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पूरब टोले की एक छत पर बने इस छोटे से कमरे की दीवारों से ईंट की अधिकता और बालू-सीमेंट की कमी साफ-साफ झाँक रही है। छत की ओर ध्यान से देखने पर लगता है कि किसी नौसिखिए राजमिस्त्री ने मजदूरी न मिलने का सारा गुस्सा इस कमरे पर निकाल दिया है।
भीतर की दीवारों को अभी प्लास्टर चढ़ाने लायक नहीं समझा गया है। लेकिन कमरे में रहने वाले विद्यार्थी ने अपने बुद्धि, कौशल और ब्राउन पेपर के सहारे कमरे को सजाकर होम डेकोरेशन वालों के सामने एक नई चुनौती पेश कर दी है।
प्लास्टर चढ़ जाने के बाद जब दीवाल की खूबसूरती में चार चाँद लगाने वाली कालजयी पेंटिंग्स की कमी महसूस हुई है, तब उसने अखबारों के रविवासरीय संस्करणों में छपे सिने तारिकाओं की लुभाती मुद्राओं का सहारा लिया है और उन पेपर कटिंग्स को इस अंदाज में चिपका दिया है कि समूचा बॉलीवुड एक ही कमरे में उठ रहा, बैठ रहा और हाँफ रहा है।
यानी कमरे में घुसते ही गोली मारते अजय देवगन का सामना ऐश्वर्या की कमर में हाथ डाले सलमान से हो रहा है, जिसके कारण रवीना टंडन की कमर में मोच आ गई है। इधर संजय दत्त ने रिवॉल्वर निकालकर ‘गदर एक प्रेम कथा’ वाले सनी देओल की सर पर तानकर समूचा पाकिस्तानी हैंडपंप उखाड़ने का सख्त विरोध किया है।
एक साइड में अक्षय कुमार समंदर किनारे खड़े होकर कम कपड़े में ज्यादा सुंदर दिखने का प्रयास करती प्रियंका चोपड़ा, लारा दत्ता के साथ पानी में आग लगाने की योजना बना रहे हैं। लेकिन मनोज तिवारी ने ‘बगल वाली जान मारेली’ कहकर उनको कन्फ्यूज कर दिया है।
उधर कमरे के तापमान में तीन डिग्री की वृद्धि करती बिपाशा बसु अपना ‘राज’ छिपा ही रही हैं कि सामने मल्लिका सहरावत का ‘मर्डर’ हो चुका है।
हाँ केरल की गर्मी में बैठे ‘सिर्फ तुम’ के दीपक का हाल बेहाल है। वो नैनिताल की आरती से कह रहा है कि ‘केरल में गर्मी है, नैनीताल से सर्दी भेजो’ लेकिन ये क्या, गोविंदा ने ‘सरकाए लियो खटिया जाड़ा लगे’ गाकर दीपक के अरमानों को बेदर्दी से बुझा दिया है।
इससे ज्यादा दुख की बात ये है कि अँखियों से गोली मारने वाले गोविंदा, आशिक बनाया आपने वाले इमरान हाशमी के बगल में खड़े होकर अपने ‘नसीब’ को कोस रहे हैं।
ठीक बगल में करीना कपूर की बलखाती कमर की तरफ हिमेश रेशमिया इशारा करके बड़े ही शोकपूर्ण मुद्रा में गा रहे हैं, “झलक दिखला जा... एक बार आ जा आ जा आ जा...”
लेकिन खिड़की की तरफ देखने पर लगता नहीं है कि सिवाय कबूतरों के इस कमरे में कोई बाहरी आता भी होगा!
