पुस्तक का विवरण (Description of Book of अभिज्ञान शाकुन्तल / Abhigyan Shakuntal PDF Download) :-
नाम 📖 | अभिज्ञान शाकुन्तल / Abhigyan Shakuntal PDF Download |
लेखक 🖊️ | महाकवि कालिदास / Mahakavi Kalidas |
आकार | 3.0 MB |
कुल पृष्ठ | 100 |
भाषा | Hindi |
श्रेणी | उपन्यास / Upnyas-Novel, साहित्य |
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कालिदास संस्कृत साहित्य के सबसे बड़े कवि हैं। उन्होंने तीन काव्य और तीन नाटक लिखे हैं। उनके ये काव्य 'रघुवंश', 'कुमार सम्भव' और 'मेघदूत' हैं और नाटक अभिज्ञान शाकुन्तल', 'मालविकाग्निमित्र' और 'विक्रमोर्वशीय' हैं। इनके अतिरिक्त 'ऋतुसंहार' भी कालिदास का ही लिखा हुआ माना जाता है। इतना ही नहीं, लगभग पैंतीस अन्य पुस्तकें भी कालिदास रचित कही जाती हैं। ये सब रचनाएँ कालिदास रचित हैं अथवा नहीं, यहाँ इस विवाद में न पड़कर हम केवल कालिदास के काव्य-सौन्दर्य पर एक दृष्टिपात भर करने लगे हैं। इन तीन नाटकों और तीन काव्यों को तो असंदिग्ध रूप से कालिदास रचित ही माना जाता है।
कालिदास का स्थान और काल
विद्वानों में इस बात पर ही गहरा मतभेद है कि यह कालिदास कौन थे? कहाँ के रहने वाले थे? और कालिदास नाम का एक ही कवि था, अथवा इस नाम के कई कवि हो चुके हैं? कुछ विद्वानों ने कालिदास को उज्जयिनी निवासी माना है, क्योंकि उनकी रचनाओं में उज्जयिनी, महाकाल, मालवदेश तथा क्षिप्रा आदि के वर्णन अनेक स्थानों पर और विस्तारपूर्वक हुए हैं। परन्तु दूसरी ओर हिमालय, गंगा और हिमालय की उपत्यकाओं का वर्णन भी कालिदास ने विस्तार से और रसमग्न होकर किया है। इससे कुछ विद्वानों का विचार है कि ये महाकवि हिमालय के आसपास के रहने वाले थे। बंगाल के विद्वानों ने कालिदास को बंगाली सिद्ध करने का प्रयत्न किया है और कुछ लोगों ने उन्हें कश्मीरी बतलाया है। इस विषय में निश्चय के साथ कुछ भी कह पाना कठिन है कि कालिदास कहाँ के निवासी थे। भारतीय कवियों की परम्परा के अनुसार उन्होंने अपने परिचय के लिए अपने इतने बड़े साहित्य में कहीं एक पंक्ति भी नहीं लिखी। कालिदास ने जिन-जिन स्थानों का विशेष रूप से वर्णन किया है, उनके आधार पर केवल इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि कालिदास ने उन स्थानों को भली भाँति देखा था। इस प्रकार के स्थान एक नहीं, अनेक हैं; और वे एक-दूसरे से काफी दूर-दूर हैं। फिर भी कालिदास का अनुराग दो स्थानों की ओर विशेष रूप से लक्षित होता है: एक उज्जयिनी और दूसरे हिमालय की उपत्यका। इससे मोटे तौर पर इतना अनुमान किया जा सकता है कि कालिदास के जीवन का पर्याप्त समय इन दोनों स्थानों में व्यतीत हुआ होगा। और यदि हम इस जनश्रुति में सत्य का कुछ भी अंश मानें कि कालिदास विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में से एक थे, तो हमारे लिए यह अनुमान करना और सुगम हो जाएगा कि उनका यौवनकाल उज्जयिनी के महाराज विक्रमादित्य की राजसभा में व्यतीत हुआ। विक्रमादित्य उज्जयिनी के नरेश कहे जाते हैं। यद्यपि कालिदास की ही भाँति विद्वानों में महाराज विक्रमादित्य के विषय में भी उतना ही गहरा मतभेद है; किन्तु इस सम्बन्ध में अविच्छिन्न रूप से चली आ रही विक्रम संवत् की अखिल भारतीय परम्परा