अग्नि की उड़न / Agni Ki Udaan / Wings of Fire: An Autobiography of Abdul Kalam PDF Download Free Book

पुस्तक का विवरण (Description of Book of अग्नि की उड़न / Agni Ki Udaan / Wings of Fire PDF Download) :-

नाम 📖अग्नि की उड़न / Agni Ki Udaan / Wings of Fire PDF Download
लेखक 🖊️   डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम / A. P. J. Abdul Kalam  
आकार 7 MB
कुल पृष्ठ99
भाषाHindi
श्रेणी
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त्रिशूल ' के लिए मैं ऐसे व्यक्ति की सुलाश में था जिसे न सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक्स एवं मिसाइल युद्ध की ठोस जानकारी हो बल्कि जो टीम के सदस्यों में आपसी समझ बढ़ाने के लिए पेचीदगियों को भी समझा सके और टीम का समर्थन प्राप्‍त कर सके । इसके लिए मुझे कमांडर एस.आर. मोहन उपयुक्‍त लगे, जिनमें काम को लगन के साथ करने की जादुई शक्ति थी । कमांडर मोहन नौसेना से रक्षा शोध एवं विकास में आए थे । ' अग्नि ', जो मेरा सपना थी, के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो इस परियोजना में कभी-कभी मेरे दखल को बरदाश्त कर सके । यह बात मुझे आर.एन. अग्रवाल में नजर आई । वह मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेकोलॉजी के विलक्षण छात्रों में से थे । वह डी.आर.डी.एल. में वैमानिकी परीक्षण सुविधाओं का प्रबंधन सँभाल रहे थे । तकनीकी जटिलताओं के कारण ' आकाश ' एवं ' नाग ' को तब भविष्य की मिसाइलों के रूप में तैयार करने पर विचार किया गया । इनकी गतिविधियाँ करीब आधे दशक बाद तेजी पर होने की उम्मीद थी । इसलिए मैंने ' आकाश ' के लिए प्रह्लाद और ' नाग ' के लिए एन. आर. अय्यर को चुना । दो और नौजवानो-वी.के. सारस्वत एवं ए.के. कपूर को क्रमश: सुंदरम तथा मोहन का सहायक नियुक्‍त किया गया । -इसी पुस्तक से प्रस्तुत पुस्तक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के जीवन की ही कहानी नहीं है बल्कि यह डॉ. कलाम के स्वयं की ऊपर उठने और उनके व्यक्‍त‌िगत एवं पेशेवर संघर्षों की कहानी के साथ ' अग्नि ', ' पृथ्वी ', ' आकाश ', ' त्रिशूल ' और ' नाग ' मिसाइलों के विकास की भी कहानी है; जिसने अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर भारत को मिसाइल-संपन्न देश के रूप में जगह दिलाई । यह टेकोलॉजी एवं रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने की आजाद भारत की भी कहानी है ।

पुस्तक का कुछ अंश





अग्नि की उड़ान
(आत्मकथा)
डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
लेखन सहयोग
अरुण तिवारी

स्मृति में मेरे सृजक की
अनुक्रम
माँ
भूमिका
आभार
मेरी बात
I सर्वेक्षण
II सृजन (1963-1980)
III आराधना (1981-1991)
IV अवलोकन 1991—
उपसंहार
माँ
समंदर की लहरें,
सुनहरी रेत,
श्रद्धानत तीर्थयात्री,
रामेश्वरम् द्वीप की वह छोटी-पूरी दुनिया।
सबमें तू निहित,
सब तुझमें समाहित।
तेरी बाँहों में पला मैं,
मेरी कायनात रही तू।
जब छिड़ा विश्वयुद्ध, छोटा सा मैं
जीवन बना था चुनौती, जिंदगी अमानत
मीलों चलते थे हम
पहुँचते किरणों से पहले।
कभी जाते मंदिर लेने स्वामी से ज्ञान,
कभी मौलाना के पास लेने अरबी का सबक,
स्टेशन को जाती रेत भरी सड़क,
बाँटे थे अखबार मैंने
चलते-पलते साये में तेरे।
दिन में स्कूल,
शाम में पढ़ाई,
मेहनत, मशक्कत, दिक्कतें, कठिनाई,
तेरी पाक शख्सीयत ने बना दीं मधुर यादें।
जब तू झुकती नमाज में उठाए हाथ
अल्लाह का नूर गिरता तेरी झोली में
जो बरसता मुझपर
और मेरे जैसे कितने नसीबवालों पर
दिया तूने हमेशा दया का दान।
याद है अभी जैसे कल ही,
दस बरस का मैं
सोया तेरी गोद में,
बाकी बच्चों की ईर्ष्या का बना पात्र—
पूरनमासी की रात
भरती जिसमें तेरा प्यार।
आधी रात में, अधमुँदी आँखों से तकता तुझे,
थामता आँसू पलकों पर
घुटनों के बल
बाँहों में घेरे तुझे खड़ा था मैं।
तूने जाना था मेरा दर्द,
अपने बच्चे की पीड़ा।
तेरी उँगलियों ने
निथारा था दर्द मेरे बालों से,
और भरी थी मुझमें
अपने विश्वास की शक्ति—
निर्भय हो जीने की,
जीतने की।
जिया मैं
मेरी माँ!
और जीता मैं।
कयामत के दिन
मिलेगा तुझसे फिर तेरा कलाम,
माँ तुझे सलाम।

