इब्नेबतूती / Ibnebatuti PDF Download Free Hindi Books by Divya Prakash Dubey

पुस्तक का विवरण (Description of Book of इब्नेबतूती / Ibnebatuti PDF Download) :-

नाम 📖इब्नेबतूती / Ibnebatuti PDF Download
लेखक 🖊️   दिव्य प्रकाश दुबे / Divya Prakash Dubey  
आकार 2.3 MB
कुल पृष्ठ183
भाषाHindi
श्रेणी
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होता तो यह है कि बच्चे जब बड़े हो जाते है तो उनके माँ-बाप उनकी शादी कराते हैं लेकिन इस कहानी में थोड़ा-सा उल्टा है, या यूँ कह लीजिए कि पूरी कहानी ही उल्टी है। राघव अवस्थी के मन में एक बार एक उड़ता हुआ ख़याल आया कि अपनी सिंगल मम्मी के लिए एक बढ़िया-सा टिकाऊ बॉयफ्रेंड या पति खोजा जाए। राघव को यह काम जितना आसान लग रहा था, असल में वह उतना ही मुश्किल निकला। इब्नेबतूती आज की कहानी होते हुए भी एक खोए हुए, ठहरे हुए समय की कहानी है। एक लापता हुए रिश्ते की कहानी है। कुछ सुंदर शब्द कभी किसी शब्दकोश में जगह नहीं बना पाते। कुछ सुंदर लोग किसी कहानी का हिस्सा नहीं हो पाते। कुछ बातें किसी जगह दर्ज नहीं हो पातीं। कुछ रास्ते मंज़िल नहीं हो पाते। इब्नेबतूती-उन सभी अधूरी चीज़ों, चिट्ठियों, बातों, मुलाक़ातों, भावनाओं, विचारों, लोगों की कहानी है।

 

लेखक के बारे में:

 

दिव्य प्रकाश दुबे ने चार बेस्ट सेलर किताबें—‘शर्तें लागू’, ‘मसाला चाय’, ‘मुसाफ़िर Cafe’ और ‘अक्टूबर जंक्शन’—लिखी हैं। ‘स्टोरीबाज़ी’ नाम से कहानियाँ सुनाते हैं। AudibleSUNO एप्प पर उनकी सीरीज ‘पिया मिलन चौक’ सर्वाधिक सुनी जाने वाली सीरीज में से एक है। दस साल कॉरपोरेट दुनिया में मार्केटिंग तथा एक लीडिंग चैनल में कंटेंट एडिटर के रूप में कुछ साल माथापच्ची करने के बाद अब वह एक फ़ुलटाइम लेखक हैं। मुंबई में रहते हैं। कई नए लेखकों के साथ ‘रायटर्स रूम’ के अंतर्गत फ़िल्म, वेब सीरीज़, ऑडियो शो विकसित करते हैं। यह इनकी पाँचवीं किताब है।
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पुस्तक का कुछ अंश

 

इब्नेबतूती- इस शब्द का कोई मतलब नहीं होता। इसलिए आप इसको अपनी मर्ज़ी और ज़रूरत के हिसाब से कोई भी मतलब दे सकते हैं।
कुछ सुंदर शब्द कभी शब्दकोश में जगह नहीं बना पाते। कुछ सुंदर लोग किसी कहानी का हिस्सा नहीं हो पाते। कुछ बातें किसी जगह दर्ज नहीं हो पातीं। कुछ रास्ते मंज़िल नहीं हो पाते। उन सभी अधूरी चीज़ों, चिट्ठियों, बातों, मुलाक़ातों, भावनाओं, विचारों, लोगों के नाम एक नया शब्द गढ़ना पड़ा।
कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनको सहेजने वाले इस दुनिया में बस दो लोग होते हैं। वो शब्द जो उस रिश्ते के साथ मर जाते हैं तो कई बार वही शब्द इस दुनिया को बचा लेते हैं।
प्रेम में डूबे हुए लोग ही नए शब्द बनाने की कोशिश करते हैं। नई जगह जाने की कोशिश करते हैं। वे सैकड़ों साल पुरानी इस दुनिया को एक नई नज़र से समझना चाहते हैं। इस दुनिया को नए शब्द शब्दकोश ने नहीं, बल्कि प्रेम में डूबे हुए लोगों ने दिए हैं। हमारा जो हिस्सा प्रेम में होता है, वो कभी पुराना नहीं होता। इस दुनिया को एक नई नज़र से देख पाना ही प्यार है। मुझे कभी-कभी ऐसा शक होता है कि जैसे कोई मुझे इब्नेबतूती नाम से पुकार रहा है। तुम कहीं आस-पास लगते हो।
10 अक्टूबर, 2015
दूर जाना, वापस लौटने की तरफ़ बढ़ा हुआ पहला क़दम होता है। कार से एयरपोर्ट दिखना शुरू हो चुका था। वह समय आ चुका था जिसका राघव अवस्थी को सालों से इंतज़ार था। जैसे-जैसे एयरपोर्ट पास आ रहा था राघव की माँ, शालू अवस्थी का अपने बेटे के लिए दुलार बढ़ता जा रहा था। उसने राघव को अपने सीने से चिपका लिया था। जैसे जानवर अपने पैदा हुए बच्चे को अपने पास चिपका लेते हैं। इस दुलार में राघव के बाल बार-बार बिगड़ रहे थे। राघव उनको बार-बार सही कर रहा था।[adinserter block="1"]
“अरे यार अम्मा, बाल ख़राब हो रहे हैं।”
“अब्बे होने दे ख़राब, एयरपोर्ट के अंदर जाकर एक बार में ठीक कर लेना। अब कहाँ बाल ख़राब कर पाऊँगी!”
