कुमारसंभव / Kumarsambhav PDF Download Free Hindi Book by Mahakavi Kalidas

पुस्तक का विवरण (Description of Book of कुमारसंभव / Kumarsambhav PDF Download) :-

नाम 📖कुमारसंभव / Kumarsambhav PDF Download
लेखक 🖊️   महाकवि कालिदास / Mahakavi Kalidas  
आकार 3.7 MB
कुल पृष्ठ91
भाषाHindi
श्रेणी,
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कुमारसंभव, शाब्दिक रूप से शिव के पहले पुत्र, युद्ध-देवता कार्तिकेय के जन्म के लिए खड़ा है। कुमारसंभव एक संस्कृत महाकाव्य कविता है और कालिदास के बेहतरीन कार्यों में से एक है। यह एक प्रसिद्ध संस्कृत कविता है और काव्य कविता के सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण उदाहरणों में से एक है। यह पुस्तक अनिवार्य रूप से भगवान शिव और पार्वती की प्रेमालाप के बारे में बात करती है। अधिकांश अध्यायों में शिव और पार्वती के बीच प्रेम और रोमांस के बारे में विस्तृत विवरण हैं। कुमारसंभव तारकासुर नाम के शक्तिशाली राक्षस के बारे में बताता है, जिसे वरदान मिला था कि केवल भगवान शिव की संतान ही उस पर विजय प्राप्त कर सकती है। पार्वती ने भगवान शिव के प्रेम को जीतने के लिए बहुत प्रयास किए क्योंकि शिव भावुक ध्यान में थे और उन्होंने प्रेम की इच्छा को कम कर दिया था। बाद में शिव और पार्वती को एक पुत्र कार्तिकेय का आशीर्वाद मिला, जो बड़ा हुआ और तारकासुर का वध किया। कुमारसंभव में चित्रण की शैली ने भारतीय साहित्यिक परंपरा की कई शताब्दियों से गुजरने वाली प्रकृति छवियों के लिए मानक स्थापित किया था।


पुस्तक का कुछ अंश

संस्कृत साहित्य में कालिदास का स्थान अद्वितीय है। उनकी रचना के विलक्षण सौन्दर्य को उनके पश्चाद्‌वर्ती सभी टीकाकारों ने, आचोलकों ने तथा सहृदय पाठकों ने मुक्तकंठ से सराहा है। निस्सन्देह ही कविता का जैसा मनोरम रूप कालिदास की रचनाओं में प्रुस्फुटित हुआ है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं हुआ। इसलिए आश्चर्य नहीं कि उनके विषय में अनेक परवर्ती कवियों ने अनेक प्रशंसासूचक उक्तियां लिखी हैं। उदाहरण के लिए सोड्ढल कवि ने कालिदास की प्रशंसा करते हुए कहा है कि ‘वे कवि कालिदास धन्य हैं जिनकी पवित्र और अमृत के समान मधुर कीर्ति वाणी का रूप धारण करके सूर्यवंश-रूपी समुद्र के परले पार तक पहुंच गई है।
ख्यात: कृती सोऽपि च कालिदास: शुद्धा सुधास्वादुमती च यस्य।
वाणीमिषाच्चण्डमरीचिगोत्र सिन्धो: परं पारमवाप कीर्ति:।।
इसी प्रकार भरतचरित्र के लेखक श्रीकृष्ण कवि ने कालिदास की वाणी की प्रशंसा करते हुए कहा है कि ‘कमलिनी की भांति निर्दोष तथा मोतियों की माला की भांति अनेक गुणों से युक्त और प्रियतमा की गोद की भांति सुखद वाणी कालिदास के सिवाय अन्य किसी की नहीं है।’
अस्पृष्टदोषा नलिनीव दृष्टा हारावलीव ग्रथिता गुणौघै:।
प्रियाकपालीव विमर्दहृद्या न कालिदासादपरस्य वाणी।।
जयदेव कवि ने कालिदास की अन्य संस्कृत कवियों के साथ गणना करते हुए कालिदास को कविता-कामिनी का विलास बताया है और कालिदास को कविकुल-गुरु कहा है उन्होंने लिखा है कि ‘जिस कविता-सुन्दरी का केश-कलाप चोर कवि है, जिसके कर्णफूल का स्थान मयूर कवि ने लिया हुआ है, जिसका हास भास कवि है और कविकुलगुरु कालिदास जिसके विलास हैं, हर्ष कवि जिसके हर्ष हैं और ह्रदय में रहनेवाला पंचबाण अर्थात् कामदेव बाण कवि है, वह कविता-सुन्दरी किस व्यक्ति को आनन्दित न कर देगी!’
यस्याश्चोरश्चिकुरनिकर: कर्णपूरो मयूर:,
भासो हास: कविकुलगुरु: कालिदासो विलास:।
हर्षो हर्षो हृदयवसति: पञ्चबाणस्तु बाण:,
केषां नैषा कथय कविताकामिनी कौतुकाय।।
इस प्रकार अनेक लेखकों ने अपनी श्रद्धांजलि कालिदास को अर्पित की है। यहां तक कि संस्कृत-गद्य के प्रसिद्ध लेखक बाणभट्ट ने भी कालिदास की सूक्तियों की प्रशंसा की है। कालिदास के महत्व के विषय में संस्कृत में दो मत नहीं है। सर्वसम्मति से उन्हें संस्कृत का सर्वश्रेष्ठ कवि माना गया है।


