दो शब्द
अपने हिंदी साहित्य में गोपालराम गहमरी उपेक्षित हैं। कई विधाओं में उन्होंने प्रचुर साहित्य लिखा, लेकिन अपने देश के कॉलेज से लेकर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम तक में वे कहीं नहीं हैं। न उनके संस्मरण, न कहानियाँ, न कविताएँ, न उपन्यास, न अनुवाद। उन पर एक जासूसी लेखक का ठप्पा लगाकर उनके पूरे रचनाकर्म से ही हमारे कथित आलोचकों ने किनारा कर लिया, जैसे ये जासूसी उपन्यास घोर पाप हों। फिर धीरे-धीरे उन्हें जानबूझकर बिसरा दिया गया, लेकिन अब फिर उनके साहित्य की खोज होने लगी है। फिर से लोग अब गहमरीजी की रचनाओं से रू-ब-रू होने को बेताब दिख रहे हैं। यह अच्छी बात है। राख के भीतर छिपी आग अब बाहर आ रही है। साहित्य पाठकों के भरोसे जिंदा रहता है, आलोचकों के भरोसे नहीं। कबीर, तुलसी, रैदास अपनी रचनाओं के बूते जिंदा हैं, आलोचकों के भरोसे नहीं। गोपालराम गहमरी अब पुस्तकालयों से बाहर आ रहे हैं। इसी का नतीजा है, उनके संस्मरण। उनके संस्मरणों का एक संकलन आया है, जिसमें हिंदी साहित्य, पत्रकारिता और उस समय के महत्त्वपूर्ण लेखकों पर उनके आत्मीय संस्मरण हैं। उनकी कहानियों का भी एक संकलन आ चुका है, जिसका लोगों ने खूब स्वागत किया। अब यह एक और संकलन आपके हाथों में है।
इस संकलन में एक लघु उपन्यास ‘गेरुआ बाबा’ भी है, जो ‘जासूस’ पात्रिका के 1 सितंबर, 1919 के अंक में छपा था। यह ‘जासूस की जवामर्दी’ नाम से छपा था। बाद में संवत् 1986 में यह ‘गेरुआ बाबा’ नाम से छपा। प्रकाशक थे—एम.एस. मेहता एंड ब्रदर्स, काशी। इसे पुस्तकाकार छपवाने के साथ इसमें अपना एक छोटा सा वक्तव्य भी गहमरीजी ने जोड़ा। वह पठनीय भी है—
गहमरीजी लिखते हैं—
“इन दिनों गद्यकाव्य में बेमाथ की दँवरी हो रही है। जो लोग कलम लेकर साहित्य के मैदान में लिखने के वास्ते उतरते हैं, उनको औपन्यासिक बनना ही सबसे सुगम जान पड़ता है। लेकिन उनकी समझ से यह सब बात बहुत दूर जा पड़ती है कि उपन्यास साहित्य का कितना मधुर अंग है। वह अपने समय का सच्चा इतिहास होता है। उसके लिए लेखक को कितनी दुनिया देखनी पड़ती है। चरित्र-चित्रण में जो जितना निपुण होता है, उतना ही वह अपने इस असरकारक अस्त्र से संसार का उपकार करने में समर्थ हो सकता है।
यह सब अच्छी तरह समझाने के लिए इस भूमिका में हमको जगह नहीं है। लेकिन अश्लील, निस्सार और कोरी अनहोनी गप्प के उपादान पर गढ़े हुए उपन्यासों की इस समय इतनी बाढ़ है कि साहित्य के इस अंग की इन दिनों बड़ी ही छीछालेदरी हो रही है।[adinserter block="1"]
ऐयारी, तिलिस्मी और जासूसी का साइनबोर्ड कपाट पर लगाकर ऐसी-ऐसी निकम्मी और मगज बिगाड़कर समय और आचरण बिगाड़नेवाली इतनी पुस्तकें आजकल निकल रही हैं, जिनसे लोग इन पुस्तकों पर बेतरह नाक-भौं चढ़ाने लगते हैं।
‘गेरुआ बाबा’ इन दोषों से बिल्कुल पाक है। हम यह अपने मुँह नहीं कहना चाहते। अनहोनी घटनाओं का तूमार लिये हुए बड़ी ठाट-बाट, लक्क-दक्क उपन्यासों के इस युग में जो सज्जन हमारी पुस्तकों को सम्मान देते हुए रुचि से पढ़ते हैं, वह इसकी आप ही गवाही देंगे। ऐसे उपन्यासों से आदमी स्वयं चतुर होता है। देश-काल देखकर चालाक चोर और गँठकटे, उठाईगीर, उचक्कों से सावधान होकर निःशंक भाव से जीवनयात्रा निर्वाह करने का सुअवसर पाता है और चेहरा देख करके आदमी भीतर का पहचानने में वह निपुण हो जाता है।”
यह वक्तव्य गोपालराम गहमरी के उपन्यास को लेकर उनकी चिंता और दृष्टि दोनों को प्रकट करता है। फिर भी उनकी रचनाओं पर ध्यान नहीं दिया गया। गेरुआ बाबा को प्रकाशित हुए सौ साल हो गए। सौ साल बाद अब दुबारा पाठक इसका रसास्वादन करेंगे। इसके साथ, वह उस समय के काल से भी रू-ब-रू होंगे। यह आज के लिए भी जरूरी है, क्योंकि हम जो आज उपन्यास की इमारत देख रहे हैं, उसकी नींव में ऐसी ही रचनाएँ रही हैं। उपन्यास के विकासक्रम को समझने के लिए भी यह जरूरी है।
गोपालराम किसी एक विधा से संबद्ध नहीं थे। साहित्य और भाषा को लेकर उनकी चिंता किसी से कमतर नहीं थी। कविता में खड़ी बोली को लेकर बहस की शुरुआत उन्होंने 1902 में अपने द्वारा संपादित ‘समालोचक’ पत्रिका में की थी। फिर भी, जब खड़ी बोली की कविता को लेकर बात आती है, गहमरीजी की कतई चर्चा नहीं होती या फिर बहुत सतही ढंग से उनके नाम की चर्चा कर आलोचक आगे बढ़ जाते हैं।
