औघड़ / Aughad PDF Download Free Hindi Books by Nilotpal Mrinal

पुस्तक का विवरण (Description of Book of औघड़ / Aughad PDF Download) :-

नाम 📖औघड़ / Aughad PDF Download
लेखक 🖊️   नीलोत्पल मृणाल / Nilotpal Mrinal  
आकार 2.5 MB
कुल पृष्ठ286
भाषाHindi
श्रेणी
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'औघड़' भारतीय ग्रामीण जीवन और परिवेश की भाषा पर लिखा गया उपन्यास है जिसमें अपने समय के भारतीय ग्रामीण-कस्बाई समाज और राजनीति की गहरी पड़ताल की गई है। एक युवा लेखक द्वारा इसमें उन पहलुओं पर बहुत बेबाकी से चिपकाया गया है जिन पर पिछले दशक के लेखन में युवाओं की ओर से कम लिखी गई है। 'औघड़' नई सदी के गाँव को नई पीढ़ी के नजरिये से देखने का गहरा प्रयास है। महानगरों में निवासते हुए ग्रामीण जीवन की ऊपरी सतह को उभारने और भदेस का छौंका मारकर लिखने की बारी शैली से अलग, 'औघड़' गाँव पर गाँव में रहकर, गाँव का पूरा लिखा गया उपन्यास है। ग्रामीण जीवन की कई परतों की तह उघाड़ता यह उपन्यास पाठकों के समक्ष कई मूल्यों को भी प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास में भारतीय ग्राम्य व्यवस्था के सामाजिक-राजनैतिक ढाँचे की विसंगतियों को बेहद साहसिक तरीके से उजागर किया गया है। 'औघड़' धार्मिक पाखंड, जात-पात, छुआछूत, महिला की दशा, राजनीति, अपराध और प्रशन के तारणक गठजोड़, सामाजिक व्यवस्था की डिकन, संस्कृति की टूटन, ग्रामीण मध्यम वर्ग की चेतना के भ्रम इत्यादि विषयों से गुरेज करने के बजाय, इनपर बहुत ठहरकर विचारता और प्रचार करता चलता है। व्यंग्य और गंभीर संवेदना के संतुलन को साधने की अपनी चिर-परिचित शैली में नीलोत्पल मृणाल ने इस उपन्यास को लिखते हुए हिंदी साहित्य की चलती आ रही सामाजिक सरोकार लेखन को थोड़ा और आगे बढ़ाया है।

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पुस्तक का कुछ अंश

 

मैंने कोई उपन्यास नहीं लिखा है, मैंने अपने मारे जाने की जमानत लिखी है। आप चाहे किसी भी धारा के हों, किसी भी वाद के वादी हों, किसी भी समुदाय से हों, किसी भी वर्ग से हों, किसी भी जाति के हों… मैं जानता हूँ आप मुझे छोड़ेंगे नहीं। और मैंने भी पूरी कोशिश की है, किसी को न छोड़ूँ। धन्यवाद। जय हो।
औघड़

1.

गर्मी जा चुकी थी, ठंड अपना लाव-लश्कर ले आई थी। भोर के चार बजे थे, रात के सन्नाटे का एक टुकड़ा अभी भी बचा हुआ था। हल्की-हल्की शीतल हवा चल रही थी।
मुरारी साव एक घियाई रंग की पतली डल वाली भगलपुरिया चादर ओढ़े अपनी चाय दुकान पर पहुँच चुका था। दुकान क्या थी, एक टाट की झोपड़ी थी, उसी में माटी का एक चूल्हा था और उससे लगा एक लकड़ी का बक्सा। दोनों तरफ एक-एक बेंच रखी हुई थी।
मुरारी साव की चाय की दुकान गाँव के बस स्टैंड वाले मुख्य चौराहे पर ही थी।
गाँव में लोग अक्सर सूरज से पहले जग जाया करते, उसमें भी सबसे पहले भोर मुरारी साव की चाय दुकान पर ही होती। 5 बजे सुबह से ही गाँव के रास्ते सवारियों का आना-जाना शुरू हो जाता। गाँव से होकर गुजरने वाली गाड़ियों की सवारियों के लिए मुरारी की दुकान की मिट्‌टी के कंतरी वाले असली दूध की बनी चाय सुबह-सुबह की एक आदत-सी बन गई थी। यही कारण था कि मुरारी तड़के दुकान खोलने पहुँच जाता।
जब तक गाँव के लोग सो-उठकर सूर्य देव के दर्शन करते, तब तक मुरारी ठीक-ठाक लक्ष्मीदर्शन कर चुका होता था। रोज की तरह आते ही मुरारी ने बक्से का ताला खोल बर्तन निकाला। हालाँकि, लकड़ी का वो बक्सा इतनी जगह से टूटा हुआ था कि बिना ताला खोले भी बर्तन निकाला जा सकता था पर ताला एक भरोसा देता है और ये गाँव का ही माहौल था कि भले दीमकों ने बक्से की लकड़ी खा ली थी लेकिन एक जंग खा रहे छोटे से ताले के भरोसे की लाज आज तक कायम थी। न आज तक मुरारी का ताला टूटा, न भरोसा और न एक चम्मच तक चोरी हुआ। होता भी कैसे? गाँव के भले से लेकर उचक्के तक सब के लिए सुबह मीठी करने का इंतजाम मुरारी ही तो करता था। जिस दिन मुरारी की दुकान न खुले, कुछ लफुए तो सुबह से ही ताड़ी पीने निकल जाते। वो तो मुरारी की मस्त चाय थी जिसने उन्हें अपनी ओर खींचे रखा था वर्ना सुबह उठकर चाय पीने का रिवाज अब गाँव से भी धीरे-धीरे जाता रहा था।
मुरारी निकाले हुए बर्तनों को बगल के सरकारी चापाकल पर ले जा मिट्‌टी से रगड़कर धोने लगा। चारों ओर पसरे भोर के सात्विक मौन के बीच बर्तन पर मिट्‌टी के रगड़ की घरड़-घरड़ की आवाज, मानो गाँव अपने आँगन में सुबह का संगीत बजा रहा हो। कुछ मिनट बर्तन धोने के बाद मुरारी चूल्हा जलाने के लिए बोरी से कोयले के कुछ बड़े टुकड़े निकाल अपनी छोटी हथौड़ी से उसे तोड़ने लगा। ठक-ठक की आवाज अभी गूँजी ही थी कि बगल के आम वाले पेड़ से चिड़ियों का एक झुंड फड़फड़ाकर उड़ा। मानो इन चिड़ियों को रोज मुरारी की ठक-ठक सुन जगने की आदत हो गई हो। जल्दी-जल्दी कोयला तोड़ उसे चूल्हे में डाल माचिस मारी और चूल्हे के पास बैठ बाँस का पंखा हौंकने लगा। चंद मिनट बाद धुएँ का फुटबाल-सा गोला उठा। अब चुल्हा जल चुका था। इसके बाद वह दौड़कर एक बाल्टी पानी भर लाया। अब तक कोयला जलकर लाल हो चुका था। अब मुरारी ने चूल्हे पर भगोना चढ़ाया और दूध गरम करने लगा। चूल्हे की दूसरी आँच पर मिट्‌टी की कंतरी चढ़ा दी जिसमें दूध लबालब भरा था।
तभी उसे कोई आहट सुनाई दी।
“कौन? जग्गु दा?” मुरारी ने चूल्हे से निकल रहे धुएँ से मिचमिचाए आँख को मलते हुए पूछा।
“हाँ मर्दे, और के आवेगा एतना भोरे?” दुकान में घुसते ही बाल्टी में मग डालते हुए जगदीश यादव ने कहा।
जगदीश यादव गाँव पछिया टोला से थे। उम्र यही कोई 52-53 साल। ठीक-ठाक खेती थी। छोटी-मोटी ठेकेदारी करते। कभी-कभार ईंट-भट्‌ठा लगाने का भी काम करते। एक ट्रैक्टर खरीद रखा था बैंक से लोन लेकर। उसे किराये पर चलाते थे। यदुवंशी खेतिहर होने के बाद भी घर में गाय-भैंस नहीं पाले थे। कहते थे, “गाय रखिए तऽ देखना भी पड़ता है। सेवा करना होता है, सानी-पानी भी देना होता है समय पर, तब न दूध खाइएगा। हमसे नहीं संभलेगा अकेले गाय-भैंस, बेच दिए इसलिए तो।”[adinserter block="1"]
जगदीश यादव ने गाय भैंस भले बेच दिया हो पर दूध और चाय की आदत थोड़े गई थी। रोज मुरारी की दुकान पर सुबह-सुबह आना और दो-तीन घंटे की बैठकी में तीन-चार कप चाय पीना दिनचर्या बन गई थी।
“चलो पिलाओ एक कप, आज कोय आया नहीं का?” जगदीश यादव ने बेंच को गमछी से पोंछते हुए कहा और बैठ गए।
“पाँच मिनट रुक जाइए जग्गु दा, तनी खौला देते हैं दुधवा को। अभी तुरंते चढ़ाए हैं।” मुरारी ने चूल्हे में लगातार पंखा हौंकते हुए कहा।
“ठीक है। तब तक तनी खैनी खिला दो।” जगदीश यादव ने जेब से खैनी की डिबिया निकाल मुरारी की तरफ बढ़ाते हुए कहा। यह इसी देश के गाँव वाली चाय की दुकानों में ही संभव था कि जब तक चाय बने तब तक चाय बनाने वाला आपके लिए खैनी भी बनाकर परोसता था। मुरारी डिबिया से खैनी-चूना निकाल बड़े जिम्मेदारीपूर्वक रगड़े जा रहा था और जगदीश यादव एकटक रगड़ खाती हथेलियों को देखते तल्लीन बैठे थे। भागती-कूदती दुनिया के बीच एकदम फुर्सत और शांति का ऐसा दृश्य केवल गाँव ही रच सकता था।
“लीजिए देखिए बैजनाथ भैया आ गए।” मुरारी ने जगदीश यादव को खैनी देकर, हथेली पर पानी लेते हुए कहा।
“का मुरारी, का हाल? और जगदीश दा तो हमसे पहले पहुँच गए आज?” बैजनाथ मंडल ने बेंच पर बैठते हुए कहा।
“अरे, आओ बैठो बैजनाथ। हाँ का करें, रात नींद आता नहीं। सोते हैं तऽ लगा रहता है जल्दी बिहान हो तऽ निकलें। घर में बाल-बच्चा हो या हमरी जनानी सब तऽ ऊ टीभी देखने में लगे रहते हैं। किससे बतियाइएगा घर में?” जगदीश यादव ने बड़े सूने स्वर में कहा।
“एकदम यही हाल सब घर का है। दिन भर सब टीभी में घुसल रहता है। जब से साला ई डिस एंटिना आया है तब से जान लीजिए चौबीसों घंटा कुछु-ना-कुछु देते रहता है टिभिया पर। सिनेमा के तऽ इज्जते नहीं रहा अब। जब देखिए तब्बे एगो सिनेमा दे रहा है दिन-रात। हमरा लड़कवा दिनभर घुसल रहता है टिभिए में। एक दिन तो लतियाए चोट्‌टा को। न पढ़ना न लिखना। साला, धरमेंदर बनेगा जैसे सिनेमा देख के।” बैजनाथ मंडल ने एक साँस में कहानी घर-घर की बयाँ कर दी थी।
“तुम भी कनेकसन ले लिया डिस का? हाँ, तीस-चालीस रुपिया लगता है। काहे न लोगे!” बैजनाथ मंडल गाँव के पछिया टोला से ही था। लंबा शरीर, गहरा साँवला रंग। हड्‌डी पर काम भर का माँस। यही बनावट थी बैजनाथ की। थोड़ी-सी खेती थी। सब्जी उपजाता था और शहर बेच आता। छोटे-मोटे स्तर पर मवेशी बेचने का काम भी करता था। बकरी पालना-बेचना पुस्तैनी काम था उसका।
