पुस्तक का विवरण (Description of Book of ज़न्नत और अन्य कहानियां / Jannat Aur Anya Kahaniyan PDF Download) :-
नाम 📖 | ज़न्नत और अन्य कहानियां / Jannat Aur Anya Kahaniyan PDF Download |
लेखक 🖊️ | खुशवन्त सिंह / Khushwant Singh |
आकार | 54.7 MB |
कुल पृष्ठ | 169 |
भाषा | Hindi |
श्रेणी | कहानी-संग्रह, व्यस्क / Adult |
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खुशवंत सिंह का निस्संदेह एक यादगार लघु कथा संग्रह - हास्य-व्यंग्य पूर्ण, विचारोत्तेजक, बेबाक और मर्मस्पर्शी...
पुस्तक का कुछ अंश
जन्नत और अन्य कहानियां
खुशवंत सिंह हिंदुस्तान के मशहूर लेखक और कॉलमिस्ट हैं। वे योजना के संस्थापक–संपादक, और इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया, द नेशनल हेराल्ड और द हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक रह चुके हैं। उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं, जिसमें उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान ’, ‘डेल्ही ’ और ‘द कंपनी ऑफ़ वीमन ’, दो खंडों में लिखा श्रेष्ठ ग्रंथ ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स ’, और अनेक अनुवाद तथा सिख धर्म तथा संस्कृति, प्रकृति और ज्वलंत समस्याओं पर कथा–इतर साहित्य शामिल है। वर्ष 2002 में उनकी आत्मकथा, ‘ट्रुथ, लव एंड ए लिटिल मैलिस ’, पहली बार प्रकाशित हुई।
1980-1986 तक खुशवंत सिंह सांसद भी रहे। 1974 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया, जिसे उन्होंने 1984 में भारतीय सेना के स्वर्ण मंदिर में घुसने के विरोध में वापस कर दिया था।
एन. अकबर अंग्रेज़ी के प्राध्यापक हैं। वे कई वर्षों से अनुवाद कार्य से जुड़े हुए हैं।
नैना,
मेरी आंखों का तारा
लेखक की कलम से
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1962 में भारतीय ज्योतिषियों ने समवेत स्वर में भविष्यवाणी की कि 3 फ़रवरी को शाम 5 : 30 पर संसार में सारा जीवन समाप्त हो जाएगा, क्योंकि उस पल आठ ग्रह एक सीध में आ जाएंगे। हवन कुंडों में मंत्रोच्चारों के बीच टनों घी जला दिया गया। स्कूल–कॉलेज बंद रहे, बसें, ट्रेनें और हवाई जहाज़ ख़ाली रहे। लोग घरों में ही रहे, ताकि प्रलय के वक्त्त परिवार के साथ रहें।
तीन फ़रवरी आई और चली गई। कुछ नहीं हुआ। पूरी दुनिया हम पर हंसती रही।
मुझे उम्मीद थी कि इस अनुभव से हिंदुस्तानियों का ज्योतिषी और भविष्य बताने के ऐसे ही दूसरे तरीकों—हस्तरेखा शास्त्र, अंकशास्त्र, रत्न शास्त्र, टैरो कार्ड और जाने क्या–क्या—पर से विस्वास उठ जाएगा। मेरी उम्मीदों पर पानी फिर गया। भविष्यवाणियों के साथ ही धर्मांधता और कटृरपन बढ़ गया। वैयवित्तक प्रगति के लिए धार्मिकता मोहरा बन गई। हिंदुस्तान धूर्तों और दोगले चरित्रों का देश बन गया।
जब इस अविवेक और धर्माभिमान को लेकर मेरे सब्र का पैमाना छलक गया, तो दो साल पहले मैंने इन कहानियों को लिखना शुरू किया।
जन्नत
पुणे, 1982
मैं यहां जिस वजह से आई वह मेरी नीले रंग की चमड़े की जिल्द चढ़ी नोटबुक, मेरी ‘डियर डायरी’ में आंशिक रूप से दर्ज है जिसमें हाई स्कूल और उसके बाद कॉलेज में गुजारे दो वर्षों के दौरान मैं अपनी दिन भर की गतिविधियां और विचार लिख लिया करती थी। फिर मुझे ये बचकाना लगने लगा, और वैसे भी, वयस्क होने के बाद मैंने जो कुछ किया वह लिखने लायक था भी नहीं। वो पूरा दौर एक तरह से बर्बादी में ही गुजर गया। अब मैं तीस साल की हूं, अभी भी अविवाहित और अमेरिकी हूं–कम से कम मेरा पासपोर्ट तो यही दर्शाता है। लेकिन हालात इतने बदल गए हैं कि मुझे अपनी डायरी की तरफ़ वापस आना ही पड़ा। बर्बाद वर्षों को मैं पूरी तरह भुला चुकी हूं। और अब मैं वहां हूं जहां मुझे अपने बचपन में होना चाहिए था–भारत में।
मैं अपने मां–बाप की दूसरी औलाद और इकलौती बेटी हूं। मेरे पिता यहूदी हैं, और मेरी मां जो कि उनसे दस वर्ष छोटी हैं, एंगलिकन हैं। दोनों को ही अपने–अपने धर्म में कोई खास रुचि नहीं थी। हमारे विशाल मकान के दरवाज़े पर एक मेजूज़ा था और हमारे सिटिंग रूम के कॉर्निस पर एक मेनोरा हुआ करता था। साल में एक बार, यौम किपर पर, हम अपने पिता के साथ सिनागॉग जाते थे और मेरी मां यहूदी कसाई से मांस लाती थीं। और साल में एक बार क्रिसमस पर हम मास के लिए चर्च जाते थे, अपने लिविंग रूम में क्रिसमस का पेड़ रखते थे और शराब, भुनी टर्की और क्रिसमस के हलवे की दावत पर दोस्तों को बुलाते थे। जहां तक धर्म का सवाल है, बस हम इतना ही करते थे।
