काल-चक्र: द टाइम मशीन / KaalChakra The Time Machine PDF Download Free Hindi Books by Ramesh Sharma

पुस्तक का विवरण (Description of Book of काल-चक्र: द टाइम मशीन / KaalChakra The Time Machine PDF Download) :-

नाम 📖काल-चक्र: द टाइम मशीन / KaalChakra The Time Machine PDF Download
लेखक 🖊️   रमेश शर्मा / Ramesh Sharma  
आकार 5.7 MB
कुल पृष्ठ263
भाषाHindi
श्रेणी,
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काल चक्र - THE TIME MACHINE

ये कहानी है एक लड़की आभा अरोड़ा की, जो अपने मंगेतर की मौत के बाद दिल्ली जैसे शहर को छोड़ कर अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करने के लिए वर्ष 2010 में देहरादून आती है। देहरादून में उसके साथ कुछ ऐसी घटनाएँ होती है जो उसकी समझ से बिल्कुल परे होती होती है। देहरादून में उसकी मुलाकात कुछ ऐसे लोगों से होती है, जिनका मानना था कि वो आभा से पहले भी देहरादून में ही मिल चुके है, जब कि आभा ने अपनी जिंदगी में पहली बार देहरादून में कदम रखा था।

कई जगहों को देख कर आभा को खुद ये अहसास होता है कि वो उन जगहों पर पहले भी आ चुकी थी। लेकिन किसी व्यक्ति को देख कर उसे ऐसा कोई आभास नहीं होता, जब तक कि वो महेश ओबेरॉय से नहीं मिलती। महेश ओबेरॉय को देख कर आभा को अजीब से अपने पन का अहसास होता है।

ये कहानी है फ़िज़िक्स के प्रोफ़ेसर महेश ओबेरॉय की, जिस की मंगेतर ज्योति सरीन की हत्या 1961 में उसी दिन हो जाती है, जिस दिन उन दोनों की शादी होने वाली होती है। लाख कोशिशों के बाद भी पुलिस ये पता नहीं लगा पाती कि ज्योति की हत्या आखिर किसने और क्यों की थी। ज्योति की हत्या एक रहस्य बन कर रह जाती है।

महेश ओबेरॉय ज्योति से दीवानगी की हद तक इतना प्यार करता है कि वो फिर से ज्योति से मिलने के लिए, उसकी जान बचाने के लिए एक टाइम मशीन का निर्माण करने में जुट जाता है।

ये कहानी है ज्योति सरीन नाम की लड़की की, जो महेश ओबेरॉय से बचपन से प्यार करती है। समय के साथ उनके प्यार को दोनों परिवारों की मंजूरी भी मिल जाती है। मगर ज्योति के भाग्य में सुख नहीं लिखा होता। महेश के साथ अपनी शादी के दिन ही उसकी रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो जाती है।
इस से अधिक यहाँ कुछ लिखना शायद इस अनोखी कहानी के साथ अन्याय होगा। जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती जाएगी, धुंध छंटती जाएगी और कई रहस्यों से पर्दा उठेगा, जो आप को चौंका देगा।

देहरादून की पृष्ठभूमि में लिखा गया ये उपन्यास जो आप का परिचय कराएगा 1961 और 2010 - 11 के देहरादून से। अनोखे विषय पर लिखा गया ये एक अनोखा, तेज गति और दिलचस्प उपन्यास है जो शुरू से ले कर अंत तक आप को बांधे रखेगा। इसे पढ़ना शुरू करने के बाद आप इसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ना चाहेंगे।

 

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पुस्तक का कुछ अंश

ये कहानी शुरू होती है भारत के हरे भरे और सुन्दर पहाड़ियों से घिरे नगर देहरादून से।
वो दिन 25 मई 1961 का दिन था। देहरादून भारत के उत्तर में स्थित एक अर्ध विकसित नगर था। अपने प्राकृतिक सौंदर्य के कारण वो सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र था। दिल्ली और हरिद्वार से देहरादून आने और वापस जाने के लिए दो लेन की रोड थी, जिसे हाइवे कहा जाता था।
देहरादून शहर से पहाड़ियों की तरफ जाने वाली एक सड़क का नाम पता नहीं क्यों, अमृतसर रोड़ था, जिसके रास्ते में एक प्राकृतिक झील पड़ती थी, जिसे बंधन झील कहा जाता था। बंधन झील पर 1939 में अंग्रेजों द्वारा एक लकड़ी का पुल बनाया गया था, जो अभी भी इस्तेमाल होता था।
बंधन झील अधिक गहरी तो नहीं थी, सिर्फ 25 फुट गहरी थी और गोलाई में ना हो कर लम्बाई में थी, इसी वजह से झील के उस पार जाने की सुविधा के लिए उस पुल का निर्माण करना जरूरी समझा गया था क्यों की झील लम्बाई में बनी थी।
झील के दोनों लम्बे किनारों पर छोटे छोटे कॉटेज बने हुए थे, जिन्हें केबिन कहा जाता था। अधिकतर केबिन देहरादून और उसके पड़ोसी, पर कदरन छोटे शहर राजनगर में रहने वालों के ही थे, जिन्होंने वहां ज़मीन खरीद कर वे कॉटेज बना लिए थे।
कुछ लोग तो वो केबिन बाहर से आये हुए सैलानियों को ठहरने के लिए, कुछ दिनों के लिए भाड़े पर देते थे और कुछ लोग उन केबिनों को छुट्टियाँ मनाने के लिए खुद ही इस्तेमाल करते थे और गर्मियों में झील में मछलियाँ पकड़ने का लुत्फ़ उठाते थे।
बंधन झील पर वो लकड़ी का पुल बनने के पहले झील के इस पार से उस पार जाना बहुत मुश्किल काम था क्यों की झील के बाकी दो किनारों पर पहाड़ियां और झरने थे। पहाड़ियां किसी दीवार की तरह सीधी थी, जिन पर चढ़ कर झील पार करना लगभग असंभव था। दोनों तरफ से सड़कें आ कर झील के किनारे समाप्त हो जाती थी।
पुल बनने के बाद देहरादून और झील के उस पार बने एक कदरन छोटे शहर राज नगर आना जाना बहुत आसान हो गया था। पहले जहाँ पहाड़ियों का लम्बा चक्कर लगा कर आना जाना पड़ता था, अब पुल बनने के बाद वो रास्ता सीधा और आसान हो गया था।
अमृतसर रोड़ और बंधन झील पर पुल बनने के बाद उस पहाड़ी इलाके में जहाँ आवाजाही बहुत मुश्किल थी, वो आसान हो गई थी। इसी वजह से उस इलाके के सब से बड़े कारखाने, जनरल मोटर्स के निर्माण का काम 1936 में शुरू हुआ था, 1940 आते आते वो कारखाना शुरू भी हो चुका था।
देहरादून में उत्तर दिशा में वहां का प्रसिद्ध कॉलेज, देहरादून कॉलेज था जहां अंग्रेजी, इंजीनियरिंग, नर्सिंग, कला और विज्ञान की पढाई होती थी। उस कॉलेज की स्थापना 1930 में हुई थी।
देहरादून एक ऐसा शहर था जहाँ लोग आपस में घुलमिल कर बड़े प्यार से रहते थे और लोगों के बीच पारिवारिक रिश्ते थे।
सूरज होटल नाम की एक छोटी सी होटल जनरल मोटर्स के कारखाने के पास ही थी, जहाँ कारखाने में काम करने वाले लोग दिन भर की कड़ी मेहनत बाद शाम को घर जाने से पहले कुछ पीने के लिए, खास कर शराब पीने के लिए थोड़ी देर वहां बैठ जाया करते थे।
उस शाम सूरज होटल के एक केबिन में महेश ओबेरॉय अकेला बैठा था। महेश एक 27 वर्षीय खूबसूरत नौजवान था जिसके बाल काले और आँखें नीली थी। देखने में वो किसी फ़िल्मी हीरो से कम नहीं था और हमेशा ही सज धज कर रहता था। महेश ओबेरॉय देहरादून कॉलेज में फ़िज़िक्स का प्रोफ़ेसर था।
हमेशा खुश और तरोताजा रहने वाला महेश काफी उदास नजर आ रहा था। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी और लगता था कि वो कई दिनों से ठीक से सो भी नहीं पाया था। उसने एक नजर टेबल पर पड़े समाचार पत्र ‘देहरादून टाइम्स’ पर डाली। अख़बार के पास ही चार खाली गिलास पड़े थे। मतलब वो तब तक चार पेग पी चुका था और पांचवां पेग उसके सामने था।[adinserter block="1"]