“यार अम्मा, तुमने प्रॉमिस किया था न कि जाते हुए सेंटी नहीं मारोगी!”
“चुप कर, भाड़ में गया प्रॉमिस। तू रोज़-रोज़ अमेरिका थोड़े जाएगा! पता नहीं अब कितने दिन में आएगा!”
“अच्छा अम्मा, एक बात बताऊँ?”
“अब याद आ रही है बात, जब एयरपोर्ट सामने आ गया? जल्दी बोल।”
“जब स्कूल बस छूट जाती थी और तुम मुझे अपनी स्कूटी से छोड़ने जाती थी तो उस दिन पता नहीं क्यों रोना आ जाता था।” यह कहते हुए राघव ने कार की खिड़की से एयरपोर्ट की तरफ़ देखा। उसकी आँखों में पानी था। शालू की आँखें सूखी हुई थीं।
“आज तेरे पापा की बहुत याद आ रही है।”
“अम्मा यार!” कहते हुए राघव ने एक बार फिर से शालू को गले लिया। शालू ने राघव के माथे को चूमकर उसका सिर सहलाते हुए उसके सारे बाल एक बार फिर ख़राब कर दिए।
एयरपोर्ट अब ठीक सामने था। कार रुकने के बाद कुछ देर तक दोनों ने दरवाज़ा नहीं खोला।
“जल्दी आना, समझा?”
“अम्मा, पहले जाने तो दो!”
तीन महीने पहले
एक थी अम्मा, एक था बेटा।
‘असल में हमें उन्हीं चीज़ों के सपने आते हैं जो हमारे पास नहीं होतीं।’
हालाँकि ऐसा सबसे पहली बार पुराने लखनऊ के किसी पनवाड़ी के यहाँ उधार लेकर बीड़ी पीते हुए एक नवाब साहब ने कहा था, लेकिन सिगमंड फ़्रायड ने अपनी किताब में लिख दिया और फ़ेमस हो गया।
सुबह के 9 बज रहे थे। राघव सपनीली दुनिया में उम्मीदों के ग़ोते लगा रहा था। राघव ऐसे सोता था कि जैसे दुनिया के सारे घोड़े उसने कल रात ही बेचे हों। वैसे भी बीस-इक्कीस साल के लड़के सुबह उठते नहीं उठाए जाते हैं। अगर ग़लती से उठा भी दिए गए तो तुरंत बोलेंगे, “क्या यार मम्मी, क्यों उठा दिया, अभी 9 ही तो बजे हैं!”
यह राघव के लिए रोज़ का ही सिलसिला है। लखनऊ यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन ख़त्म हुए एक साल हो गया है। वैसे जब कॉलेज चल भी रहा था तो कॉलेज जाना इतना होता नहीं था। कुछ तो ख़ुद ज़रूरी नहीं समझता और कुछ कॉलेज वाले। जिस दिन वह कॉलेज चला भी जाता था उस दिन पूरे लखनऊ का एक चक्कर लगाकर ही घर लौटता था।
चक्कर अकेले नहीं लगाता था, दो लोग और होते थे। पहली तो उसकी बाइक जिसको वह हेलीकॉप्टर से कम नहीं समझता था। दूसरी उसकी गर्लफ़्रेंड निशा जो कि क्लास 11th में ही बेस्ट फ़्रेंड से गर्लफ़्रेंड बन चुकी थी। एक ख़ास उम्र में लड़के बाइक चलाते नहीं उड़ाते हैं। प्यार का इज़हार राघव ने अपनी बाइक पर बैठकर हज़रतगंज में शुक्ला जी की वर्ल्ड फ़ेमस चाट खाते हुए किया था।[adinserter block="1"]
“तुमसे बहुत प्यार हो गया है बे, निशा। टिक्की कौन-सी लोगी, आलू वाली या मटर वाली? तुम्हारी हाँ है कि ना है?”
