पुस्तक का विवरण (Description of Book of एमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी / Emergency Ki Inside Story PDF Download) :-
नाम 📖 | एमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी / Emergency Ki Inside Story PDF Download |
लेखक 🖊️ | कुलदीप नैयर / Kuldip Nayar |
आकार | 4.8 MB |
कुल पृष्ठ | 174 |
भाषा | Hindi |
श्रेणी | इतिहास, भारत, भारतीय लोकतंत्र, राजनीति |
Download Link 📥 | Working |
‘इन सबकी शुरुआत उड़ीसा में 1972 में हुए उप-चुनाव से हुई। लाखों रुपए खर्च कर नंदिनी को राज्य की विधानसभा के लिए चुना गया था। गांधीवादी जयप्रकाश नारायण ने भ्रष्टाचार के इस मुद्दे को प्रधानमंत्री के सामने उठाया। उन्होंने बचाव में कहा कि कांग्रेस के पास इतने भी पैसे नहीं कि वह पार्टी दफ्तर चला सके। जब उन्हें सही जवाब नहीं मिला, तब वे इस मुद्दे को देश के बीच ले गए। एक के बाद दूसरी घटना होती चली गई और जे.पी. ने ऐलान किया कि अब जंग जनता और सरकार के बीच है। जनता—जो सरकार से जवाबदेही चाहती थी और सरकार—जो बेदाग निकलने की इच्छुक नहीं थी।’ ख्यातिप्राप्त लेखक कुलदीप नैयर इमरजेंसी के पीछे की सच्ची कहानी बता रहे हैं। क्यों घोषित हुई इमरजेंसी और इसका मतलब क्या था, यह आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि तब प्रेरणा की शक्ति भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मिली थी और आज भी सबकी जबान पर भ्रष्टाचार का ही मुद्दा है। एक नई प्रस्तावना के साथ लेखक वर्तमान पाठकों को एक बार फिर तथ्य, मिथ्या और सत्य के साथ आसानी से समझ आनेवाली विश्लेषणात्मक शैली में परिचित करा रहे हैं। वह अनकही यातनाओं और मुख्य अधिकारियों के साथ ही उनके काम करने के तरीके से परदा उठाते हैं। भारत के लोकतंत्र में 19 महीने छाई रही अमावस पर रहस्योद्घाटन करनेवाली एक ऐसी पुस्तक, जिसे अवश्य पढ़ना चाहिए।.
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पुस्तक का कुछ अंश
मेरी बात
वह 25 जून, 1975 की आधी रात थी, जब टेलीफोन की घंटी ने मुझे जगा दिया। फोन करनेवाले ने कहा कि वह भोपाल से बोल रहा है। वहाँ की सड़कों पर पुलिसवाले भरे पड़े हैं। क्या मैं बता सकता हूँ कि ऐसा क्यों है? उसने मुझसे पूछा। मैंने नींद में ही जवाब दिया कि हाँ बताता हूँ, फिर भी उसने फोन नहीं काटा। लेकिन जैसे ही मैंने फोन रखा, वह फिर से बज उठा। इस बार जालंधर के एक अखबार से फोन आया था और फोन करनेवाले ने कहा कि पुलिस ने प्रेस पर कब्जा कर लिया है और उस दिन के अखबार की सारी कॉपियाँ भी जब्त कर ली हैं। इसके बाद मेरे ऑफिस से फोन आया, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से, और बताया गया कि नई दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित तमाम अखबार के दफ्तरों की बिजली काट दी गई है, और अनाधिकारिक सूत्र बता रहे थे कि निकट भविष्य में उसके चालू किए जाने की संभावना नहीं है।
सच कहूँ तो मुझे इन घटनाओं के बीच कोई संबंध नहीं दिखा। मुझे लगा कि नौकरशाह फिर से अपनी हरकतों पर उतर आए थे। कई महीने पहले, दिल्ली के अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई। तब बस ड्राइवर हड़ताल पर थे। इसे दस घंटे बाद फिर से चालू किया गया था। इस बार शायद सरकार नहीं चाहती थी कि अखबारों में 25 जून को हुई जनता पार्टी की रैली की खबर छपे, जिसमें नारायण ने सत्याग्रह का आह्वान किया था।
फिर इरफान खान का फोन आया, जो उस वक्त ‘एवरीमैन’ नाम के साप्ताहिक में काम करते थे, जिसे जे.पी. ने शुरू किया था। उन्होंने बताया कि उन्हें बड़ी तादाद में नेताओं को गिरफ्तार किए जाने की खबर मिली है। उनमें जे.पी., मोरारजी और चंद्रशेखर शामिल थे। कुछ घंटे बाद इमरजेंसी और सेंसरशिप की घोषणा हुई। एक देश को बाँध दिया गया था और उसका गला घोंट दिया गया था।
एक संवाददाता के लिए इससे ज्यादा निराश करनेवाला और कुछ नहीं हो सकता कि वह ऐसी खबर जुटाए, जिसे वह जानता है कि छापा नहीं जा सकता। जल्द ही यह साफ हो गया कि इमरजेंसी ऑपरेशन कामयाब हो गया था और लोकतंत्र के लिए एक अंतहीन रात की शुरुआत होती दिख रही थी। लेकिन, उम्मीद की किरण चाहे कितनी ही धुँधली क्यों न हो, लेकिन नोट्स बनाते रहने और किसी दिन एक किताब लिखने की बातें मेरे दिमाग में तब आईं, जब मैं इमरजेंसी के कारणों पर रिसर्च कर रहा था। सूचना जुटाना भी बहुत कठिन था। हालात इतने भयावह थे कि गिने-चुने लोग ही मुँह खोलने को तैयार थे। मुझे कुछ जानकारी मिल गई, लेकिन 26 जुलाई को मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। सात हफ्ते बाद अपनी रिहाई के बाद ही मैं फिर से छूटे काम को आगे बढ़ा सका।[adinserter block="1"]
18 जनवरी को चुनावों की घोषणा के बाद, इमरजेंसी में कुछ ढील दिए जाने के बाद भी, कुछ लोग ही मुझसे बात करने को राजी हुए। लेकिन चुनाव के बाद हालात बदल गए और मैं संजय गांधी, आर.के. धवन, एच.आर. गोखले, चंद्रजीत यादव, रुक्साना सुल्ताना, श्रीमती फखरुद्दीन अली अहमद और पुलिस तथा अन्य विभागों के प्रमुख अधिकारियों से बातचीत कर सका। ये लोग नहीं चाहते थे कि कुछ भी इनके हवाले से लिखूँ, और मैंने अपना वादा निभाया है। लेकिन उन्होंने बहुत खुलकर बात की और इमरजेंसी की अधिकांश कहानियाँ, जिन्हें मैंने फिर से बुना है, उनके बयानों पर ही आधारित हैं। मैंने कम-से-कम छह बार श्रीमती गांधी का इंटरव्यू लेने के लिए संपर्क किया, लेकिन उन्होंने मेरे आग्रह को स्वीकार नहीं किया।
मैंने इमरजेंसी के दौरान दो बार पूरे देश का भ्रमण किया। एक बार अक्तूबर-नवंबर 1975 में और फिर 1976 के मध्य में। इन दौरों में मैं तमाम लोगों से मिला और बहुत सारी जानकारी इकट्ठा की। मुझे कुछ भूमिगत रूप से प्रकाशित सामग्री भी मिली, जो 19 महीने के आतंक के दौरान सामने आई थी।
मैं यह दावा नहीं करता कि इमरजेंसी की सारी घटनाएँ इस किताब में हैं। एक वजह यह है कि उसकी कहानी इतनी लंबी है कि कुछ हजार शब्दों में उसे समेटना संभव नहीं है। दूसरी यह कि मैं अनेक आरोपों और अफवाहों की पुष्टि नहीं कर सका, जो इमरजेंसी उठाए जाने के बाद की थीं या इमरजेंसी के दौरान किए जानेवाले अत्याचारों का पर्दाफाश करनेवाली थीं। फिर भी जो कुछ भी इस किताब में है, उसकी पुष्टि और फिर से पुष्टि की गई है।
मैं जानता हूँ कि कुछ बातें जो मैंने सामने रखी हैं, वे कुछ लोगों को अच्छी नहीं लगेंगी, और हो सकता है कि वे लोग इनका खंडन भी करें। मैं उनसे वाद-विवाद नहीं करना चाहता। मैंने केवल घटनाओं की सच्ची रिपोर्टिंग की है और अपना काम किया है। इसमें किसी के प्रति विद्वेष की भावना नहीं है। अपने पूरे सामर्थ्य के अनुसार, मैं निष्पक्ष रहा हूँ।
अपने दौरों और साक्षात्कारों के दौरान मैंने एक बात पर गौर किया है कि चाहे सब कितने ही दब्बू क्यों न रहे हों, कुछ लोगों ने ही निरंकुश शासन को स्वीकार किया था। भय और आज्ञाकारिता थी, लेकिन स्वीकार्यता नहीं थी। आखिर कौन लोग थे, जिन्होंने डराया और सरकार में या और कहीं भी किसी ने भी उसके खिलाफ संघर्ष क्यों नहीं किया? इन प्रश्नों पर एक खुली बहस होनी चाहिए।[adinserter block="1"]
