पुस्तक का विवरण (Description of Book of कलाम : कुछ उलटे पन्ने / Kalam: Kuch Ulte Panne PDF Download) :-
नाम 📖 | कलाम : कुछ उलटे पन्ने / Kalam: Kuch Ulte Panne PDF Download |
लेखक 🖊️ | जे अल्केम / J. Alchem |
आकार | 2.4 MB |
कुल पृष्ठ | 39 |
भाषा | Hindi |
श्रेणी | कहानी, जीवनी |
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मैं पहली बार छह: महीने पहले मिला था उस से. अख़बार डालने आता था वो हर दिन. फिर एक इतवार के रोज़ वो अख़बार के साथ साथ एक कहानी भी ले आया. मुझे सुनाने को. सुनते सुनते पता चला की वो कुछ पन्ने थे, जिन्हें वो उलटा पढ़ रहा था. एक कहानी में पिरो कर. एक कहानी जिसमें वक़्त पीछे की ओर भाग रहा था.
पुस्तक का कुछ अंश
प्रस्तावना
कहानियाँ दो प्रकार की होती हैं। एक वो जो किताबों में होती हैं और एक वो जो हम लोगों से सुनते हैं। ये कहानी जो अब आप पढ़ने जा रहे हैं इन दोनों के बीच की एक कहानी है। ये मुझे बारह साल के एक न्यूज़पेपर हॉकर ने सुनाई थी। क्या नाम था उसका? हाँ, कलाम। नहीं, ये उसका वास्तविक नाम नहीं है। उसे तो बाबू बुलाते थे। छोटा सा प्यारा सा जो था। गोल मटोल गालों वाला।
पर मुझे उसे कलाम बुलाने के तीन कारण थे। एक, डाक्टर कलाम साहब भी बचपन में न्यूज़पेपर हॉकर ही हुआ करते थे। दो, उसने मुझे एक कहानी सुनाई थी जो डाक्टर कलाम साहब के बारे में थी। और तीन, एक मीन्ट! तीसरा कारण तो आपको ये कहानी ख़त्म होते होते ख़ुद ही पता चल जाएगा। तो मैं क्यूँ बताऊँ? इतना तो इंतज़ार कर ही सकते हैं ना आप।
आप सोच रहे होंगे के एक न्यूज़पेपर हॉकर और कहानीकार? जी हाँ, बाबू एक बहुत ही उम्दा कहानीकार भी था। उसकी कहानी वास्तविकता और काल्पनिक के बीच में ही कहीं आती थी। उसी की सुनाई हुई पहली कहानी मैं आज आपको सुनाने जा रहा हूँ। आपको पसंद आयेगी तो मैं दूसरी भी सुनाऊँगा, और तीसरी भी। सारी कहानी सुनाऊँगा। कहानी सुनाते सुनाते आपसे दोस्ती जो हो जाएगी। जैसे मेरी हो गई थी, बाबू से।
पर ये कोई साधारण कहानी नहीं है। ये एक ऐसीकहानी है जो शायद आपने आज तक नहीं सुनी होगी और ना ही कहीं पढ़ी होगी। और अगर सुनी और पढ़ी भी होगी तो इस तरह से नहीं सुनी और पढ़ी होगी। मैं तो इस तरह की कहानी के बारे में कभी सोच भी नहीं सकता था। अगर मैं बाबू से नहीं मिला होता।
पर ये कहानी सुनाने से पहले मैं थोड़ा कुछ बाबू के बारे में आपको बताना चाहता हूँ। बाबू एक सुलझी हुई सोच और उलझे हुए बालों वाला लड़का था। जो वास्तविक दुनिया में होता था लेकिन काल्पनिक दुनिया में जी रहा होता था। अगर मैं कहूँ के वो काल्पनिक और वास्तविक दुनिया के बीच की एक कड़ी था, तो ग़लत नहीं होगा। घुंगराले बाल थे उसके। मानो की बाल ना हो कहानियों का एक जाल हो। मोटे मोटे गाल थे। जैसे की हर वक़्त अपने गालों से गुब्बारे फुला रहा हो वो। चेहरे पर कभी ना ख़त्म होने वाली मुस्कान रहती थी उसके। पाँवों में केनवास के थोड़े से पुराने जूते थे। जो शायद किसी ने उसे उपहार में दिये थे। बहुत संभाल संभाल के पाँव रखता था वो, के कहीं उसके जूते गंदे ना हो जाए। जैसे की वो उन्हें उम्र भर चलाना चाहता था। बगल में दबी हुई न्यूज़पेपर की एक गड्डी रहती थी उसके। जो वो बारी बारी से घरों के दरवाज़ों में नीचे के ख़ाली स्थान से डाल दिया करता था। और दूसरे हाथ में एक छोटा सा झोला रखता था वो। जिसमें शायद वो अपने सपने रखता था।
मैं उस से पहली बार छह: महीने पहले मिला था। जब मैं नया नया काेलोनी में शिफ्ट हुआ था। वो हर रोज़ सुबह सुबह आता और “अख़बार” कहकर अंग्रेज़ी के काग़ज़ का एक पुलिंदा मेरे दरवाज़े के नीचे से अंदर डाल जाता था। शुरू शुरू में ये अजीब लगता था। पेपर का आना, उसका “अख़बार” बोलना। कभी कभी मन करता था के उसे बोलूं के बिना आवाज़ किये अख़बार डाल जाया कर। नींद ख़राब हो जाती है। देर रात तक जो पढ़ता था मैं। फिर धीरे धीरे वो ज़िंदगी का एक हिस्सा बनने लगा था। मेरे दिन की शुरुआत उसकी आवाज़ से ही होने लगी थी। मानो के जैसे वो मेरा अलार्म बन गया था। वो पेपर डालता और मैं उठ जाता। पेपर को उठा कर टेबल पर रखता और कुल्ला कर के टहलने निकल जाया करता था।