गहमरीजी ने हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के विकास में अतुलनीय और अविस्मरणीय योगदान दिया है। 38 साल तक अपने बनारस और फिर अपने गाँव गहमर से ‘जासूस’ नामक मासिक पत्र का संपादन और प्रकाशन किया। हिंदी में जासूस शब्द के प्रचलन की शुरुआत की। अपने नाम के साथ अपने गाँव को भी जोड़ा। हिंदी में पहली बार इस सिलसिले को आरंभ किया। उनके पहले किसी हिंदी रचनाकार ने अपने गाँव को अपने नाम के साथ जोड़ा हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। उर्दू रचनाकारों ने जरूर अपने गाँव या शहर को तखल्लुस के तौर पर इस्तेमाल किया।[adinserter block="1"]
उत्तर प्रदेश के पिछड़े जिले गाजीपुर के एक गाँव बारा कलाँ में पौष कृष्ण 8, गुरुवार 1923 ईस्वी सन् 1866 में उनका जन्म हुआ था। एक लंबी आयु पाकर 80 साल की उम्र में काशी में ही 20 जून, 1946 को दुनिया से विदा हुए। लगभग साठ सालों तक हिंदी की सेवा की। भरपूर लिखा। उनकी अधिकांश रचनाएँ कल्पनाजनित न होकर हकीकत की हैं। एक जासूस मो. सरवर से उनका परिचय था। मो. सरवर उनकी बहुत सी कहानियों के जन्मदाता हैं। जब उन्होंने अवकाश ग्रहण कर लिये, तब उन्होंने कई केसों के बारे में गहमरीजी से विस्तार से चर्चा की थी, जिसे गहमरी ने अपनी रचना का उपजीव्य बनाया। कई बार तो खुद गहमरीजी के साथ भी कुछ ऐसी अनहोनी घटनाएँ घटीं कि वे खुद हवालात पहुँच गए और इस पर भी कहानी लिख डाली। ‘हम हवालात में’ उनकी ऐसी ही आपबीती कहानी है। इसके अलावा भयंकर डाकू से मुठभेड़, जासूस को धोखा, जासूस से मुलाकात, आँखों देखी घटना...ऐसी ही कहानियाँ हैं। गहमरीजी ने ढेरों उपन्यास भी लिखे। अनुवाद भी किए। रवींद्रनाथ टैगोर के पहले हिंदी अनुवादक गोपालराम गहमरी ही थे। 1895 में गुरुदेव के काव्य नाटक ‘चित्रांगदा’ का हिंदी अनुवाद गोपालराम गहमरी ने ही किया था।
कहते हैं कि गोपालराम गहमरी की विधिवत् लेखन की शुरुआत कालाकाँकर से हुई। उस जमाने में हेडमास्टरी की सुविधाजनक नौकरी छोड़कर हिंदी सेवा के लिए प्रतापगढ़ के कालाकाँकर गए। इसके पहले उन्होंने कुछ दिनों तक बंबई में खेमराज के पुस्तक प्रकाशन में काम किया। यहाँ उनके लिए रचनात्मकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन वहाँ से होता नहीं था। इसलिए, यहाँ अपने अनुकूल अवसरों को न देखकर वहाँ से त्याग-पत्र देकर कालाकाँकर चले आए। कालाकाँकर (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) से निकलनेवाले दैनिक ‘हिंदोस्थान’ के गहमरीजी नियमित लेखक थे। इसके साथ ही उस समय की श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाएँ ‘बिहार बंधु’, ‘भारत जीवन’, ‘सार सुधानिधि’ में भी नियमित लिखते थे।
इस दौरान गहमरीजी ने जासूसी विधा से हटकर आध्यात्मिक विषयक दो पुस्तकें लिखीं। ‘इच्छाशक्ति’ उनकी बँगला से अनुवादित रचना थी और ‘मोहिनी विद्या’, मैस्मेरिज्म पर अनूठी और हिंदी में संभवतः पहली पुस्तक थी। ये दोनों पुस्तकें हिंदी पाठकों द्वारा काफी पसंद की गईं। बाद के दिनों में जासूसी लेखन से उनकी विरक्ति भी हो गई थी और वे धर्म-अध्यात्म की ओर मुड़ गए थे।
गहमरीजी का कहना था कि ‘जिसका उपन्यास पढ़कर पाठक ने समझ लिया कि सब सोलह आने सच है, उसकी लेखनी सफल परिश्रम समझनी चाहिए।’ गहमरीजी अपनी रचनाओं में पाठकों की रुचि का विशेष ध्यान रखते थे कि वे किस तरह की सामग्री पसंद करते हैं। साहित्य के संदर्भ में उनके विचार भी उच्च कोटि के थे। वे साहित्य को भी इतिहास मानते थे। उनका मानना था कि साहित्य जिस युग में रचा जाता है, उसके साथ उसका गहरा संबंध होता है। वे उपन्यास को अपने समय का इतिहास मानते थे। गुप्तचर, बेकसूर की फाँसी, केतकी की शादी, हम हवालात में, तीन जासूस, चक्करदार खून, ठनठन गोपाल, गेरुआ बाबा, मरे हुए की मौत आदि रचनाओं में केवल रहस्य-रोमांच ही नहीं है, बल्कि युग की संगतियाँ और विसंगतियाँ भी मौजूद हैं। समाज की दशा और दिशा का आकलन भी है।
सौ साल बाद इन कहानियों से गुजरते हुए हम उनकी रचनाधर्मिता से एक बार फिर परिचित होंगे। नए समय में नए आस्वाद के साथ। इन रचनाओं में इतने डिटेल्स हैं कि पूछिए मत। उनके पास अलग-अलग प्रदेशों की बोलियों का भंडार था। एक अलग अनोखी भाषा थी। ढेर सारे शहरों के डिटेल्स थे। इससे उनके घुमंतू मन और मिजाज को समझ सकते हैं, जो एक लेखक के लिए जरूरी होता है। बंबई से लेकर मेरठ तक, गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक, भोजपुर से लेकर प्रयाग तक...। 18 साल की उम्र में बलिया में उन्होंने भारतेंदु को नाटक करते देखा था। उसकी तब समीक्षा लिखी थी। कितनी चर्चा की जाए...। आइए, फिर से सौ बाद ही सही, उनकी रचनाओं से गुजरें...। एक रचनाकार को जानने का सबसे बेहतर तरीका उसकी रचनाओं से बेहतर क्या हो सकता है...।
और अंत में, आप तक पहुँचाने के लिए हिंदी प्रकाशन के प्रकाशक भाई के प्रति हार्दिक आभार।
