पुस्तक का विवरण (Description of Book of भक्तियोग | Bhaktiyoga PDF Download) :-
नाम 📖 | भक्तियोग | Bhaktiyoga PDF Download |
लेखक 🖊️ | स्वामी विवेकानंद / Swami Vivekanand |
आकार | 0.00 KB MB |
कुल पृष्ठ | |
भाषा | Hindi |
श्रेणी | दार्शनिक, धार्मिक, हिन्दू धर्म |
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निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को ‘भक्तियोग’ कहते हैं। इस खोज का आरंभ, मध्य और अंत प्रेम में होता है। ईश्वर के प्रति एक क्षण की भी प्रेमोन्मत्तता हमारे लिए शाश्वत मुक्ति को देनेवाली होती है। ‘भक्तिसूत्र’ में नारदजी कहते हैं, ‘‘भगवान् के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है। जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता है, तो सभी उसके प्रेमपात्र बन जाते हैं। वह किसी से घृणा नहीं करता; वह सदा के लिए संतुष्ट हो जाता है। इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब तक सांसारिक वासनाएँ घर किए रहती हैं, तब तक इस प्रेम का उदय ही नहीं होता। भक्ति कर्म से श्रेष्ठ है और ज्ञान तथा योग से भी उच्च है, क्योंकि इन सबका एक न एक लक्ष्य है ही, पर भक्ति स्वयं ही साध्य और साधन-स्वरूप है।’’
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पुस्तक का कुछ अंश
प्रार्थना
स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थो,
ज्ञः सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता।
य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव,
नान्यो हेतुः विद्यते ईशनाय॥
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं,
यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तं ह देवं आत्मबुद्धिप्रकाशं,
मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये॥
वह विश्व की आत्मा है, अमरण धर्मा और ईश्वररूप में स्थित है। वह सर्वज्ञ, सर्वगत और इस संसार का रक्षक है, जो सर्वदा इस जगत् का शासन करता है; क्योंकि इसका शासन करने के लिए और कोई समर्थ नहीं है।
जिसने सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा को उत्पन्न किया और जिसने उसके लिए वेदों को प्रवृत्त किया, आत्मबुद्धि को प्रकाशित करनेवाले उस देव की मैं मुमुक्षु शरण ग्रहण करता हूँ।
(—श्वेताश्वतर उपनिषद्, 6/17-18)
भक्ति के लक्षण
निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को ‘भक्तियोग’ कहते हैं। इस खोज का आरंभ, मध्य और अंत प्रेम में होता है। ईश्वर के प्रति एक क्षण की भी प्रेमोन्मत्तता हमारे लिए शाश्वत मुक्ति को देनेवाली होती है। ‘भक्तिसूत्र’ में नारदजी कहते हैं, ‘‘भगवान् के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है। जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता है, तो सभी उसके प्रेमपात्र बन जाते हैं। वह किसी से घृणा नहीं करता; वह सदा के लिए संतुष्ट हो जाता है। इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब तक सांसारिक वासनाएँ घर किए रहती हैं, तब तक इस प्रेम का उदय ही नहीं होता। भक्ति कर्म से श्रेष्ठ है और ज्ञान तथा योग से भी उच्च है, क्योंकि इन सबका एक न एक लक्ष्य है ही, पर भक्ति स्वयं ही साध्य और साधन-स्वरूप है।’’(नारदभक्तिसूत्र)