उसके पांचवें पेग के पास ही उसका सिगरेट का पैकेट और लाइटर रखा था। सामने एक एशट्रे पड़ी थी जिसमे पांच बुझी हुई सिगरेट के टुकड़े मसले पड़े थे। महेश ने अपना गिलास उठाया और एक घूँट भरा। गिलास नीचे रख कर वो उस अख़बार में छपी खबर पढ़ने लगा।
खबर का शीर्षक था,
“एक स्थानीय लड़की की अपनी गाड़ी सहित बंधन झील में गिरने से मौत।”
खबर के साथ ही एक 27 साल की एक खूबसूरत लड़की की तस्वीर भी छपी थी। वो तस्वीर ज्योति सरीन की थी, जो महेश ओबेरॉय की मंगेतर थी। ज्योति के बाल हल्का भूरापन लिए हुए काले थे और वो नजर का चश्मा लगाए हुए थी। चश्मे के पीछे उसकी आँखें चमक रही थी और उसके होठों पर एक मन मोहक मुस्कान थी। वो बहुत खूबसूरत लड़की थी।
ज्योति की तस्वीर देखते देखते महेश की आँखों में आँसू छलछला आये। उसने अपने हाथ में पकड़ी सिगरेट एशट्रे में मसली और अपने आंसू पोंछे।
तभी एक हाथ में एक जलती हुई सिगरेट थामे, काले रंग का जैकेट, सफ़ेद शर्ट और दूसरे हाथ में अपना हैट थामे करण मल्होत्रा ने उस केबिन में प्रवेश किया जहाँ महेश अकेला बैठा था।
करण एक 27 साल का, बिलकुल भी सुन्दर नहीं दिखने वाला, मुहांसों चेहरे वाला आदमी था, जिस के सर बाल थोड़ा थोड़ा उड़ना शुरू हो चुके थे। करण महेश का बचपन का मित्र था। करण के चेहरे पर घाव के दो निशान थे। एक उसके ललाट पर और एक उसके गाल पर। उसके ललाट पर लगा घाव ताज़ा लग रहा था। करण एक पुलिस इंस्पेक्टर था।
करण ने वहां अकेले बैठ कर शराब पीते महेश को ध्यान से देखा और उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए बोला,
“तो आज के बाद तुम्हारा इरादा हमेशा यहाँ सूरज होटल में ही रहने का है क्या?” और एक आखिरी कश ले कर उसने अपनी सिगरेट टेबल पर रखे एशट्रे में बुझा दी।
“शायद।” अखबार पर अपनी नज़रें जमाये हुए महेश ने जवाब दिया।
“पहले तो तुम यहाँ बहुत कम आते थे? मेरे बुलाने पर भी नहीं आते थे?” करण बोला और तभी उसकी नजर अख़बार में छपी उस खबर पर पड़ी, जिसे महेश बार बार पढ़ रहा था।
“आप के लिए क्या लाऊँ करण सर? आप का वही पसंदीदा या कुछ और?” वेटर ने केबिन के दरवाजे पर खड़े खड़े करण से पूछा।
“वही लाओ यार।” करण बोला और वेटर सर हिला कर चला गया। फिर वो महेश की तरफ मुड़ कर बोला,
“देखो महेश, मुझे पता है कि तुम्हें ज्योति की कमी बहुत खल रही है। मुझे भी उसकी कमी महसूस होती है। पर सच्चाई ये है कि वो हमें छोड़ कर जा चुकी है। तुम्हारे इस तरह दुःखी होने से और तुम्हारे इस तरह शराब पीने से वो वापस नहीं आ जाने वाली। तुम चिंता क्यों करते हो, मैं उसकी मौत की पूरी छानबीन करूँगा और सच का पता लगाऊंगा।”
लेकिन ऐसा कहीं से भी नहीं लगा कि उसकी बात का कोई असर महेश पर हुआ हो। वो चुपचाप बैठा रहा, और फिर उसने अपना हाथ टेबल पर रखे सिगरेट के पैकेट की तरफ बढ़ाया और उस में से एक सिगरेट निकाल कर अपने होठों से लगाई। अपने लाइटर से उसने सिगरेट जलाई।
“तुम ने ये सिगरेट कब से पीना शुरू कर दिया?”
महेश ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने इस तरह सिगरेट का कश लिया जैसे उसने करण की बात सुनी ही नहीं थी। तभी वेटर करण के ऑर्डर का ड्रिंक ले कर आया और उसने करण के सामने गिलास रखा।[adinserter block="1"]

“कौन हो सकता है वो जिसने ज्योति पर गोली चलाई और फिर उसकी कार बेकाबू हो कर ब्रिज की रेलिंग तोड़ती हुई नीचे झील में गिर गई? कार का पिछले हिस्सा पिचका हुआ था जैसे उसकी कार को किसी ने पीछे से टक्कर मारी थी। कौन करेगा ऐसा घिनौना काम? ज्योति की तो किसी से कोई दुश्मनी भी नहीं थी? सब उस से प्यार ही करते थे। वो मेरी जिंदगी थी, उसके साथ ही मेरा भी सब कुछ ख़तम हो गया।” महेश धीरे से बोला।
उसने अपना सर उठा कर करण की तरफ देखा, तो उसकी आँखों में आंसू भरे थे जो छलक कर उसके गालों पर बहने लगे थे।
“मैं जानता हूँ महेश, मैं तुम्हारी बात समझ रहा हूँ महेश।” करण बोला और उसने अपने गिलास से एक घूँट भरा।
”और मुझे ये समझ में नहीं आ रहा है कि इतनी रात को वो कार ले कर वहां क्या करने गई थी? मुझे इसका कोई कारण समझ में नहीं आ रहा है। सुबह तो हमारी शादी होने वाली थी।”
“ये तो मुझे भी अभी तक पता नहीं चला है है महेश। मैं तो तुम्हारी बेचलर पार्टी ख़तम हो जाने के बाद रात भर तुम्हारे साथ तुम्हारे केबिन में ही था। ज्योति के घर पर भी तो उस रात पार्टी थी। मैं उसकी सभी सहेलियों से पूछताछ कर चुका हूँ। सभी ने बताया कि वे ज्योति को सही सलामत और खुश छोड़ कर अपने अपने घर गई थी। फिर ज्योति घर से क्यों निकली? क्या वो तुम्हारे पास आ रही थी? मगर क्यों? ये पहेली सुलझ नहीं रही है।” इसके साथ ही करण ने एक और घूँट लिया।
“वो डूब कर मर गई? वो तो पानी के पास जाने से ही घबराती थी।”
कारण सोच पूर्ण मुद्रा में अपना सर हिलाने लगा। अचानक महेश ने अपना सर उठाया और करण के ललाट पर लगे घाव की तरफ देखते हुए बोला,
“ये तुम्हारे माथे पर चोट कैसे लग गई?”
“बताया तो था, तुम्हारी पार्टी में अधिक शराब पी कर रात को बाथरूम जाते समय गिर गया था।” करण जल्दी से बोला।
अचानक ही करण कुछ चिंतित नजर आने लगा और कुछ सोचते हुए उसने फिर से एक घूँट भरा।
“देहरादून बहुत शांतिपूर्ण जगह है। इस तरह की घटना या अपराध का यहाँ होना आम बात नहीं है। मैंने अपनी अब तक जिंदगी में यहाँ किसी का खून हो जाना बहुत कम देखा और सुना है।” महेश बोला और उसने उत्तर की अपेक्षा में करण की तरफ देखा।
“महेश, जैसा कि मैंने कहा है, खूनी को पकड़ने के लिए मैं अपनी पूरी ताकत लगा दूँगा। मैं वादा करता हूँ कि ज्योति का हत्यारा जल्दी ही हमारी गिरफ़्त में होगा।” करण दृढ़ स्वर में बोला।
“धन्यवाद।” महेश ने कहा और उसने टेबल पर पड़े अख़बार को उल्टा रख दिया, जिसमे ज्योति की तस्वीर छपी थी।
करण ने ऐसा दर्शाया मानो उसने महेश को अखबार उल्टा करते हुए नहीं देखा था। वो चुपचाप बैठा सिगरेट के कश लगाते रहा। सिगरेट ख़तम होने के बाद उसने उसे टेबल पर पड़े एशट्रे में बुझाया और अपने गिलास में बची हुई थोड़ी सी शराब का एक बड़ा घूँट भर कर गिलास खाली कर दिया।
फिर उसने इशारे से वेटर को बुलाया। वेटर तुरंत हाज़िर हुआ।
“मेरे ड्रिंक के साथ ही महेश के ड्रिंक भी मेरे खाते में लिख लो।”
“ठीक है सर।” वेटर ने कहा और सर झुका कर वापस चला गया।[adinserter block="1"]