वो भी अख़बार डालता और इठलाता हुआ पल भर में ही बहुत दूर जा निकलता था। मैं अगर दरवाज़ा खोल कर देखता भी तो उसे कभी पकड़ नहीं पाता। हाँ, मैंने एक बार कोशिश की थी। दरवाज़ा खोल कर उसे देखने की। वो जा चुका था। बहुत तेज़ जो चलता था। मानो की उसे बहुत सारे काम करने हो और वक़्त बहुत ही कम हो उसके पास। या फिर उसे वक़्त से बहुत आगे जाना हो।
मेरी पहली दफ़ा बात उस से पाँच महीने पहले हुई थी। जब वो महीने का अख़बार का बिल लेकर एक इतवार के रोज़ घर पर आया था। उस दिन को मैं नहीं भूल सकता और उसके बाद के दिनों को भी नहीं। उससे दोस्ती जो हो चली थी। या फिर कहूँ की एक रिश्ता सा बन चला था। हर एक इतवार नईं-नईं कहानियाँ सुनने में बीतने लगा था। हर दिन इतवार का इंतज़ार रहने लगा था। मानो के एक अजनबी शहर में एक घर मिल गया हो मुझे।
***
ये सुबह सुबह की बात है। थोड़ी ज़्यादा ही सर्दी पड रही थी उस दिन। धूप का कोई नामो निशान नहीं था। ओस की बूंदों ने सड़कों को हल्का गीला बनाया हुआ था। जैसे कि बारिश हुई हो। मैं पास के ही एक पार्क से टहल कर घर लौटा था। पेट जो निकल गया था। उसको अंदर घुसाने की एक नाकाम सी कोशिश कर रहा था। पिछले दो महीनों से। मैं आकर के नहाया और सर्दी उतारने के लिए स्टव पे एक पतीला चढ़ा दिया। एक कप चाय बनाने के लिए। तभी किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी।
मेरे छोटे से कमरे के दरवाज़े पर कोई मुश्किल ही दस्तक देता था। क्योंकि मैं घर से दूर जाे रह रहा था। अपनी आइ. ए. एस. की परीक्षा की तैयारी के लिए। और शहर में मेरा कोई दोस्त भी अब तक नहीं बना था। हर कोई मतलबी सा जो नजर आता था। कोई जैसे मेरे मतलब का था ही नहीं। तो मन भी नहीं करता था किसी से घुलने मिलने का। और वक़्त भी नहीं था। जल्द से जल्द काबिल होकर माँ और पिताजी का हाथ भी तो बटाना था।
मैंने वो दाँतों से फाड़ी हुई दूध की थैली को दीवार के सहारे रखा और चल दिया। दूसरी बार दस्तक होने ही वाली थी के मैं दरवाज़ा खोल चुका था। सामने कपड़ों की कई परतों से लिपटा हुआ एक लड़का खड़ा था। वही गोल मटोल गालों वाला, केनवास के जूते पहने हुए लड़का।
"आप ही का नाम अजय भईया है?" उसने मुस्कुराते हुए पूछा। उसकी मोटी मोटी आँखें चमक रही थी। उसने अपने घुंघराले बालों को एक गरम मफलर से ढका हुआ था। सर्दी जो थी। उसके एक हाथ मे बिल बुक था और दूसरे में झोला। वही, सपनों वाला।
"हाँ" मैंने जवाब दिया तो उसने मुस्कुराकर फट से दूसरा सवाल दाग दिया।
"आप अपना बिल अभी देंगे?"
"कितना हुआ?" मैंने पूछा और अपना बटुआ उठाने अंदर चला गया। किचन में ही रह गया था बटुआ। मैं बाहर आने ही वाला था के देखा दूध की थैली फिसल कर नीचे गिर गई थी। दूध किचन के स्लैब से बून्द बून्द कर के गिर रहा था। मैंने थैली को उठा कर के बर्तन में रखा। पोछा का कपड़ा दूध सुखाने के लिए ज़मीन पर डाला और बटुआ लेकर बाहर आ गया।
"१३० रुपए" उसने मुस्कुरा कर बताया और झट से एक पेपर स्लिप पैड से फाड़ कर मेरे हाथ में थमा दी। वो शायद दूध को गिरता हुआ देख चुका था। सामने ही तो था किचन। उसकी मंद मंद मुस्कान यही इशारा कर रही थी।
"सुबह पेपर डालने आप ही आते हैं?" मैंने उसे सौ-सौ के दो नॉट थमाते हुए पूछ लिया। शायद ये प्रश्न उस दूध वाली शर्मनाक हरकत से उभरने के लिए भी था।
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हमने कलाम : कुछ उलटे पन्ने / Kalam: Kuch Ulte Panne PDF Book Free में डाउनलोड करने के लिए लिंक नीचे दिया है , जहाँ से आप आसानी से PDF अपने मोबाइल और कंप्यूटर में Save कर सकते है। इस क़िताब का साइज 2.4 MB है और कुल पेजों की संख्या 39 है। इस PDF की भाषा हिंदी है। इस पुस्तक के लेखक जे अल्केम / J. Alchem हैं। यह बिलकुल मुफ्त है और आपको इसे डाउनलोड करने के लिए कोई भी चार्ज नहीं देना होगा। यह किताब PDF में अच्छी quality में है जिससे आपको पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। आशा करते है कि आपको हमारी यह कोशिश पसंद आएगी और आप अपने परिवार और दोस्तों के साथ कलाम : कुछ उलटे पन्ने / Kalam: Kuch Ulte Panne को जरूर शेयर करेंगे। धन्यवाद।।Answer. जे अल्केम / J. Alchem
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