अच्छे वक्ता के गुण
किसी भी आयोजन की सफलता उसमें आमंत्रित प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय वक्ताओं पर निर्भर होती है। आयोजन चाहे सामाजिक हो, राजनीतिक, धार्मिक अथवा संत समागम से जुड़े हों, लोगों में यह जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से प्रकट होती है कि ‘कौन आ रहे हैं?’ लोगों की इस उत्सुकता के पीछे उस वक्ता की ख्याति अथवा कुख्याति छिपी होती है। उदाहरण के लिए, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अथवा उनके समकक्ष किसी नेता का जिक्र किया जाए तो उन्हें सुनने के लिए बेतहाशा भीड़ उमड़ेगी। ऐसे में यह जानना स्वाभाविक है कि वक्ता कैसा होना चाहिए? अच्छे वक्ता का सबसे बड़ा गुण है-उसका प्रभावी व्यक्तित्व। व्यक्तित्व का अर्थ उसका सुदर्शन होना आवश्यक नहीं है; अपितु रख-रखाव और व्यावहारिक दृष्टि से उसे आम लोगों से भिन्न और असाधारण लगना चाहिए। परिवेश भी शारीरिक संरचना के अनुरूप होना चाहिए। अमूमन राजनीति से जुड़े लोग कुर्ता, पाजामा और जाकेट पहनते हैं; लेकिन कद-काठी को देखते हुए आवश्यक नहीं कि सभी पर यह पोशाक फबे।
मैं एक ऐसे राजनेता को जानता हूँ, शुरू से जिनकी पोशाक पैंट-शर्ट रही, किंतु जब सांसद बने तो केंद्रीय राजनीति में सक्रिय होने से उन्हें लगा कि उन्हें कुर्ता-पाजामा पहनना चाहिए। संसद् शुरू होने से पहले उन्होंने कुर्ता-पाजामा बनवाने और उसे पहनने का अभ्यास करने के लिए जमीन-आसमान के कुलाबे मिला दिए। उन्होंने सामान्य पाजामे से लेकर अलीगढ़ी पाजामे तक बनवा लिये, किंतु कोई भी पोशाक उन पर फब नहीं सकी। कुर्ते-पाजामे ने उनको और हास्यास्पद बना दिया। आखिर में उन्होंने पैंट-शर्ट को ही चुना। इस पोशाक में उनका व्यक्तित्व पहले की तरह ही निखरकर आया। इसलिए कहावत भी है कि ‘खाओ मन चाहा, पहनो जग चाहा।’
भाषण-कला में वक्ता की आवाज की प्रखरता का विशेष महत्त्व होता है। अभिनय के क्षेत्र में सक्रिय विशेषज्ञों की मानें तो ‘आवाज की साधना भी एक कला है। जिस तरह नियमित रियाज से संगीत को सँवारा जाता है, ठीक उसी तरह आवाज को भी तराशा जा सकता है। मास मीडिया संस्थानों ने तो इस तरह के पाठ्यक्रम भी शुरू किए हैं, जिनमें बोलने का अंदाज तथा उच्चारण को निखारने के तौर-तरीके सिखाए जाते हैं। इस नई शैक्षिक प्रणाली में आवाज को साधने व तराशने के अलावा इस बात का अभ्यास भी कराया जाता है कि ‘कैसे होंठों तथा आवाज में तालमेल उत्पन्न किया जाए।’
लोगों को तत्काल प्रभावित करने की बात करें तो गगन गंभीर आवाज श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर सकती है। इस संबंध में अभिनेता अमिताभ बच्चन तो ‘चलते-फिरते पाठ्यक्रम हैं।’ लेकिन एक आवाज का प्रभाव किसी प्रंग को बुंदियाँ दे सकता है तो इस संदर्भ में हरीश भीमाणी का उदाहरण दिया जा सकता है, जिनकी पार्श्व में की गई कमेंटरी धारावाहिक ‘महाभारत’ की अन्यतम सफलता में मुख्य कारक सिद्ध हुई।[adinserter block="1"]
उत्पादों को ग्राहकों में लोकप्रिय बनाने के लिए बनती विज्ञापन फिल्मों का मूल आधार ही आवाज है। मुंबई में तो आवाज तराशने की अकादमी तक सक्रिय है। अच्छी आवाज को ठीक से परिभाषित किया जाए तो कहना होगा-एक ऐसी आवाज, जो सहज ही श्रोता को मंत्र-मुग्ध कर दे, अर्थात् एक ऐसी आवाज-जिसमें हकलाहट नहीं हो अपितु नदी जल जैसा प्रवाह हो। किसी भी आयोजन की सफलता बहुत कुछ एंकर पर भी निर्भर करती है। उसकी आवाज का जादू ही लोगों में आयोजन के प्रति आकर्षण जगाता है। पार्श्व गायक तो सभी लोकप्रिय हुए हैं, लेकिन हेमंत कुमार की आवाज तो करोड़ों में एक थी। वे गाते थे तो ऐसा लगता था जैसे किसी मंदिर में घंटियाँ बज रही हों! आवाज की जादूगरी तो निश्चित रूप से कुदरत की देन होती है, किंतु असरदार तब होती है जब उसे सँवारा जाता है।
श्रोताओं को बरबस बाँध लेने के लिए वक्ता के व्यक्तित्व की विशिष्टता को परिभाषित करना हो तो इस प्रकार कहना चाहिए कि उसका हर शब्द एक रूह, एक जिस्म, एक पोशाक की तरह होना चाहिए; क्योंकि यही सब मिलकर जिंदा विचार बनते हैं, जो श्रोताओं के अंतर्मन को प्रभावित करते हैं। वक्ता को इस बात की महारत हासिल होनी चाहिए कि वे थोड़े से शब्दों के आलोक में भी जीवन की तमाम छोटी-बड़ी चीजों को भुला सके। बिना किसी प्रकार की विद्वत्ता दरशाए जीवन के सच का श्रोताओं से साक्षात्कार करवा सके।