भूमिका

डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के सान्निध्य में मुझे एक दशक से भी अधिक समय तक काम करने का अवसर मिला है। हो सकता है, उनके जीवनी लेखक के रूप में मेरे पास पर्याप्त योग्यता न हो, परंतु निश्चित रूप से मेरी ऐसा बनने की इच्छा भी नहीं थी। एक दिन बातचीत करते हुए मैंने उनसे पूछा कि भारत के नौजवानों के लिए वे क्या कोई संदेश देना चाहेंगे? युवाओं के लिए उनका जो संदेश था, उसने मुझे मोह लिया। बाद में मैंने उनसे उनकी यादों के बारे में पूछने का साहस जुटाया, ताकि मैं उन्हें कलमबद्ध कर सकूँ।
हमने देर रात एवं सूर्योदय से पहले तक कई लंबी-लंबी बैठकें कीं। उनकी अठारह घंटे रोजाना की दिनचर्या से किसी भी तरह यह समय निकाला। उनके विचारों की गहराई और व्यापकता ने मुझे सम्मोहित कर लिया था। उनमें गजब का तेज था और उन्होंने विचारों की दुनिया से असीम आनंद पाया था। उनकी बातचीत को समझना हमेशा आसान नहीं होता था; पर उनसे बातचीत हमेशा ताजगी एवं प्रेरणा प्रदान करनेवाली होती थी।
जब मैं इस पुस्तक को लिखने बैठा तो मुझे लगा कि जितनी क्षमता मेरे भीतर है, इस काम को करने के लिए उससे कहीं ज्यादा योग्यता चाहिए। लेकिन इस काम की महत्ता को महसूस करते हुए और इसे एक सम्मान के रूप में लेते हुए मैंने इसे पूरा करने का साहस एवं हिम्मत जुटाई।
यह पुस्तक देश के उन आम लोगों के लिए लिखी गई है, जिनके प्रति डॉ.कलाम का अत्यधिक लगाव है और जिनमें से एक वह स्वयं को मानते हैं। विनम्र और सीधे-सादे लोगों से उनका सदैव सहज संबंध रहा है, जो स्वयं उनकी सादगी एवं आध्यात्मिकता का परिचायक है।
खुद मेरे लिए यह पुस्तक लिखना एक तीर्थयात्रा करने जैसा रहा है। डॉ. कलाम के आशीर्वाद से ही मुझपर यह रहस्य प्रकट हुआ कि जीवन का वास्तविक आनंद सिर्फ एक ही तरीके से प्राप्त किया जा सकता है और वह है—अपने भीतर छिपे ज्ञान के शाश्वत स्रोत से संवाद स्थापित करके, जो हर इनसान के भीतर होता है। हो सकता है, आपमें से कई डॉ. कलाम से व्यक्तिगत रूप से न मिले हों, लेकिन मुझे उम्मीद है कि इस पुस्तक के माध्यम से आप उनके सान्निध्य का आनंद प्राप्त करेंगे और वे आपके आत्मीय मित्र बन जाएँगे।
डॉ. कलाम की बताई कई घटनाओं में से कुछ को ही मैं इस पुस्तक में शामिल कर पाया हूँ। दरअसल यह पुस्तक डॉ. कलाम के जीवन की सिर्फ एक छोटी सी रूपरेखा ही प्रस्तुत कर पाई है। यह बिलकुल संभव है कि कई महत्त्वपूर्ण घटनाएँ छूट गई हों और डॉ. कलाम की परियोजनाओं से जुड़े प्रमुख व्यक्तियों के महत्त्वपूर्ण योगदान का जिक्र नहीं आ पाया हो। चूँकि डॉ. कलाम की तुलना में मेरे काम का समय बहुत ही कम रहा है और एक-चौथाई सदी मुझे उनसे अलग करती है, इसलिए कई महत्त्वपूर्ण चीजें संभव है कि इसमें रह गई हों अथवा तथ्यपरक न रहकर तुड़-मुड़ गई हों। इस तरह की अनजानी भूलों और कमियों के लिए सिर्फ मैं ही जिम्मेदार हूँ और गुणीजनों की क्षमा का प्रार्थी हूँ।
—अरुण तिवारी



आभार

मैं उन सभी लोगों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जो इस पुस्तक को लिखने में मेरे साथ जुड़े रहे, विशेष रूप से श्री वाई.एस. राजन, श्री ए. शिवाधानु पिल्लै, श्री आर.एन. अग्रवाल, श्री प्रह्लाद, श्री के.वी.एस.एस. प्रसाद राव और डॉ.एस.के. सलवान, जिन्होंने दरियादिली से अपना समय एवं जानकारियाँ मुझे दीं।
इस पुस्तक की आलोचनात्मक समीक्षाओं के लिए प्रो. के.ए.वी. पंडलाई और श्री आर. स्वामीनाथन का मैं आभारी हूँ। डॉ. बी. सोमाराजू की हमेशा दी गई वास्तविक, अपितु अकथनीय मदद के लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। अपनी पत्नी डॉ. अंजना तिवारी को भी धन्यवाद देता हूँ, जिनका मुझे इस काम में हमेशा पूरा सहयोग मिला।
मैं उन सभी के प्रति आभार प्रदर्शित करता हूँ, जिन्होंने समय-समय पर मुझे ज्ञान से समृद्ध किया और यह पुस्तक कल्पना से कहीं ज्यादा अच्छे रूप में सामने आई। विशेषकर श्री प्रभु का रामेश्वरम् में किया गया छायांकन संभवतः इस पुस्तक का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। सभी को साधुवाद।
और अंत में अपने बेटों—असीम एवं अमोल के प्रति मेरा हार्दिक आभार। इन दोनों ने सदैव अपने स्नेह और सम्मान से मुझे लिखते रहने के लिए प्रेरित किया। इनमें मैंने हमेशा उन मानव-मूल्यों की छवि देखी है, जिन्हें डॉ. कलाम ने पहचाना, परखा, अपनाया और इस पुस्तक के माध्यम से सुझाना चाहा है।
—अरुण तिवारी

