अकेलापन और निर्भरता | Akelapan Aur Nirbharta PDF Download Free in this Post from Google Drive Link and Telegram Link , आचार्य प्रशांत / Acharya Prashant all Hindi PDF Books Download Free, अकेलापन और निर्भरता | Akelapan Aur Nirbharta PDF in Hindi, अकेलापन और निर्भरता | Akelapan Aur Nirbharta Summary, अकेलापन और निर्भरता | Akelapan Aur Nirbharta book Review
पुस्तक का विवरण (Description of Book अकेलापन और निर्भरता | Akelapan Aur Nirbharta PDF Download) :-
नाम : | अकेलापन और निर्भरता | Akelapan Aur Nirbharta Book PDF Download |
लेखक : | आचार्य प्रशांत / Acharya Prashant |
आकार : | 2.5 MB |
कुल पृष्ठ : | 175 |
श्रेणी : | व्यक्तित्व विकास / Personality Development |
भाषा : | हिंदी | Hindi |
Download Link | Working |
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अकेलेपन का डर हमें अक्सर हमारे जीवन को अन्य वस्तुओं से भरने पर मजबूर कर देता है। वहीं से उन वस्तुओं के प्रति आसक्ति का जन्म होता है, जिसके कारण हमें जीवन में न जाने कितना दुःख भोगना पड़ता है।
यदि इस डर को गहराई से समझा जाए तो जीवन सरल और बोधपूर्ण हो जाएगा।
यह किताब हमें उस डर के पार ले जाने का एक प्रयास है।
The fear of loneliness often compels us to fill our lives with other things. From there, attachment towards those things is born, due to which we have to suffer many sorrows in life.
If this fear is understood deeply then life will become simple and sensible.
This book is an attempt to take us beyond that fear.
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पुस्तक का कुछ अंश (अकेलापन और निर्भरता | Akelapan Aur Nirbharta PDF Download)
सामग्रियाँ
आचार्य प्रशांत
१. अकेलापन क्यों महसूस होता है?
२. इतना क्यों लिपटते हो दुनिया से?
३. अकेले रहने में डर और परेशानी?
४. अकेलेपन से घबराहट क्यों?
५. सारा जहाँ मस्त, मैं अकेला त्रस्त
६. किसको मान रहे हो अपना?
७. किसी के साथ रहने पर अकेलापन दूर क्यों होता है?
८. क्या शादी करने से अकेलापन दूर हो जाएगा
९. इस अकेलेपन की वजह और अंजाम जानती हैं ?
१०. पति-पत्नी को साथ रहना ही है, तो ऐसे रहें
११. निर्णय के लिए दूसरों पर निर्भरता
१२. जो जितना निर्भर दूसरों पर, वो उतना चिंतित अपनी छवि को लेकर
१३. दूसरों पर निर्भर रहना बंद करो
१४. सचमुच इतने मजबूर हो कि सुधर नहीं सकते?
१५. जीवन के सुख-दुःख क्या भाग्य पर निर्भर करते हैं?
१६. बाहरी घटनाएँ अन्दर तक हिला जाती हैं?
१७. योजना, अकेलापन और बुद्धत्व
१८. जिन्हें अकेलापन जकड़ता हो
१९. आओ तुम्हें जवानी सिखाएँ
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१. अकेलापन क्यों महसूस होता है?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं सांस भी लेता हूँ तो हवा शरीर के अंदर जा रही है, हवा कोई और है, तो ऐसे तो मैं कभी अकेला हो ही नहीं सकता।
आचार्य प्रशांत: सांस किसके अंदर जा रही है?
