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मानसिकताएँ
जब मैं युवा शोधकर्ता के रूप में काम शुरू कर रही थी, तो एक चीज़ हुई जिसने मेरी ज़िंदगी बदल दी। मुझमें यह समझने का जुनून था कि लोग असफलता से कैसे मुक़ाबला करते हैं। मैंने विद्यार्थियों का अध्ययन करके देखा कि वे अपनी मुश्किल समस्याओं से कैसे जूझते हैं। मैंने स्कूल जाकर एक-एक बच्चे को कमरे में बुलाया, उसे आरामदेह महसूस कराया और फिर उससे पज़ल्स हल करने को कहा। शुरुआती पज़ल्स काफ़ी आसान थीं, लेकिन बाद वाली मुश्किल थीं। जब विद्यार्थी उह-आह कर रहे थे, पसीना-पसीना हो रहे थे और मेहनत कर रहे थे, तो मैंने उनकी रणनीतियाँ देखीं और इस बात पर ग़ौर किया कि वे क्या सोच और महसूस कर रहे थे। मुझे यह उम्मीद तो थी कि मुश्किल समस्याओं से जूझने के बच्चों के तरीक़ों में फ़र्क़ होगा, लेकिन मुझे एक ऐसी चीज़ भी दिखी, जिसकी मुझे कतई उम्मीद नहीं थी।
मुश्किल पज़ल्स से सामना होने पर दस साल के एक लड़के ने अपनी कुर्सी खींची, अपने हाथ मले, अपने होंठ भींचे और ज़ोर से बोला, “मुझे चुनौती से प्रेम है!” दूसरा पज़ल्स पर पसीना बहाते हुए ख़ुशी-ख़ुशी बोला, “जानती हैं, मुझे यही उम्मीद थी कि इस काम से मेरा ज्ञान बढ़ेगा!”
मैं हैरान रह गई और सोचने लगी, इनके साथ क्या गड़बड़ है? मैं शुरू से यह मानती आई थी कि आप या तो असफलता से डटकर मुक़ाबला करते हैं या फिर नहीं करते हैं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि कोई असफलता से प्रेम कर सकता है। क्या ये बच्चे किसी दूसरे ग्रह से आए हैं या उनमें कोई ख़ास बात है?
हर इंसान का एक रोल मॉडल होता है। कोई न कोई ऐसा व्यक्ति, जो उनके जीवन के किसी अति महत्त्वपूर्ण पल में उन्हें सही राह दिखाता है। ये बच्चे मेरे रोल मॉडल थे। वे स्पष्ट रूप से कोई ऐसी चीज़ जानते थे, जो मैं नहीं जानती थी। मैंने यह पता लगाने का बीड़ा उठा लिया कि वह कौन सी चीज़ थी। मैंने संकल्प लिया कि मैं उस तरह की मानसिकता को समझूँगी, जो असफलता को उपहार मानती है।
वे ऐसा क्या जानते थे? वे जानते थे कि इंसान अपने गुणों, जैसे बौद्धिक योग्यताओं - का विकास कर सकता है। और वे यही कर रहे थे - ज़्यादा स्मार्ट बन रहे थे। वे असफलता से निराश नहीं हुए थे। वे तो यह मानने को भी तैयार नहीं थे कि वे असफल हो रहे हैं। उनका दृष्टिकोण यह था कि वे सीख रहे हैं।
दूसरी तरफ़, मेरा मानना था कि मानव गुण पत्थर की लकीर की तरह होते हैं। आप या तो स्मार्ट होते हैं या नहीं होते। और असफलता का मतलब यह होता है कि आप स्मार्ट नहीं हैं। मेरे लिहाज़ से यह इतना ही सरल मामला था। अगर आप सफलता पाते जाएँ और असफलता से बचते रहें (हर क़ीमत पर), तो आप स्मार्ट बने रहते हैं। ज़ाहिर है, संघर्ष, ग़लतियाँ, लगन जैसी चीज़ें इस तसवीर का हिस्सा नहीं थीं।[adinserter block="1"]
इस बात पर बहुत समय से बहस होती आ रही है कि क्या मानव गुणों का विकास किया जा सकता है या फिर वे पत्थर की लकीर की तरह अटल होते हैं। नया मुद्दा यह है कि इस बारे में आपकी मानसिकता का क्या असर होता है : यह सोचने के क्या परिणाम होते हैं कि आप अपनी बुद्धि या व्यक्तित्व का विकास कर सकते हैं? और यह सोचने के क्या परिणाम होते हैं कि बुद्धि या व्यक्तित्व अटल होते हैं और बदल नहीं सकते? आइए पहले मानव स्वभाव के बारे में इस युगों पुराने वाद-विवाद पर नज़र डालते हैं। इसके बाद हम इस प्रश्न पर लौटेंगे कि इन विश्वासों का आपके लिए क्या मतलब है।
लोगों में फ़र्क़ क्यों होता है?
जब से संसार शुरू हुआ है, तभी से लोग एक दूसरे से अलग तरीक़े से सोचते आए हैं, अलग तरीक़े से काम करते आए हैं और उन्हें अलग-अलग परिणाम मिले हैं। यह सवाल पूछा जाना स्वाभाविक था कि लोग एक दूसरे से अलग क्यों होते हैं - कुछ लोग ज़्यादा स्मार्ट या ज़्यादा नैतिक क्यों होते हैं - और क्या कोई ऐसी चीज़ होती है, जो उन्हें स्थायी रूप से अलग बनाती है। विशेषज्ञ दोनों तरफ़ लामबंद हो गए। कुछ ने दावा किया कि इन भिन्नताओं का प्रबल शारीरिक आधार होता है, जिस वजह से ये अटल और अपरिवर्तनीय होती हैं। युगों-युगों से इन कथित शारीरिक भिन्नताओं के ढेर सारे कारण गिनाए जा रहे हैं, जैसे खोपड़ी पर गूमड़ (फ़्रेनोलॉजी), खोपड़ी का आकार (क्रेनियोलॉजी) और आजकल जीन्स या आनुवांशिकता।
दूसरी तरफ़ अन्य विशेषज्ञों ने बताया कि ये भिन्नताएँ इसलिए होती हैं, क्योंकि लोगों की पृष्ठभूमियों, अनुभवों, प्रशिक्षण और सीखने के तरीक़ों में प्रबल भिन्नताएँ होती हैं। आपको यह जानकर हैरानी हो सकती है कि आईक्यू परीक्षण के आविष्कारक अल्फ्रे़ड बाइनेट ने भी इस दृष्टिकोण का पुरज़ोर समर्थन किया। क्या आईक्यू परीक्षण बच्चों की अपरिवर्तनीय बुद्धिमत्ता का सार बताते हैं? क्या उन्हें इसी उद्देश्य से नहीं बनाया गया था? जवाब है, नहीं। बीसवीं सदी की शुरुआत में पेरिस में काम करने वाले बाइनेट ने यह परीक्षण उन बच्चों को पहचानने के लिए ईजाद किया था, जिन्हें पेरिस के सरकारी स्कूलों में पढ़ने से फ़ायदा नहीं हो रहा था, ताकि नए शैक्षणिक कार्यक्रम तैयार करके उन्हें दोबारा पटरी पर लौटाया जा सके। बच्चों की बुद्धि में व्यक्तिगत फ़र्क़ तो होता है, लेकिन बाइनेट को यक़ीन था कि शिक्षा और अभ्यास से बुद्धि में आधारभूत परिवर्तन किया जा सकता है। यहाँ उनकी मुख्य पुस्तकों में से एक मॉडर्न आइडियाज़ अबाउट चिल्ड्रन का एक उद्धरण देखें, जिसमें उन्होंने सैकड़ों बच्चों के परीक्षणों का सार बताया है, जिन्हें सीखने में मुश्किल आ रही थी :
कुछ आधुनिक दार्शनिक… दावा करते हैं कि इंसान की बुद्धि एक निश्चित संख्या होती है, जिसे बढ़ाया नहीं जा सकता। हमें इस क्रूर निराशावाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध और प्रतिक्रिया करनी चाहिए… अभ्यास, प्रशिक्षण और सबसे बढ़कर प्रणाली की मदद से हम अपने ध्यान, अपनी स्मृति, अपने विवेक को बढ़ा सकते हैं और वास्तव में, पहले से ज़्यादा बुद्धिमान बन सकते हैं।[adinserter block="1"]
सही कौन है? आज अधिकतर विशेषज्ञ सहमत हैं कि यह “यह या वह” वाली बात नहीं है। प्रकृति या परवरिश, जीन्स या परिवेश जैसा कोई द्वंद्व नहीं है। गर्भाधान के बाद से दोनों में पारस्परिक आदान-प्रदान लगातार चलता रहता है। वास्तव में जैसा शीर्ष न्यूरोसाइंटिस्ट गिल्बर्ट गॉटलीब ने कहा है, जब हम विकसित होते हैं, तो न सिर्फ़ जीन्स और परिवेश सहयोग करते हैं, बल्कि जीन्स को सही तरीक़े से काम करने के लिए परिवेश से जानकारी ज़रूरी होती है।
साथ ही वैज्ञानिक यह भी सीख रहे हैं कि लोगों में जीवन भर सीखने और मस्तिष्क का विकास करने की इतनी ज़्यादा क्षमता होती है, जिसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते। ज़ाहिर है, हर व्यक्ति के पास एक अनूठा जेनेटिक उपहार होता है। लोग अलग-अलग स्वभावों और अलग-अलग कौशल के साथ शुरुआत करते हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि अनुभव, प्रशिक्षण और व्यक्तिगत प्रयास आगे की राह पर बहुत फ़र्क़ डाल सकते हैं। बुद्धि के वर्तमान युग के गुरु रॉबर्ट स्टर्नबर्ग लिखते हैं कि लोग विशेषज्ञता हासिल कर पाते हैं या नहीं, इसमें मुख्य घटक “कोई निश्चित पूर्व योग्यता नहीं है, बल्कि उद्देश्यपूर्ण संलग्नता है।” या, जैसा उनके पूर्ववर्ती बाइनेट ने पहचाना था, जो लोग सबसे स्मार्ट बनकर शुरुआत करते हैं, वे अंत में हमेशा सबसे स्मार्ट नहीं होते हैं।
इन सबका आपके लिए क्या मतलब है? दो मानसिकताएँ
वैज्ञानिक मुद्दों पर विशेषज्ञों की राय एक बात है। यह समझना दूसरी बात है कि ये दृष्टिकोण आपके जीवन पर कैसे लागू होते हैं। मैं तीस साल से शोध कर रही हूँ और इसका सार यह है कि आपका दृष्टिकोण इस बात पर गहरा असर डालता है कि आप अपनी ज़िंदगी कैसे जीते हैं। इसी से यह तय होता है कि क्या आप वह व्यक्ति बनते हैं, जो आप बनना चाहते हैं और क्या आप वे चीज़ें हासिल कर पाते हैं, जिन्हें आप महत्त्वपूर्ण मानते हैं। यह कैसे होता है? एक सरल विश्वास या मान्यता में आपके मनोविज्ञान, और इसके फलस्वरूप, आपके जीवन को बदलने की शक्ति कैसे हो सकती है?