मैं एस. प्रकाश राव और वी. अच्युता मेनन का उनके उपयोगी सुझावों के लिए शुक्रगुजार हूँ, जो कभी ‘द स्टेट्समैन’ में मेरे साथी थे। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के केदार नाथ पंडिता का भी धन्यवाद, जिन्होंने प्रूफ को पढ़ा और मेरे सचिव अमर्जीत सूद का भी शुक्रिया, जिन्होंने पांडुलिपि के अनेक मसौदों को धैर्य के साथ टाइप किया और दोबारा टाइप किया।
तानाशाही की ओर
प्रधानमंत्री आवास के एक तंग कमरे में दो टेलीप्रिंटर खड़खड़ा रहे थे। खड़खड़ाहट के साथ वे लगातार शब्द उगलते चले जा रहे थे। सुबह की सुस्त कर देनेवाली घड़ी में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पी.टी.आई.) और यूनिटेक न्यूज ऑफ इंडिया (यू.एन.आई.) की यह नाइट कॉपी थी, जिसे अंतिम रूप दिया जा रहा था। आमतौर पर, इन मशीनों पर किसी की नजर उतनी नहीं जाती थी, कम-से-कम इतनी सुबह तो कभी नहीं।
मगर 12 जून, 1975 को श्रीमती इंदिरा गांधी के सबसे वरिष्ठ निजी सचिव, नैवुलणे कृष्ण अय्यर शेषन घबराहट के साथ एक मशीन से दूसरे मशीन की ओर भाग रहे थे। उस कमरे में एक भयानक चुप्पी थी, जिसे घड़ी की टिकटिक और टेलीफोन की घंटियाँ भी नहीं तोड़ पा रही थीं।
एक बड़ी खबर सामने आनेवाली थी और शेषन बेचैनी से उसका इंतजार कर रहे थे। यह वही दिन था, जब इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जग मोहन लाल सिन्हा एक याचिका पर अपना फैसला सुनानेवाले थे। यह याचिका राज नारायण ने 1971 के लोकसभा1 चुनाव में प्रधानमंत्री के निर्वाचन के खिलाफ दाखिल की थी। सुबह के 10 बजने वाले थे। कुछ ही देर पहले आनन-फानन में एक टेलीफोन इलाहाबाद किया गया था, जिससे जानकारी मिली थी कि जज साहब अब तक अपने घर से भी नहीं निकले थे।
यह सिन्हा भी विचित्र इनसान है। शेषन के दिमाग में यह बात चल रही थी। हर इनसान की एक कीमत होती है, लेकिन सिन्हा उनमें से नहीं थे। उन्हें प्रलोभन नहीं दिया जा सकता था और न ही झुकाया जा सकता था।[adinserter block="1"]
श्रीमती गांधी के गृह राज्य उत्तर प्रदेश से एक सांसद इलाहाबाद गए थे। उन्होंने अनायास ही सिन्हा से पूछ लिया था कि क्या वे 5 लाख रुपए में मान जाएँगे। सिन्हा ने कोई जवाब नहीं दिया। बाद में, उस बेंच में उनके एक साथी ने बताया कि उन्हें उम्मीद थी कि ‘इस फैसले के बाद’ उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया जाएगा। सिन्हा ने उनकी तरफ नफरत से देखा था।
फैसले को टालने की कोशिशें भी नाकाम हो चुकी थीं। गृह मंत्रालय में संयुक्त सचिव प्रेम प्रकाश नैयर ने देहरादून में उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से मुलाकात की थी और उनसे कहा था कि संभव हो तो इस फैसले को टाल दिया जाए। कम-से-कम प्रधानमंत्री के पहले से निर्धारित विदेश दौरे के पूरा होने तक। एक प्रतिकूल निर्णय शर्मसार करनेवाला होगा।
चीफ जस्टिस ने यह अनुरोध सिन्हा तक पहुँचा दिया। जज इस बात से इतने नाराज हुए कि उन्होंने तुरंत कोर्ट के रजिस्ट्रार को फोन घुमाया और कहा कि वह घोषित कर दे कि 12 जून को फैसला सुनाया जाएगा। 8 जून को होने जा रहे गुजरात विधानसभा के इलेक्शन से पहले फैसला न सुनाकर सिन्हा पहले ही सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी को एक रियायत दे चुके थे। न तो शेषन और न ही किसी और को फैसले की कोई भनक थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बस जज सिन्हा और उनके स्टेनोग्राफर को मालूम था कि क्या फैसला आनेवाला है। इंटेलिजेंस ब्यूरो को भी कुछ पता नहीं था। उनके कुछ लोग नई दिल्ली से इलाहाबाद भी आए थे। उन्होंने सिन्हा के स्टेनोग्राफर नेगी राम निगम से राज उगलवाने की कोशिश भी की थी। लेकिन वे भी उसी मिट्टी के बने थे, जिस मिट्टी के जज साहब थे। यहाँ तक कि धमकियाँ भी बेअसर साबित हुईं। और
11 जून की रात के बाद वे और उनकी पत्नी अपने घर से गायब हो गए। उनकी कोई संतान नहीं थी और खुफिया विभाग के लोग जब पहुँचे तो घर सूना पड़ा था।
प्रधानमंत्री सचिवालय को उम्मीद की एक किरण उस साधु की बातों में नजर आ रही थी, जिसे सिन्हा के घर के बाहर यह जानते हुए तैनात किया गया था कि वे धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। साधु ने बताया था कि सबकुछ ठीक होगा। कई दिनों तक वह साधु और खुफिया विभाग के अन्य लोग सिन्हा के घर की चारदीवारी के बाहर खड़े रहे। लेकिन उन्हें कुछ पता नहीं था कि सिन्हा ने अपने स्टेनोग्राफर को क्या लिखवाया था। फैसले का ऑपरेटिव हिस्सा 11 जून को ही सिन्हा की मौजूदगी में टाइप किया गया था और स्पष्ट रूप से सिन्हा ने उसी समय अपने स्टेनोग्राफर को कहा होगा कि वह ‘गायब’ हो जाए।[adinserter block="1"]
सिन्हा ने अपने फैसले को पूरी तरह अपने तक ही रखा था। उस केस की सुनवाई के दौरान भी यह पढ़ पाना मुश्किल था कि उनका झुकाव किस ओर है। यदि वे एक पक्ष से दो सवाल पूछते, तो वे इस बात का ख्याल रखते थे कि दूसरे पक्ष से भी उतने ही सवाल पूछे जाएँ। वह सुनवाई चार साल तक चली थी, और 23 मार्च, 1975 को जब सुनवाई पूरी हुई, तो उसके बाद वे न तो अपने घर से बाहर निकले और न ही किसी फोन का जवाब दिया।
टेलीप्रिंटर की खड़खड़ाहट के साथ इधर-उधर की खबरें लगातार आ रही थीं। इस बीच शेषन ने एक बार फिर अपनी घड़ी पर नजर डाली। 10 बजने में बस 5 मिनट रह गए थे। समय के पाबंद सिन्हा जरूर हाई कोर्ट पहुँच गए होंगे। हाँ, वे पहुँच चुके थे। दुबले-पतले, 55 साल के जज साहब गाड़ी से सीधे कोर्ट पहुँचे थे। कमरा नंबर 24 में वे जैसे ही अपनी कुरसी पर बैठे, अच्छे कपड़ों में तैयार होकर आए पेशकार (कोर्ट सहायक) ने खचाखच भरे कोर्ट रूम में ऊँची आवाज में कहा, ‘‘महानुभावो, ध्यान से सुनिए, जज साहब जब राज नारायण की चुनाव याचिका पर फैसला सुनाएँगे, तब कोई ताली नहीं बजनी चाहिए।’’
अपने सामने 258 पेज के फैसले के साथ मौजूद सिन्हा ने कहा कि मैं इस केस से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर केवल अपने निष्कर्षों को पढ़ूँगा।
फिर उन्होंने कहा, ‘‘याचिका स्वीकार की जाती है।’’ एक पल के लिए सन्नाटा छा गया और फिर हर्षध्वनि से कोर्ट रूम गूँज उठा। अखबार वाले टेलीफोन की तरफ भागे और खुफिया विभाग के लोग अपने दफ्तरों की तरफ।
और सुबह 10:02 बजे शेषन ने यू.एन.आई. की मशीन पर घंटी की आवाज सुनी और फ्लैश मैसेज को देखा। श्रीमती गांधी अपदस्थ। शेषन ने मशीन से पेज को फाड़कर निकाला और उस कमरे की तरफ भागे, जहाँ प्रधानमंत्री बैठी थीं। कमरे के बाहर उनकी मुलाकात बड़े बेटे राजीव से हुई, जो इंडियन एयरलाइंस में पायलट थे। उन्होंने वह संदेश राजीव को दिया।
‘‘उन्होंने आपको अपदस्थ कर दिया है,’’ राजीव ने अपनी माँ से कहा। खबर सुनकर श्रीमती गांधी के चेहरे के भाव ज्यादा नहीं बदले। शायद यह सुकून भी था कि चलो इंतजार खत्म हुआ।
एक दिन पहले वे पूरे दिन सोच में डूबी थीं। इस परेशानी को एक और दुःखद समाचार ने बढ़ा दिया था। करीबी मित्र, दुर्गा प्रसाद धर, जो पहले एक कैबिनेट मंत्री थे और फिर मॉस्को में भारत के राजदूत बने, का निधन हो गया था। लेकिन उस सुबह वे कुछ अधिक प्रसन्न दिख रही थीं।[adinserter block="1"]
एक और फ्लैश आया कि उन्हें छह वर्षों के लिए किसी निर्वाचित पद पर बने रहने से भी वंचित कर दिया गया है। इसने उन्हें झकझोर दिया था और ऐसा लगा मानो वे अपनी भावनाओं को छिपाने का प्रयास कर रही हों। सुस्त कदमों से वे बैठक वाले कमरे तक पहुँचीं।