निशा ने प्यार के लिए हाँ करने में कुल तीन मिनट लगाए थे। शुक्ला चाट वाले से एक चम्मच मीठी चटनी एक्स्ट्रा लेकर पहले ख़ुद थोड़ी-सी खा ली और उसी चम्मच से राघव को थोड़ी-सी चटनी चटा दी थी। फिर एहसान करते हुए बोली, “चल, आज से मैं तेरी गर्लफ़्रेंड हो गई। अब किसी और की तरफ़ देखा तो दस सैंडल मारूँगी और गिनूँगी एक।”
‘मारेंगे दस गिनेंगे एक’ लखनऊ की प्राचीनतम और ज़रूरी परंपराओं में एक रहा है।
राघव तुरंत ही सैंडल खाने को तैयार हो गया था। इस प्रकार उनका प्यार शुरू हुआ। लखनऊ शहर में प्यार करना अब आसान हो गया था। लखनऊ शहर क्या इन-जनरल अब प्यार करना बहुत आसान हुआ था।
इतने मॉल थे, इतने कॉफ़ी हाउस, इतने पार्क, इतने पिक्चर हॉल कि अगर ऐसे बदले हुए माहौल में कोई अब भी हपककर प्यार नहीं कर पा रहा तो यह सिस्टम, समाज, दुनिया की नहीं उसकी ख़ुद की ग़लती थी। अब प्यार को छत पर कपड़े सुखाने का, पतंग उड़ाने का इंतज़ार कहाँ करना पड़ता था! अब व्हॉट्सएप्प में लास्ट सीन से जूझती हुई दुनिया क्या जाने कि चिट्ठियों और पर्चियों का इंतज़ार क्या होता था!
वैसे तो रोज़ राघव मम्मी के ऑफ़िस जाने के बाद उठता था। उठने के बाद रोज़ एक ही काम था- दो घंटे तीन-चार तरह के अलग-अलग अख़बार पढ़ना। राघव की मम्मी मतलब कि शालू अवस्थी कृषि विभाग में एडिशनल डायरेक्टर थी।
शालू को देखकर कोई कह नहीं सकता कि उनका 20 साल का लड़का होगा। यूँ तो मम्मी अधिकारी थी लेकिन उसके अंदर अधिकारियों वाले एक भी लक्षण नहीं थे। न ही कभी ऑफ़िस की गाड़ी लेती थीं न ही किसी से कोई फ़ेवर और न ही कभी रिश्वत। कुल-मिलाकर इतना कह सकते थे कि जिस भी वजह से सरकारी नौकरी करनी चाहिए वो सारे फ़ायदे शालू कभी नहीं उठातीं।
अगर वह चाहतीं और जैसी उनकी पोज़ीशन थी तो बहुत कमा लेतीं। पेपर मिल कॉलोनी में बस एक चार कमरे का घर था। घर भी उन्होंने नहीं ख़रीदा। राघव के पापा ने अपने जीते-जी घर बनवा लिया था।
घर में बस दो लोग रहते। राघव और शालू। राघव के पिताजी राघव के चार साल का होते-होते चल बसे थे। पापा बड़े अधिकारी थे। उन्होंने ही शालू को शादी के बाद सरकारी नौकरी की तैयारी करवा दी थी। वर्ना शालू और सरकारी नौकरी एक पन्ने पर साथ में लिखे ही नहीं जा सकते थे।[adinserter block="1"]
अवस्थी परिवार शहर के एकदम मिडिल में पड़ता था और मोहल्ले के ज़्यादातर लोग लोअर-मिडिल क्लास से मिडिल क्लास के बीच के थे। वैसे भी शहर बड़ा हो या छोटा, अमीर लोग शहर के एक कोने में रहते हैं।
राघव को फ़िलहाल लाइफ़ से बस एक चीज़ चाहिए कि अमेरिका से डाटा साइंस में पोस्ट ग्रेजुएशन हो जाए। लॉन्ग रन में राघव डाटा साइंटिस्ट बनना चाहता है। उसको किसी ने नहीं बताया कि इसमें स्कोप बहुत है। उसको डाटा से खेलना अच्छा लगता है। इसी चक्कर में वह ऑनलाइन ही दुनिया भर के सर्टिफ़िकेशन कर चुका है। चुनाव हो या अख़बार में आने वाला कोई भी डाटा, राघव को उसको पढ़कर समझने में अलग लेवल की मास्टरी है। ऐसे में क़ायदे से उसको एमबीए का इम्तिहान देकर कहीं मैनेजर बनने का सोचना चाहिए, लेकिन डाटा फ़ील्ड में ही काम करने का उसका मन है। चूँकि उत्तर प्रदेश में पैदा हुए, पले-बढ़े लोगों को कई बार यह भ्रम होता कि उनकी राजनीति की समझ अच्छी है, मगर राघव को अपने बारे में ऐसा नहीं लगता। पर उसको यह समझ थी कि किसी के डाटा ट्रेल* को पढ़कर आदमी की आत्मा को समझा सकता है।
(*डाटा ट्रेल- इंटरनेट चलाते हुए हम अपने पीछे एक रास्ता बनाते हुए चलते हैं और राघव को इसको जोड़कर एक निष्कर्ष निकालने में बहुत मज़ा आता है। आप कब ऑनलाइन शॉपिंग करते हैं, किस समय ऑनलाइन रहते हैं, पेमेंट कब और कहाँ से करते हैं, ऑफ़िस में बैठकर कितनी देर सोशल मीडिया अकाउंट चलाते हैं, आपने एक दिन में कितनी बार अपने सोशल मीडिया अकाउंट को खोला, किस वेबसाइट पर आप कितनी देर तक रहे, स्क्रीन पर कैसी फ़ोटो आती है तब आप क्लिक करते हैं... ऐसी और भी तमाम चीज़ें।)
