घोड़ा
वह नदी किनारे पैदा हुई थी। पर यह बहुत पुरानी बात थी। अब तो उसे यह भी ठीक से नहीं पता था कि वह उम्र के साठवें में है या सत्तरवें में। वह कभी आईने को साफ़ कर रही होती तो ख़ुद को यों देखती मानो वह किसी और को देख रही हो। वह अपने ही सामने से गुज़र जाती, जैसे उस आईनेवाली से उसका कोई संबंध ही न हो।
वह नदी किनारे पैदा हुई थी। नदी से संबंध- वह अपनी नाभि में महसूस करती थी। वह जब भी नदी के क़रीब होती तो जल्दी से पानी छू लेती। पानी के छूते ही उसे लगता कि वह और पानी एक हैं। अगर वह थमी है तो नदी भी स्थिर है, वरना वे दोनों बह रहे हैं। एक पति नाम का पति था जो घर के भीतर की गुफाओं में कहीं प्रेत-सा मँडराता रहता था। बच्चों जैसा उसका बेटा, सुनहरे भविष्य की तलाश में दूर शहर में कहीं पहाड़ खोदने गया था।
वह शुरू से ही एकांत से घबराती थी। अपने आपको उलझाए रखने के लिए उसने तय जैसे बहुत से काम तय किए थे।
पति जैसा पति घर के भीतर की गुफाओं में अक्सर भटक जाया करता था। तय जैसे कामों में उसका एक काम यह भी था कि उसे अपने पति को बार-बार उसके पलंग तक पहुँचाना होता था। उसे बहुत समय तक लगता था कि घर सँभला रहता है, क्योंकि उसे घर के वे सारे कोने पता हैं जिन्हें वह हमेशा जालों से बचाकर रखती है। जालों का लगना अशुभ है। यह दुनिया सिर्फ़ शुभ चीज़ों पर चलती है। उसे लगता कि उसकी पीठ पर घर की नींव का पहला पत्थर जमा है। वह हल्का झुककर चला करती थी। उसका पति जैसा पति उससे बार-बार कहता था कि इस तरह कुबड़ों की तरह क्यों चलती है, तब वह कुछ देर के लिए सीधी हो जाया करती थी। पर कुछ ही देर में उसे घर की दरारें दिखतीं, जाले दिखते और वह अपनी पीठ झुका लेती थी। उसने देखा था कि जब भी उसने अपनी पीठ सीधी की है, सुनहरे भविष्य में व्यस्त उसका बच्चों जैसा बच्चा परेशानी में पड़ गया। यह उसका अंधविश्वास ही था, पर पैदा होने से यहाँ तक का सफ़र तय करने में उसने रास्ते से बहुत से अंधविश्वास बटोरे थे। अगर उसे एक बार छींक आ जाए तो वह दूसरी छींक आने तक किसी से बात नहीं करती थी। उसका यह अंधविश्वास पूरा घर जानता था और पास पड़ोस के बूढ़े भी। उसका पति जैसा पति उसकी छींक सुनते ही चुप हो जाता और तब तक चुप रहता जब तक उसे अगली छींक सुनाई न दे। कई बड़े असहज क्षणों में वह झूठा छींक देती या नाक में च्यूँटी काट लेती ताकि छींक आ जाए। झूठा छींकने के बाद बहुत देर तक उसका मन खट्टा बना रहता। उसे लगता कि अंधविश्वास का कोई एक डरावना भगवान है जिसे उसने धोखा दिया है। [adinserter block="1"]उस डरावने भगवान का कहीं कोई कैलेंडर नहीं था, सो वह उसके सपने में अलग-अलग चेहरे लिए हुए आता था। अधिकतर अंधविश्वास के भगवान का चेहरा उसके पति जैसे पति से मिलता-जुलता होता। अंधविश्वास के भगवान का उपचार भी उसने एक और अंधविश्वास से कर लिया था। वह ख़ूब शक्कर वाली चाय बनाती और उस चाय को घर के सामने लगे पीपल के पेड़ के नीचे उड़ेल देती। उसे लगता अंधविश्वास का भगवान बहुत शक्कर वाली चाय से प्रसन्न हो जाता होगा। जैसे उसके पति जैसे पति को शुगर होने के पहले तक बहुत शक्कर वाली चाय बहुत पसंद थी। उसने अपनी शादी के शुरू के दिन, डर जैसे कमरे में, अपने पति के साथ बिताए थे—अपनी नदी से बहुत दूर। जब पति जैसा पति उसे ज़्यादा डराता, वह ख़ूब शक्कर वाली चाय बनाकर उसे दे देती थी। वह डराना भूल जाता और वह किचन में भाग जाती। किचन एक गर्म गुफा जैसा था। जब भी उसे ख़तरा दिखता वह अपनी गुफा में उकड़ू बैठकर लगातार काम में व्यस्त हो जाया करती थी। सारे ख़तरे उसने अपनी गुफा में बहुत काम करके दूर भगाए थे।