सिन्हा ने उन्हें उस चुनाव में दो भ्रष्ट आचरणों का दोषी ठहराया था। पहला दोष यह कि उन्होंने प्रधानमंत्री सचिवालय में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी यशपाल कपूर का इस्तेमाल चुनाव में अपनी संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिए किया। एक सरकारी अधिकारी होने के नाते उनका इस तरीके से इस्तेमाल नहीं होना चाहिए था। सिन्हा ने कहा कि भले ही कपूर ने श्रीमती गांधी के लिए चुनाव प्रचार 7 जनवरी को शुरू किया और अपना इस्तीफा 13 जनवरी को दिया, लेकिन वे सरकारी सेवा में 25 जनवरी तक बने हुए थे। जज के अनुसार, श्रीमती गांधी ने उसी दिन अपने आपको एक उम्मीदवार मान लिया था, जब 29 दिसंबर, 1970 को उन्होंने नई दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया था और चुनाव में उतरने की घोषणा कर दी थी।
दूसरी अनियमितता यह थी कि श्रीमती गांधी ने जिन मंचों से चुनावी रैलियों को संबोधित किया था, उन्हें बनाने के लिए यू.पी. के अधिकारियों की मदद ली थी। उन अधिकारियों ने ही लाउडस्पीकरों और उनके लिए बिजली का बंदोबस्त भी किया था।
राज नारायण 1 लाख से अधिक वोटों के अंतर से हार गए थे। वास्तव में, ये अनियमितताएँ वैसी नहीं थीं, जिनसे हार-जीत का फैसला हुआ हो। ये आरोप एक प्रधानमंत्री को अपदस्थ करने के लिए बेहद मामूली थे। यह वैसा ही था जैसे प्रधानमंत्री को ट्रैफिक नियम तोड़ने के लिए अपदस्थ कर दिया जाए।
लेकिन कानून-तो-कानून था, और यह पूरी तरह स्पष्ट था कि चुनाव में किसी सरकारी सेवक से ‘अपनी संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिए’ किसी भी प्रकार की मदद को भ्रष्ट आचरण माना जाता था। अपने फैसले में सिन्हा ने भी कहा कि उनके पास कोई रास्ता नहीं बचा था। प्रधानमंत्री के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं था और वे इससे अलग कोई फैसला नहीं सुना सकते थे। यहाँ तक कि इस कानून के उल्लंघन की सजा भी निश्चित थी और जज के पास अपनी मर्जी चलाने की कोई गुंजाइश नहीं थी।[adinserter block="1"]
अकसर जोश में रहनेवाले पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे और गोलमटोल से कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष देव कांत बरुआ सबसे पहले प्रधानमंत्री आवास पर पहुँचनेवालों में शामिल थे। उनके चेहरे पर घबराहट साफ नजर आ रही थी, लेकिन श्रीमती गांधी ने जब कहा कि उन्हें इस्तीफा देना होगा, तब दोनों मौन रहे।
यह खबर जैसे ही फैली, बदहवास कैबिनेट मंत्री 1, सफदरजंग रोड पर पहुँचने लगे। बैठकखाना पूरी तरह भर गया था। कांग्रेस पार्टी की महासचिव श्रीमती पूरबी मुखर्जी पहुँचते ही फूट-फूटकर रोने लगीं। वैसे वहाँ जितने भी लोग मौजूद थे, सब मातम मनाते दिख रहे थे, लेकिन पूरबी का रोना-धोना उन्हें भी नाटकीयता की हद पार करता दिखा। श्रीमती गांधी ने थोड़ी खीज के साथ कहा कि वे अपने ऊपर काबू रखें। प्रधानमंत्री के चेहरे का रंग उतरा दिखा, लेकिन वे शांत थीं। वे जानती थीं कि उनके पास इस्तीफा देने के अलावा कोई रास्ता नहीं था।
किसी ने सुझाव दिया कि वे सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकती हैं लेकिन उसमें वक्त लगेगा। इस मुद्दे पर अभी प्रधानमंत्री के सबसे करीब माने जानेवाले सिद्धार्थ रे और कानून मंत्री हरि रामचंद्र गोखले के बीच चर्चा हो ही रही थी कि तभी टिकर पर एक और फ्लैश आया, जिसके मुताबिक सिन्हा ने अपने फैसले पर 20 दिनों की रोक लगा दी थी। माहौल बदल गया। सबको थोड़ी तसल्ली हुई। गोखले2 ने पुष्टि करने के लिए इलाहाबाद फोन मिलाया। खबर सही थी। श्रीमती गांधी को तत्काल इस्तीफा नहीं देना पड़ा था।
लेकिन यह फैसला किस्मत से ही आया था। सिन्हा स्टे की याचिका को लगभग खारिज कर चुके थे। वह इस बात से नाराज थे कि एक दिन पहले खुफिया विभाग के लोगों ने उनके स्टेनोग्राफर को बहुत परेशान किया था। लेकिन श्रीमती गांधी के वकील, वी.एन. खरे ने, जिन्हें फैसले से महज 12 घंटे पहले एक विमान से श्रीनगर से इलाहाबाद लाया गया था, ने सिन्हा से कहा कि पुलिस ने जो कुछ किया, उसमें उनकी मुवक्किल का कोई दोष नहीं है। सिन्हा ने उनकी सफाई को स्वीकार कर लिया।
स्टे को लेकर खरे की दलील यह थी कि पार्टी को एक नए नेता का चुनाव करने में वक्त लगेगा और प्रधानमंत्री को तत्काल इस्तीफा देने को कह दिया गया तो पूरे देश का प्रशासन अस्त-व्यस्त हो जाएगा।[adinserter block="1"]
अब तक प्रधानमंत्री का घर मंत्रियों, कारोबारियों, आला अफसरों और अन्य लोगों से पूरी तरह भर चुका था। सिन्हा को काफी भला-बुरा कहा जा रहा था। साथ ही इस बात को लेकर सुकून भी था कि उन्होंने अपने फैसले को थोड़ा विराम दे दिया है। अब योजना बनाने और उस बरगद के पेड़ की रक्षा करने का उनके पास समय था, जिसके तले बरसों से उन्हें सहारा मिला था और श्रीमती गांधी से पहले वे उनके पिता की शरण में थे।
संकट की इस घड़ी में राजीव अपनी माँ के पास थे। लेकिन श्रीमती गांधी के दूसरे बेटे संजय अपनी फैक्टरी मारुति3 लिमिटेड में थे, जिसकी स्थापना जनता की कार के निर्माण के लिए की गई थी। इस अफरा-तफरी में किसी को भी यह नहीं सूझा कि इस संकट की जानकारी उन्हें दी जाए, जबकि अपने भाई के विपरीत वे उन कम्युनिस्टों से अपनी माँ की रक्षा करने के लिए राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने लगे थे, जिनसे वे नफरत करते थे।
दोपहर के समय जब संजय अपनी विदेशी कार को ड्राइव करते हुए घर पहुँचे, तब बाहर उन्हें भारी भीड़ दिखाई पड़ी। वे समझ गए थे कि क्या हुआ होगा और सीधे अपनी माँ के पास पहुँचे। वे खामोश थे, लेकिन उन्हें देख श्रीमती गांधी का चेहरा खिल उठा। संजय तब केवल 28 साल के थे, लेकिन अपने अनुभव से वे जानती थीं कि उनके सुझाव कितने परिपक्व होते थे।
बंद कमरे में वे अपने परिवार के साथ यह तय करने के लिए बैठीं कि उन्हें आगे क्या करना चाहिए। उनके दोनों ही बेटे, राजीव और संजय, उनके इस्तीफा देने के खिलाफ थे। कुछ दिनों के लिए भी नहीं और संजय ज्यादा ही उग्र थे। उन्होंने जो कहा, इंदिरा पहले से ही जानती थीं। विपक्ष से कहीं ज्यादा उन्हें अपनी ही पार्टी के महत्त्वाकांक्षी लोगों से खतरा था।
फिर वे घर के भंडार में चली गईं, जैसा कि वे संकट की घड़ी में अकसर किया करती थीं। यही उनकी शरणस्थली थी। यहाँ उन्हें सोचने का समय और अवसर मिलता था।
उन्हें बहुत कुछ सोचना था। यदि उन्होंने अभी इस्तीफा दिया और सुप्रीम कोर्ट से दोषमुक्त किए जाने के बाद लौटीं, तो उन आलोचकों के मुँह पर ताला लग जाएगा, जो आरोप लगा रहे थे कि वे किसी भी कीमत पर सत्ता में बनी रहना चाहती हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यदि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहराया, तो उन्हें हमेशा के लिए सत्ता से हाथ धोना पड़ेगा। साथ ही, एक और कलंक भी लग जाएगा।[adinserter block="1"]
उनकी अर्जी पर कोर्ट का रुख क्या होगा, इस बात को लेकर भी वे पूरी तरह से निश्चित नहीं थीं। अतीत में, अपदस्थ किए गए या अयोग्य ठहराए गए सदस्यों को उच्च न्यायालयों ने सदन में बैठने की अनुमति तो दे दी थी, लेकिन न तो वे वोट दे सकते थे, न बहस में शामिल हो सकते थे, न ही भत्ते ले सकते थे। अगर उन्हें केवल योग्य भर ठहराकर छोड़ दिया गया तो क्या होगा?