मेरे पिता पोलिश नस्ल के एक विशालकाय आदमी थे। वो गहरे, अमेरिकी लहजे में अंग्रेजी बोलते थे। मेरी मां एक सभ्य वंश से थीं। वो छोटी सी बेहद आकर्षक महिला थीं–बाल सुनहरी, आंखें नीली और छातियां ऐसी जिन पर छुरियां चल जाएं। मेरी कभी समझ में नहीं आया कि मेरे बदशक्ल पिता से उन्होंने क्यों शादी की। वो एक विशाल यहूदी डिपार्टमेन्ट स्टोर में चीफ़ सेल्स मैनेजर थे, और मेरी मां बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्ज़ के एक सदस्य की पर्सनल सेक्रेटरी थीं जो उन्हें अपनी हमबिस्तर बनाना चाहता था। ये शख्स हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गया तो उन्होंने उसे अपनी हद में रहने को कहा, और बोर्ड के एक अन्य सदस्य की सेक्रेटरी बन गई। साथ ही उन्होंने मेरे पिता से भी शादी करने का वादा कर लिया जो काफ़ी समय से उन पर डोरे डाल रहे थे।[adinserter block="1"]
ये शादी शुरू से ही नाकाम रही। मेरे पिता अय्याश थे। वो अकसर कामकाज के सिलसिले में न्यूयॉर्क से बाहर रहते थे और चालू किस्म की औरतों को चलाने से कभी बाज नहीं आते थे। इस तरह की औरतों की कहीं कोई कमी नहीं थी। वो लापरवाह भी थे और अपने कोटों के दामन पर और जेबों में अपनी अय्याशी के सुबूत छोड़ देते थे। उनके घर लौटने पर हमेशा ज़बरदस्त झगड़े हुआ करते थे। जब तक मैं चार साल की हुई, मेरे मां–बाप की शादी लगभग टूट चुकी थी। वो बिरले ही एक–दूसरे से बात करते थे। मेरे पिता अय्याशी करते रहे; मेरी मां ने भी आशिक तलाश लिए। आखिरकार मेरी मां ने तलाक के लिए मुकद्दमा दायर कर दिया, और उन्हें मकान, बच्चों की परवरिश और एक भारी गुजारा भत्ता मिला। मेरे पिता घर छोड़कर चले गए ओर मेरी मां अपने आशिकों को घर पर दावत देने लगीं।
मैं अपनी मां और बाप दोनों पर गई हूं। अपने पिता की तरह, मैं लंबी हूं; और मुझे अपने सुनहरी बाल, गहरी नीली आंखें और विशाल वक्ष अपनी मां से मिले हैं। मुझे स्कूल में सबसे सुंदर लड़की चुना गया था और लड़के मेरे पीछे पड़े रहते थे। मैं तब सोलह बरस की थी जब मैंने अपना कुंवारापन स्कूल बेसबाल टीम के कैप्टन पर न्यौछावर कर दिया। हमारी मुलाकातें कुछ महीनों तक चलती रहीं। फिर उसे टहलाने के लिए और लड़कियां मिल गईं और मैं भी खुशी–खुशी दूसरे लड़कों से मिलने लगी।
हाई स्कूल के दौरान और फिर कॉलेज के जमाने में, जहां से मैंने सेक्रेटरी का कोर्स किया, यही सब चलता रहा। एक पब्लिशिंग हाउस के मालिक की सेक्रेटरी की हैसियत से मुझे एक अच्छी नौकरी मिल गई। मैं खुद किराए का मकान ले सकती थी, लेकिन पता नहीं क्यों मैं मां के साथ ही रहती रही। तब तक मेरा भाई कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके शिकागो में नौकरी पर लग चुका था। मेरी मां अब भी जब चाहतीं, अपने शरीफ दोस्तों को बुला लेती थीं। मैंने भी अपना रास्ता अख्तियार कर लिया, और अपने प्रेमियों को रात गुजारने के लिए घर पर बुलाने लगी। मैं और मेरी मां कभी एक–दूसरे के रास्ते में नहीं आईं। कभी–कभी तो मकान के उनके भाग में उनके दोस्त होते थे और मेरे भाग में मेरे। कभी–कभी बीयर या कॉफी या खाने के लिए कुछ लेने को रसोई में हमारा आमना–सामना होता, तो वे पूछती थीं, ‘कैसा चल रहा है, बेटे?’ मैं जवाब देती, ‘बढ़िया’, और फिर हम अपने–अपने दोस्तों के पास वापस चली जाती थीं।
मैं जब हाई स्कूल में थी, तभी से मैंने श्शराब पीनाश्शुरु कर दिया था। बाद में मैंने कोकीन और चरस पीना भीश्शुरु कर दिया। अकसर मैं इतने नशे में होती थी कि पता ही नहीं चलता था कि मेरे बिस्तर पे कौन लड़का है। कभी–कभी तो हम छह इकट्ठा शराब और चरस पी रहे होते थे। हम अपने कपड़े उतार देते थे और साथी बदल–बदल कर सैक्स करते थे। ऐसा आमतौर पर शनिवार की शाम को होता था ताकि रविवार को नशे के असर से छुटकारा हासिल कर सकें। कई साल तक ऐसा ही चलता रहा और फिर मुझे अपने अंदर एक खालीपन का अहसास होने लगा। मौजमस्ती के प्रति मेरा जोश मद्धम पड़ने लगा। मुझे अपनी अय्याशी और जो कोई भी चाहे उसे अपना शरीर मुहैया करा देने के लिए खुद से नफरत होने लगी। कभी–कभी मुझ पर उदासी छाने लगती थी। कई बार तो मैंने खुदकुशी के बारे में भी सोचा।
