आमुख
‘मैं बनूँगा गुलमोहर’ पहले प्यार की तरह है। यह मेरी पहली किताब थी। इसके प्रति मेरे हृदय में रागात्मकता का एक भिन्न ही आयाम है।
‘गुलमोहर’ को मेरे पाठकों ने जैसा दुलार दिया था, जैसे उसकी आवभगत की थी, उसके रोमांच को आज भी अनुभव करता हूँ। गए साल अक्टूबर में पुस्तक के प्रकाशन की सूचना देते मित्रों ने फ़ौरन से पेशतर पुस्तक बुक करने की सूचनाएँ चस्पा करना शुरू कर दिया था। तीसरे या चौथे दिन से जब पुस्तकें उन तक पहुँचना शुरू हुईं तो उन्होंने उसकी आमद की इत्तेला भी उतने ही जोशो-ख़रोश और जांफ़िशानी के साथ दीं। वैसी चीज़ें आपको इतराने का सबब देती हैं। जो मित्र संकोची हैं, उन्होंने निजी स्पेस में पुस्तक के प्रति अपनी भावनाओं को साझा किया, पुस्तक के साथ अपनी गर्वीली और उत्सुक सेल्फ़ियाँ तक भेजीं।
मैं कहना चाहूँगा ‘गुलमोहर’ के प्रकाशन और उसको मिले प्रतिसाद ने मेरे भीतर गुणात्मक परिवर्तन किया। दूसरे किनारे से आती हुई लहरों का वैसा उद्दाम आवेग पहले मैंने अनुभव नहीं किया था। इसने मुझे दूसरी दिशाओं के प्रति भी सचेत किया। मेरे लिए यह अचरज में डालने वाला था कि एकान्त और पीड़ा में लिखी गई तक़रीरें इतने लोगों तक पहुँच सकती हैं, लौटकर आपके पास आ सकती हैं। आपका एकान्त इससे भंग नहीं होता, किन्तु यह अवश्य पता चलता है कि यह किसी अकेले का एकान्त नहीं है, नियतियों की साझेदारी है!
मैंने हमेशा सोचा था कि मेरी कभी कोई किताब छपी तो वो गद्य की होगी। ये कभी नहीं सोचा था कि वो कविताओं की होगी, और वह भी प्रेम कविताओं की! कवि मैंने कभी ख़ुद को माना नहीं, जिन मेयार पर हम पाब्लो नेरूदा को पोएट कहते हैं, वैसे! उसमें भी इश्क़ की पोयट्री की क्या बात करें। जिन चीज़ों में शिद्दत होती है, उनके तलघर उथले रह जाते हैं। आप वर्टिकल और हॉरिज़ॉन्टल आयामों में एक साथ नहीं व्याप सकते। प्यार की कविता लफ़्फ़ाज़ी और नाटकीय आवेग के बिना सम्भव नहीं हो सकती, और लफ़्फ़ाज़ी आपकी परिष्कृत और दत्तचित्त रुचि को अगर क्षतिग्रस्त करती है, तो वह भी सही। अवाम को तो उसमें लुत्फ़ है, और राइटर बहुधा परफ़ॉर्मर भी होता है।
आप अपने लिए चाहे जो भूमिका चाहें, ज़िंदगी आपके लिए कुछ और ही तय करके रखती है और स्टेज पर जब रोशनी का बित्ता आप पर गिरता है तो उस किरदार को आपने मुस्तैद होकर जीना होता है। इसलिए भी क्योंकि आपने इससे कमतर रोल भी दिल मारकर किए हैं, फिर ये तो आपके ही लहू के लफ़्ज़ ठहरे!
बहुत प्यार मिला, सब सिर आँखों पर! प्यार की चाह लेकिन बेपनाह होती है, क्योंकि ज़िंदगी के कानों में हमें अपनी एक कहानी कहना होती है, वो जितनी दिलचस्प और ख़ुदमुख़्तार हो, उतना मज़ा है। इस किताब पर कान लगाकर सुनेंगे तो आपको एक ज़िंदा आवाज़ धड़कती हुई सुनाई देगी, ये वस्ल और हिज्र का एक जलसाघर है, इससे ज़्यादा क्या कहूँ?