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भारतवर्ष के साधु-महापुरुषों के बीच भक्ति ही चर्चा का विषय रही है। भक्ति की विशेष रूप से व्याख्या करनेवाले शांडिल्य और नारद आदि महापुरुषों को छोड़ देने पर भी, स्पष्टतः ज्ञानमार्ग के समर्थक, व्याससूत्र के महान् भाष्यकारों ने भी भक्ति के संबंध में हमें बहुत कुछ बतलाया है। भले ही इन भाष्यकारों ने सब सूत्रों की न सही, पर अधिकतर सूत्रों की व्याख्या शुष्क ज्ञान के अर्थ में ही की है, किंतु यदि हम उन सूत्रों के, विशेषकर उपासना-कांड के सूत्रों के अर्थ पर निरपेक्ष भाव से विचार करें तो पाएँगे कि उनकी इस प्रकार यथेच्छ व्याख्या नहीं की जा सकती।
सच तो यह है कि ज्ञान और भक्ति में उतना अंतर नहीं, जितना लोग अनुमान लगाया करते हैं। पर जैसा हम आगे देखेंगे, ये दोनों हमें एक ही लक्ष्य-स्थल पर ले जाते हैं। ऐसा ही हाल राजयोग का भी है। उसका अनुष्ठान जब मुक्ति-लाभ के लिए किया जाता है, सीधे-सादे लोगों की आँखों में धूल झोंकने के उद्देश्य से नहीं (जैसा बहुधा ढोंगी और जादू-मंतरवाले करते हैं), तो वह भी हमें उसी लक्ष्य पर पहुँचा देता है।
भक्तियोग का एक बड़ा लाभ यह है कि वह हमारे चरम लक्ष्य (ईश्वर) की प्राप्ति का सबसे सरल और स्वाभाविक मार्ग है। परंतु साथ ही उससे एक विशेष भय की आशंका यह है कि वह अपनी निम्न या गौणी अवस्था में मनुष्य को बहुधा घोर मतांध और कट्टर बना देता है। हिंदू, इसलाम या ईसाई धर्म में जहाँ कहीं इस प्रकार के धर्मांध व्यक्तियों का दल है, वह सदैव ऐसे ही निम्न श्रेणी के भक्तों द्वारा गठित हुआ है। वह इष्ट-निष्ठा, जिसके बिना यथार्थ प्रेम का विकास संभव नहीं, अकसर दूसरे सब धर्मों की निंदा का भी कारण बन जाती है। प्रत्येक धर्म और देश में दुर्बल और अविकसित बुद्धिवाले जितने भी मनुष्य हैं, वे अपने आदर्श से प्रेम करने का एक ही उपाय जानते हैं और वह है अन्य सभी आदर्शों को घृणा की दृष्टि से देखना। यहीं इस बात का उत्तर मिलता है कि वही मनुष्य, जो धर्म और ईश्वर संबंधी अपने आदर्श में इतना अनुरक्त है, किसी दूसरे आदर्श को देखते ही या उस संबंध में कोई बात सुनते ही इतना खूँखार क्यों हो उठता है।
इस प्रकार का प्रेम कुछ-कुछ दूसरों के हाथ से अपने स्वामी की संपत्ति की रक्षा करनेवाले एक कुत्ते की सहज प्रवृत्ति के समान है। पर हाँ, कुत्ते की वह सहज प्रेरणा मनुष्य की युक्ति से कहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वह कुत्ता कम-से-कम अपने स्वामी को शत्रु समझकर कभी भ्रमित तो नहीं होता, भले ही उसका स्वामी किसी भी वेष में उसके सामने क्यों न आए। फिर मतांध व्यक्ति अपनी सारी विचार-शक्ति खो बैठता है। व्यक्तिगत विषयों की ओर उसकी इतनी अधिक अनुरक्ति रहती है कि वह यह जानने का बिलकुल इच्छुक नहीं रह जाता है कि कोई व्यक्ति कहता क्या है—वह सही है या गलत? उसका तो एकमात्र ध्यान रहता है यह जानने में कि वह बात कहता कौन है। देखोगे, जो व्यक्ति अपने संप्रदाय के, अपने मतवाले लोगों के प्रति दयालु है, भला और सच्चा है, सहानुभूति-संपन्न है, वही अपने संप्रदाय से बाहर के लोगों के विरुद्ध बुरा से बुरा काम करने में भी न हिचकिचाएगा।[adinserter block="1"]