इतने में बन चुकी चाय छानते हुए मुरारी भी चर्चा में कूदा, “अरे, सिनेमा छोड़िए। सीरियल देखे हैं? केतना गंदा देखाता है! एक ठो पति के तीन ठो पत्नी तऽ एक पत्नी के दू ठो मरद। मने क्या से क्या देखा रहा है ई लोग। घर समाज बिगाड़ रहा है ई सब।”
मुरारी ने अपने इस सार्थक वचन के साथ ही चर्चा को एक नया फलक प्रदान कर दिया था।
चाय पर चर्चा, देश को कितनी सार्थक दिशा दे सकती है, यह यहाँ आकर देखा और समझा जा सकता था। दूरदर्शन और उसके समाज पर प्रभाव के इस सेमीनार का सत्र चल ही रहा था कि मस्जिद से अजान की आवाज आई, “अल्लाह हू अकबर…अशहदो अन्न मोहम्दुर्रसूलुल्लाह…”
“लीजिए अजान हो गया। बैरागी पंडी जी के आने का हो गया टाइम।” मुरारी ने चाय का कप बढ़ाते हुए कहा। असल में बैरागी पंडी जी गाँव के ही मंदिर में पुजारी थे। मंदिर के ठीक पीछे ही कुछ दूरी पर मस्जिद भी थी। गाँव में मंदिर-मस्जिद में बहुत दूरी नहीं होती।[adinserter block="1"]
अजान की आवाज अल्लाह तक जाने से पहले मंदिर के देवी-देवाताओं को मिल जाती थी। बैरागी पंडी जी को वर्षों से अजान की आवाज सुनकर उठने की आदत थी। यही उनका दैनिक अलार्म था। अजान सुन उठने के बाद बैरागी पंडी जी झट नहाते-धोते और फिर शंख और घंटी की ध्वनि से पूरा वातारवरण ऊर्जामय हो जाता। यह ध्वनि मस्जिद तक भी जाती। यह एक गाँव को ही नसीब हो सकता था जहाँ ईश्वर-अल्लाह दोनों एक-दूसरे की बड़े प्रेम से सुन लेते थे।
पंडी जी का पूरा नाम बैरागी पांडेय था और गाँव के मंदिर में ही तीन पीढ़ी से रह रहे थे। इनके परिवार में पत्नी और एक 21-22 वर्ष का लड़का चंदन पांडेय भी था। बैरागी पंडी जी दिखने में गोरे, मध्यम कद-काठी के और पिंडनुमा पेट वाले थे। सर के बाल जितने भी थे सफेद हो चुके थे।
पंडी जी पूजा-पाठ कर धोती-कुर्ता पहन कंधे पर गमछा डाल रोज की तरह जब तक चाय की दुकान पर पहुँचे तब तक वहाँ कई तरह के मुद्‌दों पर बहस से माहौल अपनी सामाजिक सोद्‌देश्यता के चरम को छू चुका था। इसी बीच वहाँ गाँव के मस्जिद टोला वाले लड्‌डन मियाँ भी पहुँच चुके थे।
“प्रणाम बाबा, प्रणाम। आइए। आप ही का इंतजार हो रहा था।” पंडीजी को देखते ही जगदीश यादव ने अभिवादन किया।
“बैठिए पंडीजी, बनाते हैं स्पेशल वाला इलायची दे के।” मुरारी ने कटोरे से भगोने में दूध डालते हुए कहा।
बैरागी पंडी जी अभी बेंच पर बैठे ही थे कि अचानक बेंच के नीचे से जोर की आवाज आई। पंडी जी लगभग चीखते हुए उछल कर बगल बैठे हुए बैजनाथ मंडल के गर्दन पर लटक गए। बैजनाथ मंडल को सुबह-सुबह बिना मतलब ब्रह्म गोद लेने का सौभाग्य प्राप्त हो गया जिसे लेते ही वह अकबका गया था।
“अरे का हुआ। हाय रे बाप!” बैजनाथ पंडी जी को संभालते हुए जोर से बोला।
“हा हा। अरे ददा कुछ नहीं। ई मोतिया पर पाँव पड़ गया महराज पंडीजी का।” मुरारी ने भगोने में चीनी डालते हुए कहा। जहाँ पूरा दौर-जमाना पहचान के संकट से जूझता-लड़ता दिखाई देता था वहीं यह गाँव ही था जहाँ आम कुत्ते भी मोती, हीरा, शेरा के नाम से जाने जाते थे। कई लोग तो उन कुत्तों के व्यवहार और दिनचर्या तक से परिचित होते थे। कौन कुत्ता कितने बजे मंदिर के अहाते में बैठेगा और कौन अस्पताल के आगे पाए पर मूत देगा, तक भी बता देते थे।
मुरारी फिर हँसते हुए बोला, “आज तऽ जतरा बन गया इसका भोरे-भोर। पंडी जी से एतना भारी आशीर्वाद पा लिया। डायरेक्ट माथा पर लात धर कल्याण कर दिए बैरागी पंडी जी।”
मुरारी ने सही ही कहा था कि जब लगभग 90 किलो के आदमी का पाँव एक मरमराए से कुत्ते की गर्दन पर पड़ जाए तो उसे हल्का आशीर्वाद नहीं कह सकते। मोतिया सड़क पार जा खड़ा हो दुम झाड़ रहा था। शायद अप्रत्याशित मिले इस आशीर्वाद को फील कर रहा था। उसने दो-तीन बार टाँग पटका, एक-दो बार सिर को झाड़ा और फिर पुनः चाय दुकान के पास आ खड़ा हो गया। इधर बैरागी पंडी जी की छाती अभी तक धड़क रही थी, धीरे-धीरे वे सामान्य होने के प्रयास में थे। हाथ में चाय की कप लिए पहला घूँट पिए तब आवाज निकली।[adinserter block="1"]
“बताइए, भैरवबाबा की कृपा कहिए कि काटा नहीं। नय तऽ एक कप चाय के फेर में अभी चौदह ठो सूई लेना पड़ता!”
मुरारी साव, बैरागी पंडी जी से चाय के पैसे नहीं लेता था। उसका मानना था कि बड़े भाग्य से तो एक ब्राह्मण को भोरे-भोरे चाय पिलाने का मौका मिलता है। इससे बड़ा पुण्य क्या होगा भला! हाँ, दिन भर में एक दुकानदार को दुकान पर ही बैठे-बैठे, पैसे के साथ पुण्य कमाने का भी मौका मिल जाए तो इससे अच्छा क्या होता। पूरे दिन एक भी कप की गिनती नहीं छोड़ने वाला और दादा के पिए गए उधार चाय को पोते तक से वसूल कर लेने वाला मुरारी वर्षों से बैरागी पंडी जी को सुबह की चाय बड़ी श्रद्धा से निःशुल्क पिलाता था। यही उसके जीवन का अर्जित पुण्य था। उसके पास हिसाब वाली दो बही थी। एक, जिसमें वो उधार चाय पीने वालों के हिसाब रखता था और दूसरी उसके मन में होती थी, जिसमें वो पंडी जी को पिलाए गए चाय के पुण्यों का जमा हिसाब रखता था, जिसके भरोसे ही मुरारी को यकीन था कि ऊपर जाने के बाद यही पुण्य उसे स्वर्ग में कट्‌ठा-दो कट्‌ठा जमीन दिला ही देगा।
इधर पंडी जी भी मुरारी को पुण्य कमाने का कोई मौका गँवाने नहीं देते थे। चाहे आँधी, तूफान चले या बिजली गिरे पर बैरागी पंडी जी एक भी सुबह अनुपस्थित नहीं होते थे। कभी-कभार खुद मुरारी नहीं आता दुकान खोलने पर पंडी जी जरूर उसकी दुकान पर आते और बेंच पर बैठते। यह सोचकर कि क्या पता देर-सबेर मुरारी पुण्य कमाने आ ही जाए।
चाय दुकान पर बतक्कड़ी जारी थी। सब अपनी-अपनी चुस्की घोंटने के साथ ही एक नई चर्चा उतार देते गिलास में। अब दिन भी साफ होने लगा था। दुकान पर और भी ग्राहकों की भीड़ आने लगी थी। तभी एक बस ठीक मुरारी साव के दुकान के सामने आ रुकी और उससे एक करीब 30-31 वर्ष का साँवला-सा युवक कँधे पर बड़ा-सा बैग, दोनों हाथों में सूटकेस लिए उतरा। एकबारगी इतने सामान से लदे आदमी को बस से उतरता देख सबकी नजर उस पर पड़ी। वह युवक बस से उतर सामान कंधे से उतार दुकान से ठीक दस कदम दूर खड़ा हो गया और जेब से पर्स निकाल उसमें कुछ टटोलने लगा। इधर पूरे चाय दुकान की नजर उस पर थी। गाँव उतरे किसी भी नये आदमी को ये लोग इतनी नजर गड़ाकर देखते कि साधारण कलेजे का आदमी तो लजाकर मर जाए। यह मंडली एक तरह से गाँव घुसने वालों के लिए द्वार पर लगी स्कैनिंग मशीन की तरह थी। क्या मजाल कोई भी चीज उन लोगों के सामने से बिना उनकी दृष्टि जाँच के गुजर जाए। सड़क से ट्रक पर लदी गाय-बकरी भी गुजरती तो उसकी नस्लों पर चर्चा कर यह लोग बातों-ही-बातों में उसका दूध तक निकाल लेते थे। अब तक उस युवक की चर्चा शुरू हो गई थी।
“कौन है? किसके यहाँ का है ई आदमी?” बैजनाथ ने ऊपरी जेब से खैनी निकालते हुए कहा।
“लोकल तो नहीं बुझाता है। किसी घर का दामाद-ऊमाद है क्या?” जगदीश यादव ने अपने अनुभव से कहा। तभी उस युवक की नजर भी एक बार चाय दुकान की तरफ गई पर फिर झट उसने अपनी आँखें हटा लीं। शायद उसे भी अंदाजा हो गया था कि पूरी दुकान की नजर इधर ही है। इतने में उसे कुछ याद आया। उसने अपने एक बैग का ऊपरी चेन खोल उसमें से एक भरी हुई पॉलीथीन निकाली जिसमें एक ब्रेड का पैकेट और कुछ आधे बचे बिस्किट के पैकेट थे। युवक ने उसका रैपर निकाल उसे पास बैठे कुत्ते की तरफ बढ़ा दिया। कुत्ते ने लपककर ब्रेड पर मुँह मारा और आँख मूँद खाने लगा। उधर हर सीन पर चाय दुकान पर बैठे लोगों की कैमरे-सी नजर लगी हुई थी।
“अरे हई देखिए मोतिया का किस्मत। भोरे-भोरे पावरोटी पा लिया और बिस्कुट भी।” लड्‌डन मियाँ खिलखिलाते हुए बोले।
“हम बोले थे न आज पंडी जी का आशीर्वाद मिला है। तऽ जतरा बनबे करेगा मोतिया का।” मुरारी भी उछलकर बोला। सब हँसने लगे।[adinserter block="1"]
वह युवक कंधे पर बैग डाल, सूटकेस उठा गाँव के पूरब तरफ निकल गया। इधर सब पंडी जी के नाम पर एक-एक कप और चाय देने को बोल चुके थे। पंडी जी मंद-मंद मुस्कुराते कभी मोतिया को देखते तो कभी अपने परम किस्मती लात को। जीवन भर सौभाग्य की बाट जोहते पंडी जी का मन कर रहा था कि किसी दिन सुबह-सुबह उठ खुद अपने ही गर्दन पर यह लात रख दें। तत्काल उन्होंने बैंच पर बैठे ही अपना दाहिना लात उठाया और उसे अपने खाली हाथ पर रख न जाने देर तक क्या सोचते रहे! हाथ में लात का यह दृश्य विडंबना गढ़ रहा था कि चिंतन बुन रहा था, समझना कठिन था थोड़ा।

