आज़ादी आधी रात को / Aazadi Aadhi Raat Ko PDF Download Free Hindi Book by Dominique Lapierre

पुस्तक का विवरण (Description of Book of आज़ादी आधी रात को / Aazadi Aadhi Raat Ko / Freedom at Midnight PDF Download) :-

नाम 📖आज़ादी आधी रात को / Aazadi Aadhi Raat Ko / Freedom at Midnight PDF Download
लेखक 🖊️   डोमिनिक लापिएर / Dominique Lapierre     लैरी कलिन्स / Larry Collins  
आकार 14.9 MB
कुल पृष्ठ342
भाषाHindi
श्रेणी
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‘आजादी आधी रात को’ डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिन्स की विश्वप्रसिद्ध पुस्तक ’फ्रीडम एट मिडनाइट’ का हिंदी अनुवाद है। माउंटबेटन की मुख्य भूमिका वाली यह पुस्तक हमें बताती है कि अंतिम वायसराय का रुझान बंटवारे के खिलाफ था और अगर उन्हें इस बात का पता चल गया होता कि जिन्ना ‘सिर्फ कुछ महीनों के मेहमान’ है, तो माउंटबेटन बंटवारे के बजाय जिन्ना की मौत तक इंतजार करते। हालांकि यह बात सिर्फ जिन्ना के हिंदू डॉक्टर को पता थी, जिसने अपने मरीज के साथ विश्वासघात नहीं किया। पुस्तक की लेखन-शैली आकर्षक है और पाठक को बांधे रखती है।
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पुस्तक का कुछ अंश

आज़ादी आधी रात को

डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिन्स संयुक्त लेखन के लिए दुनियाभर में जाने-माने नाम हैं। इस अनूठी जोड़ी में लापिएर फ्रांसीसी के लेखक हैं, तो कॉलिन्स अंग्रेजी के। लेकिन उनकी गति दोनों भाषाओं में है। लापिएर की रुचि गैर-कथात्मक लेखन में रही, तो कॉलिन्स की कथा-लेखन में।
डोमिनीक लापिएर को सन् 2008 में भारत सरकार ने समाज सेवा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। ये दोनों लेखक सामग्री जुटाने, शोध, साक्षात्कार सब साथ करते, मगर लिखते अलग-अलग भाषाओं में। हाँ, पुस्तकों का प्रकाशन एक-साथ अंग्रेजी और फ्रांसीसी में होता रहा और बाद में उनका दुनिया की प्रमुख भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। इस अंतरराष्ट्रीय जोड़ी को पहली बार सफलता फ़्रीडम एट मिडनाइट से ही मिली।
शासित भारत के लिए ज़िम्मेदारी सौंपकर ब्रिटिश रेस के कंधों पर भारी भार डाला गया था।
–रूडयार्ड किपलिंग

“भारत का हाथ से निकल जाना हमारे ऊपर अंतिम और घातक प्रहार होगा। यह अनिवार्य रूप से एक ऐसी प्रक्रिया का अंग बन जाएगा, जो हमें एक कमजोर शक्ति के स्तर पर पहुँचा देगी।”
–विंस्टन चर्चिल
हाउस ऑफ़ कॉमंस में भाषण,
फ़रवरी, 1931

“सालों पहले हमने नियति से साक्षात् का वचन दिया था, और अब अपने उस वचन को पूरा करने का समय आ गया है।... बारह बजे रात को, जब पूरा विश्व सो रहा होगा, तब भारत जीवन और स्वतंत्रता के स्वागत में अपनी आँखें खोलेगा। एक क्षण ऐसा आता है और वह क्षण इतिहास में विरल ही होता है, जब हम पुरातन से निकलकर नये परिवेश में क़दम रखते हैं, तब एक युग समाप्त होता है और बहुत समय से दबे-कुचले किसी राष्ट्र की आत्मा मुखर हो उठती है...।
–जवाहरलाल नेहरू
भारतीय संविधान सभा में भाषण,
नयी दिल्ली
14 अगस्त, 1947
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अगस्त 1979 में हर गर्मियों की तरह उन्होंने परिवार के साथ आयरलैंड के क्लासीबॉन में छुट्टी मनाने की तैयारी की। इससे एक दिन पहले उन्होंने इस किताब के एक लेखक से टेलीफ़ोन पर बातचीत की। लेखक ने उन्हें चेतावनी दी, “लॉर्ड लुईस आप सावधान रहें, क्योंकि आप आयरलैंड के गुस्साए लोगों का निशाना हो सकते हैं।” उधर से जवाब आया, “मेरे प्रिय लैरी एक बार फिर से तुम दिखा रहे हो कि तुम इन मामलों में कितना कम जानते हो? आयरिश लोग मेरे बारे आपके प्रश्नों से बेहतर जानते हैं। वहाँ क्या हो रहा है, इससे मुझे कोई खतरा नहीं है।”
दो सप्ताह के बाद वह अपनी माँ, साले लॉर्ड जॉन ब्राबनी और एक बच्चे के साथ अपनी मोटर में छुपाये गये एक आयरिश बम विस्फोट का शिकार हो गये, जब वह सुबह की सैर पर निकले थे। उनके पास कुछ नहीं था, लेकिन लोगों के प्रति गुस्सा था, जिन्होंने एक बुजुर्ग महिला और एक बच्चे की हत्या कर दी थी, लेकिन अपने बारे में? वह काफी आसानी से मर गये और समुद्र की उन लहरों में खो गये, जिसने उनके और उनके पिता के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। क्या उनकी मृत्यु से उत्तरी आयरलैंड में प्रबुद्धजनों और रिपब्लिकन्स को कोई लाभ मिला होगा, कम से कम इसे अंतिम कार्रवाई नहीं कहा जा सकता है और न ही इस आदमी की मौत की तुलना उनके प्रिय महात्मा गाँधी से की जानी चाहिए।
यहाँ तक कि फ़्रीडम एट मिडनाइट पर काम करने के दौरान उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हम लोग कैसे भारत में एक-दूसरे को मार रहे हिंदू और मुस्लिमों को दोषी ठहरा सकते हैं, जबकि उत्तरी आयरलैंड में इसी विचार का अनुसरण करने वाले लोग एक-दूसरे को मार रहे हैं? दुर्भाग्य से उनकी मौत के दो दशक के बाद भी उनका त्याग और उनके द्वारा किये गये दूसरे काम उत्तरी आयरलैंड के लोगों के बीच उन्हें प्रतिष्ठित नहीं कर सके, पर उनके मूल्य और विचार देशवासियों और महिलाओं के लिए एक संपत्ति की तरह ही हैं, जिनको उन्होंने गाँधी जी की मौत के बाद अर्जित किया था।
लैरी कॉलिन्स
डोमिनीक लापिएर
दिसंबर 1996

यह तुम्हारी ओर से संप्रभुता की तरह का कार्य था, जिससे एक अमेरिकन और फ्राँसीसी व्यक्ति भी इस पर भरोसा कर सकेंगे।”
माउंटबेटन ने आश्चर्यचकित होकर हमें जवाब दिया कि हम अंग्रेज़ी राज की स्थापना के बारे में कितना कम जानते हैं, एक ऐसे संस्थान के बारे में जिसके लिए वह किसी भी घटना में काफी सीमित आदर भाव रखते थे। कुछ महीनों के बाद वह वापस इस मसले पर लौट आये। उनके दामाद लॉर्ड जॉन ब्राबर्नी जो कि उनकी संपत्ति के ट्रस्टी भी थे, उन्होंने हमसे कहा, “मैं इस मसले पर आपके निर्णय से सहमत हूँ।” राहत की साँस लेकर हमने सुझाव दिया कि वह ह्यूज थॉमस से सलाह मशविरा करना चाहते हैं, जो कि उस समय ऑक्सफोर्ड में इतिहास के प्रतिष्ठित प्रोफ़ेसर थे, लेकिन इस प्रश्न पर उनकी सोच स्पष्ट थी कि उनका उत्तर पहले की संवेदना पर आधारित होगा। माउंटबेटन की बिना इस प्रश्न का उत्तर जाने मृत्यु हो गयी। उनके दामाद के लिए उनके जीवनी लेखक चुनने का भार समाप्त हो गया, जिन्होंने फिलिप जीगलर को चुना, जो ‘फ़्रीडम एट मिडनाइट’ के संपादक थे। यद्यपि कुछ लोग इस बात से परिचित थे कि माउंटबेटन अपने जीवन के अंतिम समय में हृदय की काफी गंभीर समस्या से जूझ रहे थे। उनकी पुत्रियाँ और उनके चिकित्सक ने उनकी दिनचर्या को हल्का करने का आग्रह किया और काम के प्रति उनकी लगन को भी कम करवाया। कभी-कभार उनके बहरे कानों में अच्छे विचार सुनायी दे जाते थे।
उन वर्षों में लंदन में उनके किनरटन स्ट्रीट के फ्लैट में होने वाली हमारी बातचीत मौत की ओर मुड़ जाती थी। विशेष रूप से गाँधी जी की मौत ने उन्हें आकर्षित किया था, क्योंकि उन्होंने कहा था कि महात्मा ने भारत की सांप्रदायिक हिंसा को समाप्त करने के लिए अपने जीवन में जो काम किये, उसी से उनको मौत मिली। इससे उनकी मृत्यु को नये आयाम और अर्थ मिले, जो कुछ ही लोगों को नसीब है। बिना किसी लाग-लपेट के वह कहते हैं कि अंत वही है जिसकी इच्छा आप करते हैं, जिसे कोई अपने जीवन में एक बेहतर अध्याय के रूप में सोचते हैं।[adinserter block="1"]

‘फ़्रीडम एट मिडनाइट’ के ढेरों पाठकों ने पाया है कि हम लोगों ने इसके पृष्ठों में लेडी एडविना माउंटबेटन और जवाहरलाल नेहरू के बीच चले प्रेम संबंधों की चर्चा नहीं की है। हमारी योजना यह थी कि उन अफवाहों को इस योजना में शामिल नहीं करेंगे। जबकि कोई शक नहीं कि नेहरू और लेडी माउंटबेटन के बीच एक विशेष तरह का आकर्षण था, लेकिन इसका न तो कोई प्रमाण था और न ही उनका रिश्ता दोस्ती से ज्यादा कुछ और था। नेहरू की अपनी बहन वी. एल. पंडित ने हम लोगों को एक बातचीत के दौरान बताया कि नेहरू और एडविना के बीच किसी तरह का रिश्ता नहीं रहा, क्योंकि शादी के बाद उनके भाई की कामनाएँ कम हो गयी थीं। उसने कहा कि इसी कारण उसके वैवाहिक संबंध का अंत हो गया और वह जीवन भर संघर्ष ही करते रहे। मुख्य रूप से भारतीय समाज में उस समय महिलाओं की स्थिति काफी अच्छी थी और हमें यह समझना काफी मुश्किल हो रहा था कि एक बहन अपने प्यारे भाई के बारे में इतना झूठ बोल सकती है। इससे आगे लेडी माउंटबेटन के नेहरू के बंगले पर दो बार आने के बारे में उस बंगले का ख्याल रखने वाले नौकर ने आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री बने जवाहरलाल नेहरू के बारे में ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं पाया जिससे यह पता चलता हो कि इन दोनों के संबंध आपत्तिजनक थे।
माउंटबेटन ने भारतीय नेताओं के साथ लगातार बातचीत के बारे में अपनी पत्नी की मदद ली थी और कई मौकों पर तो वह नेहरू तक अनाधिकारिक तौर पर संदेश पहुँचाने के लिए लेडी माउंटबेटन का इस्तेमाल भी करते थे।
जब फ़्रीडम एट मिडनाइट का प्रकाशन हो गया तो लेखकों को माउंटबेटन के पक्ष में लिखने का आरोपी पाया गया। उस आरोप के लिए हमें दोषी ठहराया गया। साधारण तौर पर अंतिम वायसराय के बारे में दो तरह की शिकायतें थी कि उसने काफी तेजी से भारत और पाकिस्तान को अगस्त, 1947 में शक्ति सौंप दी तथा इसके बाद होने वाले रक्तपात की घटनाओं को रोकने के लिए उन्होंने किसी तरह का कदम नहीं उठाया।
इस सहमति के बाद माउंटबेटन पंद्रह अगस्त के पहले ही श्रीनगर के लिए रवाना हो गये थे, ताकि कश्मीर के राजा हरि सिंह को पाकिस्तान में मिलने के लिए राजी कर सकें। उन्होंने त्रिका नदी में मछली के आखेट के लिए जाने के दौरान अपनी गाड़ी में यात्रा के दौरान महाराजा को कार्रवाई करने की भी धमकी दी। उन्होंने राजा को कहा, ‘हरि सिंह, तुम्हें मेरी बात माननी ही होगी। मैं यहाँ सरकार की पूरी ताकत लेकर आया हूँ और यदि तुम पाकिस्तान के साथ मिल जाने के लिए राजी हो जाते हो तो वे तुम्हारी मदद एवं सहयोग करेंगे।’ सिंह ने मना कर दिया। उसने माउंटबेटन से कहा, ‘मैं चाहता हूँ कि एक स्वतंत्र राष्ट्र का मुखिया बनूँ।’ वायसराय ने सिंह को मूर्ख कहा और जवाब दिया कि ‘तुम स्वतंत्र नहीं हो सकते। तुम्हारा देश जमीन से घिरा हुआ है। तुम्हारा क्षेत्रफल ज्यादा है और जनसंख्या कम है। तुम्हें भारत और पाकिस्तान के बीच में ही रहना होगा। तुम दो देशों को अपने पड़ोसी देशों की तरह पाओगे। तुम एक युद्ध के मैदान के रूप में समाप्त हो जाओगे, जो होना है। तुम अपना जीवन और राज सिंहासन दोनों गँवा दोगे, यदि तुम सावधान नहीं हुए तो।'
सिंह समझ गये, हालाँकि उन्होंने वायसराय की अगली यात्रा के दौरान उससे मिलने से मना कर दिया। स्वतंत्रता दिवस आया और चला गया तथा हरि सिंह का दिमाग परिवर्तित हो गया, वह कश्मीर के बारे में कोई ठोस निर्णय नहीं ले सके। जब कबाइली संगठित हुए और ठंड के दिनों में कश्मीर की राजधानी पर पाकिस्तान ने हमला कर दिया तो हरि सिंह ने नयी दिल्ली को मदद का संदेश भिजवाया।[adinserter block="1"]

