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पुस्तक का विवरण (Description of Book पांचाली | Panchali PDF Download) :-
नाम : | पांचाली | Panchali Book PDF Download |
लेखक : | शची मिश्र Shachi Mishra |
आकार : | 3.2 MB |
कुल पृष्ठ : | 271 |
श्रेणी : | जीवनी / Biography, कहानियाँ / Stories, धार्मिक / Religious, पौराणिक / Mythological, हिंदू – Hinduism |
भाषा : | हिंदी | Hindi |
Download Link | Working |
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पाँच पुरुषों को वरण करने वाली दी, अपने पतियों के कारण कुरु-सभा में अपमानित हुई, उसके उपरांत भी उसने ‘वरदान’ शब्द में लिपटी दया के माध्यम से उनको दासता से मुक्त करवाया और उनके अस्तित्व, स्वाभिमान और शक्ति की रक्षा के लिए ऊर्जा प्रदान करती वन-वन भटकती रही। पंच-पतियों के प्रति सेवा, भाव, निष्ठा और कर्तव्य-निर्वाह के कारण जहाँ एक ओर सती के आसन पर विराजमान हुई| वहीं पंच-पति वरण के कारण एक युग के पश्चात् भी व्यंग्य, विद्रूप का पात्र बनी रही। विचित्र है उसका जीवन; किन्तु विचित्रता और अंतर्विरोध के बीच वह सदैव विशिष्ट रही। दी, नारी की सशक्त गाथा है। हज़ारों वर्षों से स्त्री, टुकड़ों-टुकड़ों में दी को जी रही है| कहीं वह अपमान और लांछना सहती है, तो कहीं पुरुष के भीतर की ऊर्जा बनती है। कहीं त्याग से उसके उत्थान की सीढ़ी बनती है, तो कहीं पुरुष के अहं के आगे विवश हो जाती है।
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पुस्तक का कुछ अंश (पांचाली | Panchali PDF Download)
महाभारत एक महाकाव्य। मैं नहीं जानती इसमें कितना मिथक और कितना इतिहास है, किन्तु द्रौपदी, नारी की शाश्वत गाथा अवश्य है। ह़जारों वर्षों से स्त्री, टुकड़ों में द्रौपदी को जी रही है… कभी वह पुरुष से अपमान और लांछना सहती है, तो कभी उसके भीतर की ऊर्जा बनती है; कभी त्याग से उसके उत्थान की सीढ़ी बनती है, तो कभी उसके अहं के आगे विवश हो जाती है।
लोक मानस ने द्रौपदी को जब भी उद्धृत किया, सदा व्यंग्य-विद्रूप के साथ पाँच पुरुषों की भोग्या के रूप में ही उद्धृत किया, उसकी ऊर्जा से वह स्त्रियों को सदैव ही दूर रखता रहा। द्रौपदी को पाँच भाइयों को पति के रूप में वरण करना पड़ा यह किसका दोष था? समाज उसकी इस स्थिति के दायित्व से स्वयं को मुक्त कर लेता है। तब भी यही हुआ था। पाण्डवों के समक्ष असमर्थ द्रुपद ने भी ईश्वर के लेख का आश्रय लेकर अपनी दिव्य पुत्री को पाँचों पाण्डवों को सौंप दिया था। तब भी न तो समाज पर प्रश्न उठा था और न ही युधिष्ठिर की ‘धर्म बुद्धि’ पर, न ही युधिष्ठिर को धर्मराज के पद पर आसीन करते समय द्रौपदी के प्रति किए गए उनके आचरण की विवेचना की गई थी।[adinserter block=”1″]
पाँच पुरुषों को वरण करने वाली द्रौपदी, अपने पतियों के कारण भरी सभा में अपमानित हुई। अपमान भी कैसा? गुरुजन, पितामह, पतियों और सभा में उपस्थित सभी पुरुषों के समक्ष उसे निर्वस्त्र करने का प्रयास किया गया, .ऐसे घृणित व्यवहार का उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता… इसके उपरांत भी वह अपने उन्हीं अधम पतियों को, वरदान शब्द में लिपटी दया के माध्यम से मुक्त करवाती है और उनके अस्तित्व को बचाए रखने के लिए दुःख पीड़ा सहती, तेरह वर्षों तक उनके स्वाभिमान और शक्ति की रक्षा के लिए ऊर्जा प्रदान करती वन-वन भटकती रहती है।
द्रौपदी आजीवन सहधर्मिणी बनी रही, किन्तु जिसके हठ के कारण वह पाँच पुरुषों की भोग्या बनी, उसी के लांछन पूर्ण निर्णय से अंत में एकाकी निर्जन प्रदेश में अपने प्राणों को विसर्जित किया। पाँच पतियों के प्रति सेवा भाव, निष्ठा और कर्तव्य-निर्वाह के कारण एक और वह सती के आसन पर विराजमान हुई, वहीं युगों पश्चात भी व्यंग्य और उपहास की पात्र बनी रही।
विचित्र है उसका जीवन। विचित्रता और विरोधाभासों के बीच वह सदैव विशिष्ट रही। जितनी बार भी उसके अस्तित्व को मिटाने, उसे पराजित और अपमानित करने का प्रयास किया गया, वह नई ऊर्जा के साथ पुन: खड़ी होती रही।
