हिन्दुत्व का मकडज़ाल
च्यवन ऋषि के नाम से लोग भली भाँति परिचित हैं। ये भृगु ऋषि और पुलोमा के पुत्र थे। महाभारत के अनुसार जब ये माँ के गर्भ में थे तब एक राक्षस इनकी माँ को हड़पकर ले जाना चाहता था। च्यवन ऋषि को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। वे क्रोध में गर्भ से बाहर निकल आए। इनके तेज से राक्षस वहीं भस्म हो गया।
अपना तपोबल बढ़ाने के लिए ये तप में बैठे, ध्यान में मग्न च्यवन ऋषि के शरीर पर मिट्टी भर गई, पौधे उग आए, यहाँ तक कि दीमक की बाँबी बन गई। उस बाँबी में केवल दो आँखें चमक रही थीं। राजा शरयाति अपनी बेटी सुकन्या के साथ आखेट पर निकले थे। सुकन्या ने बाँबी देख कौतूहलवश चमकती आँख में एक तिनका चुभो दिया। बस, क्या था? च्यवन ऋषि क्रोध में उबल पड़े। बाँबी को उखाड़ फेंका और सुकन्या के परिवार को श्राप दिया कि उनका मल-मूत्र बंद हो जाए। जाहिर है, इस घोर कष्ट को न सह पाने के कारण उन्होंने ऋषि से उपाय पूछा। ऋषि ने कहा कि इस कन्या से मेरा विवाह करोगे तभी मैं अपना श्राप वापस लूँगा।
च्यवन ऋषि वृद्ध थे और सुकन्या अपने पूरे यौवन में। अश्विनीकुमारों ने उनको जवान कर दिया। इस घटना का जिक्र ब्रह्म पुराण, महाभारत तथा और कई पुराणों में विस्तार से दिया गया है।
ऐसा कहा जाता है कि ये वही च्यवन ऋषि हैं जिन्होंने च्यवनप्राश बनाया जो औषधि बूढ़ों को जवान बनाने का दावा करती है। प्राचीनकाल के एक और वैद्य निघंटू ने अबरख को लेकर दावा किया कि इसके प्रभाव से हर रोज सौ स्त्रियों के साथ संभोग किया जा सकता है। दरअसल उस समय संभोग क्रिया में निपुण वैद्य राजाओं के लिए मुख्यत: ऐसी ही औषधियाँ बनाया करते थे ताकि राजा अपनी रानियों से सहवास कर उन्हें संतुष्ट कर सकें।
पिछले कुछ वर्षों से भारतीय या हिन्दू संस्कृति को लेकर चर्चा जोरों पर है। जो लोग इस विषय पर केन्द्रित पुस्तकें व आलेख लिख रहे हैं, प्रवचन दे रहे हैं, उन सबको पढ़कर, सुनकर लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचने को बाध्य है कि इन्हें इस देश की संस्कृति के ककहरे का भी ज्ञान नहीं है। यदि होता तो बहुआयामी, बहुरंगी, किसी भी देश की तुलना में अतुलनीय हमारी संस्कृति का इतना संकुचित रूप पेश नहीं करते। इनका अध्ययन या तो अत्यन्त सीमित है, और यदि जानकारी है, तो किसी सोची-समझी साजिश के तहत वे संस्कृति का संकुचन कर रहे हैं।
भारतीय संस्कृति चार पायों पर खड़ी है। पहला पाया है धर्म, दूसरा है अर्थ, तीसरा काम और चौथा व अन्तिम पाया है मोक्ष। जाहिर है, इस संस्कृति में ‘काम’ का वही महत्त्व है, जो धर्म, अर्थ व मोक्ष का है।
इस लम्बे आलेख में धर्म, अर्थ और मोक्ष पर चर्चा न कर केवल ‘काम’ पर केन्द्रित संदर्भों पर संक्षेप रूप में चर्चा की जा रही है। संक्षेप में इसलिए क्योंकि समग्रता में चर्चा करने के लिए तो पूरा एक जन्म चाहिए। विशद रूप से लिखने के लिए किसी भी लेखक को सबसे पहले तथ्यों का संकलन करना होता है और उसके लिए उसे भारतीय संस्कृति से लेकर देश-विदेश में छपे सैकड़ों ग्रंथों तक को पढ़ना होगा, जिसकी शुरुआत प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद से करनी होगी।
