भूमिका
अमर शहीद भगतसिंह की जेल डायरी का हिंदी में प्रकाशन एक ऐतिहासिक घटना है। भारत के लोग 20वीं शती के अपने जिन महान् वीर सपूतों और सुपुत्रियों को गहरे प्यार एवं आत्मीय भाव से गौरवपूर्वक याद करते हैं, उनमें से एक मुख्य सपूत हैं ‘शहीद-ए-आजम भगतसिह’।
ब्रिटिश राज्य ने लगभग आधे भारत में सन् 1858 में सीधे शासन सँभाला। जैसा ब्रिटिश कूटनीति का स्वभाव था और है, पहले तो वे लोग ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की लानत-मलामत करते रहे, उसकी असत्यपूर्ण और घिनौनी करतूतों को ‘अन ब्रिटिश’ अनैतिक तथा असत्य से भरी बताकर उसके अफसरों पर अभियोग लगाते रहे। क्लाइव, हेस्टिंग्ज आदि पर आपराधिक मुकदमे चलाए, जिसके बचाव में उन्हें कहना पड़ा कि हम वहाँ ब्रिटिश आचरण का पालन न कर, मुनाफे के लिए जो कुछ जरूरी है, वह सब कर रहे हैं, इसमें बिना कानून पढ़े हुए लोगों को जाली जज बनाना भी शामिल है तथा फर्जी मुकदमे चलाकर भारत के धनियों एवं राजपुरुषों को दंडित करने का प्रयास भी शामिल है। परंतु बाद में जब कंपनी की काली करतूतों के कारण भारतीय लोग उन्हें मार भगाने लगे तो एक झूठी अफवाह उड़ाकर कि भारत में निर्दोष अंग्रेजों स्त्रियों-बच्चों का अकारण कत्ल किया जा रहा है, उनकी रक्षा की आड़ लेकर सन् 1857 में ब्रिटिश फौज की एक टुकड़ी पहली बार भारत के उस हिस्से पर कब्जा करने आ गई, जिस पर कंपनी छलपूर्ण दावे कर रही थी। उन दिनों ब्रिटेन एक पूर्ण नेशन-स्टेट बनने की प्रक्रिया में था, पर बना नहीं था। उसके पास बहुत व्यवस्थित और बड़ी सेना नहीं थी। इसलिए उसने भारत के उन राजाओं और नवाबों से संधियाँ की थीं, जो इस बीच इंग्लैंड के मैत्रीपूर्ण संपर्क में आ गए थे। इन संधियों के बाद ब्रिटिश राज्य सन् 1858 में कलकत्ता को मुख्यालय बनाकर आ तो गया, परंतु तब भी अगले 50 वर्षों तक उसे दिल्ली में राजधानी बनाने की हिम्मत नहीं हुई।[adinserter block="1"]
लगभग आधे भारत में ब्रिटिश राज्य होने के 50वें वर्ष में सन् 1907 में भारत के इस भाग्यवान सपूत का जन्म हुआ। उसी दिन उनके पिता किशन सिंहजी और चाचा अजीत सिंहजी जेल से छूटकर घर आए थे। इसलिए दादी ने बच्चे को भाग्यवान कहकर उसका नाम भगतसिंह किया। वे सचमुच भाग्यवान थे। देश के लिए जीवन अर्पित कर 24 वर्ष की आयु में ही वे अमर हो गए। इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा?