“अच्छा होगा, अगर अब तुम भी घर जाओ। मैं नहीं चाहता कि तुम यहाँ बैठे पीते रहो और बाद में हमें किसी नाली में पड़े मिलो।” करण ने महेश से कहा।
महेश ने टेबल पर पड़ा अख़बार उठाया और खड़ा हो गया। दोनों साथ साथ चलते हुए होटल से बाहर आ गए। महेश अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ा तो करण बोला,
“मैं तुम्हारे पीछे पीछे आ रहा हूँ क्यों कि तुम ने बहुत पी रखी है। मैं चाहता हूँ कि तुम सकुशल अपने घर पहुँच जाओ।”
“मैं ठीक हूँ। तुम चिंता मत करो। इतना नशा नहीं हुआ है कि गाड़ी ठीक से ना चला पाऊँ। क्या तुम ने मुझे जरा भी लड़खड़ाते हुए देखा है?”
“मैं जानता हूँ कि तुम नशे में नहीं हो। अगर तुम नशे होते, और जरा भी लड़खड़ाते, तो मैं तुम्हें गाड़ी ही नहीं चलाने देता।” करण मुस्कराते हुए बोला। “मुझे कोई परेशानी नहीं है। मुझे भी उसी तरफ ही जाना है।” और करण अपनी गाड़ी में सवार हो गया, जो उसे पुलिस इंस्पेक्टर होने के नाते सरकार से मिली थी।
महेश बहुत अच्छी तरह से गाड़ी चला रहा था और करण उसके पीछे पीछे महेश के घर तक पहुंचा। महेश उतर कर अपने घर चला गया, मगर करण अपनी गाड़ी में ही बैठा रहा। स्टैरिंग पर रखे उसके हाथों में जरा सा कंपन हुआ और उसकी नज़रें उस सफ़ेद घर पर पड़ी, जो महेश के घर के लेफ्ट साइड में था। ये वो घर था, जहाँ ज्योति सरीन रहती थी।
करण ने अपनी जैकट की जेब से एक चपटा सा फ़्लास्क निकाला जो शराब रखने के काम आता है। फ़्लास्क खाली था। करण ने गाड़ी की सीट के नीचे हाथ डाला और वहां से एक शराब की बोतल निकाली। उसने उस में से एक बड़ा सा घूँट लिया और बोतल वापस अपनी जगह पर रखने की बजाय अपने हाथ में ही रखी। उसने कार स्टार्ट की, उसको बैक किया और वहां से रवाना हो गया।
करण गाड़ी चलाता हुआ अपने घर की तरफ जा रहा था। बीच बीच में वो बोतल से शराब के घूँट भर रहा था। वो थोड़ा चिंतित लग रहा था, और थोड़ा नर्वस भी। उस समय सड़क पर कोई भीड़ भाड़ नहीं थी और वो बिना किसी रुकावट के अपने घर की तरफ बढ़ता चला गया।
01
उपरोक्त घटना को 49 साल बीत चुके थे और उस दिन 4 मई 2010, मंगलवार का दिन था और जगह थी हरिद्वार। सुबह का समय था और वो एक बहुत खूबसूरत दिन था।
दिल्ली की नंबर प्लेट वाली एक कार हरिद्वार से निकली और देहरादून जाने वाले हाइवे पर दौड़ रही थी। हाइवे से सीधा देहरादून तक पहुँचने का रास्ता थोड़ा लम्बा था, पर देहरादून से चालीस किलोमीटर पहले एक पतली सड़क पड़ती थी जिसे अमृतसर रोड के नाम से जाना जाता था और देहरादून जाने के लिए वो एक शॉर्ट कट था। इस सड़क से देहरादून मात्र बाईस किलोमीटर की दूरी पर पड़ता था।
शाम होने में ज्यादा वक्त नहीं था जब वो कार अमृतसर रोड़ पर मुड़ी।
उस कार को 26 वर्षीय खूबसूरत लड़की, जिसका नाम आभा अरोड़ा था, चला रही थी।
आभा बहुत खूबसूरत युवती थी। लम्बा कद, कंधे तक आते घने काले बाल, बड़ी बड़ी खूबसूरत आँखें और उसने ऊपर के होंठ पर एक तिल था, जो उसकी ख़ूबसूरती में चार चाँद लगा रहा था। उसने कोई मेकअप नहीं किया हुआ था। उसे मेकअप करने की कोई जरूरत ही नहीं थी, क्यों कि अपने प्राकृतिक सौंदर्य की वजह से वो बिना मेकअप के ही बहुत खूबसूरत लगती थी।
कार में वो अकेली थी, उसके साथ कोई नहीं था और कार की पिछली सीट पर तीन बड़े बड़े कार्ड बोर्ड के बॉक्स, जो टेप लगा कर पैक किये गए थे, रखे थे। कार की डिक्की में भी वैसे ही दो और बॉक्स और एक बड़ा सूट-केस रखा हुआ था। [adinserter block="1"]

उन सभी पांच कार्ड बोर्ड के बॉक्स में उसका सामान था और सूट-केस में उसके कपड़े, जो दिल्ली में रहते हुए उसकी मालकियत थी।
जब उसकी कार अमृतसर रोड़ पर दौड़ रही थी, तब वो नजर आ रही खूबसूरत पहाड़ियों और पहाड़ी सड़क का आनंद लेने लगी। वो सोच रही थी कि दिल्ली जैसी भीड़ भाड़ और रूखे शहर से देहरादून जैसे प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर पहाड़ी इलाके में आना उसके लिए बहुत अच्छा रहेगा।
उसने कार में लगा रेडियो चालू किया और उसके साथ साथ गुनगुनाने लगी। कार चलाते हुए, बाहर नजर आ रहे प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने के साथ साथ वो संगीत का भी लुत्फ़ उठाने लगी।
हाइवे से देहरादून की तरफ जाती अमृतसर रोड़ पर ड्राइव करती हुई वो बंधन झील पर कंक्रीट से बने चार लेन के पक्के पुल से थोड़ी ही दूर थी, तो उसे सड़क से झील के दोनों तरफ जाती एक एक पतली सड़क दिखाई दी। कंक्रीट का पुल झील के बीचों बीच बना था।
मैन रोड़ के दोनों तरफ जो पतली सड़कें थी, उन पर कुछ छोटे, तो कुछ बड़े कॉटेज बने हुए थे। पुल पर चढ़ने से पहले उसकी नजर पुल के दाहिनी तरफ लगे एक बड़े से बोर्ड पर पड़ी, जिस पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था, “बंधन झील पर आप का स्वागत है।”
उस बोर्ड पुल पर उसने अपनी गाड़ी की रफ़्तार थोड़ी धीमी की ताकि वो बंधन झील को ध्यान से देख सके। नीले पानी से भरी, लम्बाई में फैली बंधन झील बहुत आकर्षक लग रही थी।
बंधन झील पर बना पुल पार कर के वो फिर से सड़क पर आई, तो थोड़ी ही दूर पर उसने अपने दोनों तरफ फिर से वैसी ही पतली सड़कें देखी, जो उसने पुल पर चढ़ने से पहले देखी थी। उसे एक कच्चा रास्ता भी नजर आया जो बंधन झील के किनारे की तरफ जाता था। उसने अंदाजा लगाया कि वो कच्चा रास्ता शायद उन लोगों के लिए था, जो झील में तैरने का आनंद लेना चाहते थे।
उस पहाड़ी इलाके का अब तक का सफर बहुत सुखदाई रहा था और उस इलाके में आ कर उसे बहुत आनंद आया था। उसे पूरी उम्मीद हो गई थी कि यहाँ उसका मन अच्छे से लग जायेगा।
बंधन झील के बाद दस मिनट और ड्राइव करने के बाद वो देहरादून शहर के बहुत नज़दीक पहुँच चुकी थी। उसे शहर नजर आने लगा था।
जिस अमृतसर रोड़ पर आभा ड्राइव कर रही थी, वो सड़क आगे जा कर दाएँ मुड़ती थी और सीधी देहरादून शहर की तरफ जाती थी। सड़क के उस मोड़ से ठीक पहले एक रेस्टोरेंट था, जिस पर बड़ा सा बोर्ड लगा था, ‘बंधन रेस्टोरेंट।’
रेस्टोरेंट खुला हुआ था और आभा को वो जगह खाने के लिए वो बहुत अच्छी लगी। उसे भूख भी लग रही थी और उसने सोचा कि क्यों ना वहां रुक कर कुछ खा लिया जाय।
उसने अपनी गाड़ी का रुख रेस्टोरेंट के बड़े से गेट की तरफ किया और वहीं गेट के पास ही, अंदर अपनी गाड़ी पार्क की। वो गाड़ी से बाहर आई और गाड़ी को लॉक किया। कुछ देर वहीँ खड़ी रह कर और थोड़ी सी चहलकदमी कर के उसने पैरों में जान लाने की कोशिश की जो इतनी देर तक बैठे रहने की वजह से कुछ थक से गए थे।
उसने अपने आसपास नजर दौड़ाई। वहां कुछ और गाड़ियाँ और दुपहिए वाहन भी पार्क थे। आभा ने अंदाजा लगाया कि कुछ लोग रेस्टोरेंट में जरूर मौजूद थे, पर ज्यादा अंदर भीड़ नहीं थी। काफी साफ़ सुथरा रेस्टोरेंट था वो।
धीरे धीरे चलते हुए वो रेस्टोरेंट के अंदर पहुंची। सही अंदाजा था उसका। वहां ज्यादा भीड़ नहीं थी। कुल जमा पंद्रह बीस लोग होंगे वहां जो खाने का आनंद लेने के साथ साथ ही बातें भी कर रहे थे। उनमे से अधिकतर जोड़े ही थे।[adinserter block="1"]