अच्छा वक्ता वही है, जो संस्मरणों, आत्मदृश्यों और जीवनीपरक वृत्तांतों से श्रोताओं में दिलचस्पी जगा सके। वक्ता को जानना चाहिए चुहल, बेबाकपन तथा सहजता ही श्रोताओं के साथ आत्मीयता उत्पन्न करती है। वक्ता में नीरस विषय को भी रुचिकर अनुभवों से समृद्ध करने की क्षमता होनी चाहिए। इससे श्रोता न तो ऊबेगा और न ही थकेगा। वक्ता को जानना चाहिए कि काव्योचित शैली भी कहीं-कहीं श्रोताओं को बाँधने का काम करती है।
अच्छे वक्ता के व्यक्तित्व में नेतृत्व की झलक मिलना नितांत आवश्यक है और यह संवाद की स्पष्टता से ही संभव है। राजनीति में ऐसे कई प्रंग मिलते हैं, जब नेताओं के बयान महज एकाध शब्दों की ऊँच-नीच से विवादास्पद हो जाते हैं और तब नई बयानबाजी शुरू होती है कि ‘मैंने ऐसा नहीं कहा। मेरे कथन को तोड़-मरोड़कर छापा गया।’
किसी भी वक्ता को जानना चाहिए कि ‘सीधी और स्पष्ट बात ही उसे निर्विवाद बना सकती है। अपने ज्ञान और अपने विचारों में श्रोताओं को भागीदार बनाना भी वक्ता को जनप्रिय बनाती है। श्रोताओं के बीच वक्ता के कथन की विश्वसनीयता बहुत बड़ी चीज है। अन्यथा ऐसे अनेक प्रंग मिलते हैं, जब जनसभाओं की समाप्ति के बाद श्रोता यह कहने से नहीं चूकते कि ‘अरे भाई, इस आदमी का क्या विश्वास, आज कुछ और कहा है, कल कुछ और कहा था।’ शैक्षिक संस्थानों की बात करें तो अकसर ऐसा देखा जाता है कि छात्र किसी प्राध्यापक विशेष का लेक्चर सुनने को बेहद उत्साही नजर आते हैं। छात्रों का यह रुझान उस प्राध्यापक को विशिष्ट बनाता है। ऐसा इसलिए कि प्राध्यापक ने छात्रों के मन को पढ़ने का अकूत अभ्यास किया है। श्रोता वक्ता के प्रभावी व्यक्तित्व की अपेक्षा करता है। इसके लिए शारीरिक व मानसिक रूप से ऊर्जावान होना पहली शर्त है।[adinserter block="1"]
‘फ्री प्रेस’ के लेखक जिम लोहेर तथा टोनी स्वार्ट्ज की मानें तो ‘वक्त नहीं है’ की भावना वक्ता के उच्चतम प्रदर्शन और उसकी प्रगतिमूलक मानसिकता की द्योतक है। इसके पीछे छिपी होती है ऊर्जा को संगठित करने की सोच। अकसर ऐसा होता है कि कुछ कार्य़ों के नतीजे सकारात्मक नहीं होते, सभाओं में अपेक्षित भीड़ नहीं जुट पाती। ऐसे में कुंठाग्रस्त होने की अपेक्षा विगत के सफल आयोजनों को याद करना चाहिए। इस मामले में हारमोनी बुक्स के लेखक जुडिथ आरलिफ का कथन काफी कुछ कह देता है कि ‘अपनी संवाद कायम करने की योग्यता का स्मरण करना चाहिए। सभा के दौरान कभी-कभी ऐसे अवसर भी आते हैं कि मुद्दों की अति गंभीरता लोगों में ऊब पैदा कर देती है। तब माहौल को हलका बनाने का प्रयास करना चाहिए। हँसी-ठिठोलीवाली घटनाओं का बखान करने से ऐसा हो सकता है। वक्ता को ऐसे किसी भी विचारों को हावी नहीं होने देना चाहिए, जिससे ऊर्जा प्रभावित होती है। धार्मिक प्रवचनों की सफलता का सबसे बड़ा कारण वक्ता का ऊर्जावान होना है। पुराण कथाओं के अंश सुनाते हुए कब वे हास्य प्रंगों की रचना कर बैठते हैं? दरअसल वक्ता जानते हैं कि एकरसता वातावरण को नीरस बना देती है। किंतु इस सबके पीछे जरूरी है आशावादी दृष्टिकोण। निराशा की एक हलकी सी लकीर भी वक्ता को विषादपूर्ण स्थिति में धकेल सकती है।
राजनीतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक भाषण प्रवचन करनेवाले वक्ताओं का चेहरा सदैव दमकता हुआ ही क्यों नजर आता है? इसके पीछे होती है उनकी भावनात्मक ऊर्जा। वे थकान या हताशा जैसा कोई भी चिह्न अपने-अपने चेहरे पर नहीं आने देना चाहते।[adinserter block="1"]
भाषण के महत्त्वपूर्ण घटक