सन् 1905 में कर्जन ने बंगाल को बाँटने की घोषणा की, जबकि बंगाल के भी अनेक राजाओं एवं रानियों से ब्रिटेन ने संधि की थी। उस कुचाल के विरोध में भारतीय देशभक्ति एवं वीरता की प्रचंड ज्योति जल उठी। श्री अरविंदजी एवं श्री रासबिहारी घोषजी आदि ने उस ज्योति को निरंतर तीव्र बनाए रखा। स्वदेशी सत्याग्रह एवं देशभक्ति का विराट् राष्ट्रीय परिवेश बन गया। भगतसिंहजी के चाचा अजीत सिंहजी भी महान् क्रांतिकारी थे, जिन्हें अंग्रेजी शासन ने देश-निकाला दे दिया था।
वस्तुतः 18वीं शती का भारत समस्त यूरोप के बराबर था। स्वयं भगतसिंहजी ने पृष्ठ 277 (जेल नोट्स 287) पर नोट किया है कि भारत ग्रेट ब्रिटेन से 20 गुना बड़ा है (इंग्लैंड से भारत लगभग 36 गुना बड़ा था)। इसलिए इस विशाल क्षेत्र में अनेक राजनैतिक कार्य साथ-साथ हो रहे थे। भगतसिंह ने इसी जेल नोट्स 287 (पुस्तक के पृष्ठ 277) में यह भी स्मरण दिलाया है कि भारत में 600 राज्य हैं। बंबई और मद्रास जैसे राज्य इटली से बड़े राज्य हैं। बर्मा भी उन दिनों भारत का एक राज्य था, जो फ्रांस नेशन-स्टेट से अधिक बड़े आकार का था। वे यह भी स्मरण दिलाते हैं कि भारतीय लोग समस्त मानव जाति का पंचमांश हैं। अतः यहाँ ब्रिटिश भारत क्षेत्र में स्वशासन की आशा जागते ही अंग्रेजी पढ़े-लिखे ठंडे लोग राजनैतिक जोड़-तोड़ में जुट गए, वहीं देश के वीर युवक-युवती इन बाहरी अजनबी फिरंगियों को मार भगाने में जुट गए। ठंडी धारा के सबसे बड़े नेता हैं गांधीजी, जिन्होंने सन् 1908 में ही ‘हिंद स्वराज’ लिखी, जो वस्तुतः भारतीयों को अहिंसा के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है, वहीं लोकमान्य तिलकजी, रामप्रसाद बिस्मिलजी, जोगेशचंद्रजी, शचींद्रनाथ सान्यालजी, श्री अरविंदजी, चित्तरंजनदासजी, वीर सावरकरजी, राजगुरुजी आदि ने वीरतापूर्ण देशभक्ति की प्ररेणा देने वाला साहित्य रचा। वस्तुतः ये दोनों धाराएँ एक गहरे अर्थ में परस्पर पूरक थीं, परंतु कई स्तरों पर इनमें परस्पर विरोध भी था।
अंग्रेजों ने स्वयं के न्यायप्रिय, शांतिप्रिय होने का प्रचार ऐसी खूबी से किया कि लोकमान्य तिलकजी के नेतृत्व में भारत के वीर एवं तेजस्वी युवक-युवतियाँ भी कांग्रेस से जुटने लगे। आज लोग भूल जाते हैं कि चित्तरंजनदासजी, सूर्यसेनजी, जतिनदासजी, जोगेशचंद्र चटर्जीजी, शचींद्रनाथ सान्यालजी, चंद्रशेखर आजादजी, भगतसिंहजी, सुखदेवजी, भगवतीचरण बोहराजी, शिव वर्माजी, जयदेय कपूरजी आदि सभी ने कांग्रेस के सत्याग्रह आंदोलन में सक्रिय भाग लिया था। जब चौरी-चौरा की एक मामूली घटना का बहाना लेकर अंग्रेजों की मित्रता के प्रभाव में आए गांधीजी ने आंदोलन स्थगित कर दिया, तब क्रांतिकारियों ने क्रांतिकारी दल गठित किया।[adinserter block="1"]
भाई परमानंदजी, रामप्रसाद बिस्मिलजी, ठा. रोशनसिंहजी आदि आर्यसमाज के सक्रिय सदस्य थे, स्वयं भगतसिंह पंजाब के समाज-सुधार आंदोलन से जुड़े परिवार के थे। जब गांधीजी ने अचानक ‘सत्याग्रह बंद करो’ की घोषणा की, तब पहली बार ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक संघ’ बनाकर क्रांतिकारियों ने काम प्रारंभ किया। सन् 1924 में शचींद्रनाथ सान्याल ने इस संघ की रूपरेखा तैयार कर काम शुरू किया। बाद में यह ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ बना। इस एसोसिएशन की स्थापना सन् 1928 में चंद्रशेखर आजादजी, भगतसिंहजी आदि ने की। इन तथ्यों का स्मरण आवश्यक है।
