हज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen PDF Download by Rahul Chawla

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पुस्तक का विवरण (Description of Book हज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen PDF Download) :-

नाम : हज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen Book PDF Download
लेखक :
आकार : 2.2 MB
कुल पृष्ठ : 215
श्रेणी : रोमांटिक / Romanticउपन्यास / Upnyas-Novel
भाषा : हिंदी | Hindi
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हज़ारों ख़्वाहिशें, इश्क़ और इंक़लाब की एक हैरत अंगेज़ दास्तान है। एक तरह का मॉडर्न एपिक, जिसमें अल्हड़-सी मोहब्बत है, इंक़लाब के शोले हैं, लेफ़्ट-राइट का झमेला है, 90s का नॉस्टैल्जिया है, राजनीतिक बहसबाज़ी है और उन सबके बीच है कास्ट पॉलिटिक्स की धमक। यह उपन्यास मुखर्जी नगर में IAS की तैयारी कर रहे दोस्तों की कहानी ही नहीं कहता, बल्कि आईएएस बनने के पीछे की सोच, आईएएस बनने के लिए दी जाने वाली क़ुर्बानी और तैयारी के बीच की फ्रस्ट्रेशन भी बयाँ करता है। अपन ख़्वाहिशों के लिए जी-जान लगा देने वाले नौजवान इस कहानी के पात्र हैं, जो दिल्ली को और उसकी पॉलिटिक्स को अपनी नज़र से देखते हैं। ये पात्र देश में घटित घटनाओं से प्रभावित होते हैं और उसी के साथ कहानी नये मोड़ लेती रहती है। इन सबके साथ बहुत से फ़िल्मी और साहित्यिक रेफ़रेंस पॉइंट्स भी इस कहानी में शामिल हैं, जो कहानी को न सिर्फ़ मनोरंजक बनाते हैं, बल्कि नये आयाम भी देते हैं। यह हिंदी लेखन में एक नये तरह का एक्सपेरिमेंट है। कहानी के भीतर ढेर सारी परते हैं। कहीं सेल्फ़ रिफ्रेंशियेलिटी, कहीं पोस्ट मॉडरनिस्म, तो कहीं कॉफ़्किस्क एलीमेंट। पर सबसे आकर्षित करने वाली बात है, इस कहानी का फ़िल्मी अंदाज़ में कहा जाना।[adinserter block=”1″]

A wonderful English tale of a thousand wishes, love and revolution. A kind of modern epic, which has lighthearted love, Inquilab’s Sholay, left-right jumble, 90s nostalgia, political debate and the threat of cast politics in between. This novel not only tells the story of friends preparing for IAS in Mukherjee Nagar, but also tells the thinking behind becoming an IAS, the sacrifices made to become an IAS and the frustration between the preparation. The protagonists of this story are the youth who give their lives for their dreams, who see Delhi and its politics from their own perspective. These characters are affected by the events happening in the country and with that the story keeps on taking new turns. Along with all this, many film and literary reference points are also included in this story, which not only makes the story entertaining, Rather, it also gives new dimensions. This is a new type of experiment in Hindi writing. There are many layers within the story. Somewhere self referentiality, somewhere postmodernism, somewhere a Kaufkisk element. But the most attractive thing is that this story is told in a film style.

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पुस्तक का कुछ अंश (हज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen PDF Download)