भाषण को तीन हिस्सों में विभक्त किया जा सकता है। पहला-विषय परिचय, दूसरा-विषय-वस्तु तथा तीसरा-निष्कर्ष। भाषण की तैयारी और प्रस्तुति कोई सामान्य बात नहीं है। बिना किसी तैयारी के मंच पर चले जाना और कुछ भी कह देना भाषणबाजी नहीं होती। भाषण को यदि कला-कौशल की संज्ञा दी गई है तो इसलिए कि अवसर के अनुसार बिंदु तैयार करने के बाद प्रभावी तरीके से उसकी प्रस्तुति की जाए। भाषण का पहला अंश परिचय होता है, जो इतना परिमार्जित होना चाहिए कि पल भर में ही श्रोता का ध्यान आकर्षित हो जाए। परिचय ही विषय-वस्तु का परिचायक होता है, जो इस बात की झलक देता है कि वक्ता क्या कहना चाहता है। विषय-वस्तु में उन बिंदुओं का समावेश होना चाहिए जिन पर पूरा भाषण केंद्रित होना है।
भाषण का समापन निष्कर्ष से होना चाहिए कि आखिर इस संपूर्ण आख्यान का सार-संक्षेप क्या है। मान लिया जाए कि वक्ता को आरक्षण पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया है। ऐसे में उसे कैसे उसकी शुरुआत करनी है। उसे तर्कसंगत तरीके से समझना होगा कि आरक्षण क्या है? इस शब्द का उद्गम कहाँ से हुआ है? हमारी संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में इस शब्द की क्या अनिवार्यता है? तत्पश्चात् विषय-वस्तु में उन बिंदुओं की व्यापक चर्चा करनी होगी, जिनके माध्यम से आरक्षण का अच्छा-बुरा पक्ष और देश-समाज के संदर्भ में इसके दूरगामी परिणाम दरशानेवाले होंगे। सारांश में निष्कर्ष समझाना होगा कि आरक्षण ने हमें किस स्थिति में ला खड़ा किया है। अब हमने आगे क्या सोचा है? वक्ता की सफलता तभी है, जब वह अपने भाषण या प्रस्तुति में परिचय, विषय-वस्तु तथा निष्कर्ष को इस प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करें कि श्रोता एक गहरे सम्मोहन में डूब जाए। शैक्षिक कार्यक्रमों में विषय को लेकर श्रोताओं में अज्ञानता नहीं होती। उनमें विषय-वस्तु की तार्किक व्याख्या सुनने-समझने की प्रतीक्षा रहती है। किंतु सारी बात प्रश्नों के समाधान पर टिकती है। इसलिए कोचिंग क्लासेज का भविष्य समाधान-युक्त भाषण पर टिका होता है। अलबत्ता सामाजिक समारोह ज्यादातर समाज विशेष की सांगठनिक एकता, वैवाहिक परिचय सम्मेलन अथवा समाज की विभूतियों के कृतित्व और व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द छाए रहते हैं। इसलिए श्रोताओं का रुझान सामाजिक निष्ठा के रूप में ज्यादा रहता है। ऐसे इन आयोजनों में श्रोताओं की उपस्थिति में औपचारिक भाव ज्यादा रहता है, किंतु उत्कंठा की तीव्रता तो फिर भी बनी रहती है कि आखिर वक्ता कितना प्रतिभाशाली है।[adinserter block="1"]
धार्मिक सभाओं में तीनों ही बातों की महत्ता यथावत् रहती है। श्रद्धालु श्रोता धार्मिक आयोजनों में जितने निष्ठा भाव से जुड़े रहते हैं, उसकी परिकल्पना करना सहज नहीं है। अपनी अटूट श्रद्धा के कारण श्रोता अध्यात्म से पूरी तरह ओत-प्रोत तथा आस्था में गहरे तक डूबा होता है। इसलिए चमत्कारी पुराण कथाओं को पूरी तरह दत्तचित्त होकर सुनता है। ऐसे में वक्ता को कथा के समस्त प्रंगों की सांगोपांग जानकारी नितांत आवश्यक है। धर्म सभाओं का निष्कर्ष यही होता है कि ‘ईश्वर की आराधना में ही जीवन का कल्याण है। इन सभाओं का महत्त्वपूर्ण पहलू होता है वक्ता के प्रति श्रेष्ठतम सम्मान भाव। वक्ता पर निर्भर होता है कि वह कैसे श्रोता का सम्मान अर्जित करे और यथास्थिति में बनाए रखे। यह वक्ता के विषय के गहन अध्ययन तथा प्रस्तुति के चमत्कारिक चातुर्य पर निर्भर है।
भाषण में परिचय की विशिष्ट महत्ता है, अर्थात् परिचय जितना दमदार होगा, श्रोताओं का रुझान उतना ही बढ़ेगा। अकसर कुछ श्रोता ऐसे भी होते हैं, जिनका दृष्टिकोण और विचार एक निश्चित दायरे में बँध जाते हैं। ऐसी स्थिति में वक्ता की बात ग्रहण करना उन्हें अपमानजनक लगता है। लेकिन अगर भाषण की शुरुआत ही सशक्त और दमदार होगी तो उन्हें व्यवधान उत्पन्न करने का अवसर नहीं मिल सकता। सामाजिक संदर्भ़ों, क्षेत्र के लोगों की संवेदना को छूनेवाले मुद्दों तथा आम आदमी के दर्द में पिरोई हुई भाषा में डुबोकर भाषण को इतना रोचक बनाया जाए कि श्रोता चाहे अनपढ़ हो या पढ़ा-लिखा, प्रत्येक स्थिति में सुनने को बाध्य हो जाए।