जब आपको यह विश्वास होता है कि आपके गुण पत्थर की लकीर हैं, तो आप निश्चित मानसिकता के तहत काम करते हैं। इससे आपको ख़ुद को बार-बार स्मार्ट साबित करने की ज़रूरत महसूस होती है। अगर आपके पास बुद्धि की निश्चित मात्रा है, निश्चित व्यक्तित्व है और निश्चित नैतिक चरित्र है - तो आपको इन्हें तथा ख़ुद को श्रेष्ठ साबित करने की ज़रूरत महसूस होती है। इस मानसिकता के इन सबसे बुनियादी गुणों के मामले में कमतर दिखना या महसूस करना नहीं चाहते हैं।[adinserter block="1"]
हममें से कुछ लोगों को बचपन से ही इस मानसिकता का प्रशिक्षण दे दिया जाता है। बचपन से ही मैं स्मार्ट बनने पर केंद्रित थी, लेकिन मुझमें निश्चित मानसिकता भरने का श्रेय छठे ग्रेड की टीचर श्रीमती विल्सन को जाता है। अल्फ़्रेड बाइनेट के विपरीत वे मानती थीं कि लोगों के आईक्यू स्कोर ही उनकी बुद्धि की पूरी कहानी बता देते हैं। वे हमें आईक्यू के क्रम में क्लास में बैठाती थीं। वे केवल सर्वोच्च आईक्यू वाले विद्यार्थियों को ही झंडा उठाने, बोर्ड साफ़ करने या प्रिंसिपल के पास चिट्ठी लेकर जाने का काम सौंपती थीं। उनकी आलोचना से हर दिन पेट में दर्द होने लगता था। इसके अलावा यह मानसिकता भी बन जाती थी, जिसमें क्लास के हर विद्यार्थी के दिलोदिमाग़ पर एक ही लक्ष्य हावी हो जाता था - स्मार्ट दिखो, मूर्ख मत दिखो। कोई क्यों सीखने की परवाह करता, सीखने का आनंद लेता, क्योंकि जब भी वे हमारा टेस्ट लेती थीं या क्लास में हमें कुछ सिखाती थीं, तो हमारा पूरा अस्तित्व ही दाँव पर लगा होता था?
मैंने बहुत से लोगों को देखा है, जिनके दिलोदिमाग़ पर ख़ुद को साबित करने का लक्ष्य हावी रहता है - क्लास में, करियर में और संबंधों में। हर स्थिति में वे अपनी बुद्धि, व्यक्तित्व या चरित्र की पुष्टि करने का तरीक़ा खोजते हैं। वे हर स्थिति का मूल्यांकन करते समय सोचते हैं : मैं सफल होऊँगा या असफल? मैं स्मार्ट दिखूँगा या मूर्ख? मुझे स्वीकार किया जाएगा या अस्वीकार? मैं विजेता जैसा महसूस करूँगा या पराजित जैसा?
लेकिन क्या हमारा समाज बुद्धि, व्यक्तित्व और चरित्र को महत्त्व नहीं देता है? क्या इन गुणों को चाहना सामान्य नहीं है? हाँ, लेकिन…
एक और मानसिकता है, जो यह मानती है कि इंसान के गुण ताश के वे पत्ते नहीं होते, जो आपको बाँटे गए हैं और जिनके साथ आपको जीना होगा, क्योंकि आप उन्हें बदल नहीं सकते। आपको हमेशा ख़ुद को और दूसरों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करनी होगी कि आपके पास तीन इक्के हैं, जबकि मन ही मन आपको यह चिंता सता रही है कि आपके पास सिर्फ़ दो दहले आए हैं। नई मानसिकता आपकी सोच को बदल देती है। यह मानती है कि आपको जो ताश के पत्ते मिले हैं, वे विकास का शुरुआती बिंदु हैं। यह विकासवादी मानसिकता इस विश्वास पर आधारित है कि आप अपनी कोशिशों, अपनी रणनीतियों और दूसरों की सहायता के ज़रिये अपने बुनियादी गुणों का विकास कर सकते हैं। हालाँकि लोगों के शुरुआती गुण, योग्यता, रुचि या स्वभाव पूरी तरह अलग हो सकते हैं, लेकिन हर व्यक्ति मेहनत और अनुभव के जरिये बदल सकता है तथा विकास कर सकता है।[adinserter block="1"]
क्या इस मानसिकता वाले लोग यह मानते हैं कि कोई भी कुछ भी बन सकता है? क्या वे ऐसा मानते हैं कि उचित प्रेरणा या प्रशिक्षण मिलने पर कोई भी आइंस्टाइन या बीथोवन बन सकता है? नहीं, लेकिन वे यह ज़रूर मानते हैं कि व्यक्ति की सच्ची क्षमता छिपी होती है (और जिसे जाना भी नहीं जा सकता); कि पहले से यह देखना असंभव होता है कि बरसों के जोश, मेहनत तथा प्रशिक्षण की मदद से कितना कुछ हासिल किया जा सकता है?
क्या आप जानते हैं कि डार्विन और तॉल्स्तॉय को बचपन में सामान्य माना जाता था? कि महान गोल्फ़ खिलाड़ी बेन होगन बचपन में पूरी तरह से असमन्वित और फूहड़ थे? कि फ़ोटोग्राफ़र सिंडी शर्मन, जो बीसवीं सदी के सबसे महत्त्वपूर्ण फ़ोटोग्राफ़रों की लगभग हर सूची में रही हैं, अपने पहले फ़ोटोग्राफ़ी कोर्स में फ़ेल हो गई थीं? कि जेरेल्डाइन पेज, जो हमारी सबसे बड़ी अभिनेत्रियों में से एक हैं, को प्रतिभा न होने की वजह से अभिनय छोड़ने की सलाह दी गई थी?
आप यह देख सकते हैं कि वांछित गुणों को विकसित किया जा सकता है, इस विश्वास से सीखने के प्रति जोश बढ़ता है। बार-बार यह साबित करने में समय बरबाद क्यों करना कि आप कितने महान हैं, जबकि उस समय में आप बेहतर बन सकते हैं? कमियों को दूर करने के बजाय उन्हें क्यों छिपाएँ? अपने आत्मगौरव को टेक लगाने वाले मित्रों या साझेदारों की तलाश क्यों करें, जबकि आप ख़ुद को विकास की चुनौती देने वाले मित्रों या साझेदारों की तलाश कर सकते हैं? और आज़माए हुए तथा पुराने अनुभवों को क्यों चाहें, जबकि आप ऐसे अनुभव हासिल कर सकते हों, जो आपकी क्षमता तथा योग्यता को बढ़ाएँ? लगातार अपनी क्षमता का विस्तार करना और पूरे जोश से करना, जब (या ख़ासकर) यह अच्छा नहीं चल रहा हो, विकासवादी मानसिकता की निशानी है। यह वह मानसिकता है, जो लोगों के चुनौतीपूर्ण समय में उन्हें विकास करने की अनुमति देती है।
दोनों मानसिकताओं का दृष्टिकोण
ये दोनों मानसिकताएँ कैसे काम करती हैं, इसे ज़्यादा अच्छी तरह समझने के लिए यह कल्पना करें - जितनी स्पष्टता से आप कर सकते हों - कि आप एक युवा वयस्क हैं, जिसका दिन बहुत बुरा जा रहा है :
एक दिन आप एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय की क्लास में जाते हैं, जिसे आप बहुत पसंद करते हैं। प्रोफ़ेसर पूरी क्लास को मिडटर्म टेस्ट के परिणाम बताते हैं। आपको सी प्लस मिला है। आप बहुत निराश हैं। उस शाम घर लौटते समय आपका ग़लत पार्किंग के लिए चालान कट जाता है। बहुत कुंठित होकर आप अपने सबसे अच्छे मित्र को फ़ोन करके अपना दुखड़ा सुनना चाहते हैं, लेकिन वह व्यस्तता की बात बोलकर आपका फ़ोन रख देता है।[adinserter block="1"]
आप क्या सोचेंगे? आप क्या महसूस करेंगे? आप क्या करेंगे? जब मैंने निश्चित मानसिकता वाले लोगों से पूछा, तो वे बोले : “मैं महसूस करूँगा कि मुझे पूरी तरह अस्वीकृत कर दिया गया है।” “मैं समझूँगा कि मैं पूरी तरह से असफल हूँ।” “मैं मूर्ख हूँ।” “मैं पराजित हूँ।” “मैं अयोग्य और मूर्ख महसूस करूँगा - हर व्यक्ति मुझसे बेहतर है।” “मैं कचरा हूँ।” दूसरे शब्दों में, जो हुआ है, उसे वे अपनी अक्षमता और योग्यता का सीधा पैमाना मान रहे हैं।
वे अपने जीवन के बारे में यह सोचने लगेंगे : “मेरा जीवन दयनीय है।” “मेरी कोई ज़िंदगी नहीं है।” “भगवान मुझे पसंद नहीं करता।” “संसार मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ा है।” “हर कोई मुझे बरबाद करना चाहता है।” “कोई भी मुझसे प्रेम नहीं करता; हर व्यक्ति मुझसे नफ़रत करता है।” “जीवन अन्यायपूर्ण है और तमाम कोशिशें बेकार हैं।” “जीवन घटिया है। मैं मूर्ख हूँ। मेरी जिंदगी में एक भी अच्छी चीज़ नहीं होती।” “मैं इस संसार का सबसे बदक़िस्मत इंसान हूँ।”
माफ़ करें, ग़ौर करें यहाँ मृत्यु और विनाश जैसा कुछ भी नहीं हुआ था। बस एक बुरा ग्रेड मिला था, चालान कटा था और एक ख़राब फ़ोन कॉल रहा था।
क्या ये लोग आत्म-गौरव की कमी के शिकार थे? क्या वे पत्ते उठाने वाले निराशावादी थे? नहीं। जब वे असफलता से नहीं जूझते हैं, तब वे उतने ही योग्य और आशावादी - और उतने ही प्रतिभाशाली तथा आकर्षक- महसूस करते हैं, जितने कि विकासवादी मानसिकता के लोग करते हैं।
तो वे कैसे जूझेंगे? “मैं किसी भी चीज़ में इतना ज़्यादा समय और प्रयास लगाने की जहमत नहीं उठाऊँगा।” (दूसरे शब्दों में, दोबारा किसी को भी अपना आकलन करने की अनुमति नहीं दें)। “कुछ नहीं करूँगा।” “बिस्तर पर पड़ा रहूँगा।” “शराब के नशे में धुत्त हो जाऊँगा।” “खाऊँगा।” “अगर मौक़ा मिलेगा, तो किसी पर चिल्लाऊँगा।” “चॉकलेट खाऊँगी।” “संगीत सुनूँगी और मुँह फुला लूँगी।” “अपने दड़बे में जाकर बैठूँगा।” “किसी से झगड़ लूँगा।” “रोऊँगी।” “कोई चीज़ तोड़ दूँगी।” “करने के लिए है ही क्या?”