इस मुद्दे पर यह सही है कि भारतीय गणराज्य के तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने नेहरू को कहा, ‘आप तब तक भारतीय सेना को कश्मीर में घुसने का आदेश नहीं दे सकते हैं, जब तक कि महाराजा भारत के साथ सम्मिलन के संलेख पर हस्ताक्षर नहीं कर देते।’ वह वहीं रूके रहे और समस्या यह उत्पन्न हुई कि ठंड के मौसम में दो राष्ट्रों के बीच रिश्तों में खटास आ गयी। से आये जमींदार बने श्वेत ईसाई दूसरे की शक्ति का उपयोग कर रहे थे। उस रात एक नये विश्व का उदय हुआ, यह विश्व जो हमारे साथ अगली शताब्दी की ओर अग्रसर हुआ, एक ऐसी दुनिया जिसमें उपनिवेश और जनता जाग रही थी, नये और यहाँ तक कि संघर्षरत सपनों और प्रेरणाओं के साथ। यह एक उच्च स्तरीय नाटक था और चरित्रों का परिचय उस रात को केंद्रीय भूमिका में था, लॉर्ड माउंटबेटन, बर्मा के ब्रिटिश, अंतिम वायसराय को ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा दिल्ली भेजा गया, ताकि वह ब्रिटिश साम्राज्य की रानी विक्टोरिया के सम्मान में एक महान यादगार पुरस्कार दे सकें। जवाहर लाल नेहरू जो कि स्वच्छ छवि वाले, काफी तेज और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे, तीसरी दुनिया के पहले नेता बने। मुहम्मद अली जिन्ना जो कि शांत, स्वानुशासित, विनम्र व्यक्ति थे, लेकिन रात को ब्रिटिशों के साथ व्हिस्की और सोडा पीते हुए उन पर एक अलग इस्लामिक देश के निर्माण का दबाव देते थे और अहिंसा के दूत रहे दूसरे नेताओं के मुकाबले शीर्ष स्तर के नेता मोहनदास करमचंद महात्मा गाँधी, जिन्होंने साम्राज्य को समाप्त करने में तेजी दिखायी, वह कभी भी साधारण तौर पर स्थिर नहीं हुए।
उस दौर में जब टेलीविजन नहीं होता था, रेडियो भी कहीं-कहीं पर मौजूद था और ज्यादातर भारतवासी अनपढ़ थे, महात्मा गाँधी ने साबित किया कि वह जनसंचार के वास्तव में गुरु हैं, क्योंकि वह एक विशेष प्रतिभा के धनी थे जो सामान्य हाव-भाव के साथ अपने देशवासियों से बातें करता था। निश्चित रूप से जब इतिहासकार और संपादक सदी के सर्वश्रेष्ठ महिला और पुरुष का चुनाव करना शुरू करेंगे, तो इनका नाम सूची में सबसे ऊपर होगा।
वह नाटकीय समय दो भारत के बीच में कमजोर दिखायी देने वाला दृश्य था। पहला, भारत वह जिसकी उस रात मृत्यु हो गयी जिसमें बंगाल के नवाब और विशिष्ट महाराजा, बाघों के हत्यारे और हरे पोलो के मैदान, गहनों से लदे हुए विशाल हाथी, कुलीन महिलाएँ और इंडियन सिविल सर्विसेज के युवा अधिकारी जंगल में अपने जैकेट निकालकर वहाँ बने छोटे शिविर में जश्न मना रहे थे। उस समय वहाँ नये भारत का उदय हो रहा था,
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प्राक्कथन
गुजरती हुई हर सदी में कुछ लम्हें ऐसे होते हैं, जिनकी व्याख्या बार-बार की जाती है और कहा जा सकता है कि यहाँ इतिहास का निर्माण हुआ था और यहाँ मनुष्य का जीवन विभिन्न पड़ावों से गुजरता हुआ नयी दिशा की ओर अग्रसर होकर नये मुकाम तक पहुँचा था। इसी तरह का एक लम्हा 28 जून, 1914 को आया था, जब गैवरिलो प्रिंसिप ने सराजेवो में भीड़ से निकलकर आर्कड्यूक फ्रेंज फर्डीनेंड की निर्दयता से हत्या कर दी थी तथा यूरोप को प्रथम विश्व युद्ध के रास्ते पर ले आया और एक बार फिर 1942 में भयंकर सर्दी के उस दिन शिकागो में एनरिको फर्मी ने पहले नाभिकीय परीक्षण के साथ नये परमाणु युग की शुरूआत की।
हमारी थकती जा रही शताब्दी में एक बार फिर से ताजगी 1947 में 14-15 अगस्त के दिन तब आयी, जब ब्रिटिश झंडे पर भारत का सितारा बुलंद हुआ, यहाँ से नयी दिल्ली के वायसराय की भारतीय घर से अंतिम यात्रा आरंभ हुई। विश्व की जनसंख्या के पाँचवें हिस्से के लिए वह समय प्रतिष्ठित झंडे के लिए संपूर्ण जनमानस के सामने घोषित ब्रिटिश राज की समाप्ति और चालीस करोड़ लोगों की स्वतंत्रता से अधिक साबित हुआ। साथ ही साथ इसने कई वर्षों से एक देश द्वारा दूसरे देश पर किये जा रहे शासन की समाप्ति की घोषणा भी कर दी, जिसमें साढ़े चार दशकों से यूरोप है, जिससे संबंधों में खुला विरोध देखने को मिला है। दोनों देशों ने परमाणु हथियार बना लिए हैं और उसे प्रयोग करने की धमकी देते हैं, इस कारण धरती पर दोनों सबसे खतरनाक देश बन गये हैं। हर देश एक-दूसरे पर लगातार आतंकवाद का आरोप लगाते हैं, जहाँ भारत कश्मीर में चल रहे छद्म युद्ध के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने का आरोप लगाता है, वहीं पाकिस्तान कराची और पंजाब के कुछ ग्रामीण इलाके में हुई हिंसा के पीछे भारत का हाथ होने का संदेह करता है।
इन दोनों के बीच वैमनस्य के बीच निश्चित रूप से कश्मीर जैसी खूबसूरत घाटी में समस्याएँ बढ़ गयी हैं, जहाँ मुस्लिम जनसंख्या भारतीय शासन के अधीन रहती है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने क्षेत्र के भविष्य के लिए लोगों को सीधे मतदान करने के अधिकार के लिए आवाज उठायी और यह पाकिस्तान से स्वतंत्र होने या उसके साथ संयुक्त होने की एक योजना थी। लेकिन यह समस्या किसी कारण से पेचीदा बन गयी, यद्यपि बारीकी से देखा जाए तो भारत की किसी भी सरकार के लिए संभव है कि वह इस बात पर गहराई से विचार करे या फिर वह कट्टरपंथियों द्वारा भारत में रहने वाले अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रही हिंसा पर रोक लगाए, जो कश्मीर के मामले से काफी दूर है।
लॉर्ड माउंटबेटन ने आरोप लगाया कि आजादी के बाद भी बड़ी संख्या में पाकिस्तानियों ने पाकिस्तान की अपेक्षा भारत में रहना पसंद किया। दरअसल इस आरोप का मूल दोनों देशों को झूठा और अन्यायी बताना था। इसके विपरीत संभवतः माउंटबेटन ने एक पक्ष के मुकाबले दूसरे से संबंध अच्छे बना लिए, जिससे समस्या के शांतिपूर्ण समाधान में बाधा पड़े। जब मुश्किलें काफी ज्यादा बढ़ गयी तो भारतीय राजनीति के नेताओं वल्लभभाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर के राजा हरि सिंह को पाकिस्तान में मिलाने के माउंटबेटन के इरादे को देखते हुए, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया। (नियम एवं शर्तों के अंतर्गत शक्ति के हस्तांतरण के लिए, भारत के प्रांतीय राज्य अपने राज्य की जनता के बहुमत का पक्ष देखते हुए भारत या पाकिस्तान की अधीनता स्वीकार करने को सहमत हो गये।)[adinserter block="1"]

एक देश जो त्रासदी से उबर चुका था, आधुनिकता और औद्योगिक शक्ति से संघर्ष कर रहा था, जिस पर उसके नागरिकों, संस्कृति, विभिन्न बोलियों और धर्मों का बोझ था। वे इसके आकर्षण और चुनौतियाँ हैं, जिसने हमें फ़्रीडम एट मिडनाइट (आज़ादी आधी रात को) लिखने को मजबूर किया। किताब का पहला प्रकाशन 1975 में हुआ था, जिससे लेखकों को काफी प्रतिष्ठा प्राप्त हई और साथ ही बडे पैमाने पर लोकप्रियता भी मिली। यह रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म गाँधी को सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए अकादमी अवार्ड दिलाने में सफल साबित हुई और स्क्रीन राइटर जॉन ब्रिले को भी इसने प्रेरित किया। यूरोप, अमेरिका और लैटिन अमेरिका में यह पुस्तक सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों में शामिल हुई, पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप पर पड़ा। इस पुस्तक का अनुवाद उन सभी भारतीय भाषाओं में किया गया, जिसमें प्रकाशित की जा सकती थी, और एक बार तो चार्ल्स डिकेंस या विक्टर ह्यूगो जैसे लेखकों को भी किताब की प्रति पहले से रिजर्व करानी पड़ी। इस किताब ने आगे चलकर खूब प्रतिबँध भी झेला और गैरकानूनी, कम-से-कम 34 पाइरेटेड संस्करणों में भी इसे प्रकाशित किया गया। पाकिस्तान में यद्यपि एक महत्त्वाकांक्षी सरकार ने इस पर पाबंदी लगा दी। क्यों? हम लोगों ने इसमें इस बात को शामिल किया कि इस्लामिक देश के संस्थापक जो सुअर के माँस का एक टुकड़ा सुबह अंडे के साथ नहीं खा सकते हैं, उन्होंने किताब की ओर रुझान दिखाया ।
इस पुस्तक के असली दस्तावेज की समीक्षा पंद्रहवें संस्करण के लिए की गयी तो हमने पाया कि हमें इसे फिर से पढ़ने एवं इसे फिर से लिखने की जरूरत है। हमने ऐसा किया, हालाँकि महसूस किया कि पुस्तक में वर्णित पचासवीं सदी बीत चुकी थी और इसमें वर्णित कई घटनाओं को शुरूआती संस्करण के बाद फिर से लिखने की आवश्यकता थी। ऐसा करने के लिए हम माउंटबेटन के रिकॉर्ड किये हुए तीस मिनट के साक्षात्कार के टेप और दूसरे असली संसाधनों तक पहुँचे, जिन्हें किताब में प्रकाशित किया गया था। जैसा कि भारत और पाकिस्तान अपनी आज़ादी की साठवीं वर्षगाँठ तक पहुँच गये हैं, उनके बीच साठ सालों से वैमनस्य चला आ रहा निश्चित तौर पर कोई भी यह नहीं जान पाया कि उन खराब सप्ताहों के दौरान कितने लोगों की जान गयी? माउंटबेटन ने दो लाख पच्चीस हज़ार लोगों की मौत को प्रमुखता से बताया, जो उसकी सोच की ही उपज थी। उस दौरान कई इतिहासकारों ने पाँच लाख लोगों के मरने की पुष्टि की थी। कुछ ने इसे दो लाख बताया।[adinserter block="1"]

हालाँकि इसे उस समय की ऐसी घटना माना जाता है, जब भारत में इस संकट को देखने के लिए कोई भी अधिकार प्राप्त संस्था नहीं थी। इस दौरान हम लोगों ने भारत के प्रांतों के गवर्नरों द्वारा वायसराय को सौंपी जाने वाली हर रिपोर्ट का अध्ययन किया था। पंजाब में सर इवेन जेनकिंस और उत्तर पश्चिम फ्रंटियर प्रांत के सर ओलैफ कैरो ने भारत में ब्रिटिश राज के सबसे बेहतर प्रांतों का प्रतिनिधित्व किया, जो भारतीय सिविल सर्विस के काफी ऊँचे पद पर आसीन थे। वे ऐसे व्यक्ति को सलाह देते थे, जिसका भारत में कुछ ही महीनों का अनुभव था, न कि सालों का। हालाँकि उनकी कोई भी रिपोर्ट हिंसा की लहर को आमंत्रण नहीं देती थी, जो कि विभाजन के बाद दिखायी दी।
भारत और पाकिस्तान के राजनीतिक नेताओं नेहरू, पटेल, जिन्ना और लियाकत अली खां ने माउंटबेटन से एक स्वर में आग्रह किया कि जैसे भी संभव हो, उनके हाथों में सत्ता हस्तांतरित कर दें। ये व्यक्ति कई वर्षों से सत्ता पाने के लिए प्रयास कर रहे थे और परेशान थे। हालाँकि उनका आँतरिक विचार जो भी रहा हो, लेकिन उन्होंने भारत के विभाजन के बाद आने वाले संकट को माउंटबेटन के सामने काफी कमतर बताया और अपनी क्षमता के बारे में यह बताया कि वह किसी भी स्थिति से निपटने के लिए क्षमतावान हैं। केवल एक आवाज ने संकट के सारे आयाम तोड़ दिए, जो उप-महाद्वीप के मनोवैज्ञानिक ताकत के बारे में थी। वह आवाज गाँधी जी की थी और 1947 में मध्य ग्रीष्म काल में अहिंसा के पुजारी की आवाज कोई भी सुन नहीं रहा था।
“क्या ग़लत हुआ”, माउंटबेटन ने हमारे सामने स्वीकार किया, “क्या यह आश्चर्यजनक था, एक साथ किया गया विरोध जिसका कोई भी पूर्वानुमान नहीं लगा सका। कोई भी यह कल्पना तक नहीं कर पाया कि लाखों लोग एक बार में स्थान कैसे बदल लेंगे। कोई भी नहीं।”
“क्या”, हमने उनसे पूछा, “क्या आप इसे कुछ अलग तरह से कर सकते थे या फिर कोई अधिकारिक घोषणा के आधार पर इस तरह की कल्पना की गयी थी?” उनकी प्रतिक्रिया थी कि मैं कुछ भी अलग तरह का नहीं करना चाहता था, मैं ऐसा नहीं कर सकता था। मैंने नेताओं को एक साथ पाया और कहा कि हम लोग इस समस्या से जूझ रहे हैं। हम लोग क्या करने जा रहे हैं? मैं उन्हें बता सकता हूँ कि हम लोगों के पास स्थानांतरण की शक्ति नहीं है, लेकिन इस बात को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। कुछ ने सुझाव दिया कि माउंटबेटन दो नये प्रांतों के नेताओं से बातचीत कर रहे हैं, ताकि सर किरील रेडक्लिफ को सीमा रेखा खींचनी चाहिए। इसलिए वह तर्क दे रहे थे कि कम से कम अस्थायी तौर पर लाखों लोगों को सीमा पार करायी जाए। हालाँकि, यह स्थिति अनिश्चित तौर पर विस्फोटक स्थिति से भरी हुई थी और इससे अधिक हिंसा इसका परिणाम ही हो सकती थी?
वर्ष 1947 की गर्मी में माउंटबेटन को एक ठोस जानकारी देने से मना कर दिया गया था, जिसका खुलासा आज़ादी के बाद किया गया। यह सच्चाई थी कि जिन्ना की मौत टीबी से हुई थी तथा उसे चिकित्सकों द्वारा यह बता दिया गया था कि अब वह छह महीने से भी कम समय तक जीवित रहेगा। क्या यह जानते हुए भी उन्होंने माउंटबेटन को संपर्क किया, संभवतः वह भारत में कुछ अलग करना चाहते थे। भारत की एकता में जिन्ना सबसे बड़ी बाधा थे। लेकिन इस बात का पता उन्हें आज़ादी से पहले मिला होता तो एक स्वतंत्र पाकिस्तान का निर्माण कभी नहीं हो सकता था। जिन्ना की मौत के बारे में सुनकर माउंटबेटन ने राहत की साँस ली और स्वीकार किया कि वह उनकी मौत का इंतजार कर रहे थे।
जहाँ तक आरोप का प्रश्न है, तो वह काफी जल्दी यहाँ से चले गये कि अब तो भारत और पाकिस्तान को आज़ादी मिल गयी। यह याद करना जब तक ‘फ़्रीडम एट मिडनाइट’ के प्रकाशक ने मुहावरे के लिए कोई संदर्भ नहीं दिया, उससे पहले उसे अंतिम वायसराय ने पढ़ा था। उसने इसे हटाने के लिए नहीं कहा, जबकि बाद में कई भारतीय पाठकों की ओर से इस पर आपत्ति दर्ज की गयी थी। क्या लेखक होने के नाते यह हम पर था कि उसके शब्दों को काट दे, हालाँकि उन्होंने महसूस किया कि उनके शब्दों में इतनी ताकत नहीं थी। किताब के पहले प्रकाशन के समय हमने यह नहीं सोचा था और हमने इसके नये संस्करण को लेकर भी इसी तरह का विचार किया।[adinserter block="1"]