फिर एक घटना ने मुझे यकीन दिला दिया कि मुझे अपने जीने का ढंग बदलना ही होगा वरना मैं पागल हो जाऊंगी।
एक शाम मकान के अपने भाग में मैं अकेली थी, और बिस्तर पे लेटी कुछ पढ़ रही थी। मेरी मां के पास उनका एक प्रेमी आया हुआ था। उनकी आवाजें तेज़ होती चली गई; मैंने अपनी मां को चिल्लाते सुना, ‘निकल जा मेरे घर से, वरना मैं पुलिस को बुला लूंगी।’ कुछ ही क्षण बाद सुर्ख आंखें लिए एक तगड़ा, अधेड़ उम्र का आदमी लड़खड़ाता हुआ मेरे कमरे में आया। उसने अपनी पैंट उतारी और अपना तना हुआ लिंग मेरे सामने कर दिया। ‘मेरा लिंग तुम अपनी योनि में लोगी, डार्लिंग?’ कहता हुआ वो मेरी तरफ बढ़ा। ‘तुम्हारी मां मुझसे खफा है और ये ले ही नहीं रही है। तो...’इससे पहले कि वो और आगे बढ़ता, मैंने अपनी किताब फेंककर उसके लिंग पे मारी और चिल्लाई, ‘भाग जा, साले, हरामज़ादे, वरना अपने हाथों से तेरा गला घोंट दूंगी मैं।’ किताब ठीक उसकी गोलियों पर जाकर लगी। वह दर्द से दोहरा हो गया और ये चिल्लाता हुआ लड़खड़ाता बाहर निकल गया, ‘साली रंडियो। मैं तुम दोनों को जल्दी ही सबक सिखाऊंगा।’ मैंने अपने बैडरूम का दरवाज़ा बंद किया और बिस्तर पर वापस आ गई, लेकिन सो नहीं सकी। मुझे महसूस होने लगा कि अगर मैंने इस जीवनशैली को ख़त्म नहीं किया, तो ख़ुद ख़त्म हो जाऊंगी।[adinserter block="1"]
यह लगभग उसी समय की बात है कि मैंने भारत को खोजा। मुझे ठीक से याद नहीं कि ऐसा किस तरह हुआ, अलावा इसके कि मेरी एक सहेली ने मुझे बताया कि वो मैनहटन में मेरे घर से कुछ दूरी पर रामकृष्ण सैंटर में कोई भाषण सुनने गई थी। वो वक्ता से बहुत ज़्यादा प्रभावित थी। मैंने उससे कहा कि जब वो अगली बार वहां जाए, तो मुझे भी साथ ले चले।
वो एक बड़ा कमरा था जिसमें लगभग सौ कुर्सियां थीं। लगभग आधे श्रोता भारतीय थे, और बाकी अमेरिकी सहित विभिन्न राष्ट्रीयताओं के कॉकेशियन थे। मैंने अभी तक जितनी भी धार्मिक सभाओं में भाग लिया था ये उन सबसे भिन्न थी।
एक कालीन के ऊपर बिछी सफ़ेद सूती चादर और एक अगरबत्तीदान जिससे सुगंधित धुएं के गोले उठ रहे थे, के अलावा मंच बिल्कुल खाली था। सफ़ेद शर्ट और पाजामा पहने एक युवक आया। उसके छोटे–छोटे बाल थे और वो इतना साफ़–सुथरा दिखाई दे रहा था जैसे अभी–अभी नहा कर आया हो। उसने हाथ जोड़ कर सभी का अभिवादन किया और धीरे से झुककर कहा, ‘नमस्ते’। कुछ श्रोताओं ने ‘नमस्ते’ कहकर जवाब दिया।
वो सफ़ेद चादर पर पद्मासन लगाकर बैठ गया और उसने अपनी आंखें बंद कर लीं। कुछ देर वो ख़ामोश बैठा रहा, फिर उसने हाथ उठाए और गहरे, गूंजदार स्वर में पुकारा, ‘ओम्’। श्रोताओं में से कुछ ने उसकी आवाज में आवाज मिलाई। ये एक छोटा, दो अक्षर वाला शब्द नहीं था, बल्कि एक लम्बा ओ– –म् था जो पूरे हॉल में गूंज गया। मुझे इसका अर्थ नहीं पता था लेकिन ये बड़ा संतोषदायक लगा।[adinserter block="1"]
‘मित्रों,’ उसने शुरुआत की, ‘भाषणों की श्रं खला में आपने मुझे विभिन्न विषयों पर बात करते सुना है। आज मैं इस विषय पर बात करूंगा कि जीवन के प्रति हिंदुओं का क्या द ष्टिकोण है। पश्चिम के लोग जीवन को बिल्कुल भिन्न द ष्टिकोण से देखते हैं। यहां आपको भौतिक सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है, और इसी को मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य समझा जाता है। आपके बीच कड़ी प्रतिस्पर्द्धा होती है, आप कड़ी मेहनत करते हैं ताकि जीवन पर्यन्त आपको सांसारिक सुख प्राप्त होते रहें। आपके जीवन तनाव से भरे होते हैं, जिससे छुटकारे के लिए आप में से अनेक लोग मनोचिकित्सकों से परामर्श करते हैं। आप अपनी चिंताओं को उच्च जीवन शैली—शराब, नशाख़ोरी और स्वच्छंद सैक्स में डुबोने का प्रयास करते हैं। आप समझते हैं कि उच्च जीवनशैली ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। परंतु शीघ्र ही आप अपने अंदर एक खोखलापन महसूस करते हैं और स्वयं से पूछना आरंभ कर देते हैं, ‘क्या प थ्वी पर जीवन का उद्देश्य बस यही कुछ था?’