लेकिन ऐसी आशंका भक्ति की केवल निम्नतर अवस्था में ही रहती है। इस अवस्था को ‘गौणी’ कहते हैं। परंतु जब भक्ति परिपक्व होकर उस अवस्था को प्राप्त हो जाती है, जिसे हम ‘परा’ कहते हैं, तब इस प्रकार की घोर मतांधता और कट्टरता की आशंका नहीं रह जाती। इस परा भक्ति से अभिभूत व्यक्ति प्रेमस्वरूप भगवान् के इतने निकट पहुँच जाता है कि वह फिर दूसरों के प्रति घृणा-भाव के विस्तार का यंत्र नहीं बन सकता।
ऐसा संभव नहीं कि हममें से प्रत्येक, इसी जीवन में सामंजस्य के साथ अपना चरित्र-निर्माण कर सके; फिर भी हम जानते हैं कि जिस चरित्र में ज्ञान, भक्ति और योग—इन तीनों का सुंदर सम्मिश्रण है, वही सर्वोत्तम कोटि का है। एक पक्षी के उड़ने के लिए तीन अंगों की आवश्यकता होती है—दो पंख और पतवार-स्वरूप एक पूँछ। ज्ञान और भक्ति दो पंख की तरह हैं और योग पूँछ, जो इनमें सामंजस्य बनाए रखता है। जो लोग इन तीनों साधना-प्रणालियों का एक साथ सामंजस्य बिठाकर अनुष्ठान नहीं कर सकते और इसलिए केवल भक्ति को अपने मार्ग के रूप में अपना लेते हैं, उन्हें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि बाह्य अनुष्ठान और क्रियाकलाप आरंभिक दशा में नितांत आवश्यक हैं, फिर भी भगवान् के प्रति प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न कर देने के अतिरिक्त उनकी और कोई उपयोगिता नहीं होती।
हालाँकि ज्ञान और भक्ति दोनों ही मार्गों के आचार्यों का भक्ति के प्रभाव में विश्वास है, फिर भी उन दोनों में कुछ थोड़ा सा मतभेद है। ज्ञानी की दृष्टि में भक्ति मुक्ति का एक साधन मात्र है, पर भक्त के लिए वह साधन है और साध्य भी। मेरी दृष्टि में तो यह भेद नाममात्र का ही है। वास्तव में, जब भक्ति को हम एक साधन के रूप में लेते हैं, तो उसका अर्थ केवल निम्न स्तर की उपासना होता है। इस तरह यह निम्न स्तर की उपासना ही आगे चलकर परा भक्ति में परिणत हो जाती है। ज्ञानी और भक्त दोनों ही अपनी-अपनी साधना-प्रणाली पर विशेष जोर देते हैं; पर वे यह भूल जाते हैं कि पूर्ण भक्ति के उदय होने से पूर्ण ज्ञान बिना माँगे ही प्राप्त हो जाता है और इसी प्रकार पूर्ण ज्ञान के साथ पूर्ण भक्ति भी स्वतः ही आ जाती है।
उपर्युक्त बात को ध्यान में रखते हुए हम अब यह समझने का प्रयत्न करें कि इस विषय में महान् वेदांत-भाष्यकारों का क्या कहना है। ‘आवृत्तिरसकृदुपदेशात्’ सूत्र की व्याख्या करते हुए भगवान् शंकराचार्य कहते हैं—
‘‘लोग ऐसा कहते हैं, वह गुरु का भक्त है, वह राजा का भक्त है। और वे यह बात उस व्यक्ति को संबोधित करते हुए कहते हैं, जो गुरु या राजा का अनुसरण करता है और इस प्रकार यह अनुसरण ही जिसके जीवन का ध्येय है। इस प्रकार, जब वे कहते हैं, एक पतिव्रता स्त्री अपने विदेश गए पति का ध्यान करती है, तो यहाँ भी एक प्रकार से उत्कंठा-युक्त निरंतर स्मृति को ही लक्ष्य किया गया है।’’ शंकराचार्य के मतानुसार यही भक्ति है।[adinserter block="1"]
इसी प्रकार ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ सूत्र की व्याख्या करते हुए भगवान् रामानुज कहते हैं—