लाला लाजपत रायजी पर लाठियाँ बरसाने वाले क्रूर अंग्रेज पिशाच का बदला लेने के लिए सांडर्स का वध किया गया। अगले वर्ष असेंबली में परचा फेंककर भारत का पक्ष प्रस्तुत किया गया। स्पष्ट रूप से यह एक सामान्य घटना थी। बटुकेश्वर दत्तजी एवं भगतसिंहजी ने केवल ध्यान खींचने के लिए मामूली विस्फोट किया था, न कोई मरा, न बुरी तरह घायल हुआ। पर इतने से काम को भीषण अपराध बताकर फाँसी दे दी गई। यह है पापपूर्ण ब्रिटिश न्याय का एक उदाहरण। दुर्भाग्यवश भारत में आज वही गलत न्यायिक एवं कानूनी ढाँचा कायम है।
सन् 1948 के बाद कांग्रेस ने अपने दोषों को छिपाने के लिए हिंसा-अहिंसा की झूठी बहस खड़ी की, जो इस विषय में निरर्थक है। मुख्य बात यह है कि तेजस्वी वीर युवक-युवतियों को अंग्रेज एक बाहरी आततायी दिखते थे, ठंडी धारा के नेता उनसे मधुर संबंध बनाकर धीरे से स्वशासन का सूत्र स्वयं सँभाल लेना चाहते थे। इस प्रकार वे भारत के नए राजा बनने की कूटनीति कर रहे थे। यही कारण है कि उन्होंने अकारण भारतीय राजाओं की निंदा शुरू कर दी थी। क्रांतिकारियों के लिए यह भारतमाता की आन-बान-शान का प्रश्न था। ठंडी धारा के नेताओं के लिए समस्त स्वाधीनता आंदोलन राजनैतिक चालों का अंग था। ये दो नितांत भिन्न प्रवृत्तियाँ हैं। इनकी तुलना असंभव है और इसमें परस्पर विरोध दिखाना भी व्यर्थ है। क्योंकि ये दोनों धाराएँ परस्पर विजातीय हैं। दोनों की प्रेरणाएँ भी अलग हैं। पहली की प्रेरणा है, शुद्ध देशभक्ति तो दूसरी की प्ररेणा है राजनैतिक राष्ट्रवाद की आड़ में सत्ता पर कब्जा करना। हिंसा-अहिंसा आदि राजनीति के लिए केवल नारे होते हैं। क्योंकि हम सभी जानते हैं कि अहिंसावादी धारा ने भी लाखों भारतीयों को मरवाया है, जेलों में सड़ाया है, घायल किया है। विभाजन की जिम्मेदारी अहिंसावादी धारा की ही थी और उसमें लाखों भारतीयों की हत्या हुई, इसकी जिम्मेदारी भी इसी धारा की बनती है।[adinserter block="1"]
सन् 1948 के बाद भारतीय वीरों एवं विभूतियों को वैचारिक टकराव के झूठे मुहावरों में देखा-दिखाया जाता है। यह गलत है। भगतसिहजी की देशभक्ति, तेजस्विता, साहस, पुरुषार्थ, प्रेरणा एवं वीरता को समझने की आवश्यकता है, क्योंकि भारत की नई पीढ़ी के लिए ऊर्जा एवं प्रकाश का स्रोत हैं।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि भगतसिंहजी को 24 वर्ष की आयु में फाँसी दे दी गई थी। 24 वर्ष के युवक को वैचारिक मतवाद के चश्मे से देखना मूढ़ता है। महत्त्वपूर्ण है वह ऊर्जा और प्रकाश, जो उन्होंने देश में फैलाया। 22वें वर्ष में तो वे बंदी बना लिए गए थे। इतनी कम उस के युवक में वैचारिक पंथवाद ढूँढ़ना अटपटा है।
इस ‘जेल डायरी’ को पढ़ना ऊर्जा और प्रकाश के उस दिव्य स्रोत को समझना है। ‘जेल डायरी’ के पन्नों से हमें पता चलता है कि भगतसिंहजी जहाँ गुरुनानक देव महाराजजी, गुरु गोविंदसिंहजी, समर्थ गुरु रामदासजी, रवींद्रनाथ टैगोरजी, विलियम वर्ड्सवर्थजी आदि के जीवन एवं विचारों से प्रभावित थे, वहीं वे मार्क्स, एंजेल्स, बुखारिन लेनिन, बर्टेड रसेल के विचारों से भी आकर्षित थे।