‘मैं बनूँगा गुलमोहर’ का दूसरा संस्करण आ रहा है, मेरे लिए निजी रूप से संतोष का विषय है। हिन्दी में किसी कविता-संकलन का दूसरा संस्करण आना, उसमें भी वो जिसका एक बार री-प्रिंट निकाला जा चुका है, हर्ष का विषय ही होता है। ‘गुलमोहर’ पाठकों की अज़ीज़ किताब है, इसके दूसरे संस्करण के लिए मैं इन पाठकों तक अपना शुक्रिया और ऐहतराम के साथ पहुँचाना चाहता हूँ।
इस संस्करण में रचनाओं का क्रम बदला गया है, कुछ नई कृतियाँ भी जोड़ी गई हैं, प्रस्तावनाएँ और भूमिकाएँ सम्मिलित की गई हैं। इन अर्थों में आप इसे केवल दूसरा संस्करण ही नहीं, एक परिवर्धित संस्करण भी मान सकते हैं। इसे एक बार फिर आपको ही सौंपता हूँ!
सुशोभित
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शोभित कर नवनीत लिए
कहते हैं कोई भी नया कवि पुरखे कवियों की कोख से जन्म लेता है। वह कवि परम्परा का वाहक, संवर्धक, रूढ़ियों का भंजक और नई परम्पराओं का प्रस्तावक होता है। अनेक युवा कवियों की कविताओं से गुजरना हुआ है, उनकी अलभ्य कवि-कल्पनाओं के प्रांगण में शब्दों पदों को किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत के आह्लादक क्षणों में पग धरते देखा है और अक्सर चकित होकर अपार काव्यसंसार में कवि-प्रजापति की निर्मितियों को निहारने, गुनने और सुनने का अवसर मिला है। पर कुछ दिनों के बाद कोई न कोई कवि फिर ऐसा आता है कि वह साधारण से लगते मार्ग का अनुसरण न कर कविता को भी अपनी चिति में ऐसे धारण करता है जैसे वह उसकी अर्थसंकुल संवेदना को धारण करने का कोई अनन्य माध्यम हो। हाल ही में सुशोभित की ‘मैं बनूँगा गुलमोहर’ संग्रह में प्रकाशित कविताओं से गुज़रना हुआ, जो प्रेम और शृंगार के धूप-दीप-नैवेद्य से सुगंधित लगीं। उन कविताओं की गहन एकांतिक अनुभूतियों के बरक्स ‘मलयगिरि का प्रेत’ की कविताएँ सुशोभित के अत्यन्त गुम्फित और प्रस्फुटित कवि-चित्त की गवाही देती हैं। अक्सर उनकी कविताओं को देख-पढ़ कर हममें एक विस्फारित किस्म की मुद्रा जागती है और हम कल्पनाओं के विरचित प्रांतर में अभिभूत हो उठते हैं।
सुशोभित एक साथ कोमल व बीहड़ गद्यांश दोनों के कवि हैं। प्रेम कविताएँ लिखने की पूरी उम्र है उनकी। ऐसी कविताओं के साथ न्याय भी किया है। वे एक साथ ऐंद्रिय और अतीन्द्रिय भाव बोध के साधक हैं। उनकी विज्ञता की छाया भी कविताओं पर कम नहीं पड़ती सो तार्किकता और काल्पनिकता की एक अप्रत्याशित उड़ान उनके यहाँ मिलती है। पर जिन दो छोटी कविताओं को पढ़ते हुए मुझे एक विरल कविताई का आभास हुआ, वे- ‘किताब में गुलाब’ और ‘जैसे मैं, जैसे तुम’ हैं। हम केदारनाथ सिंह की कविता ‘हाथ’ पढ़ चुके हैं। कोमल नाज़ुक-सी कल्पना की छुवन से विरचित वह कविता एक अनूठे भावबोध और संवेदना के रसायन में हमें भिगो देती है और हम काश! की कशिश से भर उठते हैं। बहुतेरी व्याख्याएँ उस कविता की हुई हैं, उनकी तमाम अर्थवान कविताओं से भी ज्यादा लोकप्रिय हो उठी वह कविता आज भी हमारी रागात्मकता का पर्याय है।
अब सुशोभित की दो कविताएँ देखें -
हाथ
गुलाब भी हो सकते हैं
हथेलियाँ
किताब भी हो सकती हैं।
तुम मेरे हाथों को
अपनी हथेलियों में
छुपा लो!