वैदिक, ब्राह्मण, उपनिषद्, पौराणिक युगों में श्रुति और लेखन के माध्यम से यह देखा गया है कि ‘काम’ को लेकर विशद रूप से चर्चा की गई है; और तो और, ‘काम’-केन्द्रित विश्व में पहला ग्रंथ महर्षि वात्स्यायन ने ईसा पूर्व तीसरी-चौथी शती में ‘कामशास्त्र’ या ‘कामसूत्रम्’ शीर्षक से लिखा। गौरतलब यह है कि जिसने लिखा, उसे ‘महर्षि’ का दर्जा दिया गया तथा उनके लेखन को एक शास्त्र माना गया।
आगे कुछ भी लिखने के पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि इस आलेख में अपना कोई मत न देकर विभिन्न प्राचीन ग्रंथों में वर्णित तथा विभिन्न समयों में प्रचलित काम-क्रिया, रतिक्रिया, संभोग-क्रिया, काम-वासना और काम के प्रति आसक्ति, जो कुछ वर्णित है, उन उद्धरणों को उद्धृत किया गया है। निष्कर्ष सुधी पाठकों पर छोड़ता हूँ। पूछा जा सकता है कि विषयों के अगाध समुद्र से केवल ‘काम’ का ही चुनाव क्यों किया गया? जवाब सीधा-सा है कि जो विषय प्राचीन काल से धर्म, अर्थ, मोक्ष के साथ जीवन का अभिन्न अंग रहा, आज वह वर्जनीय क्यों बन गया? क्यों लोग इसकी चर्चा करने से कतराते हैं, या शर्माते हैं, जिसकी वजह से समाज में तरह-तरह की विकृतियाँ पैदा हो गई हैं; जिसका दुष्प्रभाव सारे समाज को भुगतना पड़ रहा है?
आगे कुछ भी लिखने से पहले ‘हिन्दू’ और ‘हिन्दुत्व’ शब्द पर चर्चा कर ली जाए। यह ‘हिन्दू’ शब्द विदेशियों का दिया हुआ है। कई भाषाओं में ‘स’ की जगह ‘ह’ का प्रयोग होता है। मसलन असमिया भाषा को लीजिए जिसमें साहित्य को ‘हाहित्य’, असम को ‘अहम’ के रूप में उच्चारित किया जाता है। इसी प्रकार जो विदेशी भारत आए उन्होंने सिन्धु के स्थान पर ‘हिन्दू’ उच्चारित किया और सिन्धु नदी के दक्षिण में रहने वालों को ‘हिन्दू’ के रूप में स्वीकार किया। जहाँ तक ‘हिन्दुत्व’ शब्द का सवाल है, लगभग सौ साल पहले 1922 में विनायक दामोदर सावरकर ने इसको गढ़ा और प्रचलित किया। इसलिए हिन्दू या हिन्दुत्व शब्द पर हम गर्व करें, यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा।
जहां तक ‘हिन्दू संस्कृति’ का प्रश्न है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरोधाओं ने जिस रूप में इसकी व्याख्या की, पहले भी लिखा जा चुका है कि वह बहुत ही संकुचित और विकृत व्याख्या है, जो लोगों में इस संस्कृति के प्रति एक भ्रम पैदा करती है। चूँकि 1925 से अनवरत इस शब्द का मिला-जुलाकर एक ही ढंग से प्रचार-प्रसार किया गया है, जिसका नतीजा यह हुआ कि आम तौर पर लोगों ने इसी विकृत और संकुचित संस्कृति को ही ‘हिन्दू संस्कृति’ मान लिया।
