पुस्तक का विवरण (Description of Book of जुहू चौपाटी / Juhu Chowpatty / Juhu Chaupati PDF Download) :-
नाम 📖 | जुहू चौपाटी / Juhu Chowpatty / Juhu Chaupati PDF Download |
लेखक 🖊️ | साधना जैन / Sadhna Jain |
आकार | 3.3 MB |
कुल पृष्ठ | 128 |
भाषा | Hindi |
श्रेणी | उपन्यास / Upnyas-Novel |
Download Link 📥 | Working |
दुनिया से अलग होने की क़ीमत चुकानी ही पड़ती है। ऐसी ही एक क़ीमत मीरा ने भी चुकाई। मीरा अपने सपनों की तलाश में शिमला से दिल्ली आती है, जहाँ से उसका अभिनेत्री बनने का सफ़र शुरू होता है, जो उसे मुंबई तक ले जाता है। उसे नाम, शोहरत, पैसा, प्यार सब मिलता है। अचानक उसके साथ एक हादसा हो जाता है, जो उसकी पूरी ज़िंदगी बदल देता है। एक दिन वह ख़ुद को अपने ही अपार्टमेंट में मरा हुआ पाती है। उसे ख़ुद को इस तरह देखकर विश्वास ही नहीं होता। उसका दिमाग़ भी काम करना बंद कर देता है। उसे यह भी याद नहीं आता कि यह कैसे हुआ, क्यों हुआ, किसने किया।
‘जुहू चौपाटी’ साधना जैन की पहली किताब है। इन्होंने अपने लिखने की शुरुआत दिव्य प्रकाश दुबे के राइटर्स रूम से की, जहाँ इन्होंने जल्द ही रिलीज हो रही एक 'Audible Series' के लिए तीन कहानियाँ भी लिखी हैं। बचपन से ही इन्हें पढ़ने का शौक था, लेकिन जब आर्थराइटिस नामक रोग ने कम उम्र में ही इनकी ज़िंदगी में अपना स्थाई घर बना लिया तो पढ़ना इनकी ज़रूरत बन गया। किताबों में इन्होंने अपने अकेलेपन को खोकर एकांत को खोजा, जिसने इन्हें मानसिक रूप से सबल बनाए रखा। इनका मानना है कि किताबों को पढ़ा जाना चाहिए, भाषा चाहे कोई भी हो। लेकिन, अगर आपको एक से ज़्यादा भाषाओं का ज्ञान है तो हर भाषा में पढ़ना चाहिए, क्योंकि हर भाषा के पास आपसे बाँटने के लिए कुछ-न-कुछ ख़ास होता है। इनकी पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय से हुई है। अब इनका सारा समय सिर्फ़ कहानियों की दुनिया में खोए हुए बीतता है।.
पुस्तक का कुछ अंश
बांद्रा
दुनिया से तो भागा जा सकता है, ख़ुद से नहीं। शाम के 4:30 बजे के आसपास की बात है। एक लड़की बांद्रा स्थित अपने अपार्टमेंट से सफ़ेद रंग की नाइटी पहने हुए निकली और बिना रुके बस बेतहाशा-सी भागी जा रही है। जिस दिशा में वह जा रही है वह रास्ता जुहू चौपाटी की तरफ़ जाता है। लड़की की हालत देखकर ऐसा लग रहा है जैसे कि कोई बहुत ही भयानक-सी चीज़ उसने देख ली हो, जिससे वह बहुत दूर चली जाना चाहती हो।
दूर कहीं टीवी पर...
अभी-अभी ख़बर आ रही है कि मशहूर अभिनेत्री मीरा अपने ही घर में मृत पाई गई हैं। उनकी मौत की वजह क्या है, यह अभी ठीक से कुछ कहा नहीं जा सकता। यह ख़बर सचमुच चौंका देने वाली है। ग़ौरतलब है कि उनकी उम्र अभी सिर्फ़ चालीस साल थी...
डूबती शाम
कई बार हम ऐसा कुछ कर जाते हैं जिसे करने के बाद हमें ख़ुद हैरानी होती है। कुछ ऐसा जो हम कब का करना छोड़ चुके होते हैं या वह हमने अपनी ज़िंदगी में कभी किया ही नहीं होता। फिर अचानक ऐसा कुछ घट जाता है जिसके बाद हम वह काम इस तरह से कर जाते हैं, मानो ये प्यास लगने पर पानी पीने जैसी आम बात हो। मैं भी यहाँ आना सालों पहले छोड़ चुकी थी। लेकिन मैं आज यहाँ ऐसे आ गई जैसे आदमी हर शाम थका-हारा लौटकर घर जाता है। मैंने कभी यहाँ दोबारा आने का सोचा नहीं था। मुंबई का ये जुहू चौपाटी और इससे लगता ये गहरा विशाल समुद्र। आज सिर्फ़ यही एक हादसा मेरे साथ नहीं हुआ। आज डूबता हुआ सूरज भी मुझे बहुत अपना-सा लग रहा है। और ये भी मेरे लिए किसी हादसे से कम नहीं। पहले मैं जब भी इसे देखती थी एक अजीब-सा ख़ालीपन मेरे मन में उतर जाता था। अजीब इसलिए कि यह ऐसा ख़ालीपन नहीं था जो किसी के न होने पर महसूस होता है। या जो हमारी किसी बहुत प्यारी चीज़ के टूट जाने पर या जो अपने घर से बहुत दिनों तक दूर रहने पर हमारे अंदर घर कर लेता है। ये ऐसा ख़ालीपन था जो तब महसूस होता है जब हमें लगता है कि हमारी ज़िंदगी में सब सही है। हम ख़ुश हैं। लेकिन आज इसे देखकर कोई ख़ालीपन नहीं, कोई उदासी नहीं और न ही कोई सवाल है मन में। आज जैसे हम दोनों ही समझ रहे हैं कि हमारा मिलना पहले से ही तय था। अक्सर सबसे ज़्यादा सुकून हमें वहीं मिलता है जहाँ से हम बहुत दूर भाग जाना चाहते हैं।
इससे दूर रहने की एक और वजह थी। मुझे कोई भी जाती हुई चीज़ अच्छी नहीं लगती थी। किसी को भी जाते हुए देखकर मेरा मन बहुत उदास हो जाता है। साथ ही एक अजीब-सी बेचैनी भी होने लगती है, क्योंकि जब भी मैं किसी को जाते हुए देखती हूँ तो मेरे मन में यही ख़याल आता कि कहीं ये हमारी आख़िरी मुलाक़ात तो नहीं? अगली मुलाक़ात से पहले मुझे कुछ हो गया तो? या फिर उसे कुछ हो गया तो? या फिर कहीं कुछ ऐसा घट गया जिसकी वजह से हम एक-दूसरे से मिलना ही न चाहें तो? या फिर हमारी अगली मुलाक़ात तक इतना वक़्त बीत चुका हो कि हम इतना बदल जाएँ कि दोबारा से शुरू करना मुमकिन ही न हो तो?