आभा सीधी वाशरूम की तरफ गई और उसने अपना मुंह धोया और उसके बाद वो एक खाली टेबल पर बैठ गई। उसने मेनू देखा और अपने लिए कुछ हल्का खाने का ऑर्डर दिया। जल्द ही उसका ऑर्डर सर्व हुआ। खाना स्वादिष्ट था।
खाना ख़तम कर के उसने पेमेंट किया और बाहर निकलते समय उसने रिसेप्शन पर रुक कर रहने के लिए किसी अच्छे और सस्ते होटल के बारे में पूछा। उसे पता चला कि एक किलोमीटर आगे, देहरादून शहर में प्रवेश करने से बिलकुल पहले ‘हॉलिडे इन’ नाम का एक अच्छा होटल था।
आभा ने अपनी गाड़ी स्टार्ट की और शहर की ओर चल दी। उसे दूर से ही ‘हॉलिडे इन’ का बोर्ड नजर आ गया था। उसने गाड़ी हॉलिडे इन की पार्किंग में खड़ी की। गाड़ी से सामान निकालने के लिए तुरंत होटल की वर्दी पहने एक आदमी हाज़िर हुआ। आभा ने उसे अपना सूटकेस और सब कार्डबोर्ड बॉक्स निकालने का आदेश दिया।
आभा को लम्बे समय तक सस्ते दाम में रहने वाली होटल की स्कीम के अंतर्गत होटल की सब से ऊपर वाली मंजिल पर रूम मिला। वेटर उसका सूटकेस रूम में पहुंचा गया था।
होटल का कमरा साफ़ सुथरा, अच्छा खासा और काफी बड़ा था। कमरे के बीचों बीच बड़ा सा बेड था। बेड देखते ही आभा को अचानक थकान सी महसूस होने लगी। उसने कार से दिल्ली से देहरादून तक का सफर तय किया था। रास्ते में रात को वो हरिद्वार में ही रुकी थी।
उसने अपने आप को बेड पर गिरा दिया और अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया। कुछ ही देर बाद वो गहरी नींद में थी और जब उसकी आँख खुली, तो बुधवार, 5 मई 2010 की सुबह थी। आभा ने घड़ी में समय देखा, सुबह के साढ़े आठ बजे थे।
वो काफी देर तक सोइ थी, मगर जब उठी, तो एकदम तरोताज़ा थी। वो बिस्तर से नीचे उतरी और बाथरूम की तरफ चल दी। आधे घंटे बाद जब वो बाथरूम से निकली तो नहा धो कर निकली थी और तैयार होने लगी। अगले पंद्रह मिनट में वो तैयार हो गई थी।
आभा रूम की खिड़की की तरफ गई और उसने खिड़की का पर्दा उठा कर बाहर झाँका। बाहर देहरादून शहर नजर आ रहा था। क्यों कि वो होटल की सब से ऊपरी मंजिल के कमरे में थी, इसलिए उसे दूर तक उस खूबसूरत शहर के दर्शन हुए।
‘बहुत खूबसूरत जगह है।’ उसने अपने आप से कहा और फिर से खिड़की पर पर्दा लगा दिया। वो पलटी और अपने सूटकेस के पास आई। सूटकेस से उसने एक काले रंग का चमड़ा मढ़ा फोल्डर और अपना पर्स निकाला और सूटकेस वापस बंद कर दिया। उसने टेबल पर से अपनी गाड़ी की चाबी उठाई और कमरे से बाहर आ गई।
पंद्रह मिनट बाद आभा देहरादून की एक पहाड़ी पर स्थित छोटे से, लेकिन एक प्रसिद्ध रेस्टोरेंट में बैठी अपना नाश्ता कर रही थी। ये रेस्टोरेंट एक पहाड़ी पर, बादलों के बहुत करीब नजर आने वाली जगह पर बना था।
खास बात ये थी कि इस रेस्टोरेंट को बनाने में पुराने ट्रेन के डिब्बों का इस्तेमाल किया गया था। बाहर से देखने से ऐसा लगता था मानो कोई ट्रेन खड़ी हो। ट्रेन के डिब्बे की बड़ी खिड़की से आभा को देहरादून की प्रसिद्ध और सब से पुरानी कॉलेज, देहरादून कॉलेज साफ़ दिखाई दे रही थी, जो वहां उसकी मंजिल थी।
उस कॉलेज को देखते हुए आभा को एक अजीब सी अनुभूति हुई जिसे वो समझ नहीं पाई और उसने अपना ध्यान नाश्ते में लगाया। उसे लग रहा था मानो वो उस कॉलेज से परिचित है, मगर उस दिन से पहले उसने उस कॉलेज को पहले कभी नहीं देखा था। वास्तव में वो देहरादून ही पहली बार आई थी।
करीब आधे घंटे बाद आभा उसी कॉलेज के विज्ञान विभाग में डॉक्टर ब्रह्मा के सामने बैठी हुई थी। डॉक्टर प्रताप ब्रह्मा करीब 82 साल के बुजुर्ग थे। उनकी आँखों पर पतली डंडियों वाला मोटे ग्लास का नजर का चश्मा था और दुबले पतले शरीर के मालिक डॉक्टर के बाल बर्फ की तरह सफ़ेद थे। हमेशा की तरह डॉक्टर ब्रह्मा ने भूरे रंग का कोट पहन रखा था, जिस की दोनों कोहनियों पर भूरे रंग के ही चमड़े के पैबंद लगा था।[adinserter block="1"]

आभा के सामने, अपनी जानी पहचानी चमड़ा मढ़ी कुर्सी पर बैठे डॉक्टर ब्रह्मा आभा का बायो डाटा ध्यान से पढ़ रहे थे। आभा का बायो डाटा और उसके एक एक प्रमाण-पत्र को डॉक्टर ब्रह्मा ने बड़े ध्यान से देखा और फिर आभा का फोल्डर टेबल पर रखा और आभा की ओर बड़ी खोजी नजरों से देखा।
आभा को डॉक्टर ब्रह्मा की नज़रें अपनी आँखों में गड़ती हुई सी महसूस हुई और वो मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगी। डॉक्टर की आँखों में इतने सालों का अनुभव और बहुत तेज सा था।
“तुम्हारा बायो डाटा और तुम्हारे सर्टिफिकेट्स ने मुझे काफी प्रभावित किया है। लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है, वो ये कि तुम अपनी दिल्ली की नौकरी छोड़ कर यहाँ, देहरादून क्यों आना चाहती हो? दिल्ली बड़ा और विकसित शहर है और देहरादून तो उसके सामने गांव जैसा है। ठंड तो दिल्ली में भी काफी पड़ती है, मगर यहाँ देहरादून में तो बर्फ भी पड़ती है।” डॉक्टर ब्रह्मा ने सीधा सवाल किया।
डॉक्टर का सवाल जैसे आभा के दिल पर लगा और वो थोड़ी उदास हो गई। आभा ने एक लंबी सांस ली, अपने आप को संतुलित किया और जवाब दिया,
“बात ये है सर कि दिल्ली में पिछले साल मेरे मंगेतर का क़त्ल हो गया था। वो भी मेरे साथ उसी हॉस्पिटल में काम करता था। उसका क़त्ल होने के बाद से ही मेरा दिल दिल्ली से उचट गया था और तभी से मैं दिल्ली से दूर किसी दूसरी नौकरी की तलाश में थी। तभी मैंने यहाँ का विज्ञापन देखा और इस नौकरी के लिए ऑन लाइन अप्लाई कर दिया। पता नहीं क्यों, पर तभी से मैं यहाँ आने के लिए बेचैन थी।”
डॉक्टर ब्रह्मा को लगा जैसे आभा के शब्द उसके दिल निकल रहे थे। वो आभा से बहुत प्रभावित हुए।
“मुझे तुम्हारे तुम्हारे मंगेतर की असामयिक और दुःखद मौत पर अफ़सोस और दुःख है मिस आभा।” डॉक्टर ब्रह्मा ने कहा और फिर से आभा के बायो डाटा पर नजर डाली और उसे ध्यान से पढ़ा।
उन्होंने अपने सीधे हाथ की ऊँगली आभा के बायो डाटा पर एक जगह रखी और आभा की तरफ बहुत ध्यान से देखा।
आभा के दिल में हलचल सी मचने लगी थी, क्यों कि उसे पूरी उम्मीद थी कि उसे यहाँ नौकरी जरूर मिल जाएगी और उसी उम्मीद के भरोसे वो दिल्ली में अपनी अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर यहाँ, इतनी दूर देहरादून आई थी।
“क्या तुम कभी देहरादून में पहले रह चुकी हो?”
“नहीं सर, मैं यहाँ पहली बार आई हूँ।”
“कितनी अजीब बात है। मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि मैं तुम से पहले भी मिल चुका हूँ।” डॉक्टर ने शून्य में देखते हुए कहा।
“नहीं सर, हम पहले कभी नहीं मिले। मैं तो कल रात ही यहाँ पहली बार पहुंची हूँ।” आभा ने अपनी बात दोहराई।
लेकिन डॉक्टर ब्रह्मा की ये बात आभा को कुछ अजीब सी लगी। डॉक्टर ब्रह्मा जैसा विद्वान आदमी कोई बात ऐसे ही नहीं कह देता। आभा थोड़ी नर्वस सी हो गई और उसके ललाट पर हल्का सा पसीना छलक आया था।
डॉक्टर ब्रह्मा ने फिर एक बार उसके बायो डाटा पर नजर फिराई, नजर उठा कर एक बार आभा की तरफ देखा और फिर मुस्कुराते हुए बोले,
“मैं देहरादून कॉलेज में तुम्हारा स्वागत करता हूँ मिस आभा। अगर तुम चाहो तो यहाँ कल से ही काम करना शुरू कर दो तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा। मुझे भी तुम्हारी जैसी सहायक की यहाँ तुरंत जरूरत है। तुम से पहले जो लड़की मेरे पास काम करती थी, वो कुछ दिनों पहले ही नौकरी छोड़ कर जा चुकी है क्यों कि उसके पति का कहीं और ट्रांसफर हो गया है। इसीलिए हम ने अख़बार में विज्ञापन दिया था।”[adinserter block="1"]
“थैंक यू सर। मैं कल से ही काम पर आ जाउंगी।”
“इस पोस्ट के लिए बहुत सारी ऑनलाइन ऍप्लिकेशन्स आई थी। मगर तुम्हारी एप्लीकेशन ने मुझे बहुत प्रभावित किया था, इसलिए सिर्फ तुम्हें ही रूबरू इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है।”
आभा एक बार फिर आँखों ही आँखों से एक बार फिर डॉक्टर ब्रह्मा का शुक्रिया अदा किया।
“ठीक है तो फिर। मेरी तरफ से नई नौकरी की बधाई कबूल करो।” कहते हुए डॉक्टर ने बैठे बैठे ही अपना हाथ आभा की तरफ बढ़ाया।
“थैंक यू सर कि आप ने मुझे अपने साथ काम करने का मौका दिया। मैं आप को कभी निराश नहीं करुँगी और कभी भी शिकायत का मौका नहीं दूंगी।” आभा ने खड़े हो कर डॉक्टर ब्रह्मा से हाथ मिलाते हुए कहा।
“आओ, मैं तुम्हें दरवाजे तक छोड़ दूँ।” कहते हुए डॉक्टर खड़े हुए और उन्होंने आभा का फोल्डर उसको सौंपा।
“आप तकलीफ़ मत करिये सर।”
“नहीं, कोई बात नहीं। मुझे अच्छा लगेगा।” डॉक्टर ने कहा और आभा के साथ चलते हुए अपने ऑफ़िस के दरवाजे तक आये।
अपने ऑफ़िस के दरवाजे पर आ कर डॉक्टर ब्रह्मा ठिठके और बोले,
“मेरे ख़याल से अभी तुम यहाँ हो तो तुम्हें हमारे मानव संसाधन डिपार्टमेंट में जा कर कुछ जरूरी फार्म भर कर औपचारिकता पूरी कर लेनी चाहिए ताकि कल तुम्हें वहां ना जाना पड़े और कल तुम सीधी अपनी सीट पर आ जाओ। अरे हाँ, तुम्हारी सीट मेरे ऑफ़िस के ठीक बगल वाले कमरे में है।” डॉक्टर ने अपने ऑफ़िस से बाहर आते हुए कमरे की तरफ इशारा कर के बताया।
आभा ने सहमति में सर हिलाया।
“हमारा कॉलेज काफी बड़ा है और बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। यहाँ से दायीं तरफ जो तीसरी बिल्डिंग है, उसी में मानव संसाधन डिपार्टमेंट का ऑफ़िस है।” डॉक्टर ने इशारा कर के आभा को बिल्डिंग दिखाई। “मैं वहां फोन कर देता हूँ और मेल भी भेज देता हूँ कि ये नौकरी तुम को दे दी गई है।”
“धन्यवाद सर।”
“मैं यहाँ सुबह साढ़े सात बजे आ कर अपना काम शुरू कर देता हूँ।”
“मैं समय से पहले ही पहुंच जाउंगी सर।”
डॉक्टर ब्रह्मा से आभा ने फिर एक बार हाथ मिलाया और डॉक्टर की बताई हुई बिल्डिंग की तरफ बढ़ गई।
‘मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैं जरूर इस से मिला हूँ और मैं इसको जानता हूँ?’ अपने ऑफ़िस में अपनी कुर्सी की तरफ बढ़ते हुए डॉक्टर ब्रह्मा बड़बड़ाये।
उधर आभा टहलती हुई उस बिल्डिंग में पहुंची, जहां मानव संसाधन डिपार्टमेंट का ऑफ़िस था।
“क्या सहायता कर सकता हूँ मैं आप की? वहां एक डेस्क के पीछे बैठे हुए सफ़ेद बालों वाले, 76 वर्षीय मदन वालिया ने आभा से पूछा।
“मेरा नाम आभा अरोड़ा है। मुझे यहाँ डॉक्टर ब्रह्मा ने भेजा है। उन्होंने मुझे कहा है कि यहाँ मुझे कुछ कागजी कार्यवाही करनी होगी। मुझे उन्होंने नौकरी पर रखा है।” आभा ने संयत स्वर में अपना मकसद बताया।
“हाँ मिस आभा, उन्होंने अभी मुझे फोन किया है और ईमेल भी भेजी है।” मदन वालिया ने कहा और एक खाली टेबल की ओर संकेत करता हुआ बोला, “आप वहां बैठिये प्लीज।”
आभा बताई गई टेबल की तरफ बढ़ी और वहां कुर्सी पर बैठ गई। टेबल पर एक कम्प्यूटर और एक प्रिंटर रखा हुआ था। तभी मदन वालिया उसके पास पहुंचा। उसके हाथ में एक फोल्डर था। उसने आभा को वो फोल्डर देते हुए कहा,[adinserter block="1"]