जिन विद्वानों ने वास्तविकता पर आधारित तथ्यपरक व्याख्या की, उनको यह कहकर सिरे से खारिज कर दिया गया कि उन पर पश्चिम के विद्वानों का प्रभाव है और वे एकांगी दृष्टि से संस्कृति को देखते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि वेदों से प्रारम्भ कर भारतीय संस्कृति का समग्र रूप मनुष्य की समस्त जीवन-शैली के अच्छे-बुरे पक्ष को जाहिर करता है, जो समय के अनुसार बदलती रही है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा। पति के अलावा परपुरुष से नियोग-प्रथा के तहत संतान-प्राप्ति के प्रावधान को वेदों से पुराणों तक मान्यता दी गई, जिसको आज का समाज किसी भी कीमत पर स्वीकार करना तो दूर, इसे घोर पाप की संज्ञा देता है।
हम जो भी व्याख्या देने जा रहे हैं, वह मूलत: भारत में प्रचलित धार्मिक पुस्तकों से ली गई है। किसी विदेशी विद्वान के मतामत को उद्धृत नहीं किया गया है। लिहाजा, इस लेखन को खारिज करने वाले हिन्दुत्वपंथी को वेद-पुराणों को खारिज करना होगा।
हमारे देश में एक प्रचलन यह भी रहा है कि हम प्राचीन धार्मिक ग्रंथों पर तिलक-चंदन चढ़ाते हैं, उनकी पूजा करते हैं, पर उन्हें पढ़ते नहीं हैं। पढ़ते तो संस्कृति के नाम पर जो दुष्प्रचार किया जाता रहा है, वह सम्भव नहीं था।
अब आइए मूल विषय पर, ‘काम’ यानी ‘सेक्स’ इस संस्कृति का प्रकृति-प्रदत्त आवश्यक व अभिन्न पहलू रहा है।
भारत में, जैसाकि पहले बताया जा चुका है, काम-केन्द्रित पहला ग्रंथ ‘कामसूत्रम्’ था और देवताओं की श्रेणी में काम के देवता ‘कामदेव’ प्रतिष्ठित रहे हैं। कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’, मनु की ‘मनुस्मृति’, भर्तृहरि का ‘शृंगार-शतक’, कालिदास का ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’, जयदेव का ‘गीत-गोविंदम्’ और लगभग दो सौ साल पूर्व जम्मू-कश्मीर के कोकापंडित का ‘कोकशास्त्र’ आदि इसके प्रमाण रहे हैं कि भारतीय संस्कृति में ‘काम पक्ष’ को हमेशा महत्व दिया गया।
देवता हों या ऋषि-महर्षि या राजा-महाराजा, काम के प्रति उनकी आसक्ति से संस्कृत-साहित्य भरा पड़ा है।
कौटिल्य अपने ‘अर्थशास्त्र’ में कहते हैं कि ‘कामेच्छा एक प्राकृतिक स्वभाव है, पुरुष व स्त्री दोनों इसके प्रभाव में हैं किन्तु पुरुषों की तुलना में नारी में यह ज्यादा प्रबल होती है। ऋतुकाल में यह अग्नि के समान प्रज्वलित हो उठती है।’ वे आगे कहते हैं, ‘इस दौरान स्त्री को रतिक्रिया से वंचित रखना अनुचित है। वह पति के अलावा किसी अन्य पुरुष से अपनी इच्छा व्यक्त कर सम्भोग कर सकती है।’ वे यह भी कहते हैं कि ‘ऋतुकाल के दौरान स्त्री का रक्तस्राव बेकार न जाए, इसलिए उससे सम्भोग किया जा सकता है, जो न तो अनैतिक है और न ग़ैरकानूनी।’
‘पिता का अधिकार अपनी कन्या पर से समाप्त हो जाता है, यदि वह रजस्वला होने से पूर्व ही उसका विवाह नहीं कर देता। ऐसी स्थिति में कन्या को अधिकार है कि वह किसी पुरुष से कामेच्छा प्रकट कर सम्भोग करे।’ कहीं-कहीं कौटिल्य इसको पाप भी मानते हैं किन्तु इसके लिए दंड बहुत ही साधारण है।