हम हर पल में नये होते रहते हैं। हमारी सोच, हमारे विचार, हमारी भावनाएँ, हमारी पसंद सब वक़्त के साथ बदल जाते हैं। और ये बदलाव पलक झपकते ही नहीं हो जाता। ये प्रक्रिया हर सेकंड चालू रहती है जिसका हमें पता भी नहीं चलता। और एक दिन हम पाते हैं हम वह रहे ही नहीं जो कल थे। इस बात का पता हमें तब चलता है जब हम अपने बीते हुए कल से टकराते हैं और वह कल हमें अजनबी-सा लगने लगता है। जैसे हम उससे आज पहली बार मिल रहे हों। हमारा वर्तमान हमारे अतीत का अपग्रेड वर्ज़न ही तो है। हम चाहें भी तो अपने ओल्डसेल्फ़ में वापस नहीं जा सकते। जिस तरह मुँह से निकले हुए हमारे शब्द पराए हो जाते हैं, उसी तरह हमारा जिया हुआ कल हमारे आज से अजनबी होता जाता है। ये सब मैंने कहीं पढ़ा था। अब याद नहीं कहाँ पढ़ा था। इस बात को मैं सिर्फ़ इसलिए नहीं मानती क्योंकि इसे मैंने कहीं पढ़ा था। इस बात का अनुभव मैंने अपनी अब तक कुल-मिलाकर गुज़ारी चालीस साल की ज़िंदगी में कई बार किया है। मेरी ज़िंदगी को छोड़कर अब तक बहुत से लोग जा चुके हैं। इसलिए मैंने लोगों को अपनी आदत ही बनाना छोड़ दिया था ताकि वो जाएँ भी तो मैं उनकी यादों में क़ैद होकर ख़ुद को न खो दूँ।
मैं किताबें बहुत पढ़ती हूँ। लेकिन मेरी कोई पसंदीदा किताब नहीं है। वैसे पसंदीदा तो मेरा कुछ भी नहीं है। मेरा ये मानना है कि जैसे ही हमें कोई या कुछ बहुत पसंद आने लगता है उसके साथ हम अनजाने ही एक अनाम-सा रिश्ता बना लेते हैं। रिश्ते चाहे जैसे भी हों, वह हमें बाँधते ही हैं। रिश्ता बनते ही हमें उस कोई या कुछ के खोने का डर सताने लगता है। ये डर हमें चैन से जीने भी नहीं देता। हमारे जीने की आज़ादी उस डर में क़ैद होकर रह जाती है। फिर धीरे-धीरे हमें उस आज़ादी की इच्छा से भी डर लगने लगता है, क्योंकि हमें अपनी पसंद से जुड़े रहने की इतनी आदत हो जाती है कि उससे अलग हम अपनी ज़िंदगी को सोच भी नहीं पाते हैं। दुनिया ऐसे ही लोगों से भरी पड़ी है। शायद रिश्ते बचे भी ऐसे ही लोगों की वजह से है। इन्हीं लोगों की वजह से शायद अब तक दुनिया में प्यार, दोस्ती, और परिवार जैसे शब्द अपना वजूद बनाए हुए हैं। वह अलग बात है उनके मायने उन्होंने अपने हिसाब से एडजस्ट कर लिए है। मेरे लिए किसी भी भावना को नाम देने का मतलब है उन्हें ख़ुद को नियंत्रण करने की पावर थाली में सजाकर दे देना। मुझे तो अपनी आज़ादी बहुत पसंद है।
मैं भी क्या सोचते-सोचते क्या ही सोचने लगी? कैसे हम कुछ सोचते-सोचते कुछ और ही सोचने लगते हैं? इसीलिए शायद अँग्रेज़ी में इस तरह के सोचने को Train of Thoughts कहा जाता है। मुझे सोचना पसंद है, ठीक वैसे ही जैसे मुझे सफ़र में रहना पसंद है। सोचना भी तो एक सफ़र जैसा ही होता है। इस सफ़र में जाने कितनी नयी सोच हमारी हमसफ़र बनती हैं, फिर उस सफ़र में ही बिछड़ भी जाती हैं और हम फिर से अपने सफ़र पर चल पड़ते हैं।
आज समुद्र कितना शांत है! बिलकुल मेरे मन के विपरीत। एक लहर भी नहीं जो किनारे के साथ छेड़खानी कर रही हो। किनारा भी कैसे बुझा-बुझा नज़र आ रहा है। हालाँकि यहाँ बहुत से लोग हैं, लेकिन किनारे को तो जैसे सिर्फ़ लहरों का ही इंतज़ार है। किनारे को भी तो लहर की आदत-सी हो गई होगी। इसीलिए मैं ख़ुद को किसी भी आदत की आदी नहीं होने देती। एक भी दिन आदत के अनुसार न गुज़रे तो मन भी बुझ जाता है। और बुझी हुई चीज़ें सिर्फ़ अँधेरा करती हैं।
मेरे यहाँ न आने की वजह मेरी इस जगह से या समुद्र से कोई नाराज़गी नहीं थी। बल्कि पूरे शहर में यही एक जगह थी जो मुझे मेरे परिवार-सा सुख देती थी। ऐसा इसलिए नहीं होता था क्योंकि यहाँ समुद्र है। मेरे लिए ये किसी भी दूसरी जगह की तरह ही है। इसके बारे में जाने कितने लेखकों ने अपनी कहानियों में, शायरों ने अपनी शायरी में और फ़िल्मकारों ने अपनी फ़िल्मों में कितना कुछ कहा है। उन्होंने इंसान की भावनाओं को इसके साथ इस तरह जोड़ा है कि वह अपनी भावनाओं को इससे अलग देख ही नहीं पाता। मैं ये नहीं कहती उन्होंने जो कुछ लिखा या दिखाया सब