कमरे में सामान के नाम पर बस एक टूटी हुई मेज है जिस पर कभी न साफ किया जाने वाला एक लैंप रखा है। लैंप से चू रहा केरोसिन, मेज पर रखी ऑर्गेनिक केमिस्ट्री की मोटी-सी किताब से अपना अवैध संबंध स्थापित कर चुका है जिसके कारण विज्ञान की किताबों से ज्ञान कम, मिट्टी तेल ज्यादा टपक रहा है।
सरस सलिल, मनोहर कहानियाँ, फिल्मी कैसेटों के फटे रैपर और आशिकों की शायरी, ये सब बता रहे हैं कि कमरे में रहने वाला विद्यार्थी विज्ञान और मनोविज्ञान में समान रुचि रखता है। उसकी रुचि के आतंक से इन किताबों के नीचे ढेर सारे मच्छरों के प्राण पखेरू उड़ गए हैं, जो अंतिम संस्कार होने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।
इधर मेज के सामने ही एक टूटी हुई खटिया है, जिसका आखिरी हिस्से का ओरचन देसी जुगाड़ के सहारे बाँधकर रोका गया है ताकि कोई झटके में बैठे तो खटिए पर बैठा ही रहे, जमीन पर न बैठ जाए।
यही खटिया इस कमरे का बेड और सोफा है। जिस पर फटी साड़ी और पुराने बिछौने के मेल से बना एक नया बिछौना बिछाया गया है। इसी देशी तकनीकी से बनी एक रजाई भी है, जिसे कंबल के ऊपर सटाकर इस कमरे में रहने वाला विद्यार्थी सोता है।
हाँ, खटिया के ठीक ऊपर दो दीवारों को जोड़ता हुआ एक बिजली का केबल भी है। जो बिजली के लिए नहीं, बल्कि कपड़ा टाँगने के लिए प्रयोग में लाया जाता है।
दाहिने ओर की दीवार में एक आलमारी है, जिसमें फिल्मी ऑडियो कैसेटों के आधे दर्जन कुतुबमीनार खड़े हैं। अभी धड़कन, दिलवाले, मोहब्बतें, हसीना मान जाएगी, बेवफा सनम से लेकर सिर्फ तुम, साजन चले ससुराल, बगलवाली, सामने वाली, ऊपर वाली के रैपर छितराए हुए हैं। कुछ कैसेटों
की रीलें उलझी हैं, तो कुछ लिखो-फेको पेन से सुलझाने के चक्कर में टूट गई हैं।
इसके ठीक बगल में एक ऑडियो प्लेयर है, जो यूँ तो दक्षिण टोला के सुखारी डॉक्टर को दहेज में मिला था लेकिन डॉक्टराइन ने डॉक्टर साहब को न जाने कौन-सा डोज दिया कि एक दिन टूटकर धराशाई हो गया। फिर दूसरे दिन कबाड़ी की दुकान से मैकेनिक की दुकान तक बनते-बिगड़ते, बिकते इस कमरे में आकर विराजमान हो गया।
ऑडियो प्लेयर के आगे का हिस्सा छोड़कर सारे कलपुर्जे खुले हैं। बेतरतीब तरीके से जोड़े गए तारों को देखकर लगता है कि इस यंत्र को ठीक करने में क्षेत्र के सारे मिस्त्रियों ने थोड़ा-थोड़ा मंत्र फूँका है लेकिन फूँकन की दुकान पर टेस्टिंग के दौरान समूचा सिस्टम ही फुँक गया है। फिर भी विद्यार्थी ने हार न मानते हुए इसको बजने लायक बनाकर अपने हुनर का लोहा मनवा दिया है।
यही कारण है कि इतनी मेहनत और उद्यम से पैदा हो रहे संगीत को अकेले न सुनकर समूचे चाँदपुर को सुनाने का फैसला किया गया है और इसके लिए दो साउंड बक्सों को छत पर लगा दिया गया है।
जैसे ही सुबह बिजली आती है, पहले हनुमान चालीसा सुनाई देता है और फिर कुछ भोजपुरी देवी गीत बजते हैं। इसके ठीक बाद विविध भारती को पानी-पानी करता सदाबहार फिल्मी गीतों का ऐसा कारवाँ उठता है, जो बिजली जाने, कमरे में रहने वाले विद्यार्थी के सो जाने या कहीं चले जाने के बाद ही बंद होता है।
लेकिन इधर कई दिन से चाँदपुर उदास है। बिजली भी नहीं आई है, एक हफ्ते से धूप भी तो नहीं हुई थी। जाड़ा कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। आदमी तो आदमी चाँदपुर के पेड़-पौधे, चिरई-चुरुंग तक सिकुड़ रहे हैं। लेकिन आज भगवान भास्कर की बड़ी कृपा हुई है। सुबह का सूरज आसमान में कुहासे को चीरता हुआ निकलने की जद्दोजहद कर रहा है। जिसे देखकर छोटे बच्चे चिल्ला रहे हैं, “राम-रामजी घाम करऽ सुगवा सलाम करऽ”, बूढ़े अलाव तापना छोड़कर आसमान की तरफ निहार रहे हैं, “हे प्रभु अब तो निकल आइए!”
अचानक धूप का एक टुकड़ा धरती पर दस्तक देता है। आँखों में बैठा कुहासा छँटने लगता है। सहसा पछुआ चलती है। सरसों की पीली चुनरी ओढ़े खेत इठलाते हैं। मटर के फूलों पर शीत की बूँदें मोतियों की तरह चमकती हैं और देखते-ही-देखते इस कुहासे और धूप की लड़ाई में एक नर्म धूप का टुकड़ा इस विद्यार्थी के कमरे में आकर उसे चौंका देता है। मानो कानों में कह रहा हो कि अब तो उठ जाओ। लेकिन ये क्या? नौ बजने को हैं और विद्यार्थी अभी तक सो रहा है!