...
केवल खिड़कियाँ हैं:
जैसे आँखें
जैसे धूप।
केवल परदे हैं:
जैसे चेहरे,
जैसे हवा।
केवल दीवारें हैं
जैसे मैं,
जैसे तुम।
सच कहें तो अच्छी कविताओं को व्याख्या की कोई दरकार नहीं होती। ये कविताएँ उसी कोटि की हैं। सुशोभित की सारी कविताएँ इतनी ऋजु नहीं हैं। वे सम्यक अर्थ की निष्पत्ति के लिए पाठक को अपने उद्यम के लिए उत्प्रेरित भी करती हैं। ‘मैं बनूँगा गुलमोहर’ की प्रेम कविताएँ और गद्य गीत सचमुच एक नए रूप की प्रस्तावन हैं। ये पारम्परिक गद्य या कविताओं में अभी तक बरते गए चिंतनशील गद्य के प्रारूप से तनिक अलग हैं। ये कथानक में हैं, संवाद-प्रतिसंवाद में हैं तथा वक्तव्यों और आत्मकथन और स्वगत रूप में भी।
सुशोभित की यही ख़ूबी है कि उनकी कविताएँ न तो परंपरानुधावक हैं, न वैसा होने की कोई ख़्वाहिश रखती हैं।
ओम निश्चल
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अनुक्रम
और मैंने भी तो
प्रेम पत्र
रंगरसिया
मैं बनूँगा गुलमोहर
ये महकती हुई ग़ज़ल मख़्दूम
तुम्हारी प्रतीक्षा के समुद्र तट पर
नौका को नदी में उतारो तो
अपनी नदी से कहो बदले करवट
तुम तो शहद का छत्ता हो
मुझे तुम्हारी नींद से बहोत रश्क़ है
फ़ारूख़ शेख़ जैसा लड़का हो, दीप्ति नवल-सी लड़की
लड़की लड़के को ‘कोलंबस’ कहती थी
वह दी प ती है
बारिश का लिहाफ़ भी नाकाफ़ी था
प्रणय पुरुष का एकालाप है!
स्वांग है उसका धनुष!
तुम मुझे मेरा नाम लेकर पुकारो
चिड़ियों के लिए पानी
बैठना है तुम्हारे पास उसी मेट्रो में जिससे लौटती हो घर
लालबत्ती से एक ‘ब्लश वाली स्माइल’
सफ़ेद मोती
हर लिबास में
लव इन मेट्रो
घर में अकेली लड़की
जहाँ रहती थीं तुम
जनवरी के दूसरे छोर पर
आपका कोई नहीं कोई नहीं दिल के सिवा
अच्छा लिसन, मैं अपना क्लचर लैंसडौन में भूल आई हूँ!
आकांक्षा में कां पर लगी बिंदिया
रूठी हुई लड़की अपनी ऐनक के पीछे रहती है
‘लड़की’ : एक सुबह
एक लड़की चल रही है
किताब में गुलाब
जैसे मैं, जैसे तुम
ओस के आईने में अलक्षित
एक असंभव प्रेम के दौरान संगीत
घाव रूह के फूल हैं
एक फूल था
तुम्हारी एक आखिरी छुअन का स्वेटर
वो दिन ही पहला था
ये तक़रीर जो तुम्हारी नज़रों से वाबस्ता है
एग्नेस तीन स्केच
तेरेज़ा की ‘स्टॉकिंग्स’
मिर्ज़ा-साहिबा : तीन वाक़िये
धत्त! मरे भूत से प्यार करेगी तू!