उनके सलाहकार संविधान के अनुच्छेद 88 को लेकर कुछ आश्वस्त थे, जिसमें उल्लेख है कि एक मंत्री और अटार्नी जनरल यदि वोट देने के लिए योग्य नहीं हैं तो भी दोनों सदनों में उन्हें बोलने और चर्चा में शामिल होने का अधिकार होगा। स्टे ऑर्डर चाहे जैसा भी हो, कोई भी अदालत एक मंत्री से यह अधिकार नहीं छीन सकती थी।
यदि वे इस्तीफा दे देती हैं तो पूरी दुनिया उनकी प्रशंसा करेगी। एक सच्चे लोकतांत्रिक के रूप में उनकी साख इतनी मजबूत हो जाएगी कि वे 1971 की तरह ही किसी भी चुनाव में भारी बहुमत के साथ सत्ता में वापसी कर लेंगी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें यदि छह साल तक चुनाव लड़ने से रोक दिया, तब क्या करेंगी? इतना समय काफी होता है कि उन्होंने जो कुछ अच्छा किया, उसे लोग भुला दें और जहाँ तक उनकी पार्टी के भीतर या बाहर के मौकापरस्त लोगों की बात है, तो इतना कि उनके खिलाफ गड़े मुर्दे उखाड़ सकें।
अब संजय का ही उन्हें सहारा था। उन्हें भरोसा था कि संकट की इस घड़ी में संजय जरूर उनकी मदद करेगा। 1971 के चुनावों में जीत दिलानेवाले इस नारे का श्रेय संजय को ही जाता है, ‘‘वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, लेकिन मैं कहता हूँ गरीबी हटाओ।’’ अब उन्हें नारे गढ़ने से भी कुछ बड़ा कर दिखाना था। वे जानते थे कि उनकी माँ इतनी आसानी से हार माननेवालों में से नहीं हैं, लेकिन उस समय वे लगभग उस कगार तक पहुँच चुकी थीं। और ऐसा हरगिज नहीं होना चाहिए था। उन्हें हर हाल में जनसमर्थन जुटाना था, ताकि न केवल अपनी माँ को भरोसा दिला सकें कि देश को उनकी जरूरत है, बल्कि उनके दुश्मन भी सिर न उठा सकें।
दून स्कूल से निकाले जाने और इंग्लैंड में रॉल्स रॉयस में प्रशिक्षु मोटर मेकैनिक बनने से लेकर अब तक संजय ने अपने आपको राजनीति में स्थापित कर लिया था। उन्हें दौलत और सत्ता, दोनों ने ही अपनी ओर खींचा। धीरे-धीरे दोनों ही उनके करीब आ रहे थे।[adinserter block="1"]
संजय के प्रमुख सलाहकार थे 35 वर्षीय राजिंदर कुमार धवन, जो प्रधानमंत्री सचिवालय में सहायक निजी सचिव थे, और दस साल पहले तक रेलवे में हर महीने 450 रुपए की तनख्वाह पानेवाले क्लर्क हुआ करते थे। धवन ने जो कुछ पाया, उसके पीछे संजय ही थे। दोनों जिगरी दोस्त थे और साथ मिलकर कई शरारतें भी की थीं। वे श्रीमती गांधी के सेवक थे और कुछ लोग तो यहाँ तक कहते थे कि वे दूसरे एम.ओ. मथाई थे, जो नेहरू के स्टेनोग्राफर थे और उनके दफ्तर के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति बन गए थे।
इस मामूली कर्मचारी की मदद से संजय पूरे सरकारी तंत्र को अपनी मर्जी से चलाया करते थे, या फिर मामला शायद ठीक उलटा ही था? धवन इतने ताकतवर थे कि किसी जूनियर मंत्री या सीनियर अधिकार को फटकार लगा सकते थे। वे प्रधानमंत्री का नाम लेकर अपनी चलाया करते थे। एक बार उन्होंने एक मंत्री को सबक सिखाया, जिन्होंने किसी आवश्यक विषय में प्रधानमंत्री के सचिवालय को रिमाइंडर भेज दिया था।
संजय के एक और करीबी दोस्त थे, हालाँकि उनकी उम्र उनसे काफी ज्यादा थी। ये 52 साल के बंसी लाल थे, जो हरियाणा के मुख्यमंत्री थे। उस राज्य पर वह ऐसे शासन चलाते थे, जैसे वह उनकी जागीर हो। वह इतने अनैतिक थे कि किसी भी तरीके से उन्हें अपना काम निकलवाने से मतलब था। एक निठल्ले वकील से वे मुख्यमंत्री की कुरसी तक एक दशक से भी कम समय में पहुँच गए थे और उससे भी आगे जाने की भी चाहत थी। वे ही थे, जिन्होंने संजय को मारुति फैक्टरी के लिए 290 एकड़ का प्लॉट कौडि़यों के भाव दिया और कीमत को छिपाने के लिए सरकारी कर्ज भी दिया था। बदले में संजय ने उन्हें प्रधानमंत्री के सबसे करीबी लोगों में जगह दिला दी थी। माँ और बेटे का उन पर विश्वास था, क्योंकि वे हमेशा उनके लिए हाजिर रहते थे और कोई भी काम, सही या गलत, करने को तैयार रहते थे।
ये तीन लोग थे, जो श्रीमती गांधी की त्रिमूर्ति थे, और उनके आसपास रहते थे। वे भी इन पर आँख मूँदकर विश्वास करती थीं। सरकार, पार्टी और सामान्य राजनीति में वे इंदिरा की ओर से काम किया करते थे। वे जानती थीं कि अकसर वे नापाक तरीकों का इस्तेमाल करते थे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं था कि वे कारगर थे। श्रीमती गांधी ने उन्हें वह सबकुछ करने दिया, जो वे करना चाहते थे। इससे उनकी स्थिति मजबूत होती थी।[adinserter block="1"]
एक और भी शख्स था, जो बड़े काम का था। ये थे कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष 65 वर्षीय देव कांत बरुआ। उन्हें दरबार का मसखरा भी कहा जाता था, जो हमेशा श्रीमती गांधी की प्रशंसा के गीत गाते रहते थे। वे ही थीं, जिन्होंने बरुआ को असम की राजनीति से बाहर निकाला था, बिहार का राज्यपाल बनाया, फिर एक कैबिनेट मंत्री और आखिरकार कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। वे अब ऐसे व्यक्ति थे, जिन पर वे भरोसा कर सकती थीं।
श्रीमती गांधी का परिचय उनसे अपने दिवंगत पति फिरोज गांधी के एक मित्र के रूप में हुआ था। बरुआ अकसर पति-पत्नी के बीच होनेवाले झगड़ों में बीच-बचाव करनेवाले की भूमिका निभाते थे। कद्दावर शख्सियत की वजह से ही दोनों में टकराव हुआ करता था। बरुआ का दक्षिणपंथी कम्युनिस्टों के साथ अच्छा-खासा मेल-जोल था, जिसके चलते वे एक ऐसी विचारधारा का लबादा ओढ़ लिया करते थे, जो एक पिछड़े देश में फिट बैठता था। संजय को यह अच्छा नहीं लगता था। वे उन्हें कम्युनिस्ट बुलाते थे, लेकिन विपक्ष का खतरा बरुआ और संजय को एकजुट रखता था, कम-से-कम कुछ समय के लिए ही सही।
जल्द ही दोनों पूरी दुनिया को यह दिखाने में जुट गए कि एक चाहे जो कहे, लोगों को यह शक नहीं था कि श्रीमती गांधी उनकी नेता हैं और नेता बनी रहेंगी। उन्होंने पहला कदम भीड़ को जुटाकर उठाया, जिससे कि उनकी लोकप्रियता साबित की जा सके। यह काम दोनों पहले भी कई बार कर चुके थे। ट्रकों का इंतजाम किया गया और फिर गाँवों से लोगों को उनमें भरकर लाने के लिए भेजा गया। उन्हें श्रीमती गांधी के 1, सफदरजंग रोड आवास पर लाकर उनके नेतृत्व के प्रति उनकी आस्था का प्रदर्शन करना था। बिना किराया चुकाए भीड़ जुटाने के लिए सरकारी (दिल्ली परिवहन निगम) बसों का इस्तेमाल किया गया। यह और बात थी कि रैलियों के बाद मुफ्त परिवहन उपलब्ध नहीं थी और लोगों को पैदल ही घर तक लौटना पड़ा था।
प्रधानमंत्री आवास से धवन ने पड़ोसी राज्यों—पंजाब, हरियाणा, यू.पी. और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों को फोन किया और रैलियाँ आयोजित करने को कहा। सरकारी तंत्र का इस्तेमाल कर भीड़ जुटाने में उन्हें भी काफी अनुभव और महारत थी। उन्होंने यह सब जुलाई 1969 में भी किया था, जब श्रीमती गांधी ने 14 प्रमुख भारतीय बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने का फैसला किया था, ताकि वे अपनी प्रगतिशील छवि पेश कर सकें और कांग्रेस में अपने 74 वर्षीय प्रतिद्वंद्वी मोरारजी देसाई को दक्षिणपंथी करार दे सकें। देसाई बैंकों पर केवल सामाजिक नियंत्रण चाहते थे।[adinserter block="1"]
देसाई दो बार प्रधानमंत्री पद हासिल करने का प्रयास कर चुके थे। एक बार 1966 में, जब श्रीमती गांधी के पहले पद सँभाल चुके लाल बहादुर शास्त्री का निधन ताशकंद में हो गया था, और फिर 1967 में जब कांग्रेस पार्टी महज 285 सीटों के साथ किसी तरह सत्ता में वापस आई थी, जबकि लोकसभा में तब 520 सदस्य हुआ करते थे। जनसमर्थन जुटाने की जिम्मेदारी धवन ने सँभाल ली थी, क्योंकि यशपाल कपूर, जो इन मामलों में ज्यादा अनुभवी थे, इस आलोचना के साथ कठघरे में खड़े थे कि उनकी वजह से ही श्रीमती गांधी चुनाव में धाँधली के आरोप में फँस गई थीं। लेकिन धवन भी कपूर के भानजे थे और उन्होंने अपने मामा से बहुत कुछ सीखा था। यशपाल कपूर सफलता की एक मिसाल थे। वे एक स्टेनोग्राफर से राज्यसभा4 सदस्य बन गए थे, और उससे भी अहम यह कि श्रीमती गांधी के राजनीतिक सलाहकार और मुखबिर। कपूर छवि बनाने में माहिर थे। जब भी श्रीमती गांधी की लोकप्रियता को बढ़ाना होता, वे कमाल कर दिखाते थे। उन्हें नब्ज पकड़ने में महारत थी। कुछ समय के लिए उन्हें मन मारकर घर पर बैठना पड़ा। उनका नाम इलाहाबाद से आए फैसले में इतनी प्रमुखता से लिया गया था कि उन्हें जनता की नजरों से दूर रहने की हिदायत दे दी गई थी। आगे चलकर उनकी वापसी हुई। उन्होंने ही देश की नेता इंदिरा गांधी का नारा दिया था। बरुआ ने इसमें बदलाव किया और कहा, इंदिरा इज इंडिया। उन्हें तब अंदाजा नहीं था कि इसके चलते आगे कितनी बड़ी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि यह नाजी युवाओं को दिलाई जानेवाली शपथ : एडोल्फ हिटलर इज जर्मनीऐंड जर्मनी इज एडोल्फ हिटलर (एडोल्फ हिटलर जर्मनी है और जर्मनी एडोल्फ हिटलर है) के जैसा था।