“इस फोल्डर में इस कॉलेज की नियमावली और यहाँ आप को मिलने वाले सभी फ़ायदों की जानकारी है। आप ये कम्प्यूटर ऑन कीजिये। इसमें एक फोल्डर है ‘नई नौकरी आवेदन’, उस फोल्डर में आप को नौकरी के लिए एक फॉर्म मिलेगा और उसके साथ ही कुछ दूसरे फॉर्म मिलेंगे, जो आप को भरने हैं। सभी फार्म भरने के बाद आप उनका प्रिंट आउट लेकर, उन पर साइन कर के मुझे दे दीजिये।”
“थैंक यू।” आभा ने कंप्यूटर ऑन करते हुए और फिर मदन वालिया की तरफ देखते हुए कहा।
मदन वालिया ने पहली बार आभा के चेहरे की तरफ पहली बार ध्यान से देखा। पहले उसकी आँखें कुछ सिकुड़ी, जैसे वो कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था और फिर उसकी आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गई। आभा का ध्यान कम्प्यूटर पर था, इसलिए वो मदन वालिया के चेहरे पर हो रहे उस परिवर्तन को नहीं देख पाई।
मदन वालिया सोच में डूबा अपनी सीट की तरफ बढ़ गया और आभा ने कम्प्यूटर पर बताया हुआ फोल्डर खोला और उसमे मौजूद सभी फार्म को एक एक कर के पढ़ने लगी।
मदन वालिया अपनी सीट पर बैठा हुआ सोच रहा था कि उसने आज से पहले आभा को कब देखा था? उसे आभा का चेहरा कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था। मगर वो कुछ याद नहीं कर पा रहा था।
आभा कम्प्यूटर के सामने बैठी थी और उसकी उँगलियाँ की बोर्ड पर चल रही थी। एक एक कर के वो फार्म भरती चली गई और करीब एक घंटे बाद वो सभी फॉर्मों का प्रिंट आउट ले कर, उन पर साइन कर के फिर से मदन वालिया की टेबल पर पहुंची।
मदन वालिया ने फिर से एक बार आभा का चेहरा ध्यान से देखा और फिर आभा के भरे हुए फार्म देखने लगा। उसके आधे घंटे बाद जब आभा वहां से निकली तो उसके गले में देहरादून कॉलेज की कर्मचारी होने का बैज लटका हुआ था। धीरे धीरे चलती हुई वो वहां पार्क की गई अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ने लगी।
ना जाने क्यों आभा को वो कॉलेज कैम्पस जाना पहचाना सा लग रहा था, जब कि वो वहां पहली बार आई थी। उसे याद आया कि नाश्ता करते हुए जब पहली बार उसने कॉलेज कैम्पस देखा था, तब भी उसे ये जाना पहचाना सा लगा था। फिर उसे याद आया डॉक्टर ब्रह्मा ने जो कहा था, ‘क्या तुम कभी देहरादून में पहले रह चुकी हो’, ‘कितनी अजीब बात है। मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि मैं तुम से पहले भी मिल चुका हूँ।’
उसे याद आया मदन वालिया का चेहरा। उसे याद आई उसकी आँखें, जो शायद उसे पहचानने की कोशिश कर रही थी, जैसे उसने भी आभा को पहले कहीं देखा था। यही सब सोचती हुई वो अपनी कार तक पहुंची। इतना तो वो समझ चुकी थी की यहाँ उसके साथ कुछ नया होने वाला है, जिसकी उम्मीद शायद किसी को भी नहीं थी।
उसने सभी विचार अपने दिमाग से झटक दिए और अपनी कार में सवार हो कर होटल हॉलिडे इन पहुंची, जहाँ वो ठहरी हुई थी। उसने होटल के रेस्टोरेंट में खाना खाया और फिर अपनी गाड़ी ले कर देहरादून शहर देखने निकल पड़ी।
देहरादून शहर की सड़कों पर घूमते हुए कई जगहों पर उसे लगा कि वो उन जगहों से परिचित है। शाम तक देहरादून की सड़कों पर घूमते हुए उसे शहर की सड़कों और इलाकों की कामचलाऊ जानकारी हो चुकी थी। रात का खाना उसने देहरादून बाजार में एक रेस्टोरेंट में खाया और जब वो वापस होटल लौटी तो रात के नौ बज चुके थे।
होटल के अपने कमरे में पहुँचते ही वो अपना लैप टॉप खोल कर बैठ गई और देहरादून में रहने के लिए घर तलाशने लग गई। घर ढूंढते ढूंढते उसकी नजर एक पुराने से, छोटे से, मगर एक खूबसूरत सफ़ेद कॉटेज पर पड़ी। उसको वो जगह पसंद आई।
उसने घड़ी पर निगाह डाली। रात के दस बज रहे थे। उसे जम्हाई सी आई। उसने अपने फोन में सुबह छह बजे का अलार्म लगाया और बिस्तर पर पड़ गई। कुछ ही देर बाद वो गहरी नींद में थी।
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02
सुबह जब अलार्म बजा तो आभा की नींद खुली, मगर उसकी आँखों में अभी भी नींद थी। वो थोड़ी देर और सोना चाहती थी, मगर उसकी मजबूरी थी कि साढ़े सात बजे उसे कॉलेज पहुंचना था और वो उसकी नौकरी का पहला दिन था।
बिस्तर से नीचे उतर कर उसने एक अंगड़ाई ली और बाथरूम की तरफ बढ़ गई। आधे घंटे बाद वो तैयार हो कर अपने रूम से निकली और नीचे नाश्ता करने के लिए आ गई। उसने हल्का नाश्ता किया और अपनी गाड़ी में बैठ कर कॉलेज के लिए रवाना हो गई।
हरे भरे इलाके के बीच बनी सड़क पर गाड़ी चलाते हुए वो कॉलेज पहुंची और उसने अपनी गाड़ी कॉलेज के कर्मचारियों के लिए आरक्षित पार्किंग में पार्क की और गाड़ी से उतर कर अपने ऑफ़िस की तरफ बढ़ी।
पिछले दिन की तरह, आज भी कॉलेज कैम्पस में आ कर उस को कुछ अजीब सा, कुछ अपना सा, कुछ जाना पहचाना सा अहसास हो रहा था। इसका कारण क्या था, वो समझ नहीं पाई। उसने सोचा कि उसे ये एहसास इसलिए हो रहा है कि प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर उस खुश-नुमा जगह पर अपनी मनपसंद नौकरी लग जाने की वजह से ऐसा हो रहा होगा।
अपने सर को झटक कर, मुस्कराते हुए आभा आगे बढ़ने लगी। साइंस डिपार्टमेंट बिल्डिंग के बड़े कांच के दरवाजे को पार कर के वो हॉल में पहुंची। बहुत सारे छात्र छात्राएं अपनी अपनी क्लासों की तरफ जा रहे थे।
उसके कमरे के बाद वाला कमरा डॉक्टर ब्रह्मा का ऑफ़िस था और वो उस कॉरिडोर में आखिरी कमरा था। डॉक्टर ब्रह्मा को अपने ऑफ़िस में जाने के लिए आभा के कमरे के सामने से गुजरना पड़ता। डॉक्टर ब्रह्मा के ऑफ़िस का दरवाज़ा लकड़ी का था, जिसमे आप पार देखने के लिए कांच की एक छोटी सी खिड़की बनी हुई थी। दरवाजे के बाहर एक बहुत पुरानी सी लगने वाली तख्ती लगी थी, जिस पर बड़े बड़े काले अक्षरों में लिखा था, ‘डॉक्टर प्रताप ब्रह्मा, डीन, साइंस डिपार्टमेंट।
उसने अपने ऑफ़िस के कमरे का दरवाज़ा खोला और अंदर प्रवेश किया। एक शानदार लकड़ी के टेबल पर खूबसूरत आईमैक कम्प्यूटर रखा हुआ था। ‘बहुत सुन्दर’ वो बड़बड़ाई और अपनी कुर्सी पर बैठ गई।
तभी दरवाज़ा खुला और अपने हाथ में कॉफी का कप लिए डॉक्टर ब्रह्मा ने अंदर प्रवेश किया।
“गुड मॉर्निंग सर।” अपनी सीट से खड़े हो कर आभा ने डॉक्टर ब्रह्मा का अभिवादन किया।
“गुड मॉर्निंग आभा। बैठो… बैठो। मुझे तुम्हें यहाँ सुबह सुबह देख कर ख़ुशी हो रही है।” डॉक्टर ने कहा और चहल कदमी करते हुए आभा की टेबल के पास पहुंचे।
“ऑफ़िस पसंद आया तुम्हें अपना?” उन्होंने आभा से सवाल किया।
“हाँ सर। बहुत सुन्दर है। और ये आईमैक कम्प्यूटर? मैं तो कब से इस पर काम करना चाहती थी।”
“मैं केवल इसी कम्प्यूटर को इस्तेमाल करना पसंद करता हूँ। अब मैं अपने ऑफ़िस में जा कर अपनी कॉफी का मज़ा लेता हूँ और उसके बाद अपनी ईमेल चेक कर के काम पर लग जाता हूँ।”
“यस सर।”
“मुझे सर मत कहा करो।” वो मुस्करा कर बोले, “मुझे डॉक्टर कहा करो। मुझे लगता है कि मैं अभी सर कहलाने जितना बूढा नहीं हुआ हूँ।”
“ठीक है डॉक्टर।” आभा ने भी मुस्करा कर जवाब दिया।[adinserter block="1"]

