पुस्तक का विवरण (Description of Book of पीली छतरी वाली लड़की / Peeli Chhatri Wali Ladki PDF Download) :-
नाम 📖 | पीली छतरी वाली लड़की / Peeli Chhatri Wali Ladki PDF Download |
लेखक 🖊️ | उदय प्रकाश / Uday Prakash |
आकार | 2.3 MB |
कुल पृष्ठ | 152 |
भाषा | Hindi |
श्रेणी | उपन्यास / Upnyas-Novel |
Download Link 📥 | Working |
पीली छतरी वाली लड़की, उदय प्रकाश का एक हिंदी उपन्यास है। इसमें एक युवक व एक युवती के बीच प्रेम की कहानी पेश की गई है, जिसके रास्ते में जाति व्यवस्था, सामाजिक मूल्य और उपभोक्ता संस्कृति रुकावटें हैं। लेकिन यह उपन्यास उससे कहीं परे तक सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में दख़लंदाज़ी करता है। राहुल के दिल में प्यार आता है और यह प्यार विद्रोह नहीं, लेकिन दो स्तरों पर भीतरघात करता है। पहली बात कि राहुल का मर्दवादी रुख़, जिसका परिचय हमें शुरु में ही उसके कमरे में माधुरी दीक्षित के पोस्टर के प्रकरण से मिलता है, टूट-टूटकर चूर हो जाता है। बाद में दोनों का प्यार मनुवादी मान्यताओं पर आधारित और आज़ादी के बाद भारत की उपभोक्ता संस्कृति में पनपी मान्यताओं को अंदर से तोड़ने लगता है। अंत में पलायन- और यह पलायन भी भीतरघात है, समाज में प्रचलित मान्यताओं को स्पष्ट रूप से ठुकराना है। कहानी के आरंभ में बॉलीवुड है, अंत भी बॉलीवुड की तरह सुखान्त है। लेकिन समूचे विमर्श में बॉलीवूड के विपरीत स्पष्ट तात्पर्य है।
[adinserter block="1"]
पुस्तक का कुछ अंश
यह माधुरी दीक्षित की वही नंगी पीठ थी, जिस पर सलमान खान ने गुलेल से निशाना ताक कर बंटी मारी थी. लचकती हुई कमर और पीठ उस चोट से अचानक रुक गयी थी और माधुरी दीक्षित ने गर्दन मोड़कर पीछे देखा था. उसकी नज़र में कोई पीड़ा नहीं थी. एक नशीली, अपनी पीठ की ओर आमंत्रित करती, उत्सुकता थी. वह आंख माधुरी दीक्षित की नहीं, किसी चौंकी हुई हिरणी की आंख थी. एक ऐसी मूर्ख, मस्त और सनकी हिरणी जो अपने शिकारी के सामने प्यार से खुद अपने आपको परोसा करती है.
राहुल ने ‘स्टारडस्ट’ के सेंटर स्प्रेड में छपे उस चित्र को फेबिकोल से अपने कमरे की खिड़की की कांच पर चिपका दिया था. दरअसल उधर से धूप आती थी और दोपहर, दूसरी मंजिल के उस कमरा नंबर 252 में गर्मी के मारे रहना मुश्किल हो जाता था. अब माधुरी दीक्षित ने दोपहर की उस तेज जलती हुई धूप को हॉस्टल के उस कम रे में आने से रोक दिया था और अपनी खुली, गुलेल की बंटी से चोट खाई पीठ उधर कर दी थी. वह लगातार अपनी मूर्ख, मस्त, सनकी आंखों से राहुल की ओर गर्दन मोड़ कर देख रही थी, जैसे गुलेल से उसकी खूबसूरत लचकती हुई खुली कटावदार पीठ को निशाना राहुल ने बनाया हो.[adinserter block="1"]
यह राहुल के अलावा और कोई नहीं जानता था कि उसने एक दिन कमरा नंबर 252 के भीतर किसी एक गोपनीय, बेहद निजी क्षण में, किस तरह सलमान खान को चुपचाप बाहर निकाल फेंका था और उसकी जगह खुद आ गया था. यह सोचते ही उस का शरीर एक अजीब-सी उत्तेजना और सिहरन से भर उठता कि माधुरी दीक्षित की उस खूबसूरत मांसल पीठ को चोट पहुंचाने वाला वह खुद है. उसी की गुलेल ने सटाक से बंटी मारी और तड़ से बंटी लगते ही माधुरी दीक्षित ने एक ‘उई ..ऽऽ’ की आवाज़ निकाली और ‘स्टारडस्ट’ के उस चित्र में ‘फ्रीज़’ हो गयी.
लड़की चोट खाना बहुत पसंद करती है. वह बिल्ली या गिलहरी नहीं है, जिस की पीठ पर प्यार से, धीरे-धीरे अपनी उंगलियां या हथेलियां फिराओ, उसे संभाल-संभाल कर सहलाओ तो वह गुर्र-गुर्र करती लोटम लोट होगी. लड़की तो वो चीज है, जिसको जितना मारो, जितना कूटो, उसे उतना मज़ा मिलता है.
लड़की तो असल में ताकत और हिंसा को प्यार करती है.
