लहरों के राजहंस | Laharon Ke Rajhans : by Mohan Rakesh Hindi PDF Book – Drama (Natak) PDF Download Free in this Post from Telegram Link and Google Drive Link
पुस्तक का विवरण (Description of Book लहरों के राजहंस | Laharon Ke Rajhans PDF Download) :-
नाम : | लहरों के राजहंस | Laharon Ke Rajhans Book PDF Download |
लेखक : | मोहन राकेश / Mohan Rakesh |
आकार : | 10.8 MB |
कुल पृष्ठ : | 126 |
श्रेणी : | नाटक | Drama |
भाषा : | हिंदी | Hindi |
Download Link | Working |
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‘लहरों के राजहंस’ सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शान्ति के अन्तर्विरोधों के बीच खड़े व्यक्ति के द्वन्द्व को दर्शानेवाला एक ऐसा नाटक है जो रेखांकित करता है कि ऐतिहासिक कथानकों के आधार पर श्रेष्ठ और सशक्त नाटकों की रचना तभी सम्भव है जब नाटककार ऐतिहासिक पात्रों और कथा स्थितियों को अनैतिहासिक और युगीन बना दे। इस निकष पर ‘लहरों के राजहंस’ का खरा उतरना ही उसके हिन्दी के श्रेष्ठ नाटकों में शुमार होने का कारण है। ‘लहरों के राजहंस’ स्त्री और पुरुष के प्र सम्बन्धों का अन्तर्विरोध भी उजागर करता है। जीवन के प्रेम और श्रेय के बीच जो एक कृत्रिम और आरोपित द्वन्द्व है वही इस नाटक का कथा-बीज है, केन्द्र-बिन्दु है। द्वन्द्व में चयन की जो कसमसाहट है उसी की अभिव्यक्ति है ‘लहरों के राजहंस’। सुन्दरी के रूपपाश में बँधते हुए अनिश्चित, अस्थिर और संशयी मतवाले नन्द की स्थिति इस नाटक को दिलचस्प और चौंकानेवाला रूप भी प्रदान करती है। मोहन राकेश की कीर्ति को शिखर पर पहुँचानेवाली रचनाओं में ‘लहरों के राजहंस’ का विशिष्ट स्थान है।
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‘Laharon ke Hanshan’ is a play depicting the conflict of a person standing between the contradictions of worldly pleasures and spiritual peace, which underlines that the creation of excellent and powerful plays based on historical subjects is possible only when the dramatist is able to create historical characters and narrative situations. Make it ahistorical and epochal. The success of ‘Laharon ke Rajhans’ on this criterion is the reason for its being counted among the best Hindi plays. ‘The Flamingo of Waves’ also exposes the contradiction between the relationship between man and woman. The artificial and imposed conflict between love and credit of life is the story-seed of this drama, the center-point. The expression of the hesitation of selection in the conflict is the ‘flamingo of the waves’. The situation of indecisive, unstable and suspicious drunken Nand while being trapped in the form of Sundari gives this play an interesting and shocking form. ‘Laharon ke Flamingo’ has a special place in the creations of Mohan Rakesh’s fame.