‘‘एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल ढालने पर जिस प्रकार वह एक अखंड धारा में गिरता है, उसी प्रकार किसी ध्येय वस्तु के निरंतर स्मरण को ‘ध्यान’ कहते हैं। जब इस तरह की ध्यानावस्था ईश्वर के संबंध में प्राप्त हो जाती है, तो सारे बंधन टूट जाते हैं। हमारे शास्त्रों में इसी प्रकार के निरंतर स्मरण को मुक्ति का साधन बतलाया गया है। फिर यह स्मृति है तो दर्शन के ही समान, क्योंकि उसका तात्पर्य इस शास्त्रोक्त वाक्य के तात्पर्य के ही सदृश है—‘‘उस पर और अवर (दूर और समीप) पुरुष के दर्शन से हृदय-ग्रंथियाँ छिन्न हो जाती हैं, समस्त संशयों का नाश हो जाता है और सारे कर्म क्षीण हो जाते हैं।’’ जो समीप है, उसके तो दर्शन हो सकते हैं, पर जो दूर है, उसका तो केवल स्मरण ही किया जा सकता है। फिर भी शास्त्रों में कहा गया है कि हमें तो उन्हें देखना है, जो समीप है और फिर दूर भी; और इस प्रकार शास्त्र हमें यह दिखा दे रहे हैं कि उपर्युक्त प्रकार का स्मरण दर्शन के ही बराबर है। यह स्मृति प्रगाढ़ हो जाने पर दर्शन का रूप धारण कर लेती है।...शास्त्रों में प्रमुख स्थानों पर कहा है कि उपासना का अर्थ निरंतर स्मरण ही है। और ज्ञान भी, जो असकृत् उपासना से अभिन्न है, निरंतर स्मरण के अर्थ में ही वर्णित हुआ है। अतएव श्रुतियों ने उस स्मृति को, जिसने प्रत्यक्ष अनुभूति का रूप धारण कर लिया है, मुक्ति का साधन बताया है।
आत्मा की अनुभूति न तो नाना प्रकार की विद्याओं से हो सकती है, न बुद्धि से और न बारंबार वेदाध्ययन से। यह आत्मा जिसको वरण करती है, वही इसकी प्राप्ति करता है तथा उसी के सम्मुख आत्मा अपना स्वरूप प्रकट करती है। यहाँ यह कहने के उपरांत कि केवल श्रवण, मनन और निदिध्यासन से आत्मोपलब्धि नहीं होती, यह बताया गया है, जिसको यह आत्मा वरण करती है, उसी के द्वारा यह प्राप्त होती है। जो अत्यंत प्रिय है, उसी को वरण किया जाता है; जो इस आत्मा से अत्यंत प्रेम करता है, वही आत्मा का सबसे बड़ा प्रियपात्र है। यह प्रियपात्र जिससे आत्मा की प्राप्ति कर सके, उसके लिए स्वयं भगवान् सहायता देते हैं; क्योंकि भगवान् ने स्वयं कहा है, जो मुझमें सतत युक्त है और प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, उन्हें मैं ऐसा बुद्धियोग देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं। इसीलिए कहा गया है कि जिसे यह प्रत्यक्ष अनुभवात्मक स्मृति अत्यंत प्रिय है, उसी को परमात्मा वरण करते हैं, वही परमात्मा की प्राप्ति करता है; क्योंकि जिनका स्मरण किया जाता है, उन परमात्मा को यह स्मृति अत्यंत प्रिय है। यह निरंतर स्मृति ही भक्ति शब्द द्वारा अभिहित हुई है।
पतंजलि के ‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’ सूत्र की व्याख्या करते हुए भोज कहते हैं—
‘‘प्रणिधान वह भक्ति है, जिसमें इंद्रियभोग आदि समस्त फलाकांक्षाओं का त्याग कर सारे कर्म उन परम गुरु परमात्मा को समर्पित कर दिए जाते हैं।’’
भगवान् वेद व्यास ने भी इसकी व्याख्या करते हुए कहा है, ‘‘प्रणिधान वह भक्ति है, जिससे उस योगी पर परमेश्वर का अनुग्रह होता है और उसकी सारी आकांक्षाएँ पूर्ण हो जाती हैं।’’[adinserter block="1"]
ऋषि शांडिल्य के मतानुसार—‘‘ईश्वर में परम अनुरक्ति ही भक्ति है।’’