राहुल ने इसीलिए युनिवर्सिटी के जिम में जाना शुरू किया था, जिससे वह सलमान खान की तरह अपनी भुजाओं में मछलियां बना सके. चीते जैसी कमर और तेंदुए जैसा धड़. वह एक चिकने, हिंसक, खूबसूरत, फुर्तीले बनैले जानवर में खुद को ढाल लेना चाहता था. इसके बाद और क्या चाहिए? एक रेनबेन का काला चश्मा, रेंगलर या लेविस की एक जींस पैंट और एक टी शर्ट, नाईके के सॉक्स और वुडलैंड का बढ़िया जूता.[adinserter block="1"]
वह कई बार सोचता, लारा दत्ता, मनप्रीत ब्रार या गुलपनाग को देखकर वह उस तरह क्यों महसूस नहीं करता, जैसा माधुरी दीक्षित को देखकर करता है. जब कि माधुरी दीक्षित उससे उम्र में बहुत बड़ी थी. हाल की एक फिल्म में विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय अपनी पीठ को हू-ब-हू माधुरी दीक्षित की तरह खोलकर बार-बार लचका रही थी और गर्दन मोड़-मोड़ कर अपनी कंजी-भूरी आंखों से राहुल की ओर देख रही थी. लेकिन शिट्. बेकार. वो बात कहां जो माधुरी में है. माधुरी की पीठ और दूसरी पीठों में ज़मीन आसमान का फर्क़ है. एक ऐसी कोई चीज़ माधुरी दीक्षित की पीठ में है, उसकी त्वचा में या उसकी बनावट में, या उसके रंग में…जो ऐश्वर्या या दूसरों की पीठ में नहीं है.
राहुल तुलनात्मक अध्ययन करता. उसे लगता कि गुलपनाग, सुस्मिता या लारा आदि का शरीर काफ़ी कुछ कृत्रिमता से बनाया गया है. मॉडलिंग की खास नाप-जोख के लिए इंची टेप से नाप-नापकर, डायटिंग और एक्सरसाइज से तैयार किया गया कृत्रिम शरीर. फिर ऊपर से वैक्सिंग, फेशियल, साओना और क्या-क्या. राहुल को वे गैर-मानवीय सिंथेटिक गुड़ियां लगतीं. उनके सिर के बाल और शरीर के रोयें भी सिंथेटिक लगते. यहां तक कि उनकी बगलों में शेविंग के बाद का जो हल्का नीला-हरा रंग होता, वह भी उसे कलरिंग लगता. ज़्यादा नहीं, बस पंद्रह दिन इनको ठीक-ठाक आदमी के तरीके से खाने-पीने दो, आम लड़कियों की तरह रहने दो तो ये फसक कर बोरा हो जाएंगी. पहचानना मुश्किल होगा. जबकि माधुरी दीक्षित की बात ही दूसरी है. चाल में या इस हॉस्टल के कमरे में भी रहने लगेगी, मेस की दाल रोटी सब्जी भी खाएगी, तब भी जस-की-तस ही रहेगी. ऐसी ही कमाल. ऐसी ही मस्त.
माधुरी की पीठ नेचुरल है. प्राकृतिक. यह अजब तरह से एक स्वदेशी पीठ है. बाकी पीठें सिंथेटिक हैं और विदेशी. इसीलिए उनमें कोई जादू नहीं. राहुल ने निष्कर्ष निकाला. लेकिन उसका दूसरा वह निष्कर्ष ज़्यादा गंभीर था जिसके अनुसार लड़कियां दरअसल चोट, पीड़ा-हिंसा और ताकत को प्यार करती हैं. वे मूर्ख बनाया जाना, उत्पीड़ित होना और निर्ममता के साथ अपने भोग लिये जाने को ज़्यादा पसंद करती हैं. ज़माना बदल गया है. वे छठे-सातवें दशक के शम्मी कपूर, ऋषि कपूर, विश्वजित या जितेंद्र टाइप के मर्द को नहीं, सलमान खान, सन्नी देओल या अजय देवगन जैसे माचो या सैडिस्ट मर्द के पीछे पागल होती हैं. कितना ख़तरनाक और हिंसक था ‘डर’ में शाहरुख खान? फोन कर कर के, पीछा कर के और रेप की कोशिश कर के उसने जुही चावला को लस्त-पस्त, लहू-लुहान कर डाला था. डर के मारे उसकी घिग्घी बंध गयी थी. लेकिन उसी अर्द्ध विक्षिप्त-शीज़ोफ्रेनिक शाहरुख खान के पीछे सारी युनिवर्सिटी की लड़कियां दीवानी थीं.[adinserter block="1"]
कुड़ियों को शाहरुख चाहिए, कोई छक्का, कृष्ण-कन्हैया टाइप का हज़बैंड छाप गऊ नहीं. राहुल इस रहस्य को समझ चुका था. इसी के बाद से उसके कमरा नंबर 252 की दीवार की खिड़की में माधुरी दीक्षित रहने लगी थी. पिछले चार महीनों से.
राहुल के कैरियर का नक्शा थोड़ा-सा असामान्य था. उसने आर्गेनिक केमिस्ट्री में एम.एस-सी. किया था. इसके बाद अचानक उसमें एंथ्रोपोलॉजी में एम.ए. करने का भूत जागा. इसका ठीक-ठीक कारण पता लगाना ज़रा मुश्किल है लेकिन संभव है, इसके पीछे राहुल के एक फुफेरे भाई की प्रेरणा रही हो, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर के नृतत्वशास्त्री और फिलहाल एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के डायरेक्टर जनरल थे. वे कई बार राहुल के घर, उसके गांव आते. कभी-कभी तो कई हफ़्ते वे वहीं रुक जाते. पिता जी उनके सबसे प्रिय मामा थे. दोनों की खूब पटरी बैठती थी. राहुल की ड्यूटी उनकी देखभाल की होती.