मेरी बात

यह पुस्तक ऐसे समय में प्रकाशित हुई है जब देश की संप्रभुता को बनाए रखने और उसकी सुरक्षा को और मजबूत बनाने के लिए चल रहे तकनीकी प्रयासों को लेकर दुनिया में कई राष्ट्र सवाल उठा रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से मानव जाति हमेशा से ही किसी-न-किसी मुद्दे को लेकर आपस में लड़ती रही है। प्रागैतिहासिक काल में युद्ध खाने एवं रहने की जरूरतों के लिए लड़े जाते थे। समय गुजरने के साथ ये युद्ध धर्म तथा विचारधाराओं के आधार पर लड़े जाने लगे और अब युद्ध आर्थिक एवं तकनीकी प्रभुत्व हासिल करने के लिए होने लग गए हैं। नतीजतन, आर्थिक एवं तकनीकी प्रभुत्व राजनीतिक शक्ति और विश्व नियंत्रण का पर्याय बन गया है।
पिछले कुछ दशकों में कुछ देश बहुत ही तेजी से प्रौद्योगिकी की दृष्टि से काफी मजबूत होकर उभरे हैं और अपने हितों की पूर्ति के लिए बाकी दुनिया का नियंत्रण लगभग इनके हाथ में चला गया है। इसके चलते ये कुछ एक बड़े देश नए विश्व के स्वयंभू नेता बन गए हैं। ऐसी स्थिति में एक अरब की आबादीवाले भारत जैसे विशाल देश को क्या करना चाहिए? प्रौद्योगिकी प्रभुता पाने के सिवाय वास्तव में हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लेकिन क्या प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत अग्रणी हो सकता है? मेरा जवाब एक निश्चित ‘हाँ’ है। और अपने जीवन की कुछ घटनाओं से मैं अपने इस जवाब की वैधता साबित करने का इस पुस्तक में प्रयत्न करूँगा।
जब इस पुस्तक के लिए मैंने पहली बार अपनी यादों को सहेजना शुरू किया तो मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि मेरी कौन-कौन सी यादें-घटनाएँ सही रूप में प्रासंगिक होंगी। मेरा बचपन मुझे बहुत ही प्रिय है; लेकिन क्या इसमें किसीकी रुचि होगी? क्या एक छोटे से कस्बे के लड़के के दुःख-तकलीफों और उसकी उपलब्धियों के बारे में पढ़ना पाठकों के लायक रहेगा? स्कूली जीवन की संकटपूर्ण परिस्थितियाँ, स्कूल फीस जमा करने के लिए मेरे द्वारा किए गए काम और आर्थिक संकटों के चलते कॉलेज में किस तरह मैंने शाकाहारी बनने का निश्चय किया—आदि बातें आम आदमी के लिए रुचि का विषय क्योंकर होनी चाहिए? पर अंततः मैंने यह माना कि ये सब प्रासंगिक हैं; क्योंकि ये बातें कुछ-कुछ आधुनिक भारत के एक आम आदमी की कहानी कहती हैं।
फिर मैंने उन व्यक्तियों के बारे में लिखने का निश्चय किया, जिन्होंने मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। इस पुस्तक के माध्यम से मैं अपने माता-पिता, परिवार तथा शिक्षकों एवं गुरुओं के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ और उन हुतात्माओं का आदरमय स्मरण करता हूँ, जिनका मुझे अपने छात्र एवं पेशेवर जीवन में सान्निध्य मिला। यह मेरे युवा साथियों के अपार उत्साह और कोशिशों के प्रति भी सम्मान है, जिन्होंने सामूहिक रूप से मेरे सपनों को सँजोया और साकार किया है। प्रो. विक्रम साराभाई, प्रो. सतीश धवन और डॉ. ब्रह्मप्रकाश जैसे वैज्ञानिकों का भी मैं ऋणी हूँ, जिन्होंने हमेशा ज्ञान एवं प्रेरणा से मुझे सराबोर किए रखा। मेरे जीवन और भारतीय विज्ञान की कहानी में इन हस्तियों की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
15 अक्तूबर, 1991 को मैंने अपने जीवन के साठ वर्ष पूरे किए। सेवानिवृत्ति के बाद मैंने अपना समय समाजसेवा के लिए देने का फैसला किया था। पर विधि का कुछ ऐसा विधान रहा कि दो चीजें एक साथ हुईं—पहली तो यह कि मैं अगले तीन साल के लिए और सरकारी सेवा में बने रहने के लिए राजी हो गया तथा दूसरी यह कि मेरे युवा सहयोगी अरुण तिवारी ने मुझसे अपने संस्मरण देने का अनुरोध किया, ताकि वे इन्हें लिखकर सुरक्षित कर सकें। वे सन् 1982 से मेरी प्रयोगशाला में काम कर रहे थे। फरवरी 1987 के पहले तक मैं उन्हें ठीक तरह से जानता तक नहीं था। फरवरी 1987 में जब वे हैदराबाद के निजाम चिकित्सा विज्ञान संस्थान के सघन हृदय चिकित्सा कक्ष में भरती थे तब मैं उन्हें देखने गया था। वे उस समय करीब बत्तीस साल के थे और जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा, ‘मैं तुम्हारे लिए क्या कुछ कर सकता हूँ?’ ‘मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए कि बस इतना भर जीवन पाऊँ कि आपके अनेक कामों में से कम-से-कम एक को तो मैं पूरा कर सकूँ।’ अरुण तिवारी ने कहा।
इस नौजवान की कर्म के प्रति समर्पित सोच और जिजीविषा देखकर मैंने उसके जल्दी ठीक हो जाने के लिए सारी रात ईश्वर से दुआ की। ईश्वर ने मेरी प्रार्थना सुनी और अरुण एक महीने में स्वस्थ हो काम पर लौट आए। तीन साल के थोड़े से वक्त में ही ‘आकाश’ मिसाइल के लिए उन्होंने अद्भुत काम किया। इसके बाद उन्होंने मेरे जीवन की कहानी लिखने का काम हाथ में लिया। फिर सालों तक उन्होंने धैर्यपूर्वक मेरे सुनाए अंशों, घटनाओं को लिपिबद्ध किया। वे मेरे निजी पुस्तक संग्रह के नियमित पाठक बन गए। मेरी कविताओं में से कुछ प्रासंगिक अंश भी चुने और इस पुस्तक में उनको शामिल किया। उन्होंने मुझे कहीं भीतर तक उद्वेलित कर दिया।
यह कहानी सिर्फ मेरी विजय और दुःखों की ही नहीं है बल्कि आधुनिक भारत के उन विज्ञान प्रतिष्ठानों की सफलताओं एवं असफलताओं की भी कहानी है, जो तकनीकी मोरचे पर अपने को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह राष्ट्रीय आकांक्षा तथा सामूहिक प्रयासों और, जैसाकि मैं देखता हूँ, वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता एवं प्रौद्योगिकी दक्षता हासिल करने के लिए भारत के प्रयासों की भी कहानी है।
ईश्वर की सृष्टि में प्रत्येक कण का अपना अस्तित्व होता है। प्रत्येक को कुछ-न-कुछ करने के लिए ही परवरदिगार ने बनाया है। उन्हींमें मैं भी हूँ। उसकी मदद से मैंने जो कुछ भी हासिल किया है, वह उसकी इच्छा की अभिव्यक्ति ही तो है। कुछ विलक्षण गुरुओं और साथियों के माध्यम से ईश्वर ने मुझपर यह कृपा की और जब मैं इन सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों के प्रति अपनी श्रद्धा एवं सम्मान व्यक्त करता हूँ तो मैं उसकी महिमा का ही गुणगान कर रहा होता हूँ। ये सब रॉकेट और मिसाइलें उसीके काम हैं, जो ‘कलाम’ नाम के एक छोटे से व्यक्ति के माध्यम से खुदा ने कराए हैं। इसलिए भारत के कई कोटि जनों को कभी भी छोटा या असहाय महसूस नहीं करना चाहिए। हम सब अपने भीतर दैवीय शक्ति लेकर जनमे हैं। हम सबके भीतर ईश्वर का तेज छिपा है। हमारी कोशिश इस तेज-पुंज को पंख देने की रहनी चाहिए, जिससे यह चारों ओर अच्छाइयाँ एवं प्रकाश फैला सके।
आपको ईश्वर का आशीर्वाद मिले, ऐसी मेरी कामना है।
—डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
I
सर्वेक्षण
(1931—1963)
ये पृथ्वी ये आकाश
ये जल ये आकार
सब उसके हैं, बनाए उसने
तीनों लोक समाए उसमें
फिर भी रहता है वह
एक छोटे से तालाब तल में।
—अथर्ववेद
ग्रंथ 4, श्लोक 16

: एक :

