लल्लोचप्पो
राघव के मेल बॉक्स में रात को ही एडमिशन होने की ख़बर आ गई थी। उसकी पहली च्वॉइस स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी थी। वह ख़ुशी से अम्मा के कमरे में जब बताने गया तब घड़ी पर नज़र गई और सुबह के 4 बज रहे थे। उसने ख़ुशी में निशा को फ़ोन किया। निशा अपनी बहन के साथ सो रही थी। बहन छोटी थी और बिलकुल भी समझदार नहीं थी। फ़ोन बजते ही बोली, “दीदी, थोड़ी आशिक़ी दिन में भी कर लिया करो यार, रात में नींद ख़राब करती हो!”
निशा ने हल्की आवाज़ में पूछा, “हम्म!”
हम्म अपने आप में फ़ुलस्टॉप हो सकता है। ग़ुस्सा, प्यार, दुलार, बेचारगी सब कुछ हो सकता है।
“अबे, एडमिशन हो गया मेरा!”
“अरे वाह, मज़ा आ गया! आई एम सो सो हैप्पी फ़ॉर यू, मुआ!” निशा की नींद खुल चुकी थी और आवाज़ तेज़ हो गई थी। उसकी बहन ने तकिया अपने कान पर लगाया और बोली, “थोड़ा लप्पोचप्पो दिन के लिए भी छोड़ दो।”
निशा बेड से उठकर बालकनी में आ गई।
“अक्टूबर बताया न तूने, जाने का टाइम आ ही गया फिर तो। आंटी को बता दिया?”
“कहाँ बता पाया, अभी दस मिनट पहले ही तो ईमेल आया!” राघव ने अपने लैपटाप में ईमेल को दुबारा पढ़ा।
“स्कॉलरशिप मिली?”
“हाँ, पूरी।”
“वाह! बहुत बढ़िया लड़के। आंटी कितनी ख़ुश होंगी!”
“हाँ बहुत, अच्छा सुन एक प्रॉमिस चाहिए तुझसे।”
“हाँ बोल न, पूछ क्या रहा है!”
“यार, तू अम्मा का ख़याल रखना।”[adinserter block="1"]
“ये भी कोई बोलने वाली बात है! अच्छा सुन आंटी को देख के बताना। झटका थोड़ा आराम से देना।”
“हाँ और क्या, चल लव यू।” राघव के यह बोलने के बाद निशा ने कुछ देर तक जवाब नहीं दिया। वह राघव के जाने की ख़बर से ख़ुश तो थी लेकिन पिछले क़रीब 5 साल से वे हर एक दिन के साथी थे। उसने अपनी आँखों को साफ़ किया। फ़ोन को 5 सेकेंड म्यूट करके गले को खखारा ताकि उसके रूँधे हुए गले की आवाज़ राघव समझ न पाए और बोली, “लव यू टू लड़के, यार तू सच में चला जाएगा?”
“यार ऐसे मत बोल, अभी तो पूरे 3 महीने हैं।” राघव ने जब निशा से बात ख़त्म करके घड़ी देखी तो सुबह के 6 बज चुके थे। राघव या निशा से कोई पूछता दो घंटे बात क्या हुई तो बता पाना मुश्किल है और समझा पाना भी।
सुबह की चाय में सुबह रहती थी।
राघव को कमरे के बाहर पक्षियों के चहचहाने की आवाज़ आ रही थी। उसने बाहर जाकर सुबह को देखा। सुबह कई दिन बाद देखो तो अपने पास बुलाती है। उसको अच्छा लगा और वह छत पर ही खड़ा होकर आसपास से उड़ती हुई चिड़िया को देखकर ख़ुश होने लगा। उसको उड़ती चिड़िया के पीछे दूर एक हवाई जहाज़ भी जाता दिखा। उस हवाई जहाज़ को देखते हुए यह भी दिखा कि जल्द ही वह ऐसे ही किसी हवाई जहाज़ की खिड़की पर बैठा होगा।
शाम को शालू के लौटने पर राघव ही चाय बनाया करता था और सुबह की चाय उसने कब बनाई थी उसे याद ही नहीं था। उसने जब सुबह को अपने अंदर जज़्ब करके निशा को मैसेज किया- ‘सूरज को उगते हुए देखकर इतना अच्छा लग रहा है, सोच रहा हूँ कि हफ़्ते में एक दिन जल्दी उठा करूँ।’
निशा सुबह उठकर एक्सरसाइज़ किया करती थी। उसने पार्क में भागते हुए जवाब दिया।
“एक दिन उठा है एंज्वॉय कर, सुबह जल्दी उठने जैसे ऐसी बड़ी-बड़ी चीज़ें मत सोच।”
उसने अख़बार पढ़ लिया। अब तक भी 6:30 ही हुआ था। उसने जाकर बड़े ही आराम से चाय बनाई और चाय बनाकर वह शालू के कमरे में ले गया।
चाय मेज़ पर रखकर वह शालू के हाथ पर सिर रखकर लेट गया। शालू की नींद खुल चुकी थी। हाथ पर सिर रखते ही राघव को नींद का एहसास हुआ।
शालू ने राघव के माथे पर प्यार से हाथ रखते हुए पूछा, “क्या हुआ इतनी जल्दी! कोई सपना आया क्या?”