करने के लिए है ही क्या! आप जानते हैं, मैंने इस प्रसंग में ग्रेड को जान-बूझकर एफ़ के बजाय सी प्लस लिखा था। और इस बात पर भी ग़ौर करें कि यह अंतिम परीक्षा नहीं, बल्कि मिडटर्म परीक्षा थी। इस बात पर भी विचार करें कि उनका सिर्फ़ चालान कटा था, कार दुर्घटना नहीं हुई थी। उन्हें सीधे अस्वीकार नहीं किया गया था, बल्कि व्यस्तता के चलते अनसुना किया गया था। कोई भी विनाशकारी चीज़ नहीं हुई थी, जिसे ठीक न किया जा सकता हो। लेकिन निश्चित मानसिकता ने इतने कम कच्चे माल से ही पूर्ण असफलता और लक़वे की भावना उत्पन्न कर ली।[adinserter block="1"]
जब मैंने विकासवादी मानसिकता वाले लोगों को यही प्रसंग दिया, तो उन्होंने यह कहा। वे यह सोचेंगे :
“मुझे क्लास में ज़्यादा कड़ी मेहनत करने की ज़रूरत है, कार ज़्यादा सावधानी से पार्क करनी चाहिए और मेरे ख़याल से शायद मेरे मित्र का दिन ख़राब रहा होगा।”
“सी प्लस से मुझे यह पता चलता है कि मुझे क्लास में बहुत कड़ी मेहनत करनी चाहिए, लेकिन मेरे पास बाक़ी सेमिस्टर हैं, जिसमें मैं अपना ग्रेड सुधार सकता हूँ।” इस तरह की कई, बहुत सारी बातें कही गई थीं, लेकिन मैं सोचती हूँ कि आप समझ गए होंगे। वे कैसे जूझेंगे? सीधे।
“मैं उस क्लास में अपने अगले टेस्ट के लिए ज़्यादा मेहनत से (या अलग तरीक़े से) पढ़ाई करूँगा, मैं चालान का जुर्माना भर दूँगा और अपने सबसे अच्छे मित्र के साथ अगली मुलाक़ात में मामले को सुलझाऊँगा।”
“मैं विश्लेषण करूँगा कि परीक्षा में मैंने क्या ग़लत किया था, इसे बेहतर करने का संकल्प करूँगा, चालान की रक़म भर दूँगा और यह पता लगाऊँगा कि मेरा मित्र किस उलझन में है।”
विचलित होने के लिए आपको एक या दूसरी मानसिकता होने की ज़रूरत नहीं है। कौन नहीं होगा? ख़राब ग्रेड या मित्र या प्रियजन का तिरस्कार - ये मज़ेदार घटनाएँ नहीं हैं। कोई भी ख़ुश होकर अपने होंठ नहीं चाट रहा था। लेकिन विकासवादी मानसिकता वाले ये लोग ख़ुद पर ठप्पे नहीं लगा रहे थे और अपने हाथ समर्पण की मुद्रा में खड़े नहीं कर रहे थे। हालाँकि वे तनावग्रस्त तो महसूस कर रहे थे, लेकिन वे जोखिम लेने, चुनौतियों का सामना करने और उन पर काम करने के लिए तैयार थे।
तो नया क्या है?
क्या यह इतना नया विचार है? हमारी बहुत सी कहावतें जोखिम के महत्त्व और लगन की शक्ति पर ज़ोर देती हैं, जैसे “जोखिम नहीं, तो लाभ नहीं” और “अगर आप पहले पहल सफल नहीं होते हैं, तो दोबारा, बार-बार कोशिश करें” या “रोम एक दिन में नहीं बना था।” (वैसे मुझे यह जानकर आनंद आ गया कि रोम वाली बात इटली में भी कही जाती है)। सचमुच आश्चर्यजनक बात यह है कि निश्चित मानसिकता वाले लोग इससे सहमत नहीं होते हैं। इसके बजाय वे यह मानते हैं : “कोई जोखिम नहीं, तो कोई हानि नहीं।” “अगर आप पहले पहल सफल नहीं होते हैं, तो आपमें शायद योग्यता ही नहीं है।” “अगर रोम एक दिन में नहीं बन पाया, तो शायद इसे बनाया ही नहीं जा सकता था।” दूसरे शब्दों में, जोखिम और प्रयास वे दो चीज़ें हैं, जो आपकी अपूर्णताओं को उजागर करके यह दिखा सकती हैं कि आप इस काम के लायक़ नहीं हैं। दरअसल यह देखना आश्चर्यजनक है कि निश्चित मानसिकता वाले लोग प्रयास न करने या सहायता न लेने के मामले में कितनी दूर तक जा सकते हैं।[adinserter block="1"]
नया यह भी है कि जोखिम और प्रयास के बारे में लोगों के विचार उनकी ज़्यादा बुनियादी मानसिकता से तय होते हैं। बात बस यह नहीं है कि कुछ लोग ख़ुद को चुनौती देने और प्रयास के महत्त्व को समझ लेते हैं। हमारे शोध ने दर्शाया है कि यह विकासवादी मानसिकता का प्रत्यक्ष परिणाम होता है। जब हम लोगों को विकास पर केंद्रित विकासवादी मानसिकता सिखाते हैं, तो चुनौती और प्रयास के बारे में ये विचार बाद में अपने आप आ जाते हैं। इसी तरह, बात बस यह नहीं है कि कुछ लोग चुनौती और प्रयास को नापसंद कर देते हैं। जब हम (अस्थायी तौर पर) लोगों को निश्चित मानसिकता में पहुँचा देते हैं, जो गुणों के स्थायी होने पर केंद्रित होती है, तो वे तुरंत चुनौती से डर जाते हैं और प्रयास को कम महत्त्व देने लगते हैं।
हम प्रायः देखते हैं कि विश्व के सबसे सफल लोगों के दस रहस्य जैसी पुस्तकें दुकानों की शेल्फ़ों पर सजी रहती हैं और ये पुस्तकें कई उपयोगी सलाहें भी दे सकती हैं। लेकिन वे आम तौर पर असंबद्ध संकेतों की सूची होती हैं, जैसे “ज़्यादा जोखिम लें!” या “ख़ुद पर भरोसा करें!” हालाँकि आप ऐसा करने वाले लोगों की क़द्र करते हैं, लेकिन आपके सामने यह कभी स्पष्ट नहीं होता कि ये चीज़ें आपस में कैसे जुड़ती हैं या आप ऐसे कैसे बने रह सकते हैं। इसलिए आप कुछ दिनों तक तो प्रेरित रहते हैं, लेकिन विश्व के सबसे सफल लोगों के पास इससे ज़्यादा बड़े रहस्य होते हैं।
इसके बजाय जब आप निश्चिततावादी और विकासवादी मानसिकताओं को समझना शुरू करते हैं, तो आपको सटीकता से दिख जाएगा कि एक चीज़ दूसरी चीज़ की तरफ़ कैसे ले जाती है - आपके गुण पत्थर की लकीर हैं, यह विश्वास आपको बहुत से विचारों और कार्यों की ओर ले जाता है। दूसरी तरफ़, आप अपने गुणों का विकास कर सकते हैं, यह विश्वास आपको बहुत सारे अलग विचारों और कार्यों की ओर ले जाता है, जिनके आपको बिलकुल अलग परिणाम मिलते हैं। इसी को हम मनोवैज्ञानिक आहा अनुभव कहते हैं। न सिर्फ़ मैंने इसे लोगों को नई मानसिकता संबंधी अपने शोध में देखा है, बल्कि उन लोगों के पत्र भी मिलते रहते हैं, जिन्होंने मेरे शोधपत्र पढ़े हैं। मेरी लिखी बातों में वे ख़ुद को पहचान लेते हैं : “जब मैंने आपका लेख पढ़ा, तो वास्तव में मैं ख़ुद से बार-बार बोली कि यह मैं हूँ, यह मैं हूँ!” वे संबंध देख लेते हैं : “आपके लेख से मैं बिलकुल ठगी रह गई। मुझे तो ऐसा लगा, जैसे मुझे सृष्टि का रहस्य मिल गया हो!” [adinserter block="1"]वे अपनी मानसिकता को मुड़ते तथा बदलते हुए महसूस करते हैं : “मैं निश्चित रूप से यह कह सकती हूँ कि मेरी ख़ुद की सोच में एक तरह की व्यक्तिगत क्रांति हुई है और यह बड़ी रोमांचक भावना है।” और वे इस नई सोच का अभ्यास ख़ुद पर तथा दूसरों पर कर सकते हैं : “आपके काम की बदौलत बच्चों के साथ मेरे दृष्टिकोण तथा कामकाज का कायाकल्प हो गया है और मैं शिक्षा को एक अलग चश्मे से देखने लगी हूँ।” या “मैं आपको बस यह बताना चाहती हूँ कि आपके असाधारण शोध का - व्यक्तिगत और व्यवहारिक स्तर पर - सैकड़ों विद्यार्थियों पर कितना अधिक प्रभाव पड़ा है।” मुझे कोच और व्यवसायिक दिग्गजों के भी ऐसे बहुत से पत्र मिलते हैं।
स्व-ज्ञान : अपनी ख़ूबियों और कमियों के बारे में किसका दृष्टिकोण ज़्यादा सटीक होता है?
देखिए, विकासवादी मानसिकता वाले लोग ख़ुद को आइंस्टाइन या बीथोवन तो शायद नहीं मानते होंगे, लेकिन क्या इस बात की ज़्यादा संभावना नहीं है कि अपनी योग्यताओं के बारे में उनके ज़रूरत से ज़्यादा ऊँचे दृष्टिकोण होंगे, जिस वजह से वे उन चीज़ों की कोशिश करेंगे, जिनमें वे सक्षम नहीं हैं? वास्तव में, अध्ययनों में यह पता चलता है कि लोग अपनी योग्यताओं का सही आकलन नहीं कर पाते हैं। हाल में हमने यह देखने की कोशिश की कि किस मानसिकता वाले लोगों के ग़लत आकलन करने की सबसे ज़्यादा आशंका है। निश्चित रूप से हमने पाया कि लोगों ने अपने प्रदर्शन और योग्यता का बहुत ग़लत आकलन किया। लेकिन यह ग़लती पूरी तरह से निश्चित मानसिकता वाले लोगों से ही हुई। विकासवादी मानसिकता वाले लोग इस संदर्भ में आश्चर्यजनक रूप से सटीक निकले।
जब आप इस बारे में सोचते हैं, तो इसमें समझदारी नज़र आती है। अगर विकासवादी मानसिकता वाले लोगों की तरह आप भी यह मानते हैं कि आप अपना विकास कर सकते हैं, तो आप अपनी वर्तमान योग्यताओं के बारे में सटीक जानकारी का स्वागत करेंगे, भले ही यह जानकारी आपको अच्छी न लगती हो। इतना ही नहीं, अगर आपमें सीखने की भी उनके जैसी प्रवृत्ति हो, तो प्रभावी ढंग से सीखने के लिए आपको अपनी वर्तमान योग्यताओं के बारे में सटीक जानकारी की ज़रूरत होती है। लेकिन निश्चित मानसिकता वाले लोगों के मामले में स्थिति बदल जाती है। अगर हर चीज़ आपके मूल्यवान गुणों के बारे में अच्छी या बुरी ख़बर होती है - जैसा कि निश्चित मानसिकता वाले लोगों के साथ होता है - तो विकृति लगभग हमेशा तसवीर में दाख़िल हो जाती है। कुछ परिणामों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है, बाक़ी को बहाने बनाकर स्पष्ट किया जाता है और इससे पहले कि आपको पता चले आप अपने बारे में रत्ती भर भी जानकारी हासिल नहीं कर पाते हैं।
हॉवर्ड गार्डनर ने अपनी पुस्तक एक्स्ट्राऑर्डिनरी माइंड्स में यह निष्कर्ष दिया है कि असाधारण व्यक्तियों में “अपनी ख़ुद की शक्तियों और कमज़ोरियों को पहचानने का विशेष गुण होता है।” रोचक बात यह है कि यह गुण विकासवादी मानसिकता वाले लोगों में साफ़ नज़र आता है।[adinserter block="1"]
आगे क्या है
असाधारण लोगों में एक और चीज़ यह नज़र आती है कि उनमें जीवन की असफलताओं को भावी सफलताओं में बदलने का विशेष गुण होता है। सृजनात्मक शोधकर्ता इस बात से सहमत हैं। 143 सृजनात्मक शोधकर्ताओं का सर्वे किया गया था और वे सृजनात्मक उपलब्धि में नंबर वन घटक के बारे में आम तौर पर सहमत थे। यह घटक था विकासवादी मानसिकता से उत्पन्न होने वाली लगन और लचीलापन।