डॉक्टर ब्रह्मा पलटे और दरवाजे की ओर बढे। आभा कम्प्यूटर को स्टार्ट करने के लिए बिजली के स्विच के लिए इधर उधर देखने लगी मगर कन्सील्ड वायरिंग होने की वजह से उसे अंदाजा नहीं हुआ कि बटन किधर है।
“बटन तुम्हारी कुर्सी के पीछे नीचे की तरफ है।” बाहर से डॉक्टर की आवाज़ आई।
‘जीनियस।’ डॉक्टर ब्रह्मा के लिए उसके दिल से आवाज़ आई। आभा ने बटन ऑन कर के कंप्यूटर चालू किया। सबसे पहले वो अपने नए कम्प्यूटर के साथ परिचित हो जाना चाहती थी।
आभा कम्प्यूटर के फीचर्स, फाइल्स और फ़ोल्डर्स चेक करने लगी। कुछ देर बाद डॉक्टर ने उसे बुलाया, उसे उसका काम समझाया और आभा को कुछ पत्र टाइप करने के लिए दिए। अपने ऑफ़िस में आ कर आभा डॉक्टर का दिया काम करने लगी।
करीब एक घंटे बाद डॉक्टर फिर से उसके ऑफ़िस में आये। उनके हाथों में कुछ किताबें थी।
“मैं क्लास लेने जा रहा हूँ।”
“ठीक है डॉक्टर।”
“अरे हाँ, मैं तो पूछना ही भूल गया था। यहाँ तुम ठहरी कहाँ हो?”
“फिलहाल तो मैं होटल हॉलिडे इन में हूँ। लेकिन मैंने रात को इंटरनेट पर घर के लिए सर्च किया है। मुझे एक घर पसंद भी आया है। जल्दी ही मैं घर फ़ाइनल कर लूंगी।”
“ठीक है। फुर्सत में तुम यहाँ बैठ कर भी अपना ये काम कर सकती हो, और जरूरत पड़ने पर कुछ देर के लिए, घर देखने के लिए मुझे बता कर बाहर भी जा सकती हो।”
“थैंक्स डॉक्टर।”
और डॉक्टर अपने क्लास लेने के लिए निकल गए।
आभा ने अपना काम पूरा किया और पिछली रात को देखे गए घर की डिटेल खोल कर देखी।
उसे वो छोटा सा सफ़ेद घर बहुत पसंद आया था। उसने घर की फोटो को फिर ध्यान से देखा। सफ़ेद घर के बाहर काला दरवाज़ा बहुत सुन्दर लग रहा था। उसने एस्टेट एजेंट की डिटेल देखी और दिए गए नंबर पर फोन लगाया।
“होम रियलिटी। मैं संजय हसीजा।” दूसरी तरफ से जवाब आया। “क्या सेवा कर सकता हूँ मैं आप की?”
“मेरा नाम आभा है। आभा अरोड़ा। मुझे आप के लिस्ट किये हुए देहरादून स्ट्रीट के मकान नंबर 23 / 18 में रूचि है।”
“पुराना है, पर बहुत सुन्दर घर है वो मैडम। आप को जरूर पसंद आएगा। आप जब चाहें उसे देख सकती है।”
“मैं शाम के चार साढ़े चार बजे अपने काम से फ्री हो जाउंगी, उसके बाद?”
“चलेगा मैडम। वैसे कहाँ काम करती हैं आप?”
“मैं देहरादून कॉलेज के साइंस डिपार्टमेंट में हूँ।”
“बहुत अच्छी बात है मैडम। आप अपना काम ख़तम कर के मेरे ऑफ़िस में आ जाइएगा। मेरा ऑफ़िस उस घर के रास्ते में ही पड़ता है। मैं खुद आप को वहां ले चलूँगा।”
“ठीक है। मैं आती हूँ।” कह कर आभा ने लाइन काट दी।[adinserter block="1"]