उसे कुछ डर अभी भी याद आते हैं, जब वह उम्मीद से थी तो उसके पति जैसे पति ने कहा कि लड़का चाहिए। उसे लगा कि वह मशीन है जो बच्चे जनती है। वह अपनी मशीन में वह यंत्र तलाशने लगी जिसके ज़रिए पुरुष समाज के पुरुष ही बाहर निकलते हैं। उसने देखा कि एक महिला डॉक्टर उसके बग़ल में खड़ी है। वह डर गई। उसने महिला डॉक्टर से कहा, ‘‘आप मत छुओ वरना आप जैसी कोई होगी, मुझे होगा चाहिए। पुरुष समाज से पुरुष को बोलो मुझे छुए, आप नहीं।’’ वह डॉक्टर बहुत अचरज से उसे देखती रही। उसने अपने व्यस्त रहने में बहुत कम बाहर वालों से बातें की थीं। बहुत कम में वह जब भी बहुत कम बोलती, उसे लगता कि उसे बहुत कम बोलना भी कम करना पड़ेगा। जब पहला लड़का हुआ तो उसने हाथ जोड़े और अपनी माँओं जैसी माँ को धन्यवाद कहा कि मशीन ने सही काम किया। उसने पुरुष समाज में एक और स्वस्थ पुरुष दिया। फिर उसके पति जैसे पति ने कहा कि देखना इसकी शक्ल मुझ पर जाए। उसने अपने शरीर जैसी दिखने वाली मशीन को देखा फिर उसने उस स्वस्थ पुरुष को देखा जो अभी-अभी उसकी मशीन से निकला था। अभी-अभी जन्मे बच्चे-सा दिखने वाला वह बच्चा बिल्कुल अभी-अभी जन्मा-सा लग रहा था। वह इस वक़्त किसी के जैसा नहीं लग रहा था। वह उसके एकदम पास आ गई देखने कि वह कैसा दिखता है, फिर उसने सोचा कि वह कैसा दिखती है? उसने अपनी शक्ल कब से नहीं देखी थी। वह नदी किनारे पैदा हुई थी। बचपन में नदी में अपना हिलता चेहरा देखना उसे बहुत पसंद था। जब अपने वक़्त पर आने वाली डॉक्टर अपने वक़्त पर पहुँची तो उसने उससे पूछा, “मैं कैसी दिखती हूँ?”
“अच्छी।” डॉक्टर अपनी डॉक्टरी में व्यस्त रहते हुए बोली।
“क्या यह भी अच्छा दिखता है?” उसने पूछा।
“हाँ।” डॉक्टर मुस्कुराई।
यह सुनते ही, वह डर गई। वह अच्छी, उसका बच्चा अच्छा, मतलब वह उस पर गया है?[adinserter block="1"]
उसे किचन चाहिए था। वह चाहती थी कि वह जल्दी से उकड़ू बैठ जाए और किचन में चली जाए। वह बिस्तर से उठी और उकड़ू बैठकर उस अस्पताल के कमरे में पोंछा लगाने लगी। उस डॉक्टर ने उसे बहुत उठाने की कोशिश की, पर वह बस लगातार अपने काम में व्यस्त होना चाह रही थी। पोंछा लगाते-लगाते उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और सब चुप हो गया।
बहुत वक़्त तक उसने अपने बच्चे को नहीं देखा। बहुत बाद में अपने पति जैसे पति को बच्चे के साथ खेलते देखा तो उसे चैन आया। अच्छा हुआ कि वह मेरे जैसा नहीं दिखता है, उसने गहरी साँस ली थी। वह अच्छी दिखती है। बच्चा शायद उसके अंधविश्वास के भगवान पर गया है जिसकी शक्ल उसके पति जैसे पति से मिलती है। उसने तय किया कि जो भी अच्छा नहीं है, वह सब सही है; जो अच्छा है, उसे अपने से दूर रखना है। उसके बाद वह आईने के सामने से यूँ निकल जाती मानो आईने में कोई है ही नहीं।
दिन बीतते गए। जीवन सरीखा सूरज उसके घर के चक्कर काटता रहा। सुबह होती तो वह दाएँ दिखता। वह जब तय जैसे तय कामों में व्यस्त होती तब वह ऊपर दिखता। वह व्यस्तता के बीच में उसे एक बार देख लेती कि वह ऊपर चढ़ आया है। वह जब बाएँ दिखकर भाग जाता, तब उसे एक साँस की फ़ुर्सत मिलती। रोज़ का यही क्रम था। जीवन सरीखे सूरज के चक्कर काटते रहने में, बेटा सुनहरे भविष्य के पहाड़ काटने दूर शहर चला गया। पति जैसा पति रिटायर होकर नदी किनारे एक छोटे शहर में चला आया। वह नदी किनारे पैदा हुई थी। वह इस बात से बेहद ख़ुश रहती कि नदी आस-पास ही है। पर पति जैसे पति को किसी पर विश्वास नहीं था, उसे लगता था कि वह घर से निकलेगा और चोर आकर चोरी कर लेगा या दूध वाला दूध में पानी डालकर दे देगा या सब्ज़ी वाला टमाटर के बजाय बैंगन बेचकर चला जाएगा। वह घर को क़िला मानता और ख़ुद को राजा, सैनिक, दरबान सब कुछ।
उसे बाहर निकलने और घूमने का बड़ा शौक़ था, लेकिन वह अपने तय जैसे कामों में लगातार व्यस्त रहती। पर कभी-कभी तय जैसे कामों को वह अपने तय समय से पहले निपटाकर, कुछ देर के लिए ही सही नदी किनारे चली जाती और नदी में हाथ डाले बैठी रहती। वहाँ उससे उसकी बहन मिलने आती। वह उससे छोटी थी कि बड़ी थी इस उम्र में आकर यह बात गौण हो चुकी थी। वह बहन थी जिसे उसका पति जैसा पति बिल्कुल पसंद नहीं करता था। वह अपने पति जैसे पति के सामने उसकी बात भी नहीं कर सकती थी, सो वह छुपकर उससे मिलती। कभी-कभी जब वह नदी से मिलने आती, तब उसे उसमें अपना चेहरा साफ़ दिखता। इस नदी जैसी नदी के पानी में बहुत कम ही उसे उसका चेहरा साफ़ दिखता, जब दिखता उसे लगता कि वह नहीं उसकी बहन बैठी है। वह नदी किनारे पैदा हुई थी।
एक दिन नदी जैसी नदी में वह हाथ डाले बैठी थी। पानी बह रहा था सो वह भी बह रही थी। उसकी बहन आई।
“तेरा नाम क्या है?” बहन ने पूछा।
“शमा।”
“और मेरा।”[adinserter block="1"]
“सखी।”
“हाँ।” बहन ने कहा।
“क्यों पूछा?”