आप एक बार फिर पूछ सकते हैं, एक छोटा-सा विश्वास इस सबकी ओर कैसे ले जा सकता है - चुनौती से प्रेम, प्रयास या मेहनत में विश्वास, असफलताओं के सामने लचीलापन और ज़्यादा बड़ी (ज़्यादा सृजनात्मक!) सफलता? आगे आने वाले अध्यायों में आप सटीकता से देखेंगे कि यह कैसे होता है : कैसे मानसिकताएँ उसे बदल देती हैं, जिसकी ख़ातिर लोग कोशिश करते हैं और जिसे वे सफलता मानते हैं। वे असफलता की परिभाषा, महत्त्व और प्रभाव को कैसे बदल देती हैं? और वे प्रयास के सबसे गहरे अर्थ को कैसे बदल देती हैं। आप देखेंगे कि ये मानसिकताएँ स्कूल में, खेल जगत में ऑफ़िस में और संबंधों में अपना प्रभाव कैसे दिखाती हैं। आप देखेंगे कि वे कहाँ से उत्पन्न होती हैं और उन्हें कैसे बदला जा सकता है।[adinserter block="1"]
अपनी मानसिकता का विकास करें
आपकी मानसिकता कौन सी है? बुद्धि संबंधी इन सवालों के जवाब दें। हर कथन को पढ़ें और निर्णय लें कि आप इससे सहमत हैं या असहमत।
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आपकी बुद्धि आपके बारे में एक बहुत बुनियादी चीज़ है, जिसे आप बहुत ज़्यादा नहीं बदल सकते।
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आप नई चीज़ें तो सीख सकते हैं, लेकिन आप दरअसल इस तथ्य को नहीं बदल सकते कि आप कितने बुद्धिमान हैं।
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चाहे आपमें कितनी भी ज़्यादा बुद्धि हो, लेकिन आप हमेशा इसे काफ़ी कुछ बदल सकते हैं।
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आप जितने बुद्धिमान हैं, उसे आप हमेशा महत्त्वपूर्ण रूप से बदल सकते हैं।
प्रश्न 1 और 2 निश्चित मानसिकता वाले प्रश्न हैं। प्रश्न 3 और 4 विकासवादी मानसिकता दर्शाते हैं। आप किस मानसिकता के साथ ज़्यादा सहमत हुए थे? हो सकता है कि यह मिश्रण हो, लेकिन ज़्यादातर लोगों का झुकाव किसी एक या दूसरी मानसिकता की तरफ़ होता है।
दूसरी योग्यताओं के बारे में भी आपके विश्वास होते हैं। आप “बुद्धि” के बदले में “कलात्मक प्रतिभा,” “खेल योग्यता,” या “व्यावसायिक योग्यता” भी रख सकते हैं। ऐसा करके देखें।
यह सिर्फ़ आपकी योग्यताओं के बारे में ही नहीं है; यह आपके व्यक्तिगत गुणों के बारे में भी है। व्यक्तित्व और चरित्र संबंधी इन कथनों को देखें और निर्णय लें कि आप इनमें से प्रत्येक से ज़्यादातर सहमत होते हैं या असहमत।
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आप एक निश्चित प्रकार के व्यक्ति हैं, और इसे सचमुच बदलने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया जा सकता।
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चाहे आप किसी भी प्रकार के व्यक्ति हों, आप हमेशा महत्त्वपूर्ण रूप से बदल सकते हैं।
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आप चीज़ों को अलग तरीक़े से कर सकते हैं, लेकिन आप जैसे हैं, उसके महत्त्वपूर्ण हिस्सों को दरअसल नहीं बदला जा सकता।
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आप जिस प्रकार के इंसान हैं, उसकी बुनियादी चीज़ों को आप हमेशा बदल सकते हैं।
यहाँ प्रश्न 1 और 3 निश्चित मानसिकता वाले प्रश्न हैं और प्रश्न 2 तथा 4 विकास की मानसिकता को दर्शाते हैं। आप किससे ज़्यादा सहमत हुए थे?
क्या यह आपकी बुद्धि संबंधी मानसिकता से अलग था? यह संभव है। आपकी “बुद्धिवादी मानसिकता” तभी सक्रिय होती है, जब स्थितियों में मानसिक योग्यता शामिल हो।
आपकी “व्यक्तित्व मानसिकता” उन स्थितियों में सक्रिय होती है, जिनमें आपके व्यक्तित्व गुण शामिल होते हैं - मिसाल के तौर पर, आप कितने विश्वसनीय, सहयोगी, परवाहपूर्ण या सामाजिक कौशल वाले हैं। निश्चित मानसिकता होने पर आपकी मुख्य चिंता यह होगी कि आपका मूल्यांकन कैसे किया जाएगा; विकासवादी मानसिकता होने पर आपकी मुख्य चिंता बेहतर बनने की होगी।[adinserter block="1"]
यहाँ मानसिकताओं के बारे में सोचने के कुछ और तरीक़े हैं :
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अपने किसी परिचित के बारे में सोचें, जो निश्चित मानसिकता में रचा-बसा हो। इस बारे में सोचें कि वह हमेशा ख़ुद को साबित करने की कैसे कोशिश करता है। और वह ग़लत होने या ग़लतियाँ करने के बारे में कैसे अति संवेदनशील रहता है। क्या आपको कभी हैरानी हुई है कि वह ऐसा क्यों है? (क्या आप ऐसे हैं?) अब आप यह समझ सकते हैं कि क्यों।
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अपने किसी परिचित के बारे में सोचें, जो विकासवादी मानसिकता में रचा-बसा हो - कोई ऐसा जो इस बात को समझता है कि महत्त्वपूर्ण गुणों का विकास किया जा सकता है। सोचें कि वह बाधाओं से कैसे निबटता है? उन चीज़ों के बारे में सोचें, जो वह ख़ुद को धकाने के लिए करता है। वे कुछ तरीक़े कौन से हैं, जिनसे आप ख़ुद को बदलना या धकाना पसंद करेंगे?
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ठीक है, अब कल्पना करें कि आपने एक नई भाषा सीखने का निर्णय लिया है और आपने एक क्लास में नाम लिखा लिया है। कोर्स के कुछ सत्र बाद शिक्षक आपको कमरे में सबके सामने बुलाता है और आप पर एक के बाद एक सवालों की झड़ी लगा देता है।
ख़ुद को निश्चित मानसिकता में रखें। आपकी योग्यता दाँव पर लगी है। क्या आप ख़ुद पर हर एक की निगाह को महसूस कर सकते हैं? क्या आप देख सकते हैं कि शिक्षक का चेहरा आपका मूल्यांकन कर रहा है? तनाव को महसूस करें, अपने अहं को डगमगाते हुए और खड़े होते हुए महसूस करें। आप और क्या सोच रहे हैं या महसूस कर रहे हैं?
अब ख़ुद को विकासवादी मानसिकता में रखें। आप नौसिखिये हैं - इसीलिए आप इस क्लास में आए हैं। आप यहाँ सीखने आए हैं। शिक्षक सिखाने वाला संसाधन है। महसूस करें कि आपका तनाव दूर जा रहा है और आपका मस्तिष्क खुल रहा है।
संदेश यह है : आप अपनी मानसिकता बदल सकते हैं।
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मानसिकताओं के भीतर
युवावस्था में मैं राजकुमार जैसा जीवनसाथी चाहती थी। बहुत आकर्षक, बहुत सफल। यानी बड़ा आदमी। मैं एक ग्लैमरस करियर चाहती थी, लेकिन बहुत ज़्यादा मुश्किल या जोखिम भरी कोई चीज़ नहीं। और मैं चाहती थी कि यह सब मेरे अस्तित्व या वजूद की पुष्टि करे।
कई साल बाद ही मैं संतुष्ट हो पाई। मुझे एक बेहतरीन इंसान मिल गए, लेकिन उनकी प्रगति शिखर पर नहीं पहुँची थी, बल्कि वे प्रगति कर रहे थे। मेरे पास एक बेहतरीन करियर था, लेकिन उसमें मुझे लगातार चुनौतियाँ मिलती रहती थीं। कोई चीज़ आसान नहीं थी। तो फिर मैं इस सबसे क्यों संतुष्ट हुई? क्योंकि मैंने अपनी मानसिकता बदल ली।
यह मेरे काम की वजह से बदली। एक दिन मेरी पीएच.डी. विद्यार्थी मैरी बांदुरा और मैं यह समझने की कोशिश कर रही थीं कि कुछ विद्यार्थी अपनी योग्यता साबित करने में क्यों उलझे रहते हैं, जबकि बाक़ी सीखते क्यों रहते हैं। अचानक हमें अहसास हुआ कि योग्यता के एक नहीं, दो अर्थ होते हैं : एक निश्चित योग्यता, जिसे साबित करने की ज़रूरत होती है, और एक परिवर्तनीय योग्यता, जिसे सीखकर बढ़ाया जा सकता है।
मानसिकताएँ इसी तरह पैदा होती हैं। मुझे तुरंत पता चल गया कि मेरी मानसिकता कौन सी है। मुझे अहसास हुआ कि ग़लतियों और असफलताओं को लेकर मैं हमेशा बहुत चिंतित रही हूँ। और मैंने पहली बार इस बात को पहचाना कि मेरे पास चुनाव करने का विकल्प हमेशा मौजूद था।
जब आप एक मानसिकता में प्रवेश करते हैं, तो एक तरह से आप एक नए संसार में दाख़िल होते हैं। एक संसार में यानी निश्चित गुणों वाली मानसिकता के संसार में सफलता का मतलब यह साबित करना है कि आप स्मार्ट या गुणी हैं। इसका मतलब ख़ुद की पुष्टि करना है। दूसरे संसार में यानी परिवर्तनशील गुणों वाली मानसिकता के संसार में सफलता का मतलब कोई नई चीज़ सीखने के लिए ख़ुद को धकाना होता है। इसका मतलब अपना विकास करना होता है।
एक संसार में असफलता का मतलब विपत्ति या आफ़त है। बुरा ग्रेड मिलना। टूर्नामेंट हार जाना। नौकरी से निकाला जाना। अस्वीकृत या तिरस्कृत होना। निश्चित मानसिकता वाले संसार में इसका यह मतलब निकाला जाता है कि आप स्मार्ट या प्रतिभाशाली नहीं हैं। दूसरे संसार में यानी विकासवादी मानसिकता वाले संसार में असफलता का मतलब है विकास नहीं करना। जिन चीज़ों को आप मूल्यवान मानते हैं, उन तक पहुँचने की कोशिश नहीं करना। इसका मतलब है कि आप अपनी क्षमता तक नहीं पहुँच रहे हैं।
एक संसार में (निश्चित मानसिकता के संसार में) प्रयास या मेहनत बुरी चीज़ है। असफलता की तरह इसका भी यह मतलब निकाला जाता है कि आप स्मार्ट या प्रतिभाशाली नहीं हैं। अगर आप स्मार्ट होते, तो आपको प्रयास की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। दूसरे संसार में (विकासवादी मानसिकता के संसार में) प्रयास ही वह चीज़ है, जो आपको स्मार्ट या प्रतिभाशाली बनाती है।[adinserter block="1"]
आपके पास विकल्प चुनने की स्वतंत्रता होती है। मानसिकता का मतलब है विश्वास। वे प्रबल विश्वास हैं, लेकिन वे आपके दिमाग़ के अंदर रहने वाली चीज़ हैं और आप अपने दिमाग़ को बदल सकते हैं। पढ़ते समय इस बारे में सोचें कि आप कहाँ जाना चाहते हैं और कौन सी मानसिकता आपको वहाँ तक पहुँचा सकती है।
आपके लिए सफलता का मतलब सीखना है – या यह साबित करना है कि आप स्मार्ट हैं?
