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पुस्तक विभिन्न प्रकार की पद्धतियों का सुझाव देते हुए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रदान करती है जिसका उपयोग अध्ययन करने के तरीके पर किया जा सकता है। पढो तो ऐसे पढो हिंदी में है जो अध्ययन के दृष्टिकोण के बारे में विशिष्ट उपकरणों की रूपरेखा तैयार करता है जो किसी भी परीक्षार्थी द्वारा देखे जाने के लिए बाध्य हैं और अच्छे अंक प्राप्त करने में मदद करेंगे। पुस्तक छात्रों को उनकी एकाग्रता और सीखने की क्षमता में सुधार करने में सक्षम बनाती है।
लेखक, एक अत्यधिक सफल करियर नौकरशाह, एक प्रेरक भाषा में बताते हैं कि विचार प्रक्रिया कैसे काम करती है और ज्ञान प्राप्त करने के लिए मस्तिष्क को कैसे उत्तेजित किया जाए। पुस्तक के अनुसार, सभी के लिए अपने अकादमिक जीवन में उत्कृष्टता प्राप्त करना संभव है, लेकिन अविभाजित एकाग्रता की आवश्यकता है। पुस्तक छात्रों को उनकी विचार प्रक्रिया को बदलकर अपने लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद कर सकती है।
पुस्तक में दिए गए दिशा-निर्देशों और सुझावों का पालन करते हुए, कोई भी अपने मन को नियंत्रित करना सीख सकता है और यह पता लगा सकता है कि मानव मन अनंत संभावनाओं से भरा एक बॉक्स है। लेकिन इन संभावनाओं को तभी महसूस किया जा सकता है जब किसी के पास सामान्य से परे सोचने और उस क्षमता को महसूस करने की क्षमता हो जिसे मानव मस्तिष्क प्राप्त करने में सक्षम है। पुस्तक उन लोगों के लिए लिखी गई है जो सफलता के लिए कुछ सरल नियमों का पालन करके अपनी सीमा से परे सफल होने की उम्मीद कर रहे हैं।
लेखक के बारे में:
डॉक्टर विजय अग्रवाल, एक पीएचडी और एक पूर्व सिविल सेवक, एक लेखक, एक सार्वजनिक वक्ता और जीवन प्रबंधन के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने 90 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं और भारतीय न्यायिक अकादमी और भारतीय वन प्रबंधन संस्थान के साथ अतिथि संकाय रहे हैं।
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पुस्तक का कुछ अंश
यह पुस्तक क्यों?
‘अधिक–से–अधिक अंक लाना’ आज के विद्यार्थी का पहला और अंतिम उद्देश्य बन गया है। इस उद्देश्य में उनकी मदद के लिए एक–से–एक अच्छे और बड़े संस्थान हैं और जहाँ नहीं हैं, वहाँ होते जा रहे हैं।
इस पुस्तक को लिखने की मेरी चिन्ता ऊपर के इसी पैरे से जुड़ी हुई है।
आज की गलाकाट प्रतियोगिता को देखते हुए मेरी पहली चिन्ता यह है कि ‘विद्यार्थियों के लिए’ तो बहुत कुछ किया जा रहा है, लेकिन ‘विद्यार्थियों पर’ किए जाने वाले प्रयासों की संख्या नहीं के बराबर है।
यह पुस्तक ‘विद्यार्थियों पर’ किए गए अध्ययन का परिणाम है। इससे उन्हें ‘अधिक–से–अधिक’ अंक लाने में बहुत मदद मिल सकेगी। साथ ही यह भी कि वे अपने इस उद्देश्य को अपेक्षाकृत आसानी से, अपने विद्यार्थी जीवन का भरपूर आनन्द उठाते हुए पा सकेंगे।
मेरी दूसरी चिन्ता यह है कि वहाँ का क्या होगा, जहाँ ऐसे संस्थान नहीं हैं। मुझे लगा कि यदि वहाँ संस्थान नहीं पहुँचाए जा सकते, तो कम–से–कम एक ऐसी पुस्तक तो पहुँचाई ही जा सकती है, जो संस्थान की कमी की कुछ सीमा तक भरपाई कर सके।
बस, इन्हीं दो मुख्य चिंताओं से मुक्ति पाने के उद्देश्य से मैंने अपने लगभग छह वर्षों के निरन्तर अध्ययन, प्रयोगों, बातचीत तथा अपने विद्यार्थी एवं अध्यापक के रूप में अब तक के गहरे अनुभवों के आधार पर यह पुस्तक तैयार की है। मेरी कोशिश रही है कि इससे विद्यार्थियों को अध्ययन से संबंधित उनकी सभी समस्याओं का समाधान मिल जाए। यदि आपका कोई प्रश्न अनुत्तरित रह जाये, तो मुझे लिखने में तनिक भी संकोच न करें।
इस पुस्तक को लिखने के लिए दो लोग मेरे प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। पहले, सिद्ध भाऊजी; जो बच्चों की शिक्षा के लिए समर्पित व्यक्तित्व हैं। दूसरा, मेरा बेटा जिसे पढ़ाने और उसके प्रश्नों के उत्तर देने के दौर में मैंने बहुत कुछ सीखा और मुझे लगा कि अब इस पर कुछ लिखना चाहिए।
