महासती सीता
लक्ष्मण के लिए यह रात कालरात्रि के समान बीती और यह जो सवेरा हुआ, इसकी प्रत्येक किरण उसे चुभ रही थी। उन्हें फिर भयानक परीक्षा की घड़ी से गुजरना था।
राम का आदेश था—, ‘‘लक्ष्मण! कल सवेरे तुम सारथी द्वारा संचालित रथ पर सीता को ले जाकर इस राज्य की सीमा से बाहर छोड़ आओ। गंगा के उस पार तमसा नदी के किनारे महात्मा वाल्मीकि का आश्रम है। जाओ, मेरी आज्ञा का पालन हो।’’
‘‘लेकिन—।’’
‘‘कोई प्रश्न नहीं, कोई परामर्श नहीं। जो व्यक्ति मेरे इस कथन के बीच कूदकर अनुनय-विनय करेगा और मेरे निर्णय को बदलने के लिए मुझ पर दबाव डालेगा, वह मेरा शत्रु होगा।।
‘‘तुम लोग मेरा सम्मान करते हो और मेरी आज्ञा में रहना चाहते हो तो सीता को यहां से ले जाओ।
सीता की इच्छा भी थी कि वह गंगातट पर ऋषि का आश्रम देख ले।[adinserter block="1"]
‘‘अब जाओ लक्ष्मण।”
लक्ष्मण ने साफ देखा कि राम की आंखों से आंसू छलक आए थे, लेकिन निर्णय की दृढ़ता में कोई शिथिलता नहीं आने पाई। पास में खड़े भरत और शत्रुघ्न मौन थे।
क्या नियति है! जब जिसने चाहा, आदेश दिया‒पिता ने भरी युवावस्था में वन का आदेश दिया, भाभी सीता ने स्वर्ण मृग के पीछे राम की आवाज सुनकर मुझे राम की सेवा में जाने का आदेश दिया तथा रावण के छल का शिकार हुईं और आज स्वयं श्रीराम मुझे ही सीता को वन में छोड़ आने का आदेश दे रहे हैं। इच्छा के प्रतिकूल आदेश की बाध्यता बार-बार मेरी ही परीक्षा ले रही है और मैं भी भ्रातृ आदेश मानने के लिए बाध्य हूं।
लक्ष्मण बहुत देर तक अपने महल की ऊंचाइयों को देखते हुए सोच रहे थे। अगर आज यह सूर्य न उदित होता तो आदेश पालन की घड़ी कुछ और टल जाती, लेकिन आदेश का तो पालन करना ही है। इसमें देरी क्या है? लेकिन संकट तो यह है कि वे सीता से कहेंगे क्या? और कैसे जुटा पाएंगे साहस कहने का?
क्या वे कह पाएंगे कि रावण ने बलपूर्वक उन्हें अपनी गोद में उठाकर अपहरण किया था? और फिर वह उन्हें अपनी लंका में भी ले गया तथा वहां अन्तःपुर के क्रीड़ा कानन अशोक वाटिका में रखा। इस तरह राक्षसों के वश में रही सीता अयोध्या की प्रजा के लिए अपवित्र हो गई हैं और सीता के बारे में फैला यह अपवाद सुनकर ही राम ने उन्हें त्याग दिया।
कितनी कठिन परीक्षा की घड़ी है यह!
आदेश का पालन करना था। अतः प्रातःकाल होते ही लक्ष्मण ने मन दुखी होते हुए भी सारथी से कहा‒
“सारथी! एक सुन्दर रथ में शीघ्र गमन करने वाले घोड़े जोतकर उसमें सीताजी के लिए सुन्दर आसन बिछाओ। मैं महाराज की आज्ञा से सीताजी को तपस्वियों के आश्रम पर पहुंचा दूंगा। शीघ्र रथ लेकर आओ।”
और सारथी जो आज्ञा कहते हुए आदेशानुसार रथ ले आया और बोला, “रथ तैयार है श्रीमान!”