अचानक कमरे के ठीक नीचे राकेश ने साइकिल की घंटी बजाई। मानो उसने गुप्त भाषा में किसी से कोई बात कही हो। लेकिन इस गुप्त भाषा का किसी पर कोई असर नहीं हुआ। फिर लगातार तीन बार घंटी बजी। लेकिन इस बार भी जवाबी कार्रवाई शून्य रही।
बार-बार घंटी बजाने के बाद भी जब कहीं कोई असर नहीं हुआ, तब राकेश ने घंटी की आवाज और स्पीड दोनों में वृद्धि कर दी और कई मिनट लगातार इस लय में बजाया, मानो सत्यनारायण भगवान की कथा अब शुरू होने जा रही हो! लेकिन इस लयात्मक कथा का न किसी देवता पर असर हुआ न किसी जानवर पर और न ही किसी पेड़-पौधे पर। अचानक राकेश का धैर्य टूट गया और वो पूरे जोर से चिल्लाया-
“मंटुआ रे... ए मंटुआ...”
“अरे उठ रे... पिंकिया गई...”
“स्कूल चलना है कि नहीं?”
“नौ बज गया रे बेहूद्दा!”
“आज तुमको मनोहर मास्टर बुलाए हैं।”
लेकिन ये क्या? इस पुकार पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। राकेश का सारा धैर्य टूट गया। उसने मान लिया कि सोते हुए आदमी को उठाना बहुत आसान काम है लेकिन सोने का नाटक करने वाले को उठाना वाकई कठिन काम है। अगर भगवान इस लौंडे को हमेशा के लिए उठा देते तो ज्यादा अच्छा रहता। उसकी झल्लाहट बढ़ने लगी। उसने साइकिल को दीवार के सहारे खड़ा किया और छत पर जाने के लिए तेजी से कदम बढ़ाने लगा। लेकिन जैसे ही सीढ़ी पर उसका पहला कदम पड़ा कि सामने से आ रही एक तेज आवाज से उसके कदम ठिठक गए।
“अरे रकेसवा... रुक! जानते नहीं हो कि लाट साहेब दस बजे तक सोते हैं? तुमसे कुछ छिपा है कि आकर चिल्ला रहे हो? अपना काम देखो। इसको जो पढ़ना है ये पढ़ चुका है। हम इसका भविष्य जान गए हैं। ये रात भर फिल्मी गाना सुनेगा, दस बजे सुबह उठेगा। फिर एक थरिया खाकर, बबरी झारकर, रेडियो लेकर सरयू में नाव चलाएगा। अरे ददरी मेला में बैल बेचकर इसके लिए साइकिल खरीदे कि पढ़कर एक दिन आदमी बन जाएगा, लेकिन इस बैल ने सारा पैसा माटी में मिला दिया। अब तो हम कान पकड़ लिए हैं। सारा सिलेमा का कैसेट तोड़कर सरजू जी में नहीं बहा दिए दिए तो हमरो नाम रमेसर नहीं।”
इस डाँट के बाद सीढ़ी चढ़ रहे राकेश के पैर सुन्न हो गए। वो यंत्रवत खड़ा हो गया। मानो चाहकर भी पैर आगे न बढ़ रहे हों। उसने नजरें नीची कर लीं और पीठ पर टँगा झोला झाड़ने लगा। तब तक फिर आवाज आई...
“सुन रकेसवा... तुमको फिर समझा रहे हैं, इसके पीछे अपना जीवन बर्बाद मत कर। पुरुब टोला से लेकर पच्छिम टोला और उत्तर टोला से लेकर दक्षिण टोला तक कौन लड़का है जो दस बजे तक सोता है? इसी के साथ पढ़े जोगिंदर चौधरी के लड़के बीटेक्स की तैयारी कर रहे हैं और ई ससुर तीन साल से इंटर में फेल हो रहे हैं। तुमको भी फेल होना है?”
इस प्रश्न के बाद तो राकेश को मानो साँप सूँघ गया। उसकी बोलती बंद हो गई। अचानक से एक लड़की की आवाज आई, “बाबूजी ऊ बीटेक्स नहीं, बीटेक कहा जाता है। बीटेक्स तो मलहम होता है।”
इतना सुनकर बाबूजी भड़क गए, “तुम चुप रहो! ज्यादा अकीला फुआ न बनो। जाकर मेरा कुर्ता लाओ।”
इस बात के बाद लड़की चुप हो गई। सीढ़ी पर खड़ा राकेश भी सहम गया। इधर चूल्हे पर लड़की की माँ रमावती खाना बना रही हैं और थाली में खाना परोसती जा रही हैं। तेज आवाज में बोलने वाले रमेसर को आज कचहरी जाना है, लेकिन मंटू के कारण गुस्सा है जो जाने का नाम नहीं ले रहा है। अचानक रमावती की तरफ देखते हुए रमेसर बोले, “देख ले, राजा बाबू राम-राम के बेरा मूड खराब कर दिए। बैठकर रोटी बेल... हो गया कचहरी और खोज लिए दामाद!”
