पुस्तक का विवरण (Description of Book of मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम : रामायण के अमर पात्र / Maryada Purushottam Shri Ram: Ramayan Ke Amar Patra PDF Download) :-
नाम 📖 | मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम : रामायण के अमर पात्र / Maryada Purushottam Shri Ram: Ramayan Ke Amar Patra PDF Download |
लेखक 🖊️ | डॉ. विनय / Dr. Vinay |
आकार | 1.3 MB |
कुल पृष्ठ | 143 |
भाषा | Hindi |
श्रेणी | कहानी-संग्रह, धार्मिक, पौराणिक, हिन्दू धर्म |
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समस्त भारतीय साहित्य में रामायण भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन के ऐसे आधार ग्रंथ हैं जिन्हें, प्रत्येक भारतीय बार-बार पढ़ना चाहता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम उसकी चेतना में साँस कि तरह रमे हैं। अपने पाठकों की ध्यान में रखते हुए हमने रामायण के प्रमुख पात्रों का औपनिवेशिक रूप कथा की सरल भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, कर्तव्यनिष्ठ लक्ष्मण, महासती सीता, शांत उर्मिला, पवनपुत्र हनुमान, त्यागमूर्ति भरत और महाबली रावण... सब अपने-अपने धरातल पर खड़े जीवन के अनेक रंग छिटका रहे हैं।
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पुस्तक का कुछ अंश
भूमिका
रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के विरद कोष हैं और इन दोनों में रामायण का सम्मान भक्ति की दृष्टि से महाभारत से अधिक है। यद्यपि रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का प्रतिपादन है और महाभारत में कौरवों पांडवों की कथा के बहाने कृष्ण का ब्रह्मतत्त्व प्रतिष्ठित किया गया है। रामायण का मान सामान्य जन में इसलिए अधिक है कि उसके चरित नायक राम का जीवन चरित्र व्यक्ति और समाज दोनों के लिए जीवन मूल्य की दृष्टि से अनुकरणीय है।
आदिकवि बाल्मीकि ने सम्पूर्ण रामकथा में राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिपादित कर एक महान सांस्कृतिक आधार प्रतिष्ठित किया था और उसके बाद अनेक प्रकार से राम कथा का स्वरूप विकसित होता रहा। जैन धर्मावलंबियों ने अपने ढंग से इस क्या को प्रस्तुत किया और बाद के आने वाले रचनाकारों ने -हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता- के आधार पर राम की कथा को उसके मूल्य की रक्षा करते हुए अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामकथा को भक्ति का व्यावहारिक केन्द्रबिन्दु बना दिया। उसके राम भक्ति के आधार हैं और उनका जीवन ही अनुकरणीय है। गोस्वामी तुलसीदास के बाद भी राम कथा को विभिन्न रूपों में अनुभव किया जाता रहा और जहां-जहां इस विराट भावभूमि में कवियों की दृष्टि में, जो स्थल मानवीय दृष्टि से उपेक्षित रह गये उन्हें केन्द्र बनाकर राम की कथा में अन्य आयाम जोड़ने का उपक्रम भी जारी रहा।
रामकथा हमारे सामने जहां भक्ति का बहुत बड़ा मूल्य प्रस्तुत करती है वहां कुछ ऐसे प्रश्न भी छोड़ देती है जिनका कोई तर्कपूर्ण समाधान शायद नहीं मिल पाता। और जब मन किसी बात को मानने से मना कर दे और उसका तर्कपूर्ण समाधान न हो तब तक गहरे रचनात्मक द्वन्द्व की रचना होती है। हमने रामकथा के विभिन्न पात्रों को उस कथा के मूल आदर्शवृत्त में ही रखकर मनन और अनुसंधान से, औपन्यासिक रूप में चित्रित करने का प्रयास किया है। क्योंकि रामकथा में प्रत्येक पात्र किसी-न-किसी जीवनदृष्टि या जीवनमूल्य को भी प्रतिपादित करता है। राम यदि आदर्श पुत्र, पति हैं तो लक्ष्मण आदर्श भाई के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसी प्रकार अन्य पात्रों का मूल मूल्यवृत्त भी देखा जा सकता है। अब आधुनिक दृष्टि में यह मूल्यवृत्त कहां तक हमारे जीवन में रच सकता है, यह बहुत बड़ा प्रश्न है और इसलिए किसी भी लेखक का यह रचनात्मक प्रयास कि पुराकथा के पात्रों में क्या कोई मानसिक द्वन्द्व रहा होगा? क्या उन्होंने सहज मानव के रूप में होंठों को मुस्कराने की और आंखों को रोने की आज्ञा दी होगी? और तब हम यह अनुभव करते हैं कि उस विराट मूल्य के आलोक में छोटा-सा मानवीय प्रकाशखण्ड उठाकर अपने दृष्टिकोण से अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत कर सकें। रामगाथा के विशिष्ट पात्रों पर औपन्यासिक रचनावली के पीछे हमारा यही दृष्टिकोण रहा है कि हम उस विराट को अपनी दृष्टि से अपने लिए किस रूप में सार्थक कर सकते हैं।[adinserter block="1"]
गोस्वामी जी के शब्दों में -
सरल कवित, कीरति विमल, सुनि आदरहिं सुजान।
सहज बैर बिसराय रिपु, जो सुनि करै बखान।।
सहज बैर बिसराय रिपु, जो सुनि करै बखान।।
और हम इस रास्ते पर यदि नहीं चल पाते तो चलने की सोच तो सकते हैं। हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह रहा कि जहां-जहां रामकथा के बड़े-बड़े ग्रंथ कुछ नहीं बोलते वहां उसी मूल चेतना में हम गद्य में कैसे उस अबोले के यथार्थ को चित्रित करें। पुराकथा की दृष्टि से जो सच हो सकता हो और आधुनिक दृष्टि से जो स्वीकार भी हो तो ऐसे कथा तंत्रों को कल्पनाशीलता से रचते हुए हमारा हमेशा ध्यान रहता है कि मनुष्य के अंतर का उदात्त भाव भी मुखर हो सके क्योंकि हमने जब-जब इन बड़े पात्रों से साक्षात्कार किया है तब-तब एक उदात्त तत्त्व की आलोक की तरह से दृष्टि के सामने आया है। उस आलोक में से थोड़ा-बहुत अब हमारी ओर से आपके सामने है।