रथ को तैयार कराकर लक्ष्मण संकोच और दुःख अनुभव करते हुए देवी सीता के महल में पधारे।
“आज प्रातःकाल भाभी की याद कैसे आ गई देवर जी?”
“आपकी इच्छा थी कि आप मुनियों के आश्रम में जाना चाहती हैं। अतः महाराज श्रीराम का आदेश है कि गंगातट पार करके ऋषियों के सुन्दर आश्रम हैं, आज उसी दिशा में भ्रमण करना है।”
“तुम्हारे महाराज भी बड़े विचित्र हैं, मैं इतने दिन से कह रही थी तो राजकार्य में व्यस्तता के कारण कभी मेरी बात नहीं सुनी और आज अचानक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिर भी मुझे प्रसन्नता है, उन्हें मेरा ध्यान तो रहा।”
लक्ष्मण के इस प्रस्ताव पर सीता हर्षित होकर चलने के लिए शीघ्र तैयार हो गईं।[adinserter block="1"]
सीता ने अपने साथ बहुमूल्य वस्त्र और नाना प्रकार के रत्न लिये तथा यात्रा के लिए उद्धृत होकर बोलीं, “ये सब सामग्री मैं मुनि-पत्नियों को दूंगी।”
“जैसी आपकी इच्छा कहते हुए लक्ष्मण ने सीता को रथ पर चढ़ाया और सारथी से रथ बढ़ाने के लिए कहा।
लक्ष्मण के मन में यह कसक थी कि एक सरल स्वभाव की स्त्री को वे छल से निष्कासित करने में सहयोगी हो रहे हैं लेकिन राजाज्ञा के सामने वे लाचार हैं।
ज्योंही रथ आगे बढ़ा, सीता की दाईं आंख फड़कने लगी। उन्हें लगा कि कहीं अनिष्ट तो नहीं हुआ या होने की आशंका तो नहीं है? यह सोचकर उन्होंने लक्ष्मण को कहा, “देवर जी! आज मुझे शकुन कुछ सही नहीं दिखाई दे रहे। मेरा मन ठीक नहीं है। पता नहीं क्यों आज यह अधीर हो रहा है? प्रभु करे, आपके भाई कुशल से रहें। तीनों राजमाताएं और जनपद के सभी प्राणी कुशल रहें, सबका कल्याण हो।” फिर लक्ष्मण को सम्बोधित करते हुए सीता ने कहा‒
“तुम कुछ बोल नहीं रहे लक्ष्मण!”
“मैं आपकी बात सुन रहा हूं भाभी! और अनुभव कर रहा हूं आपकी अधीरता। आप वन में तो जा ही रही हैं, मुनियों के सत्संग में आपके मन को शान्ति मिलेगी। भागीरथी के तट पर स्नान करके आप सुख अनुभव करेंगी।”
“कितना अच्छा होता, जो तुम्हारे भैया श्रीराम भी साथ होते!”