वयोवृद्ध राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों की सरसता का मुख्य कारण था कि वे भाषण की शुरुआत किसी रोचक दृष्टांत से शुरू करते अथवा सामयिक संदर्भ़ों से जुड़ी किसी राजनीतिक घटना को चुटीली भाषा में इस तरह अभिव्यक्त करते कि लोग हँस-हँसकर लोट-पोट हो जाते और उनका पूरा ध्यान अटलजी की तरफ केंद्रित हो जाता। समाज-शात्रियों की दृष्टि में यह श्रोताओं को भाषण सुनने के लिए तैयार करने का श्रेष्ठतम तरीका है। एक तरह से यह श्रोता के लिए मानसिक खुराक है, जिससे उसमें भाषण सुनने की उत्कंठा जाग्रत् हो जाती है। किंतु जो भी कथा या हास-परिहास की बात सुनाई जाए वह भाषण की विषय-वस्तु से संबद्ध होनी चाहिए। श्रोता को सम्मोहित करना, यह उपाय क्या वास्तव में कारगर सिद्ध हो सकता है? अभ्यास के दौरान वक्ता को इस बात को पूरी तरह परख लेना चाहिए, ताकि भाषण के दौरान उसका पूरा आत्मविश्वास बना रहे।[adinserter block="1"]
कथा और चुटकुलों के अलावा भाषण की शुरुआत के लिए विषय-वस्तु से संबद्ध उद्धरण भी चुने जा सकते हैं। हमारा आशय श्रोता का ध्यान पूरी तरह वक्ता की ओर खींचना होना चाहिए। सच पूछा जाए तो भाषण की विषय-वस्तु पर मशक्कत करने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण काम है ऐसे प्रंगों का चयन करना अथवा ऐसे वाक्यों व प्रंगों की खोज करना, जिनसे भाषण की धमाकेदार शुरुआत हो सके। वक्ता को अभ्यास के लिए आकर्षित करनेवाली पंक्तियाँ कंठस्थ कर लेनी चाहिए। विभिन्न खबरी चैनल के न्यूज रीडर जिस तरह चौंकानेवाले अंदाज में शुरुआत करते हैं, उससे श्रोता पूरी तरह उत्कंठित होकर चैनल से जुड़ जाता है। यह तरीका भाषण की ओर श्रोता को उन्मुख करने की सबसे उत्कृष्ट तरकीब है। लेकिन जैसी भी शुरुआत की जाए, उसका जुड़ाव पूरी तरह भाषण की विषय-वस्तु से हो। कहीं-कहीं मॉडल, स्लाइड्स तथा चार्ट दिखाकर भी भाषण की शुरुआत की जाती है; किंतु ऐसा प्रयास शैक्षिक जगत् में ही ज्यादा होता है।
प्रभावी भाषण की भूमिका तभी सार्थक हो सकती है, जब विषय-वस्तु को अदृश्य रखा जाए। कुछ लोग अकसर इस तरह भी भाषण की शुरुआत कर देते हैं कि आज मैं जिस विषय पर बोलने वाला हूँ, यह तरीका विषय-वस्तु के तिलिस्म को खत्म करने जैसा है। जब पहले ही विषय का रहस्योद्घाटन हो जाएगा तो श्रोता में उत्कंठा रहेगी कैसे? अच्छी भूमिका से आहिस्ता-आहिस्ता यदि विषय-वस्तु सामने आएगी, तभी उत्सुकता बनेगी। अकसर ऐसा भी होता है कि जरूरत से ज्यादा उतावले श्रोता भूमिका के दौरान ही कोई प्रश्न कर देते हैं। ऐसे में आत्मविश्वास को बनाए रखने की जरूरत है। वक्ता के लिए यह जोखिम की स्थिति भी हो सकती है। किंतु सच कहें तो यह उनकी परीक्षा की घड़ी होती है। यहाँ वक्ता की बौद्धिकता काम आती है। यदि श्रोता के पूछे गए प्रश्न से ही भाषण की शुरुआत कर दें तो उसका श्रोताओं पर जबरदस्त प्रभाव पड़ सकता है।[adinserter block="1"]
महत्ता की दृष्टि से भूमिका भाषण को मुख्य अंश तक ले जाती है, अर्थात् यह एक तरह के सेतु का काम करती है। भूमिका का समय दो-तीन मिनट से ज्यादा का नहीं होता; किंतु अभ्यास के दौरान इस पर पूरा जोर देना चाहिए। शुरुआत की भूमिका बनाने के बारे में यह सोचकर रह जाना कि मौके पर ही देख लेंगे, सर्वाधिक गलत बात है; क्योंकि ऐन वक्त पर सोचने की कोशिश सबकुछ गड़बड़ा सकती है। कम समय में सशक्त रूप से बोलने की पूरी तैयारी करनी चाहिए। विषय परिचय से लेकर निष्कर्ष तक किया जानेवाला परिपूर्ण अभ्यास किसी भी अनर्थ से बचाए रखता है और वक्ता की गरिमा को भी बनाए रखता है।
विषय-वस्तु भाषण का मुख्य हिस्सा कहा जाता है। 20 मिनट के भाषण में 15 मिनट विषय-वस्तु पर ही केंद्रित रहना चाहिए। इस अवधि में आपके श्रोता को वह सबकुछ बता देना होता है, जो भाषण मुख्य भाग होता है। वक्ता को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि उसके भाषण के कौन से अंश श्रोता को प्रश्न के लिए प्रेरित कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में प्रश्नों के समाधान पूरी तरह वक्ता के मस्तिष्क में होने चहिए। भाषण में दोहराव कतई नहीं होना चाहिए और वक्ता को पता रहना चाहिए कि अब तक क्या कहा जा चुका है और आगे क्या कहना है? यह इतनी नाजुक घड़ी होती है; जब शब्दों पर पूरी तरह नियंत्रण रखने का कौशल दरशाना है और बात को इस तरह कहना है, ताकि श्रोता भली प्रकार समझ सकें। इससे असमंजस की स्थिति उत्पन्न नहीं होती। याद रखें कि कम शब्दों में कही गई अधिक बात ज्यादा असर करती है।
