पुस्तक का विवरण (Description of Book) :-
नाम / Name | पैडल पैडल / Paddle Paddle |
लेखक / Author | |
आकार / Size | 5.1 MB |
कुल पृष्ठ / Pages | 170 |
Last Updated | February 26, 2022 |
भाषा / Language | Hindi |
श्रेणी / Category | यात्रा वृतांत |
जब लेखक ने अपने एक मित्र की देखा-देखी अत्यधिक महँगी साइकिल खरीद ली, तो उनके सामने प्रश्न उठा, कि अब इसका क्या करें? यही प्रश्न धीरे-धीरे उत्तर में बदल गया, और महाशय ने आव देखा न ताव; पहुँच गए साइकिल लेकर मनाली; फिर मनाली से लेह, आगे लेह से श्रीनगर; और कुल लगभग 950 किलोमीटर की दुर्गम और कठिन यात्रा कर डाली; इसके साथ ही लोगों में फैले इस भ्रम को भी तोड़ दिया कि, दुर्गम इलाकों में साइकिलिंग, केवल विदेशी ही कर सकते हैं, भारतीय नहीं। इस यात्रा से पहले, और यात्रा के दौरान, लेखक के सामने तमाम चुनौतियाँ आर्इं। उन्होंने इन चुनौतियों का सामना किस तरह किया, यह भी कम रोचक नहीं है। यह यात्रा, वर्ष 2013 के जून महीने में तब की गई थी, जब उत्तराखंड़ में केदारनाथ त्रासदी घटित हुई थी। तब पूरे हिमालय में प्रकृति ने कहर बरपाया था। ऐसे में लद्दाख में क्या हो रहा था; एक साइकिल सवार को किन-किन प्राकृतिक व मानवीय समस्याओं का सामना करना पड़ा, और वह कैसे इनसे पार पाया; यह पढ़ना बेहद रोमांचक होगा।
पुस्तक का कुछ अंश :-
बतकही
साल 2012 की गर्मियों में मुझे साइकिल की ज़रूरत थी। मेरा ऑफिस मेरे ठिकाने से एक किलोमीटर दूर है, तो गर्मी में रोज पैदल आना-जाना भारी लगता था। हालाँकि एक किलोमीटर पैदल चलने में दस मिनट ही लगते हैं, लेकिन बोरियत होती थी। सोचा कि एक साइकिल ले लूँ: ऑफिस के साथसाथ इधर-उधर के छोटे-मोटे काम भी हो जाया करेंगे।
और जब साइकिल लेने शाहदरा गया तो साधारण साइकिल भी तीन हजार से कम नहीं मिली। दुकान पर पतले पहियों वाली रेसिंग साइकिल भी खड़ी थी - हीरो की हॉक-नू-एज। उसके दाम पता किये तो साढ़े तीन हजार निकले। जब साधारण साइकिल में और इस स्टाइलिश साइकिल में केवल 500 रुपये का ही अंतर है, तो क्यों न इसे ही ले लिया जाये। तेज भी दौड़ा करेगी और ऑफिस के साथ-साथ इधर-उधर घुमक्कड़ी भी हो जाया करेगी।
आखिरकार यही ले ली।
साइकिल लेकर शाहदरा से जब शास्त्री पार्क की ओर चला तो भीड़ में इस पर बैठने की हिम्मत नहीं पड़ी। यह साधारण साइकिलों से ऊँची थी, और मुझे भीड़ में साइकिल चलाने का अनुभव भी नहीं था। हिम्मत करके बैठा और पहला पैडल मारते ही एक रिक्शा में टक्कर भी मार दी। फिर तो चार किलोमीटर तक पैदल ही आया। ऑफिस तक जाने वाली एक किलोमीटर की सड़क खाली रहती है, वहाँ इसे चलाने का अभ्यास किया।
एक बार इसे लेकर मेरठ के लिये चला। हमारा गाँव शास्त्री पार्क से 80 किलोमीटर दूर है। गाजियाबाद तक घंटे भर में पहुँच गया। आनंद आ गया। लेकिन जब तक मुरादनगर गंगनहर पर पहुँचा, तो सारा जोश ठंडा पड़ चुका था। अब तक मैं चालीस किलोमीटर दूर आ चुका था। अभी भी इतना ही और चलना था। तारे दिखने लगे। आखिरकार नहर वाला रास्ता पकड़ लिया, क्योंकि मुझे चक्कर आने लगे थे और मैं उस अति व्यस्त मेरठ रोड पर किसी ट्रक या बस के नीचे नहीं गिरना चाहता था।
किसी तरह घर पहुंचा। जाते ही साइकिल एक तरफ फेंक दी। घरवालों और पड़ोसियों ने अच्छी-खासी सुनायी। अगले दिन जब वापस दिल्ली के लिये चला तो साइकिल की तरफ देखने का भी मन नहीं हुआ। कई दिनों बाद घरवाले ही उसे दूध के ट्रक पर लादकर दिल्ली पहुंचा गये। ऊपर से लेकर…..
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