लक्ष्मण मौन होकर सीता के मन में उठने वाली शंकाएं महसूस कर रहे थे और डर भी रहा थे कि लक्ष्य सामने आने पर वे अपनी बात कैसे कह पाएंगे? भाभी ने तो अनिष्ट अनुभव करके कह लिया, लेकिन वे तो रात से इस अनिष्ट के चक्रवाती दबाव में घूम रहे हैं। वे अपनी पीड़ा किससे कहें? अवज्ञा भी नहीं कर सकते।
और तभी कुछ देर में उन्होंने देखा, सामने गोमती नदी का तट दिखाई दे रहा था।
“देखिए भाभी! हमारी यात्रा का पहला पड़ाव कितनी जल्दी आ गया! आइए, इस भूमि का स्पर्श करें। इस नदी के जल से पैर धोएं। मन और आत्मा दोनों शीतल हो जाएंगे।”
लक्ष्मण के साथ सीता भी रथ से उतर आईं।
वनवास काल के बाद पहली बार सीता ने इतना खुला आकाश और विस्तृत हरियाली देखी थी। गोमती के किनारे बसा था एक छोटा-सा गांव। यहीं ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों के कई आश्रम थे। संध्या हो चुकी थी, सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहे था।
नदी तट पर आकर सूर्य की परछाईं झिलमिलाती पानी में देख सीता को लगा मानो सूर्यदेव उन्हें नमस्कार कर रहे हैं और कह रहे हैं, ‘देवी! आज की रात्रि यहीं विश्राम करो, प्रातःकाल फिर आपके दर्शन करूंगा।’[adinserter block="1"]
वह रात्रि लक्ष्मण और सीता ने सारथी के साथ गोमती के तट पर ही एक रमणीक आश्रम में व्यतीत की।
प्रातःकाल होते ही जैसे ही पक्षियों का कलरव शुरू हुआ और यह आभास हुआ कि पौ फटने वाली है, लक्ष्मण ने सारथी को आदेश दिया, “सारथी शीघ्र रथ तैयार करो, हमें सायंकाल तक भागीरथी के तट पर पहुंच जाना है।”
सारथी को तो आदेश की प्रतीक्षा थी, उसका रथ तैयार था। आदेश पाते ही वह रथ लेकर तैयार हो गया और अब ये लोग तेजी से गंगातट की ओर बढ़ गए।
रथ इतनी तेजी से चला कि वे दोपहर तक ही भागीरथी के किनारे पहुंच गए। जल की धारा देखकर लक्ष्मण की आंखों में आंसू आ गए और वे ऊंचे स्वर से फूट-फूटकर रोने लगे।
“अरे यह क्या? लक्ष्मण! तुम रो रहे हो, मां भागीरथी के तट पर आकर तुम्हारी आंख में आंसू। क्या कारण है? इतने आतुर क्यों हो गए? कितने दिन से मेरी अभिलाषा थी कि मैं मां भागीरथी के दर्शन करूं। आज मेरी अभिलाषा पूर्ण हुई है और तुम रो रहे हो। तुम इस समय जबकि मैं प्रसन्न हो रही हूं, रोकर मुझे दुखी क्यों करते हो?”
फिर लक्ष्मण को छेड़ते हुए देवी सीता ने कहा, “क्या तुम्हारे प्राणप्रिय भाई तुम्हें इतना याद आ रहे हैं कि दो दिन की बिछुड़न भी सहन नहीं कर पा रहे हो? इतने शोकाकुल क्यों हो? तुम तो सदा ही राम के साथ रहते हो।
हे लक्ष्मण! राम तो मुझे भी प्राणों से बढ़कर प्रिय हैं, परन्तु मैं तो इस प्रकार शोक नहीं कर रही। तुम ऐसे नादान न बनो। चलो, शीघ्रता करो। मुझे गंगा के पार ले चलो। मैं उन्हें वस्त्र और आभूषण दूंगी। उसके बाद उन महर्षियों का यथायोग्य अभिवादन करके एक रात ठहरकर हम लोग अयोध्या लौट जाएंगे।
मेरा मन भी राम से अधिक दूर रहने पर विचलित हो जाता है। इसलिए हे सत्यवीर! शोक छोड़ो और मल्लाहों से कहो, वे नाव तैयार करें।”