2014 के लोकसभा चुनाव के पूरे डाटा को निकालकर उसने एक रिपोर्ट बनाई थी। जिससे हर लोकसभा क्षेत्र के बारे में अच्छे से समझ सकता था। उसकी यह रिपोर्ट एक पॉलिटिकल कंसल्टिंग फ़र्म ने ठीक-ठाक पैसे देकर ख़रीदी थी। अगर ऑनलाइन कुछ भी मिल सकता हो तो राघव उसको ढूँढ़ सकता था।
चूँकि वह विदेशी यूनिवर्सिटी के अपने रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रहा था, इसलिए टाइम पास और पैसे के लिए, एमबीए की एक कोचिंग में डाटा इंटरप्रिटेशन पढ़ा देता था[adinserter block="1"]
हालाँकि राघव जब बात करता तो लगता नहीं कि कभी अँग्रेज़ी बोल भी सकता था लेकिन लखनऊ के महानगर ब्वॉयज़ में पढ़ने वाले लड़के जितनी अच्छी लखनउआ भाषा बोल लेते, उतनी ही अच्छी अँग्रेज़ी। वह पढ़ने में हमेशा से अच्छा रहा था।
हालाँकि शालू मन-ही-मन नहीं चाहतीं कि लड़का इतनी कम उम्र में उनसे दूर हो जाए। दुनिया की सभी माँएँ अपने बच्चों से इतनी बातें करती हैं लेकिन अपने मन की बात कहने में उनके पास भाषा कम रह जाती है। हर माँ अपनी मर्ज़ी को, बच्चे की ख़ुशी से तौलती है और बच्चे की ख़ुशी वाला पलड़ा चाहे हल्का हो या भारी इसकी नौबत आती ही नहीं क्योंकि माँ के तराज़ू में दोनों तरफ़ बस बच्चे की ख़ुशी का ही पलड़ा होता है।
राघव के एडमिशन की ख़बर किसी भी दिन आ सकती थी। चूँकि उसके कंसल्टिंग वाले प्रोजेक्ट को हर जगह बहुत सराहना मिली थी, इसलिए उसको यह विश्वास था कि उसको अमरीका की स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी या कोलंबिया यूनिवर्सिटी में से कहीं एक जगह एडमिशन मिल जाएगा।
लल्लोचप्पो
राघव के मेल बॉक्स में रात को ही एडमिशन होने की ख़बर आ गई थी। उसकी पहली च्वॉइस स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी थी। वह ख़ुशी से अम्मा के कमरे में जब बताने गया तब घड़ी पर नज़र गई और सुबह के 4 बज रहे थे। उसने ख़ुशी में निशा को फ़ोन किया। निशा अपनी बहन के साथ सो रही थी। बहन छोटी थी और बिलकुल भी समझदार नहीं थी। फ़ोन बजते ही बोली, “दीदी, थोड़ी आशिक़ी दिन में भी कर लिया करो यार, रात में नींद ख़राब करती हो!”
निशा ने हल्की आवाज़ में पूछा, “हम्म!”
हम्म अपने आप में फ़ुलस्टॉप हो सकता है। ग़ुस्सा, प्यार, दुलार, बेचारगी सब कुछ हो सकता है।
“अबे, एडमिशन हो गया मेरा!”
“अरे वाह, मज़ा आ गया! आई एम सो सो हैप्पी फ़ॉर यू, मुआ!” निशा की नींद खुल चुकी थी और आवाज़ तेज़ हो गई थी। उसकी बहन ने तकिया अपने कान पर लगाया और बोली, “थोड़ा लप्पोचप्पो दिन के लिए भी छोड़ दो।”
निशा बेड से उठकर बालकनी में आ गई।
“अक्टूबर बताया न तूने, जाने का टाइम आ ही गया फिर तो। आंटी को बता दिया?”
“कहाँ बता पाया, अभी दस मिनट पहले ही तो ईमेल आया!” राघव ने अपने लैपटाप में ईमेल को दुबारा पढ़ा।
“स्कॉलरशिप मिली?”
“हाँ, पूरी।”
“वाह! बहुत बढ़िया लड़के। आंटी कितनी ख़ुश होंगी!”
“हाँ बहुत, अच्छा सुन एक प्रॉमिस चाहिए तुझसे।”
“हाँ बोल न, पूछ क्या रहा है!”
“यार, तू अम्मा का ख़याल रखना।”[adinserter block="1"]
“ये भी कोई बोलने वाली बात है! अच्छा सुन आंटी को देख के बताना। झटका थोड़ा आराम से देना।”
“हाँ और क्या, चल लव यू।” राघव के यह बोलने के बाद निशा ने कुछ देर तक जवाब नहीं दिया। वह राघव के जाने की ख़बर से ख़ुश तो थी लेकिन पिछले क़रीब 5 साल से वे हर एक दिन के साथी थे। उसने अपनी आँखों को साफ़ किया। फ़ोन को 5 सेकेंड म्यूट करके गले को खखारा ताकि उसके रूँधे हुए गले की आवाज़ राघव समझ न पाए और बोली, “लव यू टू लड़के, यार तू सच में चला जाएगा?”