‘भगतसिंह जेल डायरी’ के नोट्स 47 (पृष्ठ 91) में संयुक्त राज्य अमेरिका एवं इंग्लैंड की विषमता तथा लूट के तथ्य लिखते हैं। वे बताते हैं कि उन दिनों भयंकर लूट-पाट के बावजूद संयुक्त राज्य अमेरिका में 1 करोड़ 50 लाख लोग भयंकर गरीबी में जी रहे थे; जबकि वहाँ 30 लाख बाल-मजदूर थे। (उन दिनों संयुक्त राज्य अमेरिका की कुल जनसंख्या 4 करोड़ थी) इसी प्रकार वे इंग्लैंड में दो-तिहाई लोगों को भयंकर गरीबी में जी रहे दरशाते हैं। जबकि नवमांश लोगों के पास इंग्लैंड की कुल संपदा का 50 प्रतिशत है। इंग्लैंड, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका के राजपुरुष एवं संपन्न लोग बीसवीं शती के पूर्वार्ध में किस प्रकार आपस में बुरी तरह लड़ रहे थे और मार-काट कर रहे थे, यह भी भगतसिंह की जेल डायरी में 184वें नोट्स (पृष्ठ 229) सहित अनेक स्थानों पर सप्रमाण दरशाया गया है।[adinserter block="1"]
भगतसिंहजी के जेल नोट्स 286 (पृष्ठ 275) से पता चलता है कि 20वीं शती के पूर्वार्ध में भी इंग्लैंड में खेती करने वाले लोगों का प्रतिशत आबादी के 12वें हिस्से से भी कम था, जबकि भारत में लगभग तीन-चौथाई लोग किसान थे। उसी पृष्ठ में वे मांटफोर्ड की रिपोर्ट का उद्धरण देकर बताते हैं कि भारत के 32 करोड़ लोगों में से 22 करोड़ लोग कृषि पर निर्भर हैं। वस्तुतः तथ्य यह है कि 20वीं शती के पूर्वार्ध में भी इंग्लैंड अपनी जिस आबादी को उद्योगों में लगा दरशा रहा था, वे सभी लोग शहरों में 18-18 घंटे जीतोड़ मेहनत कर रहे मजदूर थे। उन दिनों भी वहाँ उद्योग का मुख्य अर्थ बढ़ईगिरी, लोहारी, कपड़ा बुनना, रंगाई, सिलाई-कढ़ाई आदि ही था। कारखाने के नाम पर मुख्यतः कपड़ा मिलें शुरू हुई थीं। इंग्लैंड का सघन औद्योगीकरण तो 20वीं शती के उत्तरार्ध में ही हुआ है। रेलें, बिजली, बड़े उद्योग व्यापक रूप में उसी समय फैले। 19वीं शती में तो वे नाममात्र को शुरू भर हुए थे।
ऐसे अडिग वीरता, प्रचंड देशभक्ति, साहस, उदारता, तेजस्विता और विराट् आत्मीयता जीवन के एक बड़े सत्य के आंतरिक-आध्यात्मिक बोध से आती है, किसी वैचारिक पंथवाद से नहीं। सन् 1948 के बाद का राजनैतिक भारतीय नेतृत्व इस तथ्य का स्वयं प्रमाण है। वह मतवादों में बढ़ा-चढ़ा है, पर आंतरिक सत्य से रहित है। इसीलिए उसमें भगतसिंह के बड़प्पन की छींट भी नहीं दिखती। उसी बड़प्पन में से उनकी बड़ी जिज्ञासाएँ उपजीं—न्याय, गौरव, स्वाधीनता, राज्य और समाज तथा मानव जीवन एवं जगत् के सत्य-स्वरूप की जिज्ञासाएँ। इसी बड़प्पन के कारण शहीद-ए-आजम भगतसिंह भारत के हर देशभक्त के हृदय का स्पंदन हैं, चाहे वह किसी भी समूह, पंथ, वर्ग, जाति या श्रेणी का नर-नारी-युवा-वृद्ध कोई भी हों।
यह जेल-डायरी उस महान् हुतात्मा के बड़े व्यक्तित्व की झलक देती है। इसके हिंदी संस्करण की प्रस्तावना लिखते हुए मुझे गौरव का अनुभव हो रहा है। अमर शहीद की स्मृति में मैं प्रणत हूँ। उनके सभी परिजनों को हृदय की गहराइयों से श्रद्धापूर्ण प्रणाम निवेदित है। शहीद भगतसिंह के सुपौत्र श्री यादविंदर सिंह संधु इस महत् कार्य के लिए विशेष साधुवाद के पात्र हैं। ‘शहीद भगतसिंह ब्रिगेड’ और ‘शहीद भगतसिंह स्मारक न्यास’ ने स्तुत्य कार्य किया है। मेरी दृष्टि में मुमकिन है कि किन्हीं महान् ऐतिहासिक विभूतियों के तथ्यात्मक मूल्यांकन में त्रुटि हो सकती है, जिसके लिए मैं क्षमा प्रार्थना के साथ इतना जरूर कहना चाहूँगा कि मेरी भावना निर्दोष है। व्यक्तिगत रूप से मैं इस बात का प्रबल पक्षधर हूँ कि इतिहास के मूल्यांकन व पुनर्लेखन की महती आवश्यकता पर बहस अवश्य होनी चाहिए।
—कौशलेंद्र सिंह (बड़े राजा)
चंदापुर भवन,
रायबरेली-229001 (उ.प्र.)