चूल्हे पर रोटी बना रही रमावती ने चूल्हा फूँकना छोड़कर हाथ झाड़ा और बड़े प्रेम से बोलीं, “जाने दो बच्चा तो है अभी। इस उमर में सबका यही हाल होता है। बड़ा हो जाएगा तो समझदार हो जाएगा न!”
“हँ-हँ यही कहकर तो तुम ने इसको बिगाड़ दिया। बियाह हो गया होता तो इसके बच्चे अब तक स्कूल जा रहे होते। इसकी उम्र में हम चार भैंस रखते थे। बाबूजी अकेले थे। हम ही दियरा से चारा काटकर कपार पर लाते थे, फिर काटते थे तब भैंस खिलाकर पैदल पढ़ने जाते थे। आज न भोजन झट से मिल जा रहा तो नवाबी चढ़ी है राजा साहब को।”
रमावती चुप रहीं! माहौल में एकदम मुर्दा शांति छा गई। राकेश यंत्रवत सर झुकाए, हाथों से सीढ़ी की रेलिंग को साइकिल की चाभी से खुरचते हुए इन सब बातों को सुनता रहा! मानो किसी मूक आदेश का इंतजार कर रहा हो कि जरा-सा आदेश मिले, तो वो दौड़ता हुआ ऊपर मंटू के कमरे में चला जाए और रमेसर की चुभती बातों से जान बचे। लेकिन ये क्या रमेसर हैं कि बिना ब्रेक लिए बोले ही जा रहे हैं। रमावती को राकेश का चेहरा देख दया आ गई। स्नेह से देखते हुए और बात बदलते हुए पूछा, “और बता राकेश, माई कैसी है तुम्हारी?”
राकेश ने लाचार दृष्टि बनाई और रमेसर की गुस्सैल आँखों से नजरें बचाकर कहा, “एकदम ठीक हैं, मौसी।”
“गठिया ठीक हुआ?”
“पहले से ठीक है, मौसी। कल ही बलिया अस्पताल से दवाई लेकर लौटी हैं। डॉक्टर ने कहा है कि हमेशा के लिए तो नहीं, लेकिन चलने-फिरने भर की हो जाएँगी।”
इस जवाब के बाद खाना खा रहे रमेसर की आवाज फिर तेज हो गई। सीढ़ी पर खड़े राकेश की तरफ देखा और बोलने लगे, “ए राधेश्याम कऽ बेटा, पढ़ो-लिखो नालायक! वरना अपने बाप की तरह चाँदपुर घाट पर नाव चलानी पड़ेगी और माई किसी दिन गठिया से मर जाएगी।”
लीजिए हुआ बवाल। रमावती को रमेसर की इस बात पर इतना तेज गुस्सा आ गया कि चिमटा फेंककर और रोटी सेंकना छोड़कर गरजने लगीं, “ये अपशकुन मुँह से निकालते हुए लाज नहीं लगा? ज्यादा गर्मी चढ़ गई है सुबह-सुबह? कौन-सा पढ़कर हाईकोर्ट में जजी कर रहे हो? ईंट-भट्ठा की मुनीमी ही तो कर रहे हो? बाप गोबर पाथते हुए मर गए, तुम ईंटा पाथकर मर रहे हो। अब एक शब्द बोल दिए तो बता देंगे।”
लीजिए, एक झटके में रमावती की इस मिसाइल के आगे रमेसर ध्वस्त हो गए। आँगन का माहौल एकदम शांत हो गया। मानो बंदूक लेकर लड़ रहे किसी बड़े बंदूकबाज को किसी गुलेल वाले ने चित्त कर दिया हो। रमेसर खाना छोड़कर उठ गए। “ठीक है, हम तो चुप ही रहेंगे अब! जा रहे हैं। जिसको जो मन करना हो करे, ये घर रहने लायक है? सब अपने मन के राजा हो गए हैं! जहाँ एक से अधिक लोग मालिक हो जाए, वो घर कभी घर नहीं रहता है।”
राकेश अभी भी खड़ा रहा। वो निरुद्देश्य आसमान में ताकता रहा। रमावती ने रोटी तवे पर रखकर उसकी तरफ प्यार से देखा और भरपूर स्नेह भरी नजरों से दुलारते हुए कहा, “जाओ बेटा राकेश, मंटू को उठा दो। जाओ इनकी बात पर ध्यान नहीं दिया जाता। ये तो ऐसे ही बड़बड़ाते रहते हैं।”
तब तक किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी, “कोई है?”
“मुनीम जी, ए रमेसर जी!”