मुख्यमंत्रियों को बसों का इंतजाम करने और उनमें लोगों को भरकर श्रीमती गांधी के घर के बाहर उस ट्रैफिक स्थल तक भेजने में वक्त नहीं लगा, जहाँ इस प्रकार के प्रदर्शनों के लिए बना-बनाया मंच मौजूद था। यह मंच 1969 में वी.वी. गिरि के भारत के राष्ट्रपति चुने जाने के समय ही बना था। उस समय पार्टी के ही उम्मीदवार संजीव रेड्डी का विरोध श्रीमती गांधी ने किया था। यह दिखाने के लिए भीड़ को जुटाया गया था कि वे प्रतिक्रिया और प्रगति के बीच चल रही जंग लड़ रही हैं।
लोगों के सामने राजनीति को साफ तौर पर बताना जरूरी था। विचारधारा, या उसे जाहिर करना भी महत्त्वपूर्ण था। बरसों से कांग्रेस पार्टी लोकतंत्र और समाजवादी सिद्धांतों के प्रति वचनबद्ध थी, जो समाजवादी पार्टी के समाजवाद से थोड़ा अलग था। उस वक्त प्रगतिशील शब्द प्रतिक्रियावादी शब्द के खिलाफ चलन में था। श्रीमती गांधी प्रगतिशील थीं, जबकि समाजवादी राज नारायण प्रतिक्रिया वादी थे। यहाँ तक कि उस जज ने भी प्रतिक्रियावादी कानूनों का सहारा लिया था।[adinserter block="1"]
वह फैसला जल्द ही महत्त्वहीन बना दिया गया, और श्रीमती गांधी ने यह जता दिया कि वे कुरसी नहीं छोड़नेवाली हैं, क्योंकि लोगों का उनमें विश्वास है, और वे गरीबी मिटाने तथा नए समाज की स्थापना के लिए काम करती रहेंगी। कांग्रेस पार्टी के छात्र संगठन, भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (एन.एस.यू.आई.), जिसे आगे चलकर संजय गांधी के प्रभाव वाले यूथ कांग्रेस ने अपने अंदर मिला लिया था, ने कहा, ‘‘श्रीमती गांधी भारत के उन लाखों दबे-कुचले और शोषित लोगों की नेता हैं, जो न्याय और समानता पर आधारित समाज की स्थापना के लिए समाजवादी परिवर्तन के लिए संघर्षरत हैं।’’ उसने उनके खिलाफ आए हाई कोर्ट के फैसले पर एक शब्द भी नहीं कहा।
श्रीमती गांधी के प्रति समर्थन का यह इतना भौंडा प्रदर्शन था कि कुछ कांग्रेस सांसदों ने इन लोक-लुभावन प्रदर्शनों पर आपत्ति जता दी। लेकिन वे बोलीं कि यह स्वतःस्फूर्त है।
श्रीमती गांधी के प्रति देश के सभी पाँच चैंबर ऑफ कॉमर्स तथा शीर्ष उद्योगपतियों ने भी अपना समर्थन जता दिया। वे समाजवादी सोच रखती थीं, फिर भी उनमें वे अपनी संपत्ति और विशेषाधिकारों की रक्षा की एक संभावना देखते थे। उनकी नीतियाँ निश्चित रूप से उन समाजवादी नीतियों से बेहतर थीं, जिनकी हिमायत कई विपक्षी नेता किया करते थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.आई.) भी उनके साथ खड़ी थी, जिसने
13 जून को यह प्रस्ताव पारित किया था, ‘दक्षिणपंथी छात्रों की ओर से नैतिक आधार पर प्रधानमंत्री के इस्तीफे की माँग पर मचाई जा रही चीख-पुकार से उनके कुटिल राजनीतिक उद्देश्य छिप नहीं सकते।’ सोवियत समर्थक यह पार्टी, इस उम्मीद में कांग्रेस के कंधे पर सवार थी कि एक दिन देश में कम्युनिस्ट शासन स्थापित होगा।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसे संस्थानों और भारतीय दलित वर्ग लीग ने बेहिचक श्रीमती गांधी के प्रति अपना विश्वास व्यक्त कर दिया। बरसों से वे और उनके पिता धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना का प्रयास कर रहे थे। वे उस विपक्ष पर कैसे भरोसा कर सकते थे, जिसमें जन संघ हो, जो उस हिंदू संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक संसदीय विंग था, जो हिंदू संस्कृति या उसके संघचालकों के मुताबिक भारतीय संस्कृति पर आधारित अनुशासित समाज की स्थापना करने में विश्वास रखते थे?[adinserter block="1"]
इसमें किसी को कोई शक नहीं था कि अपने बेटे की ओर से भाड़े पर बुलाई गई भीड़ के अलावा भी श्रीमती गांधी को व्यापक समर्थन हासिल था। भले ही विपक्ष यह कह रहा था कि असली मुद्दा यह था कि क्या एक दोषी प्रधानमंत्री को कुरसी पर बने रहने का हक है, और वह लोगों को उन लोगों से सचेत कर रहा था जो न्यायिक फैसले को सड़कों पर चुनौती देकर देश के लोकतांत्रिक ढाँचे को तबाह करने पर तुले थे। लेकिन उसकी आवाज श्रीमती गांधी के समर्थन में लग रहे नारों के शोर में लगभग डूब गई थी।
कुछ युवा समाजवादियों ने जवाबी प्रदर्शन करने का भी प्रयास किया। उस समय कुछ लोग प्रधानमंत्री आवास के बाहर पुलिस के घेरे को तोड़ने और ‘श्रीमती गांधी इस्तीफा दो’ के नारे लगाने में कामयाब हो गए थे। उस दौरान, संजय की एक सहयोगी, अंबिका सोनी, जो लंबी और आकर्षक थीं, ने एक लड़के को तमाचा जड़ दिया। आगे चलकर यूथ कांग्रेस की अध्यक्ष बननेवाली 35 वर्षीय अंबिका ने एक दमदार महिला के तौर पर अपनी छवि पेश की थी। पुलिस ने उनके इशारे को समझने में देर नहीं की। विरोधियों की जमकर पिटाई हुई और कुछ को गिरफ्तार कर लिया गया।
लेकिन विपक्ष का हौसला इससे पस्त नहीं हुआ। सोवियत समर्थक सी.पी.आई., जो यह मानती थी कि श्रीमती गांधी का झुकाव रूस की तरफ है, के सिवाय विपक्ष की अन्य सभी पार्टियों ने उन्हें प्रधानमंत्री मानने से इनकार कर दिया। हाई कोर्ट के फैसले में दोषी ठहराए जाने के बावजूद सत्ता से चिपके रहने के कारण उन पर हमले किए। कांग्रेस पार्टी के बुजुर्ग नेताओं, हिंदू राष्ट्रवादी जन संघ, किसान समर्थक भारतीय लोक दल, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी), सी.पी.आई. (एम), और समाजवादियों के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला किसी वरदान की तरह था। वे कई मुद्दों को लेकर उन पर हमला कर चुके थे, भ्रष्टाचार, लोकतांत्रिक परंपराओं की अनदेखी, तानाशाही की प्रवृत्ति लेकिन कोई भी कारगर साबित नहीं हुआ। वे जिसे बरसों से हासिल नहीं कर सके थे, उसे कोर्ट के फैसले ने कर दिखाया था। उन्होंने उनके इस्तीफे की माँग को लेकर राष्ट्रपति भवन के बाहर धरना दिया, जबकि वे कश्मीर गए हुए थे।
उन्होंने कहा कि वे उनके खिलाफ और भी कानूनी काररवाई करेंगे और राज्य के पार्टी कार्यकर्ताओं को इंदिरा-विरोधी रैलियों और प्रदर्शनों में तेजी लाने का आदेश दिया। पूरे विपक्ष को मिलाकर भी संसद् में 60 सीटें नहीं थीं। लेकिन अब उनके पास मौका था। उन्होंने नैतिकता और सदाचार का मुद्दा उठाया तथा जयप्रकाश नारायण को संदेश भेजा, जो महात्मा गांधी के बाद देश की अंतरात्मा के प्रहरी थे, कि वे उनका नेतृत्व करें।[adinserter block="1"]
उनके पास अपने नेतृत्व के लिए जे.पी. से बेहतर विकल्प नहीं था, जो उनके नेता के रूप में जाने जाते थे। भले ही 1974 में उन्होंने एक पार्टी में विलय के उनके सुझाव को न मानकर कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने के सुझाव को ठुकराकर उन्हें निराश किया था। वे एक गांधीवादी होने के साथ ही, अंग्रेजों के खिलाफ चलाए गए 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के हीरो भी थे। उन्होंने सदैव उस मौन आबादी को आवाज दी थी, जिसे सताया और वंचित किया गया था। एक अरसे से उन्हें सार्वजनिक जीवन में शुचिता और निष्ठा के लिए जाना जाने लगा था। अपने गृह राज्य, बिहार में उन्होंने सार्वजनिक जीवन में जड़ें जमा रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ जो आंदोलन शुरू किया था, वह कमजोर पड़ गया था। यह राज्य विधानसभा को भंग करने जैसी दुनियावी माँग पर केंद्रित हो गया था और उस उच्चतर आध्यात्मिक लक्ष्य को भूल गया था, जिसकी हिमायत उन्होंने की थी। उनकी माँग थी कि एक वास्तविक लोकतांत्रिक ढाँचा बने, जो लोगों की आवश्यकताओं के प्रति जागरूक हो और अवसरवादी राजनीति को समाप्त करे। किंतु दो साल बाद बिहार आंदोलन रंग लाया।
पहले भी, जे.पी. ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने और समाजवाद के नाम पर छल करने को लेकर श्रीमती गांधी का विरोध किया था। इलाहाबाद के फैसले में उन्हें नैतिक पुनरुत्थान के जरिए सार्वजनिक जीवन में एक मानक स्थापित करने का एक अवसर दिखा।