शीर्ष राजनैतिक सिद्धांतवादी बेंजामिन बार्बर ने एक बार कहा था, “मैं संसार को कमज़ोर और शक्तिशाली लोगों या सफल व असफल लोगों में विभाजित नहीं करता हूँ… मैं तो संसार को सीखने वालों और न सीखने वालों में विभाजित करता हूँ।”
संसार में कौन सी चीज़ है, जो किसी को सीखने का अनिच्छुक बनाती है? हर व्यक्ति सीखने की प्रबल इच्छा के साथ पैदा होता है। शिशु अपनी योग्यताओं को हर दिन धकाते रहते हैं। सिर्फ़ सामान्य योग्यताओं को ही नहीं, बल्कि जीवन के सबसे मुश्किल कामों में भी, जैसे चलना और बोलना सीखना। वे कभी यह नहीं सोचते हैं कि चलना या बोलना बहुत ज़्यादा मुश्किल है या यह प्रयास करने लायक़ नहीं है। छोटे बच्चे ग़लतियाँ करने या हँसी उड़ने की चिंता नहीं करते हैं। वे चलते हैं, गिरते हैं और उठते रहते हैं। वे विकास करते रहते हैं।
ख़ुशी-ख़ुशी सीखने का अंत कौन सी चीज़ कर सकती है? निश्चित मानसिकता। जैसे ही बच्चे ख़ुद का आकलन करने लायक़ बड़े हो जाते हैं, उनमें से कुछ चुनौतियों से डरने लगते हैं। उन्हें डर लगता है कि वे स्मार्ट नहीं हैं। स्कूली बच्चों से लेकर हज़ारों लोगों के अध्ययन में मैंने यह आश्चर्यजनक तथ्य पाया कि बहुत सारे लोग सीखने के अवसरों को ठुकरा देते हैं।
हमने चार साल के बच्चों को एक विकल्प दिया : वे एक आसान ज़िगसॉ पहेली को दोबारा हल कर सकते थे या फिर वे किसी ज़्यादा मुश्किल पहेली को हल करने की कोशिश कर सकते थे। इतनी कम उम्र में भी निश्चित मानसिकता वाले बच्चों ने - जो निश्चित गुणों में विश्वास करते थे - सुरक्षित दायरे को ही चुना। उन्होंने हमें बताया कि स्मार्ट पैदा होने वाले बच्चे “ग़लतियाँ नहीं करते।”
दूसरी तरफ़, विकासवादी मानसिकता वाले बच्चों ने कहा - जिनके मन में यह विश्वास था कि आप सीखकर ज़्यादा स्मार्ट बन सकते हैं - कि उन्हें बड़ा बेतुका विकल्प दिया जा रहा है। वे बोले, आप मुझसे यह क्यों पूछ रही हैं? कोई भी उसी पहेली को बार-बार क्यों करना चाहेगा? उन्होंने एक के बाद एक नई पहेली को चुना। एक छोटी लड़की चहकते हुए बोली, “मैं इसे सुलझाने के लिए बुरी तरह बेताब हूँ!”[adinserter block="1"]
इसका मतलब है कि निश्चित मानसिकता वाले बच्चे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि वे सफल हों। स्मार्ट लोगों को हमेशा सफल होना चाहिए। लेकिन विकास की मानसिकता वाले बच्चों के लिए सफलता का मतलब ख़ुद को धकाना था। इसका मतलब सीखकर ज़्यादा स्मार्ट बनना था।
एक सातवें ग्रेड की लड़की के शब्दों में इसका सार देखें। “मैं सोचती हूँ कि बुद्धि एक ऐसी चीज़ है, जिसके लिए आपको मेहनत करनी होती है… यह आपको बस यूँ ही नहीं मिल जाती है… अगर जवाब सही होने का पूरा भरोसा न हो, तो ज़्यादातर बच्चे किसी सवाल का जवाब देने के लिए हाथ नहीं उठाएँगे। लेकिन मैं आम तौर पर अपना हाथ उठा देती हूँ, क्योंकि अगर मेरा जवाब ग़लत निकला, तो टीचर मेरी ग़लती सुधार देंगी और मुझे सही जवाब का पता चल जाएगा। या मैं अपना हाथ उठाकर यह कह देती हूँ, ‘इसे कैसे सुलझा सकते हैं?’ या ‘मुझे यह समझ नहीं आ रहा। क्या आप मेरी मदद कर सकती हैं?’ ऐसा करके ही मैं अपनी बुद्धि को बढ़ाती जाती हूँ।”
पहेलियों से आगे
किसी आसान पहेली को छोड़ना एक चीज़ है। ऐसे अवसर को छोड़ना दूसरी चीज़ है, जो आपके भविष्य के लिए महत्त्वपूर्ण है। इस पहलू को देखने के लिए हमने एक असामान्य स्थिति का लाभ लिया। हांगकांग यूनिवर्सिटी में पूरी पढ़ाई अँग्रेज़ी में होती है। कक्षाएँ अँग्रेज़ी में लगती हैं, पाठ्यपुस्तकें अँग्रेज़ी में होती हैं और परीक्षाएँ भी अँग्रेज़ी में होती हैं। लेकिन इस यूनिवर्सिटी में दाख़िला लेने वाले कुछ विद्यार्थी अँग्रेज़ी धाराप्रवाह नहीं बोलते हैं, इसलिए समझदारी इसी बात में नज़र आती है कि वे इस बारे में जल्दी ही कुछ करें।
जब विद्यार्थियों ने पहले साल वहाँ दाख़िला लिया, तो हम यह जानते थे कि उनमें से कौन-कौन अँग्रेज़ी में निपुण नहीं थे। और हमने उनसे एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछा : यदि शिक्षक एक कोर्स शुरू करें, जिनसे उनकी अँग्रेज़ी की योग्यताएँ बेहतर हो सकें, तो क्या आप उसमें जाएँगे?
हमने उनकी मानसिकता की भी जाँच की। इसके लिए हमने उनसे यह पूछा कि वे इस तरह के कथनों से कितने सहमत थे : “आपके पास बुद्धि की एक निश्चित मात्रा है और आप इसे बदलने के लिए दरअसल ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते।” जो लोग इस तरह के कथन से सहमत होते हैं, उनमें निश्चित मानसिकता की प्रवृत्ति होती है।
जिन लोगों का झुकाव विकासवादी मानसिकता की तरफ़ होता है, वे इस बात से सहमत होते हैं कि : “आपमें जितनी बुद्धि है, आप उसे हमेशा महत्त्वपूर्ण रूप से बदल सकते हैं।”[adinserter block="1"]
बाद में हमने उन विद्यार्थियों की निगरानी की, जिन्होंने अँग्रेज़ी के कोर्स के बारे में हाँ कहा था। विकासवादी मानसिकता वाले विद्यार्थियों ने ज़ोरदार हाँ कहा था। लेकिन निश्चित मानसिकता वाले विद्यार्थियों ने ज़्यादा रुचि नहीं दिखाई थी।
सफलता का मतलब सीखना है, इस विश्वास के तहत विकासवादी मानसिकता वाले विद्यार्थियों ने अवसर को जकड़ लिया। लेकिन निश्चित मानसिकता वाले विद्यार्थी अपनी कमियों को उजागर नहीं करना चाहते थे। इसके बजाय, कुछ समय तक स्मार्ट दिखने-दिखाने के चक्कर में वे अपने कॉलेज के करियर को जोखिम में डालने के लिए तैयार थे।
इस तरह हम देखते हैं कि निश्चित मानसिकता लोगों को सीखने के प्रति अनिच्छुक बना देती है।
ब्रेन वेव कहानी बता देती है
आप लोगों की ब्रेन वेव में भी अंतर देख सकते हैं। दोनों मानसिकताओं वाले लोग कोलंबिया स्थित हमारी ब्रेन-वेव लैब में आए। जब उन्होंने मुश्किल सवालों के जवाब दिए और उन्हें फ़ीडबैक दिया गया, तो हम इस बारे में जिज्ञासु थे कि उनकी ब्रेन वेव्ज़ कब दिखाएँगी कि वे रुचि ले रहे हैं और ध्यान दे रहे हैं।
निश्चित मानसिकता वाले लोगों की रुचि तब दिखी, जब उनकी योग्यता के बारे में फ़ीडबैक दिया गया। जब उन्हें बताया जा रहा था कि उनके जवाब सही थे या ग़लत, तो ब्रेन वेव्ज़ बता रही थीं कि वे क़रीबी से ध्यान दे रहे हैं।
लेकिन जब उन्हें ऐसी जानकारी दी जा रही थी, जो सीखने में उनकी मदद कर सके, तो उनकी तरफ़ से रुचि का कोई संकेत नहीं मिला। जब उन्होंने किसी जवाब को ग़लत कर दिया था, तब भी सही जवाब को जानने में उनकी ज़रा भी रुचि नज़र नहीं आई।
सिर्फ़ विकासवादी मानसिकता वाले लोगों ने ही उस जानकारी पर क़रीबी से ध्यान दिया, जो उनके ज्ञान को बढ़ा सकती थी। उन्हीं के लिए सीखना प्राथमिकता वाला काम था।
आपकी प्राथमिकता क्या है?
अगर आपको चुनना हो, तो आप किसे चुनेंगे? ढेर सारी सफलता और मान्यता या बहुत सारी चुनौतियाँ?