“यार ऐसे मत बोल, अभी तो पूरे 3 महीने हैं।” राघव ने जब निशा से बात ख़त्म करके घड़ी देखी तो सुबह के 6 बज चुके थे। राघव या निशा से कोई पूछता दो घंटे बात क्या हुई तो बता पाना मुश्किल है और समझा पाना भी।
सुबह की चाय में सुबह रहती थी।
राघव को कमरे के बाहर पक्षियों के चहचहाने की आवाज़ आ रही थी। उसने बाहर जाकर सुबह को देखा। सुबह कई दिन बाद देखो तो अपने पास बुलाती है। उसको अच्छा लगा और वह छत पर ही खड़ा होकर आसपास से उड़ती हुई चिड़िया को देखकर ख़ुश होने लगा। उसको उड़ती चिड़िया के पीछे दूर एक हवाई जहाज़ भी जाता दिखा। उस हवाई जहाज़ को देखते हुए यह भी दिखा कि जल्द ही वह ऐसे ही किसी हवाई जहाज़ की खिड़की पर बैठा होगा।
शाम को शालू के लौटने पर राघव ही चाय बनाया करता था और सुबह की चाय उसने कब बनाई थी उसे याद ही नहीं था। उसने जब सुबह को अपने अंदर जज़्ब करके निशा को मैसेज किया- ‘सूरज को उगते हुए देखकर इतना अच्छा लग रहा है, सोच रहा हूँ कि हफ़्ते में एक दिन जल्दी उठा करूँ।’
निशा सुबह उठकर एक्सरसाइज़ किया करती थी। उसने पार्क में भागते हुए जवाब दिया।
“एक दिन उठा है एंज्वॉय कर, सुबह जल्दी उठने जैसे ऐसी बड़ी-बड़ी चीज़ें मत सोच।”
उसने अख़बार पढ़ लिया। अब तक भी 6:30 ही हुआ था। उसने जाकर बड़े ही आराम से चाय बनाई और चाय बनाकर वह शालू के कमरे में ले गया।
चाय मेज़ पर रखकर वह शालू के हाथ पर सिर रखकर लेट गया। शालू की नींद खुल चुकी थी। हाथ पर सिर रखते ही राघव को नींद का एहसास हुआ।
शालू ने राघव के माथे पर प्यार से हाथ रखते हुए पूछा, “क्या हुआ इतनी जल्दी! कोई सपना आया क्या?”
यूँ तो राघव कभी डरता नहीं था लेकिन कभी-कभी ऐसा हुआ था कि वह किसी सुबह के सपने से डर के मारे उठ जाता और उसको फिर नींद ही नहीं आती। जब भी ऐसा होता तो वह अम्मा के पास आकर सो जाता।
“नहीं अम्मा।”
शालू ने उसको अपने पास खींच लिया। शालू ने राघव की बनाई हुई चाय देखी नहीं थी। राघव ने भी अम्मा को और ज़ोर से चिपका लिया। कमरे का पंखा एक सेकेंड से थोड़े से कम हिस्से के लिए फ़्रीज़ हो गया। घर थोड़ा-सा ख़ुश।
“उठो अम्मा, चाय बना दी है। तुम्हें मॉर्निंग वॉक पर जाना चाहिए। पता नहीं क्या-क्या दवा खाती रहती हो!”
“जब कोई एक दिन ग़लती से सुबह जल्दी उठ जाता है न तो ऐसे ही बहकी-बहकी बातें करने लगता है।”
शालू ने राघव को हटाकर उठने के लिए हाथ हटाया।
“चाय ठंडी हो जाएगी।”
राघव ने अम्मा को हाथ नहीं हटाने दिया।
“अम्मा।”
“बड़ा प्यार आ रहा है। कुछ तो चाहिए होगा!”
“कुछ नहीं चाहिए अम्मा।”
“फिर, इतना प्यार! कुछ तो हुआ होगा फिर!”
“अम्मा, स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में एडमिशन मिल गया। दो घंटे पहले ही ईमेल आया। इसी चक्कर में नींद नहीं आई।”
राघव की यह बात सुनते हुए शालू को ख़ुशी से कूद पड़ना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह सोच में डूब गई। अक्सर होता है न कि जहाँ के लिए हम चले थे, वहाँ पहुँचते ही याद आता है कि पहुँचने की वजह खो चुकी है। एक साथ ही कई ख़याल उसके मन में आए। वह दिन आ ही गया कि राघव उससे दूर हो जाएगा। वह वहाँ सही से रह तो पाएगा? बाहर अकेले परेशान तो नहीं होगा? ये सब कुछ कुल दो-तीन सेकेंड के बीच में हुआ होगा। शालू ने अपने-आप को सँभालते हुए राघव को ज़ोर से गले लगाकर उसके माथे पर प्यार रख दिया।
“अब्बे, मज़ा आ गया। आज तो पार्टी होगी। बहुत ही बढ़िया। सेशन कब शुरू हो रहा है?”
“बस अम्मा तीन महीने बाद, अक्टूबर में।”[adinserter block="1"]
“अब्बे क्या बात कर रहा है, इतनी जल्दी?”