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पुस्तक का कुछ अंश (लहरों के राजहंस | Laharon Ke Rajhans PDF Download)
कपिलवस्तु में जिस समय भगवान बुद्ध धर्मोपदेश कर रहे थे, और उनके जाति–भाई धर्म के प्रति प्रेरित होकर दीक्षित हो रहे थे, कामासक्त नन्द अपनी परम रूपवती प्रियतमा सुन्दरी के साथ विहार में लीन रहता था। लेकिन नन्द का मन स्थिर भाव से सुन्दरी का रूपभोग नहीं कर पाता, क्योंकि कहीं भीतर उसके मन में अस्थूल और असंसारी तत्वों के प्रति भी आकर्षण है। उसके मन का यही संस्कार और उसको पोषित करनेवाली बाह्य परिस्थितियाँ ही नाटक के द्वन्द्व का आधार हैं। वह घर से लौटे हुए उपेक्षित बुद्ध से क्षमा–याचना करने के लिए जाने को विकल हो जाता है। जिस समय वह हाथ में दर्पण लिये सुन्दरी के श्रृंगार में लीन है, उसी समय ‘धम्मं शरणं गच्छामि’ का स्वर उठता है और सहसा उसके हाथ का दर्पण गिरकर टूट जाता है। दर्पण का टूटना और कमलताल में डोलती हुई बुद्ध की कल्पित छाया ऐसे ही प्रतीक हैं, जो नन्द की अस्थिर और दुविधाग्रस्त मनोदशा का संकेत करते हैं। अपनी ही क्लान्ति से मरे हुए मृग की बात बार–बार सोचना और दीक्षा के पश्चात् व्याघ्र से लड़ना उसकी इसी मनोदशा की प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं। नन्द जब अनायास और अनिच्छा से ही भिक्षु बना दिया जाता है, और वह भिक्षु–वेश में घर लौटता है, तो सुन्दरी को देखकर कहता है, “जिस सामर्थ्य और विश्वास के बल पर जी रहा था, उसी के सामने, मुझे असमर्थ और असहाय बनाकर फेंक दिया गया है।”
एक ओर तो नन्द के मन का यह द्वन्द्व है, और दूसरी ओर रूपगर्विता सुन्दरी के इस खंडित विश्वास की पीड़ा कि उसमें आसक्त उसका पति कैसे उसके रूपपाश से मुक्त होकर बौद्ध भिक्षु होकर उन्हीं हाथों में भिक्षा–पात्र लेकर उसके पास लौटा है, जिन हाथों में उसके श्रृंगार के लिए उसने दर्पण उठाया था। सुन्दरी जीवन का भोग करना चाहती है, वह कामनाओं को स्थगित नहीं करना चाहती। कमलताल के राजहंसों के जोड़े की किलोल सुनकर वह कहती है : “कोई गौतम बुद्ध से कहे कि कभी कमलताल के पास जाकर इनसे भी वे निर्वाण और अमरत्व की बात कहें।” नाटक के अन्त में जब वह नन्द के द्वारा चन्दनलेप का बिन्दु बनाए जाने पर चौंककर जाग जाती है तो उसकी दृष्टि नन्द के केश कटे हुए भिक्षु–वेशी मुख पर पड़ती है। उसका मन वितृष्णा से भर जाता है। इस प्रकार नाटक का कथानक अन्तर्द्वन्द्व के दो स्तरों पर संचरण करता है, और इन्हीं दो स्तरों की पारस्परिक टकराहट से उसकी नाटकीयता अधिक तीव्र और गहन होती है।
नाटक का पहला अंक सुन्दरी के कक्ष में आरम्भ होता है। कर्मचारी साज–सज्जा में लगे हुए हैं। सुन्दरी के आग्रह पर कामोत्सव मनाया जानेवाला है। अतिथियों की प्रतीक्षा है। एक अतिथि मैत्रेय पधारते हैं। और जब कामोत्सव में सम्मिलित होने के लिए मैत्रेय के अतिरिक्त और कोई नहीं आता तो सुन्दरी अपमान में विक्षुब्ध हो उठती है। इसी अत्यन्त तीव्र और गहन कथा–स्थिति में पहला अंक समाप्त होता है।[adinserter block=”1″]