ये विकल्प लोगों को सिर्फ़ बौद्धिक कामों में ही नहीं चुनने होते हैं। लोगों को तो यह भी निर्णय लेना होता है कि वे किस प्रकार के संबंध चाहते हैं : क्या वे ऐसे संबंध चाहते हैं, जो उनके अहं को पोषण दें या फिर ऐसे संबंध चाहते हैं, जो उन्हें विकास करने की चुनौती दें? आपका आदर्श साथी कौन है? हमने यह सवाल युवा वयस्कों से पूछा और उन्होंने हमें यह बताया।[adinserter block="1"]
निश्चित मानसिकता वाले लोगों ने कहा कि आदर्श जीवनसाथी ऐसा होगा :
जो उन्हें सिंहासन पर बैठाए।
जो उन्हें आदर्श महसूस कराए।
जो उनकी स्तुति करे।
दूसरे शब्दों में, उनका आदर्श साथी वह है, जो उनके निश्चित गुणों का गुणगान करे। मेरे पति कहते हैं कि वे भी ऐसा ही सोचते थे और एक व्यक्ति (उनके जीवनसाथी) के ईश्वर बनना चाहते थे। सौभाग्य की बात यह है कि मुझसे मिलने से पहले उन्होंने यह विचार छोड़ दिया था।
विकासवादी मानसिकता वाले लोग एक अलग तरह का जीवनसाथी चाहते थे। उन्होंने कहा कि उनका आदर्श साथी वह होगा :
जो उनके दोष देखे और उन्हें दूर करने में उनकी मदद करे।
जो उन्हें बेहतर इंसान बनने की चुनौती दे।
जो उन्हें नई चीज़ें सीखने के लिए प्रोत्साहित करे।
निश्चित रूप से वे यह नहीं चाहते थे कि जीवनसाथी हमेशा उनकी बुराई करता रहे या उनका आत्म-गौरव कम करता रहे, लेकिन वे ऐसा जीवनसाथी चाहते थे, जो उनके विकास को बढ़ावा दे। वे यह मानकर नहीं चलते थे कि वे पूरी तरह विकसित या दोषहीन या आदर्श थे, जिन्हें कुछ भी सीखना बाक़ी नहीं था।
क्या आपके दिमाग़ में यह ख़याल आ रहा है कि अगर दो अलग-अलग मानसिकता वाले लोगों की शादी हो जाए, तो क्या होगा? विकासवादी मानसिकता वाली एक महिला ने निश्चित मानसिकता वाले पुरुष से शादी करने के बाद यह बताया :
शादी में मेरे सिर पर लोगों का फेंका चावल अभी पूरी तरह झड़ भी नहीं पाया था कि मुझे यह अहसास होने लगा जैसे मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई है। जब भी मैं इस तरह की बात कहती थी, “हम बाहर ज़्यादा क्यों नहीं चलते?” या “मुझे अच्छा लगेगा, अगर आप निर्णय लेने से पहले मुझसे सलाह ले लें,” तो हर बार मेरे पति रूठ जाते थे। फिर मेरे उठाए मुद्दे पर बातचीत तो धरी रह जाती थी और मुझे एक घंटे तक नुक़सान की मरम्मत करनी पड़ती थी और उनके मूड को दोबारा सही करना पड़ता था। इसके अलावा ऐसे मौक़ों पर हर बार वे अपनी माँ को फ़ोन करने दौड़ पड़ते थे, जो हमेशा उन पर लाड़ बिखेरती थीं, जिसकी उन्हें ज़रूरत नज़र आती थी। हम दोनों ही युवा थे और हमारी अभी-अभी शादी हुई थी। मैं बस संवाद करना चाहती थी।[adinserter block="1"]
यहाँ सफल संबंध के बारे में पति का विचार - पूर्ण, ग़ैर-आलोचनात्मक स्वीकृति - पत्नी के विचार से मेल नहीं खा रहा था। और सफल संबंध के बारे में पत्नी का विचार - समस्याओं का सामना करना - पति के विचार से मेल नहीं खा रहा था। एक व्यक्ति का विकास दूसरे व्यक्ति का बुरा सपना था।
सीईओ रोग
आपको हैरानी नहीं होगी कि सिंहासन पर बैठकर शासन करने और आदर्श माने जाने की इस इच्छा को प्रायः “सीईओ रोग” भी कहा जाता है। ली आयाकोका इसके जीवंत उदाहरण थे। क्राइसलर मोटर्स के मुखिया के रूप में उन्होंने शुरुआती सफलता पाई थी। लेकिन इसके बाद आयाकोका काफ़ी कुछ निश्चित मानसिकता वाले हमारे चार साल के बच्चों जैसे दिख रहे थे। वे पुराने मॉडलों में सिर्फ़ छुटपुट परिवर्तन करके उन्हीं को बार-बार उतार रहे थे। बुरी ख़बर यह थी कि उन मॉडलों को अब कोई ख़रीदना ही नहीं चाहता था।
इस दौरान जापानी कंपनियाँ परिवर्तन नए सिरे से विचार करने में जुटी थीं कि कारें कैसी दिखनी चाहिए और उन्हें कैसे चलना चाहिए। हम जानते हैं कि इसके बाद क्या हुआ। जापानी कारों ने तेज़ी से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार पर क़ब्ज़ा कर लिया।
सीईओ के सामने यह विकल्प हमेशा रहता है। वे अपनी कमियों का सामना करके उन्हें दूर करें या फिर एक ऐसा आश्वस्त करने वाला संसार बनाएँ, जहाँ उनमें कोई कमी नज़र न आती हो? ली आयाकोका ने बाद वाला विकल्प चुना। उन्होंने ख़ुद को पुजारियों से घेर लिया और आलोचकों को बाहर निकाल दिया - और जल्दी ही उनका यह अहसास ख़त्म हो गया कि उनका क्षेत्र किस दिशा में जा रहा है। ली आयाकोका ने सीखना छोड़ दिया था।
लेकिन सीईओ रोग हर व्यक्ति या हर सीईओ को नहीं होता है। कई महान लीडर्स हर दिन अपनी कमियों का सामना करते हैं। डार्विन स्मिथ ने किम्बर्ली-क्लार्क में अपने असाधारण प्रदर्शन को पलटकर देखते हुए घोषणा की थी, “मैंने उस पद के योग्य बनने की कोशिश कभी नहीं छोड़ी।” विकासवादी मानसिकता वाले हांगकांग के विद्यार्थियों की तरह इन लोगों ने भी हमेशा रेमेडियल कोर्स के विकल्प को ही चुना।
सीईओ के सामने एक और दुविधा रहती है। या तो वे अल्पकालीन रणनीतियाँ चुन सकते हैं, जिससे कंपनी के शेयर के भाव बढ़ जाएँ और वे हीरो जैसे दिखने लगें। या फिर वे कंपनी की दीर्घकालीन बेहतरी की ख़ातिर काम कर सकते हैं और कंपनी के दीर्घकालीन स्वास्थ्य तथा विकास की नींव डालते समय शेयर बाज़ार की नापसंदगी का जोखिम ले सकते हैं।
स्वयंभू निश्चित मानसिकता वाले अल्बर्ट डनलैप को सनबीम के कायाकल्प के लिए बुलाया गया। उन्होंने शेयर बाज़ार के सामने हीरो जैसा दिखने की अल्पकालीन रणनीति को चुना। शेयर तो आसमान छूने लगा, लेकिन कंपनी बिखर गई।
दूसरी ओर, स्वयंभू विकासवादी मानसिकता वाले लाउ गर्स्टनर को आईबीएम के कायाकल्प के लिए बुलाया गया। जब उन्होंने आईबीएम की संस्कृति और नीतियों के कायाकल्प का भारी काम किया, तो शेयर के भाव स्थिर रहे और शेयर बाज़ार ने नाक-भौं चढ़ा ली। लोगों ने उन्हें असफल कहना शुरू कर दिया। लेकिन कुछ साल बाद क्या हुआ? आईबीएम एक बार फिर अपने क्षेत्र का नेतृत्व करने लगी।
धकेलना
विकासवादी मानसिकता वाले लोग सिर्फ़ चुनौती को चाहते ही नहीं हैं, वे इसकी वजह से फलते-फूलते भी हैं। चुनौती जितनी ज़्यादा बड़ी होती है, वे उतना ही ज़्यादा विस्तार करते हैं। और यह खेल जगत में जितनी स्पष्टता से दिखाई देता है, उतना किसी दूसरी जगह नहीं दिख सकता। आप वहाँ लोगों को ख़ुद को धकेलते और विकास करते हुए देख सकते हैं।
अपने युग की महानतम महिला सॉकर खिलाड़ी मिया हैम खरे शब्दों में यही बात कहती हैं। “अपनी पूरी ज़िंदगी मैं ऊपर के स्तर पर खेलती रही हूँ। इसका मतलब है कि मैंने ख़ुद को अपने से ज़्यादा बड़े, ज़्यादा तगड़े, ज़्यादा योग्य, ज़्यादा अनुभवी खिलाड़ियों का मुक़ाबला करने की चुनौती दी - संक्षेप में, जो मुझसे बेहतर थे।” शुरुआत में तो वे अपने बड़े भाई के साथ खेलीं। फिर दस साल की उम्र में वे ग्यारह वर्षीय लड़कों की टीम में शामिल हो गईं। फिर उन्होंने ख़ुद को अमेरिका की नंबर वन कॉलेज टीम में झोंक दिया। “हर दिन मैं उनके स्तर तक ऊपर पहुँचने की कोशिश करती थी… और मेरा खेल इतनी तेज़ी से सुधरा था, जितना मैंने कभी सपने में भी संभव नहीं माना था।”
पैट्रिशिया मिरांडा हाई स्कूल की गोलमटोल लड़की थी, जो खेल-कूद में फिसड्डी थी। वह कुश्ती करना चाहती थी। मैट पर बुरी तरह पछाड़ खाने के बाद लोगों ने उससे कहा, “तुम तो मज़ाक़ हो।” पहले तो वह रोई, लेकिन बाद में उसे महसूस हुआ : “इसने सचमुच मेरे संकल्प को प्रेरित कर दिया… मैंने आगे बढ़ते रहने और यह जानने का संकल्प लिया कि क्या प्रयास, एकाग्रता, विश्वास और प्रशिक्षण मुझे कुश्तीबाज बना सकते हैं।” उन्हें यह संकल्प कहाँ से मिला?
मिरांडा की परवरिश चुनौतीरहित जीवन में हुई थी। लेकिन जब चालीस वर्ष की उम्र में एन्यूरिज़्म से उनकी माँ का देहांत हो गया, तो दस वर्षीय मिरांडा ने एक सिद्धांत बना लिया। “जब आप अपनी मृत्युशैया पर होते हैं, तो सबसे शानदार चीज़ों में से एक यह कहना है, ‘मैंने सचमुच अपने आप को टटोला था।’ तत्कालिकता का यह अहसास मुझमें मेरी माँ की मौत के बाद आया। अगर आप केवल आसान काम करते हुए ही ज़िंदगी गुज़ार देते हैं, तो आप पर लानत है।” इसलिए जब कुश्ती की चुनौती सामने आई, तो वह इसे स्वीकार करने को तैयार थी।[adinserter block="1"]
उसका प्रयास रंग लाया। चौबीस साल की मिरांडा अपने मक़सद में कामयाब रही। उसने अमेरिकी ओलिंपिक टीम में अपने वज़न के समूह में जगह बनाई और एथेंस से कांस्य पदक लेकर घर लौटी। और इसके बाद उसने क्या किया? येल लॉ स्कूल। लोगों ने उससे कहा कि वह वहीं रुक जाए, जहाँ वह पहले ही शिखर पर थी, लेकिन मिरांडा को महसूस हुआ कि ज़्यादा रोमांचक यह रहेगा कि वह दोबारा निचले स्तर से शुरुआत करके यह देखे कि क्या वह इस बार भी विकास कर सकती है।
संभव से आगे तक ख़ुद को तानना
कई बार विकासवादी मानसिकता वाले लोग ख़ुद को इतनी ज़्यादा दूर तक खींचकर तान लेते हैं कि वे असंभव काम कर जाते हैं। 1995 में अभिनेता क्रिस्टोफ़र रीव एक घोड़े से गिर गए। उनकी गर्दन टूट गई। उनकी रीढ़ उनके मस्तिष्क से अलग हो गई और गर्दन के नीचे का उनका पूरा शरीर पंगु हो गया। डॉक्टर बोले, बहुत अफ़सोस है। इसी तरह जीना सीख लो।
बहरहाल, रीव ने एक मुश्किल व्यायाम योजना शुरू की। इसमें विद्युत उद्दीपन से उनके पंगु शरीर के सभी अंगों को हिलाना शामिल था। वे दोबारा हिलना क्यों नहीं सीख सकते? उनका मस्तिष्क दोबारा ऐसे आदेश क्यों नहीं दे सकता, जिनका शरीर पालन करे? डॉक्टरों ने चेतावनी दी कि वे परिस्थितियों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं और उनका निराश होना तय है। उन्होंने यह पहले भी देखा है और रीव की मानसिकता के लिहाज़ से यह बुरा संकेत था। लेकिन दरअसल रीव अपने समय का और क्या इस्तेमाल कर सकते थे? क्या इससे बेहतर कोई दूसरा काम था?