वक्ता अपनी मुट्ठी में समस्या पर सापेक्ष दृष्टि और समाधान का एक विस्तृत संसार लेकर मंच पर आता है। लोगों में बाँटने के लिए यह उसकी निजी दुनिया ही नहीं, निजी विचार भी होते हैं, जो भावनात्मक स्तर पर श्रोता का ध्यान खींचते हैं।
वक्ता की यह निजी दुनिया श्रोता को भी अपनी निजी दुनिया लगे, यही उसकी सफलता है; क्योंकि उसमें घटनाओं, संवेदनाओं, उद्वेग, उत्सुकता, हँसी, आँसू आदि का माल-गारा लगा होता है। विषय-वस्तु की सार्थकता तभी है, जब श्रोताओं को वह अपनी-सी लगे। वक्ता को ऐसी तसवीर खींचनी होती है, जो समस्याओं और मुद्दों का सही चित्रण करती है। समस्या के संदर्भ में यदि वक्ता संवेदना में सने शब्दों से आम आदमी तथा मध्यमवर्गीय परिवार का दर्द उकेर देता है तो निश्चित रूप से उसे श्रोता का समर्थन मिलता है। धार्मिक, पाखंड की सीवन खोलना अथवा तर्कसंगत तरीके से समस्या की पड़ताल करता वक्ता श्रोता को अपने बीच का आदमी लगता है। वक्ता की परीक्षा इसी में होती है कि वह नैतिक-अनैतिक के पचड़े में पड़े बिना द्वंद्व को वाक्-कौशल से उभार सकता है। मजा तभी है, जब यह मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ अंत तक चले।[adinserter block="1"]
भाषण अथवा संवाद के दौरान वक्ता की बौद्धिकता तभी परखी जा सकती है, जब वह अपनी बात को प्रभावी तरीके से श्रोता तक पहुँचा सके। अप्रिय, अनुचित या विषय से अलग हटकर कही जानेवाली बात से श्रोता का वक्ता से मोह भंग हो सकता है।
यहाँ एक घटना याद आती है। बात उन दिनों की है, जब भारत-ऑस्टेलिया के बीच क्रिकेट मैच हो रहा था। भारतीय टीम ऑस्टेलिया पर भारी पड़ रही थी। विराट कोहली शतक की ओर बढ़ रहे थे और कंगारू लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें आउट नहीं कर पा रहे थे। मैच जितना संघर्षपूर्ण था उसके विपरीत रोमांच कथा, कमेंटरी बिलकुल फीकी और बदमजा थी। एक रोमांचक मैच की अधकचरी कमेंटरी को लेकर श्रोताओं ने कितना कोसा, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। प्रश्न है कि ऐसा क्यों हुआ? क्रिकेट विशेषज्ञों का कहना था कि ‘न तो कमेंटरी करनेवाले की भाषा पर पकड़ थी और न ही दृश्य के अनुरूप भावों की अभिव्यक्ति की गई थी। नतीजतन एक यादगार नजारा श्रोताओं की नजर से ओझल होकर रह गया।
मार्टिन लूथर का नाम प्रभावी वक्ताओं के रूप में लिया जाता है। उनका कहना था कि ‘सामाजिकता की प्रक्रिया जन्म से ही मिलती है, इसलिए समयानुकूल भाव और उनकी अभिव्यक्ति तो पारिवारिक माहौल की देन होती है। ऐसे में संवाद को पुख्ता बनाने के लिए शब्द, भाव और बोलचाल को असरदार बनाने के लिए मामूली जागरूकता की जरूरत होती है। यदि इतनी सी सावधानी भी बरती जाए तो भाषण में गजब की प्रखरता उत्पन्न हो सकती है। प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात का यह कथन इस संदर्भ में अत्यंत सारगर्भित है कि ‘थोड़ा और सार-युक्त बोलना ही पांडित्य है।’
राजनीति का क्षेत्र ऐसा है, जिसमें धाराप्रवाह बोलने की अपेक्षा विषय पर केंद्रित रहते हुए किंचित् ठहरकर श्रोताओं के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए बोलने के लिए वाक्-चातुर्य की जरूरत होती है। राजनीतिक सभाओं में भाषण के दौरान कई मुद्दे ऐसे होते हैं, जिनसे कोई अपरिचित नहीं होता। ऐसे में उनकी व्याख्या अथवा उन्हें अनावश्यक विस्तार देना श्रोता का जायका बदमजा करने जैसा है। इससे संवाद प्रक्रिया गड़बड़ा सकती है। सबसे बड़ी बात तो वक्ता का भाषण विषय के आस-पास बना रहे और पूरी तरह संतुलित रहे। कन्फ्यूशियस का कहना था कि ‘शब्दों को नाप-तौलकर बोलने से ही वक्ता का सम्मान बढ़ता है।’
शैक्षिक क्षेत्र में यद्यपि धारा-प्रवाह बोलना यह मानते हुए वक्ता की अतिरिक्त योग्यता समझी जा सकती है कि उसकी अपने विषय पर कितनी जबरदस्त पकड़ है। यह बात तो प्रत्येक प्रोफेशनल्स पर समान रूप से लागू होती है, किंतु उसकी प्राथमिकता मुख्य मुद्दों को लेकर होनी चाहिए।