बाद के वर्षों में जब फ़्रीडम एट मिडनाइट का यही रूप प्रकाशित हुआ तो हम दोनों लॉर्ड माउंटबेटन तक ही रह जाते थे। किताब के प्रसिद्ध होने में उनका काफी योगदान था, वह अपने प्रिय प्रिंस चार्ल्स, रानी, प्रधानमंत्री हेरॉल्ड विल्सन को न सिर्फ किताब देते थे, बल्कि किताब में लिखे शब्दों और विषयों पर भी उनका ध्यान आकृष्ट कराते थे। माउंटबेटन का आशियाना काफी लंबे-चौड़े क्षेत्रफल में फैला हुआ था और वह काफी सुसज्जित था, जिसमें अग्निरोधी कैबिनेट लगे हुए थे, हर पृष्ठ उनके जीवन पर था, आमंत्रण पत्र से लेकर उस अंतिम रात्रिभोज के मेन्यु तक जिसमें वह शामिल हुए थे। उनकी तीव्र इच्छा थी कि उन उपलब्धियों को आधारशिला के रूप में उपयोग करें, जिस पर भविष्य के कुछ लेखक उनके पोतों के लिए उनकी जीवनी लिख सकें। उसके बाद के वर्षों में हमने साथ काम किया, वह अपने जीवनी लेखक को कोई अच्छी पदवी देना चाहते थे। ऐसा करने के लिए उन्होंने कहा कि वह चाहते हैं, अपने आपको और अच्छी पहचान देना। यह हमारे लिए आश्चर्यजनक रहा कि उसके बाद उन्होंने अपनी मृत्यु के एक साल पहले उसी आवाज में, जिसमें कभी-कभी वह बोला करते थे, कहा, “मैंने निश्चित किया है कि वह तुम दोनों ही थे, जिन्होंने मेरी जीवनी लिखी है।”
“लॉर्ड लुईस” उन्होंने कहा, “तुम इस सदी के सबसे महत्वपूर्ण अंग्रेज़ हो। इस देश की स्थापना के साथ यह बात हमेशा याद रखी जाएगी और जरूरी है कि शक्ति का तीव्र गति से स्थानांतरण माउंटबेटन के लिए एक छोटे संदेश की तरह था, जो क्लीमेंट एटली ने जनवरी 1947 में तब दिया था, जब वह भारत के वायसराय नियुक्त किये गये थे। दोनों व्यक्ति जानते थे कि भारत में ब्रिटिश शक्ति समय के साथ ही खोखली हो जाएगी। लड़ाई के समय भारतीय सिविल सर्विस ने भागने की स्वीकृति दी। इंग्लैंड की सेना के सैनिक रूसी सैनिकों की तरह चेचन्या में मरने से डरने के मुकाबले भारत में मरने को लेकर चिंतित नहीं थे।
जुलाई 1946 में मुस्लिम लीग द्वारा कलकत्ता में सीधी कार्रवाई दिवस मनाकर माउंटबेटन को विचलित किया गया, जिसमें बहत्तर घंटों के दौरान 26,000 हिंदू मारे गये थे। इसी तरह की दूसरी चुनौती का खुलासा होने पर पता चला कि 1947 में किस कदर ब्रिटिश शक्ति की संरचना टूट गयी थी। माउंटबेटन की तब जिम्मेदारी भारत के लिए प्रशासन और नीति निर्माण करने की थी, जिसे यथासंभव भारतीय हाथों में स्थानांतरित करना था। यह राष्ट्रीयता को प्रमुखता से देखते हुए दिया गया आदेश था, लेकिन यह आदेश उस व्यक्ति ने दिया था, जिसने माउंटबेटन को भारत भेजा था।
अध्याय 12 में एक मुहावरा ‘हमारे लोग पगला गये हैं बताता है कि काफी बड़ी संख्या में भारतीय पाठकों और प्रतिभाओं को हमारी ओर से कुछ संदेश दिया गया था। यह लॉर्ड माउंटबेटन थे, जिन्होंने नेहरू और पटेल की उपस्थिति का वर्णन किया, जब वह 6 सितंबर 1947 को शिमला से लौटने के बाद अपने घर में अध्ययन के दौरान मिले थे और उस समय विभाजन के बाद हुई हिंसा से भारत हिल चुका था।
उसने कहा, ‘दोनों नेताओं की जोड़ी स्कूल के बच्चों की तरह दिख रही थी। कोई भी निश्चित रूप से कह सकता है कि कम-से-कम यह उस मुहावरे का नाजुक मोड़ था।’ सच तो यह है कि हालाँकि माउंटबेटन ने टेपरिकॉर्डर में भी उन शब्दों को डाल दिया था। एक सप्ताह के बाद एक साक्षात्कार में उसने इस दृश्य को बयान करने के लिए उसी तरह के मुहावरे का प्रयोग किया। दोनों व्यक्ति स्कूल के बच्चों की तरह दिख रहे थे, वास्तव में काफी तीखा था। वे नहीं जानते थे कि क्या कहकर उनकी बुराई की जा रही है।
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शासन और दमनचक्र चलाने वाली कौम

लंदन, नववर्ष दिवस, 1947
वह महान राष्ट्र जिसके राज्य में कभी सूरज अस्त न होता था, उसे एक गहन असंतोष के पाले ने अपनी चपेट में ले लिया था। इसी कारण लंदन पर कुहरे की ठिठुरन उदासी के बादलों की तरह छायी हुई थी। ग्रेट ब्रिटेन की राजधानी लंदन ने शायद ही इससे पहले कभी नये साल का उत्सव इतने नीरस और उदास वातावरण में मनाया होगा! नये साल के दिन उस सुबह लंदन में शायद ही कोई घर ऐसा रहा होगा, जिसे इतना गरम पानी नसीब हुआ हो कि कोई मर्द उससे दाढ़ी बना सके या कोई औरत अपना मुँह धोने के लिए वाश बेसिन से अंजुलीभर पानी लेकर मुँह पर छींटे मार सके। लंदनवासियों ने नये साल का स्वागत अपने सोने के कमरों में ऐसी भयानक सर्दी के बीच किया था कि उनकी साँस भी हवा के धुएँ के बादलों की तरह उड़ती दिखायी देती थी। नया साल मनाने के बहाने शराब सर्दी से थोड़ी बहुत राहत दिला सकती थी, लेकिन उसकी कीमत आठ पौंड प्रति बोतल थी।
सारे शहर की सड़कें लगभग सुनसान थीं। सड़क के किनारे पटरियों पर तेज कदमों से चलते हुए पथिक भी उदास दिखायी दे रहे थे; उनके चेहरों पर नये साल के आगमन पर प्रसन्नता की झलक तक नहीं थी। पुरानी होने की वजह से उनकी वर्दियाँ तार-तार हो चुकी थीं। आठ साल तक किसी तरह मरम्मत करके और थेगली लगाकर चलाने के बाद अब उनके लिए अपने कपड़ों का ताना-बाना जोड़े रखना असंभव हो गया था। सड़कों पर इक्का-दुक्का मोटरें भी थीं, लेकिन वे भागे हुए भूतों की तरह सहमी हुई दौड़ रही थीं, क्योंकि राशन में मिलने वाले चुल्लू भर पैट्रोल इस तरह खपाने पर वे अपने को अपराधी अनुभव कर रही थीं। युद्ध के बाद लंदन की सड़कों पर एक अजीब किस्म की बदबू छायी हुई थी। बमबारी से तबाह होने वाले हजारों भवनों के जले हुए खंडहरों से एक तीखी बदबू ने लोगों को साँस लेना और भारी कर दिया था। यह बदबू भी सर्दी में कुहासे की तरह उठ रही थी।
इतना सब होने के बावजूद यह उदास और उल्लासहीन शहर एक विजेता राष्ट्र की राजधानी तो था ही। आज से मात्र सत्रह महीने पहले ब्रिटेन मानवता के सबसे भयानक युद्ध में विश्व विजयी रहा था। लेकिन विजय क्या किसी को बिना कीमत चुकाए मिली है? इस विजय के लिए अंग्रेज़ों को जो मूल्य चुकाना पड़ा, उसने उन्हें विजेता होते हुए भी पराजित ही कर दिया था। ब्रिटेन के उद्योग-धंधे चौपट हो गये थे; उसका खजाना खाली हो चुका था और उसकी मुद्रा पौंड जो कभी सबसे गौरवान्वित समझी जाती थी, अब अमेरिका और कनाडा के डॉलरों के इंजेक्शनों के सहारे साँस ले रही थी, युद्ध का खर्च पूरा करने के लिए उसने बड़ी मात्रा में ऋण ले रखा था, उसे चुकाने में उसका कोषागार असमर्थ था। अर्थव्यवस्था की रीढ़ फैक्टरियाँ और कारखाने बंद हो रहे थे, इस कारण लगभग बीस लाख ब्रिटेनवासी बेरोजगार हो गये थे।[adinserter block="1"]

लंदनवासियों के लिए यह नया साल, जो आज शुरू हो रहा था, आठवाँ साल था, जबकि उन्हें हर चीज़ की कठोर राशनिंग का सामना करना पड़ रहा था। खाद्यान्न, ईंधन, पेय पदार्थ, बिजली, गैस, जूते, कपड़े आदि–हर चीज़ की राशनिंग के लिए लंबी-लंबी कतारें। जिन लोगों ने विजय के नारे लगाते हुए जर्मन तानाशाह हिटलर को हराया था, उनका नारा अब नया हो गया था-"भूखे मरो और ठिठुरो!’ पचास में से केवल एक ऐसा परिवार था, जो बीते क्रिसमस को पारम्परिक तरीके से मना पाया। क्रिसमस में बहत से बच्चे खिलौनों व उपहारों से भी वंचित रह गये थे. क्योंकि उपहारों पर सौ प्रतिशत बिक्री कर लगा दिया गया था। लंदन की दुकानों पर ‘नहीं’ की तख्तियाँ अर्थात् आलू नहीं, कोयला नहीं, सिगरेट नहीं, मीट नहीं आदि की सूचनाएँ द्वार में प्रवेश करने से पहले ही विंडो में लटकी हुई तख्तियों से मिल जाया करती थी।
यद्यपि उस दिन उन गरीब देशभक्त लंदनवासियों को इतना गरम पानी तो नसीब नहीं था कि वे एक कप गरम चाय से नये साल का स्वागत कर सकें, पर उनके पास कुछ विशिष्ट अधिकार अवश्य था। अंग्रेज़ होने के नाते एक नीले और सुनहरे रंग के दस्तावेज का दावा वे कर सकते थे, जिसके सहारे वे धरती के लगभग एक-चौथाई धरातल पर कहीं भी बिना रोक-टोक जा सकते थे। वे ब्रिटिश पासपोर्ट के हकदार थे। ब्रिटेन को छोड़कर संसार के किसी अन्य देश के निवासियों को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं था। राज्यों, क्षेत्रों, संरक्षित राज्यों, सह-राज्यों तथा उपनिवेशों का वह असाधारण समुदाय, जिसे ब्रिटिश साम्राज्य कहते थे, 1947 के नये साल के दिन बहुत बड़ी हद तक ज्यों-का-त्यों बना हुआ था। 56 करोड़ लोगों का जीवन-जिनमें तमिल, चीनी, बुशमेन और हाटेनटॉट, द्रविड़-युग से पहले के आदिवासी और मेलानीशियन तथा आस्ट्रेलियावासी भी थे और कनाडावासी भी— वे सब अब भी इन्हीं अंग्रेज़ों के आचरण से प्रभावित थे, जो लंदन के अपने उन घरों में सर्दी में ठिठुर रहे थे, जिन्हें गर्म रखने की कोई व्यवस्था नहीं थी। उस ठिठुरती हुई सुबह को वे धरती के धरातल के लगभग तीन सौ ऐसे टुकड़ों पर अपने प्रभुत्व का दावा कर सकते थे, जिनमें बर्ड द्वीप, ब्रैबल के और रैक रीफ़ जैसे बेहद छोटे और बिलकुल ही गुमनाम क्षेत्रों से लेकर एशिया तथा अफ्रीका के बड़े-बड़े व घनी आबादी वाले इलाके तक सभी तरह के प्रदेश व देश शामिल थे। ब्रिटेन का यह सबसे दम्भपूर्ण दावा अभी तक सार्थक था कि नये साल के दिन को सूर्योदय के समय हर बार जब मध्य लंदन के खंडहरों पर वेस्टमिनिस्टर के घंटाघर की बिग-बेन घड़ी के घंटों की गूँज सुनायी देती थी, तो उसी समय ब्रिटिश साम्राज्य के किसीन-किसी कोने में ब्रिटेन का झंडा यूनियन जैक भी ऊपर चढ़ रहा होता था।
धरती के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र की छोटी-सी राजधानी की सुनसान सड़कों पर से काले रंग की एक ऑस्टिन प्रिंसेज मोटर चोरों की तरह दुबकती हुई नगर के मध्य की ओर चली जा रही थी। जब वह बकिंघम पैलेस के सामने से होकर माल रोड की ओर मुड़ी, तो उसमें बैठे हुए अकेले यात्री ने खोये-खोये भाव से अपनी आँखों के सामने से गुजरती हुई इस छायादार शाही सड़क को ध्यान से देखा।[adinserter block="1"]

“पहले कितनी ही बार ब्रिटेन इस सड़क पर अपनी विश्वव्यापी विजयों का उत्सव मना चुका है,।” वह सोचने लगा, “अब साम्राज्यवाद के युग का अंत हो चुका है।”
एक युग की समाप्ति की ऐतिहासिक अनिवार्यता की स्वीकृति के रूप में यह काली आस्टिन प्रिंसेज मोटर उस छायादार मार्ग पर अकेली दौड़ी चली जा रही थी, जो इसी साम्राज्य के कितने ही भव्य समारोह देख चुकी थी। 22 जून 1897 को इसी सड़क पर ब्रिटिश साम्राज्य का भव्य अर्धशताब्दी समारोह मनाया गया था। महारानी विक्टोरिया के सामने इसी सड़क पर डायमंड जुबली समारोह के अवसर पर गोरखा, सिख, पठान रेजीमेंट के वीरों और अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा आदि देशों के सिपाहियों ने रोड मार्च किया था।
ऐतिहासिक क्षणों पर विचार-मंथन करता हुआ मोटर का यात्री अपनी सीट में और धँसकर बैठ गया। छुट्टी के इस दिन सुबह के वक्त उसकी नजरों को किसी दूसरे ही दृश्य पर टिका होना चाहिए था, स्विट्जरलैंड की धूप में नहाई हुई किसी बर्फानी ढलान पर जहाँ लोग स्की के जूते पहनकर फिसलते रहते हैं, लेकिन किसी जरूरी काम से अचानक बुलावा आ जाने की वजह से उसकी क्रिसमस की छुट्टियों का सिलसिला बीच में ही टूट गया था और उसे ज्यूरिख चला जाना पड़ा था, जहाँ उसने आर. ए. एफ. का हवाई जहाज पकड़ा था, जिसने उसे अभी नार्थोल्ट के हवाई अड्डे पर लाकर उतारा था।
उसकी मोटर पार्लियामेंट स्ट्रीट से होती हुई एक गली में मुड़ गयी और आकर एक ऐसे दरवाजे के सामने रुक गयी, जिसके दुनिया में सबसे ज्यादा फोटो उतारे गये होंगे—नं. 10 डाउनिंग स्ट्रीट। छह साल तक दुनिया की कल्पना में इस मामूली-से लकड़ी के दरवाजे का संबंध एक ऐसे आदमी की आकृति के साथ जुड़ा रहा, जो काले रंग का मोटे फेल्ट का होम्बर्ग हैट पहनता था, मुँह में हर वक्त बड़ा-सा सिगार दबाए, हाथ में छड़ी लिए रहता था, और एक हाथ की दो उँगलियाँ ऊपर उठाकर अंग्रेज़ी के अक्षर ‘वी’ की शक्ल बनाकर विक्ट्री अर्थात् विजय में अपना विश्वास व्यक्त करता था। इस घर में रहते हुए विंस्टन चर्चिल ने दो बहुत बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं, एक धुरी राष्ट्रों को हराने के लिए और दूसरी ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करने के लिए।
लेकिन इस समय एक नया प्रधानमंत्री 10 डाउनिंग स्ट्रीट में प्रतीक्षा कर रहा था; वह एक बहुत बड़ा समाजवादी था, जिसके बारे में चर्चिल ने बड़े तिरस्कार से कहा था, “वह बहुत विनम्र आदमी है और विनम्र होने के कारण वह कर भी क्या सकता है!”
क्लीमेंट एटली और उनकी लेबर पार्टी ने जब ब्रिटिश शासन का भार संभाला, उस समय सार्वजनिक रूप से लेबर पार्टी इस बात के लिए वचनबद्ध थी कि वह साम्राज्य के विखंडन का काम शुरू करेगी। एटली के लिए, और इंग्लैंड के लिए यह ऐतिहासिक प्रक्रिया अनिवार्य रूप से इसी तरह आरंभ हो सकती थी कि खैबर दर्जे से लेकर कन्याकुमारी तक जिस विस्तश्त और घने आबादी वाले भूखंड पर अब तक ब्रिटेन का शासन बना हुआ था, उसे वह स्वतंत्र कर दे। वह शानदार, लेकिन शर्मसार करने वाली संस्था, जिसे ब्रिटिश राज कहते थे, विशाल साम्राज्य की आधार-शिला भी थी और उसके औचित्य की बुनियाद भी, वह उसकी सबसे गौरवशाली उपलब्धि भी थी और उसकी सर्वाधिक निरंतर चिंता भी। भारत में बंगाल लांसर्ज के बल्लमधारी घुड़सवार सिपाही और रेशमी पोशाकों में सजे-धजे महाराजा, शेरों का शिकार और पोलो खेलने के मैदान, तुर्रेदार पगड़ियाँ और ह्विस्की के छोटे पेग, सुनहरी झूलों से चमचमाते हाथी और भूखे मरते हुए साधु, तरह-तरह के जायकेदार सूप और बददिमाग मेम साहबें—इन सबमें साम्राज्य का शाही सपना साकार हो उठा था। वह खूबसूरत रियर-एडमिरल, जो इस वक्त अपनी मोटर से उतर रहा था, इस सपने को चकनाचूर कर देने के लिए नंबर 10 डाउनिंग स्ट्रीट बुलाया गया था।[adinserter block="1"]