—संजय कृष्ण
आँखों देखी घटना
-: 1 :-
बात सन् 1893 ई. की है, जब मैं बंबई से लौटकर मंडला में पहले-पहल पहुँचा था। वहाँ मेरे उपकारी मित्र पं. बालमुकुंद पुरोहित तहसीलदार थे। उन्हीं की कृपा से मैं मंडला गया था।
मंडला नर्मदा नदी के बाएँ किनारे बसा है। दाहिने किनारे ठीक उसी के सामने महाराजपुर गाँव है। वहाँ के माननीय जमींदार राय मुन्ना लाल बहादुर एक सुयशवान् परोपकारी वैश्य थे। उनके उत्तराधिकारी बाबू जगन्नाथ प्रसाद चौधरी एक हिंदी प्रेमी युवक ने उपर्युक्त तहसीलदार साहब के द्वार मुझे बुलाया था। मैं जब वहाँ पहुँचा, तब चौधरी साहब ने मुझे बँगला पढ़ाने का काम सौंपा। चौधरी साहब की रुचि बँगला पढ़कर हिंदी साहित्य में बँगला की पुस्तकें अनुवाद करने और हिंदी-सेवा में समय बिताने की थी। चौधरी साहब को मैंने बँगला भाषा की शिक्षा दी और उन्होंने मेरे वहीं रहते ही बँगला से दो पुस्तकों का हिंदी अनुवाद करके छपवाया। एक ‘दीवान गंगा गोविंद सिंह’ दूसरी पुस्तक ‘महाराजा नंद कुमार को फाँसी’ थी।
उन दिनों मैं सबेरे नर्मदा स्नान किया करता था। नहाते समय मैंने वहाँ दो युवतियों की बातें सुनीं। एक थी लाली नाम की मल्लाहिन, अपनी सखी निरखी के साथ। दूसरी थी एक त्रिशूलधारिणी कषायवसना, नाम इसका मालूम नहीं था।
लाली स्नान करते समय अपनी सखी निरखी से कहने लगी, “अरी विन्ना, ऐसे साधु तो हमने कभी नहीं देखे। बड़ो देवता आए, ओको रूप देखते सोई जीव जुड़ाय जात है। ऐसो सुघर रूप विधाता ने मानो अपने हाथ से सँवारे हैं ओको तो। न जाने कब से संन्यास लए हैं ओने। ओकी उमिरि संन्यासी बनबे की न आय विन्ना।”
लाली की यह बातें निरखी ध्यान से सुन रही थी, लेकिन उसके कुछ कहने से पहले ही पास ही घाट पर त्रिशूल गाड़कर स्नान करती हुई साधुनी ने कहा, “हाँ बहन! तुम्हारा रूप तो विधाता के नौकर-चाकर के हाथ की कारीगरी आय काहे?”
लाली रोज उसी घाट पर नहाने आती थी। मैं भी उसी घाट पर रोज स्नान करता था। वह अवधूतिन पहले ही दिन ही वहाँ दीख पड़ी थी। उसी दिन लाली से अवधूतिन का बहुत मेल-जोल हो गया।
वह संन्यासिनी त्रिशूलधारिणी उस अवधूतिन मंडली के साथ आई थी, जो नर्मदा की परिक्रमा करने अमरकंटक से चली थी, लेकिन उस त्रिशूलवाली का मन उन माताओं से नहीं मिलता था। अकेले माँगकर खाना और अलग उस मंडली के पास ही कंबल डालकर रात काट डालना, उसकी दिनचर्या थी, लेकिन महराजपुर पहुँचने पर जब उस मंडली की संन्यासिनों को मालूम हो गया कि चौधरी साहब के यहाँ से परिक्रमा करनेवाले संतों को रोज भोजन मिलता है, तब उसने भी लंबी तान दी। माँग लाने की चिंता से वहाँ उसको रिहाई मिल गई।[adinserter block="1"]
स्त्री जाति के लिए लिखा है कि सदा गृहस्थी के काम में लगे रहने में ही कल्याण है, नहीं तो बिना काम के जब चार-पाँच बैठ जाती हैं, वहाँ चारों ओर का चौबाव चलने लगता है कि समालोचक भी मात खाते हैं। उनमें ऐसा बत-बढ़ाव भी हो जाता है कि झोंटउल की भी नौबत पहुँच जाती है।
हम अपनी माताओं, बहनों और बेटियों से वहाँ इन पंक्तियों के लिए क्षमा माँगते हैं। हमारे कहने का यह अभिप्राय हरगिज नहीं है कि मर्दों में यह लत नहीं है और वे लोग इस तरह चार संगी बैठ जाने पर चर्चा आलोचना नहीं करते।
बात इतनी है कि बेकाम समय बितानेवाली रमणियों में यह गलचौर बहुत बढ़ा रहता है। मर्दों में यह गप्प हाँकनेवाले बहादुरों का जब चौआ-छक्का बैठ जाता है, तब वह लंतरानियाँ ली जाती हैं कि आकाश-पाताल के कुलाबे खूब मिलाए जाते हैं। लेकिन यह ठलुए ऊबकर झट अपना रास्ता नापने लगते हैं और देवियों को देखा है कि ऐसी ठल्ली रहनेवालियों का नित्य का यही रोजगार हो जाता है और जब उनकी मंडली बैठ जाती है, तब उनका निठल्लपुराण बड़ा विकट, बड़ा स्थायी और बड़ा प्रभावशाली हो जाता है। घर-घर की आलोचना का अध्याय जब चलता है, तब परनिंदा का चस्का जिन्हें लगा हुआ है, उनकी लंतरानियों के मारे भले लोगों में त्राहि-त्राहि होने लगती है।
यह लाली उसी मंडली की एक थी। उसने जो नहाती बेर पुरवा के साधु की सराहना की तो साधुनी ने बड़े ध्यान से सब सुना और बड़े चाव से साधु का स्थान, वहाँ जाने का रास्ता और रंग-ढंग तथा हुलिया भी पूछ लिया।[adinserter block="1"]
-: 2 :-
दूसरे दिन भिनसारे ही धूई के सामने पद्मासन लगाए हुए पुरवा गाँव के साधु के पीछे वह अवधूतिन शांत भाव से जा खड़ी हुई।
सबेरे का समय था। वहाँ और कोई नहीं था। साधु स्नान करके विभूति लगाए अकेले बैठे थे। अवधूतिन जब पीछे से चलकर उनके सामने हुई, तब उनका चेहरा देखते ही बोली, “काहे देवता! ई आँसू काहे बह रहे हैं तुम्हारे!”