कालिदास का स्थान और काल

परन्तु यह खेद की बात है कि संस्कृत के इस सबसे बड़े कवि के विषय में कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं है। अपनी अनेक कृतियों में अपने विषय में कवि ने एक पंक्ति तो दूर, एक शब्द भी नहीं लिखा है और उनके विषय में इधर-उधर जो कुछ लिखा मिलता है उससे ऐतिहासिक दृष्टि से किसी निश्चय पर पहुंचने में कुछ सहायता नहीं मिलती। बल्कि कई जगह तो समस्या और उलझ जाती है।
कालिदास के काल के विषय में निश्चय करने के लिए हमारे पास सबसे बड़ा आधार विक्रमादित्य का है। क्योंकि अभिज्ञानशाकुन्तल के प्रारम्भ में कवि ने सूत्रधार के मुख से कहलाया है कि ‘रस और भावों के पारखी महाराज विक्रमादित्य की सभा में आज बड़े-बडे विद्वान उपस्थित हैं और उनके सम्मुख हमें कालिदास द्वारा रचे गए अभिज्ञानशाकुन्तल नामक नये नाटक का अभिनय करना है।’ इससे यह परिणाम निकाला जा सकता है कि अभिज्ञानशाकुन्तल का अभिनय महाराज विक्रमादित्य की सभा में किया गया था और कालिदास विक्रमादित्य के समकालीन थे।
इसके अतिरिक्त कालिदास ने एक नाटक ‘विक्रमोर्वशीय’ लिखा है, जिससे कालिदास का विक्रमादित्य के प्रति अनुराग प्रकट होता है। परन्तु यह निश्चय हो जाने पर भी कि कालिदास विक्रमादित्य की सभा में विद्यमान थे, समस्या का पूरा हल नहीं होता। क्योंकि स्वयं इन विक्रमादित्य के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। कुछ लोग विक्रम को 57 ईस्वी पूर्व में हुआ मानते हैं, तो कुछ अन्य विद्धान् उसे ईसा की चौथी शताब्दी और कुछ छठी शताब्दी तक घसीट लाना चाहते हैं।