मेरा जन्म मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) के रामेश्वरम् कस्बे में एक मध्यम वर्गीय तमिल परिवार में हुआ था। मेरे पिता जैनुलाबदीन की कोई बहुत अच्छी औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी और न ही वे कोई बहुत धनी व्यक्ति थे। इसके बावजूद वे बुद्धिमान थे और उनमें उदारता की सच्ची भावना थी। मेरी माँ, आशियम्मा, उनकी आदर्श जीवनसंगिनी थीं। मुझे याद नहीं है कि वे रोजाना कितने लोगों को खाना खिलाती थीं; लेकिन मैं यह पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि हमारे सामूहिक परिवार में जितने लोग थे, उससे कहीं ज्यादा लोग हमारे यहाँ भोजन करते थे।
मेरे माता-पिता को हमारे समाज में एक आदर्श दंपती के रूप में देखा जाता था। मेरी माँ के खानदान का बड़ा सम्मान था और उनके एक वंशज को अंग्रेजों ने ‘बहादुर’ की पदवी भी दे डाली थी।
मैं कई बच्चों में से एक था, लंबे-चौड़े व सुंदर माता-पिता का छोटी कद-काठी का साधारण सा दिखनेवाला बच्चा। हम लोग अपने पुश्तैनी घर में रहते थे। यह घर उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में बना था। रामेश्वरम् की मसजिदवाली गली में बना यह घर चूने-पत्थर व ईंट से बना पक्का और बड़ा था। मेरे पिता आडंबरहीन व्यक्ति थे और सभी अनावश्यक एवं ऐशो-आरामवाली चीजों से दूर रहते थे। पर घर में सभी आवश्यक चीजें समुचित मात्रा में सुलभता से उपलब्ध थीं। वास्तव में, मैं कहूँगा कि मेरा बचपन बहुत ही निश्चितता और सादेपन में बीता—भौतिक एवं भावनात्मक दोनों ही तरह से।
मैं प्रायः अपनी माँ के साथ ही रसोई में नीचे बैठकर खाना खाया करता था। वे मेरे सामने केले का पत्ता बिछातीं और फिर उसपर चावल एवं सुगंधित, स्वादिष्ट साँभर देतीं; साथ में घर का बना अचार और नारियल की ताजा चटनी भी होती।
प्रतिष्ठित शिव मंदिर, जिसके कारण रामेश्वरम् प्रसिद्ध तीर्थस्थल है, का हमारे घर से दस मिनट का पैदल रास्ता था। जिस इलाके में हम रहते थे, वह मुसलिम बहुल था। लेकिन वहाँ कुछ हिंदू परिवार भी थे, जो अपने मुसलमान पड़ोसियों के साथ मिल-जुलकर रहते थे। हमारे इलाके में एक बहुत ही पुरानी मसजिद थी, जहाँ शाम को नमाज के लिए मेरे पिताजी मुझे अपने साथ ले जाते थे। अरबी में जो नमाज अता की जाती थी, उसके बारे में मुझे कुछ पता तो नहीं था, लेकिन यह पक्का विश्वास था कि ये बातें ईश्वर तक जरूर पहुँच जाती हैं। नमाज के बाद जब मेरे पिता मसजिद से बाहर आते तो विभिन्न धर्मों के लोग मसजिद के बाहर बैठे उनकी प्रतीक्षा कर रहे होते। उनमें कई लोग पानी के कटोरे मेरे पिताजी के सामने रखते; पिताजी अपनी अँगुलियाँ उस पानी में डुबोते जाते और कुछ पढ़ते जाते। इसके बाद वह पानी बीमार लोगों के लिए घरों में ले जाया जाता। मुझे भी याद है कि लोग ठीक होने के बाद शुक्रिया अदा करने हमारे घर आते। पिताजी हमेशा मुसकराते और शुभचिंतक एवं दयावान अल्लाह को शुक्रिया कहने को कहते।
रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री मेरे पिताजी के अभिन्न मित्र थे। अपने शुरुआती बचपन की यादों में इन दो लोगों के बारे में मुझे सबसे अच्छी तरह याद है, दोनों अपनी पारंपरिक वेशभूषा में होते और आध्यात्मिक मामलों पर चर्चाएँ करते रहते। जब मैं प्रश्न पूछने लायक बड़ा हुआ तो मैंने पिताजी से नमाज की प्रासंगिकता के बारे में पूछा। पिताजी ने मुझे बताया कि नमाज में रहस्यमय कुछ भी नहीं है। नमाज से लोगों के बीच भाईचारे की भावना संभव हो पाती है। वे कहते—‘जब तुम नमाज पढ़ते हो तो तुम अपने शरीर से इतर ब्रह्मांड का एक हिस्सा बन जाते हो; जिसमें दौलत, आयु, जाति या धर्म-पंथ का कोई भेदभाव नहीं होता।’
मेरे पिताजी अध्यात्म की जटिल अवधारणाओं को भी तमिल में बहुत ही सरल ढंग से समझा देते थे। एक बार उन्होंने मुझसे कहा, ‘खुद उनके वक्त में, खुद उनके स्थान पर, जो वे वास्तव में हैं और जिस अवस्था में पहुँचे हैं—अच्छी या बुरी, हर इनसान भी उसी तरह दैवी शक्ति रूपी ब्रह्मांड में उसके एक विशेष हिस्से के रूप में होता है तो हम संकटों, दुःखों या समस्याओं से क्यों घबराएँ? जब संकट या दुःख आएँ तो उनका कारण जानने की कोशिश करो। विपत्ति हमेशा आत्मविश्लेषण के अवसर प्रदान करती है।’
‘आप उन लोगों को यह बात क्यों नहीं बताते जो आपके पास मदद और सलाह माँगने के लिए आते हैं?’ मैंने पिताजी से पूछा। उन्होंने अपने हाथ मेरे कंधों पर रखे और मेरी आँखों में देखा। कुछ क्षण वे चुप रहे, जैसे वे मेरी समझ की क्षमता जाँच रहे हों। फिर धीमे और गहरे स्वर में उन्होंने उत्तर दिया। पिताजी के इस जवाब ने मेरे भीतर नई ऊर्जा और अपरिमित उत्साह भर दिया—
‘जब कभी इनसान अपने को अकेला पाता है तो उसे एक साथी की तलाश होती है, जो स्वाभाविक ही है। जब इनसान संकट में होता है तो उसे किसीकी मदद की जरूरत होती है। जब वह अपने को किसी गतिरोध में फँसा पाता है तो उसे चाहिए होता है ऐसा साथी जो बाहर निकलने का रास्ता दिखा सके। बार-बार तड़पानेवाली हर तीव्र इच्छा एक प्यास की तरह होती है। मगर हर प्यास को बुझानेवाला कोई-न-कोई मिल ही जाता है। जो लोग अपने संकट की घड़ियों में मेरे पास आते हैं, मैं उनके लिए अपनी प्रार्थनाओं के जरिए ईश्वरीय शक्तियों से संबंध स्थापित करने का माध्यम बन जाता हूँ। हालाँकि हर जगह, हर बार यह सही नहीं होता और न ही कभी ऐसा होना चाहिए।’
मुझे याद है, पिताजी की दिनचर्या पौ फटने के पहले ही सुबह चार बजे नमाज पढ़ने के साथ शुरू हो जाती थी। नमाज के बाद वे हमारे नारियल के बाग जाया करते। बाग घर से करीब चार मील दूर था। करीब दर्जन भर नारियल कंधे पर लिये पिताजी घर लौटते और उसके बाद ही उनका नाश्ता होता। पिताजी की यह दिनचर्या जीवन के छठे दशक के आखिर तक बनी रही।
मैंने अपनी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की सारी जिंदगी में पिताजी की बातों का अनुसरण करने की कोशिश की है। मैंने उन बुनियादी सत्यों को समझने का भरसक प्रयास किया है, जिन्हें पिताजी ने मेरे सामने रखा और मुझे इस संतुष्टि का आभास हुआ कि ऐसी कोई दैवी शक्ति जरूर है जो हमें भ्रम, दुःखों, विषाद और असफलता से छुटकारा दिलाती है तथा सही रास्ता दिखाती है।