राहुल ने सुना था कि उनकी आदिवासियों पर एक ऐसी किताब पेंगुइन से आई है, जिसने दुनिया में तहलका मचा रखा है. इस किताब के आने के पहले तक सब लोग यही जानते थे कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई सिर्फ़ ब्राह्मणों, ठाकुरों, बनियों या हिंदू-मुसलमानों ने ही लड़ी है. अब तक के इतिहासकारों ने जिन नायकों का निर्माण किया था, वे सब इन्हीं पृष्ठभूमियों के थे. उनमें आदिवासी और दलित लगभग नहीं थे. लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहब, कुंवर सिंह, फड़नवीस, अजीमुल्ला, मंगल पांडे, राजा, ज़मींदार, नवाब वगैरह. बाद में बीसवीं सदी में भी ऐसे ही नायक बने, नेहरू, गांधी, तिलक, जिन्ना, सुहरावर्दी, पटेल आदि. इनमें से अधिकांश ऊंची जाति और अमीर वर्ग के लोग थे. ले देकर कभी-कभार डॉक्टर अंबेडकर का नाम आता था, जो दलित थे और प्रकांड प्रतिभा के कारण उन्हें आज़ाद भारत का संविधान बनाने का काम सौंपा गया था, लेकिन उनके बारे में भी यह प्रचार कर दिया गया था कि वे अंग्रेजों के एजेंट थे और हिंदू धर्म को खत्म कर के बौद्ध धर्म को भारत में स्थापित करना चाहते थे. यानी नायक से ज़्यादा खलनायक थे.[adinserter block="1"]
किन्नू दा की किताब ने इसीलिए तहलका मचाया कि उसमें पहली बार, बहुत प्रामाणिक दस्तावेज़ों और तथ्यों के साथ, सिंहभूमि और झारखंड समेत छोटा नागपुर बेल्ट के उन आदिवासी नायकों के संघर्ष की कथा कही गयी थी, जिनका महान त्रासदी भरा नायकत्व अब तक सिर्फ़ बिहार, उड़ीसा और बंगाल के पिछड़े आदिवासी इलाकों में प्रचलित ‘फोकलोर’ में ही मौजूद था.
किन्नू दा जब बोलने लगते तो राहुल को ऑर्गेनिक केमिस्ट्री बकवास लगने लगती. क्या करूंगा इसको पढ़कर? किसी ब्रुएरीज़ या किसी फूड प्रोसेसिंग मल्टी नेशनल इंडस्ट्री में केमिस्ट बन जाऊंगा. या किसी युनिवर्सिटी-कालेज में लेक्चरर. वह अपने भविष्य के बारे में सोचता और उसे कोई मोटा, पिदपिदा-सा आदमी, सुअर की तरह फचफच करके पिजा खाते, दही या विनेगर में गार्निश्ड मछली को कचर-पचर चबाते दिखाई देने लगता जो साथ-साथ में शराब भी पीता और धुत्त हो कर किसी किराये में लाई गयी टीन एज लड़की के साथ अपनी मटके जैसी तोंद और विशाल कद्दुओं जैसे ढीले-ढाले नितंबों को मटका-मटका कर नाचने लगता.
यही वह आदमी है—खाऊ, तुंदियल, कामुक, लुच्चा, जालसाज़ और रईस, जिस की सेवा की खातिर इस व्यवस्था और सरकार का निर्माण किया गया है. इसी आदमी के सुख और भोग के लिए इतना बड़ा बाज़ार है और इतनी सारी पुलिस और फौज है. अगर मैंने आर्गेनिक केमिस्ट्री के बलबूते कोई नौकरी की तो इसी आदमी के खाने-पीने की चीज़ों को लगातार स्वादिष्ट, पौष्टिक और लजीज़ बनाने का काम मुझे अपने जीवन भर करना पड़ेगा. वह जीवन, जो मुझ अकिंचन को इस ब्रह्मांड के करुणा सागर सृष्टिकर्त्ता ने महान कृपा करके सिर्फ़ एक बार के लिए दिया है.[adinserter block="1"]
शिट्! साला हांफ रहा है, एक पैर कब्र में लटका है, मोटापे के कारण ठीक से चल नहीं पाता, लेकिन खाये जा रहा है. उसे खाने के लिए अनंत भोज्य पदार्थ चाहिए. उसकी जीभ को अनंत स्वाद चाहिए. सारी दुनिया के वैज्ञानिक उसकी जीभ को संतुष्ट करने की खातिर तमाम प्रयोगशालाओं में शोध कर रहे हैं. उसके लोंदे जैसे घृणित थुलथुल शरीर की समस्त इंद्रियों को अनंत-अपार आनंद और बेइंतहा मज़ा और ‘किक’ चाहिए. उस की हिप्पोपोटेमस जैसे थूथन को तरह-तरह की खुशबू चाहिए. सारी परफ्यूम इंडस्ट्री इसी की नाक की बदबू मिटाने के लिए है. एक कार्बनिक रसायन वैज्ञानिक के नाते मेरा काम होगा, इस भोगी लोंदे की एषणाओं और इसकी इंद्रियों की निरंतर बढ़ती हवस को अपनी प्रतिभा, ज्ञान और सृजन के द्वारा संतुष्ट करना.
यही वह आदमी है, जिसके लिए संसार भर की औरतों के कपड़े उतारे जा रहे हैं. तमाम शहरों के पार्लर्स में स्त्रियों को लिटाकर उनकी त्वचा से मोम के द्वारा या एलेक्ट्रोलिसिस के ज़रिये रोयें उखाड़े जा रहे हैं, जैसे पिछले समय में गड़रिये भेड़ों की खाल से ऊन उतारा करते थे. राहुल को साफ दिखाई देता कि तमाम शहरों और कस्बों के मध्य-निम्न मध्यवर्गीय घरों से निकल-निकल कर लड़कियां उन शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह उगी ब्यूटी-पार्लर्स में मेमनों की तरह झुंड बनाकर घुसतीं और फिर चिकनी-चुपड़ी होकर उस आदमी की तोंद पर अपनी टांगें छितरा कर बैठ जातीं. इन लड़कियों को टीवी ‘बोल्ड एंड ब्यूटीफुल’ कहता और वह लुजलुजा-सा तुंदियल बूढ़ा खुद ‘रिच एंड फेमस’ था.