एक अजनबी हसीना से

झमाझम बरसात और बेनूर अंधेरी रात। प्लेटफ़ॉर्म के टीनशेड पर टप-टप करती गिरती बूंदों की आवाज़। आसमान में हल्की-सी धुंध छाई थी। लैंप पोस्ट से बिखरकर आती मद्धम नारंगी-सी रौशनी, ‘tyndall effect’ के कारण जिसका रास्ता सीधा स्पष्ट दिखाई दे रहा था। साएँ-साएँ-सी हवा चल रही थी। एक ख़ाली प्लेटफ़ॉर्म पर हाथ में अपनी लाल डायरी लिए बैठा, मैं जाने कब से किसी ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था। संयम के साथ डायरी के पन्ने भी धीरे-धीरे ख़त्म होने को थे।
अचानक ज़ोर की गड़गड़ाहट हुई। तेज़ी से बिजली चमकी और रात में जागते किसी वॉचमैन की झपकती पलकों की तरह डब-डब करता लैंप-पोस्ट का वह बल्ब आख़िर बुझ गया। इस अदृश्य से अंधेरे में आगे कुछ भी लिख पाना अब मुमकिन न था। जाने कब से बैठा बोर हो चला था। जम्हाई आती तो चुटकी बजाकर सुस्ती मिटाता। नींद को दूर भगाने की हर संभव कोशिश में कभी उठता, थोड़ा टहलता, चाय पीता। सिगरेट के छल्ले बनाता।
रात अपने अंतिम पड़ाव पर थी, पर सुबह की कोई खोज ख़बर नहीं। मैं कुछ देर के लिए स्टेशन से गुज़रती एक मालगाड़ी में बैठकर अपने बचपन के दिनों में जा पहुँचा-जब सब लोग छुट्टी मनाने नानी के घर जाते थे। तब, जब हाथ में न फ़ोन होता था और न ट्रेन के आने का कोई वक़्त। घंटों इंतज़ार करते थे। और इंतज़ार के बीच खुलती थी क़िस्से-कहानियों की पोटली। पर यहाँ तो मैं अकेला था। साथ था तो बस मेरा बैग जिसमें था एक वॉकमेन, जिसमें लगी थी एक रिकॉर्डेड कैसेट। साथ थी व्हीलर्स से ख़रीदी एक नॉवेल और एक ख़त। अमृता प्रीतम के किसी उपन्यास की तरह कब इस सियाह रात के आग़ोश में डूब गया, पता न चला। सपनों की अंतहीन गहरी गुफ़ा से अचानक मुझे रेल गाड़ी के साइरन ने बाहर निकाला।
हड़बड़ाकर उठा तो देखा आस-पास मंज़र कुछ बदल-सा गया था। प्लेटफ़ॉर्म पर चहल-पहल बढ़ चुकी थी। ‘चाय गरम, चाय गरम’ की आवाज़ से स्टेशन गूँज उठा था।
प्लेटफ़ॉर्म पर चटाई बिछाकर कुछ बुज़ुर्ग पत्ते खेलते हुए अपने जवानी के दिन याद कर रहे थे। उन्हीं में से एक बूढ़े अंकल राजेश खन्ना स्टाइल में पलकें झपकाते हुए सामने से गुज़रती रेलगाड़ी को देख गीत भी गा रहे थे:
मेरे सपनों की रानी
कब आएगी तू
आई रुत मस्तानी
कब आएगी तू
बीती जाए ज़िंदगानी
कब आएगी तू
चली आ तू चली आ…[adinserter block=”1″]