यही अंक क्रिया–व्यापार का पहला संचरण (Movement) है। इसमें व्यापार और भाव की अन्विति का पूरा निर्वाह हुआ है। सुन्दरी की चारित्रिक विशेषताओं का परिचय मिल जाता है। नाटकीय कथा के उस द्वन्द्व का पूर्वाभास हो जाता है जिसे नन्द को झेलना है। गौण पात्रों और प्रसंगों को भी इसी अंक में प्रस्तुत कर दिया जाता है। और इस प्रकार से नाटकीय कथा का उद्घाटन (Exposition) बड़ी सफलता के साथ होता है। कामोत्सव का आयोजन इस सन्दर्भ में विशेष नाटकीय अर्थ और तीव्रता ग्रहण कर लेता है कि दूसरे ही दिन रानी यशोधरा भिक्षुणी बनने जा रही हैं। कामोत्सव के आयोजन में लगा हुआ श्यामांग कहता है : “कल प्रात: देवी यशोधरा भिक्षुणी के रूप में दीक्षा ग्रहण करेंगी और यहाँ रात–भर नृत्य होगा। आपानक चलेगा।” और सुन्दरी अलका से बातें करती हुई कहती हैं : “नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुद्ध बना देता है।” कमलताल में राजहंसों का कलरव और श्यामांग द्वारा (बुद्ध की) छाया की कल्पना–इस प्रसंग को गहरी नाटकीय व्यंजना प्रदान करते हैं।
वस्तु–विधान में नाटकीय कथा का उद्घाटन बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि यही अंश दर्शकों की रुचि जागृत करता है और उनको नाटकीय पात्रों के साथ ऐसे सम्बन्ध–सूत्रों में बाँधता है जो नाट्यानुभव में सहायक होते हैं। इस अंश में नाटककार अत्यन्त कुशलता के साथ नाटकीय कथा के प्राय: सभी प्रमुख और कुछ गौण पात्रों को प्रस्तुत करता है और उनके अतीत जीवन और उनकी वर्तमान इच्छाओं और प्रयोजनों को इंगित करता है। तीन अंकों वाले आधुनिक शैली के नाटकों में पहला अंक प्राय: कथा के उद्घाटन में ही लग जाता हैय लेकिन सफल नाटकों में अंक समाप्त होते–होते कथानक में कुछ तीव्रता और उत्तेजना आने लगती है और हमारी रुचि बढ़ने लगती है।
दूसरा अंक भी सुन्दरी के ही कक्ष में आरम्भ होता है। नन्द सुन्दरी का श्रृंगार कर रहा है। बीच–बीच में नेपत्थ्य से कर्मचारी श्यामांग का ज्वर–प्रलाप सुनाई पड़ता है : “इन लहरों पर से…लहरों पर से यह छाया हटा दो…मुझसे… यह छाया नहीं ओढ़ी जाती।” जिस समय नन्द सुन्दरी के श्रृंगार में व्यस्त है, अलका यह सन्देश लाती है कि गौतम बुद्ध भिक्षा के लिए द्वार पर आए थे और भिक्षा की याचना करने के बाद लौट गए हैं। नन्द सुन्दरी से कहता है कि मुझे जाकर इस प्रमाद के लिए उनसे क्षमा–याचना करनी चाहिए। सुन्दरी यह कहकर अनुमति दे देती है कि जाइए लौटकर आप ही इस विशेषक को पूरा करेंगे और तभी मैं शेष श्रृंगार करूँगी। नन्द चला जाता है और यह अंक नेपथ्य से श्यामांग के इस संवाद के साथ समाप्त होता है : “यह छाया मेरे ऊपर से हटा दो?…एक किरण…कोई एक किरण…”[adinserter block=”1″]
यह अंक कथा का दूसरा संचरण हैय और इसमें भी व्यापार–अन्विति का पूरा निर्वाह हुआ है। अंक समाप्त होते–होते कथा का मूल द्वन्द्व आरम्भ हो जाता है। नन्द बुद्ध के पास क्षमा–याचना के लिए चले जाते हैं, और सुन्दरी अधूरा श्रृंगार लिये हुए उनके वापस लौट आने की प्रतीक्षा में बैठी रहती है। इस अंक में सुन्दरी की चरित्र–रेखाएँ और स्पष्ट होती हैं, और नन्द के मन की दुविधा और द्वन्द्व स्पष्ट होने लगता है। नन्द हाथ में दर्पण लिये सुन्दरी के श्रृंगार में योग दे रहा है। इतने में नेपथ्य में ‘धम्मं शरणं गच्छामि’ का स्वर सुनाई देता है। सुन्दरी कहती है : “देखिए दर्पण हिल गया।” इस अंक का श्रृंगार–प्रसंग बड़ा ही कोमल और सरस है–हिन्दी नाटक–साहित्य में नितान्त नया।