प्रिय मित्रों, अब यह पुस्तक मेरी नहीं, आपकी है। आप बताएँ कि आपको यह कैसी लगी।
“आपके दिमाग (मस्तिष्क) में यह बात बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए कि आप अमुक पुस्तक पढ़ क्यों रहे हैं।”
सचमुच, उन युवा विद्यार्थियों को यह विश्वास दिला पाना आसान काम नहीं था कि अध्ययन की भी कोई कला होती है, लेकिन एक महीने के लगातार सम्पर्क के बाद उनके पास मेरी बात को झुठलाने का कोई उपाय नहीं रह गया था। उन्हें यह मानना ही पड़ा कि अब किसी भी विषय को पढ़ने, देखने, समझने, अपने दिमाग में बनाये रखने तथा उसे दूसरों को बताने का उनका पूरा ढंग ही बदल चुका है। वह पब्लिक स्कूल इस बात का प्रमाण था कि सी.बी.एस.ई. की परीक्षा में उनके यहाँ का परीक्षा परिणाम 100 प्रतिशत रहा और वह भी प्रथम श्रेणी की बहुलता के साथ।
आप यह पुस्तक पढ़ रहे हैं। इसका मतलब ही है कि आपके पास अध्ययन करने का अपना अनुभव रहा है। मुझे नहीं मालूम कि आपको कभी यह बताया गया है या नहीं कि अध्ययन करना अपने–आप में एक कला है। यह सिर्फ कला ही नहीं, बल्कि एक विज्ञान भी है। जहाँ तक मेरा अपना अनुभव है, इस बारे में मैंने जितने लोगों से बातें की हैं, लगभग सभी ने मुझे निराश ही किया है। मुझे उनका यही उत्तर मिला कि’ हम पढ़ते रहे हैं। बस इतना ही। अब इसमें जानने जैसी बात क्या है’, लेकिन मैं बचपन से ही इसके प्रति बेहद उत्सुक रहा हूँ। मेरे ऐसे साथी मुझे हमेशा बहुत सम्मोहित करते रहे हैं, जो पढ़ते मुझसे कम थे, लेकिन नम्बर मुझसे ज्यादा लाते थे। हालाँकि पढ़ता मैं भी तो बहुत ज्यादा नहीं था, लेकिन उनके अनुपात में नम्बर अधिकांशत: कम ही आए। मेरे लिए शुरू से ही यह समस्या ब्रह्माण्ड के रहस्य को जानने की समस्या से कम नहीं रही, लेकिन जब किसी समस्या के प्रति जिज्ञासा बहुत अधिक बढ़ जाती है, तो आप ही उसका समाधान निकालने वाले बन जाते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। समाधान निकालने के लिए मैंने अपने अनुभव के साथ–साथ सैकड़ों सफल और असफल लोगों के भी जीवन्त अनुभवों को आत्मसात किया। उनसे कुछ निष्कर्ष निकाले। उन निष्कर्षों को प्रयोग की कसौटियों पर कसा और फिर जो इन कसौटियों पर खरे उतरे, उन्हें मान लिया। मैं यहाँ अपने कुछ ऐसे ही अनुभवसिद्ध तथ्यों को आप सबके साथ बाँटने जा रहा हूँ। मेरा पूरा विश्वास है कि ये बातें आपके लिए बेहद लाभकारी सिद्ध होंगी, बशर्ते कि आप इन्हें अपने अध्ययन की पद्धति में, जितना भी सम्भव हो सके, उतार सकें।[adinserter block="1"]
अध्ययन कला है और विज्ञान भी
आमतौर पर हम सभी कला और विज्ञान को अलग–अलग मानते हैं, लेकिन यदि गहराई में जाकर देखा जाए, तो ये दोनों आपको एक ही सिक्के के दो पहलू मालूम पड़ेंगे। कला का अर्थ है – किसी भी काम को अच्छे तरीके से करने की जानकारी। हम सभी गाते और गुनगुनाते हैं, लेकिन जब हम गाने की कला को जान लेते हैं, तो गायक बन जाते हैं। हम सभी कुछ न कुछ खेलते ही हैं, लेकिन जब हम इसे ही अच्छे तरीके से खेलने लगते हैं, तो खिलाड़ी बन जाते हैं। हम सभी पढ़ते हैं। तो क्या हम यह नहीं कह सकते कि जब हम अच्छे तरीके से पढ़ते हैं, तो अच्छे अध्येता बन जाते हैं?
विज्ञान क्या है? ज्ञान का व्यवस्थित रूप ही विज्ञान है। वैदिक ग्रन्थों में विज्ञान को व्यावहारिक ज्ञान (एप्लाइड नॉलेज) कहा गया है। जब हम ज्ञान को प्रयोग में लाने लगते हैं, तो वही विज्ञान बन जाता है। विज्ञान का अर्थ केवल रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र या जीव विज्ञान ही नहीं है। विज्ञान बहुत व्यापक है। जहाँ भी एक निश्चित व्यवस्था होगी, वहाँ विज्ञान होगा। हम जो जीवन जी रहे हैं, वह एक निश्चित व्यवस्था के तहत ही जी रहे हैं। साँस का आना–जाना, भूख लगना तथा सोना आदि सब कुछ एक व्यवस्थित तरीके से होता जा रहा है। जैसे ही यह व्यवस्था भंग होगी, वैसे ही हमारा जीवन टूट जाएगा।