झूठ है। होता होगा हल्का मन यहाँ आकर रोने से। लगती होंगी छोटी परेशानियाँ इसे देखकर। लगता होगा रूमानी यहाँ हाथ में हाथ डालकर टहलने से या लहरों के साथ खेलते हुए एक-दूसरे को छूने में। लेकिन क्या ये हम सही में महसूस करते हैं? या सिर्फ़ हमें ऐसा लगता है कि हमें ऐसा महसूस हो रहा है, क्योंकि हमने किसी फ़लानी किताब में पढ़ा था या किसी फ़लानी फ़िल्म में देखा था। या जैसे आजकल हर चीज़ रेडीमेड मिलती है वैसे ही ये सोच भी हम रेडीमेड ले आए हैं जिसे ख़ासकर हमारे लिए ही तैयार किया जाता है, ताकि हम ख़ुद कुछ सोच ही न पाएँ। और ये सिर्फ़ समुद्र के बारे में ही नहीं है। दुनिया की दुनियादारी आजकल चल ही ऐसी रही है। वह हर चीज़ हमारे आगे रेडीमेड तैयार कर देते हैं ताकि हम ख़ुद सोचना बंद कर दें और धीरे-धीरे उनकी सोच के ग़ुलाम होते जाएँ और वह हम पर राज कर सकें।
न ही मुझे समुद्र से कोई बैर है न ही मुझे लोगों के यहाँ आकर बैठने, सुस्ताने या टहलने से कोई दिक़्क़त। बस लोग कहीं भी जाए पर अपनी ही कोई वजह ढूँढ़कर जाए ताकि उन्हें उस जगह से वह मिल सके जिस वजह से वह उस जगह जाना चाहते थे।
मैं यहाँ इसलिए आती थी क्योंकि ये जगह मुझे मेरे बचपन के घर जैसा महसूस करवाती थी। वैसे तो मैं शिमला की गोद में पली-बढ़ी हूँ। पर एक बार मैं अपने माँ-बाबा और दादी के साथ मुंबई घूमने आई थी। हमने एक पूरा दिन इस जुहू चौपाटी पर हँसते-खेलते साथ गुज़ारा था। वह आख़िरी बार था जब हम चारों एक साथ ख़ुश थे। मैं जब भी इस शहर में ख़ुद को अकेला पाती थी यहाँ आ जाती। यहाँ आकर मैं कुछ देर के लिए सब कुछ भूल जाती। मुझे याद रहती तो बस वह याद जब इस जगह पर हम चारों साथ थे। हमारी वह याद भी तो इस जगह की याद्दाश्त का एक हिस्सा होगी? शायद ऐसा हिस्सा जिसे इसने यहीं अपनी इस रेत में, यहाँ चलने वाली हवा में, समुद्र के पानी में इस तरह घोला कि वह भी रेत, हवा, पानी हो गया। जितना चैन मुझे यहाँ आकर मिलता उतनी ही मेरी बेचैनी भी बढ़ने लगती थी। क्योंकि इस जगह के हाथों मैं अपने चैन और सुकून को महसूस करने की आज़ादी हार चुकी थी। यह जगह मेरे ख़ुश रहने के अधिकार को नियंत्रित करने लगी थी, जिसे सोचकर मेरा दिल टूटता था। मेरे साथ कुछ भी अच्छा या बुरा होता, मेरा मन यहाँ आने को करता। इसीलिए मैंने यहाँ आना ही बंद कर दिया था।
लेकिन हमेशा वैसा होता ही कहाँ है जैसा हम सोचते हैं! अक्सर जो हम चाहते हैं और जो होना चाहिए और जो होता है वह कभी एक-सा नहीं होता। जितना दूर हम किसी चीज़ से जाते हैं उतने ही नज़दीक हम उस चीज़ के होते हैं।
मैं इस जगह के बारे में कभी सोचना भी नहीं चाहती थी फिर भी मैं आज यहाँ पर हूँ। मेरी ज़िंदगी में आज ऐसा कुछ हुआ जिसके बाद मुझे मेरे अपनों की याद सताने लगी। मेरा मन बस यहाँ आकर रोने को कर रहा था। वैसे मेरी कोशिश यही रहती थी कि मैं किसी भी बात पर न रोऊँ। वह इसलिए क्योंकि रोना मुझे अच्छा लगता था। रोना इस दुनिया की सबसे ज़रूरी क्रिया है। रोए बिना ख़ुद को झेला नहीं जा सकता। रोना मन के अँधेरे को दीये दिखाने जैसा है। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी एक परेशानी का हल मुझे दूसरी परेशानी बनकर मिले। रोने से मुझे अच्छा महसूस तो होता पर रोना मेरी आदत बन जाता। परंतु आज बात अलग थी। आज मेरे अपने लिए बनाए गए सब नियम-क़ानून ने छुट्टी ले ली थी। आज मैंने ख़ुद को रोने से नहीं रोका। ये तीसरा हादसा था जो आज मेरे साथ हुआ।