उस शख़्स की बातों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। ऐसा लगता था जैसे वो मेरा मन पढ़ रहा हो। उसने लगभग उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल किया था जिनका इस्तेमाल मैं अपने जीवन के बारे में सोचते समय करती थी। वो आगे बोला, ‘मित्रों, जीवन में धन कमाने और अच्छा समय व्यतीत करने के अतिरिक्त भी कुछ है। जीवन का उद्देश्य जानने के लिए आपको अपने भीतर झांकना होगा। स्वयं से पूछिए, मुझे क्यों पैदा किया गया है? इस संसार का अर्थ क्या है? म त्यु के उपरांत मुझे कहां जाना है? इन प्रश्नों पर ख़ामोशी से और एकांत में सोचिए, अपने मस्तिष्क को सारे विचारों से खाली करके इन पर ध्यान कीजिए। सत्य आपके अंदर है। ईश्वर आपके अंदर है।’ उसकी कही हुई सारी बातें मेरी समझ में नहीं आईं, लेकिन मैं सोचने पर मजबूर हो गई।
ऐसा लगने लगा कि मौजमस्ती करने, शराब पीने, नशा करने और मर्दों के साथ सोने में कोई मज़ा नहीं है। मैं पहले से भी ज़्यादा विचलित हो गई। मैंने सैंटर में होने वाले सभी भाषणों को सुनना नियम बना लिया, और वहां मेरी मुलाकात कुछ भारतीयों से हुई। मैंने उनसे उनके देश में स्थित मैडिटेशन केंद्रों के बारे में पता किया। उन्होंने मुझे आश्रमों के बारे में बताया जहां पुरुष और स्त्रियां समुदायों में रहते थे, और एक साथ प्रार्थना और ध्यान करते थे। वहां शराब पीना, धूम्रपान करना और सैक्स वर्जित था। भोजन शाकाहारी है, क्योंकि पशुओं को मारना पाप समझा जाता था। ये सात्विक जीवन शैली मेरे लिए एक गुत्थी के समान थी। मैं इसे आज़माना चाहती थी, कम से कम एक–दो महीने के लिए।
रामकृष्ण सैंटर की भारत में कई शाखाएं थीं, लेकिन ये मैडिटेशन से ज़्यादा सामाजिक कार्यों से संबंधित थीं। मैं जिन भारतीयों से मिली, उन्होंने मुझे विभिन्न आश्रम सुझाए–पांडिचेरी में अरविन्द आश्रम, पुट्टापार्ती में सांई बाबा आश्रम, पुणे में ओशो समुदाय, पंजाब में राधा स्वामी और गंगा किनारे कई अन्य स्थान। मैंने उनमें से कई को चिट्ठियां लिखीं और जवाब में मुझे उनकी शर्तों सहित छपी हुई पुस्तिकाएं मिलीं। वहां भोजन और निवास अमेरिकी स्तर से बहुत सस्ता था, और पांच डॉलर प्रतिदिन से अधिक नहीं था। मैंने इन स्थानों की सही जगह जानने के लिए भारत का मानचित्र देखा, और फिर हिमालय में हरिद्वार के पास गंगा के पश्चिमी तट के करीब वैकुंठ धाम का चयन किया। मुझे ये नाम वैकुंठ धाम, यानी धरती की जन्नत पसंद आया। उनके भेजे कैटलॉग में मुझे इसका चित्र भी पसंद आया: एक छोटे से मंदिर के साथ बड़ा सा आंगन, जिसके चारों तरफ एक बरामदा था जिसमें रहने वालों के कमरे, एक बड़ा सा मैडिटेशन हाल, और एक लंबी मेज़ तथा लकड़ी की बेंचों से सुसज्जित एक डाइनिंग रूम था। लेकिन मुझे सबसे अधिक पसंद वो वाक्य आया जो उन्होंने ‘निवास का किराया’ के आगे लिखा था। वहां लिखा था, आप जितना अधिक से अधिक चाहें दें या जितना कम से कम दे सकें दें।
मैंने फैसला कर लिया। मैंने अपनी मां से कहा कि मैं दो महीने की छुट्टी पर भारत जा रही हूं।[adinserter block="1"]
‘लेकिन आखिर भारत ही क्यों?’ उन्होंने पूछा। ‘भिखारियों और हर तरह की बीमारियों और अजीब से लोगों से भरा देश।’
‘वहां कुछ ऐसा है जो दुनिया के किसी दूसरे देश में नहीं है। अगर मुझे वो नहीं मिला तो मैं पहले ही लौट आऊंगी,’ मैंने जवाब दिया।
मैंने एक अंग्रेजी–हिन्दी शब्दकोश खरीदा और काम चलाने के लिए कुछ हिंदी शब्द और वाक्यांश सीख लिए।
भारत पहुंचने से पहले वहां के बारे में थोड़ा सा अंदाजा करने के इरादे से मैंने न्यूयॉर्क–लंदन–दिल्ली के रास्ते पर एयर इंडिया से जाने का फैसला किया। कैनेडी एयरपोर्ट के इकोनॉमी क्लास काउंटर पर मुझे भारतीयों की एक लंबी लाइन में लगना पड़ा। डैस्क पर बैठे एक आदमी ने मुझे देखा तो वो मुझे पंक्ति के अंत से डैस्क पर ले गया, उसने मेरा बैग चैकइन किया और मुझे बोर्डिंग पास दे दिया। ‘मैडम, इकोनॉमी क्लास भर चुका है; हम आपको बिज़नेस क्लास दे रहे हैं। आपकी यात्रा मधुर हो।’ कालों के बीच श्श्वेत होना काम आ गया।
हीथ्रो एयरपोर्ट पर स्टॉप शानदार महाराजा लाउंज में बीता, जहां मुझे नाश्ता पेश किया गया और मैं शॉपिंग आर्केडों में घूमती रही। दिल्ली के लिए उड़ान में कुछ नए यात्री शामिल हो गए, और मैंने उनमें से कुछ से बातचीत शुरू कर दी। वे ये जानने को उत्सुक थे कि मैं क्या करने भारत जा रही हूं। जब मैंने कहा, ‘कुछ नहीं, बस यूं ही घूमने और जीवन के उद्देश्य पर चिंतन करने,’ तो ये बात सारे जहाज़ में फैल गई और मैं सब की बातचीत का विषय बन गई। देहरादून का रहने वाला एक यात्री मुझसे बातचीत करने मेरे पास आ गया।
‘मैं कभी वैकुंठ धाम गया तो नहीं हूं लेकिन उसके बारे में बहुत कुछ सुना जरूर है। मेरे घर से ज़्यादा दूर नहीं है। सुना है कि बड़ा खूबसूरत आश्रम है और पहाड़ों में जहां से गंगा गुजरती है वहां बसा हुआ है। कहा जाता है कि आश्रम के मुखिया बहुत विद्वान आदमी हैं। वो नित्य प्रार्थना और मैडिटेशन सख़्त अनुशासन के साथ चलाते हैं। आप वहां कैसे जाएंगी ?’