वह आदमी बहुत ताकतवर था. उसको सारे संसार की महान शैतानी प्रतिभाओं ने बहुत परिश्रम, हिकमत पूंजी और तकनीक के साथ गढ़ा था. उसको बनाने में नयी टेक्नालॉजी की भूमिका अहम थी. वह आदमी कितना शक्तिशाली था, इसका अंदाज़ा एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसने पिछली कई शताब्दियों के इतिहास में रचे-बनाये गये कई दर्शनों, सिद्धांतों और विचारों को एक झटके में कचड़ा बनाकर अपने आलीशान बंगले के पिछवाड़े के कूड़ेदान में डाल दिया था. ये वे सिद्धांत थे, जो आदमी की हवस को एक हद के बाद नियंत्रित करने, उस पर अंकुश लगाने या उसे मर्यादित करने का काम करते थे.[adinserter block="1"]
इससे ज़्यादा मत खाओ, इससे ज़्यादा मत कमाओ, इससे ज़्यादा हिंसा मत करो, इससे ज़्यादा संभोग मत करो, इससे ज़्यादा मत सोओ, इससे ज़्यादा मत नाचो…वे सारे सिद्धांत, जो धर्म ग्रंथों में भी थे, समाजशास्त्र या विज्ञान अथवा राजनीतिक पुस्तकों में भी, उन्हें कूड़ेदान में डाल दिया गया था. इस आदमी ने बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में पूंजी, सत्ता और तकनीक की समूची ताकत को अपनी मुटि्ठयों में भर कर कहा था : स्वतंत्रता! चीखते हुए आज़ादी! अपनी सारी एषणाओं को जाग जा ने दो. अपनी सारी इंद्रियों को इस पृथ्वी पर खुल्ला चरने और विचरने दो. इस धरती पर जो कुछ भी है, तुम्हारे द्वारा भोगे जाने के लिए है. न कोई राष्ट्र है, न कोई देश. समूचा भूमंडल तुम्हारा है. न कुछ नैतिक है. न कुछ अनैतिक. न कुछ पाप है, न पुण्य. खाओ, पियो और मौज़ करो. नाचो…ऽऽ. वूगी…वूगी. गाओ..ऽऽ वूगी…वूगी. खाओ…! खूब खाओ. कमाओ, खूब कमाओ. वूगी…वूरी. इस जगत के समस्त पदार्थ तुम्हारे उपभोग के लिए है. वूगी…वूगी…! और याद रखो स्त्री भी एक पदार्थ है. वूगी…वूगी!
उस ताकतवर भोगी लोंदे ने एक नया सिद्धांत दिया था जिसे भारत के वित्तमंत्री ने मान लिया था और खुद उसकी पर्स में जाकर घुस गया था. वह सिद्धांत यह था कि उस आदमी को खाने से मत रोको. खाते-खाते जैसे-जैसे उसका पेट भरने लगेगा, वह जूठन अपनी प्लेट के बाहर गिराने लगेगा. उसे करोड़ों भूखे लोग खा सकते है. कांटीनेंटल, पौष्टिक जूठन. उस आदमी को संभोग करने से मत रोको. वियाग्रा खा-खा कर वह संभोग करते-करते लड़कियों को अपने बेड से नीचे गिराने लगेगा, तब करोड़ों वंचित देशी छड़े उन लड़कियों को प्यार कर सकते हैं, उनसे अपना घर-परिवार बसा सकते हैं.
यही वह सिद्धांत था, जिसे उस आदमी ने दुनिया भर के सूचना संजाल के द्वारा चारों ओर फैला दिया था और देखते-देखते मानव सभ्यता बदल गयी थी. सारे टीवी चैन लों, सारे कंप्यूटरों में यह सिद्धांत बज रहा था, प्रसारित हो रहा था.[adinserter block="1"]
बीसवीं सदी के अंत और इक्कीसवीं सदी की दहलीज़ की ये वे तारीखें थी जब प्रेमचंद, तॉल्सतॉय, गांधी या टैगोर का नाम तक लोग भूलने लगे थे. किताबों की दूकानों में सबसे ज़्यादा बिक रही थी बिल गेट्स की किताब ‘दि रोड अहेड’.
वह तुंदियल अमीर खाऊ आदमी, गरीब तीसरी दुनिया की नंगी विश्व सुंदरियों के साथ एक आइसलैंड के किसी महंगे रिसॉर्ट में लेटा हुआ मसाज़ करा रहा था. अचानक उसे कुछ याद आया और उसने सेल फोन उठाकर एक नंबर मिलाया.
विश्व सुंदरी ने उसे वियाग्रा की गोली दी, जिसे निगल कर उसने उसके स्तन दबाये. ‘हेलो! आयम निखलाणी, स्पीकिंग ऑन बिहाफ ऑफ द आइ. एम. एफ. गेट मी टु दि प्राइम मिनिस्टर!’
‘येस…येस! निखलाणी जी! कहिये, कैसे हैं? मैं प्रधानमंत्री बोल रहा हूं.’
‘ठीक से सहलाओ! पकड़कर! ओ.के.!’ उस आदमी ने मिस वर्ल्ड को प्यार से डांटा फिर सेल फोन पर कहा—‘इत्ती देर क्यों कर दी…साईं! जल्दी करो! पॉवर, आई टी, फूड, हेल्थ, एजुकेशन…सब! सबको प्रायवेटाइज करो साईं!…ज़रा क्विक! और पब्लिक सेक्टर का शेयर बेचो…डिसएन्वेस्ट करो…! हमको सब खरीदना है साईं…!’
‘बस-बस! ज़रा-सा सब्र करें भाई…बंदा लगा है ड्यूटी पर. मेरा प्रॉब्लम तो आपको पता है. खिचड़ी सरकार है. सारी दालें एक साथ नहीं गलतीं निखलाणी जी.’
‘मुंह में ले लो. लोल…माई लोलिट्.’ रिच एंड फेमस तुंदियल ने विश्व सुंदरी के सिर को सहलाया फिर ‘पुच्च…पुच्च’ की आवाज़ निकाली. ‘आयम, डिसअपांयंटेड पंडिज्जी! पार्टी फंड में कितना पंप किया था मैंने. हवाला भी, डायरेक्ट भी…केंचुए की तरह चलते हो तुम लोग. एकॉनॅमी कैसे सुधरेगी? अभी तक सब्सिडी भी खत्म नहीं की!’[adinserter block="1"]
‘हो जायेगी…निखलाणी जी! वो आयल इंपोर्ट करने वाला काम पहले कर दिया था, इसलिए सोयाबीन, सूरजमुखी और तिलहन की खेती करने वाले किसान पहले ही बरबाद थे. उसके फौरन बाद सब्सिडी भी हटा देते तो बवाल हो जाता…आपके हुकुम पर अमल हो रहा है भाई…सोच-समझ कर कदम उठा रहे हैं.’