लेकिन आभा को वो घर इतना पसंद आया था कि वो कई देर तक अपने कंप्यूटर पर उस घर को देखती रही।
शाम को पौने पांच बजे आभा होम रियलिटी के ऑफ़िस में पहुंची। संजय हसीजा की मर्सिडीज बेंज की पैसेंजर सीट पर बैठ कर वो उसके साथ देहरादून स्ट्रीट पहुंची। संजय हसीजा ने 23 / 18 के उस छोटे मगर सुन्दर घर के सामने अपनी गाड़ी रोकी। दोनों गाड़ी से उतरे।
“ये यहाँ के सब से पुराने इलाके में से एक है। 1920 में लोगों ने इस इलाके में घर बनाना और रहना शुरू किया था, इसलिए ये एक ऐतिहासिक इलाक़ा है। जैसा कि आप देख रही हैं, बहुत लोगों ने अपने पुराने घर तोड़ कर आधुनिक तरीके से नए घर बना लिए हैं, मगर अभी भी बहुत से घर जैसे के तैसे, पुरानी कारीगरी से बने हुए हैं और ये घर उनमे से एक है।”
उस घर की तरफ देखते हुए आभा को फिर वैसा ही आभास हुआ जैसा कॉलेज देख कर हुआ था। उसको वो घर अपना सा लगा।
“आइये।” अपनी जेब से चाबियाँ निकालता संजय हसीजा बोला।
आभा उसके पीछे पीछे आई। संजय ने काले रंग का बाहरी दरवाज़ा खोला और दोनों घर के छोटे से कम्पाउंड में पहुंचे। कम्पाउंड के पीछे घर का प्रवेश द्वार था। संजय ने ताला खोला और दोनों अंदर आ गए।
हॉल में आते ही आभा को फिर वही एहसास, वही अपनापन सा लगा। पता नहीं क्यों, उसे लग रहा था कि वो घर उसका जाना पहचाना था।
“जैसा कि आप देख रही हैं कि आज कल के घरों के मुकाबले हॉल थोड़ा छोटा है, मगर खूबसूरत है।”
“हाँ।” आभा ने जवाब तो दिया, मगर वो किसी और ही दुनिया में खोई हुई थी।
“आइये, मैं आप को किचन दिखाता हूँ।”
पूरा हॉल पार कर के वे दोनों किचन में आये।
“किचन में कुछ चीजें पुरानी जरूर है, पर सब अच्छी तरह से काम करती है।”
आभा ने इधर उधर देखा। उसकी नजर किचन की एक दीवार पर बने कांच के स्लाइडिंग दरवाजे पर पड़ी, जिसके दूसरी तरफ घर के पीछे की तरफ का लॉन था। उसने दरवाज़ा खोला और बाहर लॉन में कदम रखा। बाहर आकर आभा ने देखा कि लॉन में लंबी लंबी घास उगी हुई थी। स्वाभाविक भी था, बंद घर में घास की कटाई कौन करता?
आभा ने इधर उधर नज़रें फिराई तो उसकी नजर अपने पड़ोस के घर के पीछे के लॉन पर पड़ी। वहां एक गैरेज सा बना हुआ था जिसका दरवाज़ा बंद था। उस गैरेज को देख कर भी आभा को वही अजीब सा अहसास हुआ। तभी संजय उसके पास आता हुआ बोला,
“यहाँ कोई रहता नहीं है ना, इसलिए यहाँ इतने जंगली तरीके से घास उगी हुई है। अगर आप को बाग़वानी का शौक है तो ये आप के लिए बहुत अच्छी जगह साबित होगी।”
आभा बोली तो कुछ नहीं, पर उसने धीरे से अपना सर हिलाया। उसकी आँखें पड़ोस के गैरेज पर ही जमी हुई थी। तभी उस गैरेज का एक दरवाज़ा धीरे से, थोड़ा सा खुला, इतना ही कि जिसमे से केवल एक ही व्यक्ति गुज़र सके।
गैरेज के अंदर से एक दुबला पतला सा, सफ़ेद और हलके बालों वाला कोई 75 / 76 साल का लगने वाला आदमी बाहर निकला। बाहर निकलते ही, सब से पहले मुड़ कर उसने गैरेज को ताला लगाया। उस बूढ़े आदमी को देख कर आभा का दिल जोर से धड़का।
“वो मिस्टर महेश ओबेरॉय है। इस इलाके के सबसे पुराने रह-वासियों में एक। ये यहाँ अकेले रहते हैं और किसी से ज्यादा बातचीत नहीं करते हैं। पर बहुत अच्छे इंसान है।” संजय हसीजा ने बताया।[adinserter block="1"]

महेश ओबेरॉय ओबेरॉय जैसे ही अपने गैरेज पर ताला लगा कर पलटा, उसकी नजर आभा पर पड़ी। आभा ने साफ़ साफ़ उसको हल्का सा लड़खड़ाते हुए सा देखा मानो उसने कोई अनहोनी देख ली हो। महेश बिना पलकें झपकाए आभा की तरफ देखता रहा और आभा ने उन बूढ़ी आँखों में एक अनोखी चमक देखी।
“चलिए मैं आप को बाकी का घर दिखा दूँ।” ख़यालों में खोई आभा का ध्यान संजय की आवाज़ ने भंग किया।
आभा पलटी और वापस संजय के पीछे किचन की तरफ बढ़ी। उसने दो बार पलट कर देखा, महेश ओबेरॉय बुत बना एक टक उसी की ओर देख रहा था। आभा किचन में आ गई। संजय ने किचन की दूसरी ओर बने एक दरवाजे को खोला और बोला,
“ये दरवाज़ा सीधे गैरेज में खुलता है। आप इस दरवाजे से सीधा अपनी गाड़ी तक पहुँच सकती है और गाड़ी से उतर के सीधे घर में।”
आभा ने झांक कर देखा। गैरेज अच्छा खासा और साफ़ सुथरा था। वे लोग वापस हॉल में आ गये। हॉल के एक कोने में एक बाथरूम बना हुआ था। आभा ने दरवाज़ा खोल कर देखा। बाथरूम कोई आधुनिक तो नहीं था, पर बड़ा और साफ़ सुथरा था। वहां एक बाथ टब भी था। आभा का मन किया कि वो तुरंत बाथ टब में लेट कर नहाये।
बाथरूम के बिल्कुल पास एक बेडरूम था।
“ये मास्टर बेडरूम है।” संजय ने बताया।
आभा ने बेडरूम में कदम रखा और तुरंत उसका दिल जोर से धड़का। बेडरूम में सामने की तरफ दो खिड़कियां थी। आभा खिड़की तक गई और उसने बाहर झाँका। खिड़कियां घर के पीछे के लॉन में खुलती थी। आभा ने महेश ओबेरॉय के घर की तरफ देखा। उसे उसका गैरेज तो नजर आया, पर महेश कहीं नजर नहीं आया।
बेडरूम की एक पूरी दीवार पर फर्श से ले कर छत तक लकड़ी की वार्डरोब बनी हुई थी।
“चलिए अब मैं आप को दूसरा बेडरूम भी दिखा दूँ।” संजय बोला।
हॉल के दूसरे सिरे पर एक और बेडरूम था। वो बेडरूम मास्टर बेडरूम की तुलना में कुछ छोटा था, पर मास्टर बेडरूम की तरह उन दोनों में बाहर खुलने वाली खिड़कियां थी और लकड़ी के वार्डरोब बने हुए थे। आभा को उस घर में अपने पन की खुशबू सी आती प्रतीत हुई।
दोनों फिर से हॉल में आ गए।
“कैसा लगा आप को ये घर?” संजय ने सवाल किया।
“घर अच्छा है। पहले आप बताइये कि इस घर का मालिक इस घर को बेचना चाहता है या किराये पर देना चाहता है?”
“उसका पहला विचार तो इस घर को बेचना ही है।”
“इतना अच्छा घर वो बेचना क्यों चाहते हैं?”
“इस घर का मालिक यहाँ पर सब से बड़े प्लांट जनरल मोटर में अच्छे पद पर काम करता था। अब उसका ट्रांसफर अमेरिका में हो गया है।”
“इस घर के वर्तमान मालिक से पहले इस घर का मालिक कौन था? क्या इस घर में किसी की मौत हुई थी?” अचानक आभा ने अजीब सा सवाल किया।
वो खुद नहीं समझ पा रही थी कि उसने वो सवाल क्यों किया?
संजय ने चौंक कर आभा की तरफ देखा। उसे भी आभा से इस प्रकार के किसी सवाल की कोई उम्मीद नहीं थी। जवाब देने से पहले वो थोड़ा हिचकिचाया और खंकार कर उसने अपना गला साफ़ किया।
“मैंने सुना है कि पहले इस घर में रहने वाली एक जवान लड़की की मौत हुई थी। ये शायद 1961 की बात है। मगर उसकी मौत इस घर के अंदर नहीं हुई थी। उसकी मृत्यु तो एक कार एक्सीडेंट में हुई थी।” संजय ने धीरे से बताया। “मगर आप को ये अंदाजा कैसे हुआ कि यहाँ किसी की मौत हुई थी?”
“मुझे खुद पता नहीं कि ये सवाल मेरे दिमाग में कैसे आया।” आभा ने भी धीरे से जवाब दिया।[adinserter block="1"]