हमारा कुछ मार्गदर्शन कर सकती है। पक्के ऐतिहासिक विवादग्रस्त प्रमाणों की ओर न जाकर इन जनश्रुतियों के आधार पर यह माना जा सकता है कि कालिदास अब से लगभग 2,000 वर्ष पूर्व उज्जयिनी के महाराज विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में से एक थे। परन्तु विक्रमादित्य की राजसभा में कालिदास का होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उनका जन्म भी उज्जयिनी में ही हुआ था। उच्चकोटि के कलाकारों को गुणग्राहक राजाओं का आश्रय प्राप्त करने के लिए अपनी जन्मभूमि को त्यागकर दूर-दूर जाना पड़ता ही है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि मेघदूत के यक्ष कालिदास स्वयं हैं और उन्होंने जो सन्देश मेघ को दूत बनाकर भेजा है, वह उनके अपने घर की ओर ही भेजा गया है। मेघदूत का यह मेघ विन्ध्याचल से चलकर आम्रकूट पर्वत पर होता हुआ रेवा नदी पर पहुँचा है। वहाँ से दशार्ण देश, जहाँ की राजधानी विदिशा थी, और वहाँ से उज्जयिनी। कवि ने लिखा है कि उज्जयिनी यद्यपि मेघ के मार्ग में न पड़ेगी, फिर भी उज्जयिनी के प्रति कवि का इतना आग्रह है कि उसके लिए मेघ को थोड़ा-सा मार्ग लम्बा करके भी जाना ही चाहिए। उज्जयिनी का वर्णन मेघदूत में विस्तार से है। उज्जयिनी चलकर मेघ का मार्ग गम्भीरा नदी, देवगिरि पर्वत, चर्मण्वती नदी, दशपुर, कुरुक्षेत्र और कनखल तक पहुँचा है, और वहाँ से आगे अलकापुरी चला गया है। यह कनखल इसलिए भी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है, क्योंकि 'अभिज्ञान शाकुन्तल' की सारी कथा कनखल से लगभग पन्द्रह-बीस मील दूर मालिनी नदी के तीर पर कण्वाश्रम में घटित होती हैं। कालिदास ने अपने सभी काव्यों गंगा और हिमालय का एकसाथ वर्णन किया है। इससे प्रतीत होता है कि कालिदास का हिमालय के उन स्थानों के प्रति विशेष मोह था, जहाँ हिमालय और गंगा साथ-साथ हैं। इस दृष्टि से यह कनखल का प्रदेश ही एकमात्र ऐसा प्रदेश है, जहाँ गंगा, हिमालय, मालिनी नदी पास ही पास आ जाती हैं। यह ठीक निश्चय कर पाना कि कालिदास किस विशिष्ट नगर या गाँव के निवासी थे, शायद बहुत कठिन हो। किन्तु इस कनखल के आसपास के प्रदेश के प्रति कालिदास का वैसा ही प्रेम दिखाई पड़ता है, जैसा कि व्यक्ति को उन प्रदेशों के प्रति होता है, जहाँ उसने अपना बाल्यकाल बिताया होता है। वहाँ की प्रत्येक वस्तु रमणीय और सुन्दर प्रतीत होती है।
कालिदास के आदर्श
कालिदास आदर्शोन्मुख कवि हैं। यद्यपि उनकी रचनाओं में हमें शृंगार का विशद और विस्तृत चित्रण मिलता है, किन्तु वह इसलिए कि प्रेम और शृंगार की भावना मनुष्य की तीव्रतम और गम्भीरतम भावनाओं में से एक है। परन्तु जिस प्रकार मानव जीवन शृंगार मात्र नहीं, उसी प्रकार कालिदास के काव्य की परिसमाप्ति शृंगार पर नहीं हो जाती। उनकी समाप्ति जाकर होती है वैराग्य पर। हमारी भारतीय संस्कृति में मानव जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास, इन चार भागों में बाँटा गया है। बाल्यकाल प्रभात के समान अरुण और मधुर होता है। यौवन नए प्रकाश और उज्ज्वल आनन्द तथा उमंगों से भरपूर होता है। अपराह्न का समय उष्णता की दृष्टि से कुछ परिपाक और कुछ विश्राम का समय होता है। अन्त में संध्या की गैरिक आभा समस्त पृथ्वी और आकाश को चरम वैराग्य के रंग में रंग देती है। कालिदास ने इसी आदर्श को जीवन प्रणाली का आदर्श माना है।