-डॉ. अश्विनी पाराशर
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम
जन्म और बाल्यकाल
सरयू नदी के किनारे बसा कौशल नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़ा जनपद था। धन-धान्य से संपन्न सभी लोग यहां हर प्रकार से सुखी थे। इस जनपद में ही समस्त लोकों में विख्यात अयोध्या नाम की नगरी थी, जिसे स्वयं महाराज मनु ने पुराकाल में बनवाया और बसाया था।
यह सुंदर नगरी बारह योजन लंबी और तीन योजन चौड़ी थी। सुंदर-सुंदर फल देने वाले वृक्षों से सजा राजमार्ग, खिले हुए फूलों से लदे फूलदार पौधे उपवन की शोभा को बढ़ा रहे थे।
बाहर से आने वाले हर यात्री को यह नगरी देवराज इन्द्र की अमरावती के समान लगती थी।
बड़े-बड़े फाटक, उन पर खड़े जागरूक पहरेदार भीतर अलग-अलग बाजार, शिल्पी और कलाकार, नाटक-मंडलियां, अप्सरा-सी नृत्यांगनाएं, ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं अयोध्या नगरी की शोभा को बढ़ाने वाले महत्त्वपूर्ण अंग थे। लगता था कि यह स्थान देवलोक की तपस्या से प्राप्त हुए सिद्धों के विमान की भांति भूमंडल में सर्वोच्च हैं।
इसी स्वर्गीय छटा वाली विशाल नगरी में अयोध्या के प्रजापालक कौशल नरेश राजा दशरथ का भी सुंदर भव्य राजभवन था। यह अयोध्या अपनी इसी सुंदरता के कारण कौशल की राजधानी थी। यहां कोई भी तो ऐसा नहीं था जो अग्निहोत्र या यज्ञ न करता हो। महाराजा दशरथ के मंत्रीगण भी योग्य, विद्वान, आचारवान और राजा का प्रिय करने वाले थे। इसीलिए महाराज दशरथ की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। महामुनि वसिष्ठ और वामदेव राज्य में माननीय ऋत्विज् थे। इनके अतिरिक्त भी गौतम, मार्कण्डेय, जाबालि आदि भी सम्मान पाते थे। न्याय, धर्म और व्यवस्था के कारण राज्य में सभी को यथोचित सम्मान प्राप्त होता था।[adinserter block="1"]
ऐसे गुणवान मंत्रियों के साथ रहकर अयोध्या के राजा दशरथ उस पृथ्वी पर शासन करते थे। उनका कोई शत्रु नहीं था, सभी सामन्त उनके चरणों में मस्तक झुकाते थे। लेकिन संपूर्ण धर्मों को जानने वाले महात्मा राजा दशरथ फिर भी मन से बहुत चिंतित थे। उनके वंश को चलाने वाला कोई पुत्र नहीं था।
केवल एक पुत्री थी जिसका नाम शांता था। महाराज ने शांता का विवाह मुनि कुमार ऋष्य मृग से कर दिया था। यह विभाण्डक मुनि के पुत्र थे।
पुत्र की कामना जमाता के प्राप्त होने पर भी कम नहीं हुई और राजा की चिंता दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रही।
एक दिन महाराज दशरथ ने विचार किया कि यदि अश्वमेध यज्ञ किया जाए तो अवश्य पुत्र की प्राप्ति हो सकती है। यह सोचकर महाराज ने विद्वान मंत्रियों और कुल-पुरोहित वशिष्ठ, वामदेव तथा जाबालि आदि तपस्वियों को बुलाकर अपने मन की इच्छा को प्रकट करते हुए कहा-
‘मैं सदा पुत्र के लिए विलाप करता रहता हूं। पुत्र के अभाव में यह राज्य-सुख मेरे लिए निरर्थक होकर रह गया है, इसलिए मैंने निश्चय किया है कि शास्त्र के अनुसार इस पावन यज्ञ का अनुष्ठान करूं। आप सभी लोग गुणी महात्मा हैं, कृपया मुझे बताइए कि मेरी पुत्र प्राप्ति की इच्छा किस प्रकार पूर्ण होगी?’
‘यह तो बहुत अच्छा विचार है राजन!’ महामुनि वसिष्ठ ने उनका अनुमोदन करते हुए कहा और उनकी प्रशंसा की।
जाबालि और वामदेव मुनियों ने, सुमंत आदि मंत्रियों ने भी इस पर अपनी प्रसन्नता प्रकट की और समर्थन करते हुए कहा, ‘महाराज! यह बहुत उत्तम विचार है। इसके लिए शीघ्र ही यज्ञ-सामग्री का संग्रह किया जाए।’
यज्ञ के लिए विचार करते हुए सरयू नदी के तट पर यज्ञभूमि बनायी गई। भूमंडल में भ्रमण के लिए यज्ञ का अश्व छोड़ा गया और मुनि कुमार ऋषि मृग को यज्ञ का ब्रह्मा नियुक्त किया गया।
महाराज दशरथ के इस पावन यज्ञ में वेद विद्या के अनेक पारंगत ब्राह्मण और ब्रह्मवादी ऋत्विज उपस्थित हुए।
मुनि वसिष्ठ और ऋषि मृग का दोनों के आदेश से शुभ नक्षत्र वाले दिन महाराज दशरथ ने अपनी पत्नी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा के साथ यज्ञ की दीक्षा ली। इस समय तक यज्ञ का अश्व भी भूमंडल में भ्रमण करके लौट आया था।
इस यज्ञ में विधिवत आहुतियां दी गई, सभी कार्य बिना बाधा और बिना भूल के सम्पन्न हुए। यज्ञ में प्रतिदिन अनेक ब्राह्मण भोजन करते थे, सभी को उनका यथा अनुरूप यज्ञशेष प्राप्त होता था।
अपने कुल की वृद्धि करने वाले महाराज दशरथ ने यज्ञ पूर्ण होने पर होता को दक्षिणा रूप में अयोध्या से पूर्व दिशा का सारा राज्य सौंप दिया। अध्वर्यु को पश्चिम दिशा तथा ब्रह्मा को दक्षिण दिशा का राज्य दिया और उद्गाता को उत्तर दिशा की सारी भूमि दान की।