प्रश्नकर्ता: शरीर के अंदर जा रही है।
आचार्य प्रशांत: तो शरीर तो अकेला हो ही नहीं सकता।
प्रश्नकर्ता: तो अगर मैं कहूँ कि मुझे अकेले रहना पसंद है तो मैं सबसे पहले तो खुद से ही झूठ बोल रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: उससे पहले तुम और बड़ा झूठ बोल चुके हो कि तुम शरीर हो। पहले खुद ही परिभाषित करते हो कि ‘मैं शरीर हूँ’ और हवा मेरे साथ है, फिर कहते हो इससे सिद्ध होता है कि मैं कभी अकेला हो ही नहीं सकता।
जो तुम्हारे पूरे तर्क का आधार है, पहले उसको तो परख लो। शरीर कभी अकेला होता है क्या?
जब हम अकेलेपन की बात कर रहे हैं तो किसकी बात कर रहे हैं?
प्रश्नकर्ता: मन की।
आचार्य प्रशांत: शरीर कैसे अकेला हो जाएगा? तुम्हें दिखाई पड़ रहा है कितने करोड़ जीवाणु अभी शरीर पर चिपके हुए हैं? चलो, शरीर से तुम धो भी दो, तुम्हें पता है तुम्हारी आंतों में कितने करोड़ जीवाणु निवास करते हैं? तुम पूरा एक शहर हो, एक देश हो। तुम्हारे भीतर करोड़ों की जनसंख्या बैठी हुई है, तुम अकेले कहाँ से हो गए? शरीर कैसे अकेला हो जाएगा? तुम्हारे भीतर एक घनी जनसंख्या बैठी हुई है। शरीर नहीं अकेला होता। शरीर न अकेला होता है, न दुकेला होता है। जब अकेलेपन की बात की जाती है तो वहाँ पर शरीर के आयाम की बात की ही नहीं जा रही। मन अगर भीड़ से घिरा हुआ है तो ‘मन’ अकेला नहीं है। मन पर अगर हावी है कुछ भी, तो ‘मन’ अकेला नहीं है।
प्रश्नकर्ता: वह चाहे कुछ भी हो?
आचार्य प्रशांत: कुछ भी।[adinserter block=”1″]
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अगर केंद्र मन के ऊपर है तो उस समय हम कह सकते हैं कि मन अकेला है?
आचार्य प्रशांत: मन में जितनी बातें उथल-पुथल मचा रही हैं, तुम उतने घिरे हुए हो, बात इतनी सीधी-सादी है।
यहाँ बैठे हुए हो तो सिर्फ कुछ लोग हैं आस-पास। स्थूल नज़र से देखोगे तो कहोगे—“यहाँ मैं एक छोटी-सी भीड़ का हिस्सा हूँ”। हो सकता है तुम वहाँ गंगा किनारे जाकर बैठ जाओ और वहाँ तुमको घर-परिवार-दफ्तर-बाज़ार, पूरा समाज—ये काम, वो काम, ये ज़िम्मेदारी, वो याद, वो लक्ष्य—सब ख्याल आ रहे हों। तो वहाँ बैठने से ज़्यादा अकेले तुम तब थे, जब यहाँ थे। आ रही है बात समझ में? यहाँ बैठे हो तो देखने से ऐसा लग रहा है कि एक दल में हो। लेकिन यहाँ पर अगर चुप हो, शांत हो, तो यहाँ ज़्यादा अकेले हो, वनस्पत के जब तुम गंगा किनारे अकेले बैठे थे।
जो लोग कहते हैं—‘साहब! हमें अकेले रहना पसंद है’, वो अक्सर सबसे ज़्यादा भीड़ में जी रहे होते हैं। क्योंकि उनके पास एक पूरी भीड़ होती है (अपने सर की तरफ इशारा करते हुए) और वो उससे इतने घिरे होते हैं क्योंकि उससे बाहर निकलने का मौका ही नहीं है। पहले ही भीड़ में हो, तो और लोगों को वह अपने जीवन में प्रवेश ही नहीं दे पाते। अब कमरे में बैठे हुए हैं, और उनके साथ अट्ठारह लोग हैं कहाँ पर? यहाँ पर (अपने सर की तरफ इशारा करते हुए), तो कमरे के बाहर जो लोग हैं, वह उनसे मिलेंगे ही नहीं। फिर वो क्या कहेंगे? मुझे अकेले रहना पसंद है। अरे! तुम्हें अकेले रहना पसंद नहीं है। तुम भीड़ से इतना घिरे हुए हो कि अब तुम किसी से मिल ही नहीं पा रहे। तुम्हारे पास जगह ही नहीं है।
ज़्यादातर यह जो अकेलेवाद के अनुयाई होते हैं, वह यही होते हैं।
प्रश्नकर्ता: तो यह कैसे पता चलेगा कि मुझे अकेले रहना पसंद है या नहीं है? मैं किस मोड में हूँ?