फर्ग्यूसन का मत

इन विद्वानों में से एक फर्ग्यूसन हैं, जिनका कथन है कि 544 ईस्वी में उज्जैन में एक राजा हर्ष हुए थे, जिनकी उपाधि विक्रमादित्य थी। उन्होंने कहरूर की लड़ाई में शकों को परास्त किया था और विजय की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए उन्होंने एक संवत् चलाया। परन्तु उस संवत् को उन्होंने और प्राचीन बनाने के लिए 600 वर्ष पहले से चलाया और उसका प्रारम्भ 57 ईस्वी पूर्व से गिना। फर्ग्यूसन की युक्ति यह है कि कालिदास के ग्रन्थों मे हूण, शक, पल्लव तथा यवन जातियों के नाम आते हैं। अत: कालिदास उस समय हुए होंगे, जब कि ये जातियां भारत में आ चुकी थीं। हूणों के आक्रमण भारत पर 500 ईस्वी में प्रारम्भ हुए।
यदि फर्ग्यूसन के मत को सत्य माना जाए तो यह बात समझ में नहीं आती कि हर्ष विक्रमादित्य ने अपना संवत् 600 वर्ष पूर्व से क्यों चलाया, एक तो किसी भी संवत् को अपने समय से पहले से प्रारम्भ करना असंगत प्रतीत होता है। फिर, यदि पहले से भी प्रारम्भ करना था तो उसके लिए 600 वर्ष पहले का समय ही क्यों चुना गया? इससे भी बड़ी एक बात यह है कि यदि विकम संवत् जिसे मालव संवत् भी कहा जाता है, प्रारम्भ में 600 वर्ष पहले से शुरू किया गया था तो 600 वर्ष से कम मालव संवत् का कहीं उल्लेख नहीं मिलना चाहिए। परन्तु मन्दसौर का प्रस्तरलेख 529 मालव संवत् का, तथा कावी का अभिलेख 430 विकम संवत् का प्राप्त होता है। इससे फर्ग्यूसन का मत बिल्कुल निराधार और कल्पना की बेतुकी उड़ान मात्र सिद्ध होता है। तीसरी बात यह है कि हूण और शक जातियों का वर्णन रघुवश में है अवश्य; परन्तु कहीं भी वे भारतवर्ष में विजेता के रूप में चित्रित नहीं हुए हैं। उनका वर्णन उन जातियों के अन्तर्गत किया गया है, जिन्हें रघु ने अपनी दिग्विजय में परास्त किया था; और यह बात इतिहाससिद्ध है कि ईसा से दो शताब्दी पहले ही हूण पामीर के उत्तर में आ गए थे। इसलिए हूणों और शकों के वर्णन से कालिदास के काल के विषय में कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।


कालिदास की शैली

कालिदास की शैली संस्कृत-साहित्य में विलक्षण है। उनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता सरलता, सरसता और सुकुमारता है। सरलता और मधुरता से युक्त शैली को संस्कृत में ‘वैदर्भी’ रीति कहा जाता है और वैदर्भी रीति की रचना में कालिदास को सर्वोत्तम कवि माना जाता है, ‘वैदर्भीरीतिसन्दर्भे कालिदासो विशिष्यते। उनकी भाषा अत्यन्त सरल है, और शब्दार्थ समझने में न विलम्ब होता है, न कठिनाई। फिर भी उनकी रचनाओं को कई बार पढ़ने पर नया ही अर्थ सामने आता है। कालिदास ने एक जगह लिखा है कि सुन्दरता वही है जो पल-पल में नया रूप धारण करती जाए।— “ क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूप रमणीयताया:।” यह बात उनकी अपनी रचनाओं पर विशेष रूप से लागू होती है।
कालिदास ने अपने काव्यों में कहीं तो वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है, कहीं उन्होंने उपमाओं, उत्प्रेक्षाओं और रूपकों द्वारा दृश्यों के सजीव चित्र उपस्थित कर दिए हैं, और कहीं उनकी शैली व्यंग्य-प्रधान हो गई है, कहीं उन्होंने मनोहारी व्यंजनाओं द्वारा गतिचित्र उपस्थित किए हैं। वस्तुत: ये गतिचित्र ही कालिदास के काव्य-सौन्दर्य का सर्वोत्तम अंश हैं। इन गतिचित्रों में हमें उन हाव-भावों और क्रियाओं की झांकी मिल जाती है जो यद्यपि शब्दों में तो विस्तार से वर्णित नहीं होती परन्तु व्यंजना शक्ति द्वारा पाठक के ह्रदय पर बिजली की भांति कौंध जाती है। इस प्रकार के गतिचित्रों का हम आगे चलकर उल्लेख करेंगे।
इसी प्रकार कालिदास की शैली में उनकी उपमाओं का विशेष महत्व है। कालिदास की उपमाएं बेजोड़ समझी जाती हैं और सच तो यह है कि कालिदास की वे ही उपमाएं और उत्प्रेक्षाएं विशेष सुन्दर बन पड़ी हैं, जिनमें उन्होंने गतिमय चित्रों का अंकन किया है। उदाहरण के लिए कालिदास के रघुवंश में इन्दुमति-स्वयंवर के प्रंसग में दी गई दीपशिखा की उपमा बहुत प्रसिद्ध है। इन्दुमति स्वयंवर भवन में दोनों ओर बैठे हुए राजकुमारों के बीच में से धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है और उसकी दासी प्रत्येक राजकुमार का परिचय देती है। इस प्रकार एक-एक करके राजकुमारों को अस्वीकृत करती हुई इन्दुमती की उपमा कालिदास ने चलती हुई दीपशिखा से दी है। वे लिखते हैं कि ‘चलती हुई दीपशिखा की भांति पतिम्वरा इन्दुमती जिस-जिस राजकुमार को पीछे छोड़ती जाती थी, वही राजमार्ग के किनारे खड़े हुए भवन की भांति कान्तिहीन होता जाता था।’