मैं आँखें मलते हुए बेंच से उठा ही था कि उतने में ट्रेन के इंजन ने धुएँ का ग़ुबार मेरे साँवले से चेहरे पर मढ़ दिया। सवारियों की भीड़ सर पर बोझ ताने जनरल बोगी के पीछे भाग रही थी। ट्रेन ने एका-एक जबर का ब्रेक लगाया और नीले रंग की रिज़र्व्ड क्लास बोगी मेरे ठीक सामने आकर ठहर गई।
थोड़ी देर में जब भीड़ छटी तो एक जाना-पहचाना-सा हसीन चेहरा नज़र के सामने पाया। वह अप्सरा मानो किसी सुनहरे स्वप्न से उतरकर मुझसे मिलने आई हो। वह स्लो मोशन में बाल झटकते हुए मुड़ी और मेरी तरफ एक निगाह डाली। बैकग्राउंड में अपने आप ‘आर डी बर्मन’ का कोई फ़िल्मी संगीत बज उठा : ललला ललाsss, ललला लला…।
वह लड़की देखने में ‘राजा रवि वर्मा’ की किसी पेंटिंग की तरह ख़ूबसूरत थी-एक़दम ‘गॉडेस’ टाइप। उसकी अंगड़ाई में रात के सपनों की परछाई थी। रात की गहरी नींद उसकी भारी पलकों में क़ैद थी। धीमे-धीमे उसने पलकों को उठाया और मेरी तरफ़ देखा। एक तिलिस्म था उसकी गहरी नीली आँखों में।
खिड़की से बाहर झाँकती मासूम-सी दिखने वाली वो आँखें जाने किस तलाश में इधर-उधर भटक रही थीं। उसने बग़ल के लोगों को ट्रेन से उतरते हुए देखा, तो वो भी सीट से उठकर अपना सामान बाँधने लगी। बड़ी मशक़्क़त के साथ एक हाथ में ट्रॉली बैग हिलाते-डुलाते नीचे उतरी और फिर उसे घसीटते हुए वेटिंग रूम की तरफ़ बढ़ी। पर वेटिंग रूम में जगह थी नहीं। होती तो भला मैं क्यों सारी रात ठंड में ठिठुरते हुए इस बेंच पर बिताता?
वह थोड़ी देर वेटिंग रूम के बाहर खड़ी रही, हैरान-परेशान। मैं बड़े आश्चर्य से उसे देखता। फिर जब वह मेरी तरफ़ देखने लगती तो अगल-बग़ल झाँकने का ढोंग करता। वह भी कुछ ऐसा ही करती। आँख मिचोली का यह खेल आख़िर कुछ देर में ख़त्म हुआ। उसने मेरी बेंच की तरफ़ निगाह डाली और आवाज़ लगाकर मुझसे पूछा, “excuse me… क्या यहाँ कोई और वेटिंग रूम नहीं है?”
“नहीं… एक ही है और वहाँ तो हॉउसफुल है… इसलिए मैंने भी इसी बेंच पर डेरा जमा लिया। आप इधर बैठ जाइए… काफ़ी जगह है।” बेंच से अपना बैग हटाते हुए मैंने कहा।
“थैंक्स” कहकर वो मेरे साथ उस बेंच पर बैठ गई।[adinserter block=”1″]

कुछ यात्री स्टेशन मास्टर के पास अपनी फ़रियाद लेकर पहुंचे थे। घंटे भर इंतज़ार के बाद, हाथ में चाय का गिलास थामे स्टेशन मास्टर स्वयं प्लेटफॉर्म पर आये और व्यर्थ ही परेशान हो रहे यात्रियों को दिलासा देते हुए बताया : गुर्जरोंं ने आरक्षण की मांग के चलते इस साल फिर रेलवे लाइन रोक दी हैं। सभी ट्रेन देर से आएंगी।”
यह सुनकर उस लड़की ने अपना सर पकड़ा और ‘च्च्च’ की आवाज़ निकालते हुए अपनी परेशानी व्यक्त की। फिर उसने मेरी तरफ देखा।
मेरी हड़बड़ाती और उसकी शरमाती आँखों की मुलाक़ात कुछ यूँ हुई कि देर तक टकटकी लगाए हम एक-दूसरे को देखते रहे। और हमारी आँखें एक दूसरे की आँखों से बातें करती रहीं-किसी ख़ुफ़िया कोड वर्ड में।
“आप चाय पिएँगी?” चुप्पी तोड़ते हुए मैंने कहा।
“नहीं मैं चाय नहीं पीती!”
“कॉफ़ी?”
उसने पहले तो फ़ॉरमैलिटी में ना कहा, फिर हल्की-सी मुस्कान के साथ गर्दन मटकाकर हाँ कह दिया।
“अच्छा सुनिए।” पीछे से आवाज़ लगाकर उसने कहा “चाय ही ले आइए।”
दोनों हाथों में चाय के कुल्हड़ लेकर मैं बेंच की तरफ़ बढ़ा, तो वो बैग खोलकर सामान निकालने में व्यस्त दिखाई दी। उसके बैग में साहित्य का अनमोल ख़ज़ाना था, जिसे मैं बड़े ग़ौर से देख रहा था। अचानक उसने एक टिफ़िन बॉक्स निकालकर मेरे सामने रख दिया। “माँ ने बनाए। लो ना।” ज़ोर देकर उसने कहा।[adinserter block=”1″]