क्या कोई जाती हुई चीज़ भी इतनी ख़ूबसूरत लग सकती है, आसमान की तरफ़ देखते हुए मेरे मन में यही ख़याल आ रहा है। क्या मेरा भी इस तरह दुनिया से चले जाना दुनिया को ख़ूबसूरत लगा होगा? कहते हैं डूबता सूरज तभी अच्छा लगता है जब आप उदास होते हैं। क्योंकि वह आपकी मनोदशा को प्रतिबिंबित करता है, जैसे एक प्रिज़्म सूरज की रौशनी को करता है। अगर देखा जाए डूबना और मरना एक-दूसरे के पर्यायवाची ही तो हैं। सूरज डूब जाता है। इंसान मर जाता है। आज हम दोनों की क़िस्मत एक हो गई है। दोनों को ही इस दुनिया को छोड़कर जाना है। जब दो लोगों के दुख की परछाईं दो जुड़वा बच्चों-सी दिखने लगती है तो उनके बीच किसी भी तरह के मौखिक संवाद की कोई ज़रूरत रह ही नहीं जाती है। इसलिए इसे देखते हुए मुझे ऐसा लग रहा है जैसे ये मुझसे कह रहा हो कि तुम अकेली नहीं हो। मैं तुम जैसा ही तो हूँ। और इससे मिलने वाली यही तसल्ली मुझे हिम्मत दे रही है। हिम्मत इस बात को स्वीकार करने की कि मैं अब ज़िंदा नहीं। मैं मर चुकी हूँ। ये कोई प्राकृतिक मौत नहीं थी। न ही मैं आत्महत्या कर सकती हूँ। क्या मेरा मर्डर हुआ है? अगर हाँ तो किसने किया और कैसे किया? मुझे कुछ याद नहीं आ रहा। शायद इसी सवाल का जवाब ढूँढ़ने के लिए मैं अब तक इस दुनिया और उस दुनिया के बीच एक पेंडुलम की तरह झूल रही हूँ। जब तक मैं वह जवाब ढूँढ़ नहीं लेती, मैं इस दुनिया से पूरी तरह विदा नहीं लूँगी।
मेरी मौत
पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि मैं मर चुकी हूँ। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अभी नींद से जागी हूँ। क्योंकि जब मैं जागी तो मैं अपने बेडरूम में ही थी। बेडरूम में सब कुछ वैसा ही था जैसे रोज़ होता है। कोई भी चीज़ इधर से उधर नहीं हुई थी। कमरे के ठीक बीच में मेरा डबल बेड लगा हुआ था। बेड के दोनों तरफ़ कॉर्नर टेबल के ऊपर रखे लैंप आज नहीं जल रहे थे। हाँ बस यही एक चीज़ थी जो रोज़ की तरह नहीं थी। मैं कभी अँधेरा करके नहीं सोती थी, क्योंकि अँधेरा करते ही मुझे झटपट नींद आ जाती है। और मैं हर उस चीज़ से दूर भागती थी जो मेरी ज़िंदगी को आसान कर देती थी। चूँकि मैं हमेशा बेड के बाईं तरफ़ सोती थी इसीलिए मेरी सारी ज़रूरत की चीज़ें बाईं वाली कॉर्नर टेबल पर रखी होती थी जैसे पानी, मोबाइल, लिप बाम और कभी कोई किताब जो मैं उस वक़्त पढ़ रही होती थी। जैसे आज वहाँ पर Virginia Woolf की 'A Room Of One’s Own' रखी हुई थी। बेड के पीछे वाली दीवार पर मेरा ख़ुद का बड़ा-सा पोस्टर लगा हुआ था। वह दीवार आइवरी कलर की थी। बेड के ठीक सामने वाली दीवार पर मैंने जंगल मुराल वाला वॉलपेपर इंस्टॉल करवाया था। जंगल ही ऐसी एक जगह थी जहाँ मैं आजतक नहीं गई थी। इसलिए मुझे नहीं पता था मुझे वहाँ जाकर अच्छा लगता या बुरा। इसके साथ मेरी किसी भी तरह की कोई भावनाएँ जुड़ी हुई नहीं थीं। इसीलिए मैंने जंगल वाला ही वॉलपेपर चुना। ताकि जब मैं सुबह जागूँ और मेरी नज़र इस पर पड़े तो मुझे कुछ नया जानने की उत्सुकता हो। दिन की शुरुआत कुछ नया महसूस करने की इच्छा से हो, न कि वही कुछ पुराना जिया हुआ याद करके। उसी दीवार के बीच एक घड़ी लगी हुई थी। बेड की दाईं तरफ़ वाली दीवार के पास दो बड़ी कंफ़र्टेबल सोफ़ा चेयर रखी हुई थी और बेड की बाईं तरफ़ मेरा वॉशरूम था, जिसके साथ ही मेरा ड्रेसिंग रूम भी जुड़ा हुआ था। मेरे कमरे में बालकनी नहीं थी। बालकनी वाले कमरे को मैंने अपनी स्टडी-कम-लाइब्रेरी बना दिया था। जब भी मैं घर में होती थी तो मेरा अधिकतर समय वहीं गुज़रता था। मेरा बेडरूम मेरे फ़ाइव बेडरूम लक्ज़री अपार्टमेंट का एक हिस्सा भर था। इतने बड़े अपार्टमेंट में मैं अकेले ही रहती थी, अगर हाउसकीपिंग स्टाफ़ को छोड़ दिया जाए तो। उन्हें मिलाकर हम चार लोग इस बड़े से घर में रहते थे। एक मेरा कुक था राजीव, जिसकी उम्र बीस-बाईस साल से ज़्यादा नहीं थी और वह खाना भी एक प्रोफ़ेशनल कुक की तरह नहीं बनाता था। पर ठीक वैसा ही बनाता था जैसा स्वाद मुझे चाहिए था। दूसरी थी रानी, जिसके पास घर की सफ़ाई के साथ-साथ मेरे कपड़ों की देखरेख का भी काम था। कौन-सा कपड़ा ड्राइक्लीनिंग के लिए जाना है और कौन-सा घर में ही धोना है यह सब वही देखती थी। वह भी पच्चीस से ज़्यादा नहीं होगी। तीसरी थी राज़ी, मेरी हम उम्र और मेरे सबसे क़रीब भी। हालाँकि यह बात मैंने अपने जीते जी कभी नहीं मानी थी, क्योंकि अगर मान लेती तो मुझे उसे ख़ुद से दूर करना पड़ता जो मैं करना नहीं चाहती थी। इसलिए मैं लगातार ख़ुद से झूठ बोलती रहती कि वह भी औरों की ही तरह मेरे लिए सिर्फ़ काम करती है। अब थोड़ी-सी बेईमानी की अनुमति तो मुझे भी मिल सकती थी। आख़िर थी तो मैं इंसान ही। राज़ी ही थी जो मुझे सबसे ज़्यादा समझती थी। मुझे कब क्या चाहिए, मेरे बोलने से पहले मेरे सामने होता था। पूरे घर की देखरेख उसके हाथों में ही था।