पराभक्ति की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या तो वह है, जो भक्तराज प्रह्लाद ने दी है, ‘‘अविवेकी पुरुषों की इंद्रिय-विषयों में जैसी तीव्र आसक्ति होती है, (तुम्हारे प्रति) उसी प्रकार की (तीव्र) आसक्ति तुम्हारा स्मरण करते समय कही मेरे हृदय से चली न जाए!’’ यह आसक्ति किसके प्रति? उन्हीं परम प्रभु ईश्वर के प्रति। किसी अन्य पुरुष (चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो) के प्रति आसक्ति को कभी भक्ति नहीं कह सकते।
इसके समर्थन में एक प्राचीन आचार्य को उद्धृत करते हुए अपने श्रीभाष्य में रामानुज कहते हैं, ‘‘ब्रह्मा से लेकर एक तिनका तक संसार के समस्त प्राणी कर्मजनित जन्ममृत्यु के वश में हैं, अतएव अविद्यायुक्त और परिवर्तनशील होने के कारण वे इस योग्य नहीं कि ध्येय-विषय के रूप में वे साधक के ध्यान में सहायक हों।’’
शांडिल्य के ‘अनुरक्ति’ शब्द की व्याख्या करते हुए भाष्यकार स्वप्नेश्वर कहते हैं, ‘‘उसका अर्थ है—‘अनु’ यानी पश्चात् और ‘रक्ति’ यानी आसक्ति, अर्थात् वह आसक्ति, जो भगवान् के स्वरूप और उनकी महिमा के ज्ञान के पश्चात् आती है। अन्यथा स्त्री, पुत्र आदि किसी भी व्यक्ति के प्रति अंध-आसक्ति को ही हम ‘भक्ति’ कहने लगें!’’
अतः हम स्पष्ट देखते हैं कि आध्यात्मिक अनुभूति के निमित्त किए जानेवाले मानसिक प्रयत्नों की परंपरा या क्रम ही भक्ति है, जिसका प्रारंभ साधारण पूजा-पाठ से और अंत ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ एवं अनन्य प्रेम में होता है।
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ईश्वर का स्वरूप
ईश्वर कौन हैं?
‘‘जिनसे विश्व का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है, वे ही ईश्वर हैं। वे अनंत, शुद्ध, नित्यमुक्त, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, परमकारुणिक और गुरुओं के भी गुरु हैं, और सर्वोपरि वे ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेम-स्वरूप हैं।’’
उपर्युक्त सब व्याख्या अवश्य सगुण ईश्वर की है। तो क्या ईश्वर दो हैं? एक सच्चिदानंदस्वरूप, जिसे ज्ञानी नेति-नेति करके प्राप्त करता है और दूसरा, भक्त का यह प्रेममय भगवान्? नहीं, वह सच्चिदानंद ही यह प्रेममय भगवान् है, वह सगुण और निर्गुण दोनों है। यह सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि भक्त का उपास्य सगुण ईश्वर ब्रह्म से भिन्न अथवा पृथक् नहीं है। सबकुछ वही एकमेवाद्वितीय ब्रह्म है। पर हाँ, ब्रह्म का यह निर्गुण स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण प्रेम व उपासना के योग्य नहीं। इसीलिए भक्त ब्रह्म के सगुण भाव अर्थात् परम नियंता ईश्वर को ही उपास्य के रूप में ग्रहण करता है। उदाहरणार्थ, ब्रह्म मानो मिट्टी या उपादान के सदृश है, जिससे नाना प्रकार की वस्तुएँ निर्मित हुई हैं। मिट्टी के रूप में तो वे सब एक हैं, पर उनके बाह्य आकार अलग-अलग होने से वे भिन्न-भिन्न प्रतीत होती हैं। उत्पत्ति के पूर्व वे सब की सब मिट्टी में गूढ़ भाव से विद्यमान थीं। उपादान की दृष्टि से अवश्य वे सब एक हैं, पर जब वे भिन्न-भिन्न आकार धारण कर लेती हैं और जब तक आकार बना रहता है, तब तक तो वे पृथक्-पृथक् ही प्रतीत होती हैं। मिट्टी का एक चूहा कभी मिट्टी का हाथी नहीं हो सकता, क्योंकि गढ़े जाने के बाद उनकी आकृति ही उनमें विशेषत्व पैदा कर देती है, यद्यपि आकृतिहीन मिट्टी की दशा में वे दोनों एक ही थे। ईश्वर उस निरपेक्ष सत्ता की उच्चतम अभिव्यक्ति है, या यों कहिए, मानव-मन के लिए जहाँ तक निरपेक्ष सत्य की धारणा करना संभव है, बस वही ईश्वर है। सृष्टि अनादि है, और उसी प्रकार ईश्वर भी अनादि है।