यूँ तो राघव कभी डरता नहीं था लेकिन कभी-कभी ऐसा हुआ था कि वह किसी सुबह के सपने से डर के मारे उठ जाता और उसको फिर नींद ही नहीं आती। जब भी ऐसा होता तो वह अम्मा के पास आकर सो जाता।
“नहीं अम्मा।”
शालू ने उसको अपने पास खींच लिया। शालू ने राघव की बनाई हुई चाय देखी नहीं थी। राघव ने भी अम्मा को और ज़ोर से चिपका लिया। कमरे का पंखा एक सेकेंड से थोड़े से कम हिस्से के लिए फ़्रीज़ हो गया। घर थोड़ा-सा ख़ुश।
“उठो अम्मा, चाय बना दी है। तुम्हें मॉर्निंग वॉक पर जाना चाहिए। पता नहीं क्या-क्या दवा खाती रहती हो!”
“जब कोई एक दिन ग़लती से सुबह जल्दी उठ जाता है न तो ऐसे ही बहकी-बहकी बातें करने लगता है।”
शालू ने राघव को हटाकर उठने के लिए हाथ हटाया।
“चाय ठंडी हो जाएगी।”
राघव ने अम्मा को हाथ नहीं हटाने दिया।
“अम्मा।”
“बड़ा प्यार आ रहा है। कुछ तो चाहिए होगा!”
“कुछ नहीं चाहिए अम्मा।”
“फिर, इतना प्यार! कुछ तो हुआ होगा फिर!”
“अम्मा, स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में एडमिशन मिल गया। दो घंटे पहले ही ईमेल आया। इसी चक्कर में नींद नहीं आई।”
राघव की यह बात सुनते हुए शालू को ख़ुशी से कूद पड़ना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह सोच में डूब गई। अक्सर होता है न कि जहाँ के लिए हम चले थे, वहाँ पहुँचते ही याद आता है कि पहुँचने की वजह खो चुकी है। एक साथ ही कई ख़याल उसके मन में आए। वह दिन आ ही गया कि राघव उससे दूर हो जाएगा। वह वहाँ सही से रह तो पाएगा? बाहर अकेले परेशान तो नहीं होगा? ये सब कुछ कुल दो-तीन सेकेंड के बीच में हुआ होगा। शालू ने अपने-आप को सँभालते हुए राघव को ज़ोर से गले लगाकर उसके माथे पर प्यार रख दिया।
“अब्बे, मज़ा आ गया। आज तो पार्टी होगी। बहुत ही बढ़िया। सेशन कब शुरू हो रहा है?”
“बस अम्मा तीन महीने बाद, अक्टूबर में।”[adinserter block="1"]
“अब्बे क्या बात कर रहा है, इतनी जल्दी?”
शालू उठकर बैठ गई। उसकी आँखों से नींद उड़ चुकी थी और इस बातचीत में चाय ठंडी हो चुकी थी। शालू ब्रश करने चली गई। राघव वहीं लेटा हुआ था। उसकी नज़र अलमारी के ऊपर रखे एक पुराने संदूक़ पर गई। वह संदूक़ जिसको खोलना अलाउड नहीं था। हर घर में ऐसे कुछ स्याह कोने होते हैं जो खोलने के लिए नहीं होते। इन जगहों पर कोई जाना नहीं चाहता क्योंकि ऐसी जगहों पर लौटकर जाना मुश्किल होता है और अगर एक बार पहुँच गए तो वापस आना असंभव हो जाता है। शुरू में राघव इस बात को लेकर परेशान होता था लेकिन धीरे-धीरे उसने उस राज़ से दोस्ती कर ली थी जो उसको पता भी नहीं था।
कुछ साल पहले राघव के ज़्यादा ज़ोर डालकर पूछने पर शालू ने बताया था कि उसके पापा के हॉस्पिटल के काग़ज़ हैं इसलिए वह उस संदूक़ को खोलना नहीं चाहती।