‘जल्दी करो पंडित! मेरे को बी.पी है. ज़्यादा एंक्ज़ायटी मेरे हेल्थ के लिए ठीक नहीं. मरने दो साले किसानों बैंचो…को…ओ.के…’
उस आदमी ने सेल्युलर ऑफ किया, एक लंबी घूंट स्कॉच की भरी और बेचैन हो कर बोला, ‘वो वेनेजुएला वाली रनर अप कहां है. उसे बुलाओ.’
किन्नू दा ने राहुल से कहा, ‘आदिवासियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी ज़रूरतें सबसे कम हैं. वे प्रकृति और पर्यावरण का कम से कम नुकसान करते हैं. सिंहभूम, झारखंड, मयूरभंज, बस्तर और उत्तरपूर्व में ऐसे आदिवासी समुदाय हैं जो अभी तक छिटवा या झूम खेती करते हैं और सिर्फ़ कच्ची, भुनी या उबली चीजें खातें हैं. तेल में फ्राइ करना तक वे पसंद नहीं करते. वे प्राकृतिक मनुष्य हैं. अपनी स्वायत्तता और संप्रभुता के लिए उन्होंने भी ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ़ महान् संघर्ष किया था. लेकिन इतिहासकारों ने उस हिस्से को भारतीय इतिहास में शामिल नहीं किया. इतिहास असल में सत्ता का एक राजनीतिक दस्तावेज़ होता है…जो वर्ग, जाति या नस्ल सत्ता में होती है, वह अपने हितों के अनुरूप इतिहास को निर्मित करती है. इस देश और समाज का इतिहास अभी लिखा जाना बाकी है.’
राहुल डर गया. उसने कुछ दिन पहले ही ‘स्टिगमाटा’ नाम की फिल्म देखी थी. ‘दि मेसेंजर विल बी सायलेंस्ड’. ईश्वर के दूत को खामोश कर दिया जाएगा. सच कोई सूचना नहीं है. सूचना उद्योग के लिए सच एक डायनामाइट है. इसलिए सच को कुचल दिया जाएगा. द ट्रुथ हैज टु बी डिफ्यूज़्ड.
टप्. एक पत्ता और गिरेगा.[adinserter block="1"]
टप्. एक पवित्र फल असमय अपने अमृत के साथ चुपचाप किसी निर्जन में टपक जाएगा.
टप्. एक हत्या या आत्महत्या और होगी, जो अगले दिन किसी अखबार के तीसरे पृष्ठ पर एक-डेढ़ इंच की ख़बर बनेगी.
टप्! टप्! टप्! समय बीत रहा है. पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है.
किन्नू दा को बार-बार आदिवासी इलाके में ट्रांसफर कर दिया जाता. वे सनकी हैं, पगलैट हैं—नौकरशाही में यह चर्चा आम थी. इतने साल आई.ए.एस अधिकारी रहने के बाद भी उनके पास अपने पी.एफ. के अलावा कोई पैसा नहीं. वे दिल्ली में एक फ्लैट खरीदने के लिए परेशान है.
राहुल को आर्गेनिक केमिस्ट्री से अरुचि हो गयी. उस विषय में उसे विनेगर की, फर्मेंटेशन की, तेज गंध आती. मोटे भोगी आदमी की डकार और अपान वायु से भरे हुए चेंबर का नाम है आर्गेनिक केमिस्ट्री.
मैं एंथ्रोपोलॉजी में एम.ए. करूंगा, फिर पी-एच.डी. और इस मानव समस्या के उत्स तक पहुंचने की कोशिश करूंगा. इतिहास को शैतान ने किस तरह अपने हित में सबोटाज़ किया है, इसके उद्गम तक पहुंचने की मुझमें शक्ति और निष्ठा दे, हे परमपिता!
लेकिन माधुरी दीक्षित?
और उसकी पीठ?
और उसकी चौंकी हुई हिरणी जैसी आंखें?
राहुल ने गुलेल में कागज़ की एक गोली बनाकर रबर कान तक खींचा और सटा्क! कागज़ की गोली माधुरी दीक्षित की पीठ पर जाकर लगी.
‘उई…ऽ’ एक मीठी-सी, संगीत में डूबी, उत्तेजक पीड़ा भरी आवाज़ पैदा हुई और गर्दन मोड़ कर उस हिरणी ने अपने शिकारी को प्यार से देखा.[adinserter block="1"]
‘थैंक यू राहुल! फॉर द इंजरी!…आय लव यू.’
एडमीशन के बाद का यह दूसरा महीना था. दूर-दूर तक बिखरी पहाड़ियों में कई सौ एकड़ के क्षेत्र तक फैला यह विश्व विद्यालय भारत का कैंब्रिज कहा जाता था. जापान, इंडोनेशिया, फिजी, मॉरिशस से लेकर कई अफ्रीकी देशों के छात्र यहां आकर पढ़ते थे. यहां के भूगर्भ विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो. वाट्सन अंतरराष्ट्रीय स्तर के स्कॉलर थे. उन्होंने अमेरिका, फ्रांस और जर्मनी से मिलने वाले तमाम एकेडेमिक ऑफर्स को ठुकराकर इसलिए भारत में रहने का निर्णय लिया था क्योंकि जियोलॉजी के अध्ययन और शोध के लिहाज से जितनी विविधता इस देश में थी, वह विलक्षण थी.
‘यह देश एक अद्भुत जीता-जागता संग्रहालय है. अनेक सभ्यताएं, अनेक इतिहास, असंख्य नस्लें, प्रजातियां…मानव सभ्यता के कई लाख साल का अतीत यहां ज़िंदा, सक्रिय, धड़कता हुआ देखा जा सकता है. और ठीक यही बात यहां की धरती पर भी लागू होती है.’