“आ रहे हैं, आ रहे हैं बैठिए।” रमेसर ने उत्तर में आवाज लगाई और आँगन में गड़े हैंडपंप पर हाथ धोते हुए कहा, “ए गुड़िया ठाकुर को पानी पिलाओ, लग रहा कहीं से कोई समाचार आया है।”
गुड़िया मीठा-पानी लेने चली गई। रमेसर गमछा कंधे पर रखे और दालान में चले गए। इधर सीढ़ी पर खड़े राकेश के जान में जान आ गई। एक ठंडी साँस लेकर सीढ़ी चढ़ता गया और सोचता गया कि हे भगवान जान बची तो लाखों पाए, इस मंटुआ कमीने को तो आज छोड़ना नहीं है। इसी खयाल से कमरे में घुसते ही सबसे पहले उसने मंटू की रजाई खींची, फिर बेडशीट हटाया। तकिया फेंक दिया और मंटू की पीठ पर जोर का मुक्का जमाते हुए कहा, “अरे कमीना! चार लाठी देंगे अभी एक मिनट में सारी आशिकी भीतर घुस जाएगी। फिर सोते रहना तेरह बजे तक! पता है मौसा कितना बोले हैं हमको? बंदूक होता तो अब तक सारा चाँदपुर दियरा धुआँ-धुआँ हो गया होता।”
लेकिन ये क्या? इन बातों का मंटू के ऊपर कोई खास असर नहीं हुआ, बस इतना ही हुआ कि उसने हाथ-पैर मोड़कर एक कुंभकर्णी जम्हाई ली और फिर आँखें बंद करके सो गया। ये देखकर राकेश का बचा-खुचा धैर्य भी टूटने लगा, वो याचना की मुद्रा में आ गया, “अरे! मंटुआ, उठ भाई।”
“बक्क यार! सोने दे।”
“काहें नहीं उठ रहे? साढ़े नौ बज रहे, स्कूल नहीं चलना क्या?”
“नहीं जाना।”
गुस्से में राकेश ने रजाई फेंक दी।
“मत जाओ साले! पिंकिया जा रही है, आज परीक्षा का डेट आने वाला है। सोचा कि बता दें तुमसे! लेकिन आज हम कान पकड़ रहे हैं। आज के बाद पिंकिया जाए या पूनमी आए, क्लास चले या बंद रहे। हम अब तुमको कभी जगाने नहीं आएँगे, न कभी तुम्हारे घर आएँगे। कसम खा रहे हैं।”
राकेश इतना कहकर आलमारी में रखे कैसेटों का औचक निरीक्षण करने लगा। अचानक कमरे में लगे दो-चार पोस्टरों को देखकर उसके मिजाज में नर्मी आ गई।
“ठीके है, सो जाओ, हम ई मोहब्बते वाला लेकर जा रहे हैं। धड़कन का तुम हमारा लिए हो याद रखना। एक मेरा बेवफा सनम वाला परदीपवा लेकर चला गया है। कह रहा था की सुखरिया की साली को सुनाना है, साली ने उसका दिल तोड़ दिया है। साला अपना दिल और मेरे कैसेट का रील दोनों तोड़वा लाया है। मिल जाए जरा... उसकी भी आशिकी भीतर घुसानी है।”
इतना कहकर राकेश कमरे से निकलने लगा। मानो अब भैंस के आगे बीन बजाने से क्या फायदा? जाते-जाते थक हारकर एक रामबाण दवाई का प्रयोग कर दिया। “सोवो बेटा सोवो। पिंकिया आज ददरी मेला वाला पियरका सुटरवा पहनकर जा रही है।”
ये सुनते ही मंटू में एक ऐसी अदृश्य शक्ति का विस्फोट हुआ जिसका जिक्र प्रेम के किसी शास्त्र में नहीं किया गया है। उसकी आँखें खुल गईं। खोई हुई चेतना वापस आ गई। मानो प्यासे जेठ को सावन ने आवाज दे दी हो। उसने अपने बिखरे बालों को ठीक किया और एक दिलकश जम्हाई लेकर बड़े प्रेम से राकेश की तरफ देखकर बालों में उँगलियाँ फिराते हुए बोला, “सही में पिंकिया जा रही है?”
“नहीं नहीं, कहाँ जा रही है, वो तो हम झूठ बोलने की प्रैक्टिस करने आए थे न!”