आचार्य प्रशांत: मैंने कहा था न जब भी कभी कर्म को आंकना हो, तो एक विधि लगा लेना, जान लेना कि—मन की मंशा क्या है? चाहते क्या हो? सिर्फ उसी से निर्धारण हो जाना है। जो तुम्हारा लक्ष्य है, वही तुम्हारा केंद्र है—दोनों एक साथ चलते हैं बिलकुल। जो तुम चाह रहे हो, वहीं से चाहत उठती है। जो करने जा रहे हो, उसी ने पहले आकर तुम्हारे कर्म को ऊर्जा दी है।[adinserter block=”1″]
तुम भागे जा रहे हो किसी लड़की से। शारीरिक तौर पर तो ऐसा लगेगा कि अभी मिलोगे भविष्य में कुछ देर के बाद—हुआ यह है कि उसने पहले तुम्हारे ख्यालों में आकर के तुम्हारे पांवों को ऊर्जा दी है। पहले वह तुम्हारे भीतर आई है (मन के भीतर), अब तुम उसकी ओर शारीरिक रूप से भाग रहे हो। तो जो तुम्हारा लक्ष्य होता है, वही तुम्हारा केंद्र होता है। लक्ष्य को पकड़ लो, केंद्र को जान जाओगे।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो लोग अपने लक्ष्यों को निर्धारित कर के चलते हैं, क्या वह केंद्रित होते हैं?
आचार्य प्रशांत: तुम भागे जा रहे हो रोटी की तलाश में, तो अभी तुम्हारा केंद्र क्या है? शरीर। क्योंकि रोटी किसको चाहिए? शरीर को। तो जो लोग रोटी के लिए बहुत तड़पते हैं, वह समझ जाएँ कि उनके केंद्र में क्या बैठा हुआ है? शरीर भाव।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप जितनी भी बातें बताते हैं, उनको हम सुनते हैं, समझते हैं। अगर उनमें से सर्वाधिक एक-दो बातें निकाली जाएँ, तो मुझे लगता है सबसे ज़्यादा ‘ईमानदारी’ की ही बात आएगी। तो ‘ईमानदारी’ जो शब्द है, जिसको अन्यथा या अन्य तरीकों से हम प्रयोग करते हैं, यह वह ईमानदारी तो है नहीं जो आमतौर पर प्रयोग में आती है कि सौ रुपए लिए तो सौ रुपए लौटा दिए। तो मुझे धीरे-धीरे कुछ दिनों में यह बात खुली कि ईमानदारी होती क्या है—समझ को कार्य में परिणित करो। परंतु वह बहुत ऊर्जा माँगती है।
वास्तव में मैं यह पूछना चाह रहा हूँ कि ईमानदार रहना इतना मुश्किल क्यों है?