डॉ. वाट्सन कहते. फिर झुककर एक पत्थर उठाकर उसे देखते हुए गंभीर हो जाते—‘इसे देख रहे हो. ये युनिवर्सिटी जिस पहाड़ी पर बसी हुई है, ये पत्थर इसके लावा स्टेज को प्रगट करता है. देखो, गौर से देखो. ये फॉसिल है. कई हज़ार, शायद एक लाख साल पुराना. और यह किसी सबमेराइन जीव का फॉसिल है. यहां, ठीक इसी जगह, जहां हम खड़े हैं…पहले समुद्र था.’
इर्द गिर्द खड़े लोगों की आंखें आश्चर्य से फैल जातीं. समुद्र? यहां? मध्यप्रदेश में?
राहुल का मन लग गया. उसे टैगोर हॉस्टल की दूसरी मंजिल में करा नंबर 252 एलॉट हुआ. उसका रूम मेट था. ओ.पी. ओंकार प्रसाद. छह फुट तीन इंच लंबा, बांस की लाठ जैसा सीधा तना हुआ, दुबला-पतला. बगुले जैसी लंबी गर्दन, जो उसके चलने पर हर कदम लचकती. बहुत हँसोड़, बहुत बातूनी. ओ.पी. कहता, ‘मैं किसी ठिगनी, साढ़े चार फुट की हाइट वाली कन्या से शादी करूंगा, स्टैंडिंग पोजीशन में प्यार करते हुए इन पहाड़ियों का नज़ारा ही अलग होगा.’[adinserter block="1"]
राहुल ने कल्पना की : वह पहाड़ी की तलहटी पर, जहां शहर है, खड़ा है और नीचे से ऊपर की ओर देख रहा है. रात है पूर्णिमा की. चांद पूरा का पूरा किसी जलती हुई सोने की थाली की तरह आकाश में टंगा है और उधर…सबसे ऊंची पहाड़ी की चोटी पर एक खूब लंबा दीर्घकाय पुरुष दिगंबर खड़ा है…!
और उसकी कमर के साथ लिपटी हुई है एक छोटी सी बावन नारी आकृति…हवाओं में जैसे डमरू बज रहा है.
थप्प…थप्प…थप्प…
आकृतियां हिल रही हैं. कौन हैं वे आकृतियां? ओ.पी. और उसकी मन चाही कन्या या…या नग कन्या…पर्वत की बेटी…पार्वती और नटराज शिव!
और यह सृष्टि का आदि मैथुन है…थप्प…थ्प्प…थप्प.
नमामि शमीशां निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं बह्म वेद स्वरूपं
अजुं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाशमाकाश वासं भजेहं.
निरंकार मोंकार मूलं तुरीयं…
पिताजी हर रोज सुबह साढ़े चार बजे उठकर नहाते थे और फिर शिव की पूजा करते थे. कभी-कभार राहुल की नींद टूट जाती तो प्रार्थना की ये पंक्तियां सुबह के सन्नाटे में सारे घर में गूंज रही होतीं.
ओ.पी. बहुत अच्छा दोस्त साबित हुआ. राहुल को अपना खर्च चलाने के लिए दो ट्यूशन करने पड़ते थे, जिनका जुगाड़ ओ.पी. ने ही किया था. वह युनिवर्सिटी में दो साल पहले से था. यहीं से उसने क्रिमिनॉलॉजी में एम.एस-सी. किया था और अब रिसर्च कर रहा था. पैसे की उसे कमी नहीं थी, क्योंकि उसे यू.जी.सी. की स्कॉलरशिप मिल रही थी.
लेकिन जल्द ही पता चल गया कि इस विश्वविद्यालय का सारा स्वरूप तेजी से बदल रहा है. पिछले चार-पांच सालों से विदेशी छात्रों ने यहां एडमीशन लेना बंद कर दिया था. डॉ. वाट्सन जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वान् प्रोफेसर जल्द से ज़ल्द यहां से कहीं और चल देना चाहते थे. स्थितियां बिगड़ रही थीं.[adinserter block="1"]
पता चला, पिछले साल मारीशस से आई एक छात्रा को कुछ लोकल गुंडे उठा कर ले गये थे और बलात्कार करने के बाद उसको मार कर उसकी लाश तलहटी की एक पुलिया के नीचे फेंक दी थी. ओ.पी. ने राहुल से कहा था, ‘यहां बहुत सावधानी और हाशियारी से रहना है. शहर की ओर जाओ तो वहां किसी से पंगा लेने की कोशिश मत करो. अगर किसी सिनेमा हाल में टिकट भी खरीदो तो सौ या पांच सौ के नोट जेब से मत निकालो. वहां बुकिंग विंडो में बैठने वाला आदमी ही नहीं, पनवाड़ी और चाट वाले तक अपराधियों के एजेंट हैं. अगर शक हुआ कि तुम किसी पैसे वाले आसामी के लड़के हो, तो किसी भी दिन हॉस्टल आकर तुम्हें उठाकर ले जाएंगे. हर साल दर्जनों एब्डक्शन के कसे यहां होते रहते है. पुरना डकैत इलाका है. देवी सिंह, मलखान सिंह, मोहर सिंह, तहसीलदार सिंह…सारे के सारे डाकू इसी पट्टी में वारदात किया करते थे.’
