लोग। अपने अश्व सँभालिये और निकल जाइये यहाँ से।’’ लड़की के तेवरों में कोई अन्तर नहीं आया था, बस अपने से वयस में बहुत बड़े व्यक्ति को सम्मुख देख कर ‘तुम’ के स्थान पर ‘आप’ का प्रयोग करने लगी थी।
‘‘ऐसा नहीं है। हममें से अधिकांश न्यूनाधिक आहत हैं। तुम देख ही रही होगी कि मैं भी आहत हूँ।’’ पुन: बीच में कुछ बोलने को उद्यत लड़की को हाथ उठाकर रोकते हुये वह आगे बोला - ‘‘हम सब दो दिन से निरन्तर भाग रहे हैं, भोजन भी नहीं प्राप्त हुआ है इस काल में। अब आगे बढ़ने की न तो हमारी क्षमता है और न ही अश्वों की। हाँ कुछ प्रहर विश्राम कर साँझ तक हम यहाँ से स्वत: चले जायेंगे।’’
‘‘आप थके हैं या आहत हैं इससे आपको दस्युकर्म का अधिकार नहीं मिल जाता।’’
‘‘पुत्री, उक्ति है- ‘‘आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति!’’ फिर भी हम पूरी मर्यादा में रहने का प्रयास कर रहे हैं।’’
‘‘वाह! क्या मर्यादा है, सारी वाटिका का विध्वंस कर दिया। साँझ तक रुके तो जो बचा है वह भी विनष्ट हो जायेगा। आपको ज्ञात है, यही आम्र-वाटिका हमारी वर्ष-पर्यंत की जीविका का आधार है। अब क्या करेंगे हम?’’
‘‘तुम्हारी जो भी क्षति हुई है उसकी क्षतिपूर्ति के लिये सहर्ष तत्पर हैं हम।’’
‘‘मुझे क्षतिपूर्ति नहीं चाहिये। मुझे बस अपनी वाटिका में आप लोगों की उपस्थिति सह्य नहीं है।’’
‘‘भूखे को भोजन खिलाना तो तुम आर्यों में सबसे बड़े पुण्य का कार्य माना गया है। फिर हम तो तुम्हें पूरी क्षतिपूर्ति देने को तत्पर हैं।’’[adinserter block="1"]
‘‘तुम आर्यों में?’’ ओह इसका तात्पर्य है आप लोग अनार्य हैं! मैं तो सोच रही थी कि आर्य जाति इतनी जंगली कैसे हो गयी।’’
‘‘अब तुम अपनी सीमा का अतिक्रमण कर रही हो।’’ अधेड़ कुछ ऊँची आवाज में बोला।
‘‘अनार्यों के लिये मेरी कोई सीमा नहीं है। वैसे कौन हैं आप?’’
‘‘हम रक्ष हैं!’’
‘‘भाई माल्यवान आप विश्राम कीजिये जाकर, आप अधिक आहत हैं। मैं निपटता हूँ इससे।’’ अब तक शांत खड़े दूसरे अधेड़ ने उस व्यक्ति को बाँह पकड़ कर जाने का इशारा करते हुये कहा। फिर वहीं खड़े अपेक्षाकृत युवा से सम्बोधित हुआ - ‘‘वज्रमुष्टि ले जाओ इन्हें यहाँ से।’’
‘‘सुमाली! धैर्य से काम लेना।’’ पहले अधेड़ माल्यवान ने दूसरे अधेड़ सुमाली की बात मानकर जाते हुये कहा।
‘‘जी निश्चिंत रहिये।’’
‘‘मेरी बात सुन रहे हैं या नहीं?’’ लड़की पुन: चिल्लाई
‘‘सुन भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं किन्तु हमारी विवशता है कि उसे स्वीकार करना संभव नहीं है।’’ सुमाली ने पूरी गंभीरता से नम्र किन्तु दृढ़ स्वर में कहा।
‘‘क्यों?’’