“मुझे भूलने की बीमारी हो रही है शायद, मुझे आजकल कम चीज़ें याद रहती हैं। बहुत ज़ोर डालो तब कुछ याद आता है।”
“नाम तो अच्छे से याद है।” उसने कहा।
“चल गोलगप्पे खाने चलते हैं।”
“नहीं आज नहीं।”
“फिर कब?”
“जब मैं पूरे दिन के तय काम आधे दिन में ख़त्म कर दूँगी तब।”
“अरे पर आज तू शनिवार को कैसे आ गई?” उसकी बहन ने पूछा।
“आज ये बहुत देर से सोकर उठे, इसलिए मेरा सुबह का पूरा तय काम जल्दी ख़त्म हो गया।”
“जाते हुए टमाटर ख़रीदकर ले जाना मत भूलना।”
“हाँ इनको टमाटर की चटनी बहुत पसंद है।”
“तेरे को याद है कि कैसे बचपन में पेटीकोट का फुग्गा फुलाकर हम नदी में तैरते थे।”
“हाँ! मैं दो बार डूबते-डूबते बची थी।”
“पिछली बार तूने कहा था एक बार।”
“हाँ-हाँ याद आया एक बार ही।” शमा शरमाते हुए बोली।
“वो बता ना जब पानी के अंदर गई थी तब क्या हुआ था?”
“कितनी बार तो सुन चुकी है।”
“फिर से बता दे। तुझे भी तो अच्छा लगता है।”
“पहले मैं तड़फड़ाती रही साँस लेने के लिए, फिर जब बहुत पानी पी लिया तो नीचे जाने लगी। तब मैं आराम से साँस ले रही थी। जब पानी के बहुत अंदर गई थी तो मैंने आँखें खोल ली। वहाँ सारा कुछ चमकीला था। सारी मछलियाँ काम कर रही थीं- पुरुष मछली और महिला मछली। मुझे लगा कि मैं भी मछली हूँ, पर पानी के अंदर मेरे पास कोई काम नहीं था। फिर मैंने भी उनकी तरह अपनी आँखें फाड़ लीं और इधर-उधर चीज़ें ढूँढ़ने में लग गई। [adinserter block="1"]फिर पता चला कि सारी मछलियाँ खाना ढूँढ़ रही हैं। मैं खाना ढूँढ़ने में छोटी मछलियों का साथ देने लगी। तभी वह हरे, नीले और पीले दानों वाली बड़ी-सी मछली पता नहीं कहाँ से आई। मेरी आँखों के ठीक सामने आकर मुझे घूरने लगी। मैं मुस्कुराई तो वह भी मुस्कुरा दी। मैंने कहा कि कैसी हो? तो उसने कहा कि मुझे पेट में दर्द है। मैंने कहा कि घर में पेट दर्द की दवा है। उसने कहा कि तू दवा ला तो मैं तुझे कुछ बताऊँगी- एक तिलिस्म है तेरे आस-पास! वह कुछ कह ही रही थी कि तभी पिक्कू भैया ने खींचकर बाहर निकाल लिया। मैं चिल्लाती रही कि मछली मैं कल दवा डाल दूँगी, तुम पी लेना।”
“पिक्कू भैया भी पगले हैं।” बहन ने कहा।
“हाँ, मैं कहती रही कि मैं मछली थी और अपनी मछली से बात कर रही थी, लेकिन पिक्कू भैया ने तो चाँटा जड़ दिया।”
“तेरे को माँ की क़सम नहीं खानी थी।” बहन ने कहा।
“मै क्या करती पिक्कू भैया पीछे पड़ गए कि तूने नदी में क़दम रखा तो तेरी माँ मरी समझ।”
“पर तूने क़दम रखा ना।”
“नहीं! जब मैं देर रात घर से भागकर आई तो मैंने पैर पीछे रखे और सिर्फ़ सिर पानी में डाला, और अपनी मछली को पेट दर्द की दवा दी।”
“तेरे कारण माँ तो मर गई ना।” बहन ने कहा और वह चुप हो गई।
“अच्छा सुन नदी से हाथ निकाल।” उसकी बहन ने कहा, उसने तुरंत नदी से हाथ बाहर निकाला।
“अब वापस डाल दे।” उसने वापस हाथ डाल दिया।
“अब बता तूने उसी नदी में हाथ वापस डाला जिस नदी से हाथ बाहर निकाला था?”