ओ.पी. की बात में कितनी सच्चाई थी, इसका पता ज़ल्द ही चल गया. पोस्टमैन तक लोकल गुंडों से मिला हुआ था. हॉस्टल में दक्षिण भारत या दूर दराज़ से आने वाले छात्रों के घरों से मनीआर्डर अक्सर महीने के पहले सप्ताह की तारीखों में आते थे. किस लड़के के पास कितने का मनीआर्डर आया, गुंडों के पास इसकी पूरी सूची होती थी. इन तारीखों को, रात में नौ-साढ़े नौ बजते ही, हॉस्टल के परिसर में एक-दो जीपें आकर रुकतीं. छुरे, हॉकी की स्टिक, साइकिल की चेन, बघनखे, राड और कभी-कभार देशी कट्टे, जो मामूली कीमत में इस इलाके के लोहारों के पास आसानी से मिल जाते थे, इन गुंडों के हथियार होते थे. अज्जू, लच्छू, अच्छन, बब्बन, लोटा, पेंदा, गुड्डू, डब्बा, बकसा जैसे उनके नाम होते थे और भाई, दाऊ या गुरू का सम्बोधन उनके साथ सीनियारिटी और रुतबे के हिसाब से जुड़ा होता था. मसलन, अच्छन गुरू, लच्छू भाई. कभी-कभी उस्ताद भी—परसू उस्ताद. इन लोगों के संबंध स्थानीय राजनीतिक नेताओं, पुलिस आदि के साथ तो होते ही थे, विश्वविद्यालय के प्रशासन, छात्र-अध्यापक राजनीति में भी उनकी खासी दखल होती थी. मणिपुर,. अरुणाचल, असम जैसे उत्तर पूर्व के प्रांतों से आने वाले छात्रों को ये गुंडे ‘मल्लू’ या ‘मंकी’ बोलते थे और दक्षिणी भारत के किसी भी राज्य से आने वाला लड़का इनके लिए ‘रुंडू’ होता था.[adinserter block="1"]
रूम नं. 212 में एक मणिपुरी छात्र रहता था. सापाम तोंबा. सुंदर, गोल-मटोल, पढ़ने में तेज और बैडमिंटन का अच्छा खिलाड़ी. राहुल के साथ उसकी अच्छी पहचान हो गयी थी. सापाम बॉटनी में एम.एस-सी. प्रीवियस कर रहा था. अभी दो हफ्ते पहले इंफाल के पास एक गोलीबारी में उसके सगे बड़े भाई की मृत्यु हो गई थी, जो वहां किसी प्रायमरी स्कूल का शिक्षक था. सापाम फूट-फूटकर रोता रहा. वह मणिपुर अपने भाई के अंतिम संस्कार में शामिल होने नहीं जा पाया था, क्योंकि उसके पास किराये के पैसे नहीं थे. दूसरे, उसके पिताजी ने उसे वहां आने से रोका भी था. मणिपुर में इंसर्जेंसी की घटनाएं बढ़ गयी थी. पूरा मणिपुर सेना और बी.एस.एफ. के हवाले था. रोड़-रोज़ कांबिंग ऑपरेशंस और एनकाउंटर्स.
‘मैं अगर उदर जाएंगा तो मिजे पी.एल.ए. का मेंबर बताकर वो लोग गोली मार देंगा. हम उदर से ज़्यादा इदर सेफ है.’ सापाम ने कहा था.
गुंडे सापाम के कमरे में भी घुसे थे. उन्होंने उसकी घड़ी, मनीआर्डर से आये छह सौ रुपये, चाय की एक केटली और एक थर्मस उससे छीन ली थी. इतना ही नहीं, उन्होंने सापाम को मजबूर किया था कि वह नंगा होकर बिजली के जलते हीटर पर पेशाब करे. टॉर्चर से हारकर जब सापाम ने ऐसा किया तो उसे जोरों का करेंट लगा और उस शॉक से वह बेहोश हो गया. वह अभी तक नार्मल नहीं हो पाया था. सापाम टूट गया था. ‘हम किदर जाए…? हम पड़ाई कैसे करेंगा? मिजको बताओ.’ वह रो रहा था.
ओ.पी., राहुल और दो-तीन अन्य लड़कों ने मिलकर उसका मेस बिल पटाया. फीस जमा करवाई. ‘मणिपुरी लोग इंडिया से अलग होना चाहते हैं. अगर आज मत संग्रह हो जाये, तो कश्मीर से ज़्यादा प्रतिशत लोग अलगाव के पक्ष में मणिपुर और नागालैंड में वोट डालेंगे.’ ऐसा क्यों हुआ?[adinserter block="1"]
सापाम कहता था, कि उसकी बुआ और मणिपुर की बहुत सी औरतें जो विधवा हो जाती थीं, वे वृंदावन आ जाती थीं. गांव-गांव वहां रास लीलाएं होती थीं. कृष्ण के कीर्तन होते थे. सत्रहवीं सदी में बंगाल से आकर गौरांग महाप्रभु चैतन्य ने अपनों पदों और कीर्तनों से पूरे मणिपुर को गुंजा दिया था. वहां के आदिवासियों समेत सारे लोग वैष्णव हो गये थे. उनके नाम के अंत में शर्मा, सिंह जैसे सरनेम जुड़ गये थे. सीधे-सरल, भोले-भावुक, पहाड़ों का कठिन जीवन जीते मंगोल या तिब्बती-बर्मी समूह के मेतेई और आदिवासी. जैसे चैतन्य ने उनके रिक्त सांस्कृतिक जीवन को एक नयी रस मयी नदी के जल से आप्लावित कर दिया था. आज़ादी के समय, 1947 के बाद स्वेच्छा से, जनता की मांग पर मणिपुर ने भारतीय गणराज्य का एक अंग बनने का चुनाव किया था.
अब ऐसा आखिर क्यों हो गया? पचास साल के भीतर-भीतर वहां का हर व्यक्ति, सौ में से निन्यान्नवे, इस इंडिया से छुटकारा क्यों पाना चाहता है?
‘मायांग (परदेसियों) ने हमें बहोत लूटा. हमारी लड़की ले गये. हमें बेवकूफ बनाया. हमारा बाज़ार, ट्रेड, नौकरी सब पर मायांग का कब्जा है. कुछ बोलो तो सेसेनिस्ट कहता है. तुम आज उदर से आर्मी हटा लो, कल हम आज़ाद हो जाएगा.’ सापाम कहता है—‘अंग्रेजों के टाइम पर हमने सुभाष बोस के आई.एन.ए. को अपना ब्लड दिया था. बर्मा तक जाकर इंडिया की आज़ादी के लिए हमारा लोग लड़ा. अब हम अपनी आज़ादी के लिए लड़ेगा. लिख के ले लो, कश्मीर से पहले हम इंडिया से आज़ाद होगा.’