जब पिताजी ने लकड़ी की नौकाएँ बनाने का काम शुरू किया, उस समय मैं छह साल का था। ये नौकाएँ तीर्थयात्रियों को रामेश्वरम् से धनुषकोडि (सेथुक्काराई भी कहा जाता है) तक लाने-ले जाने के काम आती थीं। एक स्थानीय ठेकेदार अहमद जलालुद्दीन के साथ पिताजी समुद्र तट के पास नौकाएँ बनाने लगे। बाद में अहमद जलालुद्दीन की मेरी बड़ी बहन जोहरा के साथ शादी हो गई थी। नौकाओं को आकार लेते देखते वक्त मैं काफी अच्छे तरीके से गौर करता था। पिताजी का कारोबार काफी अच्छा चल रहा था। एक दिन सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से हवा चली और समुद्र में तूफान आ गया। तूफान में सेथुक्काराई के कुछ लोग और हमारी नावें बह गईं। उसीमें पामबान पुल भी टूट गया और यात्रियों से भरी ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। तब तक मैंने सिर्फ समुद्र की खूबसूरती को ही देखा था। उसकी अपार एवं अनियंत्रित ऊर्जा ने मुझे हतप्रभ कर दिया।
जब तक नाव की यह कहानी बेवक्त डूबी, उम्र में काफी फर्क होने के बावजूद अहमद जलालुद्दीन मेरे अंतरंग मित्र बन गए। वह मुझसे करीब पंद्रह साल बड़े थे और मुझे ‘आजाद’ कहकर पुकारा करते थे। हम दोनों रोजाना शाम को दूर तक साथ घूमने जाया करते। हम मसजिदवाली गली से निकलते और समुद्र के रेतीले तट पर चल पड़ते। मैं और जलालुद्दीन प्रायः आध्यात्मिक विषयों पर बातें करते। एक प्रमुख तीर्थस्थल होने की वजह से रामेश्वरम् का यह वातावरण हमारी आध्यात्मिक चर्चाओं में और भी प्रेरक सिद्ध होता। रास्ते में हमारा पहला पड़ाव शिव मंदिर हुआ करता था। इस मंदिर की हम उतनी ही श्रद्धा से परिक्रमा करते जितनी श्रद्धा से देश के किसी हिस्से से आया कोई भी तीर्थयात्री करता। और इस परिक्रमा के बाद हम अपने शरीर को बहुत ही ऊर्जावान महसूस करते।
जलालुद्दीन ईश्वर के बारे में ऐसी बातें किया करते जैसे ईश्वर के साथ उनकी कामकाजी भागीदारी हो। वह ईश्वर के समक्ष अपने सारे संदेह इस प्रकार रखते जैसे वह उनका निराकरण पूरी तरह कर देगा। मैं जलालुद्दीन की ओर एकटक देखता रहता और फिर देखता मंदिर के चारों ओर जमा श्रद्धालुओं-तीर्थयात्रियों की उस भीड़ को भी, जो समुद्र में डुबकियाँ लगा रही होती और फिर पूरी धार्मिक रीतियों से पूजा-पाठ करती तथा उसी अज्ञात के प्रति अपने आदर भाव से प्रार्थना करती जिसे हम निराकार सर्वशक्तिमान मानते थे। मुझे इसमें कभी संदेह नहीं रहा कि मंदिर में की गई प्रार्थना जहाँ, जिस तरह पहुँचती है ठीक उसी तरह हमारी मसजिद में पढ़ी गई नमाज भी वहीं जाकर पहुँचती है। मुझे आश्चर्य सिर्फ तब होता जब जलालुद्दीन ईश्वर से विशेष तरह का जुड़ाव कायम कर लेने की बात कहते। पारिवारिक परिस्थितियों के कारण जलालुद्दीन की स्कूली शिक्षा कोई बहुत ज्यादा नहीं हुई थी। यही एक कारण रहा, जिसकी वजह से जलालुद्दीन मुझे पढ़ाई के प्रति हमेशा उत्साहित करते रहते थे और मेरी सफलताओं से प्रसन्न होते थे। पढ़ाई से वंचित रह जाने की हलकी सी भी पीड़ा की झलक मुझे जलालुद्दीन में कभी देखने को नहीं मिली। जिंदगी में उन्हें जो कुछ भी मिला वह उसके प्रति हमेशा कृतज्ञ रहे।
प्रसंगवश मुझे यहाँ यह भी उल्लेख कर देना चाहिए कि पूरे इलाके में सिर्फ जलालुद्दीन ही थे, जो अंग्रेजी में लिख सकते थे। जिसे भी जरूरत होती, चाहे वह अर्जी हो या और कुछ, जलालुद्दीन उसे अंग्रेजी में लिख देते। मेरे परिचितों में, चाहे मेरे परिवार में हो या आस-पड़ोस में, जलालुद्दीन के बराबर शिक्षा का स्तर किसीका भी नहीं था—और न ही किसीको उनके बराबर बाहरी दुनिया के बारे में पता था। जलालुद्दीन मुझे हमेशा शिक्षित व्यक्तियों, वैज्ञानिक खोजों, समकालीन साहित्य और चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों के बारे में बताते रहते थे। वही थे जिन्होंने मुझे सीमित दायरे से बाहर निकालकर नई दुनिया का बोध कराया।
मेरे बाल्यकाल में पुस्तकें एक दुर्लभ वस्तु की तरह हुआ करती थीं। हमारे यहाँ स्थानीय स्तर पर एक पूर्व क्रांतिकारी या कहिए, उग्र राष्ट्रवादी एस.टी.आर. मानिकम का निजी पुस्तकालय था। उन्होंने मुझे हमेशा पढ़ने के लिए उत्साहित किया। मैं अकसर उनके घर से पढ़ने के लिए किताबें ले आया करता था।
दूसरे जिस व्यक्ति का मेरे बाल जीवन पर गहरा असर पड़ा, वह मेरे चचेरे भाई शम्सुद्दीन थे। वह रामेश्वरम् में अखबारों के एकमात्र वितरक थे। अखबार रामेश्वरम् स्टेशन पर सुबह की ट्रेन से पहुँचते थे, जो पामबन से आती थी। इस अखबार एजेंसी को अकेले शम्सुद्दीन ही चलाते थे। रामेश्वरम् में अखबारों की जुमला एक हजार प्रतियाँ बिकती थीं। इन अखबारों में स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित ताजा खबरें, ज्योतिष से जुड़े संदर्भ और मद्रास (अब चेन्नई) के सर्राफा बाजार के भाव प्रमुखता से होते थे। महानगरीय दृष्टिकोण रखनेवाले कुछ थोड़े से पाठक हिटलर, महात्मा गांधी और जिन्ना के बारे में चर्चाएँ करते; जबकि ज्यादातर पाठकों में चर्चा का विषय सवर्ण हिंदुओं के रूढ़िवाद के खिलाफ पेरियार ई.वी. रामास्वामी द्वारा चलाया जा रहा आंदोलन होता। ‘दिनमणि’ अखबार की माँग सबसे ज्यादा होती थी। चूँकि अखबार में जो कुछ भी छपा होता, वह मेरी समझ से परे होता, इसलिए शम्सुद्दीन द्वारा ग्राहकों को अखबार बाँटने से पहले मैं सिर्फ अखबार में छपी तसवीरों पर नजर डालकर ही संतोष कर लेता था।
सन् 1939 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ा तब मैं आठ वर्ष का था। तभी बाजार में इमली के बीजों की अचानक तेज माँग उठी, जिसका कारण मुझे कभी समझ में नहीं आया। मैं इन बीजों को इकट्ठा करता और मसजिदवाली गली में एक परचून की दुकान पर बेच देता। इससे मुझे एक आना रोज मिल जाता था। विश्वयुद्ध की खबरें जलालुद्दीन मुझे बताते रहते थे, जिन्हें बाद में मैं ‘दिनमणि’ अखबार के शीर्षकों में ढूँढ़ने की कोशिश करता। विश्वयुद्ध का हमारे यहाँ जरा भी असर नहीं था। लेकिन जल्दी ही भारत पर भी मित्र देशों की सेनाओं में शामिल होने का दबाव डाला गया और देश में एक तरह का आपातकाल घोषित कर दिया गया। उसका पहला नतीजा इस रूप में सामने आया कि रामेश्वरम् स्टेशन पर गाड़ी का ठहरना बंद कर दिया गया। ऐसी स्थिति में अखबारों के बंडल रामेश्वरम् और धनुषकोडि के बीच रामेश्वरम् रोड पर चलती ट्रेन से गिरा दिए जाते थे। तब शम्सुद्दीन को ऐसे मददगार की तलाश हुई जो अखबारों के बंडल झेलने और गिरे हुए बंडलों को उठाने में उनका हाथ बँटा सके। स्वाभाविक है, मैं ही मददगार बना। इस तरह शम्सुद्दीन से मुझे अपनी पहली तनख्वाह मिली। आधी शताब्दी गुजर जाने के बाद आज भी मैं अपने द्वारा कमाई पहली तनख्वाह पर गर्व करता हूँ।
हर बच्चा एक विशेष आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक परिवेश में कुछ वंशागत गुणों के साथ जन्म लेता है, फिर संस्कारों के अनुरूप उसे ढाला जाता है। मुझे अपने पिताजी से विरासत के रूप में ईमानदारी और आत्मानुशासन मिला तथा माँ से ईश्वर में विश्वास और करुणा का भाव। यही गुण मेरे तीनों भाई-बहनों को भी विरासत में मिले। लेकिन मैंने जलालुद्दीन और शम्सुद्दीन के साथ अपना जो समय गुजारा, उसका मेरे बचपन में एक अद्वितीय योगदान रहा और इसीके रहते मेरे जीवन में सारे बदलाव आए। स्कूली शिक्षा नहीं होने के बाद भी जलालुद्दीन एवं शम्सुद्दीन इतनी सहज बुद्धि के थे और मेरे अकथनीय संदेशों का यों झट से जवाब दे देते थे कि बचपन में मैं बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी सृजनात्मकता को उनके बीच रख सका।
बचपन में मेरे तीन पक्के दोस्त थे—रामानंद शास्त्री, अरविंदन और शिवप्रकाशन। ये तीनों ही ब्राह्मण परिवारों से थे। रामानंद शास्त्री तो रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री का बेटा था। अलग-अलग धर्म, पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई को लेकर हममें से किसी भी बच्चे ने कभी भी आपस में कोई भेदभाव महसूस नहीं किया। आगे चलकर रामानंद शास्त्री तो अपने पिता के स्थान पर रामेश्वरम् मंदिर का पुजारी बना, अरविंदन ने तीर्थयात्रियों को घुमाने के लिए टेंपो चलाने का कारोबार कर लिया और शिवप्रकाशन दक्षिण रेलवे में खान-पान का ठेकेदार हो गया।
प्रतिवर्ष होनेवाले श्री सीता-राम विवाह समारोह के दौरान हमारा परिवार विवाहस्थल तक भगवान् श्रीराम की मूर्तियाँ ले जाने के लिए विशेष प्रकार की नावों का बंदोबस्त किया करता था। यह विवाहस्थल तालाब के बीचोबीच स्थित था और इसे ‘रामतीर्थ’ कहते थे। यह हमारे घर के पास ही था। मेरी माँ और दादी घर के बच्चों को सोते समय ‘रामायण’ के किस्से और पैगंबर मुहम्मद से जुड़ी घटनाएँ सुनाती थीं।