प्रकृति में और हमारे जीवन में भी, जितनी भी घटनाएँ हो रही हैं, वे सभी एक निश्चित वैज्ञानिक नियम के तहत हो रही हैं। तो फिर भला हम अपने अध्ययन करने को किस प्रकार विज्ञान से परे कह सकते हैं? मैं समझता हूँ कि अध्ययन करना तो शायद विज्ञानों का भी विज्ञान है। यह एक अद्भुत विज्ञान है। अद्भुत इस मायने में कि पहले तो हम पुस्तक पढ़ते हैं। फिर पढ़े हुए भाव और विचारों के बिम्ब अपने मस्तिष्क पर बनाते हैं। हमारा मस्तिष्क उनमें काँट–छाँट करके (सम्पादन करके) उन्हें सँजोता है। यहाँ तक कि हमारा मस्तिष्क उनमें अपनी तरफ से नई बातें डालकर उनका रूप बदल देता है। फिर कुछ निश्चित समय तक इन्हें अपने मस्तिष्क में बनाये रखता है। कुछ समय बाद उनमें से कुछ को हमेशा के लिए नष्ट भी कर देता है और जब कभी इनकी जरूरत पड़ती है, तो वह हमें निकालकर दे भी देता है।
यहाँ आप इसकी तुलना कम्प्यूटर की प्रक्रिया से करें। आप जो कुछ टाइप करते हैं, वह ‘मेमोरी’ में चला जाता है। उसकी आप ‘एडिटिंग’ करते हैं। फिर आप उसे ‘सेव’ कर लेते हैं। जब उसकी जरूरत पड़ती है, तब आप उस ‘फाइल’ को ढूँढ़कर ‘स्क्रीन’ पर ले आते हैं। मेरा आपसे प्रश्न केवल यह है कि यदि कम्प्यूटर विज्ञान है, तो फिर क्या हमारा मस्तिष्क विज्ञान नहीं हो सकता? मस्तिष्क तो एक विलक्षण कम्प्यूटर है। यह कम्प्यूटरों का भी कम्प्यूटर है। इसलिए मैंने अध्ययन को ‘विज्ञानों का विज्ञान’ कहा है।[adinserter block="1"]
लेकिन अध्ययन केवल विज्ञान ही नहीं है, क्योंकि अध्ययन करने का ढंग प्रत्येक व्यक्ति के अनुसार बदलता रहता है, जबकि विज्ञान में ऐसा नहीं होता। विज्ञान के निष्कर्ष हमेशा एक ही तरह के होते हैं; फिर चाहे उसे कोई भी निकाले, लेकिन अध्ययन के साथ ऐसा नहीं होता। स्वामी विवेकानंद के लिए किसी पुस्तक को एक बार पढ़ लेना ही पर्याप्त था, जबकि आम विद्यार्थी उसे पचास बार पढ़कर भी उतना याद नहीं रख पाता। यदि अध्ययन एक शुद्ध विज्ञान होता, तब तो सभी के साथ एक ही घटना घटती। चूँकि ऐसा नहीं हो रहा है, इसीलिए हमें यह मानना पड़ता है कि यह एक कला भी है। जब किसी काम को करने का नियम तो एक होता है, लेकिन उसके करने के ढंग कई–कई हो जाते हैं, तो वह प्रक्रिया कला बन जाती है। जैसे चित्र बनाने के नियम हैं। भाषा का भी एक निश्चित व्याकरण है, लेकिन जितने लोग चित्र बनाएँगे, सबके अपने–अपने ढंग होंगे; और जितने भी लोग कविताएँ लिखेंगे, सबकी अपनी–अपनी कविताएँ होंगी।
तो इसका सीधा–सा मतलब हुआ कि –
यह जानना कि ‘कैसे होता है’ विज्ञान है, तथा
यह जानना कि ‘कैसे किया जाता है,’ कला है।
ठीक यही बात अध्ययन के साथ भी है। अध्ययन की अपनी एक निश्चित वैज्ञानिक पद्धति होती है, लेकिन जब इस पद्धति का उपयोग किया जाता है, तब हर विद्यार्थी के साथ अलग–अलग तरह की घटनाएँ घटती हैं। इसका कारण बहुत साफ है। पढ़ने की पद्धति तो एक है, लेकिन पढ़ने वाले तो एक–से नहीं हैं। प्रकृति ने हर व्यक्ति को हर दृष्टि से अलग–अलग बनाया है। प्रत्येक की रुचि अलग है। हर–एक की मानसिक और शारीरिक क्षमताएँ अलग–अलग हैं। प्रत्येक के जीन्स अलग हैं और हर एक की परिस्थितियाँ और वातावरण अलग हैं। इसलिए यह भी स्वाभाविक ही है कि अध्ययन का नियम एक होने के बावजूद उसके परिणाम अलग–अलग प्राप्त हों।[adinserter block="1"]
लेकिन इतना जरूर है कि जो भी पढ़ने की इस कला को समझ लेगा, वह निश्चित रूप से अपने परिणाम को बेहतर बना लेगा। यह तो हो सकता है कि तुलनात्मक दृष्टि से वह दूसरे से अधिक बेहतर न हो, लेकिन यह नहीं हो सकता कि वह तुलनात्मक दृष्टि से स्वयं से भी बेहतर नहीं होगा। यह सम्भव ही नहीं है। बदलाव होगा और पक्के तौर पर होगा। यह प्रकृति का एक शाश्वत नियम है कि जब कोई भी काम व्यवस्थित तरीके से किया जाता है, तो उसके परिणाम पहले से बेहतर ही होंगे। जंगल में पेड़ उगते हैं। बिना देखभाल के वे काफी बड़े भी हो जाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें देखभाल की जरूरत ही नहीं होती। यदि उन्हीं पेड़ों को व्यवस्थित तरीके से लगाया जाए और उनकी देखभाल की जाए, तो वे ही पेड़ पहले की अपेक्षा तेज़ गति से बढ़ेंगे और अधिक व्यास वाले तथा अधिक लम्बे भी होंगे। हमें इस तथ्य को स्वीकार करना ही चाहिए।
अध्ययन क्या है?