अपने बारे में यूँ पास्ट टेंस में बात करना भी एक नया-सा ही अनुभव है। थोड़ा अजीब है लेकिन ये सोचकर ही मुझे रोमांच महसूस हो रहा है कि ये जो मैं अभी महसूस कर रही हूँ वह दुनिया का कोई भी ज़िंदा इंसान महसूस नहीं कर सकता। इसके लिए उसे मरना होगा और मरने के बाद मेरी तरह सोचना जो शायद उसके लिए मुश्किल भी हो। क्योंकि जो काम उसने जीते जी नहीं किया और जो करना उसे आता ही नहीं, वह मरने के बाद उस काम को कैसे करेगा? कितना मज़ा आ रहा है मुझे ये सब सोच के। मैं सही में बहुत दुष्ट हूँ।
जब मैं नींद से जागी तो शाम के चार बज रहे थे। रात को पार्टी से आते-आते लगभग सुबह ही हो गई थी। वैसे तो मैं ड्रिंक नहीं करती थी। शायद कल किसी ने मेरी ड्रिंक के साथ कोई छेड़छाड़ कर दी थी, जिस वजह से मैं अब तक सो रही थी। उठते ही आदतन मैं वॉशरूम की ओर जाने लगी तो पीछे से मुझे राज़ी के चीख़ने की आवाज़ सुनाई दी। मैंने मुड़कर देखा तो राज़ी बेड की तरफ़ देख रही थी। मैंने बेड की तरफ़ नज़र घुमाई तो ख़ुद को बेड पर सोता हुआ पाया। या यूँ कहूँ कि मरा हुआ पाया। मेरा पूरा बदन नीला पड़ा हुआ था। शायद मुझे ज़हर दिया गया था। राज़ी की चीख़ सुनकर राजीव और रानी भी मेरे बेडरूम में आ गए और मुझे उस हालत में देखकर उनकी भी चीख़ निकल गई। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, सिवाय इसके कि मुझे यहाँ से किसी ऐसी जगह पर जाना है जहाँ मुझे घर जैसा सुकून मिले। और मैं वहाँ से भागकर यहाँ आ गई। अब तक तो पुलिस भी वहाँ पहुँच गई होगी। मेरी बॉडी को पोस्टमार्टम के लिए भी भेज दिया होगा। पुलिस के शक के घेरे में सबसे पहले राजीव, रानी और राज़ी ही होंगे। ऐसे एलीट मर्डर के मामलों में घर के नौकर ही सबसे पहले शक के घेरे में लिए जाते हैं।
कुछ ही देर में शाम के अख़बारों में मेरे मरने की ख़बर सनसनी मचाने ही वाली होगी। टीवी पर तो सब न्यूज़ चैनल अब तक ब्रेकिंग न्यूज़ के साथ ये न्यूज़ ब्रेक भी कर चुके होंगे। सोशल मीडिया पर शोक भरे संदेशों की बाढ़ आ गई होगी। राजनीति और फ़िल्म जगत की तमाम हस्तियों ने भी इस ख़बर के साथ अपना स्टेटस अपडेट करके अपनी ज़िम्मेदारी निभा ली होगी। आख़िर मर्डर हुआ भी तो एक मशहूर पूर्व फ़िल्म अभिनेत्री का था, जिसने बॉलीवुड को अपने पंद्रह साल के करियर में कई शानदार फ़िल्में दी थीं। और जो अब फ़िल्मों में अपनी क़िस्मत आज़माने के बाद पॉलिटिक्स की दुनिया में क़दम रखने जा रही थी। जीते जी तो मैंने कभी मीडिया को मुँह नहीं लगाया था, पर अब इन्हें कौन रोकने वाला था! अब ये क्वेश्चन मार्क के साथ मेरे बारे में कुछ भी बकवास कहेंगे, कुछ भी अनाप-शनाप लिखेंगे, क्योंकि इन्हें पता है अब इनके ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही करने वाला नहीं है। असली पोस्टमार्टम तो आदमी का ये मीडिया ही करती है। और जो थोड़ा-सा मशहूर हो उसे तो ये पोस्टमार्टम करने के बाद भी नहीं छोड़ती।
अब कुछ दिन तक हर किसी की ज़ुबान पर सिर्फ़ मीरा का ही नाम रहने वाला है। जिसकी ज़िंदगी का सफ़र 7 जून 1979 को शिमला में शुरू हुआ था और 28 जुलाई 2019 को मुंबई में ख़त्म हो गया।
नामकरण