‘‘हम तुम्हारा अधिकार स्वीकार करते हैं, इस नाते हम तुम्हें क्षतिपूर्ति देने को तत्पर हैं किन्तु सूर्यास्त से पूर्व हम यहाँ से जा नहीं सकते।’’
‘‘कितना हठ! कितनी उद्दंडता! कैकय राज्य में ऐसी उद्दंडता के लिये स्थान कदापि नहीं है।’’
‘‘अभी तो हमारी यह उद्दंडता चलेगी। हमारी विवशता है।’’ सुमाली का स्वर पूर्ववत था।
‘‘कैसे चलेगी। मैं अभी राज्याधिकारी को सूचित करती हूँ जाकर।’’
‘‘तुम कहीं नहीं जाओगी। वैसे हमें तुम्हारे राज्याधिकारी का भय नहीं है और स्वयं अश्वपति इतनी शीघ्र आ नहीं सकते। सूर्यास्त के उपरांत कोई हमारी धूल तक नहीं खोज पायेगा।’’
‘‘आप रोकेंगे मुझे?’’
‘‘विवशता है, समझने का प्रयास करो। शांति से बैठो, अपनी क्षतिपूर्ति लो, सायंकाल हम स्वयं चले जायेंगे।’’
‘‘आप मेरे साथ बल प्रयोग करेंगे, एक निपट अकेली लड़की के साथ?’’
‘‘यदि तुमने वैसी स्थिति उत्पन्न कर दी तो करना ही पड़ेगा।’’ यह आवाज एक घुड़सवार की थी जो भीड़ लगी देख कर इधर आ गया था। ‘‘क्या हुआ है सम्पाती?’’ उसने भीड़ में खड़े एक युवक से पूछा।
‘‘कुछ नहीं भाई! यह लड़की पितृव्यों (पिता के भाई) से अनर्गल विवाद किये पड़ी है। कहती है अभी वाटिका से बहिष्कृत हो जाओ।’’[adinserter block="1"]
‘‘करो बल प्रयोग। मैं भी तो देखूँ कितने महान योद्धा हो तुम। आर्य कन्याओं से अभी पाला पड़ा नहीं है।’’ लड़की ने अब अपनी कमर में खुँसी कटार निकाल ली थी।
‘‘कटार की आवश्यकता नहीं है बेटी। हम तुम्हें कोई क्षति नहीं पहुँचायेंगे।’’
‘‘मत कहो मुझे बेटी। मुझे अनार्यों से कोई संबंध जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। न ही उनकी सहानुभूति की आवश्यकता है।’’
‘‘पिता आप चलिये। ये देव और आर्य स्वभावत: ही दम्भी होते हैं। इन्हें सभ्यता की भाषा समझ नहीं आती।’’
‘‘नहीं अकम्पन। तुम क्रोधी हो। तुम विवाद और बढ़ा दोगे।’’
‘‘नहीं पिता! मैं संयम ... आह!’’ उसका वाक्य बीच में ही रह गया।
लड़की ने ‘‘कर बलप्रयोग’’ कहते हुये उस पर कटार से वार कर दिया था। कटार अकम्पन की जाँघ में घुस गयी थी। तभी वहाँ खड़े दूसरे लड़के ने पीछे से लड़की के बाल पकड़ कर, उसे खींच लिया और एक जोरदार तमाचा रसीद किया। वार पूरी ताकत से किया गया था। लड़की चक्कर खाकर जमीन पर जा गिरी।
‘‘नहीं दण्ड!’’ उस लड़के को रोकते हुये सुमाली लपक कर लड़की को उठाने को बढ़ा पर लड़की ने उससे पहले ही उठकर कटार वाला हाथ घुमा दिया। इस बार कटार सुमाली की बाँह से छूते हुये निकल गयी। सुमाली ने बढ़ कर उसका कटार वाला हाथ पकड़ना चाहा पर वह फिर हाथ घुमा चुकी थी। सुमाली का हाथ बीच में आ जाने से वार चूक गया और घोड़े से उतरने के लिये झुके हुये अकम्पन की छाती की बजाय घोड़े की गर्दन में लगा। घोड़ा गर्दन को झटका देता हुआ एकदम अगले दोनों पैर उठा कर खड़ा हो गया। उसकी गर्दन के झटके से लड़की पलट कर गिर पड़ी। हठाथ उसके दोनों हाथ जमीन पर आये। पीछे से नीचे आते घोड़े के दोनों पैर उसकी पीठ पर पड़े। लड़की की एक तेज चीख गूँज गयी। झटके से उसका सिर नीचे आया और उसके हाथ में थमी कटार उसके ही चेहरे में धँस गयी।