यह दान देकर महाराज दशरथ अत्यन्त प्रसन्न हुए किन्तु ब्राह्मणों और पुरोहितों ने उनसे निवेदन किया, ‘हे महाराज! हम तो वेदों का स्वाध्याय करते हैं, हम इस भूमि का क्या करेंगे। आप तो हे राजन। हमें इस भूमि के मूल्य के समान कोई राशि दें, वही उपयोगी होगा।’
यह देखकर महाराज ने उन्हें गौएं और स्वर्ण मुद्राएं भेंट कीं।[adinserter block="1"]
यज्ञ की समाप्ति पर महाराज दशरथ ने मुनि मृग से अपने लिए पुत्र प्राप्ति के लिए अनुष्ठान करने के लिए निवेदन किया।
‘राजन। इस कुल के भार को वहन करने में समर्थ आपके यहां चार पुत्र उत्पन्न होंगे।’ यह कहते हुए महामुनि ऋष्य मृग ने अथर्ववेद के मंत्रों से पुत्रेष्टि यज्ञ का प्रारम्भ किया और विधि के अनुसार उसमें आहुतियां डालीं।
सभी देवताओं, सिद्धों, गन्धर्वों और महर्षिगणों ने विधि के अनुसार अपना-अपना भार ग्रहण करने के लिए ब्रह्मलोक में एकत्रित होकर लोक की रचना करने वाले चतुरानन ब्रह्माजी से कहा-
‘हे भगवन्! आपकी कृपा का पात्र होकर राक्षस रावण अपने बल से हम सबको कष्ट दे रहा है। जब से आपने उसे वरदान दिया है, उसने तीनों लोकों के प्राणियों का नाकों दम कर रखा है। वह जिसे भी उभरता देखता है, उससे द्वेष करता है और उसका अनिष्ट करता है। वह इतना उद्दण्ड हो गया है कि किसी का कभी भी अपमान कर सकता है। मनुष्यों की तो उसके सामने गिनती ही कुछ नहीं है।’
जैसे ही ब्रह्माजी ने मनुष्य शब्द सुना, वैसे ही उन्होंने कहा, ‘लो उस दुरात्मा के वध का उपाय मेरी समझ में आ गया है। उसने वर मांगते समय कहा था कि मैं गन्धर्व, यक्ष, देवता और राक्षसों के हाथ से न मारा जाऊं। मनुष्यों को तुच्छ जानकर ही उसने मनुष्य से अवध्य होने का वरदान नहीं मांगा, इसलिए निश्चय ही उसकी मृत्यु मनुष्य के सिवा कोई दूसरा नहीं कर सकता।’
अभी ब्रह्माजी ये बातें कह ही रहे थे कि तभी गरुड़ पर सवार हो, शरीर पर पीतांबर धारण किए हाथ में शंख, चक्र और गदा लिए जगत के स्वामी विष्णु उपस्थित हो गए। सबने विष्णु से विनम्र भाव से उनकी स्तुति करते हुए कहा, ‘हे सर्वव्यापी परमेश्वर! हम तीनों लोकों के हित के लिए आपसे यह विनती कर रहे हैं।’
‘हे प्रभो अयोध्या के राजा दशरथ धर्म के ज्ञानी, उदार और महर्षियों के समान तपस्वी हैं, तेजस्वी हैं। उनकी तीन रानियां ही, श्री, और कीर्ति देवियों के समान हैं। हे देव! आप अपने चार स्वरूप बनाकर इन तीनों रानियों के गर्भ से पुत्र रूप में अवतार ग्रहण करें और मनुष्य रूप में प्रकट होकर संसार के प्रमुख कंटक रूप रावण से पृथ्वी को मुक्ति दिलाए।’
सभी देवों, गंधर्वों आदि को इस प्रकार चिंतित देखकर परम उदारमना विष्णु जी ने कहा, ‘आपका कल्याण हो, आपका हित करने के लिए मैं रावण को उसके कुल सहित अवश्य नष्ट कर डालूंगा।’ इसके पश्चात् विष्णु ने अपने को चार स्वरूपों में प्रकट करके महाराज दशरथ को पिता बनाने का निश्चय किया।
वहां से तत्काल अन्तर्ध्यान होकर विष्णु पुत्रेष्टि यज्ञ कर रहे महाराज दशरथ के यज्ञ में अग्निकुंड से एक विशालकाय पुरुष के रूप में प्रकट हुए और राजा दशरथ से बोले, ‘हे राजन! मैं प्रजापति की आज्ञा से यहां आया हूं।’ और यह कहते हुए सोने की बनी हुई परात, जिसमें दिव्य खीर भरी हुई थी और वह चांदी के ढक्कन से ढकी हुई थी, उसे अपने हाथ से महाराज को देते हुए कहा, ‘यह पुत्र प्राप्त कराने वाली देवताओं की खीर है। यह खीर तुम अपनी योग्य पत्नियों को दो। इसके खाने पर उनको अवश्य पुत्र उत्पन्न होंगे।’[adinserter block="1"]
देवताओं द्वारा दिया गया यह प्रसाद पाकर राजा इस प्रकार प्रसन्न हुए मानो किसी गरीब को बहुत बड़ी सम्पत्ति मिल जाए। खीर देकर वह दिव्य पुरुष वहां से अंतर्ध्यान हो गए और राजा उस खीर को लेकर अन्तःपुर चले आए।
महाराज दशरथ ने उस खीर का आधा भाग महारानी कौशल्या को दे दिया, जो भाग बचा उसका आधा भाग महारानी सुमित्रा को अर्पण किया, जो खीर बच रही उसका आधा भाग तो उन्होंने पुत्र-प्राप्ति के लिए कैकेयी को दे दिया और जो शेष भाग बचा, वह भी महाराज ने सुमित्रा को ही बांट दिया।
उस उत्तम खीर को खाकर महाराज की वे तीनों साध्वी महारानियां शीघ्र ही अलग-अलग रूप में गर्भवती हो गईं। उनके वे गर्भ अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी थे। इस प्रकार अपने मनोरथ में सफल महाराज दशरथ का यज्ञ समाप्त हुआ। देवता लोग अपना-अपना भाग लेकर लौट गए। श्रेष्ठ ब्राह्मण, मुनि और मुनि कुमार ऋष्य मृग भी यथोचित सम्मान पाकर अपने स्थान को लौट गए।
सभी को सम्मानपूर्वक विदा करने के पश्चात समय आने पर जब चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि आई तो पुनर्वसु नक्षत्र और कर्क लग्न में ज्येष्ठ महारानी कौशल्या ने दिव्य लक्षणों से युक्त एक पुत्र को जन्म दिया। कौशल्या के गर्भ से उत्पन्न इक्ष्वाकु कुल का आनन्द बढ़ाने वाला यह पुत्र ही विष्णु का अवतार राम कहलाया।
अपने चार पुत्रों के जन्म को देखकर महाराज दशरथ अत्यन्त प्रसन्न हुए। अब उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो गयी थीं।
