सारदेंदु बंद्योपाध्याय की विशिष्टता उनके जासूसी लेखन के अतिरिक्त उनकी अद्वितीय लेखन-शैली के साथ-साथ उनके चरित्रों का सूक्ष्म जीवंत चित्रण है। बीसवीं सदी के प्रारंभ के बंगाल में लेखक और पाठक समान रूप से अपराध और जासूसी साहित्य को नीची निगाहों से देखते थे। सारदेंदु बंद्योपाध्याय ने पहली बार उस लेखन को सम्मानीय स्थान दिलाया। इसका एक बड़ा कारण यह था कि उनके पूर्व के लेखक पंचकोरी दे और दिनेंद्र कुमार अंग्रेजी के जासूसी लेखक आर्थर कोनान, डोएल, एडगर एलन पो, जी.के. चेस्टरसन तथा अगाथा क्रिस्टी से प्रभावित होकर लिखते थे, जबकि सारदेंदु के चरित्र और स्थान अन्य जासूसी उपन्यासों के विपरीत, भारतीय मूल और स्थल के परिवेश में जीते हैं। उनके लेखन का विनोदी स्वभाव पाठक को अनायास कथा के दौरान गुदगुदाता रहता है। ब्योमकेश का साहित्य न केवल अभूतपूर्व जासूसी साहित्य है बल्कि सभी समय और काल में, समाज के सभी वर्गों के युवाओं और वृद्धों में समान रूप से सदैव लोकप्रिय बना रहा है। पाठक इन रहस्य भरी कहानियों को उनके जीवंत लेखन के लिए, अंत जानने के बावजूद, बार-बार पढ़ने के लिए लालायित रहता है। किसी भी लोकप्रिय साहित्य में यह एक अद्वितीय उपलब्धि मानी जाती है और यही उपलब्धि सारदेंदु के ब्योमकेश बक्शी साहित्य को सत्यजीत राय के प्रसिद्ध उपन्यास ‘फेलूदा के कारनामे’ के समान हमारे समय के ‘क्लासिक’ का स्थान दिलाती है|
ब्योमकेश से मेरी पहली मुलाकात सन् 1925 की वसंत ऋतु में हुई थी। मैं युनिवर्सिटी से पढ़कर निकला था।
मुझे नौकरी वगैरह की कोई चिंता नहीं थी। अपना खर्च आसानी से चलाने के लिए मेरे पिता ने बैंक में एक बड़ी रकम जमा कर दी थी, जिसका ब्याज मेरे कलकत्ता में रहने के लिए पर्याप्त था। इसमें बोर्डिंग हाउस में रहना, खाना-पीना आसानी से हो जाता था। इसलिए मैंने शादी वगैरह के बंधन में न बँधकर साहित्य और कला के क्षेत्र में अपने को समर्पित करने का निर्णय लिया। युवावस्था की ललक थी कि मैं साहित्य और कला के क्षेत्र में कुछ ऐसा कर दिखाऊँ,जो बंगाल के साहित्य में कायापलट कर सके। युवावस्था के इस दौर में बंगाल के युवाओं में ऐसी अभिलाषा का होना कोई आश्चर्य नहीं माना जाता, पर अकसर होता यह है कि इस दिवास्वप्न को टूटने में ज्यादा समय नहीं लगता।
जो भी हो, मैं ब्योमकेश से अपनी पहली भेंट की कहानी को ही आगे बढ़ाता हूँ।
कलकत्ता को भरपूर जानने वाले भी शायद यह नहीं जानते होंगे कि कलकत्ता के केंद्रस्थल में एक ऐसा भी
इलाका है, जिसके एक ओर अबंगालियों की अभावग्रस्त बस्ती है, दूसरी ओर एक और गंदी बस्ती और तीसरी
ओर पीत वर्ग के चीनियों की कोठरियाँ हैं। इस त्रिकोण के बीचोबीच त्रिभुजाकार जमीन का टुकड़ा है, जो दिन में
तो और स्थानों की तरह सामान्य दिखाई देता है, किंतु शाम होने के बाद उसकी पूरी कायापलट हो जाती है। आठ
बजते-बजते सभी व्यापारिक प्रतिष्ठानों के शटर गिर जाते हैं। दुकानें बंद हो जाती हैं और रात का सन्नाटा पसर
जाता है। कुछेक पान-सिगरेट की दुकानों को छोड़कर सभी कुछ अंधकार में विलीन हो जाता है। सड़कों पर केवल
छाया और परछाइयाँ यदा-कदा दिखाई दे जाती हैं। यदि कोई आगंतुक इस ओर आ भी जाता है तो कोशिश करता है
कि जल्द-से-जल्द इस इलाके को पार कर ले।