जब तक कोई समझे-समझे पलक झपकते यह सब हो गया। अकम्पन ने तत्परता से घोड़े को पीछे खींच लिया था पर फिर भी उसकी एक टांग लड़की की जांघ पर पड़ गयी थी।
सुमाली ने झपट कर लड़की को सँभालने का प्रयास किया। उसकी आँखें मुँद रहीं थीं। उसके मुँह से अस्फुट शब्द निकले - ‘‘अगर चपला जीवित बची तो तुम राक्षसों को निर्मूल करने में अपना जीवन दाँव पर लगा देगी।’’ इसके साथ ही उसकी आँखें मुँद गयीं।
अकम्पन घोड़े से नीचे आ गया था।
‘‘सम्पाती अश्व का घाव देखो!’’ कहते हुये उसने झपटकर लड़की को उठाया और जिधर माल्यवान आदि बैठे थे उधर बढ़ चला।
‘‘पता नहीं क्यों इन आर्यों के मन-मस्तिष्क में इतना विष घुला है!’’ कहता हुआ सुमाली उसके पीछे चल दिया।[adinserter block="1"]
  1. रक्ष-संस्कृति

माल्यवान और सुमाली रक्ष संस्कृति के प्रणेता हेति और प्रहेति के प्रपौत्र थे।
दो भाइयों में जब मनमुटाव होता है और वे अलग होते हैं तो परस्पर सबसे बड़े शत्रु बन जाते हैं। विवाद का विषय प्राय: एक ही होता है कि दूसरे ने मेरा हक मार लिया। यही झगड़ा देवों और दैत्यों में भी रहा। परिणामस्वरूप एक ही पिता, महर्षि कश्यप, की संतान होते हुये भी दोनों सत्ता के दो विपरीत धु्रव बन गये। दोनों के पिता अवश्य एक थे किन्तु माताएँ अलग-अलग थीं। देव अदिति के पुत्र थे और दैत्य दिति के। इस प्रकार दोनों सौतेले भाई थे और सौतेले भाइयों का झगड़ा तो हमारे इतिहास में आम बात है।
रक्ष संस्कृति का प्रादुर्भाव यक्ष संस्कृति के साथ एक ही समय में एक ही स्थान पर हुआ था। पर कालांतर में उनमें बड़ी दूरियाँ आ गयीं। यक्षों की देवों से मित्रता हो गयी और रक्षों की शत्रुता। देव, रक्ष या दैत्य आर्यों से कोई भिन्न जाति हों ऐसा नहीं था किन्तु आर्य क्योंकि देवों के समर्थक थे (पिछलग्गू शब्द प्रयोग नहीं कर रहा मैं) इसलिये उन्होंने देव विरोधी सभी शक्तियों को त्याज्य मान लिया। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कालांतर में इस्लाम स्वीकर कर लेने वालों को हिन्दुओं ने पूर्णत: त्याज्य मान लिया। वस्तुत: ये सब आर्य संस्कृति के अंदर ही उपसंस्कृतियाँ थीं फिर भी आर्य और देव इन्हें हेय मानते थे और ये सब अपनी महत्ता स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील रहते थे। इसी के चलते संघर्ष उत्पन्न होता था। आर्य दैत्यों और रक्षों को एक ही पलड़े पर रखते थे और दोनों से समान रूप से घृणा करते थे।
यह सत्ता का संघर्ष था। समर्थक शक्तियों से देवों को कोई भय नहीं था। पूरे पौराणिक इतिहास में एक-या दो ही ऐसे किस्से हैं जब किसी आर्य नृप ने देवों की सत्ता को चुनौती दी हो या देवेन्द्र के सिंहासन पर दावा किया हो किन्तु दैत्य और बाद में रक्ष इसके लिये सदैव प्रयत्नशील बने ही रहे। किसी भी शक्तिशाली दैत्य या रक्ष की पहली महत्वाकांक्षा देवेन्द्र को पद-च्युत करना ही होती थी।