सीता की सहजता देखकर लक्ष्मण फिर हूक उठे, लेकिन तुरन्त ही अपने आपको संयत करते हुए रथ से उतरे और अपनी दोनों आंखें पोंछ लीं।
लक्ष्मण ने नाविकों को बुलाया और उन्हें सीताजी के साथ भागीरथी पार कराने के लिए कहा।
मल्लाहों ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “प्रभु! आपके आदेश पर नाव तैयार है।”[adinserter block="1"]
अब लक्ष्मण आगे बढ़ते हुए सीताजी के साथ नाव पर बैठ गए। नाविकों ने बड़ी सावधानी के साथ उन्हें गंगा के उस पार पहुंचाया।
भागीरथी के उस तट पर पहुंचकर अब लक्ष्मण का साहस टूटने लगा और वह घड़ी आ गई, जिसका उन्हें डर था।
वह रात्रि लक्ष्मण ने दुविधा और अन्तर्द्वन्द्व में व्यतीत की।
प्रातःकाल जब भागीरथी के तट पर बने मुनियों के आश्रम में जाने के लिए सीता उद्यत हुईं तो लक्ष्मण की दशा देखकर वे चिंतित हो उठीं।
“कहो प्रिय लक्ष्मण! क्या बात है? एक ही रात्रि में तुम्हारा मुख इतना फीका कैसे हो गया? क्या संकट है? क्या दुविधा है? किस द्वन्द्व में फंसे हो? देखो जो कुछ भी कहना हो, मुझसे स्पष्ट कहो। क्या कोई अनिष्ट हो गया है? क्योंकि मैंने अनुभव किया है कि चलते समय भी तुम बहुत उदास थे। तुम अपने मन में कोई गुप्त रहस्य पाले हुए हो।
“मेरा हृदय बड़ा विशाल है लक्ष्मण! और मैं हर कटु बात सहने की आदी हो गई हूं। रावण के घर में जितने दिन रही हूं, उससे बड़ा यातनामय जीवन का कोई भाग नहीं हो सकता। इसलिए मुझसे कोई रहस्य मत छुपाओ। कह देने से पीड़ा हल्की हो जाती है।”
“लेकिन भाभी! कह देने का साहस जुटाना तो सरल नहीं होता। यह ठीक है कि यात्रा में मेरा मन अत्यन्त चिंतित रहा। एक अनागत संकट मेरे सामने है और एक आदेश भी।”
“तुम पहले की बात करो। अवश्य ही वह श्रीराम का आदेश होगा और श्रीराम कोई गलत आदेश नहीं करते।”
“यही तो कष्ट है भाभी! जो आदेश मुझे दिया गया है, वह मुझे पूरा भी करना है और मेरे द्वारा पूरा होगा, यह यंत्रणा भी मुझे ही झेलनी है।”
“तो फिर इस यंत्रणा को दुविधा में क्यों झेल रहे हो? और इतना लंबा क्यों कर रहे हो? साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि बात क्या है।”
“मैं तो तुमसे कल दोपहर से ही पूछ रही हूं, क्या संकट है? लेकिन तुमने मुझे बताया ही नहीं।”
“तब से अब तक साहस जुटा रहा था।”
“तुम बोलो लक्ष्मण! मेरा आदेश है, उसका पालन करो।”[adinserter block="1"]
“भाभी! नगर और जनपद में आपके विषय में रावण के यहां बलात् रहने को लेकर अत्यन्त भयानक अपवाद फैला हुआ है, जिसे राजसभा में सुनकर भैया राम का हृदय दुखी हो उठा। वे मुझे आदेश देकर चले गए। जिन अपवाद वचनों को न सह सकने के कारण उन्होंने मुझसे छुपा लिया, वह तो मैं नहीं बता सकता और जो कुछ मुझसे कहा, वह यही है कि भले ही आप अग्नि-परीक्षा में निर्दोष सिद्ध हो चुकी हैं तो भी अयोध्या का जनसमूह इसे सत्य नहीं मान रहा। इसी लोकोपवाद से महाराज ने आपको त्याग दिया है।”
“क्या! तुम क्या कह रहे हो लक्ष्मण? महाराज ने त्याग दिया है और तुम मुझे यहां बता रहे हो?”