“मतलब?” उसने पूछा।
“मतलब नदी तो बह रही है, तू एक ही नदी में वापस हाथ नहीं डाल सकती।”
इस बात पर उसने झूठा छींक दिया। उसकी बहन को चुप होना पड़ा। वह उठी और चलते हुए जब नदी बहुत पीछे छूट गई तो दुबारा झूठा छींक दिया। फिर तुरंत घर आकर बहुत मीठी चाय बनाकर पीपल को चढ़ा दी और आधे दिन के बचे में, आधे दिन के तय काम करने में व्यस्त हो गई।
एक दिन वह घर में दबे छुपे जालों को साफ़ करते हुए घर के कोनों में उकड़ू गुमी हुई थी कि दरवाज़े पर उसका बच्चों जैसा बच्चा खड़ा दिखा। वह अब अपने बाप के क़द से थोड़ा बड़ा हो चला था। उसका पेट भी निकल आया था और उसका माथा थोड़ा बड़ा हो गया था। शमा को उसे देखकर ख़ुशी हुई कि वह एकदम अपने बाप जैसा दिखने लगा है।[adinserter block="1"] उसने अपनी माँ को देखा और कहा कि देख कौन आया है। वह जब दरवाज़े पर से हटा तो उसने देखा कि पीछे एक लड़की खड़ी है। उस लड़की ने नीला जींस और पीली टी-शर्ट पहन रखी थी। उसने ऊपर से हरे रंग की जैकिट डाली हुई थी। उसने दोनों को देखकर बैठने के लिए जगह दी और भीतर किचन में चाय बनाने चली गई। लड़के ने पूछा कि पिताजी कहाँ हैं, कमरे में तो नहीं दिख रहे? वह चौंक गई और फिर उसने घर जैसी गुफा में यहाँ-वहाँ ढूँढ़ा तो ग़ुसलख़ाने की दीवार से टिककर वह खड़े थे। पैजामा नीचे था और वह पेशाब करने का प्रयत्न कर रहे थे। शमा ने पैजामा चढ़ाकर उनसे कहा कि आपका बेटा आया है। जब उसने दूसरी बार कहा तब वह धीमे क़दमों से चलकर बाहर आए। लड़के ने बाप के पैर छुए। लड़की ने बस नमस्ते किया। वह जब चाय लाई तो उसने सुना कि वह कुछ दिन यहाँ रहेगा। उसने घर का एक कमरा दोनों के लिए साफ़ कर दिया। जब वह चाय के ख़ाली कप वापस लेने गई तो उसने देखा कि लड़की ने चाय छोड़ दी है।
उसने पूछा, “दूध दे दूँ?”
लड़की ने हँसकर कहा, “नहीं मैं शक्कर और दूध नहीं पीती, काली चाय मिलेगी?”
वह बहुत सोचती हुई किचन में वापस आई और सोचा यहाँ काली चाय तो कभी बनी नहीं। उसने आधी चाय जैसी काली चाय बनाई और उसे दे दी। उसने कहा कि अच्छी है। शमा ने कहा कि तुम्हें आधी चाय पसंद है? वह लड़की हँसने लगी। बाप ने उसे पागल कहा, बेटे ने सहमति जताई और वह वापस किचन में आकर रात के खाने की तैयारी में लग गई।
लाल टमाटर की चटनी, ताज़ा भिंड़ी, दाल, थोड़े बैंगन और प्याज़ तथा खीरे का सलाद, पतली रोटी और बासमती टुकड़ा चावल। वह इन्हें मंद-मंद दोहराती हुई चुप संवाद के साथ, काम में जुट गई। अब उसका सिर तभी उठेगा जब वह ये सब बनाकर किचन साफ़ करके सारा कुछ डिनर टेबल पर सजा देगी। उसने भिंड़ी और टमाटर काटने से और साथ ही दाल चढ़ा देने से खाना बनाना शुरू किया। तभी वह नीली जींस और पीली टी-शर्ट वाली लड़की किचन में आई। शमा ने देखा उसने हरा जैकिट उतार दिया है। उसके किचन में अरसे से कोई नहीं आया, सो वह एकदम कोने में जाकर चुपचाप टमाटर और भिंडी काटने लगी। उस लड़की ने कहा कि मैं मदद करूँ? शमा ने सिर्फ़ अपना सिर न में हिलाया।
“तुम्हें भूख लगी है? बस अभी हो जाएगा।” शमा ने कहा।
“नहीं बिल्कुल नहीं। वे दोनों सो गए हैं और मैं बोर हो रही थी तो सोचा आपसे बात करूँ।”
“क्या बात?” शमा को लगा कि उससे क्या बात करनी है।
“नहीं ऐसे ही! मुझे आपका ह्यूमर अच्छा लगा- आधी चाय!” वह लड़की फिर हँसने लगी।
“बना दूँ? तुम्हें चाहिए?” शमा ने पूछा।
“नहीं, मैं तो... जाने दीजिए।”
वह लड़की फ़्रिज से टिककर खड़ी हो गई और दूर से शमा को देखती रही। शमा को लगा कि वह लड़की उसका कूबड़ देख रही है। वह सीधी हुई, फिर उसे लगा कि कहीं कुछ ग़लत न हो जाए। वह फिर वापस झुकी और जल्दी-जल्दी टमाटर और भिंडी काटने लगी।
उसे निरंतर देख रही आँखों से समस्या थी। वह बज़ार जाती तो उसे लगता कि पूरा बाज़ार अपना काम-धाम छोड़कर उसे देख रहा है। वह चलती और रुकती और चलती और रुकती। उसके पास नदी पहुँचने का चोर रास्ता था। बाज़ार जाना वह देर तक स्थगित रखती- दूध और सब्ज़ी वाले ही घर आ जाते। बाज़ार में पुरुषों की नज़रें बहुत पैनी होतीं। काश गोलगप्पे वाला भी बज़ार के बजाय उसके चोर रास्ते पर खड़ा होता तो वह रोज़ गोलगप्पे खाती!