संजय ने राहत की एक लंबी सांस ली। आभा को लगा जैसे उसके अंदर से कोई कह रहा हो कि ‘ये तुम्हारा ही घर है आभा, ले लो इसे।’
“ओके, मैं खरीद रही हूँ ये घर।” आभा ने अपने दिल की आवाज़ सुनते हुए कहा।“
संजय हसीजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वो तो ये सोच रहा था कि इस घर की लड़की की मौत के बारे में सुन कर शायद वो इस घर को ना ले।
“बहुत जल्दी फैसला ले लिया आप ने?” वो पूछे बिना नहीं रह सका।
“हाँ, मुझे भी यही लगता है। लेकिन मुझे यहाँ आ कर एक अजीब सा सुकून महसूस हो रहा है और मेरे दिल ने कहा कि मुझे ये घर ले लेना चाहिए।”
“ये तो बहुत अच्छी बात है। आप जैसा क्लाइंट बहुत कम मिलता है। वरना तो घर खरीदने वाले इतने घर देख देख कर परेशान करते हैं कि पूछिए मत।”
आभा मुस्कुरा कर रह गई।
“अगर अभी आप को समय हो तो ऑफ़िस चल कर कुछ कागजी खानापूर्ति कर लें?”
“आप के ऑफ़िस तो जाना ही है, मेरी कार जो वहां खड़ी है। आप कागजी खाना पूर्ति भी कर लें और मैं आप को कुछ एडवांस भी दे देती हूँ।”
“आप घर खरीदने के लिए किसी बैंक में लोन अप्लाई करना चाहें तो उसमें भी मैं आप की सहायता कर सकता हूँ।”
“हाँ, थोड़ा लोन तो लेना पड़ेगा, हालाँकि मैं अपना खुद का घर खरीदने के लिए पिछले पांच सालों से पैसे जमा कर रही हूँ।”
घर से बाहर आते हुए आभा अपने आप को बहुत खुश महसूस कर रही थी।
=====
03
दो सप्ताह बीत गए और वो दिन था गुरुवार, 20 मई 2010 का।
ये वो दिन था, जब आभा के नए घर के लिए उसका लोन पास हो गया था और उसे अपने घर की चाबी मिल गई थी। अपने पहले और नए घर की चाबी ले कर आभा संजय हसीजा के ऑफ़िस से निकली तो वो बहुत खुश थी। जब वो वापस कॉलेज पहुंची, तब तक लंच टाइम हो चुका था। वो सीधे डॉक्टर ब्रह्मा के ऑफ़िस में पहुंची।
“हो गया काम? चाबी मिल गई तुम्हें अपने नए घर की?”
“हाँ डॉक्टर। फाइनली अब मेरा अपना घर है।”
“बधाई हो। अपना खुद का घर बहुत बहुत मुबारक।”
“धन्यवाद डॉक्टर।” आभा बहुत खुश थी।
“तुम्हारे घर में दो बेडरूम है ना?”
“हाँ, डॉक्टर।”
“और वहां तुम अकेली रहोगी। तुम एक काम क्यों नहीं करती। एक महिला तलाश कर के उसको दूसरा बेडरूम किराये पर क्यों नहीं दे देती। तुम्हारा मन लगा रहेगा, अकेलापन महसूस नहीं होगा और सब से बड़ी बात कि तुम्हारा लोन री-पेमेंट का भार भी हल्का हो जायेगा।”
“बहुत अच्छी राय दी है डॉक्टर आप ने।”
“तो देर किस बात की है, यहाँ नोटिस बोर्ड पर लगाने लिए ‘महिला रूममेट की जरूरत है’ की सूचना टाइप कर के लगा दो। ये नोटिस लगाने के लिए मैं तुम्हारे लिए अभी मैनेजमेंट से परमिशन ले लेता हूँ।”[adinserter block="1"]

डॉक्टर की राय के अनुसार उसने नोटिस बोर्ड पर वो सूचना लगा दी। अब उसे इंतज़ार था किसी महिला का, जिस को रहने के लिए जगह की आवश्यकता थी।
शाम के समय आभा अपना उस दिन का काम पूरा कर के कॉलेज से होटल हॉलिडे इन के लिए निकली। वो आज ही होटल से अपने नए घर में शिफ्ट हो जाना चाहती थी। उधर, लगभग उसी समय महेश ओबेरॉय अपने घर से निकला और अपनी एम्पाला में बैठ कर बंधन झील पर बने पुल की तरफ रवाना हुआ।
पुल पर पहुँच कर महेश ने एक जगह गाड़ी रोकी और नीचे उतरा। उसके हाथ में कुछ पीले गुलाब थे। वो रेलिंग के पास पहुंचा और उसने नीचे पानी में देखा जैसे वहां कोई हो। उसने पीले गुलाब पानी में फेंके।
“तुम्हारे मनपसंद पीले गुलाब ज्योति। तुम्हारी बहुत याद आती है ज्योति। लेकिन मैं तुम को यकीन दिलाता हूँ कि तुम्हारे साथ रहने का मेरा सपना जल्दी ही पूरा होगा।” ये कहते कहते उसकी आंखों में आंसू छलक आये।
वो काफी देर वहां खड़ा नीचे पानी में देखता रहा मानो उसको पानी के अंदर ज्योति दिख रही हो। फिर वो वापस अपनी गाड़ी में बैठा और घर की तरफ चल दिया।
उधर आभा अपने होटल पहुंची और होटल का हिसाब करने के बाद अपना पूरा सामान अपनी गाड़ी में भर कर अपने नए घर की तरफ रवाना हो गई। जब वो यहाँ देहरादून आई थी, तब उसके पास पांच बॉक्स और एक सूटकेस ही था। मगर नया घर फ़ाइनल करने के बाद उसने और भी बहुत कुछ खरीद कर रख लिया था।
उसकी गाड़ी की पूरी पिछली सीट ऊपर तक और पूरी डिक्की उसके सामान से भरी हुई थी। आभा ने अपने नए घर के सामने अपनी गाड़ी रोकी। गाड़ी से उतर कर उसने कम्पाउंड गेट खोला और गाड़ी कम्पाउंड में ला कर खड़ी की।
गाड़ी बंद कर के वो नीचे उतरी और घर के दरवाजे का ताला खोला। तभी आभा ने देखा कि महेश ओबेरॉय अपनी गाड़ी सहित अपने घर के कम्पाउंड में प्रवेश कर रहा है।
आभा ने एक एक कर के अपना सामान गाड़ी से निकाल कर घर में रखना शुरू किया।
महेश ओबेरॉय अपने गाड़ी से उतरा और उसने देखा कि उसके पड़ोस में वही लड़की रहने आई है, जिसको उसने पंद्रह दिन पहले उस घर में देखा था। अकेली लड़की घर का सामान उठा कर अंदर ले जा रही थी। लड़की की गाड़ी में रखे दो बड़े बड़े कार्ड बोर्ड के बॉक्स को देख कर, लड़की की सहायता करने की नीयत से वो अपने घर के अंदर ना जा कर पड़ोस के घर की तरफ बढ़ा।
उस दिन भी, जब उसने उस लड़की को पहली बार देखा था, तो उसे अजीब सी अनुभूति हुई थी, और आज भी वैसा ही महसूस हो रहा था। जब वो आभा की कार के पास पहुंचा तो आभा एक छोटा बॉक्स उठा कर घर के अंदर गई थी। महेश वहीँ, कार के पास खड़े हो कर आभा के वापस आने का इंतज़ार करने लगा।
आभा जब वो बॉक्स रख कर वापस बाहर आई, तो महेश को अपनी कार के पास खड़े देख कर चौंकी।
“मैं आप का पड़ोसी महेश ओबेरॉय। मैंने आप को गाड़ी से सामान उतारते हुए देखा, तो आप की सहायता के लिए यहाँ चला आया।”
“मेरा नाम आभा अरोड़ा है।” आभा ने आगे बढ़ कर महेश से हाथ मिलाया।
ये वो लम्हा था जब दोनों ही एक साथ अजीब सा अनुभव कर रहे थे।
“क्या हम पहले मिल चुके हैं, आप मुझे जानी पहचानी सी लग रही है।”
“नहीं। मुझे देहरादून आये हुए सिर्फ पंद्रह दिन ही हुए है। मुझे यकीन है कि हम पहले कभी नहीं मिले। लेकिन ना जाने क्यों, मुझे भी आप जाने पहचाने से लग रहे हैं।”
“मैं बड़े वाले बॉक्स उठाने में आप की मदद कर दूँ?”
आभा ने एक बार महेश के दुबले पतले और बूढ़े शरीर की तरफ देखा और फिर बोली,
“ये काफी भारी है।”
“मैं भी भले ही थोड़ा बूढ़ा हो चुका हूँ, मगर यकीन करो, अब भी काफी मजबूत हूँ।”[adinserter block="1"]

और इसके साथ ही दोनों एक साथ हंस पड़े। महेश और आभा ने मिल कर दोनों भारी बॉक्स घर के अंदर पहुँचाए। आभा ने पूरा सामन हॉल में ही रखा था।
“आप बहुत अच्छे आदमी है। पहचान करने के लिए मैं आप की पत्नी से भी मिलना पसंद करुँगी।” आभा ने कहा।
“ये संभव नहीं है। मेरी शादी नहीं हुई है। हालाँकि होने वाली थी, मगर नहीं हुई। पर ये बहुत पुरानी बात है।” कहते हुए महेश के चेहरे पर पीड़ा के भाव आये।
“मुझे अफ़सोस है।” आभा ने कहा और महेश का हाथ दबा कर अपना अफ़सोस जाहिर किया।
महेश को अपने हाथ पर आभा का हाथ महसूस कर के बहुत सुकून मिला।
“जिंदगी में हमेशा ही वो नहीं मिलता, जिसकी उम्मीद हम जिंदगी से करते हैं।”
“सही कह रहे हैं आप। खैर, महेश जी, मैं आप को कुछ ठंडा गरम जरूर पूछती, लेकिन आज ऐसा कोई इंतज़ाम मेरे पास है नहीं।”
“तुम मेरे घर क्यों नहीं चलती? लॉन में बैठ कर कुछ देर हम बातें भी कर लेंगे।”
“जरूर, क्यों नहीं।” आभा ने तुरंत जवाब दिया।
उसे एक पल के लिए भी उस अजनबी बूढ़े के साथ बैठ कर बातें करने में डर का कोई अहसास नहीं हुआ।
“ये हुई ना बात।” महेश आभा की बात सुनकर बहुत खुश हुआ। “अब जब हमारी दोस्ती हो ही चुकी है, तो मैं आप को एक राज की बात बताता हूँ।” वो नाटकीय स्वर में बोला।

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Q. काल-चक्र: द टाइम मशीन / KaalChakra The Time Machine किताब के लेखक कौन है?
Answer.   रमेश शर्मा / Ramesh Sharma  
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