46 वर्ष की आयु में ही इंग्लैंड की प्रमुख विभूतियों में नाम दर्ज कराने वाले लुईस फ्रांसिस एल्बर्ट विक्टर निकोलस माउंटबेटन, को वाइकाउंट माउंटबेटन ऑफ बर्मा की उपाधि से सुशोभित किया गया था। वह विशाल डील-डौल के आदमी थे, कद छः फुट से कुछ अधिक ही होगा, लेकिन उनके कसरती शरीर में पेट पर चर्बी की एक परत भी नहीं चढ़ पायी थी। पिछले छह वर्षों में उन्हें जो भयानक बोझ ढोना पड़ा था, उसके बावजूद उनके चेहरे पर, जिससे उनके देश के लोकप्रिय अखबारों के लाखों पाठक भली-भाँति परिचित थे. थकान या तनाव का एक भी चिह्न नहीं था। उनके नैन-नक्श और नाक इतनी आश्चर्यजनक हद तक सुघड़ और सुडौल थे कि सुंदरता के लिए खासतौर पर बनाया गया पुतला प्रतीत होता था और अपनी बादामी आँखों पर काले घने बालों की वजह से वह उस समय, जनवरी की सुबह में, अपनी उम्र से पाँच साल छोटे लग रहे थे।
माउंटबेटन को अच्छी तरह मालूम था कि उन्हें लंदन क्यों बुलाया गया है? दक्षिण-पूर्व एशिया में मित्र-राष्ट्रों की सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति के पद पर काम करने के बाद जबसे वह वापस लौटे थे, तबसे अपनी कमांड के क्षेत्र में आने वाले राष्ट्रों की समस्याओं के बारे में वे सलाहकार के रूप में अक्सर डाउनिंग स्ट्रीट जाते रहे थे, लेकिन जब वह पिछली बार वहाँ गये थे, तो जल्दी ही प्रधानमंत्री के प्रश्नों का केंद्र एक ऐसा राष्ट्र बन गया था, जो उनके कार्य-क्षेत्र का अंग नहीं था; वह राष्ट्र था भारत । नौजवान एडमिरल को अचानक ‘बहुत ही अरुचिकर, बहुत ही बेचैनी की भावना का आभास’ हुआ था। उनका अंदेशा ठीक ही निकला था। एटली उन्हें भारत का वायसराय बनाकर भेजना चाहते थे। ब्रिटिश साम्राज्य में भारत के वायसराय का पद सबसे गौरवशाली पद था; यह एक ऐसा पद था जिस पर रहकर लगातार कितने ही अंग्रेज़ मानवजाति के पाँचवें भाग के भविष्य का निबटारा करते रहे थे, परंतु माउंटबेटन को उस पर रहकर भारत पर शासन करने का काम नहीं सौंपा जाने वाला था। उन्हें जो काम सौंपा जाने वाला था, उतना कष्टदायक काम अब तक किसी अंग्रेज़ को नहीं सौंपा गया था; उन्हें भारत से हाथ खींच लेने का काम सौंपा जाने वाला था।
माउंटबेटन को इस काम में रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं थी। वह इस विचार से पूरी तरह सहमत थे कि अब समय आ गया है, जब ब्रिटेन भारत को छोड़ दे। पर उनका मन इस विचार से विद्रोह करता था कि ब्रिटेन को उसके साम्राज्य के आधार-स्तंभ से बाँधे रखने वाली प्राचीन कड़ियों को तोड़ने का काम उन्हें पूरा करना होगा। एटली को निरुत्साहित करने के लिए उन्होंने छोटी-बड़ी कितनी ही शर्ते रखी थीं—इस माँग से लेकर कि उन्हें अपने साथ कितने सेक्रेटरी ले जाने की अनुमति होगी, इस माँग तक कि दक्षिण-पूर्व एशिया में वह जो यार्क एम. डब्ल्यू. 102 हवाई जहाज इस्तेमाल करते थे, वह भी उन्हें अपने साथ ले जाने दिया जाएगा। उन्हें इस बात पर बड़ा विस्मय हुआ था कि एटली ने उनकी सभी माँगें मान ली थीं। इस समय कैबिनेट-रूम में प्रवेश करते समय एडमिरल को अब भी धुंधली-सी आशा थी कि भारतीय दायित्व उन पर थोपने की एटली की कोशिशों को वह किसी तरह विफल कर सकेंगे।[adinserter block="1"]

जो आदमी माउंटबेटन की राह देख रहा था, उसके निस्तेज चेहरे, लापरवाही से काटी गयी बे-तरतीब मूँछों और पट्टू के उस बदनुमा सूट में, जिसे शायद कभी इस्तरी की सूरत देखना नसीब नहीं हुआ था, कुछ उसी उदास और नीरस शहर का रंग था, जिसकी सड़कों को पार करती हुई एडमिरल की मोटर अभी गुजरी थी। पहली दृष्टि में तो यह विचार कुछ असंगत लगता था कि वह आदमी, जो लेबर पार्टी की ओर से ब्रिटेन का प्रधानमंत्री था, राज-परिवार के एक चमक-दमक वाले, पोलो खेलने के शौकीन सदस्य को उस ब्रिटिश साम्राज्य के एक उपनिवेश में सबसे महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त करना चाहता है, जिसे छिन्न-भिन्न कर देने के लिए लेबर पार्टी वचनबद्ध थी।
परंतु माउंटबेटन में उनके बाहरी रंग-रूप और चमक-दमक के अलावा और भी बहुत कुछ था। उनकी नौ-सेना की वर्दी पर लगे हुए तमगे इस बात का प्रमाण थे। आम जनता उन्हें भले ही शासन-तंत्र का एक स्तंभ समझती हो, पर शासन-तंत्र माउंटबेटन और उनकी पत्नी को खतरनाक क्रांतिकारी समझता था। दक्षिण-पूर्व एशिया में सर्वोच्च सेनापति के पद पर काम करते हुए उन्होंने एशिया के राष्ट्रवादी आंदोलनों के बारे में जितनी जानकारी प्राप्त कर ली थी, उतनी इंग्लैंड में शायद ही किसी और को रही होगी। इंडो-चाइना में हो ची मिन्ह के समर्थकों, इंडोनेशिया में सुकर्णो, बर्मा में आंग सान, मलाया में चीनी कम्युनिस्टों और सिंगापुर में उपद्रवी ट्रेड यूनियन वालों से उनका पाला पड़ चुका था। इस बात को उन्होंने अच्छी तरह जान लिया था कि यही लोग एशिया का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं; इसलिए उनका दमन करने की कोशिश करने के बजाय, जैसा कि उनके साथ काम करने वाले लोगों और मित्र राष्ट्रों के दूसरे सहयोगियों का आग्रह था, उन्होंने उनके साथ मेल-जोल बढ़ाने का प्रयास किया। अगर वह भारत जाते तो उन्हें उस राष्ट्रवादी आंदोलन से निबटना पड़ता, जो सबसे पुराना और सबसे असाधारण था। चौथाई शताब्दी तक बड़े जोश के साथ प्रतिरोध करने और आंदोलन चलाने के बाद उसके नेतृत्व ने इतिहास के सबसे बड़े साम्राज्य को वह निर्णय लेने पर मजबूर कर दिया था, जो एटली की पार्टी ने लिया था : यह निर्णय कि ब्रिटेन भारत को समय रहते चुपचाप छोड़कर चला आये, बजाय इसके कि इतिहास की शक्तियाँ और सशस्त्र विद्रोह उसे वहाँ से खदेड़ दें।
प्रधानमंत्री एटली ने भारतीय स्थिति की समीक्षा से शुरुआत की। उन्होंने कहा, “भारतीय स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है और समय आ गया है कि तत्काल कोई निर्णय किया जाए।”[adinserter block="1"]

यह इतिहास की बहुत बड़ी विडंबना थी कि इस निर्णायक क्षण में जब ब्रिटेन आख़िरकार भारत को स्वतंत्रता देने पर तैयार हो गया था, उस समय उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि वह इस काम को कैसे करे? वह क्षण, जो भारत में ब्रिटेन का सबसे सुनहरा क्षण होना चाहिए था, ऐसा लगता था कि एक अत्यंत भयानक दुःस्वप्न बन जाएगा। औपनिवेशिक मापदंड से किसी विजय में जितना रक्तपात होना चाहिए उसकी अपेक्षा बहुत ही कम खून बहाकर ब्रिटेन ने भारत पर विजय प्राप्त की थी और उस पर शासन किया था। पर अब यह खतरा पैदा हो गया था कि अगर वह उसे छोड़कर चला आये तो वहाँ हिंसा का ऐसा भयानक विस्फोट हो जाएगा, जैसा भारत में पिछली साढ़े तीन शताब्दियों में पहले कभी नहीं देखा गया था।
समस्या की जड़ थी भारत के 30 करोड़ हिंदुओं और 10 करोड़ मुसलमानों के बीच युगों पुराना संघर्ष। यह संघर्ष, जो परंपरागत रूप से, धर्मों के पारस्परिक द्वेष व आर्थिक अंतरों के कारण पनपता रहा था और बड़ी चालाकी से अंग्रेज़ों ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के जरिए बरसों से जिसे बढ़ावा दिया था, अब विस्फोट के बिंदु पर पहुँच गया था। परिणाम यह हुआ कि मुसलमान नेता अब यह माँग करने लगे कि ब्रिटेन उस एकता को, जिसे इतनी मेहनत से बनाया है, छिन्न-भिन्न कर दे, और उन्हें एक अलग इस्लामी राज्य दे दिया जाए।
मुसलमानों ने स्पष्ट चेतावनी दी थी, “अगर उन्हें उनका राज्य देने से इंकार किया गया, तो उसकी कीमत एशिया के इतिहास में सबसे भयानक गृहयुद्ध के रूप में चुकानी पड़ेगी।”
भारत के 30 करोड़ हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस पार्टी के नेता भी मुसलमानों की मांगों का विरोध करने के लिए उसी तरह कमर कसे हुए थे। कांग्रेसी नेताओं का कहना था कि इस-महाद्वीप के विभाजन का अर्थ होगा, हमारी ऐतिहासिक मातृभूमि का अंग-भंग, और यह प्रायः धार्मिक व सांस्कृतिक अनाचार होगा।
ये दो विरोधी विचारधाराएँ ब्रिटेन के गले की फाँस बन गयीं और ब्रिटेन धीरे-धीरे ऐसी दलदल में धंसता जा रहा था, जिससे उबरने का कोई रास्ता दिखायी नहीं देता था। इस समस्या को हल करने के लिए ब्रिटेन की ओर से बार-बार जो कोशिशें की गयी थीं, वे विफल रही थीं। परिस्थिति इतनी गंभीर हो गयी थी कि मौजूदा वायसराय फील्ड-मार्शल सर आर्चिबाल्ड वेवेल ने, जो एक ईमानदार और खरी बात कहने वाले सिपाही थे, हाल ही में एटली सरकार को अपनी अंतिम सिफारिशें भेज दी थीं। उनका सुझाव था कि अगर और किसी तरह काम न बने, तो ब्रिटेन घोषणा कर दे कि ‘हमारा इरादा है कि हम अपने ढंग से, अपने मतानुसार उचित समय पर और अपने हितों की पूरी तरह रक्षा करते हुए भारत को छोड़कर चले आएँ।’
एटली ने माउंटबेटन को बताया, “ब्रिटेन और भारत बड़े विनाश की ओर अग्रसर हैं। इस परिस्थिति को इस तरह नहीं चलने दिया जा सकता।” वेवेल कष्टप्रद हद तक अल्पभाषी थे, इसीलिए एटली के मुताबिक जिन वाचाल भारतीय नेताओं से उन्हें बातचीत करनी पड़ती थी, उनसे वह कोई वास्तविक संपर्क नहीं स्थापित कर पाये थे।
संकट को टालने के लिए किसी नये चेहरे की या किसी नये रवैये की फौरन जरूरत थी। एटली ने बताया कि रोज सुबह इंडिया ऑफिस में तारों का एक पुलिंदा आता था, जिनमें भारत के किसी नये कोने में निर्द्वद्व बर्बरता के विस्फोट की घोषणा होती थी। उन्होंने संकेत किया कि माउंटबेटन को जिस पद पर नियुक्त करने का सुझाव रखा गया है उसे स्वीकार कर लेना उनका परम कर्तव्य है।1[adinserter block="1"]

प्रधानमंत्री के शब्दों को सुनते समय माउंटबेटन का मन भयानक आशंकाओं के आभास से भर उठा। वह अब भी यही समझते थे कि भारत की ‘नैया पार लग ही नहीं सकती।’ वह वेवेल को बहुत पसंद करते थे और उनके बहुत प्रशंसक थे। दक्षिण-पूर्व एशिया में मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से जब उनका नियमित रूप से दिल्ली आना होता था, तो वह वेवेल के साथ अक्सर भारत की समस्याओं के बारे में बातचीत करते थे।
माउंटबेटन समझते थे कि वेवेल के सभी विचार सही हैं। अगर वेवेल इस काम को नहीं पूरा कर सकते, तो उनके इस काम का बीड़ा उठाने में क्या तुक है? फिर भी वह समझने लगे थे कि बच निकलने का कोई रास्ता नहीं है। उन्हें एक ऐसा पद स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाने वाला था, जिसमें विफल होने का खतरा बहुत था और जिसमें युद्ध के दौरान कमायी हुई उनकी शानदार ख्याति बड़ी आसानी से मिट्टी में मिल सकती थी।
माउंटबेटन ने भी दृढ़ निश्चय कर लिया था कि अगर एटली ने यह पद उन पर जबर्दस्ती थोप ही दिया, तो वह भी प्रधानमंत्री से ऐसी राजनीतिक शर्ते मनवा लेंगे, जिनसे उन्हें कम-से-कम सफलता की कुछ आशा तो रहे। वेवेल के साथ अपनी बातचीत से उन्हें कुछ-कुछ अंदाजा हो गया था कि ये शर्ते क्या होंगी?
उन्होंने प्रधानमंत्री से कहा, “वह इस पद को तब तक स्वीकार नहीं करेंगे, जब तक सरकार बिलकुल दो-टूक शब्दों में सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करने को राजी न हो जाए कि भारत में ब्रिटिश शासन किस तारीख को समाप्त हो जाएगा।”
माउंटबेटन महसूस करते थे कि केवल इसी प्रकार भारत के सशंकित बुद्धिजीवी वर्ग को विश्वास दिलाया जा सकता है कि ब्रिटेन सचमुच भारत छोड़कर जा रहा है और भारत के नेताओं में तात्कालिक निर्णय की वह भावना पैदा की जा सकती है, जो यथार्थनिष्ठ समझौते की बातचीत के लिए उन्हें तैयार करने के लिए जरूरी थी।2
दूसरे, उन्होंने एक ऐसी माँग रखी जिसकी किसी दूसरे वायसराय ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी; उन्होंने यह माँग रखी कि लंदन से हर बात पर सलाह लिए बिना और सबसे बढ़कर, लंदन के निरंतर हस्तक्षेप के बिना, उन्हें अपना काम करने का पूरा अधिकार दिया जाए। नौजवान एडमिरल का कहना था कि एटली-सरकार उनके सामने निर्दिष्ट लक्ष्य तो निर्धारित कर सकती है, लेकिन उस निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग निर्धारित करने और उस मार्ग पर चलने से संबंधित हर फैसला करने का पूरा अधिकार केवल उन्हीं को होगा।
एटली ने पूछा, “आप राजदूत होकर सरकार से उसके सभी अधिकार तो नहीं माँग रहे हैं?”
माउंटबेटन ने जवाब दिया, “सर, मुझे लगता है कि मैं यही माँग रहा हूँ। अगर आपका मंत्रिमंडल लगातार मेरे सिर पर सवार रहेगा तो मैं समझौते की बातचीत कैसे चला सकता हूँ?”
उनके इन शब्दों के बाद एक निस्तब्ध सन्नाटा छा गया। अपनी इस आश्चर्यचकित कर देने वाली माँग के वास्तविक स्वरूप की प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री के चेहरे पर प्रतिबिंबित होते देखकर माउंटबेटन को बहुत संतोष हुआ और उन्हें यह आशा बँधी कि इसकी वजह से एटली अपना सुझाव वापस ले लेंगे।
लेकिन इसके बजाय प्रधानमंत्री ने एक ठंडी आह भरकर उनकी यह शर्त भी मान लेने का संकेत दिया। एक घंटे बाद माउंटबेटन अपने कंधे लटकाये हुए डाउनिंग स्ट्रीट के उस मकान के दरवाजे से बाहर निकले। वह जानते थे कि उन्हें भारत का अंतिम वायसराय होने का दंड दिया जा चुका है, जो कि एक प्रकार से अपने देशवासियों के चिरपोषित शाही स्वप्न को चकनाचूर कर देने वाले की भूमिका होगी।
वापस अपनी मोटर में बैठते हुए उनके मन में एक विचित्र विचार उठा, “आज से ठीक सत्तर साल पहले, लगभग इसी क्षण पर, उनकी पड़नानी को दिल्ली के बाहर एक मैदान में भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया था। उस अवसर पर भारत के जो राजा-महाराजा जमा हुए थे। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की थी कि महारानी विक्टोरिया का शासन और उनकी सार्वभौम सत्ता सदा के लिए बनी रहे।”
आज नववर्ष दिवस की इस सुबह को उन्हीं के एक पड़नाती ने उस प्रक्रिया का श्रीगणेश किया, जिससे उस ‘शासन और सार्वभौम सत्ता’ का अंत कर देने की तिथि तय कर दी जाने वाली थी।