‘ट्रेन? बस, कार? कुछ कह नहीं सकती। जिस होटल में मेरा तीन–चार दिन ठहरने का इरादा है उसके ट्रैवल एजेंट से पूछूंगी,’ मैंने जवाब दिया।
‘मैं आपको अभी बता सकता हूं,’ उस आदमी ने कहा। दिल्ली में टैक्सी किराए पर लेना। हरिद्वार तक पहुंचने में आपको पांच घंटे लगेंगे। उसके बाद गंगा के किनारे–किनारे आपको पहाड़ों के घुमावदार रास्तों पर जाना होगा। दो घंटे में आप वैकुंठ धाम पहुंच जाएंगी। दिल्ली से सवेरे ही निकलना, दोपहर तक आप अपनी मंज़िल पर होंगी। टैक्सी के आपको दो हज़ार रुपए से ज़्यादा नहीं लगेंगे।
मैंने जल्दी से इसका हिसाब डॉलर में लगाया। ये मेरे बजट के अंदर था। मैं पहले ही ले मैरीडियन होटल में तीन दिन ठहरने का पैसा अपने ट्रैवल एजेंट को दे चुकी थी। मैंने नई दिल्ली के अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर इमिग्रेशन, कस्टम और टैक्सियों के बारे में तरह–तरह की अफ़वाहें सुन रखी थीं। लेकिन मुझे कोई समस्या नहीं हुई।
एयर इंडिया के एक अधिकारी ने मुझे इमिग्रेशन की कतार से पास कराया, मेरे वीज़ा पर मुहर लगवाई और मुझे देहरादून वाले मेरे सहयात्री के हवाले कर दिया जिसने मुझसे वादा किया था कि वो मुझे अपनी कार में ले मैरीडियन होटल पर छोड़ देगा। एक अजनबी देश में इससे ज़्यादा आसान और खुशनुमा स्वागत और क्या हो सकता था। हमारा विमान आधी रात के कुछ देर बाद पहुंचा था; दो घंटे बाद मैं होटल के एयर–कंडीशंड कमरे में गहरी नींद सो रही थी, दरवाजे पर ‘डू नॉट डिस्टर्ब’ की तख्ती लगाए।
पता नहीं मैं कितनी देर सोती रही थी। मेरी घड़ी अभी भी न्यूयॉर्क का समय दिखा रही थी। जब मैं जागी तो बाहर दिन खिला हुआ था। मैंने सोचा कि मुझे अपनी मां को बता देना चाहिए कि सुरक्षित पहुंच चुकी हूं। होटल के ऑपरेटर ने नंबर मिलाया, तो मैंने अपनी मां की गुर्राहट सुनी, ‘कौन है?’
‘मैं हूं, मॉम। मैं दिल्ली में हूं।’[adinserter block="1"]
‘ये कौन सा वक्त है फोन करने का?’ वो चिल्लाईं। ‘पता भी है, रात के दो बज रहे हैं।’
‘सॉरी, मॉम। यहां तो सुबह हो रही है। आप सो जाइए‚’ उन्होंने फोन पटक दिया। ऐसा नहीं लगता था कि उन्हें मेरी कमी महसूस हो रही है।
मेरा होटल का कमरा अमेरिका के किसी होटल के कमरे जैसा था। बाथरूम में शैंपू की कई बोतलें, टूथब्रश, टूथपेस्ट का एक ट्यूब और एक शेविंग किट भी मौजूद थी। टॉयलेट सीट के चारों तरफ कागज़ का रिबन था। कमरे में स्विस एल्प्स की तस्वीरें लटकी थीं और बैडसाइड टेबल पर गिडियन बाइबल थी। ये सब उस भारत से बिल्कुल भिन्न था जिसके बारे में मैंने सोचा था। मैंने जल्दी से स्नान किया, नए कपड़े पहने और कुछ खाने के लिए बाहर निकल पड़ी–नाश्ता, खाना, जो भी मिल जाए। मैं नीचे रिसेप्शन पर पहुंची तो पता चला कि बारह तो कब के बज चुके हैं। इसलिए मैंने कॉफी शॉप में सूप, सैंडविच और कॉफी ली। फिर मैं शॉपिंग आर्केड में घूमने लगीः आभूषण, कालीनों, शॉलों, एंटीक, दवाइयों की दुकानें। मैं एलीवेटर से टॉप फ्लोर पर पहुंची जहां एक बड़ी सी बार और रेस्टोरंट था।
विशाल खिड़कियों से मैंने शहर का दिलकश द श्य देखा, एक चौड़ी सी सड़क के अंत में जिस पर फूलों भरे पेड़ों और पानी की टंकियों की कतारें थीं, पेरिस की आर्क डी ट्रायोमफी जैसी दिखाई दे रही इमारत (जो वहां इंडिया गेट कहलाती थी) से लेकर सचिवालय और प्रेज़ीडेंट के महल तक, जिसके बारे में मुझे गाइड बुक से पता चला कि वो राष्ट्रपति भवन कहलाता है। उसे देख कर मुझे वाशिंगटन के कैपिटल हिल की याद आ गई। कारों, बसों, टैक्सियों और तिपहियों, जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखा था, की कतारें सड़क पर दोनों तरफ रेंगती दिखाई दे रही थीं। दिल्ली साफ–सुथरा, सुव्यवस्थित, और जहां मैं खड़ी थी, वहां से शांत भी दिखाई देता था। ये निश्चित रूप से वो भारत नहीं था जिसकी मैंने कल्पना की थी।