“पढ़ने की काफ़ी शौक़ीन मालूम पड़ती हो?” मैंने डब्बे से एक ठेकूआ उठाते हुए कहा।
“कैसे पता?” अपनी लटों को झटकते हुए वह बोली।
“तुम्हारी किताबें देखी ना…।”
“ओह अच्छा… वैसे, तुम अच्छा लिखते हो!” चाय की चुस्की लेकर उसने कहा।
“कैसे पता?” हैरत के साथ मैंने पूछा।
“अभी तुम जब चाय लेने गए तो चुपके-से तुम्हारी डायरी के कुछ पन्ने पढ़े।” शरमाते हुए उसने कहा।
देखते-ही-देखते बातों का सिलसिला चल निकला। एक दूसरे को न जानते हुए भी हमारे पास करने को ढेर सारी बातें थीं। देर तक बातें चलीं : पसंद – नापसंद को लेकर, किताबों के बारे में, कुछ कॉलेज की गपशप। और तो और पॉलिटिक्स पर बहसबाज़ी भी हुई।
चाय की हर चुस्की के साथ निकलते कई क़िस्से-जिनकी न कोई शुरुआत होती और न ही कोई अंत। जो हमारी तरह बस अपने आज में जी रहे थे- अतीत या भविष्य की परवाह किए बिना। वो क़िस्से मेरी उस लाल डायरी में दर्ज होते जा रहे थे।
दोपहर हुई तो कैंटीन में दोनों ने साथ लंच किया। फिर प्लेटफॉर्म पर थोड़ा टहले भी। चलते-चलते बाज़ू टकराये। एक दूसरे को देख, बेवजह मुसकुराये। मेरे चेहरे पर गिरे पलक के बाल को, उसने अपनी हथेली पर रखा और कहा: “जो माँगना है, माँगो!”
मैंने संसार की सबसे खूबसूरत चीज़ की गुज़ारिश रखी। “जो चाहोगे, वो मिलेगा!” उसने कहा। फिर देर तलक मेरी ओर देखा।
पता ही न चला कब यूँ बतियाते आठ घंटे बीत गए। इससे पहले कि हम एक दूसरे को कुछ और जान पाते, एक दूसरे के कुछ और क़रीब आ पाते-प्लेटफ़ॉर्म पर लगे लाउड स्पीकर ने शताब्दी के आने का अनाउंसमेंट कर डाला।
“इस ट्रेन को आज ही वक़्त पर आना था! कुछ देर और रुक नहीं सकती थी… कमबख़्त कहीं की।” मैंने मन-ही-मन सोचा। फिर उसकी तरफ़ देखा। वह अपना सारा सामान बाँधने में व्यस्त थी।[adinserter block=”1″]

“अच्छा, तुम्हारी ट्रेन कब आएगी?” अपना सामान उठाते हुए उसने पूछा।
“वो तो निकल चुकी।” हड़बड़ाते हुए मैंने कहा।
“कब?” हैरत के साथ उसने पूछा।
“बस अभी आधा घंटे पहले”
“तो तुम चढ़े क्यों नहीं?”
“बस, मन नहीं किया…।” शरमाते हुए मैंने कहा।
“तो फिर अब वापस कैसे जाओगे?”
“बस पकड़ लूँगा। चिंता मत करो।”
“उल्लू हो तुम।” भीनी-सी मुस्कान के साथ उसने कहा।
उस अजनबी-सी लड़की से एक रिश्ता-सा बन गया था। लगा कि ऐसा पहले भी कभी हो चुका है, वक़्त के किसी दूसरे डायमेंशन में। लगा कि उसे मैं जानता हूँ, पर अभी से नहीं, शायद जन्मों से।
अलविदा का इशारा करती हुई अपना सामान उठाकर वो ट्रेन की तरफ़ बढ़ने लगी। लगा कि वो पलटकर मुझे एक बार देखेगी। ट्रेन के निकलने का अनाउंसमेंट हो गया था। प्लेटफ़ॉर्म पर इतनी अपार भीड़ आन पड़ी थी, मानो रजनीकांत की फिल्म का फर्स्ट-डे-फर्स्ट शो देखने आ पहुंचे हों।
वह हौले से, धीमी गति से अपने कम्पार्टमेंट में चढ़ी फ़िर पलटकर मेरी तरफ़ देखा और नज़दीक बुलाने का इशारा किया। लगा कि जैसे मेरे कान में कुछ कहना चाहती हो। जैसे उसके दिल में कोई राज़ हो, जो वह सब के सामने बता नहीं सकती।
“मैं तुम्हें फिर मिलूँगी।” उसने नम आँखों से कहा।
ट्रेन एक तेज़ झटके के साथ खुली और साईरन देती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। ट्रेन पकड़ने की जल्दी में सवारियाँ स्टेशन पर भाग रही थीं। शोर में कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
“तुम्हारा नंबर?” मैंने ज़ोर से आवाज़ लगाई।[adinserter block=”1″]