देव स्वयं में कोई बहुत बड़ी महाशक्ति हों ऐसा नहीं था किन्तु उस समय की तीनो महाशक्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश देवों से आन्तरिक सहानुभूति रखते थे। दैत्य भी हालांकि देवों के सौतेले भाई ही थे, इस कारण इन तीनों महाशक्तियों को दोनों पक्षों के साथ समभाव रखना चाहिये था पर हकीकत में ऐसा नहीं था। इन तीनों में यद्यपि ब्रह्मा और शिव प्रयास करते थे कि उन पर खुले रूप में पक्षपात का आरोप स्थापित न हो पाये और देवों के साथ सहानुभूति होते हुये भी व्यावहारिक तुला समतल पर ही स्थित रहे। इन दोनों के विपरीत विष्णु खुल कर देवों के पक्ष में खड़े हो जाते थे। इसका कारण भी था। देवराज इन्द्र उनके बड़े भाई थे। बड़े भाई के पक्ष में खड़ा होना स्वाभाविक प्रवृत्ति है। देव पराक्रमी थे किन्तु अजेय नहीं थे। दैत्यों ने उन्हें बार-बार पराजित किया किन्तु विष्णु का सहयोग मिल जाने से वे अक्सर हार कर भी जीत जाते थे। अनेक उदाहरण हैं इसके। और यह तो स्थापित सत्य है कि इतिहास विजेता की कलम से ही लिखा जाता है। विजेता की ही प्रशस्ति गाता है। पराजित को वह खलनायक (हो या न हो) के तौर पर ही दर्ज करता है।
माल्यवान आदि इन तीनों भाइयों के किस्से में भी यही हुआ था।[adinserter block="1"]
माल्यवान, सुमाली और माली बल-पौरुष में बहुत बढ़े-चढ़े थे।
अद्भुत लंका नगरी इन्होंने ही बसायी थी। बाद में इन्होंने इन्द्र को परास्त कर स्वर्ग पर भी अधिकार कर लिया था।
पराजित इन्द्र, अन्य देवताओं के साथ सहायता की प्रार्थना करने शिव के पास कैलाश पहुँचा किन्तु शिव ने यह कहते हुये इनकार कर दिया कि - ये तीनों मेरे प्रगाढ़ मित्र सुकेश के पुत्र हैं। इनके विरुद्ध मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता।
इस पर इन्द्र विष्णु के पास सहायता माँगने पहुँचा। विष्णु ने क्षीर सागर (अन्य अनेक पौराणिक स्थलों की भाँति ही क्षीर-सागर की स्थिति के विषय में भी विद्वान अभी तक कोई निश्चित धारणा नहीं बना पाये हैं।) के चारों ओर अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया था।
पौराणिक इतिहास में विष्णु की ख्याति सबसे बड़े कूटनीतिज्ञ की है। आवश्यकतानुसार वे साम-दाम-दंड-भेद सभी विधियों का प्रयोग करने में अति कुशल थे। उनका सिद्धांत था कि बड़े उद्देश्य के लिये छोटे सिद्धांतों का त्याग भी करना पड़े तो बेहिचक कर देना चाहिये। इन्हीं विशेषताओं के चलते वे सदैव इन्द्र के संकटमोचन बन कर उभरे। उन्हें कभी पराजय का स्वाद नहीं चखना पड़ा। इन्हीं समरूप विशिष्टताओं के चलते कालांतर में कृष्ण को पूर्ण विष्णु की उपाधि से सम्मानित किया गया।