मैं यहाँ कुछ ऐसी बातों की चर्चा कर रहा हूँ, जिन्हें पढ़कर अभी आपको यह लग सकता है कि इन बातों का भला अध्ययन की कला से क्या लेना–देना है, लेकिन मुझे आपसे धैर्य की अपेक्षा है। सच पूछिए तो अध्ययन की कला अपने–आपमें इतनी अधिक व्यापक और गहरी है कि जब तक उसकी सारी बातों को बताया न जाए, तब तक आप इस कला को पूरी तरह सीख नहीं पाएँगे। इसलिए मैं आपसे थोड़ी छूट ले रहा हूँ।
अध्ययन का सीधा–साधा अर्थ तो यही है –पढ़ना। व्यापक अर्थों में अध्ययन करने का संबंध केवल किताब पढ़ने से नहीं होता। आप एक व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन कर सकते हैं। आप एक तितली की गतिविधियों का अध्ययन कर सकते हैं। आप पर्यावरण का अध्ययन कर सकते हैं। भले ही हम इसे पर्यवेक्षण कहें, लेकिन यह मूलत: अध्ययन करना ही है। यह बात जरूर है कि हम जिस बात की चर्चा करने जा रहे हैं, उसका संबंध पुस्तक के ही अध्ययन करने से है, लेकिन अपनी व्यापकता में अध्ययन का अर्थ हो जाता है – किसी भी बात के बारे में जानना। यही अध्ययन है। यह बात अलग है कि हम उसे देखकर जान रहे हैं या पुस्तक के माध्यम से जान रहे हैं या सुनकर जान रहे हैं।[adinserter block="1"]
इस दृष्टि से अगर आप सोचें, तो पाएँगे कि आप हर समय अध्ययन कर रहे हैं; चाहे यह अध्ययन कान से हो रहा हो (सुनकर) या फिर आँखों के जरिए हो रहा हो (देखकर)। इस प्रकार हमारे अध्ययन करने में जो तरीके हमारी मदद करते हैं; वे हैं –
(1) देखना,
(2) सुनना,
(3) पढ़ना,
(4) सीखना,
(5) सोचना,
(6) समझना,
(7) लिखना, और
(8) बोलना आदि।
यानी कि हमारा कोई भी वह काम; जिसमें हमारा मस्तिष्क शामिल है, एक प्रकार से हमारे अध्ययन की गतिविधि बन जाती है।
मैं समझता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति को और विशेषकर विद्यार्थियों को अध्ययन को इसी व्यापक अर्थ में लेना चाहिए कि वह हर पल कुछ न कुछ सीख रहा है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ, इसे आप आगे चलकर और अच्छी तरह समझ सकेंगे। यहाँ इतना ही बताना पर्याप्त होगा कि पढ़ने के दौरान जब हमारा मस्तिष्क किसी बात को ग्रहण करता है, तो उसके ग्रहण करने की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि आपने अपने मस्तिष्क को किस तरह का बना रखा है। यदि आपके पास अनुभवों का दायरा बहुत है, तब आप पाएँगे कि आपके मस्तिष्क के ग्रहण करने की क्षमता भी बढ़ गई है। निश्चित रूप से यह अनुभव जीवन का अनुभव होता है, पुस्तकीय अनुभव नहीं और जीवन के अनुभव देखने–सुनने, सोचने–समझने और बात–व्यवहार करने से आते हैं। अधिकांश लोग इन बातों की उपेक्षा कर देते हैं। उनके लिए केवल पुस्तक पढ़ना ही सच्चा अध्ययन करना है। ऐसे पढ़ाकू किस्म के विद्यार्थी अपनी स्कूली पढ़ाई में भले ही सफल हो जाते हैं, लेकिन जब उन्हें जीवन के मैदान में आना पड़ता है, तब वे अपने को पूरी तरह ‘अनफिट’ पाते हैं। ऐसे लोगों का असफल होना पक्का है। वे सोचते हैं कि ‘मैं पढ़ने में इतना तेज था, लेकिन जिन्दगी के इस मैदान में इतना फिसड्डी सिद्ध क्यों हो रहा हूँ।’ उनके इस फिसड्डीपने का बहुत सीधा–सा उत्तर यही है कि उन्होंने अपने अध्ययन को केवल पुस्तक तक सीमित कर दिया। मुझसे दो साल वरिष्ठ विज्ञान की एक विद्यार्थी थीं, जो अपनी किसी भी परीक्षा में कभी भी द्वितीय स्थान पर नहीं आईं। लगता था कि प्रथम स्थान उनके लिए आरक्षित है, लेकिन वे अब एक हायर सेकेण्ड्री स्कूल में पढ़ा रही हैं। क्यों? शायद उत्तर आपको मालूम हो गया होगा। इसीलिए मेरा आपसे पहला अनुरोध यही है कि आप अध्ययन को विस्तृत अर्थ में लें।
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अध्ययन क्यों?
हम अध्ययन का मुख्य उद्देश्य कुछ ‘सीखना’ को ही समझते हैं। जबकि यह यहीं तक सीमित नहीं है। अध्ययन करने के पीछे कई कारण हो सकते हैं। यहाँ तक कि जब एक ही पुस्तक को अलग–अलग व्यक्ति पढ़ते हैं, तब उनके पढ़ने के उद्देश्य अलग–अलग होते हैं। वस्तुत: हम किसी पुस्तक को कैसे पढ़ें या किसी का अध्ययन कैसे करें, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उस पुस्तक को पढ़ने या उसके अध्ययन करने के पीछे हमारा उद्देश्य क्या है। उदाहरण के लिए आप हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं और प्रेमचन्द का उपन्यास ‘गोदान’ पढ़ रहे हैं। इस उपन्यास की प्रशंसा सुनकर आपके पड़ोसी ने भी उस उपन्यास को पढ़ा, जो हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी नहीं है। आपने इसे इसलिए पढ़ा, क्योंकि यह आपके विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल है। निश्चित रूप से आप इस उपन्यास को उपन्यास की तरह नहीं, बल्कि एक किताब की तरह पढ़ेंगे। आप उसे समीक्षात्मक ढंग से समझेंगे और महत्त्वपूर्ण बातों को याद करेंगे, जबकि आपके पड़ोसी को इस तरह पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। उन्होंने उपन्यास को केवल आनन्द के लिए पढ़ा है। स्वाभाविक है कि उनके पढ़ने का तौर–तरीका आपसे बिल्कुल अलग होगा। आपने अक्सर देखा होगा कि रेलवे प्लेटफार्म पर बिकने वाली किताबें इस तरह की होती हैं, जिन्हें आप सफर में आराम से पढ़ सकें। ये किताबें आपके लिए अलग से ‘स्टडी रूम’ की माँग नहीं करतीं।