प्रजा ने अपने राजा को इस प्रकार प्रसन्न और उल्लासित देखा तो प्रजा की प्रसन्नता का भी कोई ठिकाना नहीं रहा। अयोध्या में बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया। इन नक्षत्रों के समान प्रकाशमान पुत्रों के जन्म पर गन्धर्वों ने मधुर गीत गाए। देवों ने दुन्दुभि बजायी। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी।
ग्यारह दिन बीतने पर महाराज दशरथ ने उन बालकों का नामकरण-संस्कार किया। महामुनि वसिष्ठ ने प्रसन्नतापूर्वक सबके नाम रखे। कौशल्या बड़ी रानी थीं अतः उनके पुत्र का नाम राम रखा। कैकेयी के पुत्र का नाम भरत, सुमित्रा के दोनों पुत्रों का नाम लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखा।
इस अवसर पर कारागार से अनेक बन्दी छोड़ दिये गए। सूत, मागध और बन्दीजनों को पुरस्कार स्वरूप भेंट सौंपी गई।
ब्राह्मणों, पुरवासियों और जनपदवासियों को पूरी आस्था और श्रद्धापूर्वक भोजन कराया गया। दान-दक्षिणा से संतुष्ट किया गया।[adinserter block="1"]
तीनों माताएं अपने-अपने पुत्रों का मुख निहार-निहार बलिहारी जातीं। अपनी गोद में अपनी संतान को देखकर उन्हें आज अपना नारी होना सार्थक लग रहा था।
पुत्रों के अभाव में महाराज के मन पर दुश्चिन्ता के जो काले बादल घिर आए थे। वे अब छंट चुके थे। अब चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं के प्रकाश के साथ उदय हो गया था। अयोध्या इस नामकरण-संस्कार के अवसर पर दुल्हन की तरह सजी हुई थी।
अब धीरे-धीरे ये बालक बड़े होने लगे। महाराज दशरथ का भी अधिक समय अब अपने पुत्रों के साथ ही रमता था। छोटे-छोटे बच्चों की किलकारियों से अयोध्या का राजभवन गूंजने लगा।
धीरे-धीरे ये बच्चे अपने पैरों के सहारे सरकने लगे। देहरी पार कर कुछ बाहर आने लगे। अनेक नौकर-चाकर इनकी सेवा के लिए नियत थे। कितनी ही परिचारिका, दासियां इनकी सेवा-टहल करती थीं।
समय आने पर महर्षि वसिष्ठ ने इन बालकों का जातकर्म-संस्कार सम्पन्न कराया। राम सबसे बड़े थे। गुणों में श्रेष्ठ, उदार और गंभीर प्रकृति के जबकि लक्ष्मण कुछ चंचल थे। भरत और शत्रुघ्न सेवा प्रकृति के थे। राजकुल के ये चार दीपक थे। ज्ञानवान और समस्त सद्गुणों से सम्पन्न-कराने के लिए गुरु वसिष्ठ इन बालकों को शिक्षा देते थे। इनमें राम पराक्रमी और तेजस्वी थे। वे निष्कलंक चन्द्रमा के समान सबके हृदय को शांति देते थे। राम धनुर्विद्या में प्रवीण होने के लिए निरंतर अभ्यास में लगे रहते थे। राम पितृभक्त भी थे। इसीलिए महाराज दशरथ उनसे अधिक प्रेम रखते थे।
लक्ष्मण लक्ष्मी की वृद्धि करने वाले थे। राम के साथ लक्ष्मण सदा उनके साथ ही रहते थे। राम का वे बहुत ध्यान रखते थे। सदा राम की सेवा में ही लगे रहते थे। राम को भी लक्ष्मण के बिना नींद नहीं आती थी।
जब भी राम शिकार के लिए जाते या वन में घोड़े पर सवार होकर जाते, लक्ष्मण सदा उनका अनुसरण करते हुए उनके पीछे उनकी रक्षा के लिए जाते थे। इसी प्रकार भरत को शत्रुघ्न भी प्राणों से अधिक प्यारे थे।
गुरु वसिष्ठ, वामदेव और जाबालि आदि गुरुओं की देख-रेख में ये चारों बालक ही विद्याध्ययन करने लगे। कुशाग्र बुद्धि-वाले ये चारों बालक अपने कर्तव्य में कभी कोई कमी नहीं आने देते थे। बहुत आज्ञाकारी थे। समय पर सारा कार्य करते थे।[adinserter block="1"]
बहुत शीघ्र ही इन बालकों ने घुड़सवारी में कुशलता प्राप्त कर ली। चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। धनुर्विद्या में ये प्रवीण हो गए और अनेक अस्त्र-शस्त्र के चलाने का अभ्यास करते हुए ये युद्धकला में चतुर हो गए।
महाराज दशरथ को इनकी प्रगति के समाचार मिलते तो उनका मस्तक गर्व से ऊपर उठ जाता था। उनके पुत्रों की कीर्ति अनेक राज्यों में फैलने लगी। माताएं भी पुत्रों के बारे में जब सुनती कि ये बालक कुल की कीर्ति को बढ़ाने वाले हो रहे हैं तो वे भी गर्व का अनुभव करतीं।
कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी तीनों ने ही समान समय में ही साथ-साथ ही इन पुत्रों को प्राप्त किया था इसलिए सभी पर तीनों का समान स्नेह था। कैकेयी तो भरत की अपेक्षा राम को अधिक मानती व स्नेह करती थीं। किसी रानी में भी विमाता का भाव नहीं था।
इस तरह अयोध्या नगरी क्या पूरा कौशल प्रदेश ही इन पुत्रों के गुणों की चर्चा करते नहीं थकता था। प्रजा ने तो आने वाले समय में राम को राजा के रूप में देखना भी प्रारम्भ कर दिया था।
महर्षि विश्वामित्र् का आगमन
राजदरबार लगा हुआ था। महाराज दशरथ के चारों होनहार पुत्र अब तरुण हो गए थे। महर्षि वसिष्ठ ने राजा दशरथ को बताया-
‘महाराज! अब आपके पुत्र सभी विद्याओं में निपुण और कुशल युद्धकला के रूप में महारथ प्राप्त कर चुके हैं’
‘आपकी कृपा है, आचार्य!’ महाराज ने कहा।
‘अब इसका कुशल प्रदर्शन आप देखिए।’
जब मुनि वसिष्ठ ने राम-लक्ष्मण आदि के प्रदर्शन का प्रस्ताव किया तो महाराज दशरथ ने इसके लिए प्रतिहारी को बुलाकर कहा- ‘देखो, वीर सुमंत को बुलाओ।’
सुमंत महाराज दशरथ के प्रधानमंत्री थे।
‘हे सुमंत! सुनो, महामुनि वसिष्ठ राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा का प्रदर्शन कराना चाहते हैं। तुम सरयू के किनारे इस रंग मण्डप का आयोजन करो।’
‘जैसी आज्ञा, महाराज!’