जब भी कहीं मैं अपना पूरा नाम मीरा सहगल लिखा देखती थी तो मुझे ऐसे लगता था यह किसी एक बंदे का नाम नहीं है बल्कि दो लोगों का नाम है। वो भी दो ऐसे लोग जिनको ज़बरदस्ती एक साथ इसलिए रखा गया ताकि उन दोनों के बीच उनका रिश्ता साबित हो सके। एक लड़की के लिए उसका पहला नाम ही उसकी पहचान होती है। क्योंकि उसके लिए उसके बाप का दिया सरनेम तब तक ही रहता है जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती। शादी के बाद पति का सरनेम उसके नाम के साथ जुड़ जाता है। जैसे लड़की न हुई कोई संपत्ति हो गई। बाप ने पैदा किया अपना नाम दे दिया। पति ने पत्नी बनाया तो उसने अपना नाम दे दिया। जब मैंने होश संभाला और चीज़ों को समझना शुरू किया, तब मेरे मन में यह सवाल बार-बार उठता था कि सिर्फ़ एक लड़की ही अपना सरनेम क्यों बदले। या फिर कोई भी क्यों बदले। ज़रूरत क्या है इसकी। और ये सिर्फ़ हमारे देश में ही नहीं पूरी दुनिया में होता आया है। कुछ लड़कियाँ जो अपने सोच-विचार रखने के लिए आज़ाद हो जाती हैं और जिन्हें फ़ेमिनिज़्म का थोड़ा-सा मतलब समझ आने लगता है वह लड़कों को इसका जवाब अपने पति के साथ-साथ अपने बाप का सरनेम भी अपने नाम के साथ लगाकर देती हैं। पर ऐसा करते हुए वह भूल जाती हैं कि अब उनका नाम देखकर ऐसा लग रहा होता है जैसे अब वह एक नहीं दो लोगों की संपत्ति है। और जो लड़कियाँ थोड़ा और ज़्यादा मतलब समझने लगती है वह बाप और पति की पहचान छोड़कर अपनी माँ का पहला नाम अपने नाम के साथ लगाने लगती हैं। मेरा पूछना है कि किसी का भी नाम अपने नाम के साथ जोड़ना ही क्यों? क्या उसके बिना तुम अपने बाप की बेटी नहीं रहोगी या अपनी पति की पत्नी? या अपनी माँ की बेटी? या तो किसी सरनेम का प्रयोग ही मत करो या फिर कोई भी कर लो क्या फ़र्क़ पड़ता है!
मैं ख़ुद को कभी फ़ेमिनिस्ट नहीं कहती थी। मुझे ख़ुद का किसी भी तरह से वर्गीकरण करना पसंद नहीं था। किसी लड़ाई के एक बड़े समूह का मुद्दा बनते ही उसे लड़ने वालों के बीच गुटबाज़ी होना शुरू हो जाती है। फिर बस यही रह जाता है कि तेरी लड़ाई मेरी लड़ाई से सफ़ेद कैसे? हर औरत की स्थिति एक जैसी नहीं होती। हर स्तर की औरत के लिए नारीवाद की परिभाषा भी अलग हो जाती है। किसी एक मुद्दे की जितनी परिभाषाएँ होती हैं उतना ही रायता फैलता है। और फिर ख़ुद औरतों के बीच में ही एक तरीक़े का गृहयुद्ध शुरू हो जाता है। जब तक औरतें आपस का भेदभाव नहीं मिटाएँगी तब तक वे ये लड़ाई नहीं जीत सकतीं। अपनी इच्छा से जीने की आज़ादी और आत्मनिर्भरता उनका हक़ है और लड़ाई भी इसी हक़ के लिए होनी चाहिए। मगर होता ये है कि या तो वह आपस में लड़ती रहती हैं या फिर मर्दों से बराबरी में लग जाती हैं। फिर लड़ते-लड़ते मर्दों की बराबरी करने के चक्कर में उनके जैसी ही बन जाती हैं। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि उनकी यह लड़ाई मर्दों से आगे निकलने की नहीं बल्कि ख़ुद को आगे बढ़ाने के लिए है। उन्हें अपना प्राकृतिक स्वभाव भूले बिना अपना हक़ लेना चाहिए। ज़रूरी नहीं जो-जो मर्द करते हों वही पसंद उनकी भी हो। नारीवाद में पुरुषवाद का घुल जाना एक समय के बाद उनके के लिए ज़हर ही साबित होगा।
मैं हमेशा से अपने नाम को लेकर बड़ी ही भावुक थी। बचपन में जब भी कोई मेरा नाम पूछता था तो मैं बड़ी शान से सिर्फ़ अपना पहला नाम बताती थी। जबकि तब तक तो मुझे इस पहले और आख़िरी नाम के बीच का अंतर भी नहीं पता था। और जब भी मुझे कोई पूरा नाम बताने को कहता था तो मैं कहती बाबा से पूछ लो या माँ से पूछ लो। मैं उन्हें सिर्फ़ अपना नाम ‘मीठी’ ही बताती थी। मेरा नाम हमेशा से मीरा नहीं था। लेकिन मैंने अपनी पहली फ़िल्म साइन करने से पहले अपना नाम बदल दिया था। मैंने कभी फ़िल्मों में आने का नहीं सोचा था। ये मेरा सपना नहीं था। कुछ ऐसा हुआ कि अनचाहे ही मेरी राहें बॉलीवुड की ओर मुड़ गईं। और फिर मैंने अपना नाम बदलने का सोचा। क्योंकि मुझे अपने जन्म के नाम से बहुत प्यार था और मैं उस नाम से कभी उस काम के लिए नहीं जानी जाना चाहती थी, जो काम मैं कभी करना ही नहीं चाहती थी। और इस तरह मीरा नाम फ़िल्मों में मेरी पहचान बना बिना किसी सरनेम के। लोग मधुबाला की तरह ही मुझे भी सिर्फ़ मीरा कहके बुलाते थे। मैं ये तो नहीं कहती कि मैं उनकी तरह ही एक बहुत अच्छी अभिनेत्री थी। पर मुझे एक कलाकार के रूप में लोगों का प्यार उनसे कम भी नहीं मिला था।