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एकला चलो, एकला चलो

श्रीरामपुर, नोआखाली, नववर्ष दिवस, 1947
भारत की आत्मा तो बसती ही गाँवों में है, इसीलिए तो डाउनिंग स्ट्रीट से छः हजार मील दूर बंगाल की खाड़ी से ऊपर गंगा के मुहाने में स्थित एक गाँव में उन दिनों संपूर्ण भारत के ही दर्शन होते थे, क्योंकि उस गाँव में भारत के भाग्य विधाता ने डेरा डाले हुए था।
भारत का वह भाग्य विधाता कोई साधू-संत या राजा-महाराजा नहीं बल्कि दुबला-पतला एक वृद्ध आदमी था, जो उस दिन एक किसान की झोंपड़ी के कच्चे दालान में लेटा हुआ था। दोपहर के ठीक बारह बजे थे। जैसा कि उसका प्रतिदिन का नियम था, आज भी उसने हाथ बढ़ाकर अपने एक सहायक के हाथों से कपड़े की गीली थैली ले ली। उस थैली में जो गीली मिट्टी भरी हुई थी, वह छन-छनकर बाहर निकली आ रही थी और थैली से पानी टपक रहा था। उस वृद्ध ने बड़ी सावधानी से थैली को अपने पेट पर रखकर थपका। फिर उसने एक-दूसरी छोटी थैली लेकर अपने गंजे सिर पर रख ली।
गोबरी से लीपे हुए दालान में लेटा हुआ वह वृद्ध बेशक बहुत ही जीर्ण-शीर्ण छोटा-सा जीव लग रहा था। परंतु उसका यह बाहरी रूप एक भ्रम था। इस दुबले-पतले 77 वर्षीय वृद्ध का, जिसका चेहरा सिर पर रखी हुई गीली मिट्टी की थैली के नीचे से मुसकरा रहा था, ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला देने में जितना बड़ा हाथ था, उतना किसी दूसरे आदमी का नहीं था। यह वृद्ध व्यक्ति एक नये युग का शुभारम्भ करने को तत्पर था, इसीलिए तो उसी की वजह से जिसके राज्य में कभी सूर्य अस्त न होता था, उस ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को आखिरकर मजबूर होकर भारत को स्वतंत्रता देने का कोई रास्ता ढूंढ़ निकालने के लिए महारानी विक्टोरिया के एक पड़नाती को नयी दिल्ली भेजना पड़ा था। इस प्रकार यह वृद्ध कोई मामूली सा जीव नहीं था, क्योंकि यह ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज अस्त करने पर तुला हुआ था।
मोहनदास करमचंद गाँधी था इस वृद्ध व्यक्ति का नाम। ब्रिटिश शासन के सूर्य पर ग्रहण लगानेवाले इस युगप्रवक्ता पर किसी को क्रांतिकारी होने का शक भी नहीं हो सकता था, क्योंकि वह संसार के सबसे असाधारण मुक्ति आंदोलन के कोमल स्वभाव के मसीहा थे।[adinserter block="1"]
उनके पास बड़ी सावधानी से साफ किया हुआ नकली दाँतों का जबड़ा रखा हुआ था। उसे वह केवल खाना खाते समय ही मुँह में लगाते थे। ढलती उम्र के कारण उनके दाँतों ने उनका साथ छोड़ दिया था, पर कर्मपथ पर बिना डिगे हुए उनके कदम बढ़ते चले जाते थे। आँखों की रोशनी मंद पड़ गयी थी, इसलिए वह स्टील के फ्रेम का चश्मा साथ रखते थे, पर उसकी मदद से वह आमतौर पर दुनिया को देखते थे। नेत्र दृष्टि भले ही कमजोर हो गयी थी, पर दिव्य दृष्टि प्रतिदिन और तेज होती जाती थी। इसी कारण तो अंग्रेज़ उनसे नजर मिलाने से कतराते थे।
महान बनने के लिए किसी विशाल कद-काठी की जरूरत नहीं। यह बात गाँधी जी के दर्शन मात्र से ही सिद्ध हो जाती थी, क्योंकि ग्रेट ब्रिटेन के विशाल साम्राज्य की जड़ें काटने वाले यह व्यक्ति बहुत ही छोटे-से हलके-फुलके आदमी थे। उनका कद मुश्किल से पाँच फुट का रहा होगा और वजन 114 पौंड। उनके हाथ-पाँव ऐसे लगते थे मानो किसी किशोर-वयस्क बालक के हों, जिसका धड़ अभी पूरी तरह नहीं बढ़ पाया था। प्रकृति ने गाँधी के चेहरे को शायद जान-बूझकर कुरूप बनाया था। पर इसमें उनका क्या दोष, वृद्धावस्था में तो हर किसी का चेहरा हो ही जाता है ऐसा। उनके दोनों कान उनके आवश्यकता से अधिक बड़े सिर के दोनों ओर शकरदान के हैंडिल की तरह निकले हुए थे। चपटे फैले हुए नथुनों वाली उनकी नाक उनकी सफेद छिदरी मूँछ पर भारी चोंच की तरह झुकी रहती थी। जिस समय वह नकली बत्तीसी नहीं लगाए रहते थे, तब उनके भरे-भरे होंठ उनके पोपले मसूड़ों पर इस तरह बंद हो जाते थे जैसे डोरीदार बटुआ। फिर भी गाँधी जी के चेहरे पर एक विचित्र सौंदर्य की आभा थी, क्योंकि वह निरंतर चिंतन करते हुए बहुत चंचल रहते थे और उस पर मैजिक लैन्टर्न की जल्दी-जल्दी बदलती हुई आकृतियों की तरह उनकी बदली हुई मनोदशाओं और उनकी शरारत-भरी मुसकराहट का प्रतिबिंब झलकता रहता था।
जिस शताब्दी में चारों ओर हिंसा का बोलबाला था, उसमें गाँधी जी ने एक विकल्प के रूप में अपना अहिंसा का सिद्धांत सामने रखा था। अहिंसा परमो धर्म—यही तो भारतीय संस्कृति की विशेषता है। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी यही तो वह बात है। इसलिए उन्होंने सशस्त्र विद्रोह की बजाय नैतिक आंदोलन के सहारे, मशीनगन की गोलियों की बौछार के बजाय प्रार्थना के सहारे, आतंकवादियों के बमों के धमाकों के बजाय अवहेलनापूर्ण मौन के सहारे इस महाद्वीप से अंग्रेज़ों को बाहर निकाल देने के लिए जन-साधारण को संगठित करने के उद्देश्य से अहिंसा के इस महान अस्त्र का उपयोग किया था।
जिस समय पश्चिमी यूरोप बड़े-बड़े लफ्फाजों के धुआँधार भाषणों और चीख-चीखकर बोलने वाले डिक्टेटरों की दहाड़ से गूँज रहा था, उस समय गाँधी जी ने अपना स्वर ऊँचा उठाए बिना संसार के सबसे अधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र भारत के करोड़ों लोगों को आंदोलित कर दिया था। उन्होंने अपने अनुयायियों को सत्ता या अपार संपदा का आश्वासन देकर अपने झंडे तले जमा नहीं किया था, बल्कि यह चेतावनी दी थी, “मेरे साथ चलना है तो स्वयं का घूर फूंककर तमाशा देखना होगा। इसलिए जो लोग मेरे साथ आएँ वे खाली जमीन पर सोने के लिए, मोटा कपडा पहनने के लिए, भोर पहर बहुत जल्दी उठने के लिए, सीधा-सादा नीरस खाना खाकर पेट भरने और यहाँ तक कि अपना मल स्वयं साफ करने के लिए तैयार रहें।”
भड़कीली वर्दियों और खनकते हुए मैडलों से अपने बदन को सजाने के बजाय उन्होंने अपने अनुयायियों को हाथ के कते-बुने खद्दर के कपड़े पहनाये, लेकिन यह पहनावा उतनी ही आसानी से दूर से पहचाना जाता था और पहनने वालों को एकता के सूत्र में बाँधने की मनोवृत्ति पैदा करने में यह उतना ही कारगर साबित हुआ, जितनी कि यूरोप के डिक्टेटरों की कत्थई या काली कमीजें।[adinserter block="1"]

अपने अनुयायियों के साथ संचार-संपर्क स्थापित करने के उनके साधन बहुत ही प्राचीन काल के थे। वह अपना सारा पत्र-व्यवहार स्वयं अपने हाथ से लिखकर करते थे और अपने शिष्यों से, प्रार्थना सभाओं में और कांग्रेस पार्टी की छोटी-छोटी बैठकों में सीधे बातचीत करते थे। वह किसी भी ऐसी तकनीक का सहारा नहीं लेते थे, जिसके सहारे कोरी लफ्फाजी करने वाले लोग या लंबे-चौड़े सिद्धांत बघारने वाले लोगों के गुट जन-साधारण पर अपनी बात का जादू चलाने में सफल होते हैं। फिर भी उनका संदेश एक ऐसे राष्ट्र के कोने-कोने तक पहुँच गया, जिसके पास संचार के कोई आधुनिक साधन नहीं थे, क्योंकि गाँधी में ऐसे सीधे-सादे संकेतों से अपनी बात कह देने की विलक्षण प्रतिभा थी, जो भारत की अंतरात्मा को छू लेते थे। ये सारे सांकेतिक आचरण आधुनिक परंपरा से हटकर थे। अजीब बात थी कि एक ऐसे देश में जहाँ आये दिन अकाल पड़ता रहता था, जो शताब्दियों से भूख की मार का शिकार था, गाँधी जी ने जो सबसे विनाशकारी अस्त्र अपनाया, वह था अपने-आपको भोजन से वंचित रखने का अर्थात अनशन ही उनका ब्रह्म अस्त्र था। उन्होंने गंगा और यमना का जल पी-पीकर कोका कोला पीने वाले ब्रिटेन को घुटने टेकने पर विवश कर दिया।
इनसान तो क्या पाहन को भी भगवान समझकर पूजने वाले भारत ने उनके कृषकाय शरीर की छाया में, उनके हर आचरण की सहज प्रतिभा में एक अवतारी पुरुष या महात्मा के लक्षण देखे और जहाँ भी वह गये, सारा देश उनके पीछे चल पड़ा। निःसंदेह वह इस शताब्दी की एक ऐसी विभूति थे, जिसमें चुंबकीय आकर्षण था। अपने अनुयायियों के लिए वह महात्मा थे। हालाँकि अंग्रेज़ नौकरशाह, जिनकी विदाई की घड़ी को निकट लाने में उनका बहुत बड़ा हाथ था, उन्हें एक मक्कार, राजनीतिज्ञ, एक ढोंगी मसीहा कहते थे, जिसके अहिंसात्मक आंदोलनों का अंत हमेशा हिंसा में होता था और जिसके आमरण अनशन हमेशा मृत्यु के द्वार पर पहुँचकर टूट जाते थे। वेवेल जैसा दयालु आदमी भी उनसे इसलिए घृणा करता था कि उनकी दृष्टि में वह एक ‘दुष्ट प्रकृति के बूढ़े राजनीतिज्ञ थे। बहुत काइयाँ, जिद्दी, धौंस देने वाले और दोहरी बात कहने वाले, जिनमें सच्ची संतवृत्ति नाममात्र को भी नहीं थी।’
वह गाँधी जी जिसको भारतीय अपना मसीहा समझते थे, जब उसके प्रति ही अंग्रेज़ों की ऐसी सोच थी, तो फिर आम भारतीयों के प्रति क्या होगी? इसका अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं।
गाँधी जी से भयभीत जितने भी अंग्रेज़ों ने गाँधी से समझौते की बातचीत की थी, उनमें शायद ही कोई ऐसा रहा होगा जिसने उन्हें पसंद किया हो; और जिन्होंने उनको समझा हो, वे तो और भी कम रहे होंगे। उनका विस्मय समझ में आता था। गाँधी जी महान नैतिक सिद्धांतों और बेतुकी सनकों का एक विचित्र मिश्रण थे। उनके लिए यह कोई विचित्र बात नहीं थी कि गंभीर-से-गंभीर राजनीतिक बातचीत के बीच में ब्रह्मचर्य या रोज नमक के पानी का जुलाब लेने के लाभों पर प्रवचन करने लगें।
कहा जाता था कि गाँधी जी जहाँ भी जाते थे, वहीं भारत की राजधानी बन जाती थी। इस नववर्ष दिवस को यह राजधानी बंगाल के छोटे-से गाँव श्रीरामपुर में थी, जहाँ यह महात्मा मिट्टी का लेप किये पड़े थे। रेडियो, बिजली या पानी के नल जैसी किसी भी सुविधा के बिना, जहाँ से तार देने या टेलीफ़ोन करने के लिए तीस मील पैदल जाना पड़ता था, वहाँ से वह इतने विशाल महाद्वीप पर अपना सिक्का जमाये हुए थे।[adinserter block="1"]

नोआखाली का इलाका, जिसमें श्रीरामपुर का यह गाँव बसा हुआ था, भारत के सबसे दुर्गम क्षेत्रों में से एक था; गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के डेल्टा में, जहाँ हमेशा पानी भरा रहता था, यह छोटे-मोटे द्वीपों का एक ग्रामीण क्षेत्र था। इसका कुल विस्तार मुश्किल से 40 वर्गमील था और इसमें पच्चीस लाख लोगों की घनी आबादी थी, जिनमें से 80 प्रतिशत मुसलमान थे। ये लोग शहरों, खाड़ियों और जल-धाराओं से बँटे हुए गाँवों में रहते थे। इन गाँवों तक नावों से, छोटी-मोटी डोगियों से और रस्सी, लट्ठों या बाँस के उन पुलों के सहारे ही पहुँचा जा सकता था, जो इस पूरे इलाके में बड़ी तेजी से बहते हुए पानी पर बहुत खतरनाक ढंग से झूलते रहते थे। श्रीरामपुर में 1947 का नववर्ष-दिवस गाँधी जी के लिए अत्यंत संतोष का दिन था। उस दिन वह उस लक्ष्य के बिलकुल निकट पहुँच चुके थे, जिसके लिए लड़ते हुए उन्होंने अपना अधिकांश जीवन व्यतीत कर दिया था : भारत की स्वतंत्रता का लक्ष्य।
फिर भी अपने संघर्ष के इस गौरवशाली चरम-बिंदु के निकट पहुँचते हुए गाँधी जी अत्यंत दुःखी थे। उनकी व्यथा के कारण, इस छोटे-से गाँव में जहाँ उन्होंने पडाव डाला था, हर जगह स्पष्ट दिखायी देते थे। क्लीमेंट एटली की मेज पर रोज भारत से आने वाली जिन रिपोर्टों का ढेर लगा रहता था, उनमें जिन जगहों के नामों का उल्लेख रहता था, जिनका उच्चारण भी उनके लिए कठिन था, उनमें एक नाम श्रीरामपुर भी था। धर्मांध नेताओं के भड़कावे में आकर, कलकत्ता में संदिग्ध दंगाइयों द्वारा कुछ मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिये जाने की खबरों से उत्तेजित होकर, पूरे नोआखाली के मुसलमानों की तरह यहाँ के लोग भी अचानक अल्पसंख्यक हिंदुओं के खून के प्यासे हो उठे थे, जो अब तक उनके साथ इसी गाँव में रहते आये थे। उन्होंने उनकी बोटी-बोटी काट दी, उनकी औरतों के साथ बलात्कार किया, उनके घरों को लूटा और जला दिया और अपने पड़ोसियों को उनकी पवित्र गौ-माता का माँस खाने पर मजबूर किया और बाकी लोगों को धान के खेतों के पार भाग जाने पर मजबूर कर दिया। श्रीरामपुर की आधी झोपड़ियाँ झुलसे हुए खंडहर बन चुकी थीं। जिस झोंपड़ी में गाँधी जी लेटे हुए थे, उसका भी एक हिस्सा आग से नष्ट हो चुका था।
नोआखाली की विस्फोटक घटनाएँ छुटपुट चिंगारियाँ-भर थीं, लेकिन जिन उन्मादों ने इन चिंगारियों को सुलगाया था, वे आसानी से एक तूफानी ज्वाला का रूप धारण कर सकते थे, जो पूरे उप-महाद्वीप को फूँककर रख दे। ये हृदय विदारक घटनाएँ, इनसे पहले कलकत्ता में होने वाले उपद्रव और उनके बाद उत्तर-पश्चिम की ओर बिहार में होने वाले उत्पात, जहाँ उतनी ही बर्बरता के साथ बहुसंख्यक लोग अल्पसंख्यक मुसलमानों पर टूट पड़े थे—यही सब घटनाएँ उस आदमी के साथ एटली की बातचीत के दौरान, जिसे वायसराय बनाकर फौरन नयी दिल्ली भेजना चाहते थे, उनकी चिंता का कारण बनी हुई थीं।[adinserter block="1"]