मंटू इस व्यंग्य बाण से चुप हो गया। राकेश ने मफलर सँभालते हुए प्रेम से कहा, “यार अपने मौसा को समझाते क्यों नहीं हो? साला बोलने लगते हैं तो झांझा मेल की तरह रुकने का नाम नहीं लेते हैं।”
मंटू ने राकेश की शिकायतों को नजरअंदाज करके एक जोर की अँगड़ाई ली और तकिया गोद में भरके राकेश की तरफ देखने लगा, “अरे यार राकेश मौसा को गोली मारो। पता है, हम साला बड़ा खतरनाक सपना देख रहे थे यार। जानते हो, देख रहे थे कि मेरी साइकिल पिंकी की साइकिल में टकरा गई है, और हम दोनों सरसों के खेत में गिर गए हैं।”
“रे चिरकुट आदमी! ज्यादा साहरुख खान मत बनो। पहले साइकिल का पंचर तो बनवा लो तब न साइकिल लड़ाओगे।”
राकेश की इस शिकायत का मंटू पर कोई असर नहीं हो रहा था। उसने बाँहों को हवा में फैलाकर जम्हाई ली और फिर पूछा, “ए राकेश, सही में पिंकिया जा रही है कि दीपावली की तरह मुझसे आज भी मजाक कर रहे हो?”
राकेश को गुस्सा आ गया, “ठीक है हम मजाक कर रहे हैं। तुम सो जाओ आराम से, हम जा रहे हैं।”
राकेश की इस बात के बाद मंटू की मनोदशा में क्रांतिकारी परिवर्तन आया, “अरे! तब पाँच मिनट रुक मेरे भाई, पाँच मिनट... बस, भाई न!”
मंटू ने झट से याचना की मुद्रा बना ली। राकेश तटस्थ भाव से खड़ा रह गया। “भाई न, बस पाँच मिनट।” मंटू ने फिर वही याचना दुहराई।
राकेश कपार पर हाथ रखके खटिया पर बैठ गया।
चंद सेकेंड के अंदर मंटू देह तोड़ता, आईने में बालों को ठीक करता एक फिल्मी सीटी बजाया और चार-पाँच खूब गहरी साँस लेकर घड़ी में देखा कि सुबह के नौ बजकर बीस मिनट हो गए हैं। लैंप के द्वारा केमिस्ट्री की किताब में रासायनिक परिवर्तन हो गया है। उसने लैंप को मेज के नीचे रख दिया और सीधे लोटा लेकर नीचे भागा। पाँच मिनट के भीतर जैसे-तैसे मुँह धोकर, मंत्र स्नान करके, कपड़ा पहनकर फटाफट स्कूल बैग लिए कमरे में लगी प्रियंका चोपड़ा के बेहतरीन ‘अंदाज’ का दर्शन कर मन-ही-मन- ‘आएगा मजा अब बरसात का, तेरी-मेरी दिलकश मुलाकात का...’ पाठ किया और मन-ही-मन मान लिया कि भले अभी आग नहीं, पानी नहीं, प्रियंका चोपड़ा नहीं, लेकिन वो अक्षय कुमार से जरा भी कम नहीं है। इसलिए उसे जूते और घड़ी भी पहन लेने चाहिए। उसने महीने से बंद पड़ी अपनी कलाई घड़ी की ओर हिकारत की निगाह से देखा और घड़ी बंद होने के बावजूद खुद को समय का पाबंद महसूस करते हुए बिना बाल झाड़े, जूता झाड़ने लगा।
मंटू की मासूम आँखों में चमक बिखर गई। क्लास में बगल वाली डेस्क पर बैठी पिंकी के चित्र उसकी आँखों के सामने घूमने लगे। उसने खिड़की से झाँकते सूरज को देख प्रणाम की मुद्रा बनाई और मन-ही-मन धन्यवाद देने लगा कि हे सूरज भगवान! आज आप दस दिन बाद क्या निकले ‘चाँदपुर की चंदा’ भी निकल आई है। मन पुरइन की पात पर गिर रहे पानी जैसा छलकने लगा कि अचानक इस धन्यवाद कार्यक्रम में ब्रेक लग गया। नीचे से तेज आवाज आई, “टिफिन ले जा ए बबुआ।”
“मौसी भूख नहीं है।”
“अरे नालायक खा के तो जा!”
“अरे! आकर खा लेंगे मौसी, अभी तो क्लास शुरू हो रही होगी।”
इस बात पर फिल्म ‘दीवाना’ का कैसेट उलट-पलट रहे राकेश के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान तैर गई, मानो मन-ही-मन कह रहा हो कि कौन-सी क्लास जा रहे हो बेटा, हमको सब पता है!
मंटू ने जूता पहनते हुए राकेश से पूछा, “आज संस्कृत वाले सर आएँगे?”
“नहीं रे... तिवारी जी जबसे इंग्लिश मीडियम वाली लड़की से बियाह किए हैं, तबसे उनका भी सारा रूप और लकार खराब हो गया है।”
“और इतिहास वाले?”