सञ्चारिणी दीपशिखेव रात्रौ, यं यं व्यतीयाय पतिम्वरा सा।
नरेन्द्रमार्गाट्‌ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपाल:।।
यहां भी सौन्दर्य गतिमय चित्र का है। इन्दुमती चली जा रही है, उसका सौन्दर्य दीपशिखा की भांति मोहक है। जिस राजकुमार के सम्मुख वह जाकर खड़ी होती है उसी का मुख आशा और आनन्द से उसी प्रकार चमक उठता है; जैसे रात्रि में चलती हुई दीपशिखा जिस भवन के सामने पहुंचती है वही प्रकाश से आलोकित हो उठता है और जहां से वह आगे बढ़ जाती है वहां अंधेरा छा जाता है। इसी प्रकार जिस राजकुमार को छोड़कर इन्दुमती आगे वढ़ जाती है उसी का मुख आभाहीन हो जाता है।
इसी प्रकार कुमारसम्भव के तीसरे सर्ग में पार्वती महादेव के पास पहुंच रही हैं। स्तनों के भार से उनके कंधे झुक-से गए हैं, लाल रंग के वस्त्र उन्होंने पहने हुए हैं। वहां कालिदास उनकी तुलना ढेर के ढेर फूलों के गुच्छे से लदी हुई हरी-भरी चलती लता से करते हैं। यहां भी बहुत कुछ सौन्दर्य गतिमय चित्र का ही है।
कालिदास की शैली की एक और विशेषता यह है कि प्रत्येक रस के अनुकूल भाषा और छन्द का चुनाव बहुत कुशलता से करते हैं। रघुवंश के आठवें सर्ग में उन्होंने ‘वियोगिनी’ छन्द का प्रयोग किया है। ये दोनों अवसर मृत्यु के उपरान्त किए गए विलाप के सम्बन्ध में है और यह ‘वियोगिनी’ छन्द अपनी विशिष्ट लय के कारण करुणाजनक विलाप के लिए अत्यन्त उपयुक्त है। इसके दो-एक पथ देखिए—
शशिनं पुनरेति शर्वरी दयिता द्वन्द्वचरं पतत्त्रिणम्।
इति तौ विरहान्तरक्षमौ कथमत्यन्तगता न मां दहे:।।
— रघुवंश
हृदये वसतीति मत्प्रियं यदवोचस्तदवैमि कैतवम्।।
उपचारपदं चेदिदं त्वमनङ्गः कथमक्षता रति।।
—कुमारसम्भव

हमने कुमारसंभव / Kumarsambhav PDF Book Free में डाउनलोड करने के लिए लिंक नीचे दिया है , जहाँ से आप आसानी से PDF अपने मोबाइल और कंप्यूटर में Save कर सकते है। इस क़िताब का साइज 3.7 MB है और कुल पेजों की संख्या 91 है। इस PDF की भाषा हिंदी है। इस पुस्तक के लेखक   महाकवि कालिदास / Mahakavi Kalidas   हैं। यह बिलकुल मुफ्त है और आपको इसे डाउनलोड करने के लिए कोई भी चार्ज नहीं देना होगा। यह किताब PDF में अच्छी quality में है जिससे आपको पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। आशा करते है कि आपको हमारी यह कोशिश पसंद आएगी और आप अपने परिवार और दोस्तों के साथ कुमारसंभव / Kumarsambhav को जरूर शेयर करेंगे। धन्यवाद।।
Q. कुमारसंभव / Kumarsambhav किताब के लेखक कौन है?
Answer.   महाकवि कालिदास / Mahakavi Kalidas  
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