विष्णु के सामने माल्वान, सुमाली और माली नहीं टिक पाये। इनकी सारी सेना विष्णु ने नष्ट कर दी थी। सबसे छोटा भाई माली भी रण में खेत रहा था।
इस समय ये बचे-खुचे थोड़े से लोग जान बचाते हुये वापस लंका की ओर भाग रहे थे। विष्णु का सैन्य इनका पीछा कर रहा था इस कारण ये दिन में सघन वनों-बागों आदि में छुपे रहते थे और रात्रि में जितना संभव हो सके दूर निकल जाने का प्रयास करते थे। पिछले दो दिनों से इन्हें कोई सही आश्रय नहीं मिला था और विष्णु का सैन्य पीछे था ही इसलिये ये बिना रुके दो दिन और दो रात भागते ही रहे थे, बस एक जंगल में एक प्रहर का विश्राम अवश्य किया था। पर उस जंगल में भी खाने लायक कुछ नहीं मिला था।
चपला, अचेत होने से पूर्व उसने अपना जो नाम लिया था, के असहयोगपूर्ण व्यवहार ने माल्यवान और सुमाली दोनों को ही चिंता में डाल दिया था। उन्हें आभास हो रहा था कि सागर तक नहीं तो कम से कम विन्ध्याचल तक तो अवश्य ही उन्हें ऐसे ही शत्रुतापूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है।[adinserter block="1"]
उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि भले ही उनकी संस्कृति रक्ष है तो भी आर्य तो वे भी हैं, फिर इन आर्यों के मन में उनके लिये ऐसा विकट, अतार्किक द्वेष क्यों है? क्या बिगाड़ा है उन्होंने इन आर्यों का। उन्होंने तो देवराज पर आक्रमण किया था, इस आर्यभूमि के किसी सम्राट से तो उनका कोई विवाद था ही नहीं। ठीक यही स्थिति पूर्व में दैत्यों की थी।
माल्यवान और सुमाली दोनों ही अपना विश्राम और भोजन भूल कर चपला के उपचार में लग गये थे। चोट गंभीर थी। यदि अविलम्ब उपचार न मिला तो यह जीवन भर उठने-बैठने लायक नहीं रहेगी। पूर्ण पक्षाघात का शिकार भी हो सकती है। भाग्य से उपचार की कुछ सामग्री उनके साथ थी। वाटिका में भी तलाश करने से भी कुछ बूटियाँ मिल गयी थीं। बस्ती में जाना दुस्साहस सिद्ध हो सकता था, अगर किसी भी प्रकार से विष्णु के किसी व्यक्ति के संज्ञान में उनकी यहाँ उपस्थिति आ गयी तो अनिष्टकारी हो सकता था। चपला के चेहरे पर कटार से हुआ घाव गंभीर था। जबड़ा चटक गया था। दाहिने जबड़े से लेकर आँख के नीचे की हड्डी तक बुरी तरह से कट गया था। उसका उपचार कर दिया गया था पर उन्हें लग रहा था कि चेहरा सदैव के लिये कुरूप तो हो ही जायेगा। ठोढ़ी टेढ़ी हो जायेगी, एक आँख पर भी असर पड़ने की संभावना है। जाँघ के दोनों ओर खपच्चियाँ रख कर औषधि लगाकर बाँध दिया गया था। अभी बच्ची है अस्थि आसानी से जुड़ जायेगी यद्यपि चाल में लंगड़ाहट रह सकती है। सबसे बुरी चोट पीठ में थी। अश्व के पैर पड़ने से रीढ़ की हड्डी के कई संधि स्थल अपने स्थान से हट गये प्रतीत हो रहे थे। माँस पेशियाँ भी फट गयी थीं। जितना संभव था उतनी व्यवस्था उन्होंने कर दी थी पर यह तय था कि इस लड़की की कमर सदैव के लिये टेढ़ी हो जायेगी। यह सीधी खड़ी नहीं हो सकेगी। पर वे क्या कर सकते थे। सारे कांड के लिये लड़की स्वयं उत्तरदायी थी। उनमें से किसी ने भी कोई वार नहीं किया था। ‘काश वह थोड़ी सहिष्णुता का प्रदर्शन कर पाती’ - सुमाली ने सोचा।