बाबा ने चारों ओर चौकन्ना होकर देखा और हाथ के इशारे से संन्यासिनी को सामने बिठाया।
जब वह बैठ गई तब वे धीरे से बोले, “आँसू नहीं धूई का धुआँ लगा है, देवीजी!”
संन्यासिनी बोली, “ना-ना! धुआँ तो इस घड़ी हुई नहीं देवता, आपको कुछ मन की वेदना है! सच कहिए क्या बात है?”
बाबा को अब इतनी करुणा उमड़ी कि रहा नहीं गया। बोले, “हाँ, बात सही है। यह आँसू अब मेरी जिंदगी में सूखनेवाले नहीं हैं। जाने दो, तुमने देख लिया तो बचा! किसी से कहना नहीं। मैं तो संन्यासी हूँ। तुम भी गेरुआधारिणी हो। मेरा दोष छिपा डालना।”
नए अपरिचित साधु की इस साफ बात पर साधुनी कुछ देर तक चुप रही। फिर हाथ जोड़कर बोली, “मैं किसी से नहीं कहूँगी देवता, लेकिन मेरी विनती यही है कि इस आँसू का कारण आप बतला दें। मैं चुपचाप चली जाऊँगी।”
साधु ने पहले बहुत टाला, लेकिन यह तो छोड़नेवाली देवी नहीं है। सुने बिना नहीं मानेगी, तब बोले, “मेरी कथा लंबी और दुःखभरी है। तुम सुनकर क्या करोगी। दुःख की बातें सुनकर दुःख ही होगा।”
“ना-ना! दुःख कह देने से हलका हो जाता है, इसमें दुःख क्यों होगा भला?”
अब साधु कहने लगे, “मैं काशी के क्वींस कॉलेज में पढ़ता था। घर में माँ और स्त्री यानी तीन आदमियों का परिवार था, लेकिन माता का मिजाज बड़ा चिड़चिड़ा था। मेरी स्त्री को लड़का नहीं हुआ, यही उसका अपराध था। इसी कारण सब गृहकाज सुंदर रूप में करके भी उसको सास की सराहना कभी नसीब नहीं हुई। कभी कुछ भूल हो जाए तो माताजी की मार से उसकी पीठ फूल जाती थी। यह सब सहते हुए, वह लक्ष्मी सास के सामने होकर कभी जवाब नहीं देती थी। एक दिन माँ ने उस पर और दरनापा चलाया। मैं भोजन करने बैठा था। माताजी पास आकर बैठ गईं। बहुत दिनों से परोसकर सामने बैठकर मुझे खिलाना माताजी ने छोड़ दिया था। आज बहुत दिनों पर खाते समय उनका पास बैठना देख बड़ा आनंद आया। माँ बोली, ‘खावो बेटा! हमारे आने से हाथ क्यों खींच लिया? हम हट जाएँ?’ मैंने कहा, ‘न माई! न जाने आज भूख काहे नहीं लगी है!’
“माँ, ‘तरकारी अच्छी नहीं बनी है का रे बँझिया, ला बचवा को चटनी दे। अरे, कटहर का, आम का अँचार मरतबान में से निकाल ला। तोको केतना कोई सिखावे अपनी अकल से कुछ नहीं करती।’ माता ने मेरा नाम टुअरा और मेरी स्त्री का नाम बँझिया या बँझेलवा रखा था।
“मेरी स्त्री अचार चटनी लाने गई, तब माँ ने कहा, ‘देख बेटा! अब तू मेरी बात मान ले। यह पतोहू बाँझ निकल आई। अब मैं मरे के किनारे पहुँच गई हूँ। कब चल दूँ इसका कुछ ठिकाना नहीं है बेटा! लेकिन पोते का मुँह देखे बिना मर जाऊँगी तो इसका दुःख परलोक में पाऊँगी।’
“मेरी पत्नी बोली, ‘तुम अपना एक ब्याह और करो।’ मैं समझ गया कि माँ से जो मेरी बातें हुईं, इसने सब समझ लिया है। मैंने कहा, ‘तुम ऐसी बातें क्यों करती हो?’ वह बोली, ‘स्त्री का कर्तव्य है कि स्वामी जिससे सुखी रहे, जिससे स्वामी का वंश चले इसके वास्ते अपना सब त्याग दे। मैं अभागिन हूँ। भगवान् ने मुझे बाँझ कर दिया तो तुम्हारा वंश ही डुबा दूँ। यह मेरा काम नहीं है।’ मैंने कहा, ‘अच्छा अब अपनी बात कह चुकी तो मेरी भी अब सुन लो। पुरुष का कर्तव्य है कि स्त्री को सुखी करे। स्त्री पुरुष की विलास की सामग्री नहीं है। वह देवी है, उसे प्रसन्न रखना पुरुष का कर्तव्य है। जहाँ स्त्री प्रसन्न नहीं वह घर नरक है।’ वह मेरी बात बीच में रोककर बोली, ‘बस तो मैं तभी प्रसन्न होऊँगी, जब तुम एक ब्याह और कर लोगे।’
“अब मैंने सब बात और कहा-सुनी बंद कर दी। माँ से कह दिया, ‘तुम्हारी बात मानता हूँ। मैं ब्याह कर लूँगा।’ अब मेरा ब्याह उस मुहल्ले के चक्रधर की लड़की सूगा से हो गया।[adinserter block="1"]
-: 3 :-
“ब्याह के बाद मैं काशी चला गया। सूगा की चिट्ठी बराबर आती रही। हर चिट्ठी में सूगा अपनी सौत की शिकायत लिखने लगी। मैं बराबर समझता गया कि सौत का सौत पर जो मान होता है, उसी का यह सब प्रसाद है। एक दिन जो सूगा की चिट्ठी आई, उसको पढ़कर तो मुझे काठ मार गया। उसने लिखा, “माँ जी ने कई दिन हुए उनको घर से खदेड़ दिया है।” उस दिन शनिवार था। झट टिकट लेकर घर पहुँचा। रात के समय भीतर जाते ही नई दूल्हन मिली। मैंने तुरंत पूछा, “माँ ने किसको खदेड़ दिया है?”