“इतिहास क्या चलेगा रे! मास्टर साहब खुद चलने लायक नहीं हैं। जिस दिन होमोसेपियंस के बारे में बताकर घर जा रहे थे उसी दिन टीएस बाँध पर उनको एक बंदर काट लिया।”
इस बात पर मंटू के मुँह से स्वाभाविक रूप हँसी निकल आई। शर्ट की बटन बंद करते हुए बोला, “तुम बहुत हरामी हो रे रकेसवा। क्या मनोहर मास्टर भी नहीं आएँगे?”
“आएँगे यार... वो नहीं आएँगे तो कौन आएगा। चलो तो पहले।”
“बस बस भाई एक मिनट!”
मंटू बड़ी तन्मयता के साथ अपने देशी झोले में काव्य संकलन, गद्य संकलन के बीच में दो-चार इंटर की गाइड और एक-दो ऐसी किताबें रखकर सीढ़ी उतरने लगा, जिन्हें क्लास के खाली घंटियों में पढ़ने का चलन अब अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहा था। आँगन में उतरते ही उसने मुँह गोल करके सीटी बजाई और गुनगुनाने लगा, “वो लड़की नहीं, जिंदगी है मेरी।”
गाने को अनसुना कर सामने खड़ी रमावती ने टोका, “सुनो मंटू!”
“क्या मौसी?”
“बेटा, अब तो समय से उठा करो। कब तक मौसा को हम मनाते रहेंगे? आज बहुत नाराज थे। राकेश से पूछो, तुम्हारे चक्कर में कितना सुनना पड़ता है मुझे। आज ये भी सुन लिया। पता नहीं बेचारा मन में क्या सोच रहा होगा!”
राकेश ने आँखें झुकाकर धीरे से कहा, “कोई बात नहीं मौसी, इस गधे के लिए तो हम किसी की दुलत्ती भी सह लेंगे।”
मंटू ने हँसते हुए मौसी को गले लगा लिया, मानो ये अपनी गलती छिपाने की कोई पुरानी तरकीब हो। मानो मन-ही-मन कह रहा हो कि ओ मेरी मौसी तुम हो तो क्या फिक्र है। तुम हो तो हम इस मौसा के मौसा को भी देख लेंगे।
देखते-ही-देखते मौसी की आँखों में वात्सल्य का समंदर उमड़ आया। मंटू ने कसकर अँकवारी में पकड़ लिया। एक झटके में रमावती मातृ-प्रेम की प्रांजल मूर्ति में तब्दील हो गई। मंटू छह महीने का कोमल शिशु बन गया। उसकी गहरी आँखों में ठहरा प्रेम छलककर पूछने लगा, ‘क्यों सहती हो मेरे लिए किसी की बातें? कहाँ से लाती हो इतनी ममता, इतनी करुणा और इतना धैर्य?’
एक झटके में आँगन का दृश्य बदल गया। और भला क्यों न बदले? कहते हैं यहीं मंटू जब सोलह महीने का था तब इसकी माँ विमलावती को मलेरिया पकड़ लिया। रमावती तब बीमार बहन को देखने उसके गाँव रघुनाथपुर सिवान गई थी। अस्पताल के सभी डॉक्टरों ने हाथ जोड़ लिया। बाप के पास पटना-बनारस ले जाने की औकात नहीं थी। क्या होता? माँ चल बसी।
दो साल के नन्हे मंटू को रोता देखकर सबका कलेजा फटने लगा। बाप शराबी था। कौन सँभालता बच्चे को! बहन की लाश पकड़ के रो रही रमावती ने छाती से मंटू को लगा लिया था और अपने साथ लेकर चाँदपुर आ गईं।
आज इस घटना के सत्रह साल से ऊपर हो गए। न जाने कितनी बार चाँदपुर में बाढ़ आई और चली गई लेकिन मौसी की दुलार और स्नेह की बाढ़ में आज मंटू भूल गया है कि चाँदपुर उसका गाँव नहीं है। ये मौसी उसकी माँ नहीं हैं। ये गुड़िया उसकी बहन नहीं है। ये रमेसर उसके पापा नहीं हैं।
आज चाँदपुर के खेत-खलिहान भी जानते हैं कि यही चाँदपुर मंटू का गाँव है। सरयू के कछार पर चलती डेंगी को भी पता है कि यही पूरब टोले के रमेसर मुनीम का घर, मंटू का अपना घर है। यही मौसी रमावती उसकी माँ हैं, जिनको गाँव भर के लड़के चाची, काकी, बड़की माई की जगह मौसी ही कहते हैं।
आज मंटू अच्छी तरह से जानता है कि रमेसर की झुंझलाहट बिलकुल जायज है। पिछले साल की बाढ़ में जब चाँदपुर डूबने लगा था, तभी रमावती को डेंगू पकड़ लिया था। कौन इतना दूर डॉक्टर को दिखाने जाता। ओझा और सोखा के भरोसे होने वाली दवाई से रमावती मरने के कगार पर पहुँच गईं।