2.

दिन चढ़ चुका था। गाँव के एकमात्र चिकित्सक डॉ. बालेंदु अपनी डिस्पेंसरी खोल खुद ही झाड़ू लगा रहे थे। हालाँकि, उन्होंने कंपाउन्डर के रूप में एक लड़के को रखा था पर उसके आने और जाने का कोई तय समय नही था। लड़का मनमौजी था, कभी आता कभी नहीं भी आता। इस कारण अक्सर डॉ. साहब को खुद ही डिस्पेंसरी की सफाई और पोंछा लगाने का काम करना पड़ता था। डॉ. बालेंदु बगल के गाँव मनहरा के रहने वाले थे पर मलखानपुर की बड़ी आबादी देख डिस्पेंसरी यहाँ खोलना ठीक समझा था। उनका अंदाजा था कि यहाँ ज़्यादा मरीज मिल पाने की संभावना रहेगी। वैसे मलखानपुर में एक बिना डॉक्टर वाला प्राथमिक स्वास्थ केंद्र सरकार द्वारा स्थापित था। डॉ. बालेंदु ने मलखानपुर बीच बाजार में ही एक कमरा किराये पर ले नर्सिंग होम की शक्ल देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। कमरे के बाहर एक टीन का बोर्ड बनवा उस पर ‘डॉ. बालेंदु घोष’ लिखवाया था और उसके नीचे अंग्रेजी में कुछ डिग्री टाइप भी लिखवा रखा था। एक बड़ा-सा लाल रंग का प्लस चिह्न भी सफेद गोले में बनवा रखा था। कमरे के अंदर बीचो-बीच एक हरा पर्दा डाल उसे दो भागों में बाँट दिया था। पहले भाग में खुद की टेबल कुर्सी लगाई थी, दूसरे भाग में अंदर की ओर एक पतली-सी चौकी डाल दी थी जिस पर लिटाकर वो मरीज का पेट भोंककर मर्ज देखते थे और जीभ पर टार्च मारकर बीमारी का पता लगाने की ईमानदारी भरी कोशिश करते थे। हरे पर्दे के पास ही दीवार पर एक पोस्टर चिपकाया था जिसमें एक गोल-मटोल बालक का चित्र था और उसके नीचे लिखा हुआ था, ‘कृप्या शांति रखें, अंदर ऑप्रेशन चल रहा है।’ यह पोस्टर पढ़ अक्सर देहात के कई जिज्ञासु मरीज डॉ. साहब से नजर बचा पर्दा हटा अंदर झाँकने की कोशिश किया करते थे कि आखिर ये ऑपरेशन होता कैसे है? काश! ये दुर्लभ मेडिकल लीला देखने का सौभाग्य मिल जाए। पर हर बार चौकी खाली ही मिलती। एकाध मरीज कभी लेटे भी तो फिर उन्हें उठने की जरूरत नहीं पड़ी, वे उठ गए थे। बदले में भारी हर्जाना देकर किसी तरह अपनी जान बचाई थी डॉ. बालेंदु ने। उसके बाद से सावधान डॉ. बालेंदु केवल चलते-फिरते मरीजों का ही इलाज करते थे। लेटने वालों को तुरंत हाथ जोड़ दुआ देकर शहर रेफर कर देते थे। वैसे डॉ. बालेंदु ने कब, कहाँ से मेडिकल की पढ़ाई की और कब डॉक्टर बने यह वैसे ही अज्ञात था जैसे डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी का दीवार से चूना निकाल खैनी बना खाते हुए एग्जाम देने का किस्सा। लाल बहादुर शास्त्री जी का उफनती नदी पार स्कूल जाने का किस्सा। ईश्वरचंद विद्यासागर जी का स्ट्रीट लाइट में पढ़ने का किस्सा। ये सब घटनाएँ किसी ने देखी नहीं पर प्रचलन में थीं और मान ली गई थीं। उसी तरह डॉ. बालेंदु को डॉक्टर मान लिया जा चुका था। डॉ. बालेंदु अभी झाड़ू मार लाइफबॉय साबुन से हाथ धो गर्दन में आला पहन बैठे ही थे कि एक हीरो-होंडा बाइक आकर खड़ी हो गई और जोर-जोर से हॉर्न बजने लगा। डॉ. बालेंदु हड़बड़ा उठे।
“क्या बात है भाई?”
“अरे जल्दी चलिए सर, उठाइए अपना बैग। प्रधान जी के घर चलना है। हार्ट अटैक आया है।” बाइक सवार ने बाइक स्टार्ट रखते हुए ही जल्दी-जल्दी कहा।
हार्ट अटैक! यह सुन एक बार तो जैसे लगा डॉ. बालेंदु को ही हार्ट अटैक आ गया है। गाँव के सबसे प्रभावी घर की बीमारी का बुलावा आ गया था, कुछ ऊँच-नीच हो गया तो। यह सोच हाथ-पाँव काँप रहे थे डॉ. बालेंदु के। जल्दी-जल्दी बैग लिया अपना। सुबह-सुबह डिस्पेंसरी खुलते ही मरीज का आ जाना यूँ तो किसी भी डॉक्टर के लिए खुशी की बात होती है पर ऐसे घर से और इतनी बड़ी बीमारी आ धमकेगी इलाज करवाने, और इतनी कयामत भरी बोहनी के बारे में सोचा भी न था डॉ. बालेंदु ने। सर्दी, खाँसी, बुखार तक तो ठीक था पर सुबह-सुबह हार्ट अटैक को संभालना, अपने डॉक्टरी जीवन में पहली बार मेडिकल के इम्तेहान को फेस करने जा रहे थे डॉ. बालेंदु वो भी बिना मेडिकल की किताब का मुँह देखे। अभी असल में मुँह तो डॉ. बालेंदु का देखने लायक था। माथे पर पसीना लिए, सूखते कंठ से बगल की दुकानवाले से जरा डिस्पेंसरी पर ध्यान देने को बोल गोद में बैग धर वे बाइक पर बैठ गए। वे इतने तनाव में थे कि अभी तक यह भी नहीं पूछा था कि अटैक आया किसे है?
अभी बाइक पर बैठे ही थे कि सामने से जगदीश यादव आते दिख पड़े। डॉक्टर साहब को देखते ही टोक दिया, “अरे डागडर साब, कहाँ एकदम सबेरे-सबेरे?”[adinserter block="1"]
डॉ. बालेंदु के बदले बाइक चालक ने कहा, “अरे पुरुषोत्तम बाबू को हार्ट अटैक आया है। वहीं जा रहे हैं।”
सुनते ही जगदीश यादव जैसे बाइक के सामने आ खड़े हुए। एकदम हड़बड़ाते हुए पूछा, “क्या? हाय भगवान! कल तो ठीक थे! अरे हाँ हाँ चलिए जल्दी। भगवान ठीक करे सब। एज भी तो हो गया है उनका।”
पुरुषोत्तम सिंह मलखानपुर की सबसे रुतबेदार हस्ती थे। इनके पिता पूर्व में गाँव के प्रधान थे और ये खुद भी दो बार प्रधान रह चुके थे। अब इनका बेटा फूँकन सिंह विरासत को सँभाले हुए था। जमाना बदलने पर खेती-बाड़ी थोड़ी कम हो गई और जमीन का कई हिस्सा भोग-विलास में बिक भी चुका था। रुतबा पहले की तरह तो नहीं था पर अभी भी धाक ठीक-ठाक ही थी। इसका कारण यह भी था कि पुरुषोत्तम सिंह के दादा तीन भाई थे। इस कारण इनके अपने बड़े खानदान का पूरा कुनबा इसी गाँव में साथ ही बसा था। जिसमें आस-पास के 6-7 घर थे। इन घरों को मिलाकर कम-से-कम 10-12 हट्‌ठे-कट्‌ठे जवान पुरुषोत्तम सिंह के भतीजे और पोते के रूप में हमेशा एक आवाज पर लाठी लेकर खड़े हो जाते थे। सामंती दौर गुजर जाने के बाद भी भारतीय लोकतंत्र में उस परिवार की अहमियत कभी कम नहीं होनी थी, जिसके पास लोग भी थे और लाठी भी। जब तक लोकतंत्र था तब तक पुरुषोत्तम सिंह के जैसे बड़े घर बहुत छोटे कभी नहीं होने वाले थे।
जगदीश यादव पुरुषोत्तम बाबू के हार्ट अटैक की खबर सुन रोमांचित हो रहे थे या भयंकर दुखी, इस महीन अंतर को पकड़ना मुश्किल था। असल में, बड़े आदमी का जीवन और मरण दोनों देखने लायक होता है। सदा आम जन को आकर्षित करता है। जगदीश यादव पुरुषोत्तम बाबू का वैभवशाली जीवन देख चुके थे। आज इतने बड़े आदमी के हार्ट अटैक को भी इतने नजदीक से देखने का मौका वे छोड़ना नहीं चाहते थे। कितनी बड़ी बात होती कि वे अपने पोते-पोतियों तक को सुनाते यह ऐतिहासिक किस्सा, अरे पुरुषोत्तम बाबू हमारे आँख के आगे चल दिए थे रे बच्चो। हमारा तऽ हाथ धर लिए थे और बोले थे, “जगदीश अब जाते हैं। घर-परिवार को जोगना, देखना।”
यह सबकुछ एक झटके में सोचते-सोचते डॉ. बालेन्दु को आगे खिसका उछलकर बाइक में पीछे बैठ चुके थे जगदीश यादव।
“जल्दी चलाओ भाई। स्पीड में चलो।” जगदीश यादव ने घोड़ा हाँकने वाले अंदाज में बाइक चलाने वाले से कहा। तेज चलती बाइक में सवार बाइक चलाने वाले और जगदीश यादव के बीच दबे से बैठे डॉ. बालेंदु खुद एक मरीज की भाँति दिख रहे थे। उनके हृदय की उथल-पुथल केवल वही जान रहे थे। उनका चेहरा बता रहा था, जैसे किसी बकरे को बाँध हलाल करने ले जाया जा रहा हो। बाइक के पुरुषोत्तम सिंह के दरवाजे पर रुकते ही जगदीश यादव उछलकर नीचे उतरे और फिर डॉक्टर बालेंदु का बैग पकड़ उन्हें हाथ का सहारा दे नीचे उतारा। पता नहीं कैसे जगदीश यादव डॉ. बालेंदु के बदन की कँपन को महसूस कर चुके थे। शायद तभी हाथ का सहारा दे दिया था। पुरुषोत्तम सिंह घर के बाहरी बरामदे से सटे कमरे में ही रखे हुए थे। अंदर घुसते ही डॉ. बालेंदु ने देखा कि पुरुषोत्तम बाबू लेट कर पपीता खा रहे हैं। कटे सेब की कटोरी भी सिरहाने धरी हुई थी। पुरुषोत्तम बाबू को आराम से फलाहार करता देख डॉ. बालेन्दु को थोड़ी राहत महसूस हुई। भले कभी मेडिकल की किताब न पढ़ी हो पर कलकत्ता में कई डॉक्टरों के यहाँ झाड़ू, रुई-डिटॉल लगाते इतनी डॉक्टरी तो आ ही गई थी कि हार्ट अटैक का मरीज आराम से लेटकर पपीता तो नहीं खाएगा। फिर भी डॉ. साब पूरी तरह निश्चिंत हो जाना चाहते थे।
“प्रणाम पुरुषोत्तम बाबू, क्या हुआ आपको? ठीक तो हैं आप?” डॉक्टर बालेंदु ने शुभ-शुभ बोला।
“अरे, आइए डागडर साहब। देखिए न थोड़ा छाती में पेन हो गया था। अभी साँस लेने में थोड़ा-थोड़ा दुखाता है।” पुरुषोत्तम बाबू ने पतीते का आखिरी टुकड़ा मुँह में डालते हुए हाल सुनाया।
“अच्छा। रुकिए न, ठीक हो जाएगा। फ्रेस फ्रूट खा ही रहे हैं आप। बेजोड़ चीज है हेल्थ के लिए।” डॉ. बालेंदु ने कटे सेब की कटोरी की तरफ देखते हुए कहा।[adinserter block="1"]
अब तक डॉ. बालेंदु को यकीन हो चुका था कि इनको चाहे जो बीमारी हो पर हार्ट अटैक तो नहीं था और न ही मरीज को जान का खतरा। डॉ. बालेंदु ने यह सोचते-सोचते सामने रखा पानी का गिलास उठाया और गट-गट कर खुद पी गए। थोड़ी राहत महसूस हुई, तो उन्हें कलकत्ता में अपने मालिक, जिसके यहाँ सफाई स्टॉफ के रूप में 8 साल तक काम किया था, उन डॉक्टर का कहा एक सूत्र वाक्य याद आया, “मरीज को दवा बचाती है, डॉक्टर को उसका आत्मविश्वास बचाता है।” आज डॉ. बालेंदु ने अपने जीवन का समस्त आत्मविश्वास निचोड़ जमा किया और अब बड़े गंभीर अंदाज में आला निकाल उसे पुरुषोत्तम बाबू के छाती पर धर दिया।
“जरा जोर-जोर से साँस लीजिए। अंदर खींचिए और छोड़िए।” डॉ. साहब ने मँझे हुए अंदाज में कहा।
“डागडर बाबू दर्द करता है मीठा-मीठा छाती में।” पुरुषोत्तम बाबू ने लंबी-लंबी साँस लेते हुए कहा।
“हूँ। देखिए अटैक तो था पर एकदम टाइम पर बुला लिए आप लोग हमको। घबराइए नहीं, अटैक रोक देंगे एक ठो टेबलेट में।” डॉ. बालेंदु ने बैग से एक टेबलेट निकालते हुए कहा।
“इसको तुरंत खाइए, 15 मिनट में राहत मिलेगा।”
अब तक कमरे में कई लोग जमा हो चुके थे। लड्‌डन मियाँ भी साइकिल लिए पहुँच चुके थे, साथ में बैजनाथ मंडल भी।
“सर, कौन टेबलेट दिए?” लड्‌डन मियाँ ने जिज्ञासावश पूछ दिया।
“गैस और पेन का मिक्स था। गैस के कारण ब्लॉक हो गया था छाती का पाइप। उसका एयर बाहर करना जरूरी है न जी। इसी में न बड़ा-बड़ा डाक्टर मिस कर जाता है। ऊ देने लगेगा सीधे हार्ट अटैक का दवाई और इसी में रोगी का जान चला जाता है। हम तो यही न ध्यान दिए! चलिए अब कोय खतरा नहीं है।” डॉ. बालेंदु ने एक सफल चिकित्सक के फ्लेवर में कहा। असल में तीन साल पहले ऐसी ही किसी टेबलेट के दिए जाने से लड्‌डन मियाँ की एकमात्र बेगम अल्लाह को प्यारी हो चुकी थीं। सो, आज फिर उसी हाथ से टेबलेट दिया जाता देख लड्‌डन मियाँ से रहा न गया था और पूछ दिया था।
पर अभी पूरा कमरा डॉ. बालेंदु के चिकित्सकीय चमत्कार से अभिभूत था। सबकी एक ही चर्चा, डागडर बाबू बचा लिए आज पुरुषोत्तम बाबू को। यमराज के मुँह से खींच लाए। ऐसा डॉक्टर है गाँव में तो समझिए सौभाग्य है हम लोग का।
तब तक भर प्लेट बिस्कुट, दालमोट और मिठाई आ चुका था डॉ. बालेंदु के लिए। डॉ. बालेंदु अंदर-ही-अंदर मुस्कुरा रहे थे। आज कुछ तो भाग्य ने और कुछ उनके आत्मविश्वास ने बाजी पलट दी थी। पुरुषोत्तम सिंह के पुत्र फूँकन सिंह ने मारे खुशी के सौ के दो नये नोट डॉ. बालेंदु के हाथ में रखते हुए कहा,
“ये लीजिए डागडर साहब! पहला बार फीस दे रहे हैं किसी डागडर को अपने दुआर पर। काहे कि आप जान बचा लिए बाबू जी का।”
डॉ. बालेंदु ने नोट ऊपर की जेब में रखते हुए हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा, “अरे फीस क्या! आशीर्वाद है आपका यही समझ रख ले रहे हैं।”
डॉ. बालेंदु के लिए सच में, मिले हुए नोट फीस नहीं बल्कि उनकी डॉक्टरी का प्रमाण पत्र थे। उन्हें अपनी डॉक्टरी का सिक्का गाँव-जवार में जमने की खुशी थी।
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3.