लंबे समय तक उनके और श्रीमती गांधी के बीच चाचा-भतीजी का रिश्ता था और वे उन्हें इंदु कहकर बुलाते थे। लेकिन काफी समय से, खासतौर पर पिछले दो वर्षों से, उनके बीच दूरियाँ बढ़ गई थीं। वे उन्हें भ्रष्टाचार और मौलिक मूल्यों के विनाश का मुख्य स्रोत मानते थे। और इलाहाबाद के फैसले के बाद उन्होंने कहा था कि उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। उन्हें तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए। कुरसी से चिपके रहना तमाम सार्वजनिक मर्यादा और लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध था।
श्रीमती गांधी जानती थीं कि जे.पी. एक प्रभावशाली हस्ती थे। डी.पी. धर ने दोनों के बीच 1 नवंबर, 1974 को एक बैठक करवाई थी, जिसमें वे इस शर्त पर बिहार विधानसभा भंग करने पर राजी हो गई थीं कि वे और कुछ नहीं माँगेंगे। वे इस पर सहमत नहीं हुए।[adinserter block="1"]
17 जून को जे.पी. को एक अत्यावश्यक संदेश मिला। विपक्षी दलों ने उन्हें तुरंत दिल्ली बुलाया था और कहा था कि वे उनकी रैली का नेतृत्व करें। लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। वे इस बात की प्रतीक्षा करने के पक्ष में थे कि सुप्रीम कोर्ट श्रीमती गांधी की अपील पर क्या फैसला सुनाता है। उसके बाद ही वे जंग में कूदना चाहते थे।
जे.पी. को अंदाजा था कि एक एकजुट विपक्ष कितना ताकतवर हो सकता है। गुजरात विधानसभा चुनाव में जनता मोर्चा ने 182 सदस्यों वाले सदन में 87 सीटें जीती थीं और वह इसी का सबूत था। छह निर्दलीयों ने हाथ मिलाकर उसे पूर्ण बहुमत दिला दिया था। कांग्रेस को केवल 74 सीटें मिली थीं, जबकि 1972 के चुनाव में जब विपक्ष एकजुट नहीं था, तब उसे 140 सीटें मिली थीं।
ये चुनाव जे.पी. की ओर से बनाई गई संपूर्ण क्रांति की योजना से ठीक पहले हुए थे। जे.पी. गुजरात पैटर्न को पूरे भारत में शुरू करना चाहते थे। समय भी सही था, लेकिन वे यह देखना चाहते थे कि श्रीमती गांधी की अपील पर सुप्रीम कोर्ट क्या कहता है। उन्हें लग रहा था कि सर्वोच्च न्यायालय सिन्हा के फैसले को सही ठहराएगा।
श्रीमती गांधी भी प्रतीक्षा कर रही थीं, और उन्हें यह उम्मीद थी कि कोर्ट कानून के शब्दों की बजाय भावना को तरजीह देगा। चूँकि गैर-कम्युनिस्ट विपक्षी दलों ने यह घोषित कर दिया था कि वे उन्हें प्रधानमंत्री नहीं मानते हैं, इसलिए उन्हें हालात बिगड़ने का ही अंदेशा था। संसद् का सत्र भी शर्मसार करनेवाला होगा। संसद् में वे केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सी.बी.आई.) की एक रिपोर्ट पर घिर गई थीं। सांसद तुलमोहन राम को एक आयात परमिट दिया गया था। वे रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा के करीबी थे। लेकिन इससे पहले कि परमिट जारी करने की जिम्मेदारी तय की जाती, 3 जनवरी, 1975 को रेल मंत्री की हत्या कर दी गई।
एक बार तो मोरारजी ने धमकी दे दी कि अगर विपक्ष की माँग के अनुसार सी.बी.आई. की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई तो वे सदन में सत्याग्रह पर बैठ जाएँगे। श्रीमती गांधी ने स्पीकर गुरदयाल सिंह ढिल्लों से मोरारजी को सदन के बाहर करने को कह दिया था। बाद में, जब स्पीकर ने उन्हें और मोरारजी को अपने चैंबर में मिलने का फरमान दिया तो वे चिढ़ गईं। उन्हें यह अपमान सहना पड़ा, क्योंकि स्पीकर को जब पता चला कि वे उनके फैसले से खुश नहीं हैं तो उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया, और उन्हें पद पर बने रहने के लिए मनाना पड़ा।
इस प्रकार की शरारतपूर्ण अफवाहें चल रही थीं कि मिश्रा को रास्ते से हटाने में उनका हाथ था। यह सच है कि श्रीमती गांधी ने आयात लाइसेंस घोटाले में मिश्रा के शामिल होने की आशंका पर छिड़ी जोरदार बहस के बाद उनका इस्तीफा माँगा था। लेकिन बाद में उन्हें यह पछतावा हुआ और अपराधबोध भी था कि मिश्रा को केवल उनके साथ रहने की कीमत चुकानी पड़ी थी। संजय और धवन ने रेल भवन स्थित मिश्रा के दफ्तर को सील करा दिया था, लेकिन इसकी वजह यह थी कि उन्होंने मारुति से जुड़े कागजात वहाँ से लिये थे, और वे नहीं चाहते थे कि ये किसी और के हाथों में चले जाएँ। वे जान गई थीं, लेकिन उन्होंने पहले भी मारुति के मामलों में दखल नहीं दिया था और उन्हें ऐसा करना जरूरी भी नहीं लगा।[adinserter block="1"]
यह विषय भी संसद् में उठेगा। श्रीमती गांधी संसद् के जुलाई-अगस्त सत्र को टालने की बात सोच रही थीं। यदि आयात लाइसेंस घोटाले पर विपक्ष ने सदन में कोई कामकाज नहीं होने दिया था, तो इलाहाबाद के फैसले के बाद तो उनका रवैया और भी बुरा होगा। और यह तो अंदाजा ही नहीं लगाया जा सकता कि एक अस्थायी प्रधानमंत्री इन दबावों पर क्या रुख अपनाएगा!
कुरसी पर बने रहकर कम-से-कम वे घटनाक्रम को प्रभावित कर सकती थीं। वे इस्तीफा देने का जोखिम नहीं उठा सकती थीं। लेकिन वे दूसरों को यह बता भी नहीं सकती थीं। यही बेहतर होगा कि वे कुरसी से किसी तरह चिपके रहने की बजाय यह दिखाएँ कि दूसरे उन्हें इसके लिए मना रहे हैं। संभवतः उत्तर को पहले ही जान लेने के बाद, उन्होंने अपने तीन वरिष्ठ सहयोगियों जगजीवन राम, यशवंत राव चह्वाण और स्वर्ण सिंह से पूछा कि क्या अपनी अपील पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक उनके लिए कुरसी पर बने रहना वाजिब होगा। तीनों ने ही उनसे कहा कि अगर वे इस्तीफा देती हैं तो तबाही मच जाएगी। लेकिन ऐसा कहने के पीछे तीनों के पास अलग-अलग कारण थे।
जगजीवन राम ने कहा कि न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने तक उन्हें इंतजार करना चाहिए। लेकिन उन्हें लग रहा था कि सुप्रीम कोर्ट केवल एक सशर्त रोक लगाएगा, क्योंकि ऐसे मामलों में उसने कभी स्पष्ट रोक नहीं लगाई थी। वे सोच रहे थे कि विद्रोह करने का वही समय होगा। उन दिनों उन्होंने मुझसे कहा था, हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक इंतजार कर सकते हैं।
बीते कुछ वर्षों में जगजीवन राम के संबंध श्रीमती गांधी से खराब हुए थे। इतना खराब कि कुछ दिनों से उनसे छोटे-छोटे मामलों पर भी बातचीत नहीं की जाती थी, बड़े मुद्दों की तो बात ही छोड़ दीजिए। वे हमेशा से ही जानती थीं कि पार्टी में वे उनके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी हैं, और 1969 में उन्होंने जाकिर हुसैन के निधन के बाद उनका नाम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए यह सोचकर बढ़ाया था कि वे उस पद के लिए ललायित होंगे, जहाँ उन्हें कैबिनेट में शामिल करने की बजाय एक चेहरा भर बनाकर रखना सुरक्षित होगा।
यह सच है कि एक दशक तक इनकम टैक्स अदा करना भूल जाने के लिए उन्हें माफ कर चुकी थीं। लेकिन उन्हें लगता था कि मोरारजी देसाई के विरोध पर श्रीमती गांधी का साथ देकर वे उस कर्ज को अदा कर चुके हैं, जबकि 1963 में कामराज प्लान के तहत कांग्रेस को पुनर्गठन के नाम पर जब उनके पिता नेहरू ने देसाई समेत उन्हें कैबिनेट से बाहर कर दिया था, तब दोनों ही राजनीतिक अज्ञातवास झेल रहे थे। वे एक चालाक, महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे और श्रीमती गांधी इससे वाकिफ थीं। यदि सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ फैसला सुनाया तो वे विद्रोह की अगुवाई का जोखिम उठाए बिना प्रधानमंत्री का पद हासिल कर लेंगे। निश्चित रूप से वे उस फैसले की प्रतीक्षा कर सकते थे।[adinserter block="1"]
चह्वाण5 के लिए श्रीमती गांधी के बने रहने का मतलब था, खुद उनका बने रहना। वे उनके प्रभावी नंबर दो बनना चाहते थे। 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में, पहले उन बुजुर्ग नेताओं के साथ उन्होंने इस समझौते के तहत वोट किया कि उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया जाएगा, और जब वे मोल-भाव पर उतर आए तो फिर से श्रीमती गांधी के साथ हो लिये। ऐसे में विपक्ष उन्हें भरोसेमंद नहीं मानता था। जे.पी.6 ने जब साफ कर दिया था कि वे उनकी बजाय जगजीवन राम को प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहेंगे, तो उन्हें श्रीमती गांधी को छोड़ने से कुछ मिलनेवाला नहीं था।
स्वर्ण सिंह की छवि विवादों से परे थी। हालाँकि पी.एम. के एक सहायक से जब उन्होंने यह सुना कि अगर उन्होंने कुछ दिनों के लिए भी गद्दी छोड़ी तो अंतरिम अवधि के लिए उन्हें प्रधानमंत्री चुनेंगी, तब उनकी भी महत्त्वाकांक्षा जाग उठी। उन्हें लगा कि वे अपने आप ही इस्तीफा दे देंगी, और उन्होंने ऐसा न करने का उन्हें सुझाव दिया, फिर भी वह यह जता रहे थे कि अगर वे ऐसा करती भी हैं तो कुछ गलत नहीं होगा।