संपादकीय
कहते हैं ‘पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं।’ ऐसा ही हुआ जाँबाज देशभक्त शहीद–ए–आजम भगतसिंह के साथ, जिनके बचपन में ही उनके बारे में एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी कर दी थी कि सरदार किशन सिंह का बेटा या तो फाँसी के फंदे पर चढे़गा या फिर गले में नौ लखा हार पहनेगा।
भगतसिंह देश की आजादी के लिए फाँसी के फंदे पर भी चढ़े और इतने उच्च रुतबे पर पहुँचे कि आज भी वे हर देशवासी के दिल पर राज कर रहे हैं। भगतसिंह का नाम उनकी दादी ने रखा था। 28 सितंबर, 1907 को शहीद–ए–आजम के जन्मवाले दिन उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह जेल से रिहा हुए।
दादी श्रीमती जयकौर के मुँह से निकला कि ‘ए मुंडा तो बड़ा भागा वाला है’। तभी परिवार के लोगों ने फैसला किया कि भागा वाला होने की वजह से लड़के का नाम इन्हीं शब्दों से मिलता-जुलता होना चाहिए। लिहाजा उसका नाम भगतसिंह रख दिया गया। भगतसिंह पर जहाँ अपने चाचा स्वर्ण सिंह का गहरा प्रभाव था, वहीं वे अपने चाचा अजीत सिंह से काफी प्रभावित थे, जिन्होंने किसानों से लगान वसूलने के विरोध में ‘पगड़ी सँभाल जट्टा’ आंदोलन चलाया था। इस आंदोलन से अंग्रेज इतना डर गए थे कि उन्होंने अजीत सिंह को 40 साल के लिए देश-निकाला दे दिया।
पाँच साल की उम्र में भगतसिंह पिता किशन सिंह के साथ गन्ने के खेत पर गए। गन्ने की बुआई देख कहा कि एक-एक गन्ना बोने से क्या होगा? पिता ने जवाब दिया कि एक गन्ने की बुआई पर पाँच गन्ने होंगे। इतना सुनकर वे घर आ गए। घर से एक खिलौने की बँदूक खेत पर लेकर गए और उसे जमीन में दबाने लगे। पिता ने पूछा तो कहा कि एक बंदूक से पाँच बंदूकें पैदा होंगी जो आजादी के काम आएँगी।
भगतसिंह सैनिकों जैसी शहादत चाहते थे और वे फाँसी की बजाय सीने पर गोली खाकर वीरगति प्राप्त करना चाहते थे। यह बात भगतसिंह द्वारा लिखे पत्र में थी, जिसमें उन्होंने 20 मार्च, 1931 को पंजाब के तत्कालीन गवर्नर से माँग की थी कि उन्हें युद्धबंदी माना जाए और फाँसी पर लटकाने की बजाय गोली से उड़ा दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने उनकी माँग नहीं मानी और सारे नियम-कानून का उल्लंघन कर निर्धारित तिथि से एक दिन पहले ही 23 मार्च को फाँसी दे दी। गोरी सरकार ने सुबह की बजाय संध्या के वक्त फाँसी दी जो कि कानून का घोर उल्लंघन था। अंग्रेजों को डर था कि भगतसिंह की फाँसी से हिंदुस्तान में बड़े पैमाने पर जन-विद्रोह भड़क उठेगा, इसलिए उन्होंने एक दिन पहले ही चुपके से भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी के फंदे पर चढ़ा दिया।[adinserter block="1"]
जेल से भगतसिंह ने अपने पिता किशन सिंह को एक पत्र लिखा था, जिसमें वतन के नाम उनकी मोहब्बत किसी को भी अपना बना लेती है।