मौसम बदलने लगा था। सुबह की धूप अब जरूरी लगने लगी थी। डॉ. बालेंदु की दवा और दुआ दोनों के काम कर जाने के बाद पुरुषोत्तम सिंह की तबियत भी अब ठीक हो चली थी। वैसे भी गैस का गोला कितने दिन रहता पेट में! पुरुषोत्तम सिंह घर की खुली छत पर कुर्सी लिए इत्मिनान से बैठे रेडियो सुन रहे थे। तभी हाथ में मोबाइल लिए फूँकन सिंह भी छत पर पहुँचा। इस समय तक मोबाइल गाँव के इक्का-दुक्का लोगों के पास ही था। उसमें भी गाँव में पहला मोबाइल फूँकन सिंह के पास ही आया था। अक्सर नेटवर्क की दिक्कत होने के कारण फूँकन सिंह अपने दूमंजिले घर की छत पर जा नेटवर्क धराने की कोशिश किया करता। फूँकन सिंह जब अपने छत पर टहल-टहल मोबाइल पर जोर-जोर से बात करता तो दूरसंचार क्रांति का यह मोहक दृश्य दूर-दूर तक खेतों में काम कर रहे लोग अपनी कुदालें छोड़ एकटक देखते।
फूँकन सिंह की आयु यही कोई 40-42 साल की रही होगी। पुरुषोत्तम सिंह की विरासत का भार अब इसी के कंधे पर था। उसने इस लायक अपना कंधा बनाने में अथक लगन के साथ मेहनत भी की थी। बचपन से ही कसरत करना, पुरकस खाना और भरपूर सोना उसकी दिनचर्या रही। उसने बचपन से लेकर जवानी तक में जरा भी समय पढ़ाई-लिखाई या कला-संगीत इत्यादि अनुत्पादक और अनिश्चित परिणाम देने वाले कार्यों में नहीं गँवाया। जहाँ भी समय दिया, तुरंत कुछ पाया। वो खेलता भी था तो क्रिकेट, कबड्‌डी जैसे फिजूल के खेल नहीं बल्कि जुआ खेलता था जिसमें तुरंत कुछ अर्जित किया जा सके। अर्जन करने की यह लत उम्र बढ़ने के साथ बढ़ती गई। उसने बिना डिग्री सब अर्जित किए रखा था। बिना दरोगा बने लोगों को रस्सी से बँधवा देता था। बिना जज बने फैसला सुनाता था। बिना कलेक्टर बने साहब कहाता था। पिछली बार प्रधानी का चुनाव लड़ा पर चुनाव में धांधली की शिकायत हो जाने पर चुनाव रद्‌द हो गया था और उसे अब आने वाले चुनाव का इंतजार था।
साल भर पहले गाँव के बाहर ढाबे पर दारू पीते वक्त उसकी बाहरी गाँव के कुछ लड़कों से बहस हो गई थी जिसपर उन मनबढ़ू लड़कों ने फूँकन सिंह के रुतबे की परवाह किए बगैर उस पर दस-बीस लात-घूँसे बरसा दिए थे। इस घटना के बाद सिंह परिवार की हैसियत का ग्राफ थोड़ा गिर गया था। लोग कहने लगे थे, अब नया जमाना आ गया, पुराना फुटानी और ठसक नहीं बर्दाश्त करता है नया लौंडा लोग। तब से फूँकन सिंह थोड़ा फूँक-फूँककर ही कदम रखता था।
फूँकन सिंह छत पर एक कोने से दूसरे कोने नेटवर्क खोजते टहल रहा था कि अचानक उसकी नजर घर के पीछे वाले दीवार पर पड़ी। उसने देखा एक आदमी अपना सिर गोते दीवार से सटे पेशाब कर रहा है। यह देख चेहरा तमतमा गया फूँकन सिंह का। वह जोर से चिल्लाया,[adinserter block="1"]
“कौन है रे बेटीचोद, साला हमरे दीवाल पर मूतता है रे!” मूतने को तो एक भारतीय चीन की दीवार पर भी मूत दे पर मलखानपुर गाँव में पुरुषोत्तम सिंह-फूँकन सिंह की खानदानी दीवार पर मूत देना बड़ी बात थी।
फूँकन सिंह को चिल्लाता देख पुरुषोत्तम सिंह भी कुर्सी से उठ खड़े हो छत की रेलिंग से झाँके। फूँकन सिंह ने गुस्से में आँख लाल किए इधर-उधर दो-चार कदम चल वहीं सामने पड़ी लकड़ी का एक टुकड़ा उठाया और नीचे पेशाब कर रहे आदमी पर जोर से फेंककर मारा। लकड़ी का टुकड़ा उस आदमी के ठीक बगल में गिरा। यह वो दौर था जब सामंतवाद का निशाना चूकने लगा था। अब किसी ठाकुर साहब के हाथ से चली लाठी ठीक निशाने पर नहीं भी लगने लगी थी। लाठी के जमीन पर गिरते ही पेशाब करता आदमी अकबकाकर पैंट सँभाले बगल हटा और छत की तरफ सिर उठाए लगभग चिढ़ाते हुए बोला,
“का फूँकन बाबू! अरे सदियों आपके पुरखे केतना गरीब गरुआ के डायरेक्ट कपार पर मूते पर कोई उफ्फ नहीं किया। हम साला पिछवाड़े के दीवाल पर मूत दिए तऽ विरासत ढहने लगा आपका? गजबे करते हैं आप मालिक!”
“अरे साला हरामी, तुम है रे बिरंचिया! तुम ढाहेगा भैरो सिंह, पुरषोत्तम सिंह के विरासत को रे साला! ठहरो नीचे आते हैं तऽ बताते हैं।” इतना कह फूँकन सिंह सीढ़ियों की ओर उतरने को बढ़ा।
तब तक गोली की तरह बिरंची की एक और आवाज टनटनाते हुए कान में गई फूँकन सिंह के,
“आप नीचे आ गए हैं। आपको पते नहीं है तऽ हम का करे।” इतना बोल बिरंची लंबी-लंबी डेग भर तीन खेत फलाँग लगा वहाँ से निकल चुका था।
बिरंची कुमार मलखानपुर गाँव का 33-34 बरस का नौजवान था। इतिहास से बी.ए. पास कर एम.ए. की पढ़ाई कर ही रहा था कि एक हादसा हुआ और जिंदगी भर के लिए उसका कलम पकड़ना असंभव हो गया। हादसा भी ऐसा, मलखानपुर और बगल के कटहरा गाँव के बीच क्रिकेट मैच में झगड़े के दौरान पुलिस केस हो गया। दबंगों की पैरवी थी, सो पुलिस उठा ले गई। वहाँ रात हाजत में खूब पीटा। एक लाठी दाहिने हाथ की कलाई पर लगी और तर्जनी और अंगूठे की हडि्डयाँ बाहर आ गईं। सरकारी नौकरी की चाहत में कई सरकारी फॉर्म डाल चुका था बिरंची, पर झूठे केस और कलम न उठा पाने के सदमे में पहले तो एक मनोरोगी की तरह घर के एक कमरे में बंद रहा और जब साल भर बाद बाहर निकला तो जैसे वो बिरंची था ही नहीं। कलम छूटी और उसकी जगह चिलम आ गई। बायें हाथ से चिलम उठाकर उसे दाहिने हाथ का सहारा दे सारा अर्जित ज्ञान को धुएँ में उड़ाने लगा वो। पढ़ाई-लिखाई छोड़ दिन भर घूमते गाँजा-ताड़ी पीना और अपने अधूरे सपनों को कोसना-गरियाना, यही दिनचर्या बन गई उसकी। लोग उसे गँजेड़ी, थेथर और पागल कहते। कभी-कभी कड़वी जुबान के कारण पिट भी जाता था। अक्सर लोग उसे लतखोर बोल छोड़ देते।[adinserter block="1"]
आज तो फूँकन सिंह ने ही सीधे देख लिया था अपनी दीवार पर पेशाब करते हुए। जुबान से आग उगल हवा की तरह उड़ निकला था बिरंची मूतने के बाद। उधर फूँकन सिंह को आग की लपट की तरह सीढ़ी से नीचे उतरता देख पुरुषोत्तम सिंह तेजी से चलते हुए गरजे,
“ए फूँकन, खबरदार जो मारपीट किया तो। छोड़ो उस गँजेड़ी को। रुको, एकदम नहीं जाओगे उस नीच के पीछे।”
उम्र और अनुभव ने पुरुषोत्तम सिंह को क्रोध पीना सिखा दिया था जबकि फूँकन सिंह की तो अभी कुछ और ही पीने की उम्र थी।
“बाबू जी तऽ कपार पर मुतवाएँ और हम लोग?” फूँकन सिंह ने पीछे की तरफ मुड़ झल्लाते हुए कहा।
“कपार पर मूता है क्या? दीवारे पर न मूता है!” पुरुषोत्तम सिंह एकदम नजदीक आकर बोले।
“बाह, बाह रे दिमाग आपका! मने कपार पर मूतवाने का इंतजार करें घरे बैठके हम! जब मूत देगा तब बोलेंगे और लड़ेंगे!” फूँकन सिंह ने मुट्‌ठी पीसते हुए कहा।
“सुनो, जरा ठंडा दिमाग से काम किया करो, समझे। ऐसे गर्मी दिखाने और उधियाने से राजनीति नहीं होता है। अभी मारोगे बिरंचिया को तऽ माहौल बिगड़ेगा। जल्दिए पंचायत चुनाव आने वाला है। थोड़ा बर्दाश्त कर लो, फेर देख तो लेंगे उस दोगला को।” बाप ने राजनीति के सधे खिलाड़ी की तरह पुत्र को समझाते हुए कहा।
“देखिए, भाँड़ में जाए पोलटिक्स। साला हम हिजड़ा बन के नहीं करेंगे राजनीति। आपको पता है ई बिंरचिया का मूतना। इसमें टोटली पोलटिक्स है। ये कोई करवा रहा है। चेक नहीं करेंगे तो मन और बढ़ेगा इन हरामियों का।” फूँकन सिंह ने सीढ़ी पर से खड़े-खड़े कहा।
“अच्छा तुम जाओ। पानी पीओ और शांत हो जाओ। हम पता करते हैं न। दस जूता मार के भी क्या बिगाड़ लोगे उस लतखोर का?” यह कहते हुए पुरुषोत्तम बाबू सीढ़ियों से नीचे उतर आए। तब से खुद को सीढ़ियों पर ही रोके फूँकन सिंह भी पीछे-पीछे सीढ़ियों से सनसनाता हुआ नीचे आ गया।
राजपूतों का खून जल्दी गर्म नहीं होता और गर्म हो गया तो जल्दी ठंढा नहीं होता। बचपन से ही फूँकन सिंह घर में अपने बाप-दादा से राजपूतों का यह विशेष रक्तविज्ञान पढ़ता आया था। पुरुषोत्तम सिंह इसलिए जल्दी गर्म नहीं होते थे और फूँकन सिंह जल्दी ठंढा नहीं होता था। नीचे उतर फूँकन सिंह बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ गया।
“मालिक चाय लाते हैं।” लटकु भंडारी की धीमी आज्ञाकारी आवाज आई। लटकु भंडारी पुरुषोत्तम सिंह के घर का वर्षों पुराना वफादार था। इसके बाप-दादा नाई का काम करते थे पर लटकु ने परंपरा से विद्रोह करते हुए उस्तरा-कैंची छोड़ प्रधान जी के घर थरिया-बर्तन, कप-ग्लास उठाने का काम पकड़ लिया था। वो दिन भर घर के काम देखता और शाम होते ही जब फूँकन सिंह की मजलिस जमती तब काँच के गिलास सजाता, पानी में रंग घोलता और जाम बनाता। इन सब कार्यों में उसने गजब की विशिष्टता हासिल कर ली थी। पानी में दारू की कितनी मात्रा कितना असर बनाएगी इस काम को वो इतनी गंभीरता से अंजाम देता जैसे वो कोई नोबेल पुरस्कार विजेता रसायनशास्त्री हो और मानवता के कल्याण के लिए पोलियो या रेबीज का कोई नया टीका तैयार कर रहा हो। उसे पता होता था कि फूँकन बाबू कितने पेग के बाद बैठे रहेंगे और कितने के बाद उलट जाएँगे। कई महत्वपूर्ण मौके पर जब फूँकन सिंह का शाम या रात को किसी जगह उपस्थित होना आवश्यक हो जाता था तब वो बिल्कुल हल्का असरकारी आपातकालीन लाइट पेग भी बनाने का सिद्धहस्त था। फूँकन सिंह को लटकु के पैग-रसायन ज्ञान पर उतना ही भरोसा और गर्व था जितना इसरो को अपने वैज्ञानिकों के ज्ञान पर होता है।
लटकु की इन्हीं अतिरिक्त योग्यताओं ने उसे टोले के अन्य नाइयों की अपेक्षा ज्यादा बड़ा स्थान दिला दिया था। सीधे फूँकन सिंह के दिल में जगह बना ली थी। पूरा टोला उसे फूँकन बाबू का पीए कहता और लटकु इस पद की आभा से लहालोट हो जाता और गौरव से भारी होकर कभी-कभी बिन पिए भी खटिया पर घोलट जाता। फूँकन सिंह के पीए होने में जो नशा था वो भला दारू में कहाँ? टोला में उसके कहे का वजन था। फूँकन सिंह की मजलिस में दरोगा, बीडीओ सब आते-बैठते थे। लटकु सबको गिलास में अपने हाथ का हुनर परोसता था। मामूली संगत थोड़े थी। इस तरह नाइयों के उस्तरे से कई गुणा ज्यादा उसने अपने हाथों को धारदार बना लिया था जिससे वो पेग बनाता।
फूँकन सिंह ने अनमने ढंग से चाय ले आने का इशारा किया।
“का रे? का बेवस्था है साँझ का?” फूँकन सिंह ने चाय की पहली सुड़की के साथ कहा।
“जी, देसी मुर्गा वास्ते बोल दिए हैं माधो को।” लटकु ने कहा।
“और बोतल रे?” फूँकन सिंह ने कप रखते हुए पूछा।
“जी, ऊ ग्रामसेवक शंभु जी ले के आएँगे आज। एक ठो काम भी था उनको बीडीओ साहब से।” लटकु ने रात का इंतजाम पक्का करते हुए कहा।
अभी-अभी भयंकर गर्म हुए और जल्द ठंढा नहीं होने वाले ठाकुर फूँकन सिंह के खौलते खून को कूल करने की जिम्मेदारी लटकु की थी जिसकी व्यवस्था में वो लग गया था।
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4.