एक सामान्य दर्शक कोई फिल्म देखता है और जब उसी फिल्म को एक फिल्म–समीक्षक देखता है, तो दोनों के देखने में जमीन–आसमान का अन्तर होता है। चूँकि आम दर्शक का उद्देश्य मनोरंजन करना है, इसलिए उसके ध्यान का केन्द्र बिन्दु फिल्म की कहानी, गीत, संगीत और नृत्य आदि होंगे। जबकि समीक्षक के केन्द्र में इसके साथ ही फोटोग्राफी, सम्पादन आदि भी न जाने अन्य कितनी छोटी–छोटी बातें शामिल होंगी। आम दर्शक फिल्म को देखता है। जबकि एक समीक्षक फिल्म को देखता नहीं, बल्कि पढ़ता है। आपके और मेरे लिए सूर्यास्त का दृश्य एक मनमोहक दृश्य होगा, जबकि यही दृश्य एक फोटोग्राफर के लिए रचनात्मकता का अद्भुत क्षण बनकर उसे तनाव से भर देगा।[adinserter block="1"]
मैं समझता हूँ कि इन उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो गई होगी कि एक ही विषय अलग–अलग व्यक्तियों के लिए अध्ययन के अलग–अलग रूप प्रस्तुत करता है और हमें इस बारे में पूरी तरह सतर्क रहना ही चाहिए।
सामान्य तौर पर किसी भी अध्ययन के निम्न उद्देश्य हो सकते हैं –
1. शुद्ध मनोरंजन (टाइम पास करना),
2. परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए, तथा
3. समझ विकसित करने के लिए।
मैं यहाँ आपको इस बात के प्रति विशेष रूप से सतर्क करना चाहूँगा कि हालाँकि मैंने परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए तथा समझ विकसित करने के लिए, दोनों को अलग–अलग रखा है, लेकिन बहुत से मायनों में ये एक भी हो जाते हैं। यदि आप किसी विषय के बारे में अपनी समझ बढ़ा लेते हैं, तो परीक्षा में अच्छे अंक लाना अधिक सुनिश्चित हो जाता है। फिर भी कुछ विषय ऐसे होते हैं, जिन्हें शुद्धत: परीक्षा की दृष्टि से ही पढ़ा जाता है। उनमें अपनी समझ विकसित करने की सम्भावना भी काफी कम रहती है। इसीलिए मैंने इन्हें अलग–अलग रखा है।
समझ विकसित करने के लिए पढ़ने वाले पाठक वे होते हैं, जिन्हें किसी तरह की कोई परीक्षा नहीं देनी होती। फिर भी वे पढ़ते हैं, ताकि अपने समय का समुचित उपयोग कर सकें, अपने ज्ञान में निरन्तर वृद्धि कर सकें, अपने मस्तिष्क को तरोताजा बनाए रख सकें, अपने दिमाग को कसरत करा सकें तथा उससे जीवन के बारे में अपनी समझ बना सकें। इसमें आम पाठक के साथ–साथ पूरा बुद्धिजीवी वर्ग आ जाता है, लेकिन अध्ययन की कला के अन्तर्गत मैं जिस तकनीक की चर्चा करने जा रहा हूँ, उसका संबंध विशेष रूप से विद्यार्थियों से है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यह तकनीक अन्य पाठकों के लिए अर्थहीन है।
तो इस प्रकार ‘पढ़ो तो ऐसे पढ़ो’ का प्रथम मंत्र यह है कि –
आपके मस्तिष्क में यह बात बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए कि आप अमुक पुस्तक पढ़ क्यों रहे हैं?
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अध्याय 2
अध्ययन का मनोविज्ञान
“सकारात्मक मनोभाव अध्ययन के लिए खाद का काम करते हैं।”
चूँकि अध्ययन का सम्बन्ध सीधे–सीधे मस्तिष्क से होता है, इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि इसका अपना एक विशेष मनोविज्ञान भी होगा। यहाँ मनोविज्ञान कहने का अर्थ मन के वातावरण से है। बीज कितना भी अच्छा क्यों न हो, लेकिन यदि उसे अच्छी उपजाऊ जमीन में नहीं बोया गया, तो वह अच्छी फसल नहीं दे सकता। यहाँ तक कि यदि बीज बहुत अच्छा है जमीन भी बहुत उपजाऊ है, लेकिन यदि उसे सही समय पर नहीं बोया गया और बाद में उसे सही वातावरण नहीं मिला, तो वह बीज एक अच्छे पेड़ में परिवर्तित नहीं हो सकता। यह बहुत जरूरी होता है कि हम किसी भी कार्य के होने के उस वातावरण से बहुत अच्छी तरह परिचित हों, जिस वातावरण में वह काम अच्छे से अच्छा हो सकता है। हमें अपनी सोच, अपने काम को केवल इस छोटे–से दायरे तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए कि काम हो जाये, बल्कि उसे कम से कम इतना विस्तार तो देना ही चाहिए कि वह काम अच्छे से अच्छे तरीके से हो और इसके लिए वातावरण बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।[adinserter block="1"]
तो आइये, हम कुछ उन महत्त्वपूर्ण बातों को जानें, जो अध्ययन के लिए एक आदर्श वातावरण रचते हैं –
(क) भोर को भूलें नहीं
सामान्यतया किसी भी समय पढ़ाई की जा सकती है और की ही जाती है। पढ़ाई होती भी है। सफलताएँ भी मिलती हैं, लेकिन मुझे यहाँ प्रख्यात शायर जावेद अख़्तर साहब की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं –
जो ख्वाब में था पा लिया,
पर खो गई वो चीज़ क्या थी?