‘‘फिर सूगा कुछ कहने चली थी कि मैंने उसे डाँटा। तब चुप रही। फिर से हाथ छुड़ाकर गंभीर हो गया। कहा, ‘बिछौना ठीक है?’
-: 4 :-
“जब मेरी नींद खुली। कान पर जनेऊ चढ़ाकर लघुशंका करने गया। लौटकर देखा तो घड़ी में एक बजाहै। बिछौने पर सूगा नहीं है। मैं दबे पाँव बाहर गया। दरवाजे के सामने बड़ के नीचे दो आदमियों को लिपटा देखकर पास गया। देखा तो वही पिछवाड़ेवाला महादेव सूगा को आलिंगन करके चुंबन कर रहा था। मैं नहीं कह सकता, मुझे कहाँ का धीरज आ गया कि आँखों के सामने वह लीला देखकर मैं सह गया।
“महादेव तो मुझे देखकर भाग गया और सूगा चिल्लाकर गुहार करने लगी। मैंने पास जाकर कहा, ‘तुम डरो मत सूगा। मैं तुमको कुछ नहीं कहूँगा, लेकिन यह तो बताओ कि जिसने तुम्हारे वास्ते अपना सबकुछ छोड़ दिया, उसको तुमने इतना कलंक क्यों लगाया?’
“सूगा ने रोकर कहा, ‘मैंने बड़ा पाप किया है। तुम्हारे आगे मुँह दिखाने लायक नहीं हूँ, मुझे क्षमा करो।’
“मैंने कहा, ‘मैं तो तुमको क्षमा देता हूँ सूगा। लेकिन जिस देवी के साथ तूने ऐसा विश्वासघात किया है वह तुझे माफ करेगी कि नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन मैं भी तुम्हीं पर सब छोड़कर जाता हूँ, उस लक्ष्मी का दर्शन पाऊँगा तो क्षमा मानूँगा। अगर नहीं मिलेगी तो घर का मुँह नहीं देखूँगा।’ यही कहकर मैं चला गया। आज बारह वर्ष हो गए। उस लक्ष्मी का दर्शन नहीं मिला। कल रात को उस लक्ष्मी को मैंने सपने में देखा है। आज सबेरे से ही उसकी याद आ रही है। आँसू नहीं रुकते। नहीं जानता, वह मेरी आशा जगत् में है या नहीं?”
यही कहकर संन्यासी ने उस अवधूतिन की ओर देखा। उसके भी आँसू बहकर गाल से टपक रहे थे। उसने अधीर होकर पूछा—
“आप क्यों करुणा करती हो देवी?”
अब वह संन्यासी के चरणों में पड़कर बोली, “मैं वह तुम्हारी दुःखिनी हूँ देवता! मैं ही हूँ हे नाथ। तुम्हारी वह आशा।”
इतना सुनते ही साधु ने, “अरे तुम हो हमारी लक्ष्मी आशा तुम्हीं हो!” कहते हुए उसको अपनी ओर खींच लिया। फिर उनका दर्शन वहाँ किसी को नहीं मिला।
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गेरुआ बाबा
-: 1 :-
“सुपरिंटेंडेंट साहब हैं?”
“ऑफिस में जा ऑफिस में।”
हाथ में एक लिफाफा लिये हुए एक लड़के ने पूछा, फिर भीतर से दाई का जवाब पाकर कहने लगा, “किधर, ऑफिस है किधर?”
“आमर! बौड़दा! ऑफिस नहीं जानता। कैसा आदमी है?” कहती हुई एक दाई निकल आई।
दाई आई तो थी अनखायी हुई, लेकिन सामने एक सुंदर लड़के को हाथ में चिट्ठी लिये देखकर हँसती हुई बोली, “लाओ देखें तो किसका है?”
पढ़कर उसने लड़के को लिफाफा लौटा दिया। कहा, “हाँ, सुपरडंट साहब का है। ले जाव! वह देखो फाटक दिखलाई देता है। उसी में ऑफिस है, जाव।”
लड़का ब्वॉय मेसेंजर था। दौड़ता हुआ ऑफिस में गया। एक महाशय कुरसी पर बैठे रजिस्टर उलट रहे थे। नमस्ते कहकर उसने चिट्ठी दी। जवाब में जो निकला, उनके कंठ से बाहर नहीं हुआ था कि लड़के ने कहा, “यहाँ अभिवादन लेने का दस्तूर नहीं है क्या?”
इस छोटे से लड़के का वज्र सा उलाहना कुरसीवाले को बेध गया। कहा, “नमस्ते के जवाब से अधिक जरूरी तो तुझको चिट्ठी का जवाब चाहिए। जाव उस कमरे में।”
लड़का चिट्ठी उठाकर यह कहता हुआ चला, “हाँ! तभी न! मैंने तो समझा था कि आप ही सुपरिंटेंडेंट हैं। जो सुपरिंटेंडेंट होगा, वह अभिवादन को इस तरह लात नहीं मारेगा, न तुम ताम ही करेगा।”
बात यह है कि वह कुरसी पर का बैठा हुआ ऑफिस का आदमी नहीं शहर का था, जिसका कोई पहचान का आदमी उसी कुरसी पर बैठकर काम करता था। लेकिन अभी तक वह आदमी नहीं आया था। इसी से वह अपनी पहचानवाले की कुरसी पर बैठ उसकी राह देखता था। इस आदमी का अनोखा स्वभाव था। जब इसको कोई सलाम करता, आपसी सलाम करता था। जब कोई आदाब कहता तो आदाब आप भी कहता। कोई गुडबाई करता तो आप गुडबाई करता था, लेकिन जब कोई नमस्ते कहता, तब यह कहता था कि हम नहीं समझते।
लेकिन लड़के के नमस्ते कहने पर अपनी वह बात भी भूल गया। और भीतर जाने का इशारा करके आप वहाँ से उठ खड़ा हुआ।
जब लड़का भीतर जाकर एक बड़े कमरे में पहुँचा। सामने ही बैठे एक गंभीर पुरुष को देखकर पूछा, “सुपरिंटेंडेंट साहब कहाँ हैं?”