शालू उठकर बैठ गई। उसकी आँखों से नींद उड़ चुकी थी और इस बातचीत में चाय ठंडी हो चुकी थी। शालू ब्रश करने चली गई। राघव वहीं लेटा हुआ था। उसकी नज़र अलमारी के ऊपर रखे एक पुराने संदूक़ पर गई। वह संदूक़ जिसको खोलना अलाउड नहीं था। हर घर में ऐसे कुछ स्याह कोने होते हैं जो खोलने के लिए नहीं होते। इन जगहों पर कोई जाना नहीं चाहता क्योंकि ऐसी जगहों पर लौटकर जाना मुश्किल होता है और अगर एक बार पहुँच गए तो वापस आना असंभव हो जाता है। शुरू में राघव इस बात को लेकर परेशान होता था लेकिन धीरे-धीरे उसने उस राज़ से दोस्ती कर ली थी जो उसको पता भी नहीं था।
कुछ साल पहले राघव के ज़्यादा ज़ोर डालकर पूछने पर शालू ने बताया था कि उसके पापा के हॉस्पिटल के काग़ज़ हैं इसलिए वह उस संदूक़ को खोलना नहीं चाहती।
आलोक,
बेटा हुआ है। अभी उसका नाम नहीं रखा है। अभी सब उसको बाबू बोलते हैं। मुझे राघव नाम पसंद है। हॉस्पिटल से आने के बाद समय ही नहीं मिला। सब लोग बोलते हैं कि इसकी शक्ल इसके पापा से मिलती है। कभी-कभी जब बिना बात के हँसता है तो तुम्हारे जैसा लगता है। बाक़ी फिर कभी।
इब्नेबतूती, नवंबर 1995, लखनऊ
पीएस- किसी औरत ने कहा था कि माँ बनने के साथ ही याद आ जाती हैं तमाम भूली हुई कहानियाँ। हर माँ के पास अनगिनत कहानियाँ होती हैं। जितनी वह सुनाती जाती है, उतनी ही कहानियाँ बची रह जाती हैं।
अम्मा यार
चाय पीते हुए शालू कुछ सोच रही थी। राघव ने पूछा, “अम्मा यार, क्या हुआ?”
राघव ने लखनऊ के चलते-फिरते जुमले ‘अमा यार’ को ‘अम्मा यार’ बना दिया था। शालू ने भी दोस्ती में बोले जाने वाले शब्द ‘अबे’ को अपने हिसाब से ‘अब्बे’ बना लिया था। माँ और बेटे ने अपने लिए एक नई भाषा तो नहीं खोजी थी लेकिन नया तरीक़ा ढूँढ़ लिया था। हर परिवार की अपनी एक अलग भाषा होती है जिसमें जाने-पहचाने शब्दों के मतलब वो नहीं होते जो घर के बाहर चलते हैं, बल्कि वो होते हैं जो उस परिवार ने मिलकर ढूँढ़े होते हैं।
“कुछ नहीं हुआ। मैं तो बहुत ख़ुश हूँ। सोच रही हूँ कि तू पार्टी कब देगा।”[adinserter block="1"]
“आज शाम ही कर लेते हैं। आप बताओ किसको बुलाना है?”
“किसको क्या, निशा को बुला ले बस। तुझे पता ही है ज़्यादा लोगों को झेल नहीं पाती।”
“नाना को बुला लूँ?”
“बिलकुल नहीं।”
“अम्मा यार, अपने घर वालों से इतना नाराज़ नहीं होते।”
“पार्टी कैंसल करनी है?”
राघव चुप हो गया। जबसे उसको होश आया था वह नाना के घर जब भी जाता तो अम्मा साथ नहीं जाती। पता नहीं उनके बीच कौन-सी लड़ाई थी! तय यह हुआ कि आज शाम को ही पार्टी होगी।
राघव को नाश्ते और अख़बार के साथ ऊँघता हुआ छोड़कर शालू ऑफ़िस के लिए निकली। रोज़ की तरह उनकी राघव को दी जाने वाले फ़िज़ूल की हिदायत जारी थी कि बेटा टाइम पर खाना खा लेना।
शालू को पसंद थीं फ़िल्में, वह भी बिलकुल फ़िल्मी फ़िल्में, सलमान-शाहरुख़ वाली फ़िल्में। शाम को लौटकर वह साउथ इंडियन सिनेमा की हिंदी में डब फ़िल्में देखते हुए खाना बनाती थी। यूँ तो खाना बनाने के लिए उसने बाई रखी हुई थी लेकिन उससे सब्ज़ी कटवाकर खाना ख़ुद ही बनाती थी।
शालू ने एक रंगीन-सी साड़ी पहन रखी थी। माथे पर एक मोटी बिंदी और बाल न बड़े न ही छोटे, आँख पर एक काला गॉगल, साथ ही मोटा-सा फैंसी पर्स जिसमें से डियो, परफ़्यूम, लिपस्टिक और कंघी झाँक रहे थे।
शालू अपने पहले फ़्लोर के मकान से नीचे उतरकर जब अपनी गाड़ी की तरफ़ बढ़ी। उसकी कार के आगे किसी ने कार लगा रखी थी। उस कार को निकाले बिना कोई तरीक़ा नहीं था कि शालू अपनी कार निकाल पाए। गलियों में यूँ कार का अटक जाना पेपर मिल कॉलोनी वालों के लिए कुछ नया नहीं था। जो भी उस समय दिख रहा था शालू ने सब जगह पूछ लिया लेकिन किसी को कुछ नहीं पता था। वह ग़ुस्से में लाल-पीली से आगे बढ़कर हरी-नीली भी हो चुकी थी।
ग़ुस्से में उसने राघव के नंबर पर कॉल किया। राघव का कॉल वेटिंग आ रहा था। ग़ुस्से में शालू ने फ़ोन कट कर दिया। इतने में राघव का कॉल बैक आया।
“क्या भूल गई अम्मा?”