कुछ देर की असहजता के बाद उसने पूछ लिया, “क्या है?” वह पूछ सकती थी क्योंकि वह भी एक औरत थी। पुरुष होता तो वह पोटली बनकर अपने किचन में तब तक पोंछा लगाती, जब तक वह चला नहीं जाता।
“आप कभी शहर अपने बेटे से मिलने क्यों नहीं आतीं?”
“क्यों?”
“ऐसे ही घूमने।”
“नहीं।”
“आप कभी बाहर गई हैं?”
“नदी जाती हूँ कभी-कभी चोरी से, तुम उनको मत बोलना, आज ही गई थी।”
“क्या किया वहाँ?”
“कुछ नहीं! अपनी बहन...” शमा के मुँह से बहन का ज़िक्र निकल गया और वह चुप हो गई।
“आपकी बहन भी है? सुमित ने तो कभी नहीं बताया! कहाँ रहती हैं?”
शमा ने तुरंत छींक दिया। पर यह बात उस लड़की को बिल्कुल नहीं पता थी कि छींकने के बाद चुप हो जाना होता है। वह बार-बार पूछती रही। शमा ने जल्दबाज़ी में दाल का कुकर उतारा और बहुत मीठी चाय पीपल के लिए बनाना शुरू किया। उस लड़की ने शमा का हाथ पकड़कर उसे अपनी तरफ़ घुमा लिया।
“आप इतना डरती क्यों हैं?”
तभी सुमित किचन में आया।
“क्या हुआ?” उस लड़की ने शमा का हाथ तुरंत छोड़ा।[adinserter block="1"]
“मैं तुम्हारी माँ का हाथ बँटाने की सोच रही थी।”
“उन्हें ज़रूरत नहीं है। वह कर लेती हैं काम। चलो तुम्हें गाँव दिखा दूँ।”
“आप भी चलेंगी?” उसने शमा से पूछा।
“अरे स्नेहा, वह कहीं नहीं जातीं, तुम चलो।”
सुमित ने स्नेहा का हाथ पकड़ा और खींचकर बाहर ले गया। स्नेहा की आँखें जाते हुए भी शमा पर टिकी रहीं। स्नेहा के जाते ही शमा ने पीपल को चाय चढ़ाने के पहले, दूसरी बार का झूठा छींका और चाय चढ़ाकर पीपल पर हाथ जोड़ लिए।
रात का खाना सजा हुआ था। शमा दाल में एक रोटी मीस रही थी। कम दाँत होने की वजह से पति जैसे पति को चबाते नहीं बनता था, सो शमा को उन्हें हर चीज़ मीसकर देनी होती थी।
“ये भिंडी कितनी स्वाद बनी है! मैं भिंडी बिल्कुल पसंद नहीं करती हूँ, पर ये तो बहुत ही स्वाद है।” स्नेहा खाते हुए बोली। शमा रोटी मीस चुकी थी। उसने थाली उनके पास सरका दी और ख़ुद उठकर किचन में चली गई। भीतर उसने अपने लिए दाल-चावल मीसे और एक कच्चा टमाटर हाथ में रख उसे हर कौर के साथ खाने लगी। कुछ देर में जब पति जैसे पति के खाँसने की आवाज़ आई तो वह बाहर आकर उन्हें उनके बिस्तर तक छोड़ आई। जब सुमित और स्नेहा अपने कमरे में जा चुके थे, तब वह सारा सामान वापस किचन में ले गई। उसे किचन साफ़ करने में बहुत देर हो गई। जब सारा तय काम ख़त्म करके वह बाहर आई तो देखा कोई आँगन में बैठा है। वह बाहर आई तो देखा उसकी बहन आँगन में उकड़ू बैठी हुई है। शमा ने बहुत धीरे से दरवाज़ा अपने पीछे बंद किया और अपनी बहन के बग़ल में आकर बैठ गई।
“सखी, तू यहाँ क्या कर रही है?” उसने पूछा।
“देख तूने मना किया था फिर भी मैं आ गई।”
“मुझे पता है आजकल तुझे भूलने की बीमारी हो रही है।”
“नहीं मुझे पता था कि मैं आ रही हूँ और पता होते हुए भी कि मुझे नहीं आना है, मैं आ गई।”
“देख अभी बहुत हलचल है घर में।”
“मुझे बहुत डरावना सपना आया।”
शमा चुप हो गई। दोनों देर तक अँधेरी ज़मीन में देख रहे थे, मानो सपना घास के बीच में से कहीं आएगा।
“बहुत घबराहट हो रही है।” बहन ने कहा।
“तू सपना बोल।” वह घास की तरफ़ आँख गड़ाए थी।
“घोड़ा!” बहन ने कहा।
“हाँ घोड़ा।”[adinserter block="1"][adinserter block="1"]
“दिखा तुझे?”
