पुस्तक का विवरण (Description of Book) :-
नाम / Name | पापामैन / Papaman |
लेखक / Author | |
आकार / Size | 3.7 MB |
कुल पृष्ठ / Pages | 195 |
Last Updated | March 20, 2022 |
भाषा / Language | Hindi |
श्रेणी / Category | उपन्यास / Upnyas-Novel |
‘पापामैन’ निखिल सचान की चौथी किताब है, जिसकी कहानी ल में लोगों को इतनी पसंद आई कि किताब की रिलीज़ के पहले से ही इस कहानी पर फ़िल्म बनाने का काम शुरू हो चुका है। कहानी छुटकी और उसके पापामैन चंद्रप्रकाश गुप्ता की है, जो रेलवे में टिकट बनाते हैं। छुटकी IIT कानपुर में पढ़ती है, इनोवेटर है और आगे की पढ़ाई के लिए MIT, USA जाना चाहती है। वह बचपन से ही अतरंगी सपने देखती थी। उसे कभी एस्ट्रोनॉट बनना होता था, तो कभी मिस इंडिया तो कभी इंदिरा गाँधी। सब कुछ तो बन नहीं सकती थी, लेकिन चंद्रप्रकाश ने उसके सपनों को कभी बचकाना नहीं कहा। उन्होंने छुटकी को यह कभी नहीं बताया कि एक सपना ख़ुद चंद्रप्रकाश ने भी देखा था- बंबई जाकर सिंगर बनने का सपना, जिसे वह अपनी बेटी छुटकी के सपनों को पूरा करने की ज़िद में छिपा गए। चंद्रप्रकाश ने न जाने कितने लोगों को टिकट बनाकर रेल से अनके गंतव्य तक भेजा लेकिन अपने सपनों के शहर बंबई का टिकट कभी ख़ुद नहीं काट पाए। यह कहानी उन्हीं भूले-बिसरे सपनों को पूरा करने की कहानी है। यह कहानी एक पिता की है, एक पापामैन की है, जो अंदर से कोमल-सी माँ ही होते हैं, लेकिन पिता होने की ज़िम्मेदारी के चलते यह बात अपने बच्चों से छिपा जाते हैं। कहानी में कानपुर की ख़ालिस भौकाली है, कटियाबाजी और बकैती है, पिंटू और छुटकी की लवस्टोरी भी है। पिंटू ITI में पढ़ता है लेकिन IIT में पढ़ने वाली छुटकी से प्यार कर बैठा है। उसका दोस्त अन्नू अवस्थी उसे कानपुर का रणवीर सिंह बताता है और अपने पिंटू भैया की लवस्टोरी को सफल मक़ाम तक पहुँचाना चाहता है।
पुस्तक का कुछ अंश
शाम के चार बजे थे। मई के महीने में कानपुर में सूरज ऊँघ रहा था और गर्मी से पसीना चुआ रहा था। पारा 48 के पार था। गर्मी इतनी थी कि कानपुर में सूरज भी डरता था कि कहीं उसे लू न लग जाए। बस यही कसर थी कि सूरज भी मुँह पर अंगोछा बाँध लेता और काला रेबैन चढ़ा लेता।
चंद्रप्रकाश गुप्ता कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन में टिकट विंडो पर बैठे टिकट बना रहे थे। तीस साल से रेलवे में क्लर्क की नौकरी करते थे, लोगों को उनके गंतव्य तक पहुँचाते थे।
रोज़ की तरह आज भी टिकट बनाते हुए मोहम्मद रफ़ी का गाना गुनगुना रहे थे। 52 साल की उम्र में भी उनके गले में ग़ज़ब की मिठास थी। सफ़ेद शक्कर वाली बनावटी मिठास नहीं, ताजे शहद वाली मिठास, जो ज़बान पर चिपक जाए तो घंटों लार में भी मिठास बनी रहे। आज भी जब वह रफ़ी साहब का गाना गाते थे तो एहतियातन उनका एक हाथ कान पर चला ही जाता था। जैसे एक शागिर्द जब गुरु का नाम लेता है तो इज़्ज़त देते हुए एक हाथ कान पर रख लेता है।
वह जी.पी. सिंह का इंतज़ार कर रहे थे जो उनके बाजू में टिकट विंडो पर बैठता था। दो दिन बाद चंद्रप्रकाश की बड़ी बेटी मिहू की शादी थी। जी.पी. सिंह आता तो टिकट विंडो उसके हवाले करके चंद्रप्रकाश घर चले जाते।
जी.पी. सिंह अक्सर सिगरेट-चाय के बहाने घंटाभर के लिए गायब हो जाता और चंद्रप्रकाश को उसके हिस्से की टिकटें भी बनानी पड़तीं।
"अरे कितना देर कर दिए जी.पी. सिंह जी। मिहू की शादी है। आज जल्दी घर जाना था। सँभाल लीजिएगा प्लीज़।” चंद्रप्रकाश फटाफट खड़े हो गए और उन्होंने बैग हाथ में उठा लिया।
“अरे गुप्ता जी! कानपुर में जल्दीबाजी में कुच्छो नहीं होता।" जी.पी. सिंह ने कहा।
“क्यों?"
चंद्रप्रकाश ने क्यों' बोलकर ग़लती कर दी थी क्योंकि जी.पी. सिंह कानपुर का ज़िक्र आ जाने पर इसके इतिहास के बारे में घंटों जुगाली कर सकता था। बोलता था तो फिर रुकता ही नहीं था। कुर्सी पर पैर बाँधकर, चौकड़ी मारकर बैठ गया और कहने लगा, “आपको मालूम है,…..
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