राजनीतिक मंच पर धारा-प्रवाह बोलने की अपेक्षा रुक-रुककर बोलना और बात को घुमा-फिराकर कहना ज्यादा कारगर सिद्ध होता है। वक्ता को इस बात को भली-भाँति ग्रहण कर लेना चाहिए कि उसे मुख्य विषय पर पकड़ रखते हुए अपने कथन को आगे बढ़ाते रहना है। इस दौरान तीन बातों का विशेष ध्यान रखना है। पहली-आवाज गहरी और असरदार हो, दूसरी-ऐसी भाषा जो अनपढ़ भी समझ लें तथा तीसरा-भाषण समाप्त होने तक मूल विषय फोकस में बना रहे।
विषय से जुड़ी जानकारियों को तर्कसंगत तरीके से कह देना ही निष्कर्ष की परिपूर्णता है। अर्थात् विषय-वस्तु के रूप में जो कहा जाए, उसकी समीक्षात्मक प्रस्तुति इस तरह की जानी चाहिए, ताकि विलंब से आए श्रोता भी यह जान सकें कि वक्ता ने इससे पहले सभा में क्या कहा? विषय-वस्तु की विवेचना के दौरान प्रायः ऐसा भी होता है कि कुछ बिंदु धाराप्रवाह भाषण में कह तो दिए जाते हैं, किंतु उन्हें विस्तार देना संभव नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में यदि उन्हें एक बार फिर से दोहराया जाए और तर्क देकर कहा जाए तो श्रोता पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। शैक्षिक क्षेत्र में इस तरह की समझाइश का ज्यादा महत्त्व है, ताकि छात्र जो समग्र लेक्चर नहीं सुन पाए हों, उन्हें विषय-वस्तु का सार-संक्षेप समझ में आ सके। भाषण के प्रवाह में कुछ ऐसे बिंदु भी छूट जाते हैं, जिनका उल्लेख किया जाना भाषण के निहितार्थ में जरूरी होता है। निष्कर्ष के दौरान इस बात को भली प्रकार कहने का अवसर मिल जाता है। यह स्थिति ऐसी है जैसा बच्चे को पढ़ाने के दौरान पाठ का पुनः दोहराव किया जाए।[adinserter block="1"]
पुराण कथाओं में कथा वाचक जब विभिन्न धार्मिक प्रंगों की चर्चा करते हैं तो अंत में यह बताना नहीं भूलते कि प्रंग की अंतःकथा क्या है? उदाहरण के लिए, सत्यनारायण की कथा में ऐसा प्रंग आता है कि पिछले जन्म में राजा बननेवाला व्यक्ति अपने कर्म़ों के अनुसार अगले जन्म में क्या बना? निष्कर्ष को एक तरह के फलादेश की संज्ञा दी जा सकती है, अर्थात् भाषण सुनने के बाद श्रोता को क्या ज्ञान मिला?
राजनीतिक सभाओं की बात छोड़ दी जाए तो विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े विषय विशेषज्ञों की सभाओं का आयोजन हो और सवाल-जवाब का सिलसिला न चले, ऐसा बिलकुल संभव नहीं है। वक्ता भी इस बात के लिए उत्सुक रहता है कि श्रोता ने उसकी बात को किस रूप में लिया? यदि ऐसा नहीं होता है तो इसे अधूरा आयोजन ही कहा जाएगा। किंतु प्रश्न-विहीन आयोजन की कल्पना आज के युग में तो मुश्किल ही कही जाएगी। प्रश्न पूछने का प्रयोजन श्रोता के लिए अपना संदेह दूर करना और अपनी जानकारी में अभिवृद्धि करना है। वक्ता का दायित्व है कि श्रोता के सामने उसके द्वारा जो कुछ कहा जा रहा है, प्रश्न पूछने की स्थिति में क्या समुचित उत्तर देने की क्षमता उसमें है? प्रश्नों का बुद्धिमत्तापूर्ण और सटीक उत्तर ही श्रोता की दृष्टि में वक्ता का कद बढ़ाता है। याद रखना चाहिए कि सूचनाओं और विचारों के आदान-प्रदान, रिश्तों की मजबूती तथा सही योजनाओं के बनाने में श्रेष्ठ सवालों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। आयोजन की सार्थकता भी इसी में है कि यहाँ किस स्तर के प्रश्नोत्तर हुए। पब्लिक मीटिंग, सेमीनार अथवा भेंट-वार्त्ता में कोई प्रश्नोत्तर का सिलसिला न बने तो इसका अच्छा संदेश नहीं जाता।
जैसा कि हमने पहले बताया, मार्टिन लूथर किंग बड़े सिद्ध वक्ता थे। आइए, उनकी शाब्दिक बाजीगरी को निम्नलिखित भाषण से आँकते हैं-
मेरा एक सपना है
मैं खुश हूँ कि मैं आज ऐसे मौके पर आपके साथ शामिल हूँ, जो इस देश के इतिहास में स्वतंत्रता के लिए किए गए सबसे बड़े प्रदर्शन के रूप में जाना जाएगा।
सौ साल पहले एक महान् अमेरिकी, जिनकी प्रतीकात्मक छाया तले हम सभी खड़े हैं, ने एक मुक्ति उद्घोषणा पर हस्ताक्षर किए थे। इस महत्त्वपूर्ण निर्णय ने अन्याय सह रहे लाखों गुलाम नीग्रो के मन में उम्मीद की एक किरण जगा दी। यह खुशी उनके लिए लंबे समय तक अंधकार की कैद में रहने के बाद दिन के उजाले में जाने के समान थी।