जब मैं रामेश्वरम् के प्राइमरी स्कूल में पाँचवीं कक्षा में था तब एक दिन एक नए शिक्षक हमारी कक्षा में आए। मैं टोपी पहना करता था, जो मेरे मुसलमान होने का प्रतीक था। कक्षा में मैं हमेशा आगे की पंक्ति में जनेऊ पहने रामानंद शास्त्री के साथ बैठा करता था। नए शिक्षक को एक हिंदू लड़के का मुसलमान लड़के के साथ बैठना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने मुझे उठाकर पीछेवाली बेंच पर चले जाने को कहा। मुझे बहुत बुरा लगा। रामानंद शास्त्री को भी यह बहुत खला। मुझे पीछे की पंक्ति में बैठाए जाते देख वह काफी उदास नजर आ रहा था। उसके चेहरे पर जो रुआँसी के भाव थे, उनकी मुझपर गहरी छाप पड़ी।
स्कूल की छुट्टी होने पर हम घर गए और सारी घटना अपने घरवालों को बताई। यह सुनकर लक्ष्मण शास्त्री ने उस शिक्षक को बुलाया और कहा कि उसे निर्दोष बच्चों के दिमाग में इस तरह सामाजिक असमानता एवं सांप्रदायिकता का विष नहीं घोलना चाहिए। हम सब भी उस वक्त वहाँ मौजूद थे। लक्ष्मण शास्त्री ने उस शिक्षक से साफ-साफ कह दिया कि या तो वह क्षमा माँगे या फिर स्कूल छोड़कर यहाँ से चला जाए। उस शिक्षक ने अपने किए व्यवहार पर न सिर्फ दुःख व्यक्त किया बल्कि लक्ष्मण शास्त्री के कड़े रुख एवं धर्मनिरपेक्षता में उनके विश्वास से उस नौजवान शिक्षक में अंततः बदलाव आ गया।
पूरे रामेश्वरम् में विभिन्न जातियों का जो छोटा सा समाज था, वह कई स्तरों में था। इस पृथक्करण के मामले में ये जातियाँ बहुत ही कठोर थीं। मेरे विज्ञान के शिक्षक शिव सुब्रह्मण्य अय्यर कट्टर सनातनी ब्राह्मण थे और उनकी पत्नी घोर रूढ़िवादी थीं। लेकिन वे कुछ-कुछ रूढ़िवाद के खिलाफ हो चले थे। उन्होंने इन सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने के लिए अपनी तरफ से काफी कोशिशें कीं, ताकि विभिन्न वर्गों के लोग आपस में एक-दूसरे के साथ मिल सकें और जातीय असमानता खत्म हो। वे मेरे साथ काफी समय बिताते थे और कहा करते—‘कलाम, मैं तुम्हें ऐसा बनाना चाहता हूँ कि तुम बड़े शहरों के लोगों के बीच एक उच्च शिक्षित व्यक्ति के रूप में पहचाने जाओगे।’
एक दिन उन्होंने मुझे खाने पर अपने घर बुलाया। उनकी पत्नी इस बात से बहुत ही परेशान एवं भयभीत थीं कि उनकी पवित्र और धर्मनिष्ठ रसोई में एक मुसलमान युवक को भोजन पर आमंत्रित किया गया है। उन्होंने अपनी रसोई के भीतर मुझे खाना खिलाने से साफ इनकार कर दिया। शिव सुब्रह्मण्य अय्यर अपनी पत्नी के इस रुख से जरा भी विचलित नहीं हुए और न ही उन्हें क्रोध आया। बल्कि उन्होंने खुद अपने हाथ से मुझे खाना परोसा और फिर बाहर आकर मेरे पास ही अपना खाना लेकर बैठ गए। उनकी पत्नी यह सब रसोई के दरवाजे के पीछे खड़ी देखती रहीं। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि क्या वे मेरे चावल खाने के तरीके, पानी पीने के ढंग और खाना खा चुकने के बाद उस स्थान को साफ करने के तरीके में कोई फर्क देख रही थीं। जब मैं उनके घर से खाना खाने के बाद लौटने लगा तो अय्यर महोदय ने मुझे फिर अगले हफ्ते रात के खाने पर आने को कहा। मेरी हिचकिचाहट को देखते हुए वे बोले, ‘इसमें परेशान होने की जरूरत नहीं है। एक बार जब तुम व्यवस्था बदल डालने का फैसला कर लेते हो तो ऐसी समस्याएँ सामने आती ही हैं।’
अगले हफ्ते जब मैं शिव सुब्रह्मण्य अय्यर के घर रात्रिभोज पर गया तो उनकी पत्नी ही मुझे रसोई में ले गईं और खुद अपने हाथों से मुझे खाना परोसा।
द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म हो चुका था और भारत की आजादी भी बहुत दूर नहीं थी। गांधीजी ने ऐलान किया—‘भारतीय स्वयं अपने भारत का निर्माण करेंगे।’ पूरे देश में अप्रत्याशित उम्मीदें थीं। मैंने अपने पिताजी से रामेश्वरम् छोड़कर जिला मुख्यालय रामनाथपुरम् जाकर पढ़ाई करने की अनुमति माँगी।
उन्होंने सोचते हुए कहा, ‘अबुल! तुम्हें आगे बढ़ने के लिए जाना होगा। तुम्हें अपनी लालसाएँ पूरी करने और आगे बढ़ने के लिए उस जगह चले जाना चाहिए जहाँ तुम्हारी जरूरतें पूरी हो सकती हैं। हमारा प्यार तुम्हें बाँधेगा नहीं और न ही हमारी जरूरतें तुम्हें रोकेंगी।’ मेरी हिचकिचाती हुई माँ को उन्होंने खलील जिब्रान का हवाला देते हुए कहा, ‘तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हैं। वे तो खुद के लिए जीवन की लालसाओं के बेटे-बेटियाँ हैं। वे तुम्हारे जरिए आते हैं, लेकिन तुमसे नहीं आते। तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो, लेकिन अपने विचार नहीं। उनके खुद के अपने विचार होते हैं।’
पिताजी हम चारों भाइयों को मसजिद ले गए और पवित्र ‘कुरान’ से ‘अल फातिहा’ पढ़कर प्रार्थना की। फिर पिताजी मुझे रामेश्वरम् स्टेशन पर छोड़ने आए और कहा, ‘इस जगह तुम्हारा शरीर तो रह सकता है, लेकिन तुम्हारा मन नहीं। तुम्हारे मन को तो कल के उस घर में रहने जाना है जहाँ हममें से कोई भी रामेश्वरम् से वहाँ नहीं जा सकता और न ही सपनों में देख सकता है। मेरे बच्चे, ईश्वर तुम्हें खुश रखें।’
शम्सुद्दीन और अहमद जलालुद्दीन मुझे रामनाथपुरम् के श्वार्ट्ज हाई स्कूल में दाखिल कराने और वहाँ मेरे रहने का बंदोबस्त करने के लिए मेरे साथ आए थे। किसी भी तरह मुझे यहाँ अच्छा नहीं लग रहा था।
रामनाथपुरम् कस्बा समृद्ध होते हुए भी बनावटीपन में जीता समाज था। इसकी आबादी करीब पचास हजार थी। लेकिन रामेश्वरम् जैसी सुसंगति और सद्भाव यहाँ नहीं था। मुझे घर की बड़ी याद आती और मैं रामेश्वरम् जाने का हर मौका तलाशता रहता। रामनाथपुरम् में पढ़ाई के अच्छे अवसर के बाद भी मैं अपनी माँ की बनाई दक्षिण भारतीय मिठाई ‘पोली’ की याद नहीं भुला पाता। मेरी माँ ‘पोली’ की बारह तरह से मिठाइयाँ बना लेती थीं और हर किस्म की मिठाई की अपनी अलग सुगंध एवं स्वाद होता था।
घर की बहुत याद आने के बावजूद मैं नए माहौल में रहकर पिताजी के सपने को साकार करने के प्रति कटिबद्ध था; क्योंकि मेरी सफलता से पिताजी की बहुत बड़ी उम्मीदें जुड़ी थीं। पिताजी मुझे कलक्टर बना देखना चाहते थे और मुझे लगता था कि पिताजी के सपने को साकार करना मेरा फर्ज है। हालाँकि परिवार, सुरक्षा और रामेश्वरम् की सारी सुख-सुविधाएँ मुझसे छूट गई थीं।
जलालुद्दीन मुझसे हमेशा सकारात्मक सोच की शक्ति की बात किया करते थे और जब भी मुझे घर की याद आती या मैं उदास होता तो मैं प्रायः उनकी कही बातों को मन में याद कर लेता। उनके कहे अनुसार मैंने अपने मन के विचारों एवं मस्तिष्क को स्थिर रखने तथा लक्ष्य को पाने के लिए कठोर परिश्रम किया। मैं रामेश्वरम् नहीं लौटा बल्कि अपने घर से और दूर चलता चला गया।