जो एक बारिश की बेवक़्ती है
डूबते हैं स्पर्श के पत्थर
तुम्हारी आँखों की सुरंग में बंद होता समुद्र
प्रेम के संताप से प्रेम
दुनिया तुम्हारी अनुपस्थितियों से भरी हुई है
चाहना का गीत
दो नावों के दो किनारे
चेष्टा के चंद्रमा से निस्तेज
प्यार में दुबलाई लड़की
हमारे बीच बारिशों का परदा है
तुम्हारे ‘ऑनलाइन’ होने का सितारा
मैं अलविदा ना कहूँगा तुम्हें तुम चाहो तो चली जाना
मन के मानचित्र पर कहाँ होती है कोई विषुवत रेखा
मैं टहलूँगा तुम्हारे भीतर कोहरे की तरह
गोत्रनाम तो भूल गया, किन्तु नाम था गायत्री
तुम अपने बालों को हमेशा यों ही निर्बन्ध रखना
क्लचर वाली लड़की
वह लड़की : जिसने कहा था मुस्कराकर दिखाओ ना!
समय ही प्रतीक्षा है
दिन, महीने, साल!
मछलियों की गंध से भरे उस जज़ीरे पर
यह ज़िंदगी के उन चंद छोटे अंदेशों में से एक है
नमक की मीनारें समुद्र को पुकारती हैं
और मैंने भी तो
नेत्रहीन होमर[adinserter block="1"]
एक महाख्यान की खोज में
दूर-दिगन्त तक नज़रें दौड़ाता था
जबकि वो ख़ुद देख नहीं सकता था।
बहरा बीथोवन
दुनिया के सबसे सुंदर स्वरों को चुनकर
आठवीं सिम्फ़नी रच रहा था
जबकि वो ख़ुद कुछ सुन नहीं सकता था।
काफ़्का तपेदिक का मरीज़ था
और उसके नसीब में
महज़ छोटी-छोटी साँसें ही बदी थीं
इसके बावजूद उसके उपन्यास
दम फुला देने वाले लम्बे-लम्बे वाक्यों से भरे हैं।
और, मैंने भी तो लिख डाले हैं
प्यार के इतने अनगिन तराने।
प्रेम पत्र
इसलिए नहीं
कि तुम लिखती थीं कविताएँ।
ना इसलिए कि तुम्हारी आँखों में था
सजल सम्मोहन और आवाज़ में
प्रतीक्षा का ताप।
या इसलिए कि अपने दुपट्टे में
सम्हालती थीं तुम फ़ीरोज़ी लहरें
और यूँ चुराती थीं बदन
मानो मन पर भी
पहना हो कपास।
और ना इसलिए कि
कांस की सुबहें
और सरपत की साँझें
तुम्हारे पूरब-पच्छिम थे।
जल में तुम्हारे प्रतिबिम्ब-सी थी
वह पुलक, जो हमेशा तुम्हारे साथ
चली आती थी, चकित करती मुझे।
जब गूंथती थीं चोटी तो
हुलसते थे चंद्रमा के फूल,
जिन्हें बड़ी बेतक़ल्लुफ़ी से
पुकारती थीं तुम रजनीगंधा।
और कांच की चिलक जैसी
मुस्कराहट तुम्हारी लांघ जाती थी देहरियाँ
जबकि अहाते में ऊँघता रहता था
दुपहरी का पत्थर
लेकिन इन सबके लिये
भी नहीं।
ना, इसलिए नहीं कि
इतनी दूर से इतनी देर तलक
सोचा था मैंने तुम्हें कि मेरी सोच में
जैसे एक डौल बन गया था तुम्हारा,
एक आदमक़द तसव्वुर,
जिसकी एक तस्वीर बन गई थीं तुम
अंतत: जब कई दिनों का धान पका
ना, इसलिए भी नहीं।
इसलिए तक नहीं कि
इतनी कोमलता से पुकारा था तुमने
मेरा नाम कि मैं रूई का फ़ाहा बन गया था
भींजा हुआ और बारिश मेरी छत थी
इसलिए तक नहीं।
बल्कि इसलिए कि
कोई ‘इसलिए’ नहीं था
दिसंबर के शब्दकोश में
उस दिन, जब मिले थे हम
केवल गाछपकी प्रतीक्षा थी
धूप धुले वर्षों के
शहद से भरी।
कि जो मैं न होता तुम्हारे बरअक़्स
और तुम मेरे तो ढह जातीं नमक की मीनारें