श्रीमती गांधी के कानूनी सलाहकार, खासतौर पर सिद्धार्थ शंकर रे और गोखले (जिन्होंने इलाहाबाद में उनके केस की छीछालेदर कर दी थी), भी उनके इस्तीफा देने के खिलाफ थे। उनका कहना था कि सुप्रीम कोर्ट लोगों को खुश नहीं करेगा जैसा कि इलाहाबाद के जज ने किया था, और उन्हें उसके फैसले का इंतजार करना चाहिए। दूसरे लोग, जिन्हें थोड़ी सी भी कानून की समझ थी, उनका कहना था कि जिन अपराधों के लिए उन्हें दोषी ठहराया गया है, वे तकनीकी हैं।
यह दिलासा देनेवाला था। लेकिन देश में कई लोग यह सोच रहे थे कि जन प्रतिनिधित्व कानून यह कहाँ कहता है कि कुछ अपराध तकनीकी हैं और कुछ ठोस। 1951 में दो प्रकार के अपराध हुआ करते थे—बड़े और छोटे। निर्वाचन केवल बड़े अपराधों पर रद्द किए जाते थे। लेकिन 1956 में, जब नेहरू प्रधानमंत्री थे, चुनाव कानूनों का संशोधन और सरलीकरण किया गया था। उन अपराधों की सूची में भारी काट-छाँट की गई थी, जिन्हें भ्रष्ट आचरण माना जाता था। पहले कई राज्यमंत्री और संसद् तथा विधानसभा के सदस्यों को उन आधारों पर अपनी सीट गँवानी पड़ी थी। स्वयं श्रीमती गांधी से आंध्र प्रदेश से आनेवाले अपने कैबिनेट मंत्री चेन्ना रेड्डी को इस्तीफा देने के लिए कहना पड़ा था, जब उन्हें चुनावों में भ्रष्टाचार का दोषी करार दिया गया था।
यदि वे दृष्टांत को अपने ऊपर लागू करतीं तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ता। वे अपनी पार्टी के नेताओं से सुझाव लेती रहीं, और इससे उन्हें यह संकेत मिला कि उनके कदम डगमगा रहे हैं। उन्होंने अपनी इच्छा से अपने राज्यों के सांसदों से विचार-विमर्श करना शुरू कर दिया।[adinserter block="1"]
सबसे महत्त्वपूर्ण बैठक चंद्रजीत यादव के घर पर हुई थी, जो कम्युनिस्ट विचारधारा वाले एक केंद्रीय मंत्री थे। बैठक की अध्यक्षता बरुआ ने की। केवल कुछ भरोसेमंद कांग्रेस नेताओं को बुलाया गया था। उनमें प्रणब मुखर्जी भी शामिल थे, जो तब सिर्फ एक जूनियर मंत्री थे। उन्होंने इस विषय पर चर्चा की कि यदि श्रीमती गांधी को कुरसी छोड़नी पड़ी, भले ही अस्थायी रूप से, तो उनका उत्तराधिकारी कौन होगा।
चुनाव जगजीवन राम और स्वर्ण सिंह के बीच करना था। अगले को सबसे ज्यादा तरजीह दी जा रही थी, क्योंकि वे सुरक्षित और मनमाफिक मोड़े जाने लायक माने जा रहे थे। लेकिन जगजीवन राम कैबिनेट के सबसे वरिष्ठ सदस्य थे, और उनके दावे को खारिज करने के लिए वे अपने निजी भय को यह कहकर सार्वजनिक कर रहे थे कि अगर श्रीमती गांधी को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया तो भी वे गद्दी नहीं छोड़ेंगे। इसलिए, उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। वे समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें क्या करना चाहिए। इस वक्त जिस प्रकार जगजीवन राम उनके साथ खड़े थे, उससे उन्हें लग रहा था कि वे भी उन पर भरोसा करने में नहीं हिचकिचाएँगी। और दरकिनार करने पर उन्होंने विद्रोह किया तो पार्टी टूट सकती है। बैठक बेनतीजा रही। प्रणब ने मुझसे कहा कि यदि सिद्धार्थ शंकर रे केंद्र में होते7 तो निश्चित रूप से वे अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में एक विकल्प होते। यहाँ तक कि जगजीवन राम के लिए भी उनके खिलाफ खड़ा होना मुश्किल हो जाता।
लेकिन यह एक अकादमिक चर्चा मात्र थी। श्रीमती गांधी कुरसी पर थीं, और जब तक वे सत्तासीन थीं, तब तक उन्हें वह जबरदस्त समर्थन था, जो हमेशा से उनके साथ रहा था।
कैबिनेट मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और राज्यमंत्रियों से श्रीमती गांधी के नेतृत्व में भरोसा जतानेवाली शपथ पर दस्तखत करने को कहा गया। परमेश्वर नाथ हक्सर8 मसौदा तैयार करने में महारत रखते थे। इसलिए उन्हें ही उसका लेख तैयार करने को कहा गया। 1969 में जब कांग्रेस पार्टी में विभाजन हुआ, तब दूसरे पक्ष को भेजे जानेवाले तमाम पत्र वे ही तैयार किया करते थे। हक्सर के मसौदे के एक हिस्से में न्यायपालिका की आलोचना भी छिपी थी, जबकि जजों को नाराज करना ठीक नहीं था, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में श्रीमती गांधी की अपील पर सुनवाई होनी थी। लेकिन उनके मसौदे का ऑपरेटिव हिस्सा वैसा ही रहा, ‘‘श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री बनी हुई हैं। यह हमारा अटल और सुविचारित विश्वास है कि देश की एकता, स्थिरता और तरक्की के लिए उनका प्रभावी नेतृत्व अत्यंत आवश्यक है।’’
इस वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने की होड़ लग गई। इसे स्वामिभक्ति का एक दस्तावेज माना गया। संजय अपनी माँ को पल-पल की जानकारी दे रहे थे कि अब तक किस-किसने दस्तखत कर दिए हैं। और यह भी कि किसने नहीं किए हैं। अखबारों में लगातार लंबी होती लिस्ट पर खबर थी।[adinserter block="1"]
उड़ीसा की मुख्यमंत्री श्रीमती नंदिनी सत्पथी इस पर दस्तखत करने के लिए भुवनेश्वर से देर शाम नई दिल्ली पहुँचीं और जोर दिया कि अगली सुबह के अखबारों में दस्तखत करनेवालों में उनका नाम शामिल किया जाए। सरकार के सूचना ब्यूरो के अफसरों ने संपादकों को फोन कर कहा कि इसे सुनिश्चित किया जाए। श्रीमती गांधी का वफादार होना महत्त्व रखता था। प्रधानमंत्री आवास से लगातार फोन किए जाने पर भी एक मंत्री ने वक्तव्य में हस्ताक्षर करने में देरी की। ये स्वर्ण सिंह थे। वे अपने दिमाग से यह बात निकाल ही नहीं सके कि यदि वे इस्तीफा देती हैं तो वे ही अंतरिम प्रधानमंत्री बनेंगे। और कुछ महीनों बाद उन्हें इसकी कीमत अदा करनी पड़ी।
इस बीच, महानगरों और छोटे-छोटे शहरों में हजारों की तादाद में लोग सड़कों पर उतरे। राज्य सरकारों और पार्टी ने इन प्रदर्शनों का आयोजन और खर्च-वर्च किया। प्रदर्शनकारियों को यह नारा दिया गया—इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला नहीं सहेंगे। मतलब यह था कि वे सुप्रीम कोर्ट की ओर से इसे जायज ठहराने को भी नहीं सहेंगे। श्रीमती गांधी और उनके लोग सारी संभावनाओं की तैयारी कर रहे थे। चुनाव में तकनीकी बिंदुओं पर किसी भी कोर्ट का फैसला उनके लिए पुनीत नहीं था, खासतौर पर प्रधानमंत्री को लेकर। साथ ही लोगों का स्पष्ट मत कोर्ट के दायरे से भी बाहर था।
श्रीमती गांधी को एक अप्रत्याशित समर्थन भी मिला। टी. स्वामीनाथन, जो उनके पूर्व कैबिनेट सचिव थे, और जिनके कार्यकाल को उन्होंने पहले बढ़ाया था और फिर उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया था, ने घोषित किया कि प्रधानमंत्री समेत, किसी भी चुने हुए पद पर बैठे व्यक्ति के खिलाफ उनके पास किसी भी अयोग्यता को समाप्त करने का अधिकार है। नियम ऐसा ही कहते थे, हालाँकि उनके पूर्ववर्ती सेन वर्मा ने 1971 की चुनाव रिपोर्ट में कहा था कि चुनाव आयुक्त के पास इस प्रकार की मनमाने ढंग की शक्तियाँ नहीं होनी चाहिए।
पर्याप्त संकेत दे दिए गए थे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अंतिम नहीं माना जाएगा। लेकिन इसकी वजह से वे कोर्ट में अपनी लड़ाई से पीछे नहीं हट रही थीं।
उन्होंने बॉम्बे के शानदार वकील नानी ए. पालखीवाला से सुप्रीम कोर्ट में अपना केस लड़ने के लिए बात की। पालखीवाला को तब एक प्रतिक्रियावादी कहा गया था, जब उन्होंने 14 भारतीय बैंकों के राष्ट्रीयकरण को अदालतों द्वारा भेदभाव के आधार पर खारिज करा दिया था और पूर्व भारतीय शासकों के सालाना भुगतान को बंद किए जाने पर इस आधार के तहत सवाल उठाया था कि वह भुगतान संपत्ति का हिस्सा था, और उसे खत्म नहीं किया जा सकता, क्योंकि संपत्ति संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार थी।9 लेकिन प्रतिक्रियावादियों से भी काम लिया जा सकता था।
पालखीवाला, जो टाटा में एक सीनियर डायरेक्टर भी थे, श्रीमती गांधी के बुलावे पर विमान से दिल्ली पहुँचे। उन्होंने कहा कि वे केस जीत सकती हैं। लेकिन कुरसी पर बने रहने के लोकतांत्रिक उसूल का क्या होगा? हालाँकि उस समय तक उन्हें हर किसी को यह बताना अच्छा नहीं लगता था कि वे कुरसी पर बने रहने का फैसला कर चुकी हैं और कुछ दिनों के लिए भी उसे छोड़नेवाली नहीं हैं।[adinserter block="1"]