: दो :





रामनाथपुरम् के श्वार्ट्ज हाई स्कूल में मन लग जाने के बाद मेरे भीतर का पंद्रह साल का किशोर बाहर निकल पड़ा। मेरे एक शिक्षक अयादुरै सोलोमन उन उत्सुक छात्रों के लिए एक आदर्श मार्गदर्शक थे जिनके समक्ष उस समय संभावनाओं और विकल्पों की अनिश्चितता थी। वह बहुत ही स्नेही, खुले दिमागवाले व्यक्ति थे और छात्रों का उत्साह बढ़ाते रहते थे। इससे छात्र बहुत ही सुखद महसूस करते थे। सोलोमन कहा करते थे कि एक कुशल शिक्षक से कमजोर छात्र जो सीख पाता है, उसकी तुलना में एक होशियार छात्र कमजोर शिक्षक से कहीं ज्यादा सीख सकता है।
रामनाथपुरम् में रहते हुए अयादुरै सोलोमन से मेरे संबंध एक गुरु-शिष्य के नाते से अलग हटकर काफी प्रगाढ़ हो गए थे। उनके साथ रहते हुए मैंने यह जाना कि व्यक्ति खुद अपने जीवन की घटनाओं पर काफी असर डाल सकता है। अयादुरै सोलोमन कहा करते थे—‘जीवन में सफल होने और नतीजों को हासिल करने के लिए तुम्हें तीन प्रमुख शक्तिशाली ताकतों को समझना चाहिए—इच्छा, आस्था और उम्मीदें।’ श्री सोलोमन मेरे लिए बहुत ही श्रद्धेय बन गए थे। उन्होंने ही मुझे सिखाया कि मैं जो कुछ भी चाहता हूँ, पहले उसके लिए मुझे तीव्र कामना करनी होगी, फिर निश्चित रूप से मैं उसे पा सकूँगा। मैं खुद अपनी जिंदगी का ही उदाहरण लेता हूँ। बचपन से ही मैं आकाश एवं पक्षियों के उड़ने के रहस्यों के प्रति काफी आकर्षित था। मैं सारस को समुद्र के ऊपर मँडराते और दूसरे पक्षियों को ऊँची उड़ानें भरते देखा करता था। हालाँकि मैं एक बहुत ही साधारण स्थान का लड़का था; लेकिन मैंने निश्चय किया कि एक दिन मैं भी आकाश में ऐसी ही उड़ानें भरूँगा और वास्तव में कालांतर में उड़ान भरनेवाला मैं रामेश्वरम् का पहला बालक निकला।
अयादुरै सोलोमन सचमुच एक महान् शिक्षक थे; क्योंकि वह सभी छात्रों को उनके भीतर छिपी शक्ति एवं योग्यता का आभास कराते थे। सोलोमन ने मेरे स्वाभिमान को जगाकर एक ऊँचाई दी थी और मुझे—एक ऐसे माता-पिता के बेटे जिन्हें शिक्षा का अवसर नहीं मिल पाया था—यह आश्वस्त कराया कि मैं भी अपनी उन आकांक्षाओं को पूरा कर सकता हूँ जिनकी मैं इच्छा रखता हूँ। वे कहा करते थे—‘निष्ठा एवं विश्वास से तुम अपनी नियति बदल सकते हो।’
बात उस समय की है जब मैं चौथी ‘फॉर्म’ में था। सारी कक्षाएँ स्कूल के अहाते में अलग-अलग झुंडों के रूप में लगा करती थीं। एक दिन मेरे गणित के शिक्षक रामकृष्ण अय्यर एक दूसरी कक्षा को पढ़ा रहे थे। अनजाने में ही मैं उस कक्षा से होकर निकल गया। तुरंत ही एक प्राचीन परंपरावाले तानाशाह गुरु की तरह रामकृष्ण अय्यर ने मुझे गरदन से पकड़ा और भरी कक्षा के सामने मुझे बेंत लगाए। कई महीनों बाद जब गणित में मेरे पूरे नंबर आए तब रामकृष्ण अय्यर ने स्कूल की सुबह की प्रार्थना में सबके सामने यह घटना सुनाई—‘मैं जिसकी बेंत से पिटाई करता हूँ वह एक महान् व्यक्ति बनता है। मेरे शब्द याद रखिए, यह छात्र विद्यालय और अपने शिक्षकों का गौरव बनने जा रहा है।’ उनके द्वारा की गई यह प्रशंसा क्या एक भविष्यवाणी थी?