राहुल को लगा युनिवर्सिटी की ज़िंदगी उतनी आसान नहीं है, जितनी वह समझ रहा था. यहां सुरक्षित होकर सिर्फ़ स्टडी करना, एंथ्रोपोलॉजी पढ़ना, मानव सभ्यता और नस्लों के उत्स को जानना और माधुरी दीक्षित की पीठ को देखते रहना उतना सरल नहीं है. कभी-भी वे लोकल गुंडे कमरे में घुसेंगे और कनपटी पर कट्टा लगा देंगे. यह एक क्रूर, टुच्चा, अपराधी समय है, जिसमें इस वक़्त हम लोग फंसे हैं. यह ठगों, मवालियों, जालसाजों, तस्करों और ठेकेदारों का समय है. और इस वक़्त हर ईमानदार, शरीफ और सीधा-सादा हिंदुस्तानी इस राज में कश्मीरी है या मणिपुरी है या फिर नक्सलवादी.[adinserter block="1"]
‘पिछले महीने मुझे न्यूयार्क में एक सेमिनार में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया गया. 500 डॉलर की स्वीकृत न्यूनतम मुद्रा मेरे पास थी. उससे ज़्यादा रकम मैं कभी भी नहीं ले गया. इतने पैसे भी खर्च नहीं होते. लेकिन इस बार पहली बार मुझसे पूछताछ की गयी. बड़े अभद्र और खोजी तरीके से, कि इतनी कम रकम में आपका काम कैसे चलेगा? आप और डॉलर्स क्यों नहीं ले जाते?’ किन्नू दा ने बताया. ‘दरअसल अब ये दुनिया ट्रेडर्स की, व्यापारियों की हो गयी है. वे लाखों डालर-पाउंड लेकर सफर करते हैं. अरबों-खरबों का ट्रांजेक्शन होता है. ये लोग मान ही नहीं सकते कि अभी भी हिंदुस्तान में ऐसे लोग बचे हुए हैं, जिन्हें बहुत दौलत नहीं चाहिए. और वे अमेरिका या फ्रांस व्यापार कर ने नहीं, अकादेमिक या दूसरे कारणों से जाते हैं.’
तो क्या ये जो भू-मंडलीकरण हो रहा है यह उन्हीं के लिए है, जो विश्व बाज़ार के हिस्से हैं. सटोरिये, व्यापारी, तस्कर, अपराधी या सरकारी मंत्री-अफसर. अगर आज डॉ. कोटणीस जैसे लोग चीन जाना चाहें या राहुल सांकृत्यायन जैसे लोग रूस और मध्य एशिया, तो क्या यह संभव होगा?
‘नॉट एट आल!’ कार्तिकेय ने ज़वाब दिया. ‘दिस इज़ द एंड ऑफ द सिविल सोसायटी. अब कहीं कोई नागरिक समाज नहीं बचा. सिर्फ़ सरकारें हैं, कंपनियां हैं, संस्थाएं हैं माफिया और गिरोह हैं. और अगर अब भी तुम किसी लेखक, कवि या विद्वान को हवाई जहाज में सवार होकर विदेश जाते देखते हो, तो जान लो, वह किसी कंपनी, किसी व्यापारी, किसी संस्था या गिरोह का सदस्य या दलाल है. आल्वेज़ डाउट हिज़ इंटिग्रिटी.’
कार्तिकेय काजले पुणे से आया था. जिओलॉजी में रिसर्च के साथ-साथ सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहा था. उसने राहुल से भी सिविल की तैयारी के लिए कहा.
सापाम के अलावा उन गुंडों ने केरल के एक लड़के मधुसूदन को लूटने के बाद इतना मारा था कि वह डर के मारे दूसरी मंजिल से नीचे कूद गया था और उसकी टांगें टूट गयीं थी. वह अस्पताल में एडमिट था. राहुल ओ.पी. और कार्तिकेयन के साथ उसे देखने हॉस्पिटल गया था. मधुसूदन के फादर का कोचीन से टेलिग्राम आया था कि वह माइग्रेशन लेकर केरल लौट आये. वह परेशान था. उसका पूरा कैरियर बिगड़ गया था.
डाउनलोड लिंक (पीली छतरी वाली लड़की / Peeli Chhatri Wali Ladki PDF Download) नीचे दिए गए हैं :-
हमने पीली छतरी वाली लड़की / Peeli Chhatri Wali Ladki PDF Book Free में डाउनलोड करने के लिए लिंक नीचे दिया है , जहाँ से आप आसानी से PDF अपने मोबाइल और कंप्यूटर में Save कर सकते है। इस क़िताब का साइज 2.3 MB है और कुल पेजों की संख्या 152 है। इस PDF की भाषा हिंदी है। इस पुस्तक के लेखक उदय प्रकाश / Uday Prakash हैं। यह बिलकुल मुफ्त है और आपको इसे डाउनलोड करने के लिए कोई भी चार्ज नहीं देना होगा। यह किताब PDF में अच्छी quality में है जिससे आपको पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। आशा करते है कि आपको हमारी यह कोशिश पसंद आएगी और आप अपने परिवार और दोस्तों के साथ पीली छतरी वाली लड़की / Peeli Chhatri Wali Ladki को जरूर शेयर करेंगे। धन्यवाद।।Answer. उदय प्रकाश / Uday Prakash
_____________________________________________________________________________________________
आप इस किताब को 5 Stars में कितने Star देंगे? कृपया नीचे Rating देकर अपनी पसंद/नापसंदगी ज़ाहिर करें।साथ ही कमेंट करके जरूर बताएँ कि आपको यह किताब कैसी लगी?