तुरन्त ही आदेशानुसार मण्डप तैयार करा दिया गया, तो एक दिन शुभ मुहूर्त निकलवाकर महाराज के पुत्रों का प्रजा के सम्मुख विशाल युद्ध-कला का प्रदर्शन हुआ।
ज्येष्ठ पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ने धनुष विद्या का कुशल प्रदर्शन किया। लक्ष्मण तो तलवार चलाने की कला में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुए। राम का धनुष-प्रदर्शन सर्वोपरि था। भरत और शत्रुघ्न ने भी अपना-अपना कौशल दिखलाया।
तीनों माताएं भी मंडप में उपस्थित थीं। वे तीनों ही अपने पुत्रों का यह चमत्कारी प्रदर्शन देखकर अत्यंत प्रसन्न हुईं। दैव कृपा से आज उनके पुत्र इस योग्य हो गए हैं। यही तो मनाती है हर मां! एक दिन उसका पुत्र बड़ा होकर यश का भागी बने। पिता का सहायक बने। और राम, लक्ष्मण आदि के शारीरिक गठन, उनकी चुस्ती, राज्योचित्त गरिमा, रूप,रंग और पराक्रम तीनों ही माताओं के मन को गौरवान्वित कर रहा था। इस देश के जो राजागण, ऋषि-महर्षि इस आयोजन में सम्मिलित हुए थे, वे भी इन बालकों के प्रदर्शन से अत्यन्त प्रसन्न थे और अपना आशीर्वाद दे रहे थे।[adinserter block="1"]
कार्यक्रम समाप्ति पर चारों पुत्रों ने पिता दशरथ और माता कौशल्या आदि के चरण-स्पर्श करते हुए उनका आशीष लिया और इस प्रकार ये सभी लोग उल्लासपूर्वक राजभवन लौट आए।
महर्षि विश्वामित्र ने अयोध्या के राजपुत्रों की यश की गाथा सुनी तो उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई। वे अपने कौशिक आश्रम में अपनी साधना में लीन थे और जो यज्ञ वे कर रहे थे, उसमें आसपास में रहने वाले ताड़का, सुबाहु आदि राक्षस अपने दल-बल के साथ कभी भी आक्रमण कर देते थे और विश्वामित्र के यज्ञ को ही क्षति ही नहीं पहुंचाते थे बल्कि आश्रम की शोभा को भी बिगाड़ जाते थे। परिणाम यह होता था कि बार-बार ऋषि को उनकी इन हरकतों को रोकने के लिए स्वयं उठकर पुरुषार्थ करना होता था और यज्ञ भंग हो जाता था।
बहुत दिनों से विश्वामित्र की अभिलाषा थी कि वीर धनुर्धर राजकुमार यदि उन्हें कुछ समय के लिए उपलब्ध हो जाएं तो वे अपना यज्ञ निष्कंटक रूप से सम्पूर्ण कर सकते हैं।
विश्वामित्र की चिंता सम्पूर्ण आर्यावर्त को राक्षसों से और उनकी आतंककारी प्रवृत्तियों से मुक्त करने की थी। इसीलिए वे यज्ञ के प्रभाव से इस पूरे परिवेश को शान्ति-स्थल बनाना चाहते थे।
विश्वामित्र ने जब महाराज दशरथ के पुत्रों-राम, लक्ष्मण आदि की वीरता और उत्साह के बारे में सुना तो उनके मन में यह भाव जागा कि यदि मुझे इन राजकुमारों को अस्त्र-शिक्षा देने का अवसर मिले तो निश्चय ही मैं इन्हें युद्ध विद्या में पारंगत करके एक निष्कंटक आर्यावर्त की स्थापना कर सकता हूं।
यह विचार करते ही अपने आश्रम में आश्रम-कुमारों और ऋषि-मुनियों को अपना मन्तव्य बताकर गाधिपुत्र महर्षि विश्वामित्र अयोध्या के लिए चल पड़े। उनकी दृष्टि में इस समय केवल राम और लक्ष्मण विराजमान थे।
अयोध्या में राजदरबार में अपने मंत्रियों और पुरोहितों के साथ सिंहासन पर विराजे महाराज दशरथ प्रसन्न मुद्रा में अपने पुत्रों के विवाह के विषय में विचार कर रहे थे, तभी प्रतिहारी ने आकर गुहार की-
‘महाराज की जय हो, महाराज की जय हो!’
‘कहो, क्या समाचार लाए हो?’[adinserter block="1"]
‘महाराज! कौशिक आश्रम से महातेजस्वी महर्षि विश्वामित्र आए हैं। वे आपके दर्शन के अभिलाषी हैं।’
महाराज दशरथ ने जब यह सुना तो उनके चेहरे पर प्रसन्नता और मस्तक पर चिंता की रेखाएं खिंच आयी। कारण स्पष्ट था, महर्षि विश्वामित्र महातपस्वी और क्रोधी भी थे। प्रसन्न होने पर वे बड़े-से-बड़ा वरदान दे सकते थे लेकिन इच्छा पूर्ण होते न देख वे शाप देने में भी संकोच नहीं करते थे।
महर्षि विश्वामित्र के अकस्मात आने पर मुनि वसिष्ठ को भी आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता हुई।
‘जाओ, उनको सम्मानपूर्वक राजसभा में बुला लाओ।’
आदेश पाते ही द्वारपाल लौट गया और कुछ ही क्षण बाद अपने तेजस्वी ललाट से प्रकाश फैलाते हुए महर्षि विश्वामित्र राजसभा में पधारे।
महर्षि विश्वामित्र के आगमन को जानकर सभा में उपस्थित सभी राजागण और नगर श्रेष्ठ आदि सावधान हो गए। महाराज दशरथ ने स्वयं महर्षि वसिष्ठ और वामदेव के साथ उनकी अगवानी की। ऐसा लग रहा था कि मानो देवराज इन्द्र ब्रह्मा का स्वागत कर रहे थे।
प्रज्ज्वलित तेज से दीप्त कठोर गति महर्षि विश्वामित्र का दर्शन करके सभी राजाओं का मुखमंडल प्रसन्नता से खिल उठा। शास्त्रीय विधि से महर्षि का अर्घ्य निवेदन करते हुए उनका स्वागत-सत्कार किया गया। इसके पश्चात् महाराज दशरथ ने उनको उनके सम्मान योग्य प्रतिष्ठित आसन पर सुशोभित कराया और निवेदन किया-
‘मुनिवर। आप कुशल तो हैं? आश्रम में सभी आश्रमवासी सुखी होंगे। आज आकस्मिक रूप में आपको यहां पाकर यह कौशल प्रदेश अपना सौभाग्य मानते हुए अत्यन्त प्रसन्नता अनुभव कर रहा है। आपने अयोध्या नगरी को अपने दर्शनों से कृतार्थ किया, हम आपके आभारी हैं।’
महर्षि विश्वामित्र ने कहा, ‘हे राजन। हम तो तपस्वी आत्मा हैं। हमारा क्या सुख और क्या दुःख। जीवन के मोह से दूर, ईश्वर-उपासना और परम तत्त्व की खोज ही हमारा ध्येय है। आप कहिए आपका नगर, आपका राज्य-कोष, बंधु-बांधव सब कुशल तो हैं? अब तो आप अपने योग्य और कुशल पुत्रों के पिता हैं, सम्पूर्ण इच्छाओं के पूर्ण होने पर आपके यहां राज्यलक्ष्मी की कृपा बनी हुई है।’
‘आपके राज्य की सीमा के निकटवर्ती राजागण तो आपके सम्मुख नतमस्तक हैं, आपने तो उनको अपने यश से ही जीत लिया है, आपके यहां यज्ञ-यज्ञादि, देवकर्म और अतिथि सत्कार तो विधिपूर्वक होता ही है।’
‘यह सब आपकी कृपादृष्टि और आशीर्वाद का ही फल है महात्मन्!’[adinserter block="1"]
महाराज दशरथ से उनकी कुशल क्षेम पूछने पर महर्षि विश्वामित्र ने वसिष्ठ आदि मुनियों से उनके कुशल समाचार जाने। इसके पश्चात् सभी लोग प्रसन्नतापूर्वक मुनि की उपदेश भरी बातें सुनते रहे और उनकी जिज्ञासा को शान्त करते रहे।
महाराज दशरथ ने कहा, ‘हे मुनि! अब आप कृपया अपने आने का प्रयोजन बताएं क्योंकि आज मुझे ऐसा लग रहा है कि जिस प्रकार किसी मरणधर्मा मनुष्य को अमृत की प्राप्ति हो जाए, सूखे प्रदेश में वर्षा के जल से सिंचन हो जाए, किसी की खोई हुई निधि मिल जाए अथवा किसी संतानहीन को अपनी इच्छा के अनुरूप अपनी पत्नी के गर्भ से पुत्र प्राप्त हो जाए, हे मुनिवर! मुझे आपके आगमन से उसी प्रकार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है और मैं यह सोच नहीं पा रहा हूं कि किस प्रकार आपका स्वागत करूं। आपके आगमन से यह अयोध्या नगरी धन्य हो गई और आज मेरा जन्म सफल हो गया।’ ‘अभी कल ही तो हमारे यहां रंग मंडप में चारों राजकुमारों ने अपनी युद्ध विद्या का कुशल प्रदर्शन किया है। आज सौभाग्य से आप यहां पधार गए हैं। आप सरीखे ब्राह्मण शिरोमणि का प्रातःकाल दर्शन किसी सौभाग्यशाली को ही होता है जो आपके आगमन से मुझे आज प्राप्त हुआ है। अब आप कृपया यह बताएं कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?’