“क्या काम है?”
लड़का, “चिट्ठी लाया हूँ।”
“किसकी है लाओ।”
माथ नवाकर उसने चिट्ठी दी। झट उन्होंने खोलकर पढ़ा। और उसी दम जवाब लिखा, “आपको आदमी भेजा गया है।”
लड़का जवाब लेकर चला गया।[adinserter block="1"]
-: 2 :-
हम वहाँ चिट्ठी भेजने और जवाब देनेवाले दोनों का कुछ परिचय देना चाहते हैं। शहर का नाम हम नहीं बतलावेंगे, न सन् न महीना या तारीख ही का पता देंगे। शहर का नाम अलकापुर कहेंगे। दिनों की बात हम कहते हैं, उन दिनों वहाँ सेवा समिति स्थापित हो गई थी। जो मेले-ठेले और समय-समय पर राजा-प्रजा दोनों को सहायता देती थी और लोगों के उसके काम पर बड़ी श्रद्धा-भक्ति थी। उसके मेंबरों की मुस्तैदी और परोपकार के कारण सब लोगों का उस समिति पर बड़ा विश्वास था। समिति में दो आदमी ऐसे थे, जो जासूसी का काम करते थे। इस कारण बड़े-बड़े लोग अपने संगीन मामले पुलिस में रपट करके उसी सेवा समिति के हाथ में सौंपते और सफलता पाकर जी से प्रसन्न होते और उनके काम करनेवालों को पुरस्कार देते थे। आज जो चिट्ठी आई वह भी इसी तरह की थी। उसमें इतना ही लिखा था कि आप अपने गेरुआ जासूस को फौरन भेजिए, बहुत ही जरूरी काम आ पड़ा है।
समिति में एक विकट जासूस थे जो ऐसे ही भेद भरे गूढ़ मामलों में छोड़े जाते थे। वह सदा गेरुआ पहने रहते थे। इससे सब लोग उनको गेरुआ बाबा कहा करते थे।
सुपरिंटेंडेंट ने गेरुआ बाबा को बुलाकर वह चिट्ठी दे दी और लड़के को जवाब देकर विदा किया।
इधर, गेरुआ बाबा भी रवाना हो गए। जब वह चिट्ठी भेजनेवाले मुरलीधर के दरवाजे पहुँचे, तब देखा कि मुरलीधर शहर से बाहर सदर में रहते हैं। पता मिला कि नौकरी से पेंशन लेकर उन्होंने बड़े लंबे-चौड़े मैदान में तीन महल का मकान बनाया है। मकान के चारों ओर कोई चार बीघे में एक सुंदर बाग लगवाया है। बड़े हॉल के बगलवाले कमरे में एक सफेद संगमरमर के टेबल के सामने कुरसी पर बैठे एक महाशय मानो किसी की राह देखते हैं। उज्ज्वल गोरा बदन देखने से ही जान पड़ता है कि कोई भाग्यवान आदमी हैं।
उन्होंने पूछा, “आप सेवा समिति से आए हैं?”
“जी हाँ।”[adinserter block="1"]
तब आदर से बिठाकर कहने लगे, “आपसे मैं एक अद्भुत घटना बयान करता हूँ। आप दया करके इसका पता लगाइए।”
“आप सब आदि से अंत तक कह जाइए।”
“मेरी एक लड़की है। नाम उसका प्यारी है। उसकी शादी दो साल बीते सेठ दुर्गाप्रसाद के लड़के मूलचंद से कर चुका हूँ। लड़की का वहाँ उसके गुणों से बड़ा आदर है। सास ने हीरे-मोती के जड़ाऊ गहने बहुत भेजे थे। हीरे का एक जड़ाऊ हार, एक सिरबिंदी, एक जोड़ा कान का और एक नाक का गहना था। एक बड़ा हीरा जड़ा जूड़े का चंदवा, एक चंपाकली सब मिलाकर तीस हजार का माल था। उस सनीचर को न जानें किस कुसाइत में यहाँ पहुँचा कि कल शुक्रवार को रात को सब गायब है।”
गेरुआ, “तो मुझे उन्हीं गहनों का पता लगाना होगा क्या?”