श्रीरामपुर में गाँधी जी की उपस्थिति का कारण भी ये घटनाएँ ही थीं। इस बात से गाँधी जी का दिल टूट गया था कि जब उनके देशवासियों की विजय की घड़ी निकट आयी तो वे सांप्रदायिकता के उन्माद में अंधे होकर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये। उन लोगों ने स्वतंत्रता के पथ पर उनका अनुसरण तो किया, पर उस मंजिल तक पहुँचने के लिए उन्होंने अहिंसा के जिस महान सिद्धांत का प्रतिपादन किया था उसे वे लोग नहीं समझ पाये थे। अहिंसा के सिद्धांत पर गाँधी जी की भी अडिग आस्था थी। युद्ध की जिस विभीषिका से होकर दुनिया गुजरी थी और ऐटमी तबाही का जो भूत उसके सिर पर इस समय मंडरा रहा था, वे गाँधी जी के लिए इस बात का निर्णायक प्रमाण थे कि केवल अहिंसा ही मानव-जाति को बचा सकती है। उनकी प्रबल इच्छा थी कि नया भारत एशिया को और सारे विश्व को मनुष्य की इस दुविधा से बाहर निकलने का मार्ग दिखाये। अगर स्वयं उनके ही देशवासी उन सिद्धांतों से विमुख हो जाएँ, जिनको उन्होंने अपने जीवन का आधार बनाया था और उन्हें स्वतंत्रता की मंजिल तक पहुँचाने के लिए इस्तेमाल किया था, तो फिर गाँधी जी की आशाओं का बाकी ही क्या रह जाएगा? यह एक ऐसी दुखद घटना होगी, जो स्वतंत्रता को एक निरर्थक विजय में परिवर्तित कर देगी।
गाँधी जी के सामने एक और दुखद घटना का भी खतरा था। धार्मिक आधार पर भारत को दो टुकड़ों में बाँट देना हर उस चीज़ को मुँह चिढ़ाना था, जिसमें गाँधी जी की दृढ़ आस्था थी। अपने प्रिय देश के उस विभाजन के खिलाफ गाँधी जी का रोम-रोम पुकार-पुकार कर दुहाई दे रहा था, जिसकी माँग भारत के मुस्लिम राजनीतिज्ञ कर रहे थे और जिसे अब अंग्रेज़ शासक स्वीकार करने को भी तैयार थे। गाँधी जी के लिए भारत की जनता और वहाँ के विविध धर्म एक-दूसरे में उसी तरह अभिन्न रूप से गुंथे हुए थे जैसे पूर्वी कालीनों के बहुत बारीक और जटिल बेल-बूटे।
उन्होंने बार-बार कहा था, “भारत के टुकड़े करने से पहले मेरे शरीर के टुकड़े करने होंगे!”
गाँधी जी श्रीरामपुर के इस उजड़े हुए गाँव में अपनी आस्था की खोज में आये थे, विभाजन के रोग के विषाणु सारे भारत में फैलने से रोकने का उपाय खोजने आये थे। जब पहली सांप्रदायिक मार-काट के बाद भारत के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक गहरी खाई पैदा हो गयी तो उन्होंने व्यथित होकर कहा था, “मुझे इस घनघोर अंधकार में रोशनी की कोई किरण दिखायी नहीं देती। सत्य और अहिंसा में मेरी अडिग आस्था रही है, उनके सहारे मैंने अपने जीवन के पचास वर्ष काटे हैं, अब वे उन गुणों का परिचय देने में असमर्थ-से प्रतीत होते हैं, जो मैं उनमें समझता आया हूँ।”
उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा, “मैं यहाँ एक नयी कार्य प्रणाली की खोज में और उस सिद्धांत की सार्थकता परखने आया हूँ जिसके सहारे मैं अब तक जिंदा हूँ और जिसने मेरे जीवन को जीने योग्य बनाया है।”
कई दिन तक गाँधी जी गाँव में घूम-घूमकर वहाँ के रहने वालों से बातें करते रहे, चिंतन-मनन करते रहे और अपनी ‘अंतरात्मा की आवाज’ की प्रतीक्षा करते रहे, जो पहले भी कितनी ही बार संकट की घड़ियों में उनका पथ आलोकित कर चुकी थी। इधर कुछ दिन से उनके अनुचरों ने देखा था कि वह एक विचित्र काम में अधिकाधिक समय व्यतीत करने लगे थे—गाँव के चारों ओर से फिसलनदार चरमराते हुए लट्टे के पुलों को पार करने का अभ्यास करने में।[adinserter block="1"]

उस दिन मिट्टी का लेप कर चुकने के बाद उन्होंने अपने अनुयायियों को अपने पास झोंपड़ी में ही बुलाया। अंततः उन्हें अपनी ‘अंतरात्मा की आवाज’ सुनायी दी थी। जिस तरह प्राचीन काल में यहाँ के हिंदू धर्मात्मा लोग नंगे पैर महाद्वीप के आर-पार पवित्र स्थानों की तीर्थ यात्रा के लिए निकलते थे, उसी प्रकार गाँधी जी ने भी घृणा की आग में झुलसे हुए नोआखाली के गाँवों में प्रायश्चित-यात्रा करने का निर्णय किया था। अपने प्रायश्चित के प्रतीक के रूप में अगले सात सप्ताह में वह 116 मील पैदल चलकर नोआखाली के 47 गाँवों में गये।
हिंदू होते हुए भी वह क्रोध से बिफरे हुए उन मुसलमानों के बीच गाँव-गाँव, घर-घर घूमे और अपनी उपस्थिति के मरहम से उन्होंने नोआखाली की विच्छिन्न शांति फिर से स्थापित करने की कोशिश की।
चूँकि यह प्रायश्चित-यात्रा थी, इसलिए उन्होंने आदेश दिया कि वह नहीं चाहते थे कि इस यात्रा में भगवान के अतिरिक्त कोई दूसरा उनके साथ हो, उनके केवल चार शिष्य उनके साथ जाने वाले थे। जिन गाँवों में वे जाएँ उनके निवासी उन्हें अपनी इच्छा से जो कुछ भी दान में दे दें उसी पर उन्हें निर्वाह करना था। उन्होंने कहा कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के राजनीतिज्ञों को दिल्ली में कभी न समाप्त होने वाली बहसों में भारत के भविष्य के बारे में झगड़ने दो। जैसा हमेशा से होता आया है, भारत की समस्याओं का हल उसके गाँवों में ही मिलेगा, यह देश गाँवों का देश है। इसकी आत्मा गाँवों में ही तो बसती है।
उन्होंने कहा, “यह मेरा ‘अंतिम और सबसे बड़ा प्रयोग’ होगा; यदि रक्तपात और कटुता से अभिशप्त उन गाँवों में मैं ‘अच्छे पड़ोसियों जैसे संबंधों की ज्योति फिर से जगाने में सफल हुए तो शायद इन गाँवों का उदाहरण पूरे राष्ट्र को प्रेरणा प्रदान कर सके।” वह प्रार्थना कर रहे थे कि यहाँ नोआखाली में वह अहिंसा का दीप फिर जलाने में सफल हों और सांप्रदायिक युद्ध के उस भूत को भगा दें, जो भारत पर मंडला रहा था।
उनकी टोली ने भोर पहर अपनी यात्रा आरंभ की। गाँधी जी की उन्नीस-वर्षीया पौत्री मनु ने उनका थोड़ा-बहुत सामान बाँध दिया—एक कलम और काग़ज़, सुई-धागा, एक मिट्टी का प्याला और लकड़ी का चम्मच, उनका चरखा और उनके तीन गुरु-हाथी दाँत की बनी हुई उस तीन बंदरों की छोटी-छेटी आकृतियाँ जो ‘न कोई बुरी बात सुनते थे, न कोई बुरी बात देखते थे और न कोई बुरी बात कहते थे।’ उसने एक थैले में वे किताबें भी बाँध दीं, जिनसे पता चलता था कि जंगलों में भटकने वाला यह राही कितना उदार और ग्रहणशील था। ये पुस्तकें थीं—भगवद्गीता, कुरान, ईसा मसीह का आचरण तथा उनके सिद्धांत और यहूदी विचारों की एक पुस्तक।
गाँधी जी के पीछे-पीछे टोली धूल-भरी कच्ची पगडंडियों के रास्ते पोखरों और सुपारी तथा नारियल के झुरमुटों के पास से होती हुई दूर धान के खेतों की ओर आगे बढ़ी। श्रीरामपुर के गाँव वाले झुकी कमर के इस 77 वर्षीय वृद्ध के अंतिम दर्शन के लिए लपक पड़े, जो अपने खोये हुए सपने की खोज में बाँस की एक लंबी लाठी लिए लंबे-लंबे डग भरता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था।
जब गाँधी जी की यह टोली कटे हुए धान के खेतों के पार आँख से ओझल होने लगी, तो गाँव वालों ने उन्हें रवींद्रनाथ टैगोर की एक महान कविता बड़ी लय के साथ गाते हुए सुना। यह इस वृद्ध नेता की प्रिय कविता थी और जब वह आँख से ओझल हो गये तब भी वे धान के खेतों के पास से आती हुई उनकी ऊँची बेसुरी आवाज सुनते रहे।[adinserter block="1"]

वह गा रहे थे–
यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे,
तबे एकला चालो रे,
एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।
हिन्दू और मुसलमान सदियों से मिल-जुलकर रहते आये थे। लेकिन यह कैसी स्वतंत्रता की आहट थी, जिसने दोनों कौमों को एक-दूसरे का रक्त पिपासु बनाया था। हिन्दू-मुस्लिमों के बीच आपस का यह रक्तपात, जिसे गाँधी जी रोकने की आशा कर रहे थे, भूख की तरह ही भारत का सबसे क्रूर अभिशाप बन चुका था। ‘महाभारत’ में ईसा से 2,500 वर्ष पूर्व दिल्ली से उत्तर-पश्चिम की ओर कुरुक्षेत्र के मैदान में ऐसे ही भयानक नर-संहार का वर्णन किया गया है। कुछ लोगों का कहना है कि हिंदू धर्म भारत में वे इंडो-यूरोपीय गिरोह लाये थे जो इस उप-महाद्वीप को उसके द्रविड़ अर्ध-आदिवासियों से छीनने के लिए उत्तर की ओर से इस देश पर टूट पड़े थे। इसके मनीषियों ने अपने पवित्र वेद ईसा के जन्म से शताब्दियों पहले सिंधु नदी के तट पर बैठकर लिखे थे। हालाँकि बहुत से विद्वान इस सिद्धांत के खिलाफ भी हैं कि हिन्दू अर्थात् आर्य भारत में कहीं बाहर से आये और उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों को मार भगाया।
इस्लाम यहाँ बहुत बाद में आया, उस समय के भी बाद जब चंगेज खां और तैमूरलंग की फौजें गंगा के विशाल मैदान पर हिंदुओं का कत्लेआम कर रही थी, ताकि उनका आधिपत्य और सभ्यता-संस्कृति समाप्त हो जाए। ये बेरहम लुटेरे अपने गुंडों के साथ खैबर दर्रे के रास्ते घुस आये थे। इसके बाद दो शताब्दी तक मुसलमान मुगल सम्राट अधिकांश भारत पर अपना ऐश्वर्यपूर्ण तथा कठोर शासन जमाये रहे और अपनी फौजों की प्रगति के साथ-ही-साथ वाहिद-उल-लाशरीक और रहमानुर्रहीम अल्लाह का संदेश भी प्रसारित करते रहे। इन्होंने इस्लाम के प्रचार के लिए एक हाथ में तलवार तो दूसरे हाथ में कुरान रखने से कभी भी परहेज नहीं किया।
इस प्रकार भारतीय उप-महाद्वीप पर फल-फूल रहे ये दोनों धर्म एक-दूसरे से इतने भिन्न थे कि उससे अधिक भिन्नता मनुष्य की धर्मपरायणता की शाश्वत वृत्ति की अभिव्यक्तियों में संभव ही नहीं थी। इस्लाम पैगम्बर मुहम्मद और कुरान पर आधारित है, जबकि हिंदू ऐसा धर्म है, जो शाश्वत है। वैसे तो इसमें भी बहुत से मत प्रचलित हैं, लेकिन इसका भी एक ऐसा धर्मग्रंथ है, जिसे सब सत्य विद्याओं की पुस्तक कहा जाता है और वह सत्य वाणी है वेद । कहते हैं कि सृष्टि के आरंभ में वेद ईश्वर ने सबके कल्याण के लिए प्रदान किया है।
इस्लाम के अनुसार सृष्टा अपनी सृष्टि से अलग रहकर अपने सृजन को सुव्यवस्थित करता है और उसका अधिष्ठाता है। वह सातवें आसमान पर रहता है, जबकि हिंदुओं के अनुसार सृष्टा तथा उसकी सृष्टि एक ही है और ईश्वर एक प्रकार की सर्वव्यापी ब्रह्म-शक्ति है, जिसकी अभिव्यक्तियों की कोई सीमा नहीं है।
परंतु उस समय हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सद्भावना के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा आध्यात्मिक नहीं बल्कि सामाजिक थी। वह बाधा थी हिंदू समाज को व्यवस्थित करने वाली जाति-प्रथा। हिन्दू धर्म-ग्रंथों के अनुसार जातियों की उत्पत्ति सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा से हुई है। ब्राह्मण, जो सबसे ऊँचे वर्ण के हैं, ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए थे; क्षत्रिय, जो योद्धा और शासक थे, उनकी भुजाओं से पैदा हुए थे; वैश्य, जो व्यापारी थे, उनकी जाँघ से पैदा हुए थे; शूद्र, जो कारीगर थे, उनके चरणों से पैदा हुए थे। उनसे भी नीचे अछूत थे, जो दैवी स्रोत से उत्पन्न नहीं हुए थे।[adinserter block="1"]