भगतसिंह ने इसमें लिखा था : ‘जनाब वालिद साहब, मेरी जिंदगी का मकसद आजाद–ए–हिंद के सिद्धांत के लिए दान हो जाना है, इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और दुनियादारी का आकर्षण नहीं है। आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था तो बापू (दादा अर्जुन सिंह) ने मेरे नामकरण के वक्त ऐलान किया था कि मुझे देशसेवा के लिए दान कर दिया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ। आपका ताबेदार भगतसिंह।’
फाँसी के एक दिन पहले, 22 मार्च, 1931 को शहीद–ए–आजम ने अपने सास्थियों को पत्र लिखा और अपने दिल की बात बेबाकी से कही, “जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, जिसे मैं छुपाना नहीं चाहता, लेकिन एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ कि मैं कैद या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिंदुस्तान क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों व कुर्बानियों ने मुझे ऊँचा उठा दिया। इतना ऊँचा मैं हरगिज नहीं हो सकता। अगर मैं फाँसी से बच गया तो क्रांति का प्रतीक-चिह्नमद्धम पड़ जाएगा, लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी पर चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश के लिए कुरबानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रह जाएगी। देश के लिए जो कुछ करने की हसरत मेरे दिल में थी, उसका हजारवाँ हिस्सा भी अदा नहीं कर सका। अगर स्वतंत्र जिंदा रह सकता, तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता।”
अंतिम समय में जब माता विद्यावती उनसे लाहौर जेल में मिलने गईं तो उन्होंने कहा, ‘बेटा भगत, तू इतनी छोटी उम्र में मुझे छोड़कर चला जाएगा।’[adinserter block="1"]
इस पर भगतसिंह ने कहा, “बेबे, मैं देश में एक ऐसा दीया जला रहा हूँ, जिसमें न तो तेल है और न ही घी। उसमें मेरा रक्त और विचार मिले हुए हैं। अंग्रेज मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरी सोच व मेरे विचारों को नहीं, और जब भी अन्याय व भ्रष्टाचार के खिलाफ जो भी शख्स तुम्हें लड़ता हुआ नजर आए, वह तुम्हारा भगत होगा।’
अपने पिता व दादा कुलबीर सिंह (जो भगतसिंह के छोटे भाई थे) से सुनी बातों में से एक बात आपको बताता हूँ कि एक दिन भगतसिंह से मिलने कुलबीर सिंह व माता विद्यावती लाहौर जेल गए। भगतसिंह को बैरक से बाहर निकाला गया। उनके साथ पुलिस अफसर सहित कई जवान थे। भगतसिंह के चेहरे पर परेशानी के भाव नहीं थे। उन्हें पता था कि परिजनों से यह उनकी आ खिरी मुलाकात है। उन्होंने माँ से कहा, ‘बेबे, दादाजी अब ज्यादा दिन तक नहीं जाएँगे। आप बंगा जाकर उनके पास ही रहें।’ उन्होंने सभी को सांत्वना दी।
माँ को पास बुलाकर हँसते–हँसते कहा, ‘बेबे, लाश लेने आप मत आना। कुलबीर को भेज देना। कहीं आप रो पड़ीं तो लोग कहेंगे कि भगतसिंह की माँ रो रही है।’ यह कह इतनी जोर से हँसे कि जेल अधिकारी उन्हें देखते रह गए। भगतसिंह हमेशा कहते थे कि अंग्रेज मुझे मार सकते हैं पर मेरी सोच और विचारों को नहीं।
शहीद–ए–आजम का लिखा हुआ शेर
तुझे जिबह करने की खुशी और मुझे मरने का शौक है
है मेरी भी मरजी वही जो मेरे सैयाद की है।