“जी हाँ, मैं आपको अच्छी तरह खुश करूँगा। आप इन गहनों का पता लगा दीजिए। देखिए ये गहने चढ़ाव के हैं। इनके नहीं मिलने से मेरी कितनी बदनामी है, सो आप समझ सकते हैं।”
अब गेरुआ बाबा ने उन चोरी की गई चीजों का नाम, दाम, वजन, रंग सब अच्छी तरह ऐसा लिख लिया कि देखते ही पहचान सकें।
फिर मुरलीधर ने उनसे कहा, “एक बात बड़े अचरज की है कि चोर गहनों का बॉक्स यहीं फेंक गया है। उसके देखने से जान पड़ता है कि जोर करके वह खोला गया है। मैंने आदमियों को तो अच्छी तरह घुमा-फिराकर, हिला-डुलाकर जाँच लिया है। इनसे कुछ पता नहीं चलता।”
गेरुआ, “चिंता नहीं।”
मुरलीधर, “दो बात मैं आपसे कहना चाहता हूँ। किसी को मैंने अभी तक वह नहीं कहा।”
गेरुआ, “कहिए।”
मुरलीधर, “पहली बात तो यह है कि गहनों के बॉक्स के किनारे पर खून लगा था। मालूम हुआ कि जल्दी में खोलते समय बॉक्स का कोना खोलनेवाले की देह से लगने से खून निकला है और मेरी लड़की की एक लौंडी, जिसका नाम फेंकनी है, उसके हाथ में भी कट जाने का दाग है। यह लौंडी अभी हमारे यहाँ नई आई है। इसके ऊपर जरा खयाल रखता हूँ, लेकिन अगर उसी ने चुराया है, तो रंग-ढंग से कुछ भी पहचानी नहीं जाती। दूसरी बात यह है कि मेरी छोटी लड़की, जो नव बरस की है, आज यह एक हीरा मेरे पास लाई है।”[adinserter block="1"]
यही कहकर मुरलीधर ने एक हीरा जासूस के आगे निकालकर रख दिया।
गेरुआ बाबा ने देखा कि बड़ा चमकदार और दामी हीरा है। आकार में छोटा होने पर भी चमक-दमक से वह अँधियारे घर का उजियाला है।
मुरलीधर, “इसको वह कहती है कि लौंडी फेंकनी के कमरे में बॉक्स के नीचे मिला है। यह उन्हीं गहनों में से एक में जड़ा था। मालूम होता है, उससे उखाड़ लिया गया है।”
गेरुआ, “अच्छा जिस कमरे में यह सब गहने थे, उसको एक बार हम देखना चाहते हैं।”
अब मुरलीधर गेरुआ बाबा को प्यारी के कमरे में ले गए। उन्होंने कमरे को अच्छी तरह देखा। उनकी समझ में नहीं आया कि भीतर कैसे आदमी आया होगा, क्योंकि बाहर से ऊपर चढ़ने के लिए कुछ उपाय नहीं था। एक खिड़की से एक फव्वारा तीन-चार फीट की दूरी पर पानी फेंक रहा था, लेकिन वह बहुत पतला था। यहाँ तक कि बहुत बोझ भी नहीं ले सकता था। अगर कोई उस पर चढ़ता, तो सब लिये-दिए गिर जाता और कोई भी उपाय बाहर से ऊपर चढ़ने को नहीं था। सब देख-सुनकर गेरुआ बाबा ने एक बार उन सब लोगों को देखने का इरादा किया, जो उस घर में रहते थे। अब सब लोग बारी-बारी से आने लगे और जासूस उनको कुछ पूछ-पाछकर विदा करने लगे।
इससे मुरलीधर की लड़की प्यारी को भी आना पड़ा। दो-चार बात ही गेरुआ बाबा ने उससे पूछी, लेकिन उतने में प्यारी का चेहरा फक हो गया था। उसने जासूस से कहा, “मैं तो बहुत हैरान हूँ, कैसे क्या हुआ! देखिए इस कमरे में एक ही तो दरवाजा है, इसके सिवाय जिस चाबी से यह बंद था, वैसी चाबी भी किसी की नहीं थी। इसके जोड़ की चाबी नहीं है और चाबी मैं खास अपनी जेब में रखती हूँ।”
गेरुआ, “आप जब रात के आठ बजे पीछेवाली दालान में गईं, तब आपके गहनों का बॉक्स कपड़ों के बॉक्स के ऊपर ही था?”
प्यारी, “हाँ!”[adinserter block="1"]
इतना सुनने पर गेरुआ बाबा ने दीवार को अच्छी तरह नीचे-ऊपर देखा कि क्या जाने कोई चोर दरवाजा हो, लेकिन कहीं कुछ भी पता नहीं चला। न छत में ही ऐसा कहीं रोशनदान या छेद मिला, जिससे बाहर का आदमी भीतर आ सके।
यह सब अच्छी तरह देख चुकने पर फेंकनी लौंडी उनके सामने आई। वह पश्चिमी हिंदुस्तान की रहनेवाली थी। उसका चेहरा घूरकर जासूस ने कहा, “यह तो बतलाओ लौंडी कि जब रात को गहनों का बॉक्स चोरी गया, उससे पहले ही तुम्हारे हाथ में यह जख्म था या पीछे हुआ?”
सुनते ही फेंकनी का रंग उतर गया। वह कुछ सेकेंड तक गेरुआ का मुँह ताकती रह गई। फिर उन्होंने पूछा, “जख्म होने और खून गिरने की बात याद है या नहीं?”
लौंडी, “याद क्यों नहीं है साहब?”
गेरुआ, “और गहनों के बॉक्स पर भी खून गिरा है। अच्छा बतलाओ तुम्हारे हाथ पर यह खून कैसे लगा?”
लौंडी, “एक आलपिन के गड़ जाने से यह खून निकला है।”
इतने में मुरलीधर के मुँह से निकला, “बेतहाशा, अरे तू निकल गया।” गेरुआ बाबा ने रोक दिया। और आप लौंडी का हाथ उलट-पुलटकर देखने लगे। मालूम हुआ कि एक जख्म है और वह आलपिन या सूई सी पतली चीज से नहीं हो सकता।
अब गेरुआ बाबा ने वह हीरा दिखाकर पूछा, “अच्छा, तुम्हारे कमरे में तुम्हारे बॉक्स के नीचे यह कैसे गया?”
लौंडी अचकचाकर कई सेकंड तक वह हीरा देखती रही। फिर चकित होकर कहने लगी, “आपने इसको मेरी कोठरी में पाया है क्या?”
इस समय उसका चेहरा देखकर कुछ और अटकल तो नहीं हो सका। उन्होंने जवाब में कहा, “हाँ, हाँ।”
अब तो लौंडी हाथ जोड़कर आँखों में आँसू भरकर जासूस से विनती करने लगी, “देखिए साहब! आपकी बातों से मालूम देता है कि मुझे ही आप चोर समझ रहे हैं, लेकिन मैं इस मामले में बिल्कुल बेकसूर हूँ। जिसकी कहिए, उसकी कसम खाकर मैं कह सकती हूँ कि मैं बिल्कुल बेगुनाह हूँ। बबुई का गहना किस बॉक्स में वहाँ रहता है, मुझे कुछ भी मालूम नहीं था। अगर मुझे मालूम हो तो उसे बचाऊँगी कि ऐसी नमकहरामी करूँगी। हमारी दोनों आँखें फूट जाएँ, जो हमको कुछ भी मालूम हो तो!”[adinserter block="1"]
प्यारीबाई भी उसी कमरे में मौजूद थी। लौंडी की ओर होकर बोली, “नहीं, लौंडी पर मेरा पूरा विश्वास है। और वह उस घर में जाएगी कैसे? ताला बंद था। यह कहें कि चाबी की नकल उसने बनवा ली थी, तो वह बात भी नहीं है।”
जासूस ने चाबी माँगकर देखी, तो वह एक नए ढंग की थी। जब तक उसकी छाप मोम से लेकर दूसरी नकल न तैयार की जाए, तक तब ताला हरगिज नहीं खुल सकता।
जब लौंडी की पूछताछ हो चुकी, उस कमरे से और सब लोग विदा कर दिए गए। जासूस ने कहा, “गहनों को बरामद करना और चोर को पकड़ना दो काम हैं और दोनों के लिए समय दरकार है। और यह घटना ऐसी है कि जल्दी पता लगने का ढंग नहीं है। मैं चाहता हूँ कि घर का कोई आदमी घटना का हाल कहीं किसी पर जाहिर न करे। अखबार वगैरह में भी खबर न छपे। आप इन सब बातों पर ध्यान रखिए।”
मुरलीधर, “अच्छा, फेंकनी को आपने कैसा पाया?”