बिरंची मूत्रकांड करके अपने रोज के साथी लखन लोहार की झोपड़ी वाली दुकान की तरफ निकल गया था। लखन लोहार गाँव के एकदम उल्टे छोर पर अपनी फूस की झोपड़ी में लोहारी का छोटा-मोटा काम करता था। हल बनाना, कचिया-हँसुआ बनाना, चाकू-कैंची में धार तेज करना यही सब उसके काम थे। कभी-कभार किसी इंदिरा आवास वाले बनते घर में ढलाई का छड़ बाँधने का भी छिटपुट काम मिल जाता था। बिरंची पूरा गाँव बौखने के बाद अक्सर उसकी झोपड़ी में बैठता। एक तरफ लखन लोहार की भट्‌ठी जलती रहती और दूसरी तरफ गाँजा सुलगता रहता। बिरंची अक्सर बैठ के पिटते हुए लोहे और उस तपती हुई भट्‌ठी को एकटक देखता। जब कभी उसकी आँच कम होती तो खुद भी कोयला डाल देता और पंखा हौंक के उसे तेज कर देता। कभी-कभी तो जलती भट्‌ठी से गर्म कोयले निकाल हथेली पर रख लेता। लखन यह देख कहता, “अरे बिरंची दा, जादा चढ़ गया है का? हाथ जर जाएगा महराज।”
इस पर बिरंची मुस्कुराकर गर्म कोयले को वापस भट्‌ठी में डालते हुए कहता, “बेटा लखन लोहार। पागल नहीं है हम बे। सुनो जलने और तपने में अंतर होता है। हम चलेंगे नहीं।”
बिरंची की ऐसी बातें लखन के सिर के ऊपर से निकल जातीं।
पर लखन बिरंची की इज्जत करता था और उसकी समझ न आने वाली बात भी इतने ध्यान से सुनता और समझने की कोशिश करता, जैसेकि बिना दाँत का आदमी मसूड़े से सुपाड़ी तोड़ने की कोशिश कर रहा हो। बिरंची के प्रति उसके सम्मान का सबसे बड़ा कारण यह था कि एक बी.ए. पास आदमी एक अनपढ़ लोहार के साथ गाँजा पीता था। लखन के लिए इससे अच्छा जमीनी और चिलमनी उदार साथी कौन होता भला!
सच्ची सामाजिक समरसता तो हिन्दुस्तान के गाँव में ही दिखती थी। जहाँ एक ही चिलम से पूरा गाँव गाँजा पी लेता था। यहाँ धुआँ उड़ाते दीवानों के बीच कभी न जाति की दीवार होती थी, न ही विषाणु का जंजाल। एक लंबी टान और फूँक से सब खतरा धुआँ-धुआँ हो जाता था। जात-पात, छुआ-छूत, बीमारियाँ तो होश की बातें थीं। बेसुध मतवाला गाँव स्वर्ग होता था। गाँजा पीते वक्त लखन की झोपड़ी गाँव की सामाजिक समरसता के लिए एक समतामूलक तीर्थस्थली जैसी थी, जहाँ राह से गुजरते पंडित बैरागी पांडेय भी साइकिल से उतरकर भोलेनाथ का जयकारा लगा अपने सामाजिक समरसता के कर्तव्य की एक-दो चिलमटान आहुति देते थे।
भारत के लगभग गाँवों में जात-पात, छुआ-छूत के रहने के बावजूद भी ऐसी दो-चार झोपड़ियाँ मिल ही जाती थीं जो रामराज्य की आदर्श कल्पनाओं का खुला म्यूजियम थीं। यहाँ सभी जाति-पाति के लोग लाख आपसी बैर के बावजूद आपस में हँसी-ठिठोली करते दिख जाते थे। काश! ये होश में भी ऐसे होते तो सच में रामराज आया होता।
रोज की तरह लखन लोहा पीटकर हँसिया बना रहा था कि तभी हाँफता हुआ बिरंची पहुँचा झोपड़ी पर।
“अरे बिरंची दा बड़ा हाँफ रहे हैं। का बात है? कुछ किए का?” लखन ने हथौड़ा रखते हुए पूछा।
बिरंची हँसते हुए सामने पड़ी छोटी बाँस की मचिया पर बैठते हुए बोला, “आज फेर मूत दिए फूँकन सिंह के दीवाल पर।”
लखन तुरंत बोला “अरे दादा, का करते रहते हैं! मूतने से क्या होगा?”
बिरंची ने सामने फटी चटाई के पास पड़ी खैनी की डिब्बी उठाई और उसमें से खैनी निकाल बनाने लगा। कुछ क्षण के बाद खैनी को हथेलियों के बीच रगड़ते हुए बोला
“देखो लखन, पेशाब में नमक होता है। समझे, नमक होता है। अगर रोज किसी दीवाल पर मूतो तो धीरे-धीरे उसमें खोल कर उसे गिरा देता है।”[adinserter block="1"]
लखन की आँख अब स्थिर हो बिरंची के चेहरे पर टिक गई। कान केवल बिरंची को सुन रहे थे, चलती हवा की साँय-साँय भी नहीं। बिरंची अभी किसी समाजशास्त्र के प्रोफेसर की भाँति बोले जा रहा था और लखन किसी रसायनशास्त्र के फ्रेशर विद्यार्थी की भाँति बिना पलक झपके सुन रहा था।
तभी उसके मुँह से निकला, “दीवाल गिरा आए का दादा?”
बिरंची बोला, “भक भोसड़ी के, एक-दो दिन में थोड़े गिरेगा बे। रोज लगना होगा।”
लखन की जिज्ञासा फिर उछली, “सकिएगा गिराने में बिरंची दा?”
बिरंची रगड़ चुकी खैनी को मुँह में डालते हुए बोला,
“देखने में का जाता है! रोज करेंगे। एक न एक दिन तो गिरबे करेगा न। तुम भी साथ दे दो तो जल्दी गिरा देंगे।” लखन तो जैसे पता नहीं किस समाधि को प्राप्त कर चुका था। कई सत्संग में बड़े-बड़े साधु-संतों को भी सुन चुका था लखन, पर पेशाब पर ऐसी निर्मल ज्ञान वाली बात न सुनी थी कभी।
बिरंची इस तरह लखन को मुँह बाए अचरज में बैठा देख हँसा और उसे दोनों हाथों से जोर से झकझोरते हुए बोला, “हा हा हा! का हुआ बे लखना? अरे होश में आओ अब। चलो, साथ दोगे न?”
इतना सुनना था कि लखन ध्यान से उछलकर बोल पड़ा, “ए बिरंची दा। ई महान काम आप ही कर लीजिए। हमको मत जाने बोलिए। हम बाल-बच्चा वाले गरीब आदमी हैं। पकड़ा गए तऽ पेलाऽ जाएँगे।”
दोनों जोर से हँसे।
“जरा पानी पिलाओ हमको अब, बहुत दौड़े हैं आज।” बिरंची ने गमझे से माथा पोंछते हुए कहा।
लखन अपनी बोरी से उठा और घड़े से लोटा भर पानी निकाल बिरंची की तरफ बढ़ाया। बिरंची ने लोटा उठाया। एक साँस में आधा लोटा पानी गटक गया। लोटा रखते ही बिरंची ने फिर बोलना शुरू किया,
“अच्छा, लो पानी से याद आया। हम फूँकन सिंह के आगे वाला नल से ही पानी पी पिछवाड़े कर देते हैं।” बोलते ठहाका मार उछल पड़ा बिरंची। लखन भी जोर से हँसा और बोला “ई तऽ गलत बात है बिरंची दा। आप उसी का पानी पी उसी पर कर देते हैं। ई तऽ नमकहरामी हो जाएगा दादा।”[adinserter block="1"]
“अबे झाँट नमकहरामी होगा लखन बाबू। पूरा गाँव के सब चापानल खराब है, एक भी नहीं बनवाया फूँकन सिंह। ऊपर से अपने दुआर पर दो ठो नल गड़वा लिया है पी.एचडी विभाग से बोलकर। आधा गाँव फूँकन सिंह के दुआर से पानी लेता है। निचलका टोला से दिन भर बहू-बेटी जाती हैं पानी लाने तऽ कभी बैठ के ताड़ेगा तऽ कभी कुछो टोक बोल देगा। ई सब नय दिखता है तुमलोग को?”
पर लखन भी आज अपनी सारी जिज्ञासा शांत ही कर लेना चाहता था शायद। झट से बोला,
“लेकिन पानी तो है फूँकने सिंह का न। ऊ ऊहो न दे पानी लेने तऽ पानी बिन मर जाए आधा गाँव।” इतना बोल उसने जलती भट्‌ठी में एक लोहे का टुकड़ा गर्म करने को डाला। इधर जैसे बिरंची गर्म होकर धधक गया। आँखें लाल हो गईं अचनाक। वो अपनी बाँस की मचिया लेकर लखन के और करीब सट गया और बोलना शुरू किया,
“किसका पानी? किसी के बाप का पानी है का? पानी तो धरती के नीचे है और सबका है। अरे ऊ तऽ हमारे हिस्से का पानी अपना चापाकल लगा निकाल रहा है और हमारे घर की बहू-बेटी लाइन लगैले है उसके दुआर पर। साला फ्री के सिनेमा देखता है ऊ दुआर पर। चाहे तो सारा चापानल बनवा देता गाँव का, पर नहीं करता है। कोई बात नहीं, हम तो जो कर सकते हैं, करबे करेंगे न। मूत देते हैं साले के दीवार पर।” बोल के एक लंबी साँस ली बिरंची ने।
“बाप रे! एतना दिमाग नहीं है बिरंची दा हमरे पास।” लखन ने भट्‌ठी हौंकते हुए कहा।
बिरंची भी अब मूड बदलना चाहता था। उसने जेब से चिलम निकाला और बगल में रखे लोटे से पानी ले उसे धोया। एक गँजेड़ी अपने चिलम को ऐसे धो-पोंछ और लाल कपड़े से लपेटकर रखता था जैसे वो कोई चलता-फिरता भैरव जी का मंदिर हो।
“सुनो, छोड़ो अब बकचोदी। बूटी निकालो।” बिरंची ने कुर्ते से चिलम पोंछते हुए कहा। बूटी का अर्थ गाँजे से था। अक्सर गाँव में लोग गाँजा को बूटी, संजीवनी या प्रसाद जैसे पबित्तर और महिमामयी संज्ञा से ही विभूषित कर उसे बड़ी पवित्रता और पुष्ट नैतिकता से लेते-देते थे। लखन भट्‌ठी छोड़ उठा और कोने पर रखी बाल्टी से पानी ले अपना पैर-हाथ धोया। फिर गमझे से पोंछ वापस अपनी बोरी पर आया। और बोरी के नीचे से एक पुड़िया निकाल बिरंची की तरफ बढ़ाया। उसने जिस श्रद्धा से हाथ-पाँव धो-पोंछ दाहिने हाथ में पुड़िया ले उसे बाएँ हाथ से स्पर्श कर बढ़ाया। इतनी श्रद्धा और पवित्रता से कि बहुत-से लोग शायद देवताओं की संझा-बाती भी न करते होंगे।
बिरंची ने पुड़िया खोल बूटी को हथेली पर लिया और उसे थोड़ा साफ करने और चुनने बिनने लगा। उसकी यह तन्मयता देख चावल से कंकड़ चुनती कुशल गृहणी भी लजा जाती। तभी लखन ने आखिरकर फिर एक सवाल दाग दिया, “अच्छा एक ठो लास्ट बात पूछें बिरंची दा?”
“लास्ट काहे। जेतना पूछना है पूछो, हम मर थोड़े रहे हैं अभी।” बिरंची ने हथेली में बूटी मसलते हुए कहा।
लखन बोला, “ई बताइए, ये फूँकन सिंह के दीवाल गिराने से क्या होगा! इसका का फायदा?”
“भक बे साला भकलोल! हाँ इससे देश का प्रधानमंत्री थोड़े बदल जाएगा। देश थोड़े बदल जाएगा बे!” बिरंची ने हँसते हुए कहा।[adinserter block="1"]
लखन तुरंत बोला, “वही तो, का फायदा देवाल गिरने से! ई पागलपंती का क्या फायदा?”
अबकी लखन ने असल में चिलम से पहले बिरंची को सुलगा दिया था। बिरंची ने मिनट भर कुछ नहीं कहा। गाँजे को चिलम में भरा, माचिस मारा और एक लंबी फूँक मारी। फिर दूसरी फूँक से पहिले जोर से जय भोलेनाथ का एक झोपड़ीभेदी जयकारा लगाया। अगर बस घंटी बजा दी जाती तो लगता ही नहीं कि दो गँजेड़ी गाँजा पी रहे हैं, लगता कैलाश पर्वत पर साक्षात शंकर जी नंदी के संग सुबह का नाश्ता कर रहे हैं।
दो-तीन फूँक लेने के बाद पूरी झोपड़ी दिव्य धुएँ से भर गई थी। एकदम आर्गेनिक धुआँ। अब चिलम लखन की तरफ बढ़ा दिया बिरंची ने और मचिया से उतर बोरे पर पसरकर बैठ गया।
“हाँ तो का पूछे थे लखन कुमार, का फायदा दिवाल गिराने से? तो सुनो, दीवार गिरा देने से गाँव की भूखी बकरी को प्रधान जी के गार्डेन का हरा घास मिल जाएगा खाने, आम और अमरूद का हरा पत्ता मिल जाएगा खाने। दीवाल गिर जाने से लगना महतो के भुखल भैंस को पुआल मिल जाएगा खाने जो फूँकन सिंह के हाता में पड़ल सड़ता रहता है। चमरटोली की मुनिया और चँदवा जैसी छोटकी बचिया के बेला और गेंदा का फूल मिल जाएगा बाल में लगाने के लिए। फाटल पैंट पकड़ गुल्ली डंडा खेलते बच्चों को आँधी में दौड़ के चुनने के लिए आम मिल जाएगा। मीठा एकदम गछपक्कू आम। दीवार गिर जाने से, जैसे हम सबके बहू-बेटी को फूँकन अपने दुआर देखता टोकता है, हम सब भी इनके घर देख पाएँगे। चाची को प्रणाम करेंगे, भौजी को प्रणाम कर पाएँगे। अबे एतना कुछ हो जाएगा एक दीवाल गिरने से, ई का कम है बे। और तुम कहते हो क्या होगा दीवाल गिरने से?”
लखन ने कुछ बहुत ज्यादा न समझते हुए भी हाँ में सिर हिलाया और ऐसा जताया कि जैसे उसे सब बातें समझ में आ गई हैं और वो सहमत भी है।
सुबह से गप्प करते-करते कब दुपहर भी ढल गई और शाम आने को हो गई पता भी नहीं चला। गाँवों में अक्सर पहर बीतते हुए शोर नहीं मचाता। सुबह से शाम इठलाते हुए हो जाती है। आज बिरंची के दर्शनशास्त्र वाले मूत्रविशेष प्रवचन के चक्कर में लखन दुपहर का भोजन भी करना भूल गया था। आज दोनों फलाहार में रह गए केवल बूटी लेकर।
“अरे केतना बज गया रे लखन?” बिरंची अचानक बोला।
“लीजिए, साढ़े तीन बजने लगा, कैसे बज गया हो?” लखन पीछे बाँस पर टँगी घड़ी देख बोला।
“हाय रे! तुम हमरे फेर में खाना भी नय खा पाया।” बिरंची मचिया से उछलता हुआ बोला।
“आज एतना चीज खिला दिए आप, का का समझा के। भूख एकदम बुझाया ही नहीं।” लखन बाल्टी में लोटा डालते हुए बोला।[adinserter block="1"]
दोनों को भूख का ध्यान ही न रहा था। असल में पीठ पर दिन भर के काम का बोझ और मेहनत की चाबुक पड़ने से उपजी भूख पेट पर जोर देती है, दर्द देती है इसलिए मजदूर छूटते ही रोटी की तरफ दौड़ता है। यहाँ तो पड़ते हथौड़े और गर्म भट्‌ठी की धौंक से पल-पल पेशाब और दीवार के बहाने विचारों की चिंगारी फूट रही थी। पेट बिरंची के जलते मस्तिष्क के आगे शांत बैठा था। सारी हलचल दिमाग में थी, पेट में एक गुड़गुडी भी नहीं उठी आज। बिरंची विद्वान बौद्ध भिक्षुक नागसेन की तरह बोलता और लखन यूनानी राजा मिनांदर की भाँति सुने जा रहा था। लखन की झोपड़ी में तो आज जैसे नया मिलिंदपाहों रचा जा रहा था।