तीसरे अंक का आरम्भ नन्द के लिए सुन्दरी की आकुल प्रतीक्षा के साथ होता है। कमलताल के राजहंस उड़कर चले गए हैं। लम्बी प्रतीक्षा के बाद जब नन्द सिर मुड़ाए हुए भिक्षु–वेश में आता है तो सुन्दरी थककर सो चुकी है। नन्द कहता है : “मैंने कहा था तुम्हारा विशेषक सूखने से पहले ही मैं लौट आऊँगा, परन्तु नहीं आ सका। तुम पूछतीं तो मैं क्या उत्तर देता।” और कुछ देर बाद वहीं पड़े हुए टूटे दर्पण के सामने रुककर अपना प्रतिबिम्ब उसमें देखता है, और कहता है : “मेरे केश क्यों कटवा दिए? और कटवा ही दिए तो उससे क्या अन्तर पड़ता है? अन्तर पड़ता यदि मेरा हृदय बदल जाता, आँखें बदल जातीं। मेरे हृदय में तुम्हारे लिए अब भी वही अनुराग है, आँखों में तुम्हारे रूप की अब भी वही छाया है। तुम्हारा विशेषक जो सूख गया है, उसका मुझे खेद है। उसे मैं अभी गीला कर देता हूँ।” और जैसे ही नन्द उँगली में लेप लेकर सुन्दरी के माथे पर बिन्दु बनाने लगता है, वह मुंडित आकृति को देखकर चीख उठती है।[adinserter block=”1″]
नन्द इस स्थिति में अपने को नितान्त असहाय और अकेला पाता है। वह कहता है : “मैं चौराहे पर खड़ा एक नंगा व्यक्ति हूँ, जिसे सभी दिशाएँ लील लेना चाहती हैं और अपने को ढकने के लिए उसके पास कोई आवरण नहीं है।” और वह इसी मानसिक यातना में सुन्दरी से बिना मिले ही चला जाता है। राज–कर्मचारी श्वेतांग सुन्दरी को बताता है कि कुमार यह कहते हुए चले गए कि वे अपने केशों की खोज में जा रहे हैं। वे तथागत से पूछना चाहते हैं कि उन्होंने उनके केशों का क्या किया? उनकी पत्नी को केशों की आवश्यकता है। इस पर सुन्दरी वितृष्णा में कहती है : “इतना ही तो समझ पाते हैं ये लोग। बस इतना ही तो इनको समझ में आता है।” और नाटक का अन्त श्यामांग के इस संवाद से होता है : “बस एक किरण, केवल एक किरण।”
यह अंक नाटकीय कथा को तेजी के साथ आगे बढ़ाता है और द्वन्द्व को गहन कर देता है। ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं जो नाटक को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा देती हैं, और कथा के चरम बिन्दु पर ही नाटक समाप्त हो जाता है। अपने सम्बन्धों और परिस्थितियों से लड़ते हुए टूटे और खंडित पात्रों की विषम स्मृतियाँ मन पर छा जाती हैं। जिस सुन्दरी ने कहा था कि ‘नारी का अपकर्षण पुरुष को गौतम बुद्ध बना देता है,’ वही सुन्दरी नन्द को भिक्षु–वेश में देखकर अपनी इस भारी पराजय से विक्षुब्ध हो उठती है। और नन्द सुन्दरी के इस गहरे विक्षोभ को नहीं समझताय वह अपनी पत्नी के सन्तोष के लिए अपने सोभा–केश लाने चला जाता है। इसी अत्यन्त विषम बिन्दु पर नाटक समाप्त होता है।
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हमने लहरों के राजहंस | Laharon Ke Rajhans PDF Book Free में डाउनलोड करने के लिए Google Drive की link नीचे दिया है , जहाँ से आप आसानी से PDF अपने मोबाइल और कंप्यूटर में Save कर सकते है। इस क़िताब का साइज 10.8 MB है और कुल पेजों की संख्या 126 है। इस PDF की भाषा हिंदी है। इस पुस्तक के लेखक मोहन राकेश / Mohan Rakesh हैं। यह बिलकुल मुफ्त है और आपको इसे डाउनलोड करने के लिए कोई भी चार्ज नहीं देना होगा। यह किताब PDF में अच्छी quality में है जिससे आपको पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। आशा करते है कि आपको हमारी यह कोशिश पसंद आएगी और आप अपने परिवार और दोस्तों के साथ लहरों के राजहंस | Laharon Ke Rajhans की PDF को जरूर शेयर करेंगे।
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