उसने अपने स्लिंग बैग में से क़लम निकाला और अपने हाथ पर नंबर लिखा। मैं फ़ौरन ट्रेन की दिशा में दौड़ा और भीड़ को चीरते हुए उसकी तरफ़ बढ़ा। उससे पहले कि मैं आगे बढ़कर उसके हाथ पर लिखा फ़ोन नंबर देख पाता, जाने कहाँ से अपार भीड़ सरपट भागती हुई पीछे से आई और मुझे ज़ोर का धक्का देकर कम्पार्टमेंट में चढ़ गई। उसने अपना हाथ मेरी तरफ़ बढ़ाया और ज़ोर से आवाज़ लगाई- “जल्दी उठो… ट्रेन निकलने वाली है।” मानो अपने साथ मुझे खींचकर ले जाना चाहती हो।
मैंने असहाय सी नज़रों से उसकी ओर देखा। मैं अधमरे कीड़े की तरह छटपटाता रहा। कोई हाथ पर, कोई सर पर, तो कोई गर्दन पर पैर रखकर भाग रहा था, अंधाधुंध दौड़ में।
मेरी आँखों के सामने वह ट्रेन छूट रही थी। वह अभी भी मेरी तरफ़ देख रही थी। मिश्री के कुछ दाने उसकी आँखों से छलक पड़े। उन आँखों में ख़ुद के आगे निकल जाने और मेरे पीछे रह जाने की टीस थी। बिछड़ जाने का गम था। उसने दुबारा मुझे आवाज़ दी। मैं तुरंत उठ खड़ा होने को हुआ पर पाया की हाथ पैर जाम पड़े हैं। मानो पूरे शरीर को किसी ने ज़ंजीरों से बाँध रखा है। बहुत मशक़्क़त की, झटपटाया, चिल्लाया पर हाथ-पैर टस से मस न हुए। धीरे-धीरे उसका चेहरा धुँधलाता दिखाई देने लगा। वह रेल गाड़ी बुलेट ट्रेन की रफ्तार में मेरी आँखों से ओझल होने को थी और वह चेहरा एक तस्वीर बनकर मेरी आँखों के परदे पर लटक चुका था। इस उम्मीद में कि मैं भागकर उसका पीछा करूँ- पूरी ताक़त के साथ हाथों को ज़ोर-ज़ोर से झटकते हुए मैं आख़िर उठ खड़ा हुआ।
* * *