परंतु आज सौ वर्ष़ों के बाद भी नीग्रो स्वतंत्र नहीं हैं। सौ साल बाद भी एक नीग्रो की जिंदगी अलगाव की हथकड़ी और भेदभाव की जंजीरों से जकड़ी हुई है। सौ साल बाद भी नीग्रो समृद्धि के विशाल समुद्र के बीच गरीबी के एक द्वीप पर रहते हैं। सौ साल बाद भी नीग्रो अमेरिकी समाज के कोनों में सड़ रहा है और अपने देश में ही खुद को निर्वासित पाता है। इसीलिए आज हम सभी यहाँ इस शर्मनाक स्थिति को दरशाने के लिए इकट्ठा हैं।[adinserter block="1"]
एक मायने में हम अपने देश की राजधानी में एक चेक कैश करने आए हैं। जब हमारे गणतंत्र के आर्किटेक्ट संविधान और स्वतंत्रता की घोषणा बड़े ही भव्य शब्दों में लिख रहे थे, तब दरअसल वे एक वचन-पत्र पर हस्ताक्षर कर रहे थे, जिसका हर एक अमेरिकी वारिस होने वाला था। यह पत्र एक वचन था कि सभी व्यक्ति, हाँ, सभी व्यक्ति चाहे काले हों या गोरे, सभी को जीवन, स्वाधीनता और अपनी प्रसन्नता के लिए अग्रसर रहने का अधिकार होगा।
आज यह स्पष्ट है कि अमेरिका अपने अश्वेत नागरिकों से यह वचन निभाने में चूक चुका है। इस पवित्र दायित्व का सम्मान करने के बजाय अमेरिका ने नीग्रो लोगों को एक अनुपयुक्त चेक दिया है, एक ऐसा चेक जिस पर ‘अपर्याप्त कोष’ लिखकर वापस कर दिया गया है। लेकिन हम यह मानने से इनकार करते हैं कि न्याय का बैंक कंगाल हो चुका है। हम यह मानने से इनकार करते हैं कि इस देश में अवसर की महान् तिजोरी में ‘अपर्याप्त कोष’ है। इसलिए हम इस चेक को कैश कराने आए हैं। एक ऐसा चेक, जो माँगे जाने पर हमें धनोपार्जन की आजादी और न्याय की सुरक्षा देगा।
हम इस पवित्र स्थान पर इसलिए भी आए हैं कि हम अमेरिका को याद दिला सकें कि इसे तत्काल करने की सख्त आवश्यकता है। अब और शांत रहने या फिर खुद को दिलासा देने का वक्त नहीं है। अब लोकतंत्र के दिए वचन को निभाने का वक्त है। अब वक्त है अँधेरी और निर्जन घाटी से निकलकर नस्लीय न्याय के प्रकाशित मार्ग पर चलने का। अब वक्त है अपने देश को नस्लीय अन्याय के दलदल से निकालकर भाईचारे की ठोस चट्टान खड़ी करने का। अब वक्त है नस्लीय न्याय को प्रभु की सभी संतानों के लिए वास्तविक बनाने का।
इस बात की तत्काल अनदेखी करना राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध होगा। नीग्रोज के वैध असंतोष की गरमी तब तक खत्म नहीं होगी, जब तक स्वतंत्रता और समानता की ऋतु नहीं आ जाती। वर्ष 1963 एक अंत नहीं बल्कि एक आरंभ है। जो यह आशा रखते हैं कि नीग्रो अपना क्रोध दिखाने के बाद फिर शांत हो जाएँगे, देश फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगेगा मानो कुछ हुआ ही नहीं, उन्हें एक असभ्य जागृति का सामना करना पड़ेगा। अमेरिका में तब तक सुख-शांति नहीं होगी, जब तक नीग्रोज को नागरिकता का अधिकार नहीं मिल जाता। विद्रोह का बवंडर तब तक हमारे देश की नींव हिलाता रहेगा, जब तक न्याय की सुबह नहीं हो जाती।[adinserter block="1"]
लेकिन मैं अपने लोगों, जो न्याय के महल की दहलीज पर खड़े हैं, से जरूर कुछ कहना चाहूँगा, अपना उचित स्थान पाने की प्रक्रिया में हमें कोई गलत काम करने का दोषी नहीं बनना है। हमें अपनी आजादी की प्यास घृणा और कड़वाहट का प्याला पीकर नहीं बुझानी है।
हमें हमेशा अपना संघर्ष अनुशासन और सम्मान के दायरे में रहकर करना होगा। हमें कभी भी अपने रचनात्मक विरोध को शारीरिक हिंसा में नहीं बदलना है। हमें बार-बार खुद को उस स्तर तक ले जाना है, जहाँ हम शारीरिक बल का सामना आत्मबल से कर सकें। आज नीग्रो समुदाय एक अजीब आतंकवाद से घिरा हुआ है। हमें ऐसा कुछ नहीं करना है कि सभी श्वेत लोग हम पर अविश्वास करने लगें; क्योंकि हमारे कई श्वेत बंधु इस बात को जान चुके हैं कि उनका भाग्य हमारे भाग्य से जुड़ा हुआ है और ऐसा आज उनकी यहाँ पर उपस्थिति से प्रमाणित होता है। वे इस बात को जान चुके हैं कि उनकी स्वतंत्रता हमारी स्वतंत्रता से जुड़ी हुई है। हम अकेले नहीं चल सकते।
हम जैसे-जैसे चलें, इस बात का प्रण करें कि हम हमेशा आगे बढ़ते रहेंगे। हम कभी वापस नहीं मुड़ सकते। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो हम नागरिक अधिकारों के भक्तों से पूछ रहे हैं कि ‘आखिर हम कब संतुष्ट होंगे?’