मैंने इसी द्रौपदी के भीतर की स्त्री को जीवंत करने का प्रयास किया है। लोगों को क्यों नहीं उसके भीतर की छुपी हुई स्त्री दिखाई देती, जिसके अपने सुख-दुःख हैं, अपनी इच्छाओं के लिए एक साधारण स्त्री की भाँति पति का मुँह देखती है। क्यों पाण्डवों की महारानी कभी-कभी स्वयं को साधारण स्त्री की तुलना में अकिंचन पाती है। कृष्ण… उस युग पुरुष के लिए किस कन्या के हृदय में आकर्षण नहीं रहा होगा, फिर कृष्णा अपवाद कैसे रहती? नियति ने भी तो नाम को माध्यम बना लिया था। कृष्ण और द्रौपदी के संबंधों के कई आयाम हैं। कृष्ण के साथ द्रौपदी के अलौकिक प्रेम और सख्य भाव को भी कुरु सभा में अपमान के साथ उद्धृत किया गया। द्रौपदी को अपमानित करते हुए दुर्योधन ने व्यंग्य से कहा था कि, ‘‘सुना जाता है कि पति के सखा वासुदेव कृष्ण के साथ इसकी अभेद प्रीति है, जिसकी कोई लौकिक संज्ञा नहीं है ….सचमुच अलौकिक है; इस लौकिक जगत में एक स्त्री के लिए एक पुरुष के वरण का विधान है, किन्तु पंच पतियों के वरण के पश्चात भी अन्य पुरुष की प्रिया है, अत: वह वेश्या समान है।’’
कृष्णा और कृष्ण की अलौकिक प्रीति का निर्वाह भी उसी कुरु सभा में हुआ, जब सारा लौकिक जगत अंधा और बहरा हो गया था, उस समय सैकड़ों कोस दूर उसी अलौकिक प्रीति ने उसकी पुकार सुनी और उसके सम्मान की रक्षा की।[adinserter block=”1″]
कृष्ण और द्रौपदी की अलौकिक प्रीति, सख्य भाव और निकट हृदय सम्बन्ध का कोई दूसरा उदाहरण इस जगत में अन्यत्र नहीं है… यही प्रीति भी द्रौपदी की ऊर्जा का स्रोत भी रही। द्रौपदी की कथा केवल तीन पात्रों-कृष्ण, कृष्णा और कर्ण की है, अन्य पात्र तो इन चरित्रों का विकास ही करते रहे।
व्यास रचित महाभारत कथा में कुरु सभा में कर्ण ने दुर्योधन को द्रौपदी के अपमान के लिए उकसाया था, किन्तु मेरे मन ने कभी इसे स्वीकार नहीं किया; इस विषय में इतना ही कह सकती हूँ कि इतिहास सदैव विजेताओं का होता है… इस न्याय से युधिष्ठिर धर्मराज बन गए और कर्ण ….।
कर्ण जैसा पराक्रमी, दानी और वचन का निर्वाह करने वाला व्यक्ति, जो निःसंदेह विचारवान और शीलवान भी था, वह किसी स्त्री के विषय में इस प्रकार के शब्द अपनी जिह्वा पर नहीं ला सकता था, वह भी उस स्त्री के लिए, जिसके प्रति उसके हृदय में कोमल भावनाएँ और सम्मान था। निःसंदेह वह सम्मान ही था, जिसके कारण स्वयंवर में प्रश्न उठाए जाने पर उसने अपना धनुष वापस रख दिया था… अन्यथा कर्ण अपने कवच कुण्डलों के साथ इतने समर्थ थे कि वह द्रौपदी का हरण कर लेते और तत्कालीन समाज में कन्या का हरण कोई निंदित कर्म नहीं था। भीष्म ने अपने भाइयों के लिए अंबा, अंबिका और अम्बालिका का हरण किया था, कृष्ण ने रुक्मिणी के प्रेम को स्वीकार कर उनका हरण किया था; किन्तु यह कर्ण का चरित्र नहीं था।
कर्ण ने अपने उदात्त चरित्र से जो मापदण्ड स्थापित किए हैं, उसके आगे सब के चरित्र बौने हैं। महाभारत के इस तथाकथित धर्म-युद्ध में सब का चरित्र स्खलित हुआ… युधिष्ठिर ने झूठ का सहारा लिया, अर्जुन ने शिखण्डी के पीछे छुप कर पितामह को शर शय्या पर सुलाया, भीम ने नियम के विरुद्ध दुर्योधन को मारा, अर्जुन ने निःशस्त्र कर्ण का वध किया और शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा करने वाले स्वयं कृष्ण ने दो बार अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ा… पर कर्ण; कालिमा की एक महीन रेखा भी नहीं।
मेरी यह रचना, द्रौपदी (स्त्री) के मन को समझने का प्रयास है। यदि विश्व की आधी जनसंख्या (स्त्री) स्वयं की क्षमता और कर्तव्य को समझ ले, तो यह पृथ्वी पूरी न सही किन्तु बहुत अंशों में सुन्दर हो जाएगी। आज की स्त्री को सीता और द्रौपदी दोनों को ही समझने की आवश्यकता है। सीता से परित्याग की शिक्षा ग्रहण करने से पूर्व, उसे द्रौपदी से शक्ति ऊर्जा और निर्वाह का पाठ पढ़ना आवश्यक है।
– शची मिश्र
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अनुक्रम
1. आरोहण
2. कृष्णा
3. सखी
4. शिखण्डी
5. स्वयंवर
6. भिक्षा
7. खाण्डवप्रस्थ
8. सखा
9. पार्थ
10. इंद्रप्रस्थ
11. राजसूय
12. द्यूत
13. अरण्य
14. संधि
15. महासमर
16 . कर्ण
17 . हस्तिनापुर
18 . कुंती
19. द्वारका
20. महाप्रस्थान
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