आचार्य प्रशांत: वह ठीक उस वजह से मुश्किल मालूम पड़ता है, जिस वजह से तुम कह रहे हो एक-दो सारगर्भित बातें। जब तुम कह रहे हो कि सारी बातों में से एक-दो बातें सारगर्भित हैं, तो तुम देख रहे हो कि तुम क्या कर रहे हो? तुम अपने ऊपर ज़िम्मेदारी ले रहे हो कि शब्दों के इस झुंड में से मैं एक-दो बातें अपने लिए चुनूँगा। अब मेहनत करनी पड़ेगी न, अब अपनी ही बुद्धि पर निर्भर हो गए। लगा दी अकल! जितना अपने ऊपर लोगे, उतना मुश्किल होता जाएगा।
प्रश्नकर्ता: कुछ ऐसे भी क्षण होते हैं, जब मन यह तर्क रखता है कि क्यों?[adinserter block=”1″]
आचार्य प्रशांत: अच्छी बात है कि मन यह तर्क रखता है कि “क्यों?”। तो जितनी शक्ति हो, उसका पूरा इस्तेमाल करके उत्तर दो न। ऐसा नहीं है कि तुम जानते नहीं। जैसे यह बता रहे हो कि मन सवाल करता है—“क्यों?”, वैसे ही यह भी बताओ कि जवाब मौजूद है। सवाल हमें बता देते हो, जवाब भी तो बता दो। नहीं तो फिर सिर्फ़ सवाल की बात करना तो समस्या मात्र को प्रोत्साहन देना है। समस्या बता दूँगा और समाधान जो मेरे सामने है, उसको छुपा दूँगा।
प्रश्नकर्ता: सवाल जो मन का होता है, वह यह होता है कि ईमानदार क्यों होना है? ईमानदारी है जो बुला रही है, कुछ करना है, लेकिन वह इस सिस्टम को तोड़ रही है। मन कहता है कि ठीक है न रहने देते हैं, लेकिन आप कह रहे हैं कि उसको जवाब भी दो। वह जवाब बहुत ज़रूरी होता है, लेकिन वह बहुत धीमा होता है। और जो सवाल होता है, वह बड़ा स्थूल होता है कि “ऐसा क्यों?”।
आचार्य प्रशांत: जो यह धीमा जवाब होता है, वह सवाल के ऊपर का होता है। अंतर नहीं पड़ रहा है कि उसकी आवाज़ कितने ज़ोर की है। वह ऊपर के तल का है, वह नीचे वाले को खुद निर्धारित कर देगा।
लिखा हो उन्नीस (19)। अगर ग़ौर से नहीं देखोगे तो तुम्हें क्या दिखेगा? उन्नीस में ज़्यादा बड़ी कीमत किसकी है—‘एक’ की या ‘नौ’ की? तुम कह दोगे ‘नौ’ की। पर अगर ग़ौर से देखोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि जो छोटा सा ‘एक’ है, उसकी ज़्यादा बड़ी कीमत है ‘नौ’ से। क्योंकि वह ऊपर के तल पर बैठा है। ‘एक’ बड़ा कि ‘नौ’? तुम कह दोगे ‘नौ’। बात गलत है! उस छोटे से ‘एक’ को किसी बहुत बड़े का सहारा है। उसे शून्य का सहारा है। जब ‘एक’ को ‘शून्य’ का सहारा मिल जाता है, तब वह ‘नौ’ से बड़ा हो जाता है। इसी लिए शून्यता के क़रीब जाना चाहिए।[adinserter block=”1″]
और इसमें कोई हेय बात नहीं हो गई कि वहाँ सिर्फ एक नदी थी। अगर सिर्फ एक नदी थी और उसमें छप-छप कर रहे हो, गोते खा रहे हो, तो वह भी अपनेआप में ‘पवित्र’ बात है, उसमें भी एक ‘सैक्रेडनेस’ है। सेक्रेडनेस यही नहीं होती कि जाकर आरती उतार रहे हो और कह रहे हो—“माँ गंगा! माँ गंगा!”। जल के साथ आनंद में हो, यह अपनेआप में बड़े प्रेम और सम्मान की बात है। उसके लिए कोई मंत्र नहीं पढ़ने पड़ते, कोई पूजन नहीं करना पड़ता। आनंद अपनेआप में पूजन है।
२. इतना क्यों लिपटते हो दु…..
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