इन पंक्तियों का एक-एक शब्द उस महान् देशभक्त की वतन पर मर-मिटने की इच्छा जाहिर करता है, जिसने आजादी की राह में हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूम लिया। देशभक्त की यह तहरीर भगतसिंह की इस डायरी का हिस्सा है, जो उन्होंने जेल मे लिखी थी। शहीद–ए–आजम ने आजादी का सपना देखते हुए जेल में जो दिन गुजारे, उन्हें पल-पल अपनी डायरी में दर्ज किया। इसी जेल डायरी में भगतसिंह ने विश्व में कानून व न्याय व्यवस्था पर एक जगह विस्तृत नोट्स लिखे हैं, जो लगता है कि अपने मुकदमे की कानूनी लड़ाई खुद ही लड़ले के लिए तैयारी के रूप में लिखे गए हैं। ये नोट्स पुस्तकों के उद्धरण न होकर भगतसिंह की न्याय व्यवस्था की समझदारी को इंगित करनेवाले हैं। इसी प्रकार एक जगह राज्य का विज्ञान (साइंस ऑफ द स्टेट) शीर्षक से भी सुकरात से लेकर आधुनिक चिंतकों तक के नोट्स एक ही जगह मिलते हैं, जिससे फ्रांसीसी क्रांति और रूसी बोल्शेविक प्रयोग तक को समाहित किया गया है।
—यादविंदर सिंह सिंधु
सुपौत्र शहीद भगतसिंह
पुत्र स्व. श्री बाबर सिंह
[adinserter block="1"]
संदेश
शहीद भगतसिंहजी एक ऐसे व्यक्तित्ववाले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने कार्यों से यह दिखाया कि अँधेरे से उजाले में, गुलामी से आजादी और दुःख-तकलीफ को कैसे खुशी में बदला जा सकता है। हमारे देश की आजादी की लड़ाई में उनका बलिदान एक मील का पत्थर साबित हुआ। उन्होंने मात्र 23 साल की आयु में ऐसी उपलब्धियों को प्राप्त किया, जिसके कारण वे आज ‘शहीद-ए-आजम’ के नाम से जाने जाते हैं।
मुझे बहुत खुशी व गर्व हो रहा है कि मैं इस पुस्तक, जिसके अंदर जेल की काल-कोठरी में अंग्रेजों द्वारा दी गई यातनाएँ सहते हुए शहीद भगतसिंह ने आजादी पर अपने विचारों क्रांति क्या होती है और मानव किन विचारों को ग्रहण करके एक खुशहाल जीवन व्यतीत कर सकता है, को लाहौर सेंट्रल जेल में लिखा था।
शहीद भगतसिंह की यह जेल डायरी पढ़कर यह पता चलता है कि वे सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं, बल्कि दूरदृष्टि रखनेवाले विचारक भी थे, जिन्होंने आजादी के बाद कैसा हिंदुस्तान होना चाहिए, उस पर भी अपने विचार लिखे। जेल के दौरान लगभग 110 किताबों को उन्होंने पढ़ा और उसका सार अपनी इस ‘जेल डायरी’ में लिखा, उन्हें पता था कि अंग्रेज उन्हें ज्यादा समय तक जीने नहीं देंगे, इसलिए उन्होंने अपने विचारों को डायरी में लिखा, ताकि देशवासी इसे पढ़ सकें और एक खुशहाल समाज व देश बना सकें। मैं उम्मीद और आशा करता हूँ कि यह किताब शहीद भगतसिंह के असली विचारों से भारतीयों को जोड़ेगी।
मैं यादविंदर सिंह, (सुपौत्र शहीद भगतसिंह) को इस प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत बधाई देता हूँ, क्योंकि इस माध्यम से शहीद भगतसिंह के हस्तलिखित लेख व उनका अनुवाद शहीद भगतसिंह के शब्दों में ही उनके चाहने वालों को देखने-पढ़ने को मिलेंगे। इस ऐतिहासिक कार्य के लिए मेरी शुभकामनाएँ।
—जितेंद्र मेहरा
राष्ट्रीय अध्यक्ष
अखिलभारतीयखत्रीमहासभा