ऋषि भारद्वाज का उल्लेख करते हुए कौटिल्य कहते हैं कि रजस्वला स्त्री यदि स्वेच्छा से किसी पुरुष से काम-याचना करती है तो उसे अस्वीकार करने पर वह उसे शाप दे सकती है।
धर्मशास्त्रों के अनुसार, आठ प्रकार के विवाह शास्त्रसम्मत हैं। निद्रा में लीन स्त्री के साथ यदि पुरुष उसकी इच्छा के विरुद्ध सम्भोग करता है और विवाह कर लेता है, तो यह विवाह शास्त्रसम्मत है। स्त्री के पिता व भाई को पीटकर स्त्री को जबरन उठा ले जाकर भी विवाह किया जा सकता है, जो शास्त्रसम्मत है।
जादू-टोना कर स्त्री के साथ सम्भोग करने की भी प्राचीन परम्परा रही है, जो आज विलुप्तप्राय है, विशेषकर श्मशान घाट में मध्यरात्रि से प्रात: तीन बजे तक के समय को अघोरी सम्प्रदाय के लोग उत्तम काल मानते रहे हैं।
हिन्दू धर्म में एक ऐसा संप्रदाय है जो वाममार्गी कहलाता है। इस संप्रदाय के तांत्रिक योनि-पूजा करते हैं और योनि को भोगते हैं। इसके लिए उपयुक्त स्थान या तो श्मशान घाट होता है या कोई पूजनीय मन्दिर। बंगाल में तारापीठ और असम में कामाख्या इस मार्ग के तांत्रिकों के सिद्ध स्थल हैं।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ‘काम’ का विशद रूप से उल्लेख है। उस पर विस्तार से लिखना, अलग से एक ग्रंथ लिखने के समान होगा। लेखक ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि उसका उद्देेश्य भारतीय संस्कृति में काम के विभिन्न रूपों से पाठकों को परिचित कराना है ताकि इस विषय को कतिपय तथाकथित विद्वान शुद्धीकरण के नाम पर भारतीय संस्कृति से विलग न कर दें।
‘वैचारिकी’ के मार्च-अप्रैल, 2018 के अंक में लेखक उपेन्द्रनाथ राय ने ‘कौटिल्य और वात्स्यायन’ शीर्षक के अन्तर्गत अपने लेख में बताया है : ‘वात्स्यायन के पूर्व लिखने की एक परम्परा चली आ रही थी। वात्स्यायन के पूर्व कम-से-कम आठ-दस ग्रंथों के मंत्रों का उल्लेख मिलता है अतएव कौटिल्य और वात्स्यायन ने (चली आ रही) परम्परा से बहुत कुछ लिया।’
इससे यह जाहिर है कि समाज में ‘काम’ को लेकर चर्चा करने और ग्रंथ लिखने का प्रचलन था। समाज में व्याप्त परम्पराओं का जिक्र करते हुए उसमें कुछ नये नुक्ते व नुस्खे निरंतर जोड़े जाते रहे।
हाल के वर्षों तक दक्षिण भारत में परिवार की एक कन्या को भगवान को अर्पित करने का रिवाज रहा, जो ‘देवदासी’ कहलाती। घोषित रूप से न सही, अघोषित रूप से इन देवदासियों का यौन-शोषण हमेशा चर्चा का विषय रहा। गलत हो या सही, इस कलंकित आचार को भारतीय संस्कृति से अलग तो नहीं किया जा सकता।
सत्यबाला का पुत्र जाबाली गौतम ऋषि के आश्रम में अध्ययन हेतु जाता है तो पिता के स्थान पर अपनी माता का नाम लिखता है। गौतम ऋषि के पूछने पर कि पिता का नाम क्या है, तो जाबाली कहता है, ‘मुझे नहीं मालूम, माँ से पूछकर आता हूँ।’
माँ से जब उसने पूछा तो माँ ने जवाब दिया, ‘जाकर ऋषि को बता दो कि मैं कई लोगों की अंकशायिनी बनी हूँ। मुझे नहीं पता कि किसके वीर्य से तुम्हारी उत्पत्ति हुई है।’