परंतु वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति उतनी दैवी नहीं थी, जितनी कि पुराणों में बतायी गयी है। शुरू में यह व्यवस्था कर्म के आधार पर निर्धारित होती थी। यदि शूद्र का पुत्र पढ़-लिखकर विद्वान बन जाता था, तो उसे ब्राह्मण वर्ण में रख दिया जाता था और यदि किसी ब्राह्मण का पुत्र नीच प्रवृत्ति का हो जाता था, तो उसे शूद्र वर्ण में रख दिया जाता था, लेकिन कालांतर में यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी और जो जिस जाति में पैदा होता था, वह उसी जाति का कहा जाने लगा। ब्राह्मण वर्ण में पैदा हुआ नीच लक्षणों वाला बालक भी ब्राह्मण ही माना जाने लगा और शूद्र वर्ण में जन्म लेने वाला विद्वान भी शूद्र ही माना जाने लगा। इस प्रकार वह व्यवस्था जो कभी समाज की उन्नति के लिए बनायी गयी थी, कालांतर में समाज के लिए कैंसर बन गयी। और इस प्रकार समाज के ये जातिगत विभाजन कैंसर की कोशिकाओं की तरह बढ़ते-बढ़ते लगभग 5,000 जातियों और उप-जातियों में बँट गये, जिनमें से 1886 तो केवल ब्राह्मण वर्ण के ही थे। प्रत्येक व्यवसाय की अपनी अलग जाति हो गयी और समाज असंख्य छोटी-छोटी संकुचित श्रेणियों में बँट गया; हर व्यक्ति अपने जन्म के आधार पर अपनी ही श्रेणी में काम करने, रहने, विवाह करने और मरने के लिए विवश था। इनकी परिभाषाएँ इतनी सुनिश्चित तथा सुस्ष्प हो गयी थीं कि लोहा गलाने वाले की कोई एक जाति होती थी, तो लोहा पीटकर उससे तरह-तरह की चीज़ें बनाने वाले की दूसरी।
वर्ण-व्यवस्था से ही जुड़ी हुई एक दूसरी संकल्पना है, जो हिंदू धर्म में आधारभूत स्थान रखती है—पुनर्जन्म। हिंदू यह विश्वास करते हैं कि उनका शरीर उनकी आत्मा का एक परिधान मात्र है। प्रत्येक जीवन उसकी आत्मा की अनंत पार यात्रा के दौरान उसके अनेक रूपों में से केवल एक रूप होता है; यह एक ऐसी शृंखला है, जो ब्रह्मांड के किसी धुंधलके में खो जाती है। कर्म अर्थात प्रत्येक मर्त्य जीवनकाल के पाप व पुण्य का संचय, आत्मा का निरंतर भार होता है। उसी से यह निर्धारित होता है कि अपने अगले जन्म में आत्मा वर्ण-सोपान में ऊपर की ओर चढ़ेगी या नीचे की ओर गिरेगी। वर्ण-व्यवस्था भारत के सामाजिक अन्यायों को दैवी समर्थन प्रदान करके उन्हें सदा के लिए बनाये रखने का बेहतरीन उपाय था। जिस तरह मध्य-युग में ईसाइयों के गिरजाघरों ने किसानों को यह सलाह दी थी कि वे परलोक की चिंता में लगे रहकर अपने इस जीवन की विपदाओं को भुला दें, उसी प्रकार हिंदू धर्म भी भारत के विपदाग्रस्त पीड़ित लोगों को यही परामर्श देता आया था कि वे अपनी वर्तमान दशा को चुपचाप यह सोचकर स्वीकार कर लें कि यह इस बात का सबसे अच्छा आश्वासन है कि अगले जन्म में उसकी नियति इससे अच्छी होगी।
मुसलमानों के लिए, जो इस्लाम को मोमिनों (धर्म पर आस्था रखने वालों) की तरह ही बिरादरी मानते थे, यह पूरी व्यवस्था एक लानत थी। मुस्लिम शासकों ने एक हाथ में तलवार और दूसरे में कुरान लेकर अपने मजहब का प्रचार किया। हिन्दुस्तान में हिन्दुओं पर ही जजिया कर लगाया, इस कारण लाखों लोग अपना धर्म बदलकर भारत के मुगल शासकों की मस्जिदों की ओर खिंचने लगे। नव मुस्लिमों को विशेष रियायतें मिलती थी और एक नये मुसलमान का दर्जा नौ मुसलमानों के बराबर माना जाता था। इतना होने पर भी उच्च वर्ण के लोग मुश्किल से ही इस्लाम की ओर आकृषित होते थे और क्षत्रिय को तो हिन्दू धर्म में इतनी गहरी आस्था थी, कि वे इस्लाम अपनाने से ज्यादा बेहतर धर्म की बलिवेदी पर बलिदान होना पसंद करते थे। ऐसे ही न जाने कितनी बार जौहर की ज्वालाएँ स्वर्ग तक उठी होंगी। लेकिन शूद्र वर्ण जिसका हिन्दू धर्म में कम सम्मान था और छुआछूत के कारण उन्हें अछूत तक माना जाने लगा था, तो वे इस्लाम की ओर ज्यादा आकर्षित हुए और इस कारण अनिवार्य रूप से इनमें बहुत बड़ी संख्या अछूतों की थी, जो इस्लाम की बिरादरी में अपने लिए वह स्वीकृति ढूंढ़ रहे थे, जो स्वयं उनका धर्म उन्हें किसी दूसरे दूरस्थ जन्म में ही देने की आशा बँधा सकता था। हालाँकि जिन दलितों ने इस्लाम अपनाया, उन्हें मुसलमानों ने सदा निकृष्ट ही समझा।[adinserter block="1"]

अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक हिंदू शौर्य के नवोत्थान की एक लहर दौड़ गयी और उसके साथ ही एक और लहर भी उठी, जिसमें हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे का खून बहाने लगे। ब्रिटेन ने विजेता के रूप में अपनी उपस्थिति से इस युद्धरत उप-महाद्वीप पर अपनी ‘ब्रिटिश शांति’ तो थोप दी, लेकिन दोनों धर्म पारस्परिक अविश्वास तथा संशय के जिए वातावरण में रहते आये थे, वह पूर्ववत् बना रहा। हिंदू इस बात को नहीं भूले कि अधिकांश मुसलमान उन अछूतों की संतान थे, जो अपनी विपदाओं से छुटकारा पाने के लिए हिंदू धर्म छोड़कर भाग गये थे। सवर्ण हिंदू किसी मुसलमान के सामने भोजन छूते तक नहीं थे। अगर कोई मुसलमान किसी हिंदू के चौके में चला जाता, तो सारा चौका भ्रष्ट हो जाता। किसी मुसलमान का हाथ छू जाने मात्र पर ब्राह्मण को घंटों पूजा-पाठ करना पड़ता, तब कहीं वह शुद्ध हो पाता।
नोआखाली के जिन गाँवों में गाँधी जी जाने वाले थे, उनमें हिंदू और मुसलमान दोनों ही रहते थे, ठीक उसी तरह जैसे भारत के उत्तरी भाग में बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब के हज़ारों गाँवों में। लेकिन वे भौगोलिक रूप से बँटी हुई अलग-अलग बस्तियों में रहते थे। यह सीमा सड़क या पगडंडी के रूप में होती थी, जिसके एक ओर कोई हिंदू नहीं रहता था और दूसरी ओर कोई मुसलमान नहीं रहता था।
दोनों धर्मों के लोग सामाजिक स्तर पर आपस में मिलते-जुलते थे, एक-दूसरे के त्योहारों में भाग लेते थे और काम करने के अपने मामूली औजार भी मिल-बाँटकर इस्तेमाल करते थे। ऐसा लगता था कि आपस में उनका मिलना-जुलना बस यहीं तक सीमित था। आपस में विवाह होने का तो प्रायः सवाल ही नहीं उठता था। दोनों संप्रदायों के लोग अलग-अलग कुँओं से पानी भरते थे और सवर्ण हिंदू अपने कुएँ से कुछ गज ही की दूरी पर स्थित मुसलमानों के कुएँ का पानी पीने के बजाय प्यासा मर जाना बेहतर समझता था; पंजाब में हिंदू बच्चे जो थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त करते थे, वह उन्हें गाँव के पंडित से मिलता था, जो उन्हें जमीन पर गेहूँ की ठंठल से लिखकर पंजाबी के कुछ शब्द लिखना सिखा देता था। उसी गाँव के मुसलमान बच्चे थोड़ा-बहुत इल्म मस्जिद में पढ़कर उन्हें रटते रहते थे। गौ-मूत्र और विभिन्न जड़ी-बूटियों से बनने वाली प्राचीन ढंग की दवाएँ भी, जिनकी सहायता से वे दोनों उन्हीं बीमारियों से जूझते थे, प्राकृतिक चिकित्सा की दो अलग-अलग प्रणालियों पर आधारित थीं। इन सामाजिक तथा आर्थिक विषमताओं में एक और भी अधिक फूट डालने वाली और भी अधिक घातक विषमता जुड़ गयी थी—आर्थिक विषमता। ब्रिटिश शिक्षा और पाश्चात्य विचारधारा ने भारत को जो अवसर प्रदान किये थे, उनका लाभ हिंदुओं ने मुसलमानों की अपेक्षा कहीं अधिक तेजी से उठाया था। इसका परिणाम यह हुआ कि सामाजिक स्तर पर तो मुसलमानों के साथ अंग्रेज़ों की बहुत अच्छी निभती थी, लेकिन उनकी ओर से भारत की प्रशासन-व्यवस्था हिंदू चलाते थे।1 वे ही भारत के व्यापारी, महाजन, प्रशासक और डॉक्टर, वकील तथा अध्यापक आदि थे। पारसियों के साथ मिलकर, जो ज़रथुष्ट्र के मानने वाले प्राचीन फारस के अग्निपूजकों के वंशज थे, हिंदुओं ने बीमे तथा बैंकों के कारोबार पर, बड़ी-बड़ी तिजारतों पर और भारत के मुट्ठी-भर उद्योगों पर अपना एकाधिकार जमा रखा था।
शहरों में और छोटे-छोटे कस्बों में हिंदू ही प्रभुत्वशाली वाणिज्यिक वर्ग थे। महाजन की व्यापक भूमिका भी लगभग हर जगह हिंदू ही निभाते थे, कुछ तो इसलिए कि इस काम के प्रति उनकी सहज रुचि थी और कुछ इसलिए कि कुरान में मुसलमानों को सूदखोरी से मना किया गया था। मसलमानों में उच्च-वर्गों के लोगों में, जिनमें से बहुत-से मुगल आक्रमणकारियों के वंशज थे, जमींदार और सिपाही बने रहने की ही प्रवृत्ति थी। भारतीय समाज की गहरी जमी हुई परंपराओं के कारण मुस्लिम जन-साधारण हजरत मुहम्मद के धर्म में भी उन भूमिकाओं से शायद ही कभी बचकर निकल पाते थे, जो वर्ण-व्यवस्था ने शिव के धर्म में उनके पूर्वजों को सौंप रखी थीं। वे आमतौर पर देहात में हिंदुओं या मुसलमानों की सेवा करने वाले भूमिहीन किसान या शहरों में हिंदू मालिकों की सेवा करने वाले मजदूर और छोटे-मोटे दस्तकार थे।[adinserter block="1"]

इस आर्थिक प्रतिद्वंद्विता ने दोनों संप्रदायों के बीच खड़ी हुई सामाजिक और धार्मिक दीवारों को और ऊँचा कर दिया था और जिस नर-संहार ने श्रीरामपुर की शांति को छिन्न-भिन्न कर दिया था, वैसे नर-संहार आये दिन की घटना हो गये थे। दोनों ही संप्रदायों के पास छोटे-मोटे उकसावों के ऐसे उपाय थे, जिनकी मदद से वे इस तरह की मार-काट शुरू कर देते थे।
हिंदुओं के पास भजन-कीर्तन का हथियार था। मस्जिदों के शांत गंभीर वातावरण में जब नमाज पढ़ी जाती थी, तो उसके साथ किसी तरह का संगीत नहीं होता था और मोमिनों की नमाज के अस्फुट स्वरों में संगीत की लहरों का मिलना खुदा की बहुत बड़ी तौहीन समझा जाता था। अपने मुसलमान पड़ोसियों को भड़काने के लिए हिंदुओं के पास सबसे अचूक अस्त्र यह था कि जुमे की नमाज के समय मस्जिद के बाहर बैंड बजवा दें। मुसलमानों का जो सबसे प्रिय उकसावा था, उसका संबंध एक पशु ‘सुअर’ से था, एक ऐसे मटमैले रंग के मरियल दुबले-पतले पशु से जो भारत के हर शहर, कस्बे और गाँव की गलियों में कचरे में मुँह मारता फिरता था और हिंदुओं की सबसे रहस्यमयी उपासना का पात्र थी ‘गौ-माता’।
गाय के प्रति श्रद्धा की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है, उस समय से जब दूसरे भू-खंडों से आकर इस उप-महाद्वीप में बसने वाली इंडो-यूरोपीय पशुपालक जातियों की सुख-समृद्धि इस पर निर्भर थी कि उनके पशुओं के गल्ले कितने सशक्त थे। जिस प्रकार प्राचीन जूडिया के यहूदी रब्बियों ने अपने लोगों को सुअर का माँस खाने से मना कर दिया था, ताकि वे उससे पैदा होने वाले ट्रिचिनोसिस नामक रोग से बचे रहें, उसी प्रकार प्राचीन भारत के साधुओं ने गाय को पवित्र घोषित कर दिया, ताकि दुर्भिक्ष के दिनों में उन पशुओं का वध न किया जाए, जिन पर यहाँ का अस्तित्व निर्भर था।
फलस्वरूप, 1947 में भारत में ढोरों की संख्या संसार में सबसे अधिक थी; कुल मिलाकर 20 करोड़ मवेशी थे, अर्थात् भारत की जनसंख्या के आधे और अमेरिका की जनसंख्या से अधिक। चार करोड़ गायें मिलकर इतना थोड़ा दूध देती थीं कि प्रति पुरुष प्रतिदिन मुश्किल से आधा सेर पड़ता होगा। इसके अलावा 4-5 करोड़ बोझा ढोने वाले पशु थे, जो बैलगाड़ियाँ खींचते थे या हल जोतते थे। बाकी लगभग 10 करोड़ बाँझ और बेकार मवेशी थे, जो खेतों में और भारत के गाँवों और शहरों में मारे-मारे फिरा करते थे। प्रतिदिन उनके कभी न रूकने वाले जबड़े इतना अनाज चर जाते थे, जो भुखमरी के कगार पर जीवन व्यतीत करने वाले एक करोड़ भारतवासियों का पेट भरने के लिए काफी था।
और कुछ नहीं तो अपने को जीवित रखने की सहज वृत्ति के कारण ही यहाँ के निवासियों को इन पशुओं से छुटकारा पा लेना चाहिए था। लेकिन धार्मिक विश्वास की जड़ें इतनी गहरी और मजबूत थीं कि गौ-वध उन्हीं भारतवासियों के लिए एक घृणित काम बना रहा, जो केवल इसलिए भूखे मर रहे थे कि इन पशुओं का निरर्थक अस्तित्व बना रहे। गाँधी तक यही मानते थे कि गाय की रक्षा करना मनुष्य के इस कर्तव्य का ही एक अंग है कि वह ईश्वर की हर रचना की रक्षा करे।[adinserter block="1"]