5.

समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था। किसी को ढोते हुए तो किसी को जोतते हुए। गाँव में जिंदगी एक गाय थी और संघर्ष उसका चारा। इसके अलावा चारा भी क्या था! एक बात थी कि भले सुविधाएँ चाहे कम या मंद गति से पहुँची थीं गाँव में, पर प्रकृति ने अपनी ओर से इतने मन से गाँव को सजाया था कि शहरों की लाखों बत्तियाँ और रोपे गए कृत्रिम सजावटी पार्क कभी उसका मुकाबला नहीं कर सकते थे।
मलखानपुर सहित पूरे इलाके में अभी बसंत चढ़ ही रहा था और फगुनाहट की आहट आने लगी थी। आम के बौर इत्र की तरह गमक रहे थे। पलाश के लाल नारंगी फूल अपना शामियाना तानने की तैयारी में थे। कोयलों ने कुहुक-कुहुक विविध भारती गाना शुरू कर दिया था। गाँव के पूरब में एक कचनार का पेड़ था। जब जब पूरवईया बहती, पूरब से चली हवा गाँव के पश्चिम-उत्तर-दक्षिण तीनों, कोने के पोर-पोर गमका देती।
एक ऐसे ही गमकउआ मौसम में गाँव का गणेशी महतो अपनी सायकिल से चले जा रहा था। सीधे लखन की झोंपड़ी के पास रुकी उसकी सायकिल।
“आइए गणेशी चचा, आप ही का कुदाल बना रहे थे। खुरपी तो तैयार कर दिए।” लखन ने गणेशी महतो को देखते ही कहा।
“अरे हाँ। ऐ लखन, तनी आज साँझ तक दे दो बेटा, अलुआ कोड़ना है कल भोरे से।”
गणेशी महतो, गाँव के ही निचलका टोला में रहने वाला किसान आदमी था। उम्र यही कोई 60 बरस के करीब सटने को थी। लगभग 6-7 बीघे की खेती थी। मेहनती आदमी था। खुद से खेती कर जिंदगी की गाड़ी किसी तरह खींच ले रहा था। खेती से इतना हो जाता था कि दो टाइम एक सब्जी के साथ भात-रोटी आराम से खा सके और पर्व त्योहार में चमचमुआ कुर्ता के साथ नई धोती पहन मेला घूमने जा सके। बड़ी उम्र में हुआ एक 20-22 वर्ष का बेटा था, नाम रोहित महतो। उसको भी अभी इंटर तक पढ़ा चुका था गणेशी महतो। आगे की पढ़ाई करना या न करना बेटे पर ही छोड़ रखा था।
इस बार आलू की फसल अच्छी हुई थी। गणेशी महतो कुछ सहयोगी मजदूर खोजने निकला था जो सुबह आलू कोड़ने में उसकी मदद कर सकें।[adinserter block="1"]
बेटे रोहित की खेती-बाड़ी या घर के काम में हाथ बँटाने की इच्छा कभी रही नहीं और न गणेशी महतो ने उसे इसमें घसीटने की जबरदस्ती की।
एक अकेला बेटा था और वो भी जवानी की सीढ़ी चढ़ता नौजवान लड़का। इस देश में चाहे अमीर का बेटा हो या चाहे किसान-मजदूर का, पर इकलौता होने का जो विशिष्टबोध होता है वो सब में समान होता है। उसके सारे नाज-नखरों का औसत समान होता है। फसल वृद्धि से ज्यादा वंश वृद्धि की फिक्र में गणेशी महतों जैसा किसान पिता भी बेटे को इकलौते होने के आनंद भाव से साराबोर हो वो सब कुछ करने की छूट दे देता है जो शायद उसकी औकात से बाहर का भी हो। रोहित के रहन-सहन की शैली गणेशी महतो की कल्पनाओं से आगे की थी। डिजाइनदार जींस पर चाइनीज कॉलर की शर्ट और सफेद जूता पहने रोहित को हरदम टिप-टॉप अंदाज में देख गणेशी अक्सर खेतों में गमछे से पसीना पोंछ रोहित में अपना चमचमाता फैशन भरा भविष्य देख मन-ही-मन बड़ा सुकून पाता था।
अपने दादा-बाप की ही परंपरा से खेती कर ठेहुने भर की धोती में जिंदगी निकाल देने वाले गणेशी महतो के लिए बेटे के तन पे जींस तक का सफर एक बार तो दिन बदलने का संतोष दे ही देता था। रोहित अपने मिजाज में गणेशी की खेती-बाड़ी की विरासत का विद्रोही था। उसके टोले के अन्य हमउम्र जहाँ खेत में बाप संग हल जोत रहे होते, वो गाँव के संपन्न घर के हमउम्र साथियों संग किसी लाइन होटल वाले ढाबे पर दाल तड़का और मछली पर कुरकुरी रोटी तोड़ रहा होता। पिछले 4 साल से इंटर पास कर आगे की पढ़ाई का प्लान बना रहा था और इसी गंभीर योजना पर विमर्श हेतु रोज सुबह 10 बजे निकलता और रात को 10 बजे घर पहुँचता। दिन भर अपने दोस्तों की बाइक पर पीछे बैठ सिर पर टोपी लगा जब वो गाँव की कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाते, गाना गाते निकलता तो कोई भी देखने वाला आसानी से कह सकता था कि भारत दुनिया में सबसे खुशहाल किसानों वाला देश है। जीवन भर हल चला किसी तरह जीवन का हल निकाल घर चलाने वाले गणेशी का बेटा लगभग हर तरह की बाइक पर सफर कर चुका था जो गाँव के अन्य शोहदे लड़कों ने अपने-अपने बाप से पैसा वसूल, खरीद रखा था। हालाँकि, रोहित अभी खुद बाइक चलाना नहीं जानता था पर सीखने की प्रबल इच्छा थी। कई बार दोस्तों से कहा पर शायद उसे नहीं पता था कि बड़े घर के लड़के अपनी लगाम छोटों के हाथ नहीं सौंपते। उसे हमेशा पीछे बैठना ही नसीब था अब तक।
गणेशी महतो जब अपने बेटे रोहित को गाँव के अन्य संपन्न लाडलों की संगत में उठता-बैठता देखता तो उसे लगता कि आखिर उसने अपने भविष्य को इस खेत के कादो-कीचड़ से निकाल पक्की जमीन पर खड़ा कर ही दिया जहाँ बाइक है, ढाबा है, बड़े घरों में आना-जाना है। रोहित का कुछ तो ऐसे लड़कों से भी संबंध था जिन लड़कों को उनके बाप के रसूख के कारण गणेशी महतो ही प्रणाम करता था और वे लड़के गणेशी महतो को महतो कह पुकारते। कुछ ऐसे भी थोड़े प्रगतिशील बालक थे जो दोस्त के पिता होने के कारण गणेशी को चाचा बुलाते थे पर बाद में उन्होंने अपने बचपन की नादानी सुधार ली।
पर चाहे जो हो, इन लड़कों के साथ अपने प्रिय रोहित को बराबरी में बैठता, खाता, पीता देख गणेशी अपना वर्तमान और भविष्य दोनों सार्थक समझता।
उधर गणेशी महतो बगल के देहात से आलू कोड़ने को दो आदमी जुगाड़ कर वापसी में लखन के पास से खुरपी-कुदाल लिए वापस घर आ गया था। रोहित का एक दोस्त उसे बाइक से छोड़ने आया था। बाइक स्ट्रार्ट ही थी और दोस्त बोले जा रहा था,
“आज ठीक नहीं किया दीपू तुम्हारे साथ। साला, एतना बेज्जती जरा-सा बात के लिए! हम तो नय बरदाश्त करते यार।”
रोहित ने हाथ बाइक के हैंडल पर धरे कहा “अच्छा देखना न हम भी बता देंगे उसको अपना औकात। हम भी असली कुर्मी हैं।”
गणेशी दोनों की बात सुनकर भी अनसुनी कर अंदर चला गया। वो जानता था बड़े संगत में छोटी-मोटी बात तो होती रहती होगी और फिर उसका बेटा भी तो इतने बड़े-बड़े संबंध निभाता है। ऐसे में मुझ जैसे छोटे आदमी के बीच में घुसने का कोई मतलब नहीं।
तब तक बाहर से बाइक के फुर्र से निकलने की आवाज आई और रोहित घर के अंदर आकर खाट पर बैठ गया था।
“का बात है? कौनों टेंशन है का?” गणेशी ने कुदाल में बेंत की लकड़ी डालते हुए पूछा।
“कोय टेंशन नय है। टेंशन का रहेगा! ई कुछ लोग बड़ा होने का घमंड देखाता है हमको। छोड़िए न हम देख लेंगे। ऐ माय खाना लगाओ।”
रोहित ने खटिया पर बैठे-बैठे जूता उतार के फेंकते हुए कहा।
मुँह से खाना शब्द निकला ही था कि माँ थरिया लिए दौड़ी रोहित की ओर। थाली में पड़ी ठंढी रोटी छूते ही रोहित का मूड गर्म हो गया।
“का ठंढा रोटी दे देती हो! साला का खाएँ खाना ई घर में!”
माँ ने हँसते हुए कहा, “अब बिहा कर लो। जनानी आएगी, वही खिला देगी गरम-गरम बना के।”
यह सुनते गणेशी महतो ने भी हँसते हुए एक सुर में कहा, “एकदम ठीक बोले। उमर हो गया अब जिम्मेदारी लेने का। गृहस्थ जीवन टाइमे पर ठीक लगता भी है।”[adinserter block="1"]
रोहित यह सब सुनने के लिए घर नहीं आया था। वो बगल वाली कोठरी में घुस चौकी पर लगे अपने बिस्तर पर लेट गया। पीछे-पीछे माँ रोटी गर्म कर ले आई। रोहित ने चुपचाप बिना किसी ना-नुकुर के खा लिया और वापस लेट गया।
तड़के सुबह उठ गणेशी महतो कुदाल खुरपी ले आलू कोड़ने खेत की तरफ निकल गया। वहाँ पहले से दोनों आदमी भी पहुँच चुके थे। बड़ी मुश्किल से बगल देहात के अपने साढ़ू के लड़कों को समझा-बुझाकर लाया था गणेशी महतो। असल में काम ज्यादा था और अगर जल्दी आलू निकाल मंडी पहुँचा देता तो अभी नये आलू के अच्छे दाम मिल जाते। मजदूर तो मिलने से रहे और रोहित खेत आता नहीं! ऐसे में अपने संबंधों में से ही मान-मनुहार कर आदमी जुगाड़ करना पड़ा था, गणेशी महतो को। बदले में गणेशी को भी उनकी फसल बोआई के समय मदद करने जाना तय हुआ था। गणेशी अपने साढ़ू के दोनों लड़कों के साथ आलू निकालने में भिड़ गया। गणेशी ने आज जाना था, मुश्किलों में अपने नहीं, साढ़ू के बच्चे काम आते हैं। खेत में काम करते करीब दो-तीन घंटे बीत चुके थे। सुबह का सूरज अब धीरे-धीर गर्म हो चला था कि तभी गणेशी की नजर दूर से खेत की तरफ आते रोहित पर पड़ी।
“अरे वाह! आज तऽ रोहित भी आ गया खेत।” गणेशी ने खुरपी मेढ़ पर रखते हुए पानी की बाल्टी की तरफ जाते हुए कहा।
“आएगा काहे नहीं! अब बड़ा हो गया है! जिम्मेदारी समझ आने लगता है ई उमर में।” गणेशी के साढ़ू के लड़के ने आलू बोरी में भरते हुए कहा।
तब तक रोहित खेत के किनारे पहुँच चुका था। वो अब आलू भरी एक बोरी पर बैठ गया और मुँह से नाखून कतरने लगा। गणेशी ने उसके बैठते ही पूछा, “अरे का हुआ। तुमहुँ पहुँच गए आलू कोड़ने? बाह! चलो, जल्दी समेटा जाएगा तब तो काम।”
रोहित हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ तुरंत बोरी से उठा और गणेशी के करीब आके बोला, “बाबू जी, एक ठो बात बोलना था आपसे।”
“हाँ बोलो न” गणेशी ने गमझे से मुँह पोंछते हुए कहा।
“देखिए इज्जत का सबाल है। और इज्जत से ज्यादा है कि काम का बात है। इससे आपको भी फायदा होगा।”
“का इज्जत। का फायदा? राते से तुम मुँह फुलइले है। कुछू बोलवो तऽ करो।”
इस बार रोहित एक झटके से बोला, “जी उ हमको मोटरसायकिल खरीदना है।” गणेशी महतो आलू की बोरी सर उठाए किनारे कर रहा था पर यह सुनते वहीं बोरी हाथ से छूट गई।
“का, मोटरसायकिल! का रोहित का जरूरत है इसका अभी?” गणेशी रोहित की तरफ देखकर बोला।
“देखिए बाबू, ई खरीदना होगा। साला कल संपुरन भगत का लड़का दिपुआ बीच बाजार बेज्जत कर दिया बीस आदमी के सामने। बोला औकात है तऽ अपना मोटरसायकिल खरीद के चलाव। ई बार आलू बेच के पहला काम जा के मोटर सायकिल खरीदना है।” रोहित हाथ में दो-तीन नये आलू उठाते हुए बोला।
“अरे बेटा, अब जरा-जरा-सा बात पर मोटरसायकिल खरीदना ठीक है का?” गणेशी महतो ने सब समझते हुए भी समझाते हुए कहा। तब तक गणेशी के साढ़ू के दोनों लड़के भी पास आ गए।[adinserter block="1"]
“का करें? ठीक रहेगा का मोटरसायकिल लेना?” गणेशी ने जनमत वाले अंदाज में उनसे पूछा।
“देखिए मौसा, आज के टाइम में एक ठो गाड़ी तऽ घर में होना ही चाहिए। आने-जाने का मरजेंसी में बहुत जरूरत पड़ता है गाड़ी का।” एक लड़के ने रोहित के पक्ष में बिना फीस लिए वकील की तरह जोरदार वकालत में कहा। अब रोहित को मौसेरे भाइयों का साथ मिल गया था।
“वही तो। घर के खातिर ही जोर दे रहे हैं खरीदने का। फसल भी मंडी ले जाना हो तऽ मोटरसायकिल से आराम से चल जाएगा। तीन पाकेट आलू या सरसों आराम से जाता है मोटर सायकिल पर।” रोहित ने बाइक के घरेलू और कृषि संबंधी विभिन्न उपयोग पर प्रकाश डालते हुए कहा।
“ठीक है। अब हम का बोलें! एक तऽ इज्जत वाला बात, आ दुसरा कि जब सब कह रहा है कि एतना जरूरी चीज है, तऽ ठीके है। खरीद लेना। ई आलू निकलने दो। इसको बेच खरीद लेना। और का बोलेंगे!” गणेशी ने कुदाल उठाते हुए कहा।
इतना सुनते ही रोहित के चेहरे पर खुशी की लहर हिलोर मार उसे लाल कर गई। उसने मन-ही-मन संपुरन भगत के लड़के को परास्त कर दिया था। वो मुट्‌ठी भींच नाच रहा था मन-ही-मन।
मारे खुशी के हाथ में दो नये आलू उठा उसे उछालकर कैच करता पैदल जब फलाँग मार खेत से निकला तो लगा जैसे फूल और काँटे फिल्म में अजय देवगन बाइक से स्टंट करता निकला है। गणेशी महतो हाथ में कुदाल लिए एकटक उसे खेत से दूर जाता देख रहा था। गणेशी निर्णय नहीं ले पा रहा था कि वो अभी क्या करे। बेटे की इज्जत और मन की लाज रख लेने की खुशी मनाए या कमाने से पहले तय हो गए खर्च पर किलसे? गणेशी ने बिना किसी निष्कर्ष पर पहुँचे पानी भरी बाल्टी के पास रखे लोटे से भर लोटा पानी पिया और खेत में वापस काम पर लग गया। वो कुदाल की चोट के साथ अब मोटरसायकिल कोड़ के निकाल रहा था।
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6.