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उठते ही ख़ुद को किसी कबाड़ खाने में पाया। कुछ वक़्त लगा ख़ुद को यह बतलाने में, कि मैं कौन हूँ और कहाँ हूँ। आस-पास देखा और जाना कि सब जैसा था, वैसा ही है। फर्श पर दारू की बोतलों का ढेर लगा था। ‘एक के साथ एक फ्री’ योजना के तहत मंगवाये पिज़्ज़ा की बची कुतरन भी पड़ी थी, जिस पर चींटियां रेंग रही थीं। टेबल पर किताबों का अम्बार लगा था और किताबों पर थर्माकोल के गिलास रखे थे- कुछ कोल्ड ड्रिंक से, तो कुछ सिगरेट की राख से भरे। टेबल से सटी कुर्सी पर ‘unstable equilibrium’ में पड़ी कपड़ों की गठरी लगभग गिरने को थी। और बिस्तर पर बगल में मेरी वह लाल डायरी सो रही थी, जिसमें से कुछ ‘दर्द भरे नगमे’ कल रात अपने दोस्तों को सुनाये थे। वो नज़्में सुन कर एक सरफिरे आशिक़ ने दारू के नशे में खिड़की में सर दे मारा था, जिसके चलते कांच चटक गया था और जानलेवा शीत लहर भीतर आ रही थी।
मूर्छित अवस्था से उठा तो पाया कि रेल गाड़ी का वह साइरन और कुछ नहीं, फ़ोन में बजती ‘मिशन इम्पॉसिबल’ वाली रिंगटोन थी, जिसने ‘मुंगेरी लाल’ के हसीन सपनों में ख़लल डाला था। ‘इतनी सुबह-सुबह साला कौन कमबख़्त है जो फ़ोन बजाए जा रहा है’ मैं मन ही मन बुदबुदाया। जब तक आँख खुलती, फ़ोन को रज़ाई में से ढूँढ़कर निकालता और चेहरे के पास लेकर आता-फोन कट चुका था। आखिरकार मैंने फ़ोन को वाइब्रेशन मोड पर रखकर पलंग के साइड में पटक दिया।[adinserter block=”1″] ठंड से ठिठुरती मेरी उँगलियों ने मखमली रज़ाई से अपने एक-एक इंच को ढका और मैं पूरी तरह से पैक होकर दोबारा गहरी नींद के समुंदर में डूब गया।
ऐसी मान्यता थी कि हॉस्टल के इस कमरे में पलंग के सिरहाने एक भूत रहता था। किसी सीनियर का भूत, जिसने कुछ साल पहले पंखे से लटककर सुसाइड कर लिया था। कहते हैं उसे रातों में नींद नहीं आती थी इसलिए अब यह भूत लोगों के शरीर में घुसकर अपनी नींद पूरी करता है। अच्छा भूत है न इसलिए किसी को डराता नहीं। न तो ख़ुद भटकता है और न ही किसी को भटकाता है। बस यूँ ही बिस्तर पर पड़ा-पड़ा, पंखे पर लगे जाले देखा करता है। जैसे कि मैं भी देख रहा था, जब-जब फ़ोन की घंटी बजती और मेरी नींद खुल जाती।
तक़रीबन एक घंटे तक चली इस कश्मकश के बाद आख़िर नींद टूट ही गई। फ़ोन उठाकर देखा तो पता चला कि पिंटू के 15 मिस्ड कॉल्स हैं। फ़ोन दोबारा बज पड़ा। जैसे ही उठाया, उसने गालियों की बरसात शुरू कर दी। “अबे कहाँ हो? तब से कॉल कर रहे हैं। भांग खाकर सोए थे क्या? तुरंत पहुँचो, यहाँ इंतज़ार कर रहे हैं तुम्हारा। तुम्हारी वजह से हारे अगर तो दौड़ा-दौड़ा के पीटेंगे तुम्हें।” धमकाते हुए वह बोला और बिना मेरी बात सुने बेवक़ूफ़ ने फ़ोन काट दियाहज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen PDF Download Free in this Post from Telegram Link and Google Drive Link , राहुल चावला / Rahul Chawla all Hindi PDF Books Download Free, हज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen PDF in Hindi, हज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen Book Summary, हज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen book Review

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हमने हज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen PDF Book Free में डाउनलोड करने के लिए Google Drive की link नीचे दिया है , जहाँ से आप आसानी से PDF अपने मोबाइल और कंप्यूटर में Save कर सकते है। इस क़िताब का साइज 2.2 MB है और कुल पेजों की संख्या 215 है। इस PDF की भाषा हिंदी है। इस पुस्तक के लेखक राहुल चावला / Rahul Chawla हैं। यह बिलकुल मुफ्त है और आपको इसे डाउनलोड करने के लिए कोई भी चार्ज नहीं देना होगा। यह किताब PDF में अच्छी quality में है जिससे आपको पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। आशा करते है कि आपको हमारी यह कोशिश पसंद आएगी और आप अपने परिवार और दोस्तों के साथ हज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen की PDF को जरूर शेयर करेंगे।

Q. हज़ारों ख़्वाहिशें | Hazaaron Khwahishen किताब के लेखक कौन है?
 

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