वेदांतसूत्र के चतुर्थ अध्याय के चतुर्थ पाद में यह वर्णन करने के पश्चात् कि मुक्तिलाभ के उपरांत मुक्तात्मा को एक प्रकार से अनंत शक्ति और ज्ञान प्राप्त हो जाता है। व्यासदेव एक दूसरे सूत्र में कहते हैं, ‘‘पर किसी को सृष्टि, स्थिति और प्रलय की शक्ति प्राप्त नहीं होगी, क्योंकि यह शक्ति केवल ईश्वर की ही है।’’ इस सूत्र की व्याख्या करते समय द्वैतवादी भाष्यकारों के लिए यह दरशाना सरल है कि परतंत्र जीव के लिए ईश्वर की अनंत शक्ति और पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना नितांत असंभव है। कट्टर द्वैतवादी भाष्यकार मध्वाचार्य ने वराह पुराण से एक श्लोक लेकर इस सूत्र की व्याख्या अपनी पूर्वपरिचित संक्षिप्त शैली में की है।[adinserter block="1"]
इसी सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार रामानुज कहते हैं, ‘‘ऐसा संशय उपस्थित होता है कि मुक्तात्मा को जो शक्ति प्राप्त होती है, उसमें क्या परम पुरुष की जगत्सृष्टि-आदि असाधारण शक्ति और सर्वनियंतृत्व भी अंतर्भूत हैं? या कि उसे यह शक्ति नहीं मिलती और उसका ऐश्वर्य केवल इतना ही रहता है कि उसे परम पुरुष के साक्षात् दर्शन भर हो जाते हैं? तो इस पर पूर्वपक्ष यह उपस्थित होता है कि मुक्तात्मा का जगन्नियंतृत्व प्राप्त करना युक्तियुक्त है; क्योंकि शास्त्र का कथन है, ‘‘वह शुद्धरूप होकर (परम पुरुष के साथ) परम एकत्व प्राप्त कर लेता है’’ (मुंडक उपनिषद् 3। 1। 3)। अन्य स्थान पर यह भी कहा गया है कि उसकी समस्त वासना पूर्ण हो जाती है। अब बात यह है कि परम एकत्व और सारी वासनाओं की पूर्ति परम पुरुष की असाधारण शक्ति जगन्नियंतृत्व बिना संभव नहीं। इसलिए जब हम यह कहते हैं कि उसकी सब वासनाओं की पूर्ति हो जाती है तथा उसे परम एकत्व प्राप्त हो जाता है, तो हमें यह मानना ही चाहिए कि उस मुक्तात्मा को जगन्नियंतृत्व की शक्ति प्राप्त हो जाती है। इस संबंध में हमारा उत्तर यह है कि मुक्तात्मा को जगन्नियंतृत्व के अतिरिक्त अन्य सब शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। जगन्नियंतृत्व का अर्थ है—विश्व के सारे स्थावर और जंगम के रूप, उनकी स्थिति और वासनाओं का नियंतृत्व। पर मुक्तात्माओं में यह जगन्नियंतृत्व की शक्ति नहीं रहती। हाँ, उनकी परमात्म-दृष्टि का आवरण अवश्य दूर हो जाता है और उन्हें प्रत्यक्ष ब्रह्मानुभूति हो जाती है, बस यही उनका एकमात्र ऐश्वर्य है। यह कैसे जाना? शास्त्रवाक्य के बल पर। शास्त्र कहते हैं कि जगन्नियंतृत्व केवल परब्रह्म का गुण है। जैसे—‘‘जिससे यह समुदय उत्पन्न होता है, जिसमें यह समुदय स्थित रहता है और जिसमें प्रलयकाल में यह समुदय लीन हो जाता है, तू उसी को जानने की इच्छा कर, वही ब्रह्म है।’’ यदि यह जगन्नियंतृत्व-शक्ति मुक्तात्माओं का भी एक साधारण गुण रहे, तो उपर्युक्त श्लोक फिर ब्रह्म का लक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि उसके जगन्नियंतृत्व गुण से ही उसका लक्षण प्रतिपादित हुआ है।
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