जाबाली ने लौटकर जब यह बात ऋषि गौतम को बताई तो उनका जवाब था, ‘तुम्हारे सच बोलने से मैं प्रसन्न हूँ और तुम आश्रम में भर्ती हो सकते हो।’
अहल्या के पति गौतम ऋषि पत्नी को यह कहकर बाहर गए कि मुझे आने में देर होगी।
इन्द्र को जब यह पता लगा तो वह गौतम ऋषि का वेश धारण कर कामातुर हो अहल्या से संभोग करने लगा।
संभोग के दौरान अहल्या को आभास हुआ कि यह मेरा पति नहीं, इन्द्र है, तो काम-ग्रस्त अहल्या ने उसे दुत्कारा नहीं और संभोग की प्रक्रिया पूर्ण होने दी।
दुर्भाग्य से इन्द्र जब बाहर निकल रहे थे तो गौतम ऋषि आते दिखाई दिये और उन्होंने इन्हें देख लिया। गौतम ऋषि ने इन्द्र को श्राप दिया कि तुम्हारे शरीर में हजार योनियाँ हो जाएँगी। अहल्या को श्राप दिया कि तुम पत्थर हो जाओ।
जब दोनों ने बहुत अनुनय-विनय की तो उन्होंने इन्द्र की हजार योनियों को आँख में परिवर्तित कर दिया और अहल्या से कहा कि तुम्हारा उद्धार तब होगा जब श्रीराम यहाँ से गुजरेंगे और अपना चरण तुम्हारे शिलाखंड से स्पर्श करेंगे।
अन्तत: वही हुआ। जब वनवास के दौरान राम के पैरों का स्पर्श हुआ तो अहल्या का उद्धार हुआ।
ओडिशा के जगन्नाथपुरी के मन्दिर की दीवारों पर मैथुनरत मूर्तियाँ मन्दिर की प्राचीर पर उकेरी गई हैं और उसी प्रदेश के कोणार्क स्थित सूर्यमन्दिर में तो मैथुनरत आदमकद व असंख्य छोटी मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं। धर्मभीरु विद्वान इसकी चाहे जो भी व्याख्या करें किन्तु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस प्रकार की मूर्तियों को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था बल्कि उन्हें एक प्रकार से धार्मिक व सामाजिक स्वीकृति प्राप्त थी।
इतना ही नहीं, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु आदि दक्षिण के प्रदेशों के अधिकांश मन्दिरों की प्राचीरों पर सैकड़ों वर्ष पूर्व उकेरी गई ये मूर्तियाँ आज भी विद्यमान हैं। औरंगाबाद के निकट खजुराहो की गुफाओं में बहुत ही कलात्मक ढंग से मैथुन क्रिया की चित्रकारी विश्वप्रसिद्ध है और देश-विदेश के लाखों दर्शक इनको देखकर आनन्द प्राप्त करते हैं।
संस्कृत साहित्य में तो काम-क्रिया, रति-क्रिया आदि पर बहुत कुछ लिखा गया है, यहाँ तक कि स्त्री के गुप्तांगों का विशद वर्णन तक किया गया है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम सीता की गोद में सिर रखकर सो रहे थे तो जयंत सीता के रूप-लावण्य, विशेषकर उनके वक्षस्थल को देख इस कदर कामातुर हो उठा कि उसने कौवे का रूप धारण कर उनके वक्षस्थल पर चोंच मारी जिससे निकली रक्त की बूँदें राम के मुँह पर गिरी और उनकी नींद टूट गई। उनकी दृष्टि वृक्ष की डाल पर काग-रूपी जयंत पर पड़ी और वे समझ गए कि यह कारस्तानी जयंत की थी। उन्होंने पास पड़ा तिनका उठाकर उसकी ओर फेंका जो उसकी आँख में लगा और उसकी एक आँख फूट गई।
संस्कृत काव्य में शृंगार-रस और काम-रस पर विशेष रूप से जोर दिया गया है, जिसको पढ़कर कोई भी व्यक्ति उत्तेजित हो सकता है।