हालत जब ज्यादा खराब हुई तो बलिया सदर अस्पताल के डॉक्टर ने हाथ जोड़ के बनारस रेफर कर दिया। पैसे तो थे नहीं। रेवती ईंट-भट्ठे पर मुनीमी करने वाले इसी रमेसर ने चार कट्ठा खेत रेहन रखकर रमावती का इलाज करवाया। रमावती तो जैसे-तैसे बीमारी से ठीक हो गईं, लेकिन घर की आर्थिक हालत बीमार हो गई।
अब रमावती के जीवन का भी क्या भरोसा है! यही कारण है कि आजकल घर में गुड़िया की शादी की बातें चल रही हैं। रमेसर सोच रहे कि भले कुछ खेत बिक जाए लेकिन आँखों के सामने दामाद उतार लें। लेकिन मामला हर जगह दहेज पर अटक जा रहा है। जिसके कारण रमावती और रमेसर दिन-रात चिंता में डूबे रहते हैं।
इधर दिन भर किसी चिड़िया जैसी चहचहाने वाली गुड़िया ने भी अब बाहर आना जाना बंद कर दिया है। गाँव की सखियाँ कहती हैं कि कभी बाहर भी निकल लिया करो। लेकिन गुड़िया पिंजरे में रखे किसी मैनी चिड़िया-सी चुप लगाए रहती है। इसके बावजूद रमावती ने कभी अपना ये दर्द, ये चिंता, मंटू के सामने जाहिर नहीं किया। न ही आज तक किसी चीज की कमी महसूस होने दी। मंटू ने जो भी कहा, मौसी ने झट से हाजिर कर दिया। रमावती मंटू के कुर्ते की कॉलर ठीक करते हुए बोलीं, “बाल तो झाड़ ले ठीक से?”
मौसी के प्रति मंटू का प्रेम देखकर राकेश से रहा न गया। उसने पिन मारते हुए कहा, “ए मंटू, मौसा को भी गले लगा लो एक बार!”
मौसी हँस पड़ीं। गुड़िया ने हँसी छिपाते हुए कहा, “वो तो इसका सारा भूत भगा देंगे।”
राकेश और मंटू हँसते हुए घर के जनानी दरवाजे से बाहर आ गए, ताकि मौसा से नजरें न मिलें। हुआ भी यही। मंटू के जाते ही रमेसर आँगन में आ गए और आते ही कहा, “ए गुड़िया, उस पार से न्यौता है। नौ फरवरी को तिलक है चौदह को ब्याह। माई से कह दो। और सुनो, मेरा कुर्ता लाओ। नौ बजिया तो छूट गई, अब जीप या टेंपो का सहारा है। मंटुआ उठा कि नहीं?”
“स्कूल चला गया बाबूजी!” गुड़िया ने धीरे से बताया।
रमेसर चुप रहे। उधर रमावती हाथ में कचहरी के कागज लिए बक्से की चाभी को कमरे में खोंसते हुए आँगन में आकर बोलने लगीं, “ठाकुर से कहे होते की ब्याह लायक कोई लड़का बताइए। उस पार भी तो अच्छे लड़के हैं न? बेटी है तो दहेज तो हर जगह देना ही है, इस पार दें चाहें उस पार दें।”
रमेसर इस बात पर चुप रहे! आँगन बुहारते हुए रमावती ने फिर कहा, “अच्छा सुरेमनपुर वाले लड़के का क्या हुआ? क्या कह रहे थे मदन बाबू?”
“कह क्या रहे थे। तीन लाख और एक गाड़ी। पूरा गहना, टीवी, फ्रिज, कूलर सब माँग रहे हैं। लड़का बिकास भवन में चपरासी है। हीरो होंडा गाड़ी छेका में ही चाहिए। कहाँ से दें?” रमेसर ने कुर्ते की बाँह को चढ़ाते हुए कहा। रमावती का चेहरा उदास हो गया।
“मुँह क्यों बन गया बोलो? उ तो सरकारी नौकरी में है। आजकल आठवीं पास लड़के भी बीए की हुई लड़की खोज रहे हैं। जिसके दरवाजे पर एक खटिया तक नहीं है, वो भी दहेज में डबल बेड का पलंग खोज रहा। जिसके यहाँ साइकिल का पंचर एक हफ्ते बाद बनता है, वो भी कह रहा कि हम तिलक में ही गाड़ी लेंगे। समझ में आया कुछ?”
गुड़िया वहाँ से हट गई, हमेशा की तरह! जब-जब ब्याह की बातें होती हैं। बाबूजी की ये सब बातें उसके कानों में पत्थर के तीर की तरह चुभती हैं। एक अनजाना अपराधबोध उसकी साँसें तेज कर देता है।