जापान की कार्य संस्कृति का एक बहुत प्यारा शब्द है– ‘कायजेन’। इसका अर्थ होता है–निरन्तर विकास। अभी तक आप किसी भी समय पढ़ रहे थे और इससे आपको सफलता भी मिली है। यह वह सफलता है, जो आपके सामने मौजूद है, लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा कि ‘खो गई वो चीज़ क्या थी।’ हो सकता है कि आप इससे भी बेहतर सफलता पा सकते थे, बशर्ते कि आपने समय का ध्यान रखा होता।
यह प्रकृति का ही नियम है कि हमारी जीवनचर्या और यहाँ तक कि हमारे शरीर और मस्तिष्क का पूरा रसायनशास्त्र सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्रों से प्रभावित होता है। उसी के अनुकूल हमारी ग्रंथियों से रस निकलते हैं, जो हमारे रक्त में मिलकर हमारी तंत्रिकाओं को जबर्दस्त रूप से प्रभावित करते हैं। हमें कितनी भी नींद क्यों न आ रही हो, लेकिन जितनी गहरी नींद में हम रात में सो सकते हैं, उतना दिन में नहीं। ऐसा क्यों? कारण बिल्कुल साफ है। कारण यह है कि प्रकृति ने रात की रचना ही कुछ इस तरह से की है कि व्यक्ति के थके हुए शरीर और मस्तिष्क को पर्याप्त विश्राम मिल सके। अब यदि हम इसके विपरीत कुछ करते हैं, तो वह हो तो जाता है, नींद आ तो जाती है, लेकिन वैसी नहीं आ पाती, जैसी कि आनी चाहिए थी। अध्ययन के बारे में भी ठीक यही बात लागू होती है।[adinserter block="1"]
अध्ययन करने का जो आदर्शतम् समय है, वह है – भोर का समय। ऐसा क्यों है, इसके बहुत ही स्पष्ट भौतिक और मानसिक कारण हैं। पहला तो यही कि भोर में जब आप उठते हैं, उससे ठीक पहले आपके शरीर और मस्तिष्क को पर्याप्त विश्राम मिल चुका होता है। वह तरोताजा है और उसमें नई चुनौतियों को स्वीकार करने की अभी सबसे अधिक ताकत है। धीरे–धीरे जैसे ही वह जीवन के जद्दोजहद से जूझेगा, वैसे–वैसे उसका जुझारूपन कम होता जाएगा। मैं समझता हूँ कि हमारे शरीर और मस्तिष्क की भोर में मौजूद क्षमता का अधिकतम् उपयोग विद्यार्थियों को कर लेना चाहिए।
दूसरा यह कि भोर में चारों ओर का वातावरण बिल्कुल शान्त है। घर में भी शान्ति है और बाहर भी। यदि आपको अशान्ति को ही शान्ति समझने की गलत आदत नहीं पड़ गई है, तब आप पाएँगे कि शान्त वातावरण में हमारा मस्तिष्क पढ़ी, देखी या सुनी हुई बातों की जितनी अच्छी छवियाँ अपने पटल पर अंकित कर पाता है, उतना अशान्त माहौल में नहीं। क्या आपने कभी सोचा है कि क्यों सिनेमा हॉल में फिल्म शुरू करने से पहले बिल्कुल अंधेरा कर दिया जाता है और दरवाजों के पर्दों पर टँगे पर्दे, वे भी काले रंग के, क्यों गिरा दिये जाते हैं? यह एक मनोवैज्ञानिक तैयारी है। सिनेमा हॉल का वातावरण जितना अधिक शान्त और रात्रि के वातावरण का निर्माण करने वाला होगा, आपके मस्तिष्क के पर्दे पर अंकित हुई तस्वीरें उतनी ही अधिक चटक रंगों के साथ चस्पा हो सकेंगी।
ठीक यही बात भोर में पढ़ाई करने पर लागू होती है। जब हम पढ़ते हैं, तब ऐसा नहीं है कि आँखें केवल किताबों को ही देख रही हैं। वे अपने आसपास को भी देखती हैं, लेकिन चूँकि बाहर अंधेरा है, इसीलिए उसके बाहर भटकने की आशंका कम हो जाती है। जब हम पढ़ते हैं, तब ऐसा नहीं है कि केवल हमारी आँखें और मस्तिष्क ही सक्रिय हैं। इस समय हमारी अन्य इन्द्रियाँ भी अपना–अपना काम कर रही होती हैं। कान सुन रहे होते हैं और नाक सूँघ रही होती है। हमारी ये सभी इन्द्रियाँ सक्रिय होकर अपनी–अपनी सूचनाएँ हमारे मस्तिष्क को देती रहती हैं और मस्तिष्क उनमें अपनी तरह से काँट–छाँट करता रहता है। अब यह तो सीधी–सी बात है कि यदि मस्तिष्क के पास सूचनाएँ कम पहुँचेंगी, तो वह काँट–छाँट करने में भी कम उलझेगा। सुबह के समय के अध्ययन में लाभ यह होता है कि हमारी अन्य इन्द्रियों को सक्रिय होने के लिए कुछ विशेष मसाला नहीं मिलता। इस समय आँख ही वह इन्द्रिय होती है, जो पूरी तरह सक्रिय है। इसीलिए मस्तिष्क को जो सूचनाएँ आँखों के माध्यम से मिलती हैं, उन्हें वह बहुत अच्छी तरह ग्रहण कर लेता है।[adinserter block="1"]
इसे ही आप दूसरे शब्दों में ‘एकाग्रता’ कह सकते हैं। एकाग्रता का अर्थ ही है कि अग्र पर इन्द्रियों का एक हो जाना। अग्र अर्थात् आगे; जैसे कि सुई की नोंक। जब हमारी सारी इन्द्रियाँ इसी नोंक पर केन्द्रित हो जाती हैं, तो हमारी क्षमता कई गुना अधिक बढ़ जाती है। द्रोणाचार्य द्वारा अपने शिष्यों की ली गई परीक्षा वाली कहानी से आप अच्छी तरह परिचित हैं।
द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों के लक्ष्य–भेद की परीक्षा लेने के लिए एक चिड़िया पेड़ के ऊपर रख दी थी। सभी शिष्यों से चिड़िया की आँख की पुतली को भेदने के लिए कहा गया, लेकिन गुरु द्रोणाचार्य ने तीर चलाने से पहले प्रत्येक शिष्य से यह प्रश्न किया कि ‘तुम्हें पेड़ पर क्या दिखाई दे रहा है?’ इन शिष्यों में केवल अर्जुन ही ऐसा शिष्य था, जिसे केवल चिड़िया की आँख की पुतली दिखाई दे रही थी। अन्यथा सभी शिष्यों को पूरी चिड़िया, पेड़, पेड़ों की शाखाएँ और पत्ते आदि सब कुछ दिखाई दे रहे थे। गुरु द्रोणाचार्य ने इसे एकाग्रता के विरुद्ध माना। फलस्वरूप इस परीक्षा में अर्जुन सफल हुए।