मैं वास्तविक तस्वीर के थोड़ा करीब तब आई जब मैं एक एयर–कंडीशंड बस में शहर का भ्रमण कर रहे सैलानियों के एक दल में शामिल हुई। हम कई प्राचीन स्मारकों और शोर व भीड़ भरे बाज़ारों से गुजरे। मैंने पहले कहीं भी इतने सारे लोग नहीं देखे थे। जिधर भी नजर जाती थी लोग ही लोग दिखाई देते थे। ये उस भारत जैसा था जैसा मैंने सोचा था।
मैंने दिल्ली की सड़कों पर पैदल घूमते दो दिन और गुज़ारे। मैं जहां भी जाती थी भिखारी मेरे पीछे लग जाते थे। जैसा कि मेरे दोस्तों ने मुझे समझाया था, मैं उन्हें कुछ भी नहीं देती थी। अकसर फुटपाथों पर लोग मुझे रगड़ मारते हुए निकल जाते थे, और दो बार तो मेरे नितम्ब भी छुए गए। मुझे ऐसे लोगों से और बैग छीनने वालों से होशियार रहने की सलाह दी गई थी। अपना बैग तो मैं चिपकाए रखती थी, मगर चूतड़ कैसे बचाती। लेकिन मैं इससे परेशान नहीं हुई। इस तरह मैंने भारत को करीब से महसूस कर लिया।
पहली मार्च, 1980 को सवेरे लगभग सात बजे मैं दिल्ली से वैकुंठ धाम के लिए चली। मेरा ड्राइवर रंग–बिरंगी पगड़ी पहने एक नौजवान सिख था। वो थोड़ी–बहुत अंग्रेजी बोल लेता था और जरूरत से ज्यादा स्मार्ट बनने की कोशिश कर रहा था। मैंने यात्र के शुरू में ही उसे उसकी औकात जता दी। ‘नज़रें सड़क पे रखो;’ मैंने उससे कहा। ‘मुझे कुछ जानना होगा, तो पूछ लूंगी। मुझे ज़्यादा बातें करना पसंद नहीं।’[adinserter block="1"]
‘बहुत अच्छा, मैडम,’ उसने कहा। ‘हम हरिद्वार के आधे रास्ते पर एक जगह रुकेंगे। मैडम वहां गर्मागरम कॉफ़ी पी सकेंगी। मैं थोड़ी देर आराम कर लूंगा।’
ऐसा ही हुआ भी। हम दिल्ली से निकल कर अल्लम–गल्लम, गंदी सी बस्तियों से गुज़रते रहे। ट्रैफिक बहुत ज्यादा था–कारें, बसें, ट्रैक्टर, बैलगाड़ियां, साइकिलें–ड्राइवर लगातार हॉर्न बजाता रहा। जो ग्रामीण इलाका मैंने देखा उसने मुझे प्रभावित नहीं कियाः चिल्ले की तरह समतल, बीच–बीच में हरे गेहूं और आम के बगीचों की हरियाली; मैंने इतना धूल भरा इलाका कहीं नहीं देखा था। धूल और शोर से बचने के लिए हमने कार के शीशे चढ़ा रखे थे और एयर–कंडीशनर चला लिया था। मैंने उससे उन बस्तियों के नाम नहीं पूछे, क्योंकि मेरे लिए उनका कोई अर्थ नहीं था। ढ़ाई घंटे बाद हमारी कार चीता प्वाइंट नाम के एक फास्ट–फूड ज्वाइंट की पार्किंग में रुक गई।
‘मैडम, मैं नाश्ता करके आधे घंटे में आता हूं,’ ड्राइवर ने मुझसे कहा।
मैंने एक एस्प्रेसो और चीज़बर्गर का ऑर्डर दिया। हालांकि एस्प्रेसो में कॉफी कम झाग ज्यादा थे और चीज़बर्गर वैजीटेरियन था, लेकिन मुझे दोनों ही चीजें अच्छी लगीं। मैंने बिल अदा किया और वहां के सुव्यवस्थित चमन में टहलने लगी जिसमें तरह–तरह के फूल और बत्तखों, टर्की, तोतों और कई तरह के जल–पक्षियों के पिंजरे थे। मैंने रैस्ट रूम में जाकर मुंह धोया और फिर लॉन में एक कुर्सी पर बैठ गई। वो जगह एक लोकप्रिय स्टॉप लगती थी।
आधे घंटे बाद हम फिर से चल चुके थे। जब दूर पहाड़ियां नज़र आने लगीं तो देहाती इलाका भी ऊबड़–खाबड़ दिखाई देने लगा। यहां खेत कम और जंगल ज़्यादा थे। थोड़ी–थोड़ी देर बाद गहरे लाल रंग के फूलों से लदे पेड़ दिखाई दे जाते थे। मुझे लग रहा था जैसे ये जंगलों की ज्योति है। फिर शायद मैं सो गई। मेरी आंख तब खुली जब ड्राइवर ने घोषणा की, ‘हरिद्वार, मैडम। पावन नगरी। हर की पौड़ी वो सीढ़ियां हैं जो गंगा माता के पास ले जाती हैं, संसार का पवित्रत्म स्थान।’