वैसे मीरा नाम चुनने के पीछे भी एक बड़ा ही दिलचस्प क़िस्सा है। हुआ यूँ कि एक दिन मैं ड्राइव करके कहीं जा रही थी और मेरे दिमाग़ में यही चल रहा था अपना कौन-सा नाम रखा जाए। तभी रेड लाइट हो गई और एक छोटी-सी बच्ची जो आठ नौ साल की रही होगी, उसने मेरी कार की खिड़की पर दस्तक दी। उसके हाथ में कुछ फ़िल्मी पत्रिकाएँ थी। मैंने जैसे ही उससे बात करने के लिए कार की खिड़की का शीशा नीचे किया, तभी उसकी माँ ने उसे मीरा कहकर पीछे से आवाज़ लगाई। बस उसी पल मैंने सोच लिया था कि मेरा नाम अब सिर्फ़ मीरा होगा और कुछ नहीं। क्योंकि मीरा का पहला अक्षर मेरे असली नाम मीठी वाला ही था। और इस तरह मीरा में आधी मीठी हमेशा ज़िंदा रहेगी। दूसरा, मुझे यह मात्र संयोग महसूस नहीं हुआ था कि जब मैं अपने नाम के बारे में सोच रही थी तभी एक लड़की आती है, मुझे कुछ और नहीं सिर्फ़ फ़िल्मी पत्रिकाएँ बेचने की कोशिश करती है और फिर उसकी माँ उसे पीछे से उसके नाम से बुलाती है। यह मुझे एक इशारा लगा था। फिर मैंने उस दिन उस बच्ची से उसकी अनुमति के बिना उसका नाम शेयर करने के बदले उसकी सारी पत्रिकाएँ दुगने दामों पर ख़रीद ली और साथ ही अपनी हाथ की घड़ी भी उतारकर उसे दे दी। दुनिया में कुछ भी मुफ़्त नहीं मिलता। इसलिए हम जब किसी से कुछ लें तो बदले में उन्हें भी कुछ ज़रूर दे देना चाहिए। नहीं तो आगे जाकर पता नहीं कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ जाए। वह बच्ची मीरा घड़ी लेकर बहुत ख़ुश हो गई थी और उसने मुझे लाखों दुआएँ भी दी थीं। पगली ये भी नहीं जानती थी कि जो उसने मुझे दिया है उसके बदले ये तो कुछ भी नहीं था। बाद में ड्राइव करते हुए मैं यही सोच रही थी कि अब जब कभी वह बच्ची मुझे बड़े पर्दे पर देखेगी या फिर किसी फ़िल्मी पत्रिका में और तब उसे पता चलेगा कि इसका नाम भी मीरा है, तो चाहे कुछ पल के लिए ही सही वह ख़ुश तो होगी कि मेरे नाम की इतनी बड़ी हीरोइन है। पता नहीं उसे तब तक मेरा चेहरा याद भी रहेगा या नहीं? कभी-कभी मुझे ये सोचकर गिल्ट भी होता कि मैंने उसे क्यों नहीं बताया कि मैं उसका नाम शेयर करने वाली हूँ? शायद इस बात से उसे फ़र्क़ भी नहीं पड़ता। अगर पड़ता तो बस इतना कि वह जब भी मुझे देखती तो यही सोचती कि मैंने इसे अपना नाम दिया था। और मुझे यही सोचकर एक बोझ-सा महसूस होता रहता कि उसे पता है मैंने उसका नाम लिया है। फिर हम दोनों ही एक-दूसरे की सोच में लेनदार-देनदार वाला रिश्ता सारी ज़िंदगी निभाते रहते। कभी-कभी जो होता है वह अच्छा ही होता है।
बाद में मैं जब भी उस रास्ते से गुज़रती, मेरी नज़र उसे ढूँढ़ने लगती। लेकिन वह मुझे फिर कभी दिखाई नहीं दी।
अविनाश लूथरा
चौपाटी पर अचानक शोर बढ़ गया। सूरज भी पूरी तरह डूब चुका है। बस इतनी ही रौशनी बाक़ी है जितनी पूरी तरह अँधेरा होने से पहले होती है। लोग जान गए हैं मैं मर चुकी हूँ। कुछ लोग अख़बार में ख़बर पढ़ रहे हैं, तो कुछ सोशल मीडिया पर। कोई फ़ोन पर अपने किसी जानने वाले से मीरा की अचानक हुई मौत पर हैरानी जता रहा है। एक पानी-पूरी वाले ने तो मीरा की फ़िल्मों के गाने ही अपने मोबाइल पर लगा दिए। एक जवान जोड़ा तो इसी बात पर बहस रहा है कि मीरा की सबसे अच्छी फ़िल्म कौन-सी थी। दो-चार लोग तो अपने घर की तरफ़ लौट भी चुके हैं ताकि घर जाकर टीवी पर आराम से डिटेल में पता कर सकें कि आख़िर सच क्या है। जो बचे हैं वह आपस में बस इसी विचार-विमर्श में लगे हैं कि मीरा को किसने मारा। कुछ लोगों का मानना है कि शायद विपक्षी पार्टी ने मरवा दिया होगा। उन्हें डर होगा कि मीरा इतनी मशहूर है कि वह मेजौरिटी में वोट ले जा सकती थी। तो कुछ लोग कह रहे हैं कि घर के नौकरों ने ही मरवा दिया होगा। और कुछ लोग इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि मीरा आत्महत्या भी तो कर सकती है। ये सब देखकर मेरा मन फिर से रोने को कर रहा है।