एकाग्रता की इस शक्ति को आप विज्ञान के इस प्रयोग से भी समझ सकते हैं। फर्श पर कागज़ के टुकड़े पड़े हुए हैं। उन पर सूर्य की किरणें पड़ रही हैं। कागज़ों को कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन यदि आप उस कागज़ के टुकड़े के ऊपर प्रिज्म रख दें, तो पाएँगे कि कुछ ही क्षणों में वह कागज़ जलने लगा है। असल में हुआ यह है कि उस प्रिज्म ने सूर्य की बिखरी हुई किरणों को एक निश्चित बिन्दु पर केन्द्रित कर दिया। अब ये ही केन्द्रित किरणें कागज पर पड़ रही हैं और इतनी शक्तिशाली हो गई हैं कि उसे जला दे रही हैं।
एकाग्रता में अद्भुत शक्ति होती है और भोर का समय हमें बाहरी रूप से एक ऐसा वातावरण प्रदान करता है, जिसमें एकाग्रता की सबसे अधिक सम्भावनाएँ रहती हैं।
जैसे–जैसे दिन आगे बढ़ता जाता है, वैसे–वैसे जीवन की गतिविधियाँ जोर पकड़ती जाती हैं। ये गतिविधियाँ एकाग्रता को बिखेरने का कारण बन जाती हैं।
आप कह सकते हैं कि जिस प्रकार भोर का समय शान्त होता है, ठीक उसी प्रकार रात के 10–11 बजे के बाद का समय भी शान्त होता है। तो क्यों नहीं रात के 10–11 बजे से लेकर 2–3 बजे तक पढ़ा जाए? जहाँ तक बाहरी वातावरण का सवाल है, वहाँ तक तो आपकी बात काफी कुछ सही है, लेकिन हमें इस बात को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि सुबह से कार्यरत हमारे शरीर और उलझे हुए हमारे मस्तिष्क में अब तक इतनी ताजगी नहीं रह जाती कि वह उतनी अधिक सतर्कता से काम कर सके। इसीलिए यहाँ रात में पढ़ने का तर्क काफी कुछ कमजोर पड़ जाता है। फिर यह भी है कि यह प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने के नियम के विरुद्ध भी है। सूर्य की गर्मी यदि हमारे अन्दर ऊर्जा प्रदान करती है, तो उसका अभाव हमारे अन्दर की ऊर्जा को धीरे–धीरे कमजोर भी करता है। इसलिए रात में हम भोर जितने ऊर्जावान नहीं रह पाते।[adinserter block="1"]
एक बात और है। सुबह तीन बजे के आसपास (जिसे भारतीय शास्त्रों में ‘ब्रह्म मुहूर्त’ कहा गया है) हमारे मस्तिष्क से एक विशेष प्रकार का रसायन निकलता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इन रसायनों के प्रभाव से हमारी मानसिक और आध्यात्मिक क्षमता बढ़ जाती है। इसलिए इस समय हम जो कुछ भी करते हैं, उसे हमारा मस्तिष्क बहुत अधिक मात्रा में ग्रहण करता है।
फिर यह कहना भी गलत नहीं होगा कि पढ़ने का संबंध केवल दिमाग से ही तो नहीं है। इसका इतना ही संबंध हमारे शरीर की स्वस्थता से भी है। एक स्वस्थ शरीर में ही एक स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। यह बात मेडिकल साइंस सिद्ध कर चुका है कि सुबह का उठना स्वास्थ्य के लिए बहुत ही अधिक फायदेमन्द है। यदि सूर्य की प्रथम किरणें शरीर को मिलती हैं, तो वे शरीर के लिए अमृत के समान होती हैं। इस प्रकार सुबह उठने के कारण न केवल आप अपनी पढ़ाई ही अच्छे तरीके से कर सकते हैं, बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी आपको लाभ मिलता है।
अब मैं बात करना चाहता हूँ–समय के लाभ की दृष्टि से। मैंने एक प्रयोग के आधार पर यह पाया है कि यदि आप सुबह दो घण्टे की पढ़ाई कर लेते हैं, तो आपकी इस समय जो यह पढ़ाई होती है, उसे ही अन्य किसी समय में करने के लिए आपको कम से कम तीन घण्टे लगाने होंगे। इस प्रकार गणित के फार्मूले के अनुसार भोर के दो घण्टे शेष किसी भी समय के तीन घण्टे के बराबर बैठते हैं। तो क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि ऐसा करके आप अपने प्रत्येक दिन को पच्चीस घण्टे वाला दिन बना रहे हैं?
हाँ, यह बात जरूर है कि ऐसा नहीं होना चाहिए कि सुबह उठ तो गये हैं, लेकिन पढ़ते समय ऊँघ रहे हैं। यहाँ आपको जबर्दस्ती नहीं उठना है, बल्कि नींद पूरी करके उठना है। अलसाए हुए नहीं उठना है, बल्कि तरोताजा होकर उठना है। हो सकता है कि शुरुआत में आपको अपने साथ जबर्दस्ती करनी पड़े, क्योंकि आपकी आदत देर से उठने की हो गई है। ऐसी स्थिति में पढ़ाई बहुत अच्छी नहीं हो पाएगी। फिर आपको लगेगा कि यदि पढ़ाई ही अच्छे से नहीं हो पा रही है, तो फिर भोर में उठने से फायदा ही क्या है और आप इस तर्क का सहारा लेकर अपने पुराने ही तरीके पर चलने लगेंगे, लेकिन मेरी सलाह है कि यदि सचमुच में ऐसा है, तो शुरू में आप पढ़ने के लिए मत उठिए। केवल उठने के लिए उठिए। धीरे–धीरे जब भोर में उठने की आदत पड़ जाएगी, तब फिर पढ़ने की आदत अपने–आप बन जाएगी।