एक संकरे भीड़–भाड़ वाले बाज़ार से गुज़रने के बाद, मुझे नदी की झल्कियां दिखाई दीं। फिर, मेरे बाई तरफ पहाड़ की दीवार और दूसरी ओर एक चौड़ी घाटी जिसमें नदी बह रही थी, और घने जंगलों भरी पहाड़ियां। हम टेढ़ी–मेढ़ी, धूल भरी सड़क पर ऊपर बढ़ते चले गए, और बहुत से मंदिरों और राख मले गेरुवे कपड़े पहने साधुओं के पास से गुजरते रहे। लगभग तीन बजे हम मेन रोड से मुड़े, और घने जंगलों भरी पहाड़ियों से गुजरते लगभग गंगा के किनारे तक पहुंच गए जहां ज़मीन का एक समतल टुकड़ा था जिसमें सब्ज़ियां और बूटियां उगी हुई थीं और एक विशाल सफ़ेद दीवार थी जिसमें एक गेट लगा हुआ था।
‘मैडम, वैकुंठ धाम,’ ड्राइवर ने विजयी भाव से घोषणा की, और अंदर प्रवेश कर गया।[adinserter block="1"]
ये बिल्कुल वैसा ही था जैसा पुस्तिका में दिखाया गया था–मंदिर, आंगन, कमरे। बस पुस्तिका में चारों तरफ फैले ऊंचे पहाड़, नीचे गंगा तक जाता रास्ता, देवदार और फर के पेड़ों की महक बिखेरती हवा और चट्टानों और पत्थरों के ऊपर से गुज़रती नदी की आवाज नहीं थी। मुझे लगा कि ये जगह मुझे पसंद आएगी।
मैंने ड्राइवर को उसका पैसा दिया, और साथ में सौ रुपये टिप भी। वो खुश हो गया। इसलिए और भी कि उसे हरिद्वार और उससे आगे तक की सवारियां मिल गईं। मैं रिसेप्शन काउंटर की ओर बढ़ गई।
‘यस मैडम,’ डैस्क पर बैठे आदमी ने कहा। ‘आप न्यूयॉर्क की मारग्रेट ब्लूम होंगी। आपको एक कमरा चाहिए था। कमरा आपके लिए दो महीने के लिए रिज़र्व कर दिया गया है। शाम की प्रार्थना छह बजे शुरू होती है। प्रार्थना के बाद रात का खाना। मुझे विश्वास है कि आपके पास शराब या सिगरेट नहीं होगी–उन पर पाबंदी है। मैं आपको आपका कमरा दिखाता हूं। स्वामी जी आपसे कल मिलेंगे, प्रातःकाल की प्रार्थना के बाद।
मुझे मेरे कमरे ले जाया गया। वहां एक चारपाई थी जिसपर बिस्तर, तकिया और चादरें थीं; एक कुर्सी, एक मेज़, एक लाइट, एक पंखा, दीवार पर दो तस्वीरें–एक तस्वीर भगवान शिव की जिनके गले में अनेक कोबरा लिपटे हुए थे और उनके सिर पर बंधे बालों के जूड़े से गंगा निकल रही थी, और दूसरी तस्वीर गेरुवा कपड़े पहने एक गंजे आदमी की थी, जो शायद स्वामी जी थे। वहां कोई आईना नहीं था। बाद में मुझे पता चला कि ऐसा इसलिए था कि स्वामी जी का मानना था कि अपने चेहरे को देखने और उसकी प्रशंसा करने से इंसान में घमंड और दिखावा आता है और ये दोनों ही घोर पाप हैं।
‘लू नहीं है? मेरा मतलब बाथरूम नहीं है?’ मैंने पूछा।[adinserter block="1"]
‘मैडम, वो बाहर हैं, उस दरवाजे से,’ उस आदमी ने आंगन की पश्चिमी दीवार में एक दरवाजे की ओर इशारा करते हुए कहा। ‘महिलाएं और पुरुष अलग–अलग। दो यूरोपियन–स्टाइल, बाकी इंडियन। साबुन या शैंपू इस्तेमाल करना चाहें तो वाशरूम भी हैं। लेकिन साबुन व शैंपू गंगा में ले जाने की इजाज़त नहीं है।’
उसके जाने के बाद मैंने दरवाजा बंद किया और चारपाई पर पसर गई। ये कोई बहुत आरामदेह बिस्तर नहीं था, लेकिन मुझे बुरा नहीं लगा। हालांकि मैं थकी हुई थी, लेकिन मैं सो नहीं सकी और सोचती रही कि मैंने खुद को किस चक्कर में डाल लिया है। फिर लोगों के प्रार्थना के लिए इकट्ठा होने की आवाजें आने लगीं। मैंने उन्हें एक स्वर में जाप करते सुना और फिर वो कुछ गाने लगे जिसका मुझे सिर्फ आखरी शब्द समझ आ रहा था, ‘हरे।’ ये बड़ा शांतिदायक था। गायन अचानक थम गया और फिर बरामदे से पदचापों की आवाजें सुनाई देने लगीं। मैं समझ गई कि रात के खाने का समय हो गया है। मैंने हिम्मत जुटाई और डाइनिंग रूम में दाखिल हो गई। वहां लगभग सौ पुरुष और स्त्रियां थीं, जिनमें भारतीय वेष–भूषा में लगभग एक दर्जन गोरे भी थे। मेरा गर्मजोशी से स्वागत किया गया। ‘नमस्ते’ मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया, और दोनों हाथ जोड़ दिए।
एक बहुत छोटी सी औरत, जो साढ़े चार फुट से ज़्यादा नहीं रही होगी, खड़ी हुई और कहने लगी, ‘बहन, तुम मेरे पास बैठो।’ मैं बेंच पर उसके पास बैठ गई।
‘मेरा नाम पुतली है, जिसका अर्थ होता है कठपुतली। मैं गुजरात से हूं। और तुम ?’