‘आपने आज अपने दर्शन देकर मेरे घर को तीर्थ का रूप दे दिया है। आपने अनेक पुण्य क्षेत्रों की यात्रा की है, आप जहां गए हैं आपके चरणचिह्नों के निशान और उनका प्रभाव आज भी वहां अंकित है। कृपया आदेश करें, मैं आपके आशीर्वाद से और अपनी क्षमता से उसका पालन कर सकूं।’
‘हे उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षि, यदि आपकी कृपा से मैं आपके मनोरथ को जान लूंगा तो निश्चय ही कौशल प्रदेश के अभ्युदय के लिए मैं उसका अक्षरशः पालन करूंगा।’
‘यह तो संदेह की गुंजाइश है ही नहीं कि आप अपने मन में यह विचार करें कि कार्य सिद्ध होगा या नहीं, आप तो केवल आज्ञा दें।’
‘आज तो निश्चय ही मेरे अभ्युदय का समय आ गया है।’
विश्वामित्र ने महर्षि वसिष्ठ की ओर दृष्टि डालते हुए कहा, ‘हे राजन! जिस सभा में ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के समान तपोमूर्ति उपस्थित हों, उसके अभ्युदय में क्या संदेह हो सकता है! मैं तुम्हारे विनय-भाव, हृदय के सच्चे उद्गारों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ हूं। हे राजन! ये बातें आप ही के योग्य हैं, इस पृथ्वी पर आपके समान कोई दूसरा उदार वचन बोलने वाला राजा और कहां है? और आप क्यों न हों जब वसिष्ठ आपके कुल पुरोहित और मार्गदर्शक हैं।’
‘तुमने जिस उदारता से मेरा कार्य सिद्ध करने की प्रतिज्ञा की है, तो हे राजन! रघुकुल की आन को ध्यान में रखते हुए तुम्हें उसे पूरा करना होगा।’[adinserter block="1"]
‘मैं बहुत दिन से एक सिद्धि यज्ञ करने का प्रयास कर रहा हूं मेरा यह यज्ञ इच्छा रूप धारण करने वाले राक्षस बार-बार विघ्न डालकर भंग कर रहे हैं।’
‘मेरे इस यज्ञ का अधिकांश भाग पूरा हो चुका है, अब इसकी समाप्ति के समय मारीच और सुबाहु अपने दल-बल के साथ उसमें विघ्न डालने के लिए कटिबद्ध हैं। उन्होंने मेरी यज्ञवेदी पर रक्त और मांस की वर्षा कर दी है और मुझे लग रहा है कि यदि कोई उचित उपाय नहीं किया गया तो मेरा सारा पुरुषार्थ अकारथ हो जाएगा। अतः हे राजन! इस यज्ञ की सुरक्षा के लिए मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता है।’
‘क्योंकि मैं जानता हूं कि यदि मैंने क्रोध करके उन राक्षसों को शाप दे दिया तो उनका नाश तो हो जाएगा लेकिन मेरा तप भंग हो जाएगा। बड़े कठिन मनोयोग से ही अपने क्रोध को शान्त कर पाया हूं। मेरे सिद्धियज्ञ में किसी को शाप नहीं दिया जाता।’
‘इसलिए हे राजन! आप अपने सत्य, पराक्रमी, शूरवीर और ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को मेरी सेवा में भेज दें। मुझे विश्वास है कि मेरी सुरक्षा में रहते हुए वह अपने तेज से, अपने कौशल और पराक्रम से उन विनाशकारी राक्षसों का नाश कर देंगे और इसके प्रतिदान में मैं इन्हें महादेव शंकर द्वारा प्रदत्त दिव्य पाशुपतास्त्र और अनेक अमोघ शक्तिशाली अस्त्रों का ज्ञान दान करूंगा।’
‘इस श्रेय को पाकर राम तीनों लोकों में अपनी ख्याति फैलाएंगे। मुझे विश्वास है कि राम के पराक्रम के सामने वे राक्षस किसी भी प्रकार से ठहर नहीं पायेंगे।’
‘और यह भी निश्चित है कि श्रीराम के अलावा और कोई वीर उन राक्षसों को मारने का साहस नहीं कर सकता। अपने बल के घमण्ड के कारण ये दोनों पापी राक्षस कालपाश के अधीन हो गए हैं, अतः राम के सामने नहीं टिक पायेंगे।’
‘हे राजन! मैं आपसे प्रतिज्ञा करता हूं कि आपके पुत्रों का कोई अनिष्ट नहीं होगा। राम क्या हैं, कितने तेजस्वी और पराक्रमी हैं, यह तो महामुनि विश्वामित्र भी जानते हैं।’ महाराज दशरथ ने जब महामुनि विश्वामित्र के मुख से राम के मांगे जाने की बात सुनी तो वे हतप्रभ रह गये। एक क्षण को लगा कि वे अचेत हो जाएंगे।[adinserter block="1"]
दशरथ के सामने राम का सलोना मुखड़ा, कोमल गाल, प्रिय लगने वाली छवि घूम गई। इस बाल किशोर को किस प्रकार वे अपने आंखों से दूर कर पाएंगे, यह उनके सामने एक भीषण समस्या बन गयी थी।
महाराज दशरथ को तो स्वप्न में भी उम्मीद नहीं थी कि महामुनि विश्वामित्र प्राणप्रिय पुत्र की मांग करेंगे। विश्वामित्र ने जब महाराज दशरथ को मोहासक्त जाना तो उन्होंने कहा, ‘राजन! अब तो राम बड़े हो गये हैं, आप उनके प्रति इतनी आसक्ति न रखें। आप तो क्षत्रिय हैं और जानते हैं कि क्षत्रिय का दूसरा घर युद्धभूमि होता है और फिर मैं तो केवल कुछ ही समय के लिए इनको ले जा रहा हूं। आप इसमें विलंब न करें क्योंकि यदि विलंब हुआ तो मेरे यज्ञ का समय व्यतीत हो जाएगा।’
यह कहकर महात्मा विश्वामित्र दशरथ के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। महाराज दशरथ तो किंकर्तव्यविमूढ़ से हो गए थे।
विश्वामित्र से अपने लिए सम्बोधन सुनकर राजा ने कहा-