उन्हें एक फैसला करना था, क्योंकि इस्तीफा देने के लिए उन्हें लगातार मनाया जा रहा था। न केवल विपक्ष से बल्कि खुफिया विभाग ने बताया कि कांग्रेस पार्टी के कुछ सदस्य भी चाहते थे कि इस बादल के हट जाने तक, यानी सुप्रीम कोर्ट से बरी किए जाने तक, वे इस्तीफा दे दें। ऐसे में पूर्व समाजवादियों के समूह को, जिन्हें युवा तुर्क कहा जाता था, मोहरा बनाया गया। वे उनकी ताकत से वाकिफ थीं। मोरारजी देसाई को परास्त करने के लिए वे उनका इस्तेमाल एक बार कर चुकी थीं। चंद्रशेखर नाम के युवा तुर्क को एक सरकारी फाइल उपलब्ध कराई गई, जिसमें मोरारजी के बेटे कांति देसाई की कारगुजारियाँ थीं, जो पहले एक इंश्योरेंस एजेंट था, लेकिन अब एक पैसे वाला व्यापारी बन गया था। इससे मोरारजी की साँठगाँठ को साबित किया गया।
यह बात सब अच्छी तरह जानते थे कि युवा तुर्क बतौर प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी के प्रदर्शन से खुश नहीं थे। कुछ समय से वे उन्हें दबाने का प्रयास कर रही थीं। भले ही वे चंद्रशेखर को कांग्रेस पार्टी वर्किंग कमेटी में चुने जाने से नहीं रोक सकीं, लेकिन राष्ट्रपति से कहकर उन्होंने एक और युवा तुर्क मोहन धारिया को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया, क्योंकि उन्होंने श्रीमती गांधी को जे.पी. से बातचीत शुरू करने की सलाह दी थी।
और अब धारिया ही उनका इस्तीफा माँग रहे थे। उनका कहना था कि सुप्रीम कोर्ट से दोषमुक्त किए जाने तक वे कुरसी छोड़ दें और जगजीवन राम या स्वर्ण सिंह को पी.एम. बनने दें। दूसरे युवा तुर्क उनके साथ थे, और वे डर रही थीं कि यह माँग जोर न पकड़ ले।
इंटेलिजेंस रिपोर्ट ने बताया कि युवा तुर्क लगातार जगजीवन राम के संपर्क में थे, और वे ही विद्रोह को भड़का रहे थे। वे कमोबेश खुले तौर पर कहने लगे थे कि प्रधानमंत्री के खिलाफ न्यायिक फैसले को हलके में नहीं लेना चाहिए।
वे नंबरों का खेल भी कर रहे थे। गिन रहे थे कि अगर वे बगावत करते हैं तो कितने लोग उनके साथ होंगे, लेकिन उन्होंने पाया कि उनका साथ देनेवाले ज्यादा नहीं थे।
श्रीमती गांधी एक अच्छी रणनीतिकार थीं और यह चर्चा शुरू कर दीं कि अगर वे कुरसी छोड़ती हैं तो उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने दिया जाएगा। उम्मीद के मुताबिक यह पहल नाकाम रही। जगजीवन राम और चह्वाण, दोनों ने ही इसका विरोध किया।[adinserter block="1"]
जगजीवन राम को तब एक कड़वा अनुभव हुआ, जब उन्हें पता चला कि कुछ समय के लिए श्रीमती गांधी की सोच बदल गई थी और उनके दिमाग में कमलापति त्रिपाठी का नाम चल रहा था, जिन्हें यू.पी. से लाकर उन्होंने कैबिनेट में अस्थायी प्रधानमंत्री के तौर पर शामिल किया था।
जगजीवन राम की प्रतिक्रिया थी, ‘‘हमें इस शर्त पर त्रिपाठी का समर्थन करना चाहिए कि वे उन्हें वापस न आने दें। हमें बस इतना करना है कि उनके (श्रीमती गांधी) खिलाफ कुछ जाँच शुरू करा दें।’’
एक अस्थायी प्रधानमंत्री, जो विश्वासघाती बन सकता था, जाँच की माँग को सहर्ष स्वीकार कर लेगा, जिसे वे अब तक ठुकराती आ रही थीं। जाँच से उनकी छवि पूरी तरह बिगड़ जाएगी। गड़े मुर्दों में से एक उनके बेटे की मारुति कार परियोजना थी।
दूसरी घटना एक विचाराधीन कैदी रुस्तम सोहराब नागरवाला के हार्ट फेल10 होने की थी। वह एक सेना का रिटायर्ड अधिकारी था, जिसने कथित तौर पर प्रधानमंत्री और उनके सचिव हक्सर के आवाज की नकल कर नई दिल्ली के भारतीय स्टेट बैंक (इसकी अनुमति देनेवाले चीफ कैशियर, वेद प्रकाश थे, जो नौकरी के बाद कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए थे) की तिजोरी से साठ लाख रुपए निकाल लिये थे।
श्रीमती गांधी के पास जगजीवन राम पर भरोसा न करने के पर्याप्त कारण थे। वैसे भी उन्हें युवा तर्कों से भी निपटना पड़ रहा था। पार्टी के अंदर बढ़ती साजिश के कारण उनके लिए आवश्यक हो गया था कि वे संसद् में अपने भरोसेमंद लोगों की पहचान कर लें। उन्होंने सारे मुख्यमंत्रियों को दिल्ली बुलाया, जिससे कि उनमें से हर एक अपने राज्य के सांसदों को नियंत्रित कर सके। वे चाहती थीं कि कांग्रेस संसदीय दल की बैठक उनसे बातचीत के बाद 18 जून को हो, जिसमें उनका पूर्ण समर्थन किया जाए। इस काम में सिद्धार्थ शंकर रे और वी.बी. राजू आंध्र प्रदेश के राज्यसभा सदस्य को लगाया गया। उनसे कहा गया कि वे जो मसौदा तैयार करें, उसके प्रति जगजीवन राम की पूरी प्रतिबद्धता सुनिश्चित कराएँ।
उन पर भरोसा था कि वे अपने काम को बखूबी अंजाम देंगे। कांग्रेस संसदीय दल के इतने ठोस समर्थन से विपक्ष द्वारा उनके इस्तीफे की माँग को खारिज करना राष्ट्रपति के लिए आसान हो जाएगा। संविधान के मुताबिक, जब तक बहुमतवाले दल का समर्थन उनके साथ था, तब तक वे प्रधानमंत्री बनी रह सकती थीं।
इलाहाबाद का फैसला जब आया, तब राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद श्रीनगर में थे। वे उस दिन ही लौटना चाहते थे, लेकिन श्रीमती गांधी ने उन्हें फोन कर आने से रोक दिया। अगले तीन दिनों तक वे हर दिन उनसे पूछते थे कि लौटें या नहीं, लेकिन वे नहीं चाहती थीं कि वे अपना दौरा बीच में छोड़कर आएँ क्योंकि जनता इसका मतलब निकालने लग जाती और सोचने लगती कि वे उनका इस्तीफा स्वीकार करने के लिए जल्दी लौट आए हैं। नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति के आवास, राष्ट्रपति भवन के बाहर विपक्ष ने उसकी माँग को लेकर ही धरना शुरू कर दिया।
16 जून को उनके दिल्ली पहुँचने के तुरंत बाद श्रीमती गांधी ने उनसे मुलाकात की। वह मुलाकात बहुत छोटी थी, 15 मिनट से भी कम। उन्होंने इलाहाबाद के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देनेवाली याचिका की जानकारी दी।[adinserter block="1"]
उसी दिन गैर-कम्युनिस्ट विपक्षी नेताओं के साथ राष्ट्रपति की बैठक काफी देर तक चली। उनकी माँग थी कि वे श्रीमती गांधी को कुरसी छोड़ने का आदेश दें। अहमद उनके सुझाव पर विचार करते दिखे। वे किसी का पक्ष लेते नहीं दिखना चाहते थे। उन्हें अब तक श्रीमती गांधी के रबर स्टैंप वाली छवि के साथ रहना पड़ रहा था। उन्होंने पहले कहा कि वे कांग्रेस संसदीय दल की बैठक का इंतजार करें। फिर उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने कुछ गलत कह दिया और उसे एक ऐसा संकेत मान लिया जाएगा, जिसके बारे में वे नहीं सोच रहे थे। उन्होंने अपने आपको तुरंत दुरुस्त किया और कहा कि उनका मतलब यह था कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए। उनके प्रेस सचिव ने हैंडआउट जारी किया, ताकि अखबारों में गलत खबर न छप जाए।
राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद, विपक्षी सदस्यों ने उनके आवास के बाहर धरना समाप्त कर दिया। लेकिन उन्होंने श्रीमती गांधी को इस्तीफा देने पर मजबूर करने के लिए आंदोलन तेज करने का फैसला किया। उनमें से कई ने कांग्रेस पार्टी के सदस्यों से संपर्क साधने का विचार भी किया। भले ही यह केवल प्रधानमंत्री पद की गरिमा बनाए रखने की दुहाई देने तक सीमित रहनेवाला था। सी.पी.आई. (एम) राष्ट्रपति से मिलनेवालों में शामिल नहीं था, लेकिन उसने गैर-कम्युनिस्ट विपक्ष की उस माँग का समर्थन किया कि श्रीमती गांधी को हर हाल में इस्तीफा देना चाहिए।
विपक्ष का राष्ट्रपति से मिलना और उनके इस्तीफे की माँग करना श्रीमती गांधी को फूटी आँख नहीं सुहाया। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था। तब भी जब 1962 में चीन के हाथों भारत की हार के बाद उनके पिता की साख पर बट्टा लग गया था। एकजुट विपक्ष ने राष्ट्रपति से मिलकर प्रधानमंत्री के इस्तीफे की माँग नहीं की थी।
वे अब घिरा हुआ महसूस करने लगी थीं। और उनकी सबसे बड़ी चिंता विपक्ष नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी थी, जिसमें असंतोष के स्वर फूटने लगे थे। अधिकांश सदस्यों को लगने लगा था कि श्रीमती गांधी के नेतृत्व में वे अगला चुनाव नहीं लड़ सकते, जो 1976 की फरवरी में होनेवाले थे। जगजीवन राम और युवा तुर्क अधिक-से-अधिक सांसदों से संपर्क कर रहे थे। उनसे कह रहे थे कि न्यायिक फैसलों की शुचिता के सम्मान में श्रीमती गांधी को हर हाल में कुरसी छोड़ देनी चाहिए। यह दलील ऐसी थी, जिसे जनता को समझाना मुश्किल था, लेकिन सांसद समझ सकते थे।
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