‘मेरा नाम मारग्रेट ब्लूम है, मैं न्यूयॉर्क से हूं।’ हमने हाथ मिलाया; उसका हाथ तीन साल के बच्चे के साइज़ का था, और सिल्क की तरह मुलायम था।
पीतल की प्लेटों में भोजन परोसे जाने से पहले एक जर्मन शिष्य द्वारा संस्कृत में एक छोटी सी प्रार्थना पढ़ी गई। पुरुषों और महिलाओं की एक टोली मेज़ के चारों तरफ घूमती हुई चम्मच भर–भर कर चावल, दाल और दो सब्जियां बांट रही थी, और ये सब एक ही प्लेट में दिया जा रहा था। वहां चम्मच या कांटे नहीं थे। जिंदगी में पहली बार मैंने उंगलियों से खाना खाया। मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था लेकिन मैंने खुद को ये सोचकर दिलासा दिया कि मैं जल्दी ही सीख जाऊंगी। मीठे में हमें पेड़ा दिया गया। मैंने अपने सामने रखे पानी के गिलास को हाथ नहीं लगाया। मुझे इसके बारे में पहले ही सावधान कर दिया गया था। पुतली ने मेरी हिचकिचाहट को भांप लिया और कहा, ‘गंगा जल, बहन, पवित्र गंगा का पानी; ये स्वच्छ और पवित्र है।’
मैंने सिर हिला कर मना कर दिया। ‘मैं भोजन के साथ पानी नहीं पीती हूं,’ मैंने झूठ बोल दिया।
हाल के छोर पर बने बेसिनों में हमने हाथ धोए और कुल्ला किया। कई पुरुषों और स्त्रियों ने आकर मुझे अपना परिचय दियाः जर्मन, ऑस्ट्रेलियन, अमेरिकन, इंग्लिश और भारतीय। पुतली मुझे अपनी खोज समझ रही थी। वो मुझे हाथ पकड़ कर मेरे कमरे तक लाई।
‘तुम्हें अकेले रहना बुरा नहीं लगता? मुझे तो रात में अकेले डर लगता है। रात को मैं डॉरमिटरी में अन्य महिलाओं के साथ सोती हूं।’
‘नहीं,’ मैंने जवाब दिया। ‘मैं हमेशा से अकेले कमरे में रही हूं। मुझे अच्छी नींद आ जाती है।’
‘ठीक है। मैं तुम्हें सवेरे जगा दूंगी। हम सब सूर्यास्त के समय गंगा में डुबकी लगाने एक साथ जाते हैं। ये आश्रम का रुटीन है। सभी इस पर अमल करते हैं।’
मैंने पुतली को गुडनाइट कहा और सोने लेट गई। बेआराम बिस्तर और लकड़ी जैसे तकियों के बावजूद, मुझे गहरी और शांत नींद आई। आश्रम का घंटा बजा तो मुझे लगा जैसे मैं अभी भी सपना देख रही हूं। फिर दरवाज़े पर हल्की सी दस्तक हुई और पुतली ने पुकारा, ‘मारग्रेट बहन, स्नान का समय हो गया है।’
मैंने उसके अंदर आने के लिए दरवाजा खोला। ‘स्नान क्या होता है?’ मैंने पूछा।
‘पवित्र डुबकी। लेकिन पहले संडास।’
‘वो क्या?’[adinserter block="1"]
‘अरे, वही, टॉयलेट। वहां तुम साबुन से नहा भी सकती हो। नदी पर साबुन ले जाने की इजाज़त नहीं है।’ उसके एक हाथ में छोटी सी फ्लैशलाइट और दूसरे में पानी का लोटा था। ‘तुम अपना टॉयलेट पेपर साथ ले लेना। और एक तौलिया भी। मैं तुम्हें रास्ता बता दूंगी।’
अभी अंधेरा घुप्प था। आसमान में सफ़ेदी आना शुरू ही हुई थी। हमारे ऊपर सुबह का तारा चमक रहा था। आंगन की मद्धम सी रोशनी में टॉयलेट आती–जाती भुतहा आकृतियां दिखाई दे रही थीं। अपने साथ लाए टॉयलेट रोल से मैंने एक टुकड़ा फाड़ा, उसे अपने ड्रेसिंग गाउन की जेब में ठूंसा और कंधे पर तौलिया डाल लिया। पुतली की फ्लैशलाइट के पीछे–पीछे मैं टॉयलेट पहुंची। मैं बाहर निकली तो वो मेरे इंतजार में बैठी फ्लैशलाइट से खेल रही थी, और उसकी रोशनी से अंधेरे में दायरे और लहरिये बना रही थी। मैं उसके साथ आश्रम से निकल कर नदी को जाने वाले फुटपाथ पर हो ली। आसमान में अब ज़्यादा सफेदी आ चुकी थी। बड़ा हसीन नज़ारा था। विशालकाय पहाड़, एक वो जिस पर हम चल रहे थे, और दूसरा सामने की तरफ। और हल्की नीली रोशनी के फैलाव के बीच, चट्टानों और पत्थरों के ऊपर से शोर मचाती समतल इलाकों की तरफ बढ़ती नदी। इस नज़ारे का आनन्द लेने को मैं थोड़ी देर को ठिठक गई। मैंने दोनों हाथ आसमान की तरफ उठाए और चिल्लाई, ‘ये जन्नत है।’
‘ठीक कहा,’ पुतली बोली। ‘इसीलिए इसे वैकुंठ कहते हैं। चलो रोशनी फैलने से पहले स्नान से निबट लें। फिर बहुत से पुरुष आ जाएंगे। कुछ के दिमाग गंदे होते हैं।’ रास्ते के अंत पर गंगा दो भागों में विभाजित हो गई थी–दूसरी ओर मुख्य धारा और हमारी तरफ एक बड़े द्वीप जैसे भाग में बंटी, उथली, धीमे–धीमे चलती धारा। पानी में कुछ गज़ आगे की तरफ कुछ आदमी थे। पुतली ने अपनी फ्लैशलाइट, लोटा और तौलिया जमीन पर रखे और साड़ी पहने–पहने पानी में उतर गई। ‘ऊ..., बहुत ठंडा है। हरिओम्, हरिओम्। आ जाओ, बहन’ उसने कहा।
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