वनों और पर्वतों से प्रेम
कालिदास में वनों और पर्वतों के प्रति एक विलक्षण मोह दिखाई पड़ता है। नगरों के वर्णन से यह प्रकट होता है कि वे सम्पन्न और समृद्ध नगरों में रहे थे। किन्तु उनका मन बार-बार वनों और पर्वतों की ओर दौड़ उठने को अधीर रहता है। लगता है कि उनका बाल्यकाल वनों और पर्वतों में ही व्यतीत हुआ था, जिससे इनका सौन्दर्य उनके हृदय पर गहरी छाप छोड़ गया। यही कारण है कि उनके सभी काव्यों में अभीष्ट की सिद्धि हिमालय की तराई के वनों और हिमालय के पर्वतशिखरों पर जाकर होती है। 'मेघदूत' का यक्ष अपनी प्रियतमा के पास सन्देश हिमालय की अलकापुरी में ही भेजता है। उसके सपनों की रानी हिमालय में ही निवास करती है। 'कुमारसम्भव' की तो सारी कथा ही हिमालय की रंगभूमि पर घटित होती है। दुष्यन्त को अनुपम सुन्दरी शकुन्तला जैसा रत्न प्राप्त करने के लिए हिमालय की तराई में जाना पड़ता है और 'रघुवंश' के महाराज दिलीप को सन्तान प्राप्ति की इच्छा से वशिष्ठ मुनि के आश्रम में जाकर तपस्या करनी पड़ती है।
भौगोलिक ज्ञान
कालिदास के वर्णन भौगोलिक दृष्टि से सत्य और स्वाभाविक होते हैं। जिस स्थान और जिस काल का यह वर्णन करते हैं, उसमें सत्यता और औचित्य रहता है। उन्होंने पूर्वी समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों में ताड़ के वनों, महेन्द्र पर्वत पर नागवल्ली के पत्तों और नारियल के आसव व केरल में मुरला नदी के निकट केतकी के फूलों का उल्लेख किया है। भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त में अंगूर के बागों के काश्मीर प्रदेश में केसर और हिमालय के प्रदेशों में भोजपत्र, कस्तूरी, चीड़ और देवदारु के वर्णन किए गए हैं। लौहित्य नदी के पार कामरूप देश में अगरु के वृक्षों का उल्लेख है। ये सारे वर्णन भौगोलिक दृष्टि से यथार्थ हैं।
कालिदास शिव उपासक थे। अपने सभी ग्रन्थों के प्रारम्भ में उन्होंने शिव की स्तुति की है। फिर भी यह आश्चर्य की बात जान पड़ती है कि जिन शिव-पार्वती को उन्होंने अपने 'रघुवंश' में जगत् का माता-पिता कहा है, उनका ही विस्तृत संयोग-शृंगार का वर्णन उन्होंने 'कुमारसम्भव' में कैसे कर दिया!
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हमने अभिज्ञान शाकुन्तल / Abhigyan Shakuntal PDF Book Free में डाउनलोड करने के लिए लिंक नीचे दिया है , जहाँ से आप आसानी से PDF अपने मोबाइल और कंप्यूटर में Save कर सकते है। इस क़िताब का साइज 3.0 MB है और कुल पेजों की संख्या 100 है। इस PDF की भाषा हिंदी है। इस पुस्तक के लेखक महाकवि कालिदास / Mahakavi Kalidas हैं। यह बिलकुल मुफ्त है और आपको इसे डाउनलोड करने के लिए कोई भी चार्ज नहीं देना होगा। यह किताब PDF में अच्छी quality में है जिससे आपको पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। आशा करते है कि आपको हमारी यह कोशिश पसंद आएगी और आप अपने परिवार और दोस्तों के साथ अभिज्ञान शाकुन्तल / Abhigyan Shakuntal को जरूर शेयर करेंगे। धन्यवाद।।Answer. महाकवि कालिदास / Mahakavi Kalidas
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