“हां भाभी! यह महाराज की ही आज्ञा थी। उन्हीं के आदेशानुसार आपको रथ पर चढ़ाकर मैं यहां आश्रमों के पास छोड़ने के लिए आया हूं।”
क्षण भर के लिए सीता ने अपनी आंखें मूंद लीं। वह एक वृक्ष के सहारे बैठ गई। हाथ कांप रहे थे, हृदय की धड़कन तेज हो रही थी, माथे पर पसीना छलक आया था और आंखों के सामने अंधेरा छा गया।
“आप विषाद न करें भाभी! यहां से तमसा का किनारा पास ही है। वहीं महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है और अन्य अनेक तपस्वी ऋषि-मुनि वहां वास करते हैं। आप महात्मा वाल्मीकि के चरणों की छाया का आश्रय लेकर वहां सुखपूर्वक रहें।
“आप तो जनकपुत्री हैं, सब सह लेंगी। मैं जानता हूं राम में आपकी अनन्य भक्ति और अनुरक्ति है। आप हृदय में राम का जाप करती हुई पतिव्रत का ही पालन करेंगी और यही आपके लिए उत्तम मार्ग शेष है।”
सीता वृक्ष के नीचे ही गहन दुख का अनुभव करती हुई अचेत हो गईं। कुछ क्षण के लिए उन्हें होश ही नहीं रहा। उनकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी।
क्या विडम्बना थी? विवाह के बाद जब राजसुख भोगने का अवसर आया तो माता कैकेयी के वरदान आड़े आ गए और एक राज महिषी को वनवास के लिए जाना पड़ा।
पंचवटी में जब एक आश्रम बनाकर सुखपूर्वक रहने का मन बनाया तो लंका का दुष्ट राजा रावण उन्हें छल से हर ले गया।
राम ने यथा प्रयास करते हुए वानरों की सेना तैयार की, रावण का वध किया और उन्हें उसके कारागार से मुक्त कराया। एक बार फिर दिन पलटे और अयोध्या की भूमि पर पैर रखने का सुअवसर मिला।
अभी तो जीवन के सुखद दिन पूरी तरह आ भी नहीं पाए थे कि यह वनवास!
“लक्ष्मण! वास्तव में विधाता ने मुझे केवल दुख भोगने के लिए ही रचा है। पल-प्रतिपल केवल दुख ही मेरे सामने नाचता रहता है।
“पता नहीं पूर्वजन्म में मुझसे ऐसा कौन-सा पाप हुआ है अथवा किसका स्त्री से बिछोह कराया था, जो मुझ शुद्ध आचरण वाली को ये कष्ट भोगने पड़ रहे हैं और आज स्वयं मुझे मेरे देवाधिदेव पति श्रीराम ने त्याग दिया।[adinserter block="1"]
“मैंने तो वनवास के दुख में भी सदैव उन्हीं के चरणों का स्मरण किया।
“तुम ही बताओ लक्ष्मण! अब मैं अकेली अपने परिवार और प्रियजनों से अलग इस आश्रम में कैसे रह पाऊंगी? दुख पड़ने पर किससे अपनी बात कहूंगी।
“बताओ लक्ष्मण! जब मुनिगण मुझसे पूछेंगे कि राम ने तुम्हें किस अपराध के कारण त्यागा है तो मैं क्या जवाब दूंगी?