“हाँ दिखा।”
“कत्थई रंग का सुंदर घोड़ा!”
“हाँ कत्थई रंग का सुंदर घोड़ा।”
“कत्थई रंग का सुंदर घोड़ा सपने में आया। मैं और घोड़ा दोनों एक साथ एक ख़ाली मैदान में लेटे हुए थे। मैं उसके गाल और गर्दन के बीच कहीं सिर टिकाए पड़ी हुई थी। हर कुछ देर में हम दोनों एक-दूसरे से स्नेह का इज़हार करते। वह घोड़ा प्यार से अपनी गर्दन घुमाता और मेरे गालों से लगा देता। मैं देर तक उसका कोमल स्पर्श अपने गालों पर महसूस करती रही। कुछ देर में घोड़ा उठा और उसने मुझे माथे और गालों पर चूमा। मै वहीं चित्त पड़ी रही। फिर वह धीरे-धीरे एक कमरे की तरफ़ बढ़ गया। वह यही घर था। मुझे पता चला कि यह घोड़ा तो सालों से हमारे पीछे वाले कमरे में क़ैद है। जब घोड़ा उस कमरे के दरवाज़े से जैसे-तैसे अंदर जा रहा था तो वह एक बार रुका। मुझे लगा वह पलटेगा, पर वह नहीं पलटा। फिर तुम्हारे ये एक डंडा लेकर आए और घोड़े के कमरे में चले गए। उन्होंने पीछे से दरवाज़ा बंद कर दिया।” बहन ने इतना बोलकर घास पर से अपनी आँखें हटा लीं और वापस उकड़ू बैठ गई। उसने अपनी गर्दन अपने दोनों पैरों के बीच फँसा दी।
“मैंने इनका डंडा तो बहुत पहले पानी की टंकी के ऊपर छुपा दिया है। ये कभी-कभी उसे ढूँढ़ते हैं, फिर थकने के बाद मुझे कहते हैं तो मैं भी मेरे थकने तक यहाँ-वहाँ ढूँढ़ती रहती हूँ।”
“पर जब वह घोड़ा चीख़ रहा था तो उसकी आवाज़ अजीब-सी थी, जैसे वह गा रहा हो। और पता है...”
“रुक जा मैं देखकर आती हूँ कि सब सो गए हैं कि नहीं।”
शमा भीतर आई तो देखा पति जैसा पति ख़र्राटे ले रहा है। पर सुमित के कमरे का दरवाज़ा हल्का खुला हुआ था। शमा को अचानक लगा कि छत पर कोई चल रहा है। वह दबे पाँव ऊपर गई और धीरे से छत का दरवाज़ा खोला तो देखा वहाँ स्नेहा एक कोने में खड़ी होकर सिगरेट पी रही है। वह भागती हुई नीचे आई तो देखा बाहर बहन नहीं है। उसने आँगन से ऊपर देखा तो स्नेहा उसे देख रही थी—ऐसे जैसे वह बहुत देर से उसे देख रही है। शमा ने बाहर के दरवाज़े पर कुंडी लगाई और अपने पूजा वाले कमरे में आकर सो गई।
जैसे बहुत प्रयत्न से एक घर, घर बनता है। बहुत प्रयत्न से एक जीवन रेंगते हुए कटता है।
धूल मानो समुद्र में उठती लहरें हों। वह रोज़ बाहर फेंकने पर रोज़ भीतर आ जाती है। शमा को लगता कि सालों से चली आ रही समुद्र और ज़मीन की लड़ाई में अंत में समुद्र ही जीतेगा, क्योंकि वह थकता ही नहीं है। वह रोज़, लगातार, धीरे-धीरे भीतर आने की कोशिश में लगा रहता है।
सुबह नाश्ते में सुमित बाहर से समोसे और जलेबी लाया। शमा सबके लिए चाय ले आई। सबने जलेबी और समोसे चटखारे मारकर खाए। पति जैसे पति को जलेबी मना थी, पर सुमित ने एक खिला दी। फिर वह दिन भर बिस्तर और बाथरूम के बीच घूमता रहा। उस घूमने में शमा के तय जैसे काम बहुत बढ़ गए। वह नदी जाना चाहती थी। जब दोपहर में पति जैसा पति अपने पलंग पर पस्त पड़ गया तो उसने उसे नींद की गोली खिला दी। किचन पूरा बिखरा पड़ा था और अभी दोपहर का खाना बनाना बचा था। तय जैसे काम बढ़ जाने पर शमा परेशान नहीं होती, बल्कि उसे एक युद्ध की तरह लेती। बहुत प्रयत्न से घर, घर जैसा बना रहता था।
उस युद्ध के बीच स्नेहा किचन में आई।
“मुझे भिंडी बनाना सिखा दो।”
“आज तो मैं भिंडी नहीं बना रही हूँ।”
“तो क्या बना रही हैं?”