रोज की सुबह की तरह मुरारी की चाय दुकान पर जगदीश यादव, बैजनाथ और बैरागी पंडी जी एक ही अखबार के अलग-अलग पन्ने लिए देश-दुनिया की खबरों को अपने-अपने स्वर में पढ़े जा रहे थे। गाँव में अक्सर ऐसे लोग मिल जाते जो अखबार को जोर-जोर से बोलकर पढ़ते। इस लाउडस्पीकरी सस्वर पाठ के पीछे उनका एक सामाजिक दायित्वबोध होता कि बाकी लोगों को बिना अखबार पढ़े अधिक-से-अधिक जानकारी मिल जाए।
“लीजिए, पढ़िए समाचार! नकली दूध पकड़ने वाला मशीन बन गया है!” जगदीश यादव ने लगभग सबको जागरूक करते हुए ऊँचे स्वर में कहा।
दूध-दही से संबंधित एकदम घरेलू समाचार को सुनते सभी जगदीश यादव की तरफ देखने लगे।
“कैसे पकड़ता है?” बैजनाथ ने लुँगी उठा पैर को बेंच पर ऊपर समेटते हुए पूछा।
सारे लोग मशीन के बारे में आगे की कहानी जानने को उत्सुक थे।
जगदीश यादव ने लगभग मिनट भर बड़े ध्यान से बुदबुदाते हुए समाचार को पढ़ा और गंभीर हो बोले,
“इसमें ऐसा सिस्टम लगाया है कि मशीन को भर बाल्टी दूध में डूबा दीजिए और फिर चेक कर लीजिए। अगर मिलावट हुआ तो लाल बत्ती जल जाएगा और दूध असली हुआ तो हरा बत्ती। मने एक बूँद भी पानी हुआ तऽ खटाक लाल बत्ती जल जाएगा।”
इतना सुनना था कि मुरारी के दोनों कान खड़े हो गए।
उसे यह समाचार उसकी निजता का हनन जैसा लगा था।
क्योंकि अभी थोड़ी देर पहले ही तो उसने अपने बेहद निजी क्षणों में खुशी-खुशी तीन लीटर दूध में दो लीटर पानी फेंटा था। यह बात अलग थी कि उसी अर्धपानीश्वर दूध को वो जब मिट्‌टी के कंतरे में घंटों खौलाता तो उसकी सोंधी खुशबू सौ फीसदी वाले असली दूध पर भारी पड़ती थी। अब उसे लग रहा था कि उसका यह खास हुनर ऐसी ही कोई मशीन पकड़ न ले एक दिन।
तब तक लड्‌डन मियाँ भी पहुँच चुके थे। उसने एक कनखिया मुस्कान के साथ मुरारी को देखा।
मुरारी ने मुँह घुमा अपनी आँखें चाय के खौलते पतीले की तरफ कर ली।
तभी खैनी का डिब्बा निकाल बैरागी पंडी जी ने उत्सुकता के चरम को छूते हुए पूछा, “दाम कितना है इसका?”
यह सवाल पूछते वक्त पंडी जी जिस गंभीरता से सैनी रगड़ रहे और देख रहे थे कि लग रहा था अगर दाम ठीक-ठाक रेंज में रहा तो पंडी जी अभी के अभी यह मशीन खरीद न आएँ।
“अच्छा ये लोहा का है कि अल्मुनियम का?” बैजनाथ ने मशीन के तकनीकी बनावट से संबंधित सवाल पूछा।
“15 हजार दाम है इसका। लोहा कैसे होगा मर्दे, दूध में लोहा घुसेगा तो फट न जाएगा जी दूध। फोटो दिया है, देखिए न सब लोग भाई। हमको तो अल्मुनियम भी नहीं, कोनो मजबूत फाइबर बुझाता है।” जगदीश यादव ने एक अनुभवी धातुकर्म विशेषज्ञ की तरह बताया।
इन सब चर्चाओं के बीच मुरारी चुपचाप अपने ग्राहकों को चाय दिए जा रहा था। बीच-बीच में हुलककर अखबार में उस मशीन की फोटो देख लेने की कोशिश भी कर ले रहा था।
आज ऐसा पहली बार था कि जब वो अपनी दुकान पर हो रही चर्चा में शामिल नहीं था। वो तो मन-ही-मन बस यह सोच रहा था कि कहीं गलती से भी ये मशीन कोई गाँव में न ले आए। साला! साला, सब लाके हमरे ही भगोना में डुबो देंगे मशीनवा को।[adinserter block="1"]
मुरारी इसी अकल्पनीय भय से मुरझाया चाय बेच रहा था। एक ऐसा भय जिसका संभव होना असंभव था। पर भय तभी तक ही तो भय है जब तक कि प्रकट न हो जाए। जब प्रकट हो ही गया तो फिर भय कैसा! फिर तो सामना करना होता है वत्स।
गप्प की पूँछ और लंबी हुई जा रही थी कि तभी गणेशी वहाँ सायकिल लिए पहुँचा। गमझे से पसीना पोंछ सबको राम राम किया।
“का गणेशी दादा, आलू कोड़ा गया?” देखते ही बैजनाथ ने पूछा।
“हाँ बैजनाथ, आलू तऽ मोटा-मोटी कोड़ लिए। बड़ा खटनी हो जाता है। अकेले ई किसानी पार नहीं लगने वाला अब। अब तऽ न जन मजदूर मिलता है न ही सस्ता खाद बीज। साढ़ू के लड़का को पकड़ के लाए तब जा के आलू निकाले कोड़ के।” गणेशी ने ऊँघती आवाज में कहा।
“अरे तुम्हरा लड़कवा भी तो है?” बैरागी पंडी जी ने सार्थक सवाल दागा।
“आजकल के लईका-बच्चा खेत में जाना चाहता है का पंडी जी? हम भी बोले कि छोड़ो भाई, पढ़ा-लिखा के काहे आलू कोड़वाएँ खेत में। हम तो चाहते हैं पढ़-लिख कहीं छोटा-मोटा भी नौकरी पकड़ ले तो ई किसानी से जान छूटे। अब किसानी में कुछ रखा नहीं है पंडी जी। ऊपर से हमरे लड़कवा का संगत भी एतना हाय-फाय हो गया है कि अब उससे कुदाल-खुरपी छुअल भी नहीं जाता है।” गणेशी ने दास्तान-ए-किसानी और किस्सा-ए-बेटा सुनाते हुए कहा।
इतना सुनते ही बैरागी पंडी जी का भी बैराग्य फूट पड़ा जैसे।
“हाँ, ठीक कहे गणेशी। नया जुग का लड़का पुराना काम नहीं करना चाहता है भाई। हमारा लड़का भी बोला कि पूजा-पाठ का धंधा नहीं होगा हमसे। बताइए, ब्राह्मण के संस्कार को धंधा कहता है। हम भी बोले कि जाओ साला, जब ले हम हैं धर्म-कर्म निभा देते हैं। लड़का को जो दूसरा काम-पानी देखना होगा देखेगा। इतना जजमानी कोई नहीं संभालने वाला। जाएगा ये सब, का करेंगे कपार पीट के।” बैरागी पंडी जी ने भी अपना दर्द साझा करते हुए कहा।
“चाय पीना है का गणेशी दा?” जगदीश यादव ने अपनी ओर से धीमी आवाज में पूछा।
गणेशी तक शायद आवाज नहीं ही पहुँची थी।
एक लंबी साँस लिए गणेशी अब अपने आने के प्रयोजन पर बोला, “अरे सुनिए न सब लोग। हम एक सलाह लेने आए हैं आप लोग से हो। ई हमारा लड़कवा जिद कर दिया है एक ठो मोटरसायकिल वास्ते। अब ई बताइए कौन कंपनी के गाड़ी ठीक रहेगा?”[adinserter block="1"]
“बड़ा तगड़ा आलू हुआ है अबकी गणेशी चाचा के।” बड़ी देर बाद हँसते हुए बोलता दिखा मुरारी।
गणेशी पहले तो जरा-सा झेंपा और फिर हँसते हुए बोला,
“अरे नहीं मुरारी। उ कल लड्‌डूआ के बड़ा बेजत्ती कर दिया सिकंदरपुर के कुछ लड़का सब। संपूरन भगत के लड़कवा है कोई, उहे कह दिया कि अपना गाड़ी खरीदने का औकात नहीं है तऽ दूसरे के मोटरसायकिल पर काहे चढ़ते हो? दूसरा कऽ गाड़ी प फुटानी न करो। यही सब उल्टा-पुल्टा खूब बोला है। अब एतना भी बेजत्ती कोई सहेगा हो? खाना-पीना सब छोड़ले है घर में लड़कवा हमार। हम बोले चलो खरीद लो भाई। पैसा साला इजत से बढ़ के थोड़े है। गाड़ी भी घर-दुआर के काम ही तऽ आएगा।”
“ओ हो तो ई बात है! एकदम, एकदम खरीदिए साला, काम ताम छोड़िए। साला जब इज्त्ते नहीं रहेगा तऽ पैसा जमा करके का होगा चाचा। जान लीजिए, फसल एक बार खराब हो जाए तऽ अगले साल फेर उग आएगा लेकिन इज्जत एक बार खराब हो गया तऽ दुबारा नहीं ठीक होता है।” मुरारी ने जोरदार समर्थन कर इज्जत के महत्व को जिस आक्रामक अंदाज में सुनाया कि गणेशी महतो की खुली मुट्‌ठी बँध गई।
दिन भर गाँव में इज्जत के एक शब्द सुनने को तरस जाने वाले गणेशी को सभी ने मिल आज इज्जत की मोटरसायकिल पर चढ़ा दिया था। मुरारी के चूल्हे से निकले कोयले के धुएँ के आँख में जाने के बाद भी गणेशी ने पलक नहीं झपकाया। उसकी आँखों में अब इज्जत बचाने का मिशन था। उसे अपने निर्णय पर भितरे-भीतर भयंकर फख्र होने लगा था। अंदर खुशी थी और बाहर चेहरे पर मोटरसायकिल खरीदने की गंभीरता।