“अरे कुछ नहीं भूली। तू नीचे उतरकर आ पहले।”
“हुआ क्या?”
“अब सब कुछ फ़ोन पर पूछ लेगा! अपनी बाइक की चाभी लेकर आना।”
शालू की कॉल आते ही राघव ने बालकनी से देखा। उसकी कार के आगे किसी ने कार खड़ी कर रखी थी। अपनी कार के आगे वो कार देखते ही राघव के मुँह से गाली निकलने वाली थी लेकिन उसने गाली रोक ली। कोई भी लड़का अपने दोस्तों के सामने जितनी तेज़ी से गाली दे देता है, उतनी ही तेज़ी से अपने घरवालों के सामने गाली रोक लेता है। समझदार घर वाले भी ख़ुश हो जाते हैं कि चलो लड़के ने लिहाज़ कर लिया।
वह भागते हुए नीचे उतरकर कार के पास पहुँचा। राघव ने मन-ही-मन उस कार वाले की माँ को कुछ सेकेंड्स तक याद किया।
“ये क्या पहनकर आया है? जा पहले ठीक कपड़े पहनकर आ, मुझे ऑफ़िस छोड़ दे।”
“अम्मा, सही कपड़े क्या होता है? सही कपड़े पहने तो हैं शॉर्ट और टी-शर्ट।”
“जाकर पहले कोई फ़ुल पैंट जींस पहनकर आ।”
उधर शालू के ऑफ़िस से भी फ़ोन आ रहा था कि प्रिंसिपल सेक्रेट्री के यहाँ रिव्यू मीटिंग है।
“जी सर, पहुँच रही हूँ। फ़ाइल मेरे पास ही है।” यह कहकर शालू ने राघव को इशारा किया।
जब तक राघव जींस पहनकर नीचे आया इतने में शालू के ऑफ़िस से फिर फ़ोन आया कि वह कहाँ तक पहुँची। उसने झूठ बोल दिया, “बस, पाँच मिनट में पहुँच रही हूँ सर।”
राघव ने अब तक अपनी बाइक निकाल ली थी। इधर राघव और शालू मोहल्ले की गली से बाहर निकले इतने में पान चबाए एक अधेड़ उम्र आदमी शालू के सामने वाली कार के पास अपनी कार हटाने के लिए पहुँचा। उसके चेहरे पर कोई शर्म या ग़लती का एहसास दूर-दूर तक नहीं था, हाँ एक बेशर्म हँसी ज़रूर थी।
बाइक उड़ाते हुए राघव रोड पर दाएँ-बाएँ काट ही रहा था कि मोहल्ले के पास वाले मंदिर से निकलते हुए शालू ने बाइक रुकवाई।[adinserter block="1"]
राघव कभी मंदिर के अंदर नहीं जाता था। शालू ने एक मिनट के अंदर फूल चढ़ा दिया और दीया भी जला दिया और दस सेकेंड में राघव की ख़ुशी और हँसी भी माँग ली।
“क्या यार अम्मा, अब लेट नहीं हो रहा!”
“भगवान को लेकर कुछ मत बोला कर।”
राघव बाइक उड़ाता हुआ शालू को उसके ऑफ़िस लेकर पहुँच गया। उतरने से पहले शालू ने बाइक के शीशे में अपनी शक्ल देखी, थोड़ा-बहुत उसको ठीक किया और ऑफ़िस के लिए तेज़ी से चलते हुए जाने लगी।
“देर हो रही है लेकिन शीशा ज़रूर देखना है।” राघव ने मम्मी को टोंट कसते हुए कहा। शालू ने भी जाते-जाते जवाब दिया, “कितनी भी देर हो जाए, शीशा देखने का टाइम हमेशा बचा रहता है।”
“अम्मा यार, तुम हमेशा इतना ज्ञान काहे देती हो? अच्छा ये बताओ मेरी मार्कशीट्स कहाँ हैं? कुछ पेपर वर्क के लिए बहुत अरजेंटली चाहिए।”
“शाम को आकर देखती हूँ।”
लगभग भागते हुए शालू ने ऑफ़िस में एंट्री ली। अंदर उसके बॉस श्रीवास्तव साहब बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। वह अपने अंदर एक छोटे-मोटे ज्वालामुखी जितना ग़ुस्सा भरे हुए थे।
आलोक,
हमें लगा नहीं था कि हम कभी सरकारी नौकरी करेंगे। तुम्हें तो पता ही है हम एक जगह कहाँ ठहरकर बैठने वाले थे! देखते-देखते शादी का एक साल हो गया। तुम कैसे हो? जिस दिन ऑफ़िस में फ़़ाइल निपटाते हुए थक जाते हैं तो सोचते हैं कि क्या सही में यही ज़ज़िंदगी है! हम ठीक हैं, तुम सुनाओ तुम ठीक तो हो?