‘महर्षि! मेरा पुत्र राम तो अभी कठिनता से सोलह वर्ष का हुआ है। वह राक्षसों के साथ युद्ध की क्षमता रखता है, मुझे इसमें संदेह है। मैं आपकी सेवा में अपनी अक्षौहिणी सेना को भेजता हूं जिसका पालक और स्वामी मैं हूं और यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं स्वयं चलकर उन निशाचरों का वध करूंगा। आप निष्कंटक रूप से अपना सिद्धियज्ञ पूर्ण कीजिए। मेरे सैनिक और योद्धा राक्षसों के साथ जूझने की योग्यता रखते हैं।’
‘और मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि जब तक शरीर में प्राण रहेंगे तब तक निशाचरों के साथ लड़ता रहूंगा और आपको आश्वस्त करता हूं कि मेरे द्वारा सुरक्षित आपका आश्रम राक्षसों के भय से दूर रहेगा। आप आदेश करें, मैं आपके साथ चलने के लिए प्रस्तुत हूं।’ विश्वामित्र ने महाराज दशरथ के इस वक्तव्य में छिपी राम के प्रति उनकी आसक्ति को जानते हुए मुस्कराकर कहा, ‘राजन! मुझे कोई आपत्ति नहीं कि मैं आपको साथ ले चलूं लेकिन मैं राम को ले चलने का जो संकल्प ले चुका हूं उसके पीछे मूल उद्देश्य तो यही है कि आपके वह राम अयोध्या के राजसिंहासन को सुशोभित करेंगे, उनमें इतनी क्षमता है, आवश्यकता है उसे धार देने की। अभी उन्हें युद्ध-विद्या के साथ व्यवहार-बुद्धि भी सीखनी है। वह बल एवं बुद्धि से सम्पन्न होकर सम्पूर्ण आर्यावर्त में रघुकुल की मान-मर्यादा को उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करायेंगे।’
‘आप यह संदेह न करें कि राम राक्षसों से युद्ध करने योग्य नहीं हैं। राक्षसों की माया और छल-कपट, दोनों की ही काट मैं राम को सिखाऊंगा। मैं उसे युद्ध-कला में निपुण कर दूंगा राजन।’[adinserter block="1"]
विश्वामित्र की यह राम को ले जाने की दृढ़ धारणा को देखकर महाराज दशरथ ने कहा, ‘हे मुनि! इस बुढ़ापे में बड़ी कठिनाई से मुझे पुत्रों की प्राप्ति हुई है और इसमें भी राम मुझे चारों पुत्रों में ज्येष्ठ होने के कारण सबसे अधिक प्रिय हैं।’
‘और फिर ये राक्षस कैसे पराक्रमी हैं, कैसा उनका डीलडौल है, राम उन राक्षसों का सामना कैसे कर पायेंगे, यही मेरे लिए चिंता का विषय है।’
दशरथ की यह चिंता देखकर मुनि ने कहा-
‘हे राजन। आप जानते होंगे, रावण नाम का एक प्रसिद्ध राक्षसराज लंका का अधिपति है, वह महर्षि पुस्त्य का पौत्र और विश्रवा का पुत्र है। कठोर तपस्या करके उसने ब्रह्माजी से यह वरदान प्राप्त कर लिया है कि उसे देव, गन्धर्व, यक्ष या राक्षस कोई नहीं मार सकता। इस वरदान के प्रभाव से वह दुष्टअभिमानी स्वयं को तीनों लोकों का स्वामी मानने लगा है और मृत्यु से मुक्त अपने को अजर-अमर मानता है। वह अपने समक्ष किसी का भी अपमान करने में नहीं हिचकता, उसका स्वयं का भाई विभीषण उसके-राज्य में इस प्रकार वास करता है, जैसे दांतों के मध्य जीभ।’
‘हे राजन! वह महाबली निशाचर स्वयं यज्ञ में विघ्न नहीं डालता बल्कि अपने सहायकों के द्वारा वह यह कार्य कराता है। उसी के बल के घमण्ड में ये मारीच और सुबाहु राक्षस इस स्थान पर अपना आतंक मचाए हुए हैं, जिनको समाप्त करना आवश्यक है, और हे राजन! यह कार्य केवल राम ही कर सकते हैं। अतः आप बिना किसी संशय और संकोच के उन्हें मेरे साथ भेज दें।’
भयग्रस्त हुए महाराज दशरथ ने विनती करते हुए मुनि विश्वामित्र से कहा, ‘हे मुनिवर! जब मैं स्वयं को उस दुरात्मा के सम्मुख असमर्थ जान रहा हूं तो फिर बालक राम की तो बात ही क्या? वह दुष्ट तो युद्धभूमि में बड़े-बड़े बलवानों का भी बल हर लेता है और मेरा पुत्र राम तो युद्ध की कला से भी अभी पूरी तरह परिचित नहीं है। अभी इसकी अवस्था ही क्या है? इसलिए राम को आपके साथ भेजने में मुझे बड़ा भय लग रहा है।’ ‘मारीच और सुबाहु जैसे दैत्य तो युद्ध में यमराज के समान हैं, इसलिए यदि वे ही आपके यज्ञ में विघ्न डालने वाले हैं तो मैं उनका सामना करने के लिए अपने पुत्र को नहीं दूंगा।’
‘आप अपनी प्रतिज्ञा से विमुख हो रहे हैं। राजन, पहले मेरी मांगी हुई वस्तु को देने की प्रतिज्ञा करके यदि तुम उसे तोड़ना चाहते हो तो इसका अर्थ यह हुआ कि तुम रघुवंशियों की परम्परा को तोड़ रहे हो। तुम्हारा यह व्यवहार तो कुल के विनाश का सूचक है। मुझे लगता है, क्षत्रिय होकर भी तुम्हें अब शायद वृद्धावस्था के कारण पुत्र मोह सता रहा है, तो फिर हे राजन! मैं जैसे आया था, वैसे ही लौट रहा हूं तुम अपनी प्रतिज्ञा को मिथ्या करके अपने प्रियजनों के बीच सुख से रहो।’
महर्षि विश्वामित्र के कुपित होते ही सारी पृथ्वी भय से कांप उठी, देवगण चिंतित हो गए। इस प्रकार संसार को त्रस्त जानकर महर्षि वसिष्ठ ने कहा-[adinserter block="1"]
‘महाराज! आप तो इक्ष्वाकु वंश में साक्षात धर्म के समान हैं, आपको धर्म का परित्याग नहीं करना चाहिए।’
‘आपने प्रतिज्ञा की है और वैसे भी अतिथि-सत्कार के अन्तर्गत यह आता है कि अतिथि को निराश नहीं लौटाना चाहिए। आप नहीं जान रहे, आपका यह अस्वीकार आपके कुल की मर्यादा को नष्ट कर देगा।’