हम तब तक संतुष्ट नहीं होंगे, जब तक एक नीग्रो पुलिस की अनकही भयावहता और बर्बरता का शिकार होता रहेगा। हम तब तक नहीं संतुष्ट होंगे, जब तक यात्रा से थके हुए हमारे शरीर राजमार्ग़ों के ढाबों और शहर के होटलों में विश्राम नहीं कर सकते। हम तब तक नहीं संतुष्ट होंगे, जब तक एक नीग्रो छोटी सी बस्ती से निकलकर एक बड़ी बस्ती में नहीं चला जाता। हम तब तक संतुष्ट नहीं होंगे, जब तक हमारे बच्चों से उनकी पहचान छीनी जाती रहेगी और उनकी गरिमा को ‘केवल गोरों के लिए’ संकेत लगाकर लूटा जाता रहेगा। हम तब तक संतुष्ट नहीं होंगे जब तक मिसीसिपी में रहनेवाला नीग्रो मतदान नहीं कर सकता और जब तक न्यूयॉर्क में रहनेवाला नीग्रो यह यकीन नहीं करने लगता कि अब उसके पास चुनाव करने के लिए कुछ है ही नहीं। नहीं-नहीं, हम संतुष्ट नहीं हैं और हम तब तक संतुष्ट नहीं होंगे जब तक न्याय जल की तरह और धर्म एक तेज धारा की तरह प्रवाहित नहीं होने लगते।
मैं इस बात से अनभिज्ञ नहीं हूँ कि आप में से कुछ लोग बहुत सारे कष्ट सहकर यहाँ आए हैं। आप में से कुछ तो अभी-अभी जेल से निकलकर आए हैं। कुछ लोग ऐसी जगहों से आए हैं, जहाँ स्वतंत्रता की खोज में उन्हें अत्याचार के थपेड़ों और पुलिस की बर्बरता से पस्त होना पड़ा है। आपको सही ढंग से कष्ट सहने का अनुभव है। इस विश्वास के साथ कि आपकी पीड़ा का फल अवश्य मिलेगा, आप अपना काम जारी रखिए।[adinserter block="1"]
मिसीसिपी वापस जाइए, अलबामा वापस जाइए, साउथ कैरोलिना वापस जाइए, जॉर्जिया वापस जाइए, लूसिआना वापस जाइए, उत्तरीय शहरों की झोंपड़ियों व बस्तियों में वापस जाइए, ये जानते हुए कि किसी-न-किसी तरह यह स्थिति बदल सकती है और बदलेगी, आप अपने स्थानों पर वापस जाइए। अब हमें निराशा की घाटी में वापस नहीं जाना है।
मित्रो, मैं आज आपसे यह कहता हूँ, भले ही हम आज-कल कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, पर फिर भी मेरा एक सपना है, एक ऐसा सपना जिसकी जड़ें अमेरिकी सपने में निहित हैं।
मेरा एक सपना है कि एक दिन यह देश ऊपर उठेगा और सही मायने में अपने सिद्धांतों को जी पाएगा। हम इस सत्य को प्रत्यक्ष मानते हैं कि सभी इनसान बराबर पैदा हुए हैं।
मेरा एक सपना है कि एक दिन जॉर्जिया के लाल पूर्व गुलामों के पुत्र और पूर्व गुलाम मालिकों के पुत्र भाईचारे की मेज पर एक साथ बैठ सकेंगे।
मेरा एक सपना है कि एक दिन मिसीसिपी राज्य भी, जहाँ अन्याय और अत्याचार की तपिश है, एक आजादी और न्याय के नखलिस्तान में बदल जाएगा। मेरा एक सपना है कि एक दिन मेरे चारों छोटे बच्चे एक ऐसे देश में रहेंगे, जहाँ उनका मूल्यांकन उनकी चमड़ी के रंग से नहीं बल्कि उनके चरित्र की ताकत से किया जाएगा।
मेरा एक सपना है कि एक दिन अलबामा में, जहाँ भष्ट जातिवाद है, जहाँ राज्यपाल के मुख से बस बीच-बचाव और संघीय कानून को न मानने के शब्द निकलते हैं, एक दिन उसी अलबामा में छोटे-छोटे अश्वेत लड़के व लड़कियाँ छोटे-छोटे श्वेत लड़के व लड़कियों के हाथ भाई-बहन के समान थाम सकेंगे। मेरा एक सपना है कि एक दिन हरेक घाटी ऊँची हो जाएगी, हरेक पहाड़ नीचे हो जाएगा, बेढंगे स्थान सपाट हो जाएँगे और टेढ़े-मढ़े रास्ते सीधे हो जाएँगे और तब ईश्वर की महिमा दिखाई देगी और सभी मनुष्य उसे एक साथ देखेंगे।
यही हमारी आशा है। इसी विश्वास के साथ मैं दक्षिण वापस जाऊँगा। इसी विश्वास से हम निराशा के पर्वत को आशा के पत्थर से काट पाएँगे। इसी विश्वास से हम कलह के कोलाहल को भाईचारे के मधुर स्वर में बदल पाएँगे। इसी विश्वास से हम एक साथ काम कर पाएँगे, पूजा कर पाएँगे, संघर्ष कर पाएँगे, साथ जेल जा पाएँगे और यह जानते हुए कि हम एक दिन मुक्त हो जाएँगे, हम स्वतंत्रता के लिए साथ-साथ खड़े हो पाएँगे। यह एक ऐसा दिन होगा, जब प्रभु की सभी संतानें एक नए अर्थ के साथ गा सकेंगी-