इब्नेबतूती, फ़रवरी 1995
पीएस- चिट्ठियों के पहुँचने के लिए उनका पोस्ट किया जाना ज़रूरी नहीं होता। उम्मीद है एक दिन वक़्त इन सब चिट्ठियों को तुम तक पहुँचा देगा, न भी पहुँचाए तो भी तुम पढ़ लोगे।
2015 वाला सरकारी ऑफ़िस नहीं दफ़्तर
शालू के बॉस यानी कि कृषि विभाग में डायरेक्टर ए. के. श्रीवास्तव उबलती हुई केतली बने कमरे में एक कोने से दूसरे कोने तक उछल रहे थे। श्रीवास्तव कुछ मामलों में इतने स्ट्रिक्ट थे कि ऑफ़िस के बहुत से लोग उनको एके-47 बुलाते थे।
“अवस्थी जी, क्या हो गया आपको? आप तो कभी ऐसे नहीं करती हैं!”
“सर क्या बताएँ, कोई कम्बख़्त हमारी कार के सामने अपनी कार खड़ी करके चला गया था।”
“आपको सरकारी वाहन मिला हुआ है। आप पता नहीं क्यों उसका प्रयोग नहीं करतीं! ख़ैर, फ़ाइल दिखाइए।”
श्रीवास्तव जी ने इसको बहाना ही माना और इस बात पर ज़्यादा ध्यान न देते हुए शालू से फ़ाइल अपने हाथ में ले ली। फ़ाइल खोलकर पढ़ते हुए उनकी नज़र एक जगह गई।
“अरे, आपको बोला था यह तो नेताजी के रिश्तेदार हैं। इनका काम क्यों रोक लिया है?”
“सर, वो पेपर वर्क कंप्लीट नहीं था। इससे कल को हमारी नौकरी चली जाती, कोई बात नहीं, आप पर भी इस पर उँगली उठ सकती थी।” शालू के बताने के अंदाज़ से ही पता चल रहा था कि यह सफ़ेद झूठ है।
शालू की यह आज़माई हुई ट्रिक थी। जब भी कोई ग़लत काम न करना हो तो उसको ऐसे बता दो कि सर इससे तो आप पर भी उँगली उठ सकती है। कोई सरकारी अधिकारी कभी इस बात के लिए हाँ नहीं कर सकता कि ‘कोई बात नहीं, हम पर उँगली उठ जाने दो, तुम यह काम कर दो।’
अधिकारियों को ट्रेनिंग किस बात की दी जाती है पता नहीं लेकिन हर अधिकारी इस बात की ट्रेनिंग ले ही लेता है कि काग़ज़ पर सब कुछ ठीक कैसे रखना है। यह देश काग़ज़ पर ठीक था, ठीक है और ठीक रहेगा। इस देश की समस्याएँ भी केवल काग़ज़ पर ही ठीक की जा सकती हैं।
कुछ ही देर में शालू और उनके बॉस की प्रिंसिपल सेक्रेट्री के साथ में रिव्यू मीटिंग थी। श्रीवास्तव जी का छह महीने में रिटायरमेंट होने वाला था लेकिन फिर भी वह हर काम के अंदर घुसते थे। पैसा बनाने का कोई भी मौक़ा वह आख़िरी साँस तक खोना नहीं चाहते थे। हालाँकि उनको यह बात पता थी कि शालू पैसा नहीं लेतीं इसलिए उनको कभी भी बहुत उल्टे काम करने के लिए नहीं बोलते थे। लेकिन फिर भी कभी-न-कभी ऐसा काम पड़ ही जाता था जो बिना शालू के हो नहीं पाता था।[adinserter block="1"]
मीटिंग रूम में घुसने से पहले श्रीवास्तव जी ने शालू से रिक्वेस्टनुमा दरख़्वास्त की। रिक्वेस्टनुमा दरख़्वास्त का कुल इतना मतलब होता है कि कोई भी बात पड़े तो सब अपने ऊपर लेकर सँभाल लेना। हिंदुस्तानी नौकरशाही में अनकहा नियम होता है कि बड़े अधिकारी के सामने आपके अधिकारी का नाम ख़राब नहीं होना चाहिए ख़ासकर के तब, जब वो कुछ ही महीनों में रिटायर होने वाले हों।
यूँ तो श्रीवास्तव जी कोई ख़राब आदमी नहीं थे लेकिन कभी-कभार शालू के कपड़ों, मेकअप और साड़ी के रंग पर कुछ कमेंट मार दिया करते थे। श्रीवास्तव साहब की बीवी थी नहीं और बच्चे सब विदेश में थे तो अक्सर ही शालू को घर पर बुलाने का बहाना ढूँढ़ते थे। हालाँकि उनकी इन्टेंशन ऐसी कोई ख़राब नहीं थी लेकिन कभी-कभार अकेले में कोई बात करने वाला हो इस उम्मीद में वह शालू से बात किया करते।
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Answer.   दिव्य प्रकाश दुबे / Divya Prakash Dubey  
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