“मैं तो अभी इसी पल देवी मां भागीरथी की गोद में शरण ले लेती, किन्तु मैं ऐसा नहीं कर सकती। अयोध्या का राजवंश मेरे आंचल में सांस ले रहा है। राम का अंश मेरी कोख में पनप रहा है।
“लेकिन तुम चिंता मत करो। तुम्हें जो आदेश दिया गया है, वही करो। मुझ दुखियारी का क्या है? वन में रहने की मेरी आदत है। यदि महाराज की इसी में प्रसन्नता है तो इसे मैं सहर्ष स्वीकार करूंगी।
लक्ष्मण! तुम राजमाताओं को मेरी ओर से चरण स्पर्श करना और महाराज को आश्वस्त करना कि सीता उनकी चिरसंगिनी, उनके आदेश का सदैव पालन करेगी।
राम से कहना‒हे रघुनंदन! आप जानते हैं, सीता शुद्ध चरित्र है। आपके हित में तत्पर रहने वाली, आप ही में प्रेम-भक्ति रखने वाली है।
“हे वीर! आपने अपयश से डरकर मुझे त्यागा है। अतः लोगों में आपकी जो निंदा हो रही है अथवा मेरे कारण जो अपवाद फैल रहा है, उसे दूर करना मेरा भी कर्तव्य है, क्योंकि मेरे परम आश्रय आप ही तो हैं।
“हे महाराज! मैं दुखियारी समय की मारी हूं। आपसे और क्या निवेदन करूं, पुरवासियों के साथ तो आप उदार व्यवहार करेंगे ही, अपने भाइयों के साथ भी स्नेह बनाए रखें।
“स्त्री के लिए तो उसका पति ही देवता होता है, वही बंधु और गुरु होता है। एक क्लेश मुझे अवश्य है, यदि आप मुझे अपने मन की पीड़ा बता देते तो संभवतया मुझे अधिक प्रसन्नता होती और यह विश्वास होता कि आप मेरा विश्वास करते हैं, लेकिन आप भय के कारण मुझसे कुछ नहीं कह पाए किन्तु मैं जीवित रहने के लिए अभिशप्त हूं। ऋतुकाल का उल्लंघन करके गर्भवती जो हो चुकी हूं।”[adinserter block="1"]
लक्ष्मण अपना साहस खो चुके थे। उनके मन में उद्विग्नता पैदा हो रही थी। राम के इस व्यवहार से वे क्षुब्ध भी थे,लेकिन रघुकुल की रीति है कि मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। वे छोटे भाई हैं और राम राजा। उनके आदेश का पालन तो लक्ष्मण को करना ही है।
लक्ष्मण ने धरती पर माथा टेकते हुए सीता को प्रणाम किया। उनकी जीभ ठहर गई थी, आंखें पथरा-सी गई थीं, गला खुश्क हो रहा था और एक अकथनीय वेदना से चेतना विलुप्त होना चाहती थी, फिर भी रोते हुए ही उन्होंने सीता कि परिक्रमा की और पुनः उनके चरण छूते हुए बोले‒
“हे निष्पाप पतिव्रते! आपको यहां वन में छोड़ने का जो पाप मैं कर रहा हूं, उसके लिए मुझे क्षमा कर देना। मैं आपका अपराधी हूं।”
और फिर बिना सीता की तरफ देखे लक्ष्मण नाव में सवार हो गए।
लक्ष्मण अनुभव कर रहे थे कि दो निरीह आंखें उन्हें देख रही हैं, लेकिन वे इन आंखों को देखने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे।
निर्जन वन में एकान्त अकेली खड़ी सीता जाते हुए लक्ष्मण को देखती रहीं। लक्ष्मण की नाव आगे बढ़ चुकी थी।
उस पार पहुंचकर लक्ष्मण रथ पर सवार हो गए। गंगा के इस पार से उस पार गए लक्ष्मण इतनी दूर आने पर भी पीछे देखने का साहस नहीं कर पाए।
सारथी रथ को दौड़ाए चले जा रहे थे। रथ के पीछे-पीछे सीता की आंखें धुंधली पड़ने लगी थीं।
अब रथ भी दिखाई नहीं दे रहा था। केवल धूल-ही-धूल और इस धूल में उन्हें दिखाई दिया अपने पिता जनक का राजमहल, वह पुष्प वाटिका जहां उन्हें श्रीराम पहली बार मिले थे और सखियों के साथ खड़ी सीता संकुचित पूजा के फूल हाथ में लिये ऐसी लग रही थीं मानो उनका देवता साक्षात् सामने आ गया है और वे उसे पूजने के लिए ही इस वाटिका में आई हैं।