अपने पंद्रह साल के फ़िल्मी करियर में मैंने बहुत से दुश्मन बनाए, लेकिन उस दुश्मनी की हद मर्डर नहीं हो सकती। वहाँ बदले की संभावना ज़रूर हो सकती थी, पर मर्डर की कहानी नहीं। वो दुश्मनी एक प्रोफ़ेशनल ईर्ष्या से ज़्यादा कुछ भी नहीं थी। बस मुझे एक ही बात की चिंता है कि अगर पुलिस को भी यही लगा कि मैंने आत्महत्या की तो क्या होगा? उनके ऐसा सोचने के पीछे एक ठोस वजह भी होगी। पिछली रात मैं जब पार्टी से लौटी तो मैं अकेली थी। मेरा ड्राइवर मुझे पार्किंग में छोड़कर घर चला गया था। जबसे मैंने फ़िल्मों से रिटायरमेंट ली थी तबसे मैंने बॉडीगार्ड रखना छोड़ दिया था। मेरे पार्किंग से अपने अपार्टमेंट पहुँचने तक की सीसीटीवी फ़ुटेज पुलिस को मिल जाएगी और इस बात का सबूत भी कि मैं अपने घर के अंदर दाख़िल होने तक सही सलामत थी। घर के अंदर भी उन्हें ऐसे कोई सबूत नहीं मिलेंगे जिससे उन्हें लगे कि किसी भी तरह की कोई ज़बरदस्ती वहाँ हुई हो। जब मैंने ख़ुद को आख़िरी बार देखा था तब मुझे मेरा शरीर नीला पड़ा हुआ तो नज़र आ रहा था लेकिन उस पर किसी भी तरह के कोई चोट के निशान नहीं थे। राज़ी, रानी और राजीव से पूछताछ करने के बाद पुलिस को उन्हें छोड़ना ही पड़ेगा क्योंकि उनके पास मुझे मारने की कोई बोलती वजह ही नहीं थी। वह तीनों मेरे साथ काफ़ी समय से थे। वो सब आज़ाद थे अपना काम अपने हिसाब से करने के लिए। मेरी किसी भी तरह की कोई दख़लअंदाज़ी नहीं थी। न ही मैं कभी उन पर किसी बात को लेकर चिल्लाती या ग़ुस्सा होती थी। वो मेरे लिए काम करके ख़ुश थे। और ऐसा भी नहीं था कि मुझे मारने के बाद उन्हें कोई फ़ायदा होता। हाँ एक शख़्स है जिस पर पुलिस का शक जा सकता है।
ये बात 2005 की है। मुझे फ़िल्मों में आए लगभग चार साल हो चुके थे। मेरी तब तक दस फ़िल्में आ चुकी थीं। जिसमें से पाँच बड़ी हिट थी और पाँच ने ठीकठाक बिज़नेस कर लिया था। एक दिन मुझे अविनाश लूथरा का फ़ोन आया। वह मुझसे एक मीटिंग करना चाहता था। उसका ख़ुद का एक प्रोडक्शन हाउस था। उसकी कंपनी ने पिछले कुछ सालों में कई अच्छी फ़िल्में बॉलीवुड को दी थीं। इससे पहले हमारी मुलाक़ात एक दो बार अवॉर्ड फ़ंक्शंस में ही हुई थी। उस वक़्त उसकी उम्र चालीस के आस-पास की रही होगी। देखने में वह ताल फ़िल्म वाले अक्षय खन्ना जैसा लगता था। ऐसे तो बॉलीवुड में उसकी बहुत इज़्ज़त थी लेकिन पता नहीं ये अफ़वाह थी या सच मगर ये अक्सर सुनने में आता कि ख़ूबसूरत लड़कियाँ उसकी कमज़ोरी थीं। ख़ैर, तय समय पर मैं अपने मैनेजर के साथ उससे मिलने पहुँची। एक बड़ी-सी बिल्डिंग में एक पूरे फ़्लोर पर उसका ऑफ़िस था। उसने अपनी सेक्रेटरी से मेरे मैनेजर को बाहर बैठने को कहकर सिर्फ़ मुझे अंदर आने को कहा। अक्टूबर का महीना था। दो दिन बाद दीवाली थी। उसी दिन दिल्ली में तीन आतंकवादी हमले हुए थे। इस ख़बर की वजह से मेरा मन पहले से ही दुखी और हमलावरों के लिए ग़ुस्से से भरा हुआ था। उसके केबिन के बाहर एक पंद्रह-सोलह साल का लड़का बैठा था। मुझे देखते ही वह खिल उठा और बोला वह मेरा बहुत बड़ा वाला फ़ैन है। मैंने उसकी तरफ़ मुस्कुराकर देखा और अंदर चली गई। मुझे देखते ही अविनाश अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया। उसका ऑफ़िस उस वक़्त के हिसाब से काफ़ी मॉडर्न और वेल-ऑर्गनाइज़्ड था। उसके ऑफ़िस के इंटीरियर के हिसाब से जो एक चीज़ वहाँ फ़िट नहीं हो रही थी वह थी सारे हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें, जो एक कोने में एक टेबल पर सजी हुई थीं। वैसे मुझे किसी के आस्तिक होने से कोई दिक़्क़त नहीं थी, लेकिन वह अपने बड़े से ऑफ़िस में उनको एक अलग से जगह दे सकता था। ख़ैर, मिलने की सब औपचारिकताएँ निभाने के बाद मेरी नज़र टीवी पर पड़ी। वह शायद मेरे आने से पहले दिल्ली में हुए सीरियल ब्लास्ट की ख़बरें ही देख रहा था। मेरा ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए वह बोला, “मेरा बस चले तो मैं इन आतंकवादियों को एक लाइन में खड़ा करके गोली मार दूँ।”
“अच्छा है, इंसान का सब बातों पर ज़ोर नहीं चलता। आतंकवादी मरते न मरते मगर अब तक हमें ज़रूर कोई मार चुका होता।”
“तुम्हारे सेंस ऑफ़ ह्यूमर के चर्चे तो सुने थे, आज देख भी लिया।” हँसते हुए उसने मेरे आगे पानी का गिलास बढ़ाया।
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