गेरुआ, “वह तो हमको बेगुनाह मालूम देती है।”
मुरलीधर, “आप ऐसा क्यों समझते हैं?”
गेरुआ, “मुझे तो ऐसा ही मालूम देता है। खैर, अब मैं जाता हूँ। जब जरूरत होगी, आपसे मिलूँगा या खबर दूँगा।”
यही कहकर जब गेरुआ बाबा बाहर निकले, तो बगल के एक कमरे से एक बुढ़िया सामने आई। और जासूस को इशारे से बुला ले गई। उसके घर जब गेरुआ बाबा जाकर बैठे तो उसने पूछा, “आपने फेंकनी से बातचीत की है?”
गेरुआ, “हाँ, जो कुछ पूछना था, सो तो पूछ लिया।”
बुढ़िया, “तो जवाब पाकर आपने उसको कैसा समझा है?”
गेरुआ, “मुझे तो लौंडी बेकसूर मालूम हुई।”
बुढ़िया, “तब गहने से वह हीरा कैसे गिरकर उसकी कोठरी में जा पड़ा?”
गेरुआ, “आपको हीरा की बात पहले से ही मालूम है क्या?”
बुढ़िया, “मैं इसी हीरे की बात नहीं, साहब बहुत सी बातें जानती हूँ। किसी से कहा नहीं, आपको गंभीर आदमी देखकर कहती हूँ, क्योंकि यह सब बातें पहले से जाहिर हो जाने पर असल चोर खबरदार हो जाएगा और माल भी न मिलेगा। उस सनीचर की रात बड़ी भयावनी थी। फेंकनी उस अँधेरे में किसी मर्द से बात करती थी। जरा दूर थी, इससे मैं सब बातें तो नहीं समझ सकी, लेकिन मर्द की दो-एक बातें सुनने में आईं। वह कहता रहा कि प्यारी की कौन खिड़की बगीचे की ओर खुली है।”[adinserter block="1"]
इसके बाद कुछ देर तक बुढ़िया चुप रही। गेरुआ बाबा ने कहा, “सब बातें कह जाव, रुकती क्यों हो?”
बुढ़िया बोली, “उसके बाद की बातें समझ में ठीक से नहीं आईं। लेकिन एक और मामला मैं बतलाती हूँ, जिससे मालूम होगा कि दोनों किस गरज से वहाँ अँधेरे में मिले थे। वह बात यह है कि कल जब पहर रात बाकी थी तो बगीचे के किनारे किसी की आहट मिली। मालूम हुआ कोई तेजी से दौड़ा जाता है। फिर साँय-साँय, फुस-फुस सुनाई दिया। इतना मैंने बहुत धीरे-धीरे सुना, ‘तब अंत में यही हुआ कि जान नहीं बचेगी।’
“उसके बाद ही मैंने देखा कि एक आदमी किनारे-किनारे दौड़ा जाता है। बादल हट गए थे, अँधियारे पाख की दशमी का चाँद निकल आया था। उसी उजियाली में मैंने उस मर्द को दौड़ते हुए अपनी आँखों देखा था। वह बगीचे के फाटक की ओर गया था। उसका एक हाथ छाती पर था, जिसमें एक चमकता हुआ जड़ाऊ जेवर था। मैंने चाँदनी में उसकी चमक देखी थी, गहना बड़ा कीमती था। इसमें संदेह नहीं है।”
गेरुआ, “अच्छा, उस आदमी को आप पहचानती हैं या नहीं?”
बुढ़िया, “पहचानती क्यों नहीं, वह थे तो मूलचंद मुरली ही बाबू के दामाद।”
गेरुआ, “ऐं! प्यारी के मालिक ही थे?”
बुढ़िया, “हाँ, वही थे।”
गेरुआ, “वही गहना लिये जा रहे थे?”
बुढ़िया, “हाँ, और गहना प्यारीबाई का ही था। मैं सब गहना उनका पहचानती हूँ।”
गेरुआ, “तो क्या आप समझती हैं कि दामाद ही ने यह काम किया है?”
“मोको समझने-वमझने से कुछ मतलब नहीं। न मैं कभी उसको जानती हूँ कि ऐसा है। लेकिन जो आँखों से देखने में आया, वही आपसे कह दिया है। चोर-साहु आप जानें!”
जब गेरुआ बाबा ने बुढ़िया से यह सुना कि घटना आधी रात के बाद हुई है, तब दो-चार जरूरी बातें पूछने के लिए फिर प्यारी के पास लौट आए। देखा तो पीछे-पीछे वह बुढ़िया भी धीरे-धीरे चली आ रही है।
जब प्यारी के सामने पहुँचे, देखा तो वह उदास आँखों से ताक रही है। चेहरा सकपकाया हुआ है। गेरुआ बाबा ने पूछा, “अच्छा! पाहुन मूलचंदजी कब यहाँ आए थे?”
प्यारी, “कल सूरज डूबने पर।”[adinserter block="1"]
गेरुआ बाबा, “वह कब तक यहाँ रहे। रात भर तो ठहरे रहे न?”
प्यारी, “ना, ना! कल ही रात के दस बजे चले गए। कहते थे जल्दी विदेश जाने की साइत है।”
गेरुआ, “उनके जाने पर कितनी देर पीछे आपके गहने चोरी गए?”
प्यारी, “जब वह चले गए, तब मैं नीचे आई और थोड़ी देर पीछे ऊपर गई, देखा तो गहने नहीं हैं।”
गेरुआ बाबा, “जब आप संध्या को कल नीचे गई थीं, तब गहना था, इसमें तो कुछ संदेह नहीं है न?”