“कढ़ी-चावल और हरी मिर्च की चटनी।”
“चलिए, मैं ये तो सीख ही लेती हूँ।”
शमा कुछ नहीं कह पाई। स्नेहा ने हाथ बँटाने की इच्छा से सिंक में रखे बर्तनों को माँजना शुरू कर दिया। शमा को यह ठीक लगा। तय जैसे बहुत से तय कामों में से एक काम कम है अब। पहली बार शमा को किचन में किसी का प्रवेश बहुत बुरा नहीं लगा। वह मंद-मंद मुस्कुराई। शमा की मुस्कुराहट की आहट पाकर स्नेहा भी सहज हो गई। बर्तन माँजते हुए स्नेहा एक फ़िल्मी धुन की सीटी बजाने लगी। शमा ने पहली बार स्नेहा को ध्यान से देखा—नीली जींस, पीली टी-शर्ट और हरी जैकिट—शमा उसे देख ही रही थी कि स्नेहा पलटी और बोली, “मेरा पेट बहुत दर्द कर रहा है मछली।”
शमा दंग रह गई। शमा स्नेहा के क़रीब आई।
“क्या हुआ?” स्नेहा ने पूछा।
“तुम्हारे पेट में दर्द है?” शमा ने पूछा।
“नहीं, थोड़ा अटपटा लग रहा है, पर ठीक है।”
“मेरे पास एक दवा है, अभी देती हूँ।”[adinserter block="1"]
“नहीं, मुझे नहीं चाहिए।”
शमा ने पीछे की अलमारी से एक शीशी निकाली। पानी में घोलकर दवा स्नेहा के पास लाई। स्नेहा ने पहले मना किया, फिर वह शमा की ज़िद के आगे हार गई और एक झटके में उसने वह काढ़ा पी लिया। काढ़ा बहुत कड़वा था। स्नेहा ने अपना मुँह सिकोड़ लिया। शमा को स्नेहा का मुँह देखकर हँसी आई और उसके मुँह से निकला, “मछली!” और वह फिर हँसने लगी।
“सुमित बिल्कुल आपके जैसा हँसता है।” स्नेहा ने कहा।
“नहीं वह इनके जैसा है।”
“दिखता बिल्कुल अपने पापा की तरह है, पर हँसी आप जैसी है।”
“नहीं वह हँसता भी इनके जैसा ही है।” शमा यह बात ग़ुस्से में कहना चाह रही थी, पर वह बहुत ख़ुश थी। उसने अपनी मछली को दवा पिलाई थी।
“मैंने रात में आपको आँगन में बैठे देखा था।” स्नेहा ने कहा।
“ये देखो पहले हम बेसन लेते हैं और उसी में नमक और मिर्ची मिला देते हैं।” शमा ने बात तुरंत काट दी फिर उसने स्नेहा का हाथ पकड़ा और उसकी उँगलियाँ बेसन में डाल दीं।
“चलो अब तुम बनाओ और मैं तुम्हें बताती जाऊँगी।”
शमा बताती गई और स्नेहा खाना बनाती गई। कुछ देर में दोनों को बताने और खाना बनाने में मज़ा आने लगा। कढ़ी बनने के बाद शमा ने कड़छी से कढ़ी अपने हाथ पर डाली और उसे चखा। स्नेहा उसे देखती रही।
“कैसी है?” स्नेहा ने बड़ी उत्सुकता में पूछा।
“थोड़ी तीख़ी हो गई है, पर सबको पसंद आएगी।”
शमा के हाथों पर बची हुई कढ़ी को स्नेहा ने चाट लिया। उसे लगा कि ठीक ही बनी है। किचन साफ़ करते हुए स्नेहा फिर सीटी बजाने लगी। शमा उसे देर तक देखती रही।
वह नदी किनारे पैदा हुई थी। नदी आस-पास ही है का एहसास उसके शरीर में हरदम रहता था। कल के कढ़ी-चावल सबको पसंद आए थे। पुरुषों के समाज में ऐसे कामों की सबसे ज़्यादा तारीफ़ होती है। सबने स्नेहा के हुनर की तारीफ़ की। स्नेहा की गोद में, वह और अच्छा खाना बनाएगी का सपना आकर गिर गया था।[adinserter block="1"]
आज के दिन के तय कामों में सूरज उसे सीधा ऊपर दिखा। पति जैसे पति की तबियत हिली हुई थी तो वह सो रहा था। बार-बार गुफा में गुमे हुए प्रेत को उसके पलंग तक पहुँचाने के तय काम उसे नहीं करने पड़े थे, वह वक़्त उसका बच गया था। उसने वक़्त देखा कि उसके पास थोड़ा टाइम है। वह भागकर अपनी नदी से मिलने गई। बहुत देर तक उसने नदी में हाथ नहीं डाला। वह नदी जैसी नदी के बग़ल में मुस्कुराते हुए उसका बहना देखती रही। उसने देखा उसकी बहन उससे मिलने अभी तक नहीं आई। वह नदी के पास गई और नदी के पानी में अपना हाथ डाल दिया। आज वह थमी हुई थी सो नदी जैसी नदी भी उसके साथ थम गई थी। उसकी बहन ने उसके कंधे पर हाथ रखा। वह उसके बग़ल में बैठी हुई थी।
“अरे तू कब आई?” शमा ने पूछा।
“बस अभी! आज गोलगप्पे खाने चलें?”
“नहीं आज तो बिल्कुल टाइम नहीं है।”
“आज जाते वक़्त लौकी ले जाना मत भूलना।”
“लौकी के साथ कुछ और भी ले जाना पड़ेगा, वरना लगेगा कि सिर्फ़ लौकी लेने में इतना टाइम लग गया?”