‘जो व्यक्ति प्रतिज्ञा करके उसका पालन नहीं करता, उसके यज्ञ-यज्ञादि कर्म का फल समाप्त हो जाता है और पुण्यों का नाश हो जाता है। इससे पहले कि यह स्थिति आए आप हर्ष-पूर्वक श्रीराम को लक्ष्मण सहित महर्षि विश्वामित्र के साथ भेज दीजिए। आप नहीं जानते, कुशिकनंदन विश्वामित्र परम पराक्रमी और महातेजस्वी हैं। राम अस्त्र विद्या जानते हैं या नहीं, लेकिन विश्वामित्र से सुरक्षित राम का राक्षस सामना नहीं कर पायेंगे। राम और स्वयं विश्वामित्र साक्षात् धर्म की मूर्ति हैं, बलवानों में श्रेष्ठ हैं।’ ‘हे राजन! मैं यह सत्य जानता हूं कि अपने अडिग विश्वास, हठधर्मिता और तप-बल के प्रभाव से ही ये ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त हुए हैं। क्षत्रिय के घर में जन्म लेकर भी ये ब्राह्मणत्व प्राप्त किये हैं।’
‘हे महाराज। चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों में नाना प्रकार के जितने भी अस्त्र हैं, ये उन सभी को जाते हैं। प्रायः सभी अस्त्र प्रजापति कृशाश्व के परम पुत्र हैं, जिन्हें प्रजाति ने विश्वामित्र को सौंपा था, जब ये राजा थे। दक्ष की पुत्रियों, जया और संप्रभा के सौ परम प्रकाशमान अस्त्र और शस्त्र पुत्र रूप में महर्षि की सेवा में उपस्थित हैं। शायद ही कोई ऐसा अस्त्र है जिसका ज्ञान महर्षि विश्वामित्र को न हो। इसलिए हे बुद्धिमान राजन! आप श्रीराम को महर्षि विश्वामित्र के साथ भेजने में किंचित भी संकोच न करें।’
‘महर्षि वैसे स्वयं भी उन राक्षसों का संहार करने में समर्थ हैं, किन्तु ये तो आपके पुत्र का कल्याण चाहते हैं और अयोध्या को अखण्ड आर्यावर्त का विकसित केन्द्र बनाने की कल्पना संजोए हुए आपसे पुत्र की याचना कर रहे हैं।’
महाराज दशरथ ने जब मुनि वसिष्ठ के मुख से यह सुना तो वे प्रसन्न हो गए और विचार करने के बाद अब उन्हें महर्षि के साथ राम का जाना उचित लगने लगा।
अब तो स्वयं महाराज दशरथ ने प्रतिहारी को आज्ञा देते हुए कहा, ‘जाओ राम और लक्ष्मण को राजसभा में बुला लाओ।’
आज्ञा पाते ही राम और लक्ष्मण पिता की सेवा में उपस्थित हो गए।
महाराज दशरथ ने पुत्र का मस्तक चूमकर मन से उनकी कुशलता का आशीर्वाद देते हुए महर्षि विश्वामित्र के हाथों में उनका हाथ सौंप दिया और कहा-
‘हे ऋषि आपकी कृपा सदा अयोध्या पर इसी प्रकार बनी रहे। ये दोनों अपने प्राणांश मैं आपकी सेवा में भेंट कर रहा हूं।’
विश्वामित्र ने इस प्रकार महाराज दशरथ के दुर्बल मन को विजयी होते देखकर प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा, ‘हे राजन! मैं सदा ही इन राजकुमारों को सुरक्षित रखूंगा और शीघ्र ही योग्य प्रशासक बनाकर आपकी सेवा में प्रस्तुत करूंगा।’
लक्ष्मण तो राम की परछाई के समान थे, इसलिए राम के साथ लक्ष्मण का जाना भी तय था।[adinserter block="1"]
राज्यसभा में पिता के माथे पर राम ने कुछ चिंता की रेखाएं अवश्य पढ़ ली थीं किन्तु यह भी तत्काल ही जान लिया था कि एक पिता और राजा में राजा का धर्म सर्वोपरि है, पिता के संशय के ऊपर राज-धर्म ने विजय पा ली है, यह उनके लिए अत्यन्त प्रसन्नता की बात थी।
मां कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा आदि से विधिवत विदा लेकर महर्षि वसिष्ठ आदि कुलश्रेष्ठ ब्राह्मणों और ऋषियों का आशीर्वाद प्राप्त करते हुए तात पक्षधारी राम अनुज लक्ष्मण के साथ महर्षि विश्वामित्र के पीछे-पीछे उनके आश्रम की ओर चल दिए।
दोनों भाइयों ने अपनी पीठ पर तरकश बांध रखा था, धनुष उनके हाथों की शोभा को बढ़ा रहा था। वे दोनों भाई विश्वामित्र के पीछे तीन-तीन फन वाले सर्पों के समान चल रहे थे। एक ओर कंधे पर धनुष, दूसरी ओर तरकश और बीच में मस्तक।
सीता से विवाह
जिस प्रकार ब्रह्मा के पीछे दोनों अश्विनी कुमार चलते हैं, उसी प्रकार दोनों भाई राम और लक्ष्मण मुनि का अनुसरण करते हुए चले जा रहे थे।
अयोध्या से डेढ़ योजन दूर जाकर महर्षि ने कहा, ‘प्रियवर राम। अब सरयू के जल से आचमन करो। बला और अतिबला नाम से इस प्रसिद्ध मंत्र को ग्रहण करो। इसके प्रभाव से तुम्हें कभी थकावट का अनुभव नहीं होगा, ज्वर नहीं होगा, तुम्हारे रूप में कोई विकार नहीं आएगा।’
‘सोते समय अथवा असावधानी में भी राक्षस तुम पर आक्रमण नहीं कर सकेंगे, इस पृथ्वी पर बाहुबल में तुम्हारा कोई सामना नहीं कर पायेगा।’
यह आदेश पाकर राम ने आचमन किया। वे पवित्र हो गए और उनका मुख प्रसन्नता से खिल उठा और उन्होंने शुद्ध अन्तःकरण से महर्षि से यह दोनों विद्या ग्रहण कीं। यह विद्या का कमाल था या महर्षि का आशीर्वाद, विद्या से सम्पन्न होकर महापराक्रमी राम सहस्रों किरणों से युक्त, शरद काल के चंद्र के समान शोभायमान हो गए। इस रात्रि को वे सरयू के तट पर ही विश्राम करने के लिए ठहर गए।
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