साँझ होते होते दो और बालक आ गये थे। वे लड़की की अपेक्षा बहुत सहिष्णु साबित हुये थे। अगर वे भी लड़की जैसे ही निकलते तो लड़की के हित में बहुत घातक हो सकता था पर उन्होंने बिना हाथापाई किये सारी बात सुनी। माल्यवान ने उन्हें सारी घटना के बारे में बताया। जो-जो उपचार कर दिया गया था वह समझा दिया, आगे के लिये आवश्यक निर्देश भी दे दिये।          
    सूरज ढलने तक उन दोनों को रोके रखा गया। फिर सबने अपने-अपने अश्वों पर सवार होकर आगे की यात्रा आरंभ की। सुमाली का बड़ा पुत्र प्रहस्त सबसे बाद में निकला। जब सब आँखों से ओझल होने की कगार पर आ गये तब वह लड़कों से बोला -
‘‘इसे अतिशीघ्र किसी कुशल वैद्य के संरक्षण में ले जाना। एक व्यक्ति जाकर एक चारपाई और कुछ व्यक्तियों को लिवा लाओ। चारपाई पर ही लेकर जाना इसे, सावधानी से, कटि प्रदेश में तनिक सा भी आघात न लगने पाये अन्यथा अत्यंत विषम परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है।’’
इतना कह कर उसने अपने घोड़े को ऐड़ लगा दी। पलक झपकते ही घोड़ा हवा से बातें करने लगा। अब लड़के अगर बस्ती में जाकर उनकी सूचना दे भी देते तो कोई उनकी हवा भी नहीं पा सकता था।
हाँ! क्षतिपूर्ति लेना इन लड़कों ने भी किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया था।
हमने पूर्व पीठिका (राम-रावण कथा खण्ड-एक) pdf | Poorv Pithika (Ram-Ravan Katha Book 1) PDF Book Free में डाउनलोड करने के लिए लिंक नीचे दिया है , जहाँ से आप आसानी से PDF अपने मोबाइल और कंप्यूटर में Save कर सकते है। इस क़िताब का साइज 2.8 MB है और कुल पेजों की संख्या 386 है। इस PDF की भाषा हिंदी है। इस पुस्तक के लेखक   सुलभ अग्निहोत्री / Sulabh Agnihotri   हैं। यह बिलकुल मुफ्त है और आपको इसे डाउनलोड करने के लिए कोई भी चार्ज नहीं देना होगा। यह किताब PDF में अच्छी quality में है जिससे आपको पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। आशा करते है कि आपको हमारी यह कोशिश पसंद आएगी और आप अपने परिवार और दोस्तों के साथ पूर्व पीठिका (राम-रावण कथा खण्ड-एक) pdf | Poorv Pithika (Ram-Ravan Katha Book 1) को जरूर शेयर करेंगे। धन्यवाद।।
Q. पूर्व पीठिका (राम-रावण कथा खण्ड-एक) pdf | Poorv Pithika (Ram-Ravan Katha Book 1) किताब के लेखक कौन है?
Answer.   सुलभ अग्निहोत्री / Sulabh Agnihotri  
Download

_____________________________________________________________________________________________
आप इस किताब को 5 Stars में कितने Star देंगे? कृपया नीचे Rating देकर अपनी पसंद/नापसंदगी ज़ाहिर करें।साथ ही कमेंट करके जरूर बताएँ कि आपको यह किताब कैसी लगी?
Buy Book from Amazon

Other Books of Author:

Leave a Comment