“हाँ! अदरक, लहसुन, धनिया भी ले लेना।”
“...थोड़ी हरी मिर्च भी।” शमा मुस्कुराते हुए बोली।
“आज तू इतना चहक क्यों रही है?” बहन उसके क़रीब आकर बोली।
“तुझे तो सब पता होता है तू बता।”
“आज तुझे कुछ बहुत पुरानी बात याद आ गई है।”
“हाँ।”
“बता कौन-सी?”
“तू बता कौन-सी?” शमा ने अपनी बहन से लड़ियाते हुए पूछा।
“तुझे याद आ गया कि तेरी मछली तुझसे क्या कहना चाहती थी।”
शमा गंभीर हो गई। उसने नदी जैसी नदी से हाथ बाहर निकाला। नदी जैसी नदी जो अब तक स्थिर थी वापस बहने लगी थी।
“मैं आज सुबह से यही सोच रही हूँ।”
“पिक्कू भैया भी पगले ही हैं, ऐन वक़्त पर तुझे बाहर खींच लिया।” उसकी बहन ने कहा।
“जब मैं मछली को दवाई पिलाने गई थी तो उसने मुझसे कुछ कहा था- तिलिस्म, मंज़र, जाल, धोखा... मैं बहुत छोटी थी, उन बातों को समझ नहीं पाई। और आजकल तो मैं सब कुछ भूलती जा रही हूँ।”
“दिमाग़ पर ज़ोर लगा, ध्यान दे। अच्छा ऐसा कर शुरू से बता, जब तू डूब रही थी और तूने बहुत सारा पानी पी लिया था वहाँ से।”
“तेरे को बताऊँ कि मैं क्यों ख़ुश हूँ?”
“बोल भी दे।”
“अभी मेरी मछली मुझसे मिलने वापस आई है। वह उस वक़्त दवा नहीं खा पाई थी शायद। उसके पेट में अभी भी दर्द था। मैंने उसे दवा पिला दी है।”
“तूने अपनी मछली को दवा पिला दी?”
“हाँ।”
सखी उठकर नाचने लगी। शमा देर तक उसे देखकर हँसती रही। कुछ देर में शमा ने सखी का हाथ पकड़ा और अपने पास खींच लिया।
“सुन अब बस मुझे उससे पूछना है कि उसने मुझे उस दिन क्या बताया था। एक बार बस वह पता चल जाए। है ना?”
“ना, यह मत पूछना।”
“तू डरती है।”
“मैंने सपने में घोड़ा देखा है, मत पूछना।”
“देख मैं तेरे से एक और बात पूछना चाहती हूँ, अगर मछली ख़ुद मेरे पास...”[adinserter block="1"]
इतना सुनते ही उसनी बहन ने छींक दिया। शमा ने सखी की तरफ़ देखा। सखी इशारे से मना करने लगी। शमा अपनी बहन से बहुत कुछ कहना चाह रही थी। उसने इशारे से अपनी बहन से कहा कि एक बार और छींक, पर उसने नहीं छींका। दोनों देर तक छींक की चुप्पी में नदी किनारे बैठे हुए एक-दूसरे को देखते रहे। जब शमा, सखी को छोड़कर जा रही थी तो दूर से उसने अपनी बहन को नदी किनारे बैठे हुए देखा। सखी को छींक आ ही रही थी कि उसने कसकर मुँह पर हाथ रख दिया और छींक रोक ली। शमा वापस घर चली गई।
बहुत-सी त्रासदियाँ अगल-बग़ल ही घट रही होती हैं। बड़ी त्रासदियों का विरोध सदियों तक लोग करते नहीं थकते, पर छोटी-छोटी त्रासदियाँ जो हमारे ही घरों में सालों से घट रही होती हैं, हमें बहुत सामान्य दिखती हैं। दूर से पूरा घर स्वस्थ दिखता है, पर त्रासदी नज़र नहीं आती। यह त्रासदियाँ सदियों की हैं, इसलिए यह अब घरों की दीवारों का हिस्सा लगने लगी हैं। सीलन, दरारें, धूल के साथ साँस लेती, इन्हें कितना भी साफ़ करो, यह कभी ख़त्म नहीं होती।
दबे-कुचले जीवन में भी एक रोशनदान सपनों-सा खुला होता है। उस रोशनदान से आ रही रोशनी पूरे घर में उजाला नहीं करती है, पर अगर उसमें से झाँको तो उतना ही बड़ा आसमान वह भी भीतर पाले हुए है। जहाँ से अगर कोई चाहे तो निकलकर खुले आसमान में उड़ सकता है।
शमा को घर वापस आते-आते देर हो गई। वह जब पहुँची तो स्नेहा टेबल पर खाना लगा रही थी। पति जैसा पति घूरकर उसे देख रहा था। सुमित ने भी अपना ग़ुस्सा दोनों कंधे उचकाकर जताया। शमा भागती हुई किचन में गई, पीछे से स्नेहा आई।
“सब लगा दिया है, आप बस पापाजी के लिए तो पतली रोटी सेंक लाओ।”
शमा आटा गूँथने लगी। स्नेहा जल्दी से सलाद काटने लगी।
“मैंने पापाजी को इतना नाराज़ नहीं देखा पहले। वह कुछ ढूँढ़ रहे थे।”
“जो ढूँढ़ रहे थे मिला उन्हें?” शमा ने डरते हुए पूछा।
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