पाँच साल बाद रीव के शरीर में गतिविधि दिखने लगी। सबसे पहले तो यह उनके हाथों में हुई, फिर बाँहों में, फिर पैरों में और फिर धड़ में। वे पूरी तरह से तो ठीक नहीं हुए थे, लेकिन ब्रेन स्कैन में यह नज़र आ रहा था कि उनका मस्तिष्क एक बार फिर उनके शरीर को संकेत भेज रहा था और शरीर उन पर प्रतिक्रिया कर रहा था। न सिर्फ़ रीव ने अपनी योग्यताओं को बढ़ाया, बल्कि उन्होंने नर्वस सिस्टम और बहाली की शारीरिक क्षमता के बारे में विज्ञान के पूरे दृष्टिकोण को ही बदल दिया। ऐसा करके उन्होंने शोध के लिए एक नया संसार खोल दिया और रीढ़ की चोट वाले लोगों के लिए आशा का एक बिलकुल नया रास्ता दिखा दिया।
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निश्चित चीज़ पर फलना-फूलना
ज़ाहिर है, विकासवादी मानसिकता वाले लोग तब फलते-फूलते हैं, जब वे ख़ुद को खींचकर तानते हैं। निश्चित मानसिकता वाले लोग कब फलते-फूलते हैं? जब चीज़ें उनकी पकड़ के भीतर सुरक्षित तौर पर होती हैं। जब परिस्थितियाँ बहुत ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाती हैं - जब वे स्मार्ट या प्रतिभाशाली महसूस नहीं करते हैं - तो उनकी रुचि ख़त्म हो जाती है।
मैंने इसे तब होते देखा, जब हमने प्रि-मेडिकल विद्यार्थियों को रसायन शास्त्र के पहले सेमिस्टर में देखा। कई विद्यार्थियों के मामले में जीवन उन्हें इसी लक्ष्य की ओर लाया था : डॉक्टर बनना। और यही वह कोर्स था, जो फ़ैसला करेगा कि कौन डॉक्टर बनता है। यह कोर्स बहुत मुश्किल होता है। हर परीक्षा का औसत ग्रेड सी प्लस होता है। ग़ौर करें, यह ग्रेड उन विद्यार्थियों को मिलता है, जिन्हें अब तक ए ग्रेड से कम शायद ही कभी मिला है।
ज़्यादातर विद्यार्थी केमिस्ट्री में काफ़ी रुचि रखते थे। लेकिन सेमिस्टर के दौरान कुछ हुआ। निश्चित मानसिकता वाले विद्यार्थियों ने तभी रुचि ली, जब उन्होंने तुरंत अच्छा प्रदर्शन शुरू कर दिया। निश्चित मानसिकता वाले जिन विद्यार्थियों का प्रदर्शन कमतर रहा, उनकी रुचि और आनंद में भारी गिरावट आई। यह कोर्स उनकी बुद्धिमत्ता की पुष्टि नहीं कर रहा था, इसलिए उन्हें इसमें मज़ा नहीं आ सकता था।
एक विद्यार्थी ने कहा, “कोर्स जितना ज़्यादा मुश्किल होता है, मुझे ख़ुद को पुस्तक पढ़ने और परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए उतना ही ज़्यादा मजबूर करना पड़ता है। पहले मैं केमिस्ट्री के बारे में रोमांचित था, लेकिन अब मैं जब भी इसके बारे में सोचता हूँ, तो हर बार मेरी तबीयत बिगड़ने लगती है।”
इसके विपरीत, विकासवादी मानसिकता वाले विद्यार्थी रुचि के उसी ऊँचे स्तर पर तब भी काम करते रहे, जब परिस्थितियाँ बहुत चुनौतीपूर्ण हो गईं। “यह मेरी उम्मीद से बहुत ज़्यादा मुश्किल है, लेकिन मैं इसे करना चाहता हूँ, इसलिए इस वजह से मेरा संकल्प बढ़ गया है। जब लोग कहते हैं कि मैं कोई काम नहीं कर सकता, तो इससे मैं सचमुच प्रेरित हो जाता हूँ।” चुनौती और रुचि साथ-साथ बढ़ती गईं।
हमने यही बात छोटे विद्यार्थियों में भी देखी। हमने पाँचवें ग्रेड के बच्चों को रोचक पहेलियाँ दीं, जो उन सभी को बहुत पसंद आईं। लेकिन जब हमने उन्हें ज़्यादा मुश्किल पहेलियाँ दीं, तो निश्चित मानसिकता वाले विद्यार्थियों के आनंद में भारी गिरावट नज़र आई। उन्होंने अभ्यास के लिए कुछ पहेलियाँ घर ले जाने का अपना इरादा भी बदल दिया। एक बच्चे ने तो साफ़-साफ़ झूठ बोल दिया, “आप उन्हें अपने ही पास रखें। मेरे पास वे पहले से ही हैं।” सच तो यह था कि वे जल्दी से जल्दी वहाँ से भाग निकलना चाहते थे।
यह उन बच्चों के मामले में भी उतना ही सच था, जो पहेलियाँ सुलझाने में सर्वश्रेष्ठ थे। “पहेली प्रतिभा” होने के बावजूद उनके आनंद में कमी आ गई।[adinserter block="1"]
दूसरी ओर, विकासवादी मानसिकता वाले बच्चे मुश्किल समस्याओं से दूर रह ही नहीं पा रहे थे। मुश्किल पहेलियाँ ही उनकी प्रिय पहेलियाँ थीं और वे इन मुश्किल पहेलियों को ही घर ले जाना चाहते थे। एक बच्चे ने पूछा, “क्या आप इन पहेलियों के नाम लिख सकती हैं, ताकि मेरी मम्मी इनके ख़त्म होने के बाद कुछ और मुश्किल पहेलियाँ ख़रीद सकें?”
कुछ समय पहले मैंने महान रूसी नर्तकी और शिक्षिका मैरिना सेम्योनोवा के बारे में पढ़ा, जिन्होंने अपने विद्यार्थियों को चुनने का एक नया तरीक़ा ईजाद किया था। यह मानसिकता की चतुराई भरी परीक्षा थी। जैसा एक पूर्व विद्यार्थी ने कहा है, “उनके विद्यार्थियों को सबसे पहले तो परीक्षा के दौर से गुज़रना होता था, जिसमें वे इस बात पर ग़ौर करती थीं कि आप प्रशंसा और सुधारवादी आलोचना पर कैसी प्रतिक्रिया करते हैं। जो लोग सुधारवादी आलोचना पर अच्छी प्रतिक्रिया करते थे, उन्हें ही योग्य माना जाता था।”
दूसरे शब्दों में, वे आसान चीज़ों से रोमांच पाने वालों - जिन चीज़ों में वे पहले ही माहिर थे - को उन विद्यार्थियों से अलग करती थीं, जिन्हें मुश्किल चीज़ें करने में रोमांच महसूस होता था।
मैं वह समय कभी नहीं भूलूँगी, जब मैंने ख़ुद को पहली बार यह कहते सुना, “यह मुश्किल है। यह मज़ेदार है।” उसी पल मैं यह बात जान गई कि मेरी मानसिकता बदल रही थी।
आप कब स्मार्ट महसूस करते हैं :
जब आप दोषरहित होते हैं या जब आप कुछ सीखते हैं?
कहानी गहरी है, क्योंकि निश्चित मानसिकता में सफल होना ही काफ़ी नहीं है। स्मार्ट और प्रतिभाशाली दिखना ही पर्याप्त नहीं है। आपको दोषरहित भी दिखना होता है। और वह भी तुरंत।
हमने ग्रेड स्कूल जाने वालों से लेकर युवा वयस्कों तक से पूछा, “आप स्मार्ट कब महसूस करते हैं?” अंतर आश्चर्यजनक थे। निश्चित मानसिकता वाले लोगों ने कहा :
“जब मैं कोई ग़लती नहीं करता हूँ।”
“जब मैं कोई चीज़ तेज़ी से पूरी कर लेता हूँ और यह आदर्श होती है।”
“जब कोई चीज़ मेरे लिए आसान होती है, लेकिन दूसरे लोग उसे नहीं कर सकते।”
यह तुरंत आदर्श बनने और दिखने के बारे में है। लेकिन विकासवादी मानसिकता वाले लोगों ने कहा :
“जब काम सचमुच मुश्किल होता है और मैं सचमुच कड़ी कोशिश करता हूँ और मैं कोई ऐसी चीज़ कर सकता हूँ, जो मैं पहले नहीं कर सकता था।”[adinserter block="1"]
या, “जब मैं किसी चीज़ पर लंबे समय तक मेहनत करता हूँ और मैं आख़िरकार इसे समझने लगता हूँ।”
उनके लिए सफलता का मतलब तुरंत आदर्श होना नहीं है। इसका मतलब तो समय के साथ कोई चीज़ सीखना है : किसी चुनौती से मुक़ाबला करना और प्रगति करना।
अगर आपमें योग्यता है, तो सीखने की ज़रूरत ही क्या है?