मुसलमानों के लिए यह कल्पना ही अरुचिकर थी कि कोई मनुष्य अपने को इतना नीचा गिरा ले कि वह एक मूक पशु की उपासना करने लगे। उन्हें रंभाती हुई, रस्सा तुड़ाकर भागती हुई गायों के झुंड को हाँककर हिंदू मंदिर के मुख्य द्वार के सामने से कसाईखाने ले जाने में अत्यंत कुत्सापूर्ण आनंद आता था। कई शताब्दियों के दौरान उन दंगों में, जो इस प्रकार के हर उकसावे के बाद अक्सर होते रहते थे, हज़ारों इंसान इन्हीं पशुओं की तरह मौत के घाट उतर गये थे।
जब तक भारत में अंग्रेज़ों का शासन रहा, उन्होंने एक ओर तो इन दोनों संप्रदायों के बीच एक ऐसा संतुलन बनाए रखा, जो जरा-सी ठेस लगने से टूट सकता था, और इसके साथ ही दूसरी ओर अपने शासन के बोझ को हल्का करने के लिए उनके इस वैमनस्य को एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया। शुरू-शुरू में, भारत की स्वतंत्रता की मुहिम विशिष्ट बुद्धिजीवी वर्ग तक सीमित थी, जिसमें हिंदू और मुसलमान अपने सांप्रदायिक मतभेद भुलाकर एक समान लक्ष्य की ओर कंधे-से-कंधा मिलाकर आगे बढ़ रहे थे। विचित्र विडंबना है कि इस मतैक्य को गाँधी जी ने ही छिन्न-भिन्न कर दिया था।
पृथ्वी के सबसे अधिक आध्यात्मिक भू-खंड में यह अनिवार्य था ही कि स्वतंत्रता का संघर्ष एक धार्मिक आंदोलन का रूप धारण कर ले, और गाँधी ने उसे यही रूप दे दिया था। कोई भी व्यक्ति उतना सहिष्णु नहीं था, धार्मिक दुराग्रह के कलंक से सचमुच उतना मुक्त नहीं था जितना कि गाँधी जी थे। वह जी-जान से यही चाहते थे कि मुसलमानों को अपने आंदोलन के हर चरण में अपने साथ रखें, लेकिन वह हिंदू थे और ईश्वर के प्रति गहरी आस्था उनके अस्तित्व का सार था। अनिवार्य रूप से, अनचाहे ही गाँधी जी की कांग्रेस के आंदोलन पर हिंदुत्व का रंग चढ़ता गया, जिससे मुसलमानों के मन में संदेह पैदा होने लगे।
यह संदेह इस वजह से और भी मजबूत हो गये कि ब्रिटिश शासन में चुनावों से होने वाले लाभों में संकीर्ण विचारों वाले स्थानीय कांग्रेस नेता अपने मुसलमान प्रतिद्वंद्वियों को हिस्सा नहीं देते थे। मुसलमानों के मन में एक हौआ समा गया—स्वतंत्र भारत में वे हिंदू बहुमत के शासन के अथाह समुद्र में डूब जाएँगे और उसी देश में, जहाँ उनके मुगल पूर्वज किसी जमाने में शासन करते थे, वे शक्तिहीन अल्पसंख्यकों का निकृष्ट जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हो जाएँगे।
इस दुर्भाग्य से बच निकलने की उन्हें एक संभावना दिखायी देती थी कि इसी उप-महाद्वीप में एक अलग इस्लामी राष्ट्र की स्थापना हो जाए। यह विचार कि भारत के मुसलमान अलग अपने राज्य की स्थापना करें, पहली बार कैंब्रिज में नं 3 हंबर्स्टन रोड पर एक मामूली-से अंग्रेज़ बंगले में टाइप करने के काग़ज़ के साढ़े चार पन्नों पर औपचारिक रूप से प्रतिपादित किया गया था। इस विचार का प्रणेता एक चालीस वर्षीय भारतीय मुस्लिम ग्रेजुएट छात्र था, जिसका नाम था रहमत अली; उसके इस सुझाव के ऊपर 28 जनवरी, 1933 की तारीख पड़ी हुई थी। रहमत अली ने लिखा था कि यह धारणा ‘एक सफेद झूठ’ है कि भारत एक राष्ट्र है। उसने नारा दिया कि उत्तर-पश्चिम भारत के उन प्रांतों-पंजाब, कश्मीर, सिंध, सीमा प्रांत और बलूचिस्तान—को मिलाकर, जहाँ मुसलमानों का बहुल है, एक मुस्लिम राष्ट्र का निर्माण किया जाए। उसने अपने इस नये राज्य के लिए एक नाम भी सुझाया था। जिन प्रांतों को मिलाकर यह राज्य बनाया जाने वाला था उनके नामों के आधार पर उसने इस राज्य का नाम रखा था ‘पाकिस्तान’ अर्थात पवित्र भूमि।[adinserter block="1"]

उसने एक अनुपयुक्त परंतु जोशीली उपमा देते हुए अपने इस सुझाव के अंत में लिखा, “हम हिंदू राष्ट्रवाद की सूली पर अपने प्राण देने को तैयार नहीं हैं।”
जब मुस्लिम लीग ने, जिसमें सारी मुस्लिम राष्ट्रवादी आकांक्षाएँ केंद्रित थीं, रहमत अली के इस सुझाव को अपना लिया, तो धीरे-धीरे वह भारत के मुस्लिम जन-साधारण के मन में भी बैठता गया। कांग्रेस के उन बहुसंख्यक हिंदू नेताओं के अँधे राष्ट्रवादी रवैये के कारण, जो अपने मुस्लिम शत्रुओं के साथ किसी तरह की रिआयत करने को तैयार नहीं थे, यह सुझाव फूलता-फलता रहा।
वह घटना जिसने भारत के हिंदू और मुस्लिम संप्रदायों की प्रतिद्वंद्विता को बड़ी तेजी से हिंसा में परिवर्तित कर दिया, 16 अगस्त, 1946 को घटी थी, उससे ठीक पाँच महीने पहले जब महात्मा गाँधी ने अपनी यह प्रायश्चित-यात्रा आरंभ की थी। घटनास्थल था ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर कलकत्ता, जो हिंसा और बर्बरता के मामले में अपनी ख्याति के लिए बेजोड़ था। कलकत्ता, जिसके ‘ब्लैक होल’ कांड की चर्चा चारों ओर थी, अंग्रेजों की कई पीढ़ियों के लिए भारतीय क्रूरता का पर्याय रह चुका था। _
कलकत्ता के एक निवासी ने एक बार कहा था कि कलकत्ता की गंदी बस्तियों में किसी अछूत के घर पैदा होना ही नरक है। इन गंदी बस्तियों की आबादी जितनी धनी थी, उतनी दुनिया में और कहीं नहीं थी; ये बस्तियाँ ऐसी विपदाओं के गंदे बदबूदार धब्बे थीं, जिनकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती। हिंदू और मुस्लिम टोले बिना किसी तर्क या योजना के एक-दूसरे में गुंथे हुए थे।
16 अगस्त को बहुत सबेरे ही मुसलमानों की भीड़ें धार्मिक उन्माद से चीखती हुई अपनी गंदी बस्तियों से निकल पड़ी थीं। सभी के हाथों में लाठियाँ, लोहे की छड़ें, बेलचे या कोई-न-कोई ऐसा हथियार जरूर था जिससे किसी इंसान की खोपड़ी खोली जा सके। ये लोग मुस्लिम लीग की इस ललकार पर सड़कों पर निकल आये थे कि 16 अगस्त को ‘सीधी कार्रवाई का दिन’ मनाया जाए, ताकि अंग्रेज़ों और कांग्रेस पर यह साबित किया जा सके कि भारत के मुसलामन इस बात के लिए तैयार हैं कि ‘अगर जरूरी हो तो वे ‘सीधी कार्रवाई’ से भी अपने लिए पाकिस्तान हासिल कर लें।”
उन्हें रास्ते में जो भी हिंदू मिलता उसका वे बड़ी बर्बरता से वहीं कचूमर निकाल देते और लाश शहर की खुली नालियों में फेंक देते। भयभीत पुलिस ऐसे गायब हो गयी जैसे गधे के सिर से सींग। शीघ्र ही शहर में बीसियों जगहों से काले धुएँ के बादल उठने लगे और आसमान पर छा गये। ये हिंदू बाजार जल रहे थे।
कुछ देर बाद हिंदू भीड़ें हत्यारे मुसलमानों को मौत के घाट उतारने के लिए खोजती हुई अपने टोलों से एक तूफानी लहर की तरह निकल पड़ी। हिंसा के अपने पूरे इतिहास में कलकत्ता ने पहले कभी इतनी बर्बरता और इतनी मानव-दुष्टता से भरे हुए 24 घंटे नहीं देखे थे। पानी में भीगे हुए लट्ठों की तरह बीसियों फुली हुई लाशें हुगली नदी में बहती हुई समुद्र की ओर जा रही थीं। बहुत-सी बुरी तरह कटी-फटी लाशें शहर की सड़कों पर बिखरी पड़ी थीं। हर जगह कमजोर और बे-सहारा लोग ही सबसे ज्यादा मारे गये। एक चौराहे पर कई मुसलमान रिक्शा वालों की लाशें एक लाइन से पड़ी हुई थीं, जिन्हें पीट-पीटकर मार डाला गया था। वे अपने रिक्शों के दो डंडों के बीच बैठे किसी सवारी के आ जाने की राह देख रहे थे, जब हिंदुओं की एक भीड़ उन पर टूट पड़ी थी। यह कत्लेआम खत्म होते-होते शहर पर गिद्धों का कब्जा हो चुका था। उनके गंदे मटियाले झुंड आसमान पर मंडला रहे थे और बीच-बीच में शहर के 6,000 मुर्दो की लाशों से अपना पेट भरने के लिए नीचे की ओर झपट पड़ते थे।[adinserter block="1"]

कलकत्ता के इस कत्ले-आम की देखा-देखी नोआखाली में खून-खराबा शुरू हो गया, जहाँ गाँधी थे, बिहार में और उप-महाद्वीप के दूसरे सिरे पर बंबई में भी मारकाट शुरू हो गयी।
इन घटनाओं ने भारत के इतिहास की दिशा बदल दी। बरसों से मुसलमानों द्वारा दी गयी धमकी कि अगर उन्हें अलग राज्य न दिया गया तो भारत में खून की नदियाँ बह जाएँगी, आखिरकार एक भयानक सत्य बनकर सामने आ गयी। अचानक भारत के सामने गृहयुद्ध का वही भयानक दृश्य उभरने लगा जिससे दुखी होकर गाँधी नोआखाली के जंगलों में भटक रहे थे। एक दूसरे आदमी के लिए, उस कठोर और प्रतिभाशाली वकील के लिए जो चौथाई शताब्दी तक गाँधी का सबसे बड़ा मुस्लिम शत्रु रहा था, यह संभावना एक ऐसा औजार बन गयी, जिससे भारत के टुकड़े किये जा सकते थे। स्वयं उनके अपने लोगों के लिखे हुए इतिहास को छोड़कर और किसी भी इतिहास में मुहम्मद अली जिन्ना को वह ऊँचा स्थान नहीं दिया जाएगा, जो उनकी सफलताओं के कारण उन्हें मिलना चाहिए। फिर भी गाँधी या और किसी भी व्यक्ति से अधिक भारत के भविष्य की कुंजी उन्हीं के हाथों में थी। महारानी विक्टोरिया के पड़नाती का पाला भारत पहुँचने पर इसी कठोर और अड़ियल मुस्लिम मसीहा से पड़ने वाला था, जो अपनी जनता को दूसरों की भूमि पर अपने ख्वाबों की जन्नत बसाने के लिए ले जा रहा था। अगस्त 1946 में बंबई के बाहर एक शामियाने में इसी आदमी ने मुस्लिम लीग के अपने अनुयायियों को सीधी कार्रवाई के दिन का मतलब समझाया था। उसने घोषणा की थी कि अगर कांग्रेस लड़ना चाहती है तो भारत के मुसलमान ‘बिना किसी झिझक के उनकी इस पेशकश को मंजूर कर लेंगे। अपने पीले बे-जान होंठों को भींचकर क्रूर मुसकराहट के साथ और अपनी पैनी आँखों में दबे हुए आक्रोश की चमक लिए हुए जिन्ना ने उस दिन कांग्रेस को और अंग्रेज़ों को खुली चुनौती दी थी।
उन्होंने कसम खाई थी—‘हम हिंदुस्तान को बँटवा देंगे या फिर हिंदुस्तान को तबाह कर देंगे?'
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भारत को भगवान भरोसे छोड़ो

लंदन, जनवरी, 1947
“देखिए”, लुई माउंटबेटन ने कहा, “बहुत बुरी बात हो गयी है।” फिर आगे की बात मन-ही-मन में कही, “भारत हाथ से निकलता जा रहा है। आज़ादी तो सबको मिलनी ही चाहिए, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज विश्व के किसी कोने से अस्त हो जाए यह भी अच्छा नहीं होगा।”
बकिंघम पैलेस के एक कमरे दो आदमी बैठे हुए भारत की शासन व्यवस्था और आज़ादी जैसे अहम् विषय पर चर्चा कर रहे थे। वे दो पुराने स्कूली दोस्तों की तरह अगल-बगल बैठे चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे, लेकिन आज माउंटबेटन की बातचीत के लहजे में किसी खास वजह से बड़ी चुस्ती आ गयी थी। उनके रिश्ते के भाई सम्राट जार्ज षष्ठम उनके लिए भारत में चल रहे आज़ादी के आंदोलन को समाप्त करने की दिशा में उम्मीद की अंतिम किरण थे, कि शायद किसी तरह वह भारत से ब्रिटेन के संबंध हमेशा के लिए समाप्त करने की भूमिका निभाने के कलंक से बच जाएँ। ब्रिटेन का बादशाह आखिर भारत का सम्राट था और वायसराय के पद पर उनकी नियुक्ति के बारे में अंतिम निर्णय देने का अधिकार उसी को था। लेकिन यह निर्णय वह नहीं निकला, जो नौजवान एडमिरल सुनना चाहता था।
“मैं जानता हूँ”, सम्राट ने अपनी लजाई हुई मुसकराहट के साथ जवाब दिया, “प्रधानमंत्री मुझसे आकर मिल चुके हैं और मैंने अपनी सहमति दे दी है।”
“आपने सहमति दे दी है?” माउंटबेटन ने पूछा, “आपने इसके बारे में अच्छी तरह सोच-विचार कर लिया है?”
“हाँ...हाँ”, सम्राट ने बहुत प्रसन्नचित्त होकर कहा, “मैंने बहुत अच्छी तरह सोच-विचार कर लिया है।”
“देखिए”, माउंटबेटेन ने कहा, “यह बहुत खतरनाक मामला है। कोई भी वहाँ समझौता कराने का कारगर तरीका पहले से नहीं बता सकता। कोई समझौता कराना लगभग नामुमकिन है। मैं रिश्ते में आपका भाई हूँ। अगर मैंने वहाँ जाकर सारा गुड़-गोबर कर दिया, तो आपकी बड़ी बदनामी होगी।”
“सो तो है”, सम्राट ने कहा, “लेकिन यह भी तो सोचो कि अगर तुम सफल हो गये तो मेरी कितनी वाह-वाही होगी।”
“हाँ”, माउंटबेटेन ने अपनी कुर्सी में धँसकर बैठते हुए आह भरकर कहा, “आप जरूरत से ज्यादा उम्मीदें लगा रहे हैं।”[adinserter block="1"]

उस छोटी-सी बैठक में माउंटबेटन को एक और आदमी की याद आयी थी, जो पहले कि बैठकों में उनके सामने वाली इसी कुर्सी पर बैठता था, वह भी उनका रिश्ते का भाई था, उनका सबसे गहरा मित्र और वेस्ट मिनिस्टर के सेंट मार्गरेट के गिरजाघर में उनकी शादी के दिन उनकी बगल में खड़ा था। उस आदमी को वास्तव में सम्राट होना चाहिए था; उसका नाम था डेविड, प्रिंस ऑफ वेल्स। बचपन से ही दोनों में बड़ी घनिष्ठता थी। 1936 में, जब वह एडवर्ड अष्टम बन चुका था, डेविड ने वह राज सिंहासन, जिस पर बैठकर शासन करने की उसे शिक्षा दी गयी थी, इसलिए त्याग दिया था कि वह उस स्त्री के बिना शासन करने को तैयार नहीं था, जिससे वह प्रेम करता था। उन दिनों ‘डिकी’ माउंटबेटन सारा समय राजमहल में ही बिताते थे और हर समय सम्राट के साथ रहकर उन्हें सांत्वना देते थे।
“कितनी बड़ी बिडंबना है”, माउंटबेटन ने सोचा। डेविड के ए.डी.सी. की हैसियत से वह पहली बार उस देश में गये थे, जिसे अब उन्हें आज़ाद करना था। वह 17 नवंबर, 1921 का दिन था। माउंटबेटन ने उस रात अपनी डायरी में लिखा था कि भारत वह देश है जिसके बारे में हम हमेशा से सुनते आये थे, कल्पना करते आये थे, पढ़ते आये थे।
उस अभूतपूर्व राजसी यात्रा के दौरान कोई ऐसी बात नहीं हुई, जिससे उनकी युवा आशाएँ किसी भी प्रकार विफल होतीं। उस समय ब्रिटिश राज अपने चरमोत्कर्ष पर था और राजसिंहासन के उत्तराधिकारी की, प्रिंस और उनके साथ आये हुए लोगों की, जितनी भी आव-भगत की जाती कम थी, उनके स्वागत के लिए जितने भी भव्य आयोजन किये जाते कम थे। उन्होंने यह यात्रा वायसराय की सफेद और सुनहरी ट्रेन में की थी। यात्रा क्या थी, परेडों, पोलो के खेल, शेरों के शिकार, चाँदनी रात में हाथी की सवारी, ब्रिटिश ताज के वफादार मित्रों की ओर से, भारतीय राजे-महाराजाओं की ओर से दिये गये शाही भोज और स्वागत-समारोहों का एक अनन्त क्रम था। विदा होते समय माउंटबेटन ने सोचा था, “भारत सबसे शानदार देश है और यहाँ के वायसराय की नौकरी दुनिया की सबसे शानदार नौकरी।”

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Q. आज़ादी आधी रात को / Aazadi Aadhi Raat Ko / Freedom at Midnight किताब के लेखक कौन है?
Answer.   डोमिनिक लापिएर / Dominique Lapierre     लैरी कलिन्स / Larry Collins  
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