लेकिन याद रखिए कि सुबह उठना तभी सम्भव है, जब आप रात में जल्दी सोएँ। एक विद्यार्थी के लिए सामान्यत: 6–7 घंटे की नींद होनी ही चाहिए। इसमें दिन की भी नींद शामिल है। यदि आपकी दिन में सोने की आदत है, तो अधजगे में पढ़ाई करने से तो बेहतर यही है कि पढ़ाई ही न की जाए। इससे कम से कम एक काम तो पूरा होगा, भले ही वह काम नींद पूरी करने का ही काम क्यों न हो।[adinserter block="1"]
(ख) ऐसा हो मन आपका
यदि हम इस बात को मान लेते हैं कि अध्ययन की कला मनोविज्ञान से जुड़ी है, तब स्वाभाविक रूप से इस बारे में कोई संदेह नहीं रह जाता कि अध्ययन का सीधा और बहुत गहरा संबंध हमारे अपने मनोभावों से होता है। हालाँकि वैसे तो जीवन का कोई भी क्षेत्र और हमारे जीवन का कोई भी पल ऐसा नहीं होता, जो हमारे अनुभवों से जुड़ा हुआ न हो, किन्तु जहाँ तक अध्ययन का प्रश्न है, वह निश्चित रूप से सबसे अधिक गहरे जुड़ा रहता है। इसका कारण यह है कि जहाँ जीवन की दूसरी गतिविधियों के लिये इस बात की जरूरत नहीं होती कि हम उसे याद रखें, वहीं अध्ययन के लिए इस बात की जरूरत होती है कि उसे अधिक से अधिक याद रखा जाए तथा अधिक से अधिक समय तक याद रखा जाए। यदि हमें फसल की चिन्ता न हो तो बीज कहीं भी, किसी भी तरह और कभी भी डाले जा सकते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन यदि हमें इस बात की चिन्ता है कि फसल अच्छी से अच्छी होनी चाहिए, तो स्वाभाविक है कि हमें उसके लिए पहले जमीन को अच्छी तरह तैयार करना होगा। ठीक इसी प्रकार यदि हम यह मानकर चलते हैं कि हम जो कुछ भी पढ़ रहे हैं, हमें उसे याद रखना है, तो स्वाभाविक है कि उसके लिए एक निश्चित मनोभाव सहायक सिद्ध होता है। मनोभाव ही वह ज़मीन है, जहाँ ज्ञान की फसल ऊगेगी।
मनोभाव के बहुत से रूप हैं। सुख–दुःख, हर्ष–विषाद, लज्जा–ग्लानि, करुणा–श्रद्धा आदि सभी मनोभावों के प्रकार हैं। हमारा मस्तिष्क हर समय इनमें से किसी न किसी एक मनोभाव द्वारा प्रमुख रूप से संचालित होता रहता है। शेष भाव या तो दबे रहते हैं या यदि होते भी हैं, तो काफी कम अनुपात में।
जहाँ तक अध्ययन का प्रश्न है, मोटे तौर पर यह बात कही जा सकती है कि सकारात्मक मनोभाव अध्ययन के लिए खाद का काम करते हैं। व्यापक रूप में हम अपने जीवन के मनोभावों को दो भागों में बाँट सकते हैं – सकारात्मक और नकारात्मक। जिन भावों से हमारा मन प्रसन्न होता है, हमारे शरीर में जोश आता है, हमारा हृदय उत्साह से भर जाता है और हममें जीने की जिजीविषा पैदा होती है, उन्हें हम सकारात्मक भाव कह सकते हैं। प्रेम, करुणा, शान्त तथा वीर आदि भाव इसी के अन्तर्गत आते हैं। सच पूछिए तो जब हम इन सकारात्मक भावों के साथ जीते हैं, तो एक प्रकार से प्रभु के निकट रहते हैं और बैकुण्ठ में हमारा वास होता है।[adinserter block="1"]
नकारात्मक भाव ठीक इसके विपरीत हैं। ये वे भाव हैं, जो मन में दुःख और खीझ पैदा करते हैं, अशान्ति और जुगुप्सा पैदा करते हैं। जो भाव हमारी शारीरिक और मानसिक क्षमता के विपरीत काम करते हैं, नकारात्मक भाव कहलाते हैं। वीभत्स, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या तथा प्रतिशोध आदि की भावना ऐसे ही भाव हैं। जब हम इसके वशीभूत होते हैं, तो एक प्रकार से आदिम पशु के नजदीक होते हैं और हमारा वास नर्क में होता है।
आपने यह खुद ही अनुभव किया होगा कि सकारात्मक भावों के साथ रहने पर आप जो काम करते हैं, वे बहुत सहजता के साथ हो जाते हैं। चूँकि इस समय मन प्रसन्न रहता है, यानी कि खिला रहता है, इसीलिए कार्य के प्रति एकाग्रता भी रहती है। यहाँ तक कि ऐसे समय में हमारे शरीर और मस्तिष्क; दोनों की क्षमताएँ अपेक्षाकृत काफी अधिक हो जाती हैं। प्रसन्न मन एक गतिमान मन होता है। वह गतिशील रहता है– लगातार प्रवाहित और चलता हुआ। गतिमान मन शक्तिमान होता है और इसीलिए इस मन के साथ किये गये काम न केवल सध ही जाते हैं, बल्कि जल्दी सधते हैं और अच्छी तरह सधते हैं।
दुःखी मन ठीक इसके विपरीत गतिहीन और अलसाया हुआ मन होता है। वह कुछ भी नहीं करना चाहता और यदि कुछ करना भी चाहता है, तो अधिकांशत: ध्वंस। दुःखी मन के साथ किये गये कार्य हो भले ही जाएँ, लेकिन उनमें समय अधिक लगता है और उनकी गुणवत्ता भी बहुत कम हो जाती है।
तो इस प्रकार अध्ययन के लिए यह निष्कर्ष निकालना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि एक प्रसन्न मन अध्ययन के अधिक अनुकूल बैठता है। प्रसन्नता एक प्रकार से हमारे मस्तिष्क की भूमि को पोली और उर्वर बना देता है। ऐसे मस्तिष्क में जब सूचना के बीज डाले जाते हैं, तो उनके अंकुरित होकर एक अच्छी फसल के रूप में तब्दील होने की सम्भावनाएँ कई गुना अधिक बढ़ जाती हैं।
तो इस प्रकार पहली बात तो यह कि अध्ययन के लिए आवश्यक है कि आप तभी पढ़ें, जब मन प्रसन्न हो। दुःखी मन से की गर्ड़ पढ़ाई एक प्रकार से चट्टान पर की जाने वाली जुताई के समान लगभग व्यर्थ है।
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