वास्तव में, निश्चित मानसिकता वाले लोग यह अपेक्षा रखते हैं कि योग्यता खुदबख़ुद नज़र आनी चाहिए - सीखने से पहले ही। देखिए, अगर आपमें योग्यता है, तो है और अगर नहीं है, तो नहीं है। इस तरह के प्रसंग मैं हर समय देखती हूँ।
पूरे संसार के आवेदकों में से कोलंबिया के मेरे विभाग ने एक साल में छह नए स्नातक विद्यार्थियों को दाख़िला दिया। उन सभी के टेस्ट स्कोर कमाल के थे, ग्रेड लगभग आदर्श थे और शीर्ष बुद्धिजीवियों की प्रशंसात्मक सिफ़ारिशें भी थीं। यही नहीं, शीर्ष ग्रेड स्कूलों ने उन्हें रिझाया भी था।
पहले ही दिन उनमें से कई के होश उड़ जाते हैं। वे ख़ुद को नाकारा समझने लगते हैं। कल तक वे ख़ुद को सितारा समझते थे; आज पूरी तरह असफल समझने लगते हैं। होता यह है। वे हमारे शिक्षकों को देखते हैं, जिनके प्रकाशनों की सूची बहुत लंबी है। “हे भगवान, मैं यह नहीं कर सकता।” वे उन्नत विद्यार्थियों को देखते हैं, जो प्रकाशन के लिए लेख भेज रहे हैं और अनुदान के प्रस्ताव लिख रहे हैं। “हे भगवान, मैं यह नहीं कर सकता।” वे जानते हैं कि टेस्ट कैसे देना है और ए ग्रेड कैसे लाना है, लेकिन वे यह नहीं जानते कि बाक़ी काम कैसे करना है - अब तक। वे “अब तक” को भूल जाते हैं।
क्या स्कूल का उद्देश्य यही नहीं होता - सिखाना? वे यहाँ यह सीखने आए हैं कि ये चीज़ें कैसे करनी हैं; इसलिए नहीं आए हैं, क्योंकि वे पहले से ही हर चीज़ जानते हैं।
मैं सोचती हूँ कि जेनेट कुक और स्टीफ़न ग्लास के साथ यही हुआ होगा। वे दोनों ही युवा रिपोर्टर थीं, जो तेज़ी से शिखर पर पहुँचीं - मनगढ़ंत लेखों के दम पर। जेनेट कुक ने नशे के आदी आठ वर्षीय लड़के के बारे में वाशिंगटन पोस्ट में लेख लिखे, जिनके लिए उन्हें पुलित्ज़र पुरस्कार मिला। लड़के का अस्तित्व असल संसार में नहीं था, बल्कि काल्पनिक था, इसलिए बाद में उनसे पुरस्कार वापस ले लिया गया। स्टीफ़न ग्लास द न्यू रिपब्लिक की शानदार रिपोर्टर थीं, जिनके पास ऐसी कमाल की कहानियाँ और स्रोत नज़र आते थे, जिनके बाक़ी रिपोर्टर सिर्फ़ सपने देखते हैं। असलियत यह थी कि इन स्रोतों का कोई अस्तित्व ही नहीं था और उनकी कमाल की कहानियाँ सच नहीं थीं।[adinserter block="1"]
क्या जेनेट कुक और स्टीफ़न ग्लास तुरंत आदर्श दिखने की ख़ातिर काम कर रही थीं? क्या वे यह महसूस कर रही थीं कि अज्ञान स्वीकार करने से सहकर्मियों के सामने उनकी शान घट जाएगी? क्या उन्हें महसूस हो रहा था कि उन्हें शुरुआत से ही बड़े मशहूर रिपोर्टरों जैसा बनना चाहिए - इसका तरीक़ा सीखने की कड़ी मेहनत करने से पहले। स्टीफ़न ग्लास ने लिखा था, “हम स्टार हैं - होनहार स्टार। और यही मायने रखता है।” जनता उन्हें धोखेबाज़ समझती है और उन्होंने धोखा दिया भी था। लेकिन मैं उन्हें ऐसी प्रतिभाशाली युवा - हताश युवा - समझती हूँ, जो निश्चित मानसिकता के दबावों के सामने झुक गई।
1960 के दशक में एक कहावत थी : “बनना होने से बेहतर है।” निश्चित मानसिकता लोगों को कुछ बनने की अनुमति नहीं देती है। उनके मन में शुरू से ही होने की आकांक्षा होती है।
टेस्ट स्कोर हमेशा के लिए होता है
आइए ज़्यादा क़रीब से देखते हैं कि निश्चित मानसिकता में तुरंत आदर्श बनना इतना महत्त्वपूर्ण क्यों होता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि एक परीक्षण - या एक मूल्यांकन - हमेशा के लिए आपका मापन कर सकता है।
बीस साल पहले पाँच वर्षीय लोरेटा और उनका परिवार अमेरिका आया। कुछ दिनों बाद उसकी माँ उसे नए स्कूल में ले गईं, जहाँ उसकी परीक्षा ली गई। उसे किंडरगार्टन क्लास में भेज दिया गया - लेकिन एलीट किंडरगार्टन क्लास ईगल्स में नहीं।
समय बीतने पर लोरेटा को ईगल्स में भेज दिया गया और वह हाई स्कूल के अंत तक विद्यार्थियों के उसी समूह में रही तथा इस दौरान उसने ढेर सारे शैक्षणिक पुरस्कार जीते। लेकिन उसे कभी महसूस नहीं हुआ कि यह उसकी असली जगह थी।
उसे यह विश्वास था कि पहली परीक्षा में उसकी निश्चित योग्यता का पता लगा लिया गया था और इसके परिणामों ने यह बता दिया था कि वह सच्ची ईगल नहीं है। यह रहने दें कि उस वक़्त वह पाँच साल की थी और अभी-अभी एक नए देश में आई थी। या शायद उस समय ईगल्स में जगह ख़ाली नहीं थी। या शायद स्कूल वालों ने यह निर्णय लिया था कि कुछ समय तक कम स्तर वाली कक्षा में पढ़ने से वह ज़्यादा आसानी से वहाँ के माहौल में ढल जाएगी। उस घटना के अर्थ को समझने के बहुत सारे तरीक़े हैं। दुर्भाग्य से उसने इसकी ग़लत व्याख्या करने का विकल्प चुना। क्योंकि निश्चित मानसिकता वाले संसार में ईगल बनने का कोई तरीक़ा नहीं है। अगर वह सच्ची ईगल होती, तो पहली परीक्षा में ही अव्वल आती और उसे तुरंत ही ईगल के रूप में मान्यता मिल जाती।
क्या लोरेटा जैसा मामला दुर्लभ है या फिर ऐसा दृष्टिकोण हमारी सोच से ज़्यादा आम है?[adinserter block="1"]
इसका पता लगाने के लिए हमने पाँचवें ग्रेड वाले विद्यार्थियों को एक बंद कार्ड बोर्ड बॉक्स दिखाया। हमने कहा कि इसके भीतर एक परीक्षण है और यह एक महत्त्वपूर्ण स्कूली योग्यता का आकलन करता है। हमने उन्हें इससे ज़्यादा कुछ नहीं बताया। फिर हमने उनसे परीक्षण के बारे में सवाल पूछे। सबसे पहले तो हम यह तसल्ली कर लेना चाहते थे कि उन्होंने हमारे वर्णन को स्वीकार कर लिया है, इसलिए हमने उनसे पूछा : आप क्या सोचते हैं कि यह परीक्षण किसी महत्त्वपूर्ण स्कूली योग्यता का कितना ज़्यादा आकलन करता है? उन सभी ने हमारी बात मान ली थी।
इसके बाद हमने पूछा : क्या आपके विचार से यह परीक्षण यह मापता है कि आप कितने स्मार्ट हैं? और : क्या आप सोचते हैं कि यह परीक्षण यह माप सकता है कि बड़े होने पर आप कितने स्मार्ट बनेंगे?
विकासवादी मानसिकता वाले विद्यार्थियों ने हमारी यह बात मान ली थी कि परीक्षण किसी महत्त्वपूर्ण योग्यता को मापता है, लेकिन उनके विचार से यह इस बात को नहीं माप सकता था कि वे कितने स्मार्ट हैं। और वे निश्चित रूप से यह नहीं सोचते थे कि यह उन्हें यह बता सकता है कि बड़े होने पर वे कितने स्मार्ट बनेंगे। वास्तव में, उनमें से एक ने हमसे कहा, “किसी तरह नहीं! यह तो कोई परीक्षण नहीं कर सकता।”
लेकिन निश्चित मानसिकता वाले विद्यार्थियों को सिर्फ़ यही यक़ीन नहीं था कि परीक्षण किसी महत्त्वपूर्ण योग्यता को माप सकता है। उन्हें यह भी यक़ीन था - और इतनी ही शिद्दत से था - कि परीक्षण इस बात को भी माप सकता है कि वे कितने स्मार्ट हैं। और बड़े होने पर वे कितने स्मार्ट होंगे।
उन्होंने यह मान लिया कि एक परीक्षण में इस समय और भविष्य की भी उनकी सबसे बुनियादी बुद्धि को मापने की शक्ति थी। उन्होंने इस परीक्षण को अपनी बुद्धिमत्ता या स्मार्टनेस तय करने की शक्ति दे दी थी। इसीलिए हर सफलता इतनी महत्त्वपूर्ण होती है।[adinserter block="1"]
क्षमता पर एक और दृष्टि
इससे हम दोबारा “क्षमता” पर विचार करने की ओर आते हैं और इस प्रश्न की ओर कि क्या परीक्षण या विशेषज्ञ हमें यह बता सकते हैं कि हमारी क्षमता क्या है, हम किसमें सक्षम हैं और हमारा भविष्य क्या होगा। निश्चित मानसिकता कहती है कि हाँ, आप निश्चित योग्यता को इसी समय माप सकते हैं और इसे भविष्य में प्रक्षेपित कर सकते हैं। बस कोई टेस्ट दे दें या विशेषज्ञ से पूछ लें। किसी क्रिस्टल बॉल या इंतज़ार की ज़रूरत नहीं है।
क्षमता का पता तुरंत लगाया जा सकता है, यह विश्वास इतना आम है कि जोसेफ़ पी. कैनेडी ने मॉर्टन डाउनी जूनियर को दो टूक बता दिया था कि वे निश्चित रूप से असफल होंगे। डाउनी (जो बाद में मशहूर टेलीविज़न शख़्सियत और लेखक बने) ने ऐसी क्या गड़बड़ कर दी थी? वे स्टोर्क नामक न्यू यॉर्क के शानदार नाइटक्लब में लाल मोजे और भूरे जूते पहनकर चले गए थे।
“मॉर्टन,” कैनेडी ने उनसे कहा, “आज तक मैं लाल मोजे और भूरे जूते पहने जिस भी व्यक्ति से मिला हूँ, उनमें से कोई भी सफल नहीं हुआ है। नौजवान, मैं तुम्हें इसी समय आगाह कर देता हूँ कि तुम सबसे हटकर दिखते हो, लेकिन इस तरह हटकर नहीं दिखते हो कि लोग कभी तुम्हारी प्रशंसा करें।”
हमारे युग के सबसे सफल कई लोगों के बारे में विशेषज्ञों ने यह माना था कि उनका कोई भविष्य नहीं है। जैक्सन पोलॉक, मार्सल प्राउस्ट, एल्विस प्रेस्ले, रे चार्ल्स, लुसिल बॉल और चार्ल्स डार्विन आदि के बारे में यह सोचा गया था कि उनमें उनके चुने हुए क्षेत्रों में बहुत कम क्षमता थी। और इनमें से कुछ मामलों में यह सच हो सकता है कि शुरुआत में वे भीड़ से अलग हटकर नहीं दिखते थे।
लेकिन क्या क्षमता का मतलब प्रयास और कोचिंग की मदद से समय के साथ उनकी योग्यताओं को बढ़ाने की क्षमता से नहीं है? और यही असल बात है। हमें पहले से यह पता कैसे चल सकता है कि मेहनत, कोचिंग और समय किसी व्यक्ति को कहाँ ले जाएँगे? शायद विशेषज्ञ जैक्सन, मार्सल, एल्विस, रे, लुसिल, और चार्ल्स के बारे में बिलकुल सही थे - लेकिन सिर्फ़ उस वक़्त की उनकी योग्यताओं के संदर्भ में।
मैं लंदन में पॉल सेजेन की शुरुआती पेंटिंग्स की एक प्रदर्शनी देखने गई। वहाँ जाते समय मैं सोच रही थी कि आज हम उन्हें जिस तरह के पेंटर के रूप में जानते हैं, उससे पहले सेजेन कैसे थे और उनकी पेंटिंगें कैसी थीं। मैं बेहद जिज्ञासु थी, क्योंकि सेजेन मेरे प्रिय चित्रकार थे, जिन्होंने ज़्यादातर आधुनिक कला के लिए मंच तैयार किया था। मैंने यह पाया : उनकी कुछ शुरुआती पेंटिंग्स काफ़ी ख़राब थीं। उनमें अतिरेक भरे दृश्य थे, हिंसा थी और नौसिखियों की तरह चित्रित लोग थे। हालाँकि कुछ पेंटिंग्स में भावी सेजेन की झलक दिख रही थी, लेकिन कई पेंटिंग्स में ऐसी कोई संभावना नज़र नहीं आ रही थी। क्या शुरुआती सेजेन प्रतिभाशाली नहीं थे? या फिर सेजेन को सेजेन बनने में बस समय लगा था?
विकासवादी मानसिकता वाले लोग यह बात जानते हैं कि क्षमता को पल्लवित होने में समय लगता है। कुछ समय पहले मुझे एक शिक्षक का क्रोध भरा पत्र मिला, जिसने हमारे एक सर्वे में हिस्सा लिया था। सर्वे में एक काल्पनिक विद्यार्थी जेनिफ़र को चित्रित किया गया था, जिसे गणित की परीक्षा में 65 प्रतिशत अंक मिले थे। फिर हमने शिक्षकों से यह पूछा था कि वे उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे।[adinserter block="1"]
निश्चित मानसिकता वाले शिक्षकों ने हमारे प्रश्न का ख़ुशी-ख़ुशी जवाब दिया। उन्हें महसूस हुआ कि जेनिफ़र का स्कोर जानने से ही उन्हें उसके व्यक्तित्व, बुद्धिमत्ता और क्षमता का अच्छा अहसास हो हो जाता है। उनकी ढेर सारी अनुशंसाएँ मिलीं। इसके विपरीत श्री रियॉर्डन आगबबूला थे। उन्होंने यह लिखा।
जिससे भी संबंधित हो,
आपके हालिया सर्वे को पूरा करने के बाद मुझे यह आग्रह करना होगा कि मेरे परिणाम अध्ययन से हटा दिए जाएँ। मुझे महसूस होता है कि अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टि से कमज़ोर है…