वहाँ बैठे सभी लोगों ने इस मुद्‌दे पे अपना खुला समर्थन दे गणेशी के मोटरसायकिल खरीदने के निर्णय को एकदम संपुष्ट कर दिया। बैरागी पंडी जी ने तो पूरा इज्जत पुराण बाँचते हुए बकायदा कई धार्मिक प्रसंग कहे कि कैसे कुल की मर्यादा और सम्मान हेतु कितने देवताओं और महापुरुषों ने भी सब कुछ दाँव पर लगा दिए थे। कितने त्याग और बलिदान किए। यहाँ तो गणेशी का काम बड़े सस्ते में निपट जाना था।
केवल एक साल के आलू की फसल की ही तो बात थी।
इस महँगाई के जमाने में भी मात्र तीस-चालीस हजार में कुल की मर्यादा बच जाए और क्या चाहिए एक आम आदमी को! अब गणेशी बेटे से ज्यादा उतावला हो चुका था।
“ये बताइए आप लोग कि कौन गाड़ी लें? सस्ता में बढ़िया बताइए।” गणेशी ने अधीर होकर पूछा।
“बजाज लीजिए, बेजोड़ अभरेज है।” बैजनाथ ने तपाक से कहा।[adinserter block="1"]
“अरे भक्क्क, एकदम नहीं। गाड़ी साल भर में झनझना जाएगा। खटहरा हो जाएगा।” मुरारी ने बताया।
“आँख मूँद के हीरो हौंडा लीजिए आप। जब चाहिए बेच दीजिए, पौने दाम में बिकेगा। रिसेल भेलु बहुत है हीरो हौंडा का।” बहुत देर से खैनी रगड़ रहे लड्‌डन मियाँ ने खैनी गणेशी की तरफ बढ़ाते हुए कहा।
लगभग सभी का जोर इस बात पर ज्यादा था कि कौन-सी कंपनी की गाड़ी लेने के बाद उसे बाद में बेचने पर दाम ठीक-ठाक मिल जाएगा। असल में गाँवों के देश भारत में मानसून भारतीय कृषि के साथ जुआ है यह बात ऐसे ही नहीं कही जाती। यहाँ कब किस वर्ष का मानसून किसान को मोटरसायकिल खरीदवा दे और किस बार खरीदा हुआ बिकवा दे, कोई नहीं जानता। शायद इस बात की एक स्वाभाविक समझदारी गाँव के किसानों, मजदूरों या छोटे-मोटे कामगारों के दिमाग में स्वतः घुसी हुई थी।
कुल-मिलाकर हीरो होंडा के सीडी डॉन बाइक का खरीदना तय कर दिया गया। यह मत सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया कि जल्द-से-जल्द बाइक खरीद सिकंदरपुर जा संपूरन भगत को खबर कर जवाब दे ही दिया जाए। संपूरन भगत के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव को सेलिब्रेट करने के लिए सबके लिए गणेशी की तरफ से चाय का ऑर्डर दिया गया।
सभी अभी चाय के कप पकड़े ही थे कि घर्र-घर्र करती एक काली राजदूत मोटरसायकिल ठीक दुकान के सामने खड़ी हुई।
जगदीश यादव ने अदब से उठकर प्रणाम किया। बाकी लोगों ने भी अभिवादन किया।
यह कामता प्रसाद थे। हाई स्कूल में इतिहास के शिक्षक थे। अभी भी गाँव के समाज में शिक्षकों के लिए एक विशेष सम्मान का भाव बचा-खुचा था। उसमें भी कामता बाबू तो पढ़े-लिखे शिक्षकों में थे। अक्सर लोग चर्चा करते, डबल एम.ए. किए हैं।
इससे पहले बस हाल ही में सिकंदरपुर के प्राइमरी स्कूल से प्रधानाध्यापक के पद से रिटायर हुए चंद्रभूषण बाबू के बारे में ही कहा-सुना जाता था कि डबल एम.ए. हैं।
गाँव-देहात में अक्सर ठीक-ठाक पढ़े और स्नातक, स्नातकोत्तर कर लिए आदमी के साथ डबल तो अपने-आप ही जुड़ जाता था।
यह लोग एक बार एम.ए. करने के बाद फिर दूसरी बार एम.ए. क्यों करते थे यह रहस्य कोई न जान पाया था, न कोई पूछता था उनसे। यह भी एक संयोग ही था कि ऐसे अधिकतर विद्वतजन बस स्कूल से लेकर जिला कार्यालय में किरानी तक के ही पद पर पाए जाते थे।
ऐसे लोगों को अंग्रेजी का भी थोड़ा इल्म होता था। यह लोग अँग्रेजी भले न बोल पाएँ पर अंग्रेजी ग्रामर पर पकड़ का इनको भयंकर आत्मविश्वास होता था और यही बात इनको गाँव-समाज में विशेष स्थान दिला देने के लिए काफी थी।
प्रजेंट टेंस, पास्ट टेंस और फ्यूचर टेंस का इस्तेमाल कर ट्रांसलेशन बनाने की इनकी पकड़ उतनी ही मजबूत होती थी जितनी गेंद को स्पिन कराने में अनिल कुंबले की।
इन सब योग्यताओं से लैस कामता बाबू कई विषयों के ज्ञाता थे। भले एक हाई स्कूल में शिक्षक हों पर देश-दुनिया की तमाम खबरों में रुचि रखना और पढ़ना उनकी आदत में था। एक पुत्र और एक पुत्री के पिता कामता प्रसाद ने अपने बच्चों की शिक्षा पर खास ध्यान दिया था।[adinserter block="1"]
पढ़ाई-लिखाई के प्रति इसी सजगता का नतीजा था कि उनका बेटा शेखर राजनीतिशास्त्र में एम.ए. करते हुए दिल्ली के एक सम्मानित विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था और बेटी विद्या बनारस के किसी विश्वविद्यालय में।
“प्रणाम सर, आइए बैठिए। बड़ा जल्दी निकल दिए हैं! कहाँ का जतरा है?” जगदीश यादव ने खड़े-खड़े ही पूछा।
“अरे प्रणाम प्रणाम, बैठिए सब। अरे का बताएँ यादव जी। उधर कुछ दिन वाइफ के इलाज के लिए दिल्ली चले गए थे। इधर साला जिला शिक्षा अधिकारी घुस गया स्कूल और अपसेंटी मार दिया हमारा। कार्यवाही के लिए भी लिख दिया। अब वही खबर भिजवाया है कि आ के साहेब से मिल सब किलियर कर लीजिए जल्दी, नहीं तो बाद में बात बढ़ा तो ज्यादा खर्चा हो जाएगा। नौकरी का तीन-चार साल बचा है, नहीं चाहते हैं कि कोनो दाग लगे लास्ट-लास्ट में।” कामता बाबू बेंच पर बैठते हुए बोले।
“आपका रेकाड बेदाग रहा है सर। खुदे अधिकारी किया होगा का डबल एमे? वैसे ई जिला शिक्षा अधिकारी भला आदमी है सर, जैसा कि हम सुने हैं। पैसा भी जेनवीन ही लेता है। तंग नहीं करता है। एक-दो मास्टर साब तो 6 महीना अपसेंटी मार के भी मिले थे इनसे। बेचारा किलियर कर दिया। नहीं किया तंग।” जगदीश यादव ने एक भले अधिकारी के परोपकार का किस्सा सुनाते हुए कहा।
“हाँ, अब भाई फँसे हैं तो देना ही होगा, चाहे अधिकारी जैसा हो। खैर, और का हाल हो गणेशी लाल? इंटर तऽ पास कर गया न बेटा”? कामता बाबू ने गणेशी की तरफ देखते हुए इज्जत और बाइक की चर्चा से इतर अपने मिजाज का सवाल पूछा।
“हाँ मास्टर साब, आप सब के आशीर्वाद से इंटर कर लिया पिछलहिं साल। दू बार में किया लेकिन कर लिया। अभी तऽ उसी का चर्चा हो रहा था। एक मोटरसायकिल खरीदने का जिद कर दिया है। उसी खातिर थोड़ा जानकारी के लिए आए थे यहाँ।” गणेशी ने अपने लक्ष्य और योजना पर से बिना हिले-डुले कहा।
“वाह! चस्का लग गया तुम्हरे भी बेटा को, आँय! हाँ, देखते हैं हरदम घूमता रहता है कुछ हीरो लड़का लोग के साथ। ई सब तो ठीक है गणेशी लाल। लेकिन पढ़ा-लिखा लो बेटा को। बड़ा मुश्किल से तो आज कोई किसान, मजदूर, गरीब-गरूआ का लड़का पढ़ लिख पा रहा है। अगर कुछ पूँजी है तो पढ़ाई में लगा दो। एक बार लगाओगे तो जीवन भर लाभ पाओगे। शिक्षा से ज्यादा मूल्यवान कोई फसल नहीं है गणेशी।” इतना कहते हुए कामता बाबू अपनी मोटरसायकिल तक पहुँच चुके थे। सबने तब तक चाय पी ली थी। गणेशी के गिलास में चाय आधी बची रह गई थी। वो एकटक मोटरसायकिल से जाते कामता बाबू को देख रहा था। उनके ओझल होते उसने बची ठंडी चाय एक बार में गटकी और खाली कप बेंच के नीचे रख अपनी साइकिल ली और चुपचाप निकल गया। शिक्षा सबसे मूल्यवान फसल है, यह अभी-अभी जाना था गणेशी ने। लेकिन अब करता भी क्या बेचारा! एक ही जमीन थी और उसमें वो मोटरसायकिल बो चुका था।

7.

शाम खेत से काम निपटा गणेशी महतो आज जल्दी ही घर पहुँच चुका था। बरामदे पर कुदाल-खुरपी रख बाल्टी से पानी ले पहले मुँह हाथ धोया। तब तक पत्नी रमनी देवी को आवाज लगा चाय बनाने को बोल दिया।
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Q. औघड़ / Aughad किताब के लेखक कौन है?
Answer.   नीलोत्पल मृणाल / Nilotpal Mrinal  
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