श्वार्ट्ज हाई स्कूल से शिक्षा पूरी करने के बाद मैं सफलता हासिल करने के प्रति आत्मविश्वास से सराबोर छात्र था। मैंने एक क्षण भी सोचे बिना और आगे पढ़ाई करने का फैसला कर लिया। उन दिनों हमें व्यावसायिक शिक्षा की संभावनाओं के बारे में कोई जानकारी तो थी नहीं। उच्च शिक्षा का सीधा सा अर्थ कॉलेज जाना समझा जाता था। सबसे नजदीक कॉलेज तिरुचिरापल्ली में था। उन दिनों इसे ‘तिरिचनोपोली’ कहा जाता था और संक्षेप में ‘त्रिची’।
सन् 1950 में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए मैंने त्रिची के सेंट जोसेफ कॉलेज में दाखिला ले लिया। परीक्षाओं में डिवीजन लाने की दृष्टि से तो मैं कोई होशियार छात्र था नहीं, लेकिन रामेश्वरम् के अपने उन दो ‘उस्तादों’—जलालुद्दीन व शम्सुद्दीन—का मैं शुक्रिया अदा करता हूँ, जिनसे मैंने जो व्यावहारिक ज्ञान हासिल किया उसने मुझे कभी नीचा नहीं देखने दिया।
जब कभी भी मैं त्रिची से रामेश्वरम् लौटता तो मेरे बड़े भाई मुस्तफा कलाम, जो रेलवे स्टेशन रोड पर एक परचून की दुकान चलाते थे, मुझसे थोड़ी-बहुत मदद करवा लेते थे और कुछ-कुछ घंटों के लिए दुकान को मेरे जिम्मे छोड़ जाते थे। मैं तेल, प्याज, चावल और दूसरा हर सामान बेच लेता था। मैंने पाया कि सिगरेट और बीड़ी सबसे ज्यादा बिकनेवाली वस्तुएँ थीं। मुझे ताज्जुब हुआ करता कि गरीब लोग अपनी कड़ी मेहनत की कमाई को किस तरह धुएँ में उड़ा देते हैं। जब मैं मुस्तफा के यहाँ से खाली हो जाता तो अपने छोटे भाई कासिम मुहम्मद की दुकान चला जाता। वहाँ मैं शंखों एवं सीपियों से बने अनूठे सामान बेचा करता था।
मैं सौभाग्यशाली था कि सेंट जोसेफ कॉलेज में मुझे फादर टी.एन. सेक्युरिया जैसे शिक्षक मिले। वे हमें अंग्रेजी पढ़ाते थे और साथ ही हमारे होस्टल वार्डन भी थे। तीन मंजिले होस्टल में हम करीब सौ छात्र रहते थे। फादर सेक्युरिया रोजाना रात को हाथ में ‘बाइबिल’ लिये हुए हर लड़के से मिलने आते थे। उनकी ऊर्जा और धैर्य आश्चर्यजनक था। वे हमेशा दूसरों का खयाल रखनेवाले व्यक्ति थे और हर छात्र की पल-पल की जरूरतों को पूरा करते थे। उनके निर्देश पर ही दीपावली के अवसर पर हमारे होस्टल का इंचार्ज (ब्रदर) और मेस के लोग सभी छात्रों के कमरे में जा-जाकर पवित्र स्नान के लिए उन्हें तिल का तेल देते।
मैं सेंट जोसेफ कॉलेज में चार साल रहा। होस्टल में मेरे साथ कमरे में दो लड़के और थे। एक श्रीरंगम के रूढ़िवादी आयंगर परिवार से था और दूसरा केरल का सीरियाई ईसाई था। हम तीनों हमेशा साथ रहते थे और बहुत ही अच्छा समय कटता था। जब मैं कॉलेज के तीसरे साल में था तब मुझे होस्टल में शाकाहारी मेस का सचिव बना दिया गया। एक रविवार को हमने कॉलेज के प्रमुख फादर कलाथिल को दोपहर के भोज पर आमंत्रित किया। भोज में शामिल व्यंजनों में वे चीजें भी शामिल थीं जो पारंपरिक रूप से हमारे परिवारों में बनाई जाती थीं। इसका नतीजा न सिर्फ अप्रत्याशित रहा बल्कि फादर कलाथिल ने हमारी कोशिशों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। हमने उनके साथ बहुत ही आनंद के क्षण गुजारे। उन्होंने हमारे साथ बच्चे की तरह निष्कपट एवं आत्मीयता से बातें कीं। हम सबके लिए यह यादगार घटना थी।
सेंट जोसेफ के मेरे शिक्षक कांची परमाचार्य के सच्चे अनुयायी थे, जो ‘देने में ही जीवन का सच्चा आनंद है’ मत के प्रणेता थे। मेरे गणित के शिक्षकों, प्रो.थोथाथ्री आयंगर और प्रो. सूर्यनारायण शास्त्री, के कॉलेज परिसर में साथ-साथ टहलने की जीवंत स्मृति मेरे लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत बनी रही।

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Q. अग्नि की उड़न / Agni Ki Udaan / Wings of Fire किताब के लेखक